Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनस पाशनद्धा पारी अपने द्धा नियन्त्रिता दृश्यन्त । पताऽस्मिन् लग है गौतम ! घ मुक्तपाश: अन्धनरहित., अत पर रघुभूत -लघु'वायु', स उप मनाप्रतिबद्धगतित्वात्, आयुरदित्यर्थः, पथ हिरसि ? ॥४०॥
उन्ध रेशिनोक्त गौतमः प्राह-- मूलम्-ते पासे सर्वसो छित्ता, निहतूंण उवायओ।
मुकंपासो लहुभूओ, विहरामि अहं मुंणी | ॥४१॥ छाया---तान् पाशान सर्वान किया, निहत्य उपायतः।
मुक्तपागो घुभूतो, विरामि अह मुने ॥११॥ दी- 'ते पासे' इत्यादि।
हे मुने ! भदन्त ! अह तान् लोसन्धान सान् पाशान् छिया, पुनस्तान् पाशान् उपायत नि मद्दत्वाधभ्यासरूपोपायान निहत्य पुनर्गन्धाभावेन विनाश्य मुक्तपागापागरहितः, अत पर-लघुभूत'घायुरिवामतिबद्धगतिः सन् लोके बवो पाशद्धा शरीरिण पश्यन्ते) इस मसार म अनेक प्राणीजन कि पागोसे-उधनो से नियत्रिताधे हुए) दिग्वलाई पड़ते हैं तब आप (मुकपासो-मुक्तपास )नधन रहिनहो कर (लहुन्भूओ लघुभृतः) वायु की तरह अप्रत्तिबद्ध विहारी बन कर (कह पिहरसि-कथ विहरसि) कैसे विहार करते हो। ४०॥
गौतमस्मामी कहते हैं-'ते पामे' इत्यादि। __ अन्वयार्थ-(मुणी-मुने) हे महामुने। (अह-अहम्)म (ते-तान) उन लोक बधक (सव्वमो पासे-सर्वान् पाशान् ) समस्त पाशों को (त्तिा-छित्त्वा) त्याग करके तथा (उवायओ-उपायत) नि सगत्वादिक के अभ्यास रूप उपाय से (निहतण-निहत्य) पुन' उनका बध न हो सके इम रूप से उनको तोडकर (मुक्कपासो-मुक्तपाश.) पाशरहित हो गया -लोके वह पाशवद्वा शरीरिणः दृश्यन्ते । स सारमा भने प्राणी पारे ५शना धनयी नियत्रित माय छ वारे मा५ मुक्कपासो-मुक्तपाश धन ५क्षित मनी लभूत्री-लघुभूत वायुनी भा३४ मप्रतिमद्ध विहारी मनीन कह विहरसि-स्थ विहरसि ४४ शत विडार ४२। छ। ॥४०॥
गौतम सभी ४ छ-"ते पासे"त्यादि।
में क्या--मुणी-मुनेई महामुनि! ते-तान मा ४२ ५ धन ४१५५ सेवा सचसो पासे सर्वान् पाशान् सपा ५ धनान उित्ता-ठित्वा आधीन त उवायओ-उपायत निसाना मयास३५ पायथी शधी निहतूणनिहत्य तेना मधनमा न १४315 16 से शत तेन ताडी मुक्पासो-मुक्तपाश'