Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तगध्ययनमो तनच यदभूनदुभ्यतेमूलम्-वासुदेवो यं ण भणड, लुत्तेफेस जिइदिय ।
ससारसायर घोर , तर कण्णे। लेहु लेहु ॥३१॥ छाया-वासुदेवश्च ता भणति, लुप्त केगा जितेन्द्रियाम् ।
ससारसागर घोर, तर मन्ये ! लघु रघु ॥३१।। टीमा-'वासुदेवो' इत्यादि ।
लुप्तकेशा-लुश्चित केशा जितेन्द्रिया-वशीकृतेठिया ता सा राजीमती वासुदेवा-कृष्णो भणति, चमारस्योपलक्षणत्वान, उग्रसेनादयोऽपि भणन्ति । कि भणन्ति-हे कन्ये । घोर भयङ्कर समारसागर-चतुर्गतिकमसाररूप सागर लघु लघु-शीघ्र शीघ्र-तर-उत्तीर्णा भा, मुक्ति लभस्पेति भावः ॥३१॥
एव गृहीतमत्रज्या वासुदेवादिभिराशीभिस्तुता सा रानोमती साचो यदकरोत्तदुच्यतेमूलम्-सा पव्वइया सती, पौवेसी तहि वहु ।
सर्यण परिय॑णं चेवे, सीलवता बहुस्सुँया ॥३२॥ उसके बाद जो हुआ सो कहते ह–'वासुदेवो' इत्यादि ।।
अन्वयार्थ (लत्तकेस जिइदिय-लुप्तकेशा जितेन्द्रियाम्) केशों का जिसने अपने हाथों से लोच किया है तथा अपनी इन्द्रियों को जिसने वश मे कर लिया है ऐसी (ण-ताम् ) उस साध्वी राजीमती से (वासुदेवो य भणद-वासुदेवश्च भणति) वासुदेव तथा उग्रसेन आदिकोंने कहा कि-(कण्णे-न्ये) हे कन्ये ! तुम (घोर ससारसायरघोरम् ससारसागरम्) भयकर इस चतुगति रूप ससार समुद्र को (लहु लहु तर--लघु लघु तर) अति शीघ्र पार करो-अर्थात् मुक्ति प्राप्त करो॥३१॥
माना पछी २ ययु तनपामा आवे छ --"वासुदेवो" त्या | ___मन्याय-लुत्तकेस जिंइदिय-लुप्तकेश जितेन्द्रियम् पोतान' or डायथी પિતાના કેશોનુ લુચન કરનાર તથા પિતાની ઇન્દ્રિયોને જેણે વશમાં કરી લીધેલ छ मेवी ण-ताम् ये सारी मताने वासुदेवा य भणड-वासुदेवश्च भणति पासुहेव तवा असेन वगेरेथे उखु, कण्णे-कन्ये पुत्री। घोर ससारसायरघोर ससारसागरम् सय ४२ सेवा मा चतुति३५ ससा२ समुद्रने तमा रहल तर-लघुलघु तर ॥ पा२ ४२-मर्यात भुक्षित आस ४२ ॥३१॥