Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदशिनी टीका अ. २१ एकातच या समुद्रपालदृष्टान्त दुस्तर समुद्रामवतरित्ता-उत्ताई अपुनरागमनास्ति पुनरागमः आवर्तन यस्मातन्मोक्षस्प स्थान गत = सिद्धि प्राप्त इत्यर्थः । 'इति प्रीमि' इत्यस्यार्थः पूर्वपद् यो यः ॥२४॥ इतिश्री-विश्वरिग्यात-जगहल्लभ-प्रसिद्धवाचक-पञ्चदशभापाकलितललितम्लापा लापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यनैकग्रन्यनिर्मापर-बादिमानमर्दक-गाहटत्रपति-कोल्हा पुर-राजप्रदत्त-'जनशास्त्राचार्य' पदभूपित-कोल्हापुरराजगुरु-पालब्रह्मचारि जैनाचार्य-जैनधर्मदिवाकर-पूज्य श्री पासीलालप्रतिविरचितायामुत्तराययनम्नस्य प्रियदर्शिन्यायाया व्यारयाया महानिर्ग्रन्यीय
नामैकगितितममभ्ययन सम्पूर्णम् । महामवीध तरित्या) दुस्तर समुद्र के समान इस महान ससारसमुद्र को पार करके (अपुणागम गा-अपुनरागम गत) मुक्तिम्थान स्प अपुनरागमस्थान को प्राप्त करलिया। हे जम्बू । (त्ति बेमि-इति ब्रवीमि) जैमा मने वीर प्रभु के मुग्व से मुना है वैमा ही तुमसे कहता ह॥॥
इस प्रकार इक्कीसवाँ अध्ययन सपूर्ण हुमा २१॥ समुद्र मिव महाभवीय तरित्या स्तर समुद्र समान म. महान सभाममदने पा२४ीन अपणागम गए-अपुनरागम गत• भुस्तिस्यान भूत अपुनरागम स्थानने भारत सीधु न्यू ! ति चेमि-उति ब्रीमि पु में पी२अमुना भुमेधी सामन्यु छ એવુ જ હું તમને કહુ છુ રજા
ઉત્તરાધ્યયન સાનુ એકવીસમું અધ્યયન સપૂર્ણ ર૧
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