Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसत्रे अन्नरामये वगाथा आर्द्रालिभगाना सा रानीमती मानी वर्गति जलद अधकारे लयनस् र रेवतकगिरिगुहाया अन्त ये स्थिता। ''गदपूरणे ॥३३॥
तत्र च--- , मृगम्-चीवरे।इं विसारती, जहाजायतिं पासिया । - रहनेमी भग्गचित्तो, पच्छा दिहो यं तीई वि" ॥३४॥ 11 छाया-चौराणि विसारयन्ती, ययामातेति दृष्ट्वा ।
. स्थनेमिर्भग्नचित्त , पश्चाद् दृश तयाऽपि ॥३४॥ टीका--'चीवरोह' इत्यादि। .
चीवराणि शाटिकाटीनि वखाणि रिसारयन्ती विस्तारयन्ती सा राजीमती सावी यथाजाता-जन्मकालिकाऽवस्थाऽऽपना जाता । इति इत्यम्-असताङ्गी
फिर क्या आ सो कहते है-'गिरि च' इत्यादि। .
अन्वयार्थ-~एक समय राजीमती भगवान अरिष्टनेमि को बदना करने के लिये (गिरि च रेवय जती-गिरि रैवतक यान्ती) रैवतक पर्वत पर जा रही थी तय (अरा-अन्तरा) नीच ही में उसको (वासेणोल्ला-वर्षेण आद्र) बरसाद आ गया सो वर भीगगई। इस तरह (वासते-वर्षति) वरसा होने पर (सा-सा) वह (लयणस्स अतो अधयारम्मिठिया-लयनस्य अत अन्धकारे स्थिता) रैवतक गिरि की गुफा के -भीतर अधेरे मे जाकर ठहर गई ॥३३॥
वहा वह-'चीवराई' इत्यादि ।।
अन्वयार्थ-(चीवराइ-चीवराणि) शाटिका आदि वस्त्रों को (विमा रती विसारयन्ती) फैलातीहुई (जहा जाय-यथा जाता) बिलकुल नग्न
मा पछी शु थयु तन उछ -"गिरिच" त्याह
અન્વયાર્થ—-એક સમયની વાત છે કે, રાજીમતી ભગવાન અરિષ્ટનેમિને વંદના ४२१। मारे गिरिंच रेवय जती-गिरिरैवतक यान्ती रेत पत 6५२ ४ २२० संती - समये अतरा-अन्तरा रस्तामा ते वासेणोल्ला-वर्षण आदी परसाह सायी तेनासा १ ली या माथी वासेण-वर्षति रसाईमा सा-सा ते लयणस्त अतो अपयारम्मिठिया-लयनस्य अत अन्धकरे म्यिताરૈવતક પર્વતમા પહેરીને એક ગુફાની અંદર જઈ આ ધારામાં રોકાઈ ગઈ
ये शुभम ने रामतीच्ये ४ यु १ ते ४ --"चीवराय !
अन्या:--गुमा पहायान धारामा शमती पोताना चीराइचीवराणि शारिका आदि ५ोन विसारति-विसारयन्ति अटी सुधा सागी.