Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1100
________________ . .. . - . ९५६ उत्तराध्ययनसो एर गौतमनक्ति की मुनि माहमूलम्-साह गोम | पणा ते छिन्नो में संतओ इमों । नमो"ते" ससयाईया, सव्वेसुत्तमहोदही | ॥५॥ छाया-साधुगातम ! ममा ते, रिनो मे सगयोऽयम् । नमस्ते सशयातीत !, सर्पमत्रमहोदधे ! ॥८५|| टीका-'साहु' इत्यादि-- हे गौतम ! ते मज्ञा साधु शोभना अस्ति । मे-मम अय सशय, छिन्नः। हे सशयातीत ! हे सन्देहरहित ! हे सर्वमूत्रमहोदये ! हे सफलसिद्धान्तसमुद्र ! ते तुभ्य नम नमस्कारोऽन्तु! ॥८५|| ततः केशी मुनिर्यत्कृतवान्तदाह सूत्रकारो गाथाद्वयेनमृलम्-एवतुं ससए छिन्ने, केसी घोरपरकमे। अभिवदित्ता सिरसा, गोयंमं तु महायंस ॥८६॥ पच महव्वयधम्म, पडिवैजइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमम्मि, मैग्गे तत्थे सुहावहे ॥८७॥ छाया--एव तु सशये न्नेि, केशी घोरपराक्रमः। अभिवन्द्य शिरसा, गौतम तु महायशसम् ॥८६॥ 'मारीरमाणसे' इत्यादि से चारहर्वा प्रश्न यह बताता है कि-इसी माग से मोक्षरूप स्थान की प्राप्ति होती ह अन्य से नही ।१२। इस प्रकार इन बारह १२ प्रश्नों का समन्वय जानना चाहिये ॥८४॥ केशी श्रमण कहते है-'साहु' इत्यादि । हे गौतम ! आप की प्रज्ञा यहुत ही अच्छी है। मेरा सशय आपने दूर किया है अतः हे सशयातीत ! तथा सरसत्रमहोदधि स्वरूप । आपके लिये मेरा नमस्कार है ॥८॥ "सारीरमाणसे त्याहिया मारमा प्रश्न ये मतावे मग मागो भाक्ष રૂપ સ્થાનની પ્રાપ્તિ થાય છે અન્ય સ્થાનોની નહી (૧ર આ પ્રકાથી એ બાર ૧૨ અને સમન્વય જાણ જોઈએ ૮૪ अशी श्रमा ४ छ-"साह" इत्यादि। હે ગૌતમ આપની પ્રજ્ઞા ઘણી જ સારી છે મારે સ શિય હવે આપે દૂર કરેલ છે આથી હે સ થયાતીત ! તથા સર્વસૂત્ર મહેદાધ સ્વરૂપ ! આપને મારા નમસ્કાર છે li૮પા

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