Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिना टीका व २३ श्रीपाना पचरितनिरूपणम्
एव केशिना मोक्ते गौतमः माह
मूम् -- तओ के सि बुवत तु, गोयंसो इर्णमव्वी । पणी समिखए, धम्मं तत्त तत्तविणिच्छय ॥२५॥
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छाया -- ततः केशिन हन्त तु. गौतम इदमननीत् । - तच तच्च विनिश्चयम् ||२५||
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मामी टीका -- 'तो' इत्यादि ।
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तत = तदनन्तर गोतमस्वामी पूर्वरीत्यान्त पृच्छन्त केशिन= केशिस्वा मिनम् उदक्ष्यमाणमुत्तरम् निरीत उक्तरान । गोतमी पदर दत्तवांस्तदन्यते 'पण' इत्यादिना हेमन्तत्वविनियतत्वाना=जीवादीना कीनिया= निर्गया यस्मात्तत्तथाभूत, व मतद्धि समी=पश्यति । जय भाव. - नावणादेवानियों भवति दिन्तु मादेन भवतीति । ५॥
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मरूप दो प्रकार के धर्म म सान नही होता है ? | जन दोनों की सर्वज्ञता मे रोई भेद नहीं है तो फिर इस प्रकार से मुनिजन के चारित्र रूपा क्या कारण है ? ||२४||
इस प्रकार के शिश्रमण के कहने पर गौतमस्वामी कहते है. 'तो' इत्यादि ।
अन्वयार्थ -- (तओ-तन ) इसके बाद (गोयमो - गौतमः) गौतम स्वामी ने (वुवन केसिं ब्रुवन्न केशिन) प्रन्द्रते हुए केशियम कुमार से (णम नवी - हदमत्रवीत) इस प्रकार कहा - हे मदन्न ! (तत्तविणिच्छ्रय-तत्र विनिश्चयम्) तत्त्वों के विनिश्चायक (तत्त-तत्व) को (पण्णा सामि - प्रज्ञा समक्षते) बुद्धि देती है-जर्थात् वाक्यगण से अर्थ निर्णय नही होता है किन्तु प्रज्ञावा से ही होता है ||२५||
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આ ચતુમ તથા પચયામરૂપ એ પ્રાન્તા ધર્મોમા મય નથી આવતા જ્યારે બન્નેની સજ્ઞતામા ઈ ભેદ નથી તે પછી આ પ્રકાવી મુનિજનના ચારિત્ર રૂપ ધર્મીમા ભેદનુ કયુ કારણ છે ? ૫૪ા
या प्रजरना देशांश्रभधुना हेपायी गौतमस्वामी डे --"तो" त्यहि । मन्त्रयार्थ--तजो-तत, खाना पछी गोयमो - गौतम गोतमन्नामी युवत केसि - ब्रुवन्त केशिनम् पुरता देसी भार श्रम मन्त्रो उद प्रभाते उधु है, हेलन् । तत्तविणिच्छय-तत्यविनिश्वयम् तत्लोना विनिश्चाय तत्त-तत्व धर्मतत्वने पण्णा समिक्खए- प्रज्ञा समीपते शुद्धिमर्यात वाज्य શ્રવણથી અથ નિ ય યતા નથી પરંતુ પ્રજ્ઞા-લીજ થાય છે ! પા