Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1075
________________ प्रियदर्शिनी टीश अ २३ श्रीपार्श्वनाथचरितनिरूपणम् स्तीर्थङ्करै। तया-श्रुतशीलनपः-श्रुतम् उपचाराकपायोपशमहेतवः श्रुतान्तर्गता उपदेशा , शीलम-महानतस्प, तप द्वादश विधमनशनादिकम् , एपा समाहारस्तव, जलम् उक्त तीर्थड्रैः। उपलपणत्वात्-महामेघस्त्रिजगदानन्ददायकतया शेपमहा मेवानिशायित्वेन च भगवाँस्तीर्थङ्कर , तदुत्पन्नआगमश्च महामवादः। उक्तार्थ मुपसहरन्नाह-'मुयधारा' इत्यादि-ते कपायरूपा अग्नय. श्रुतधाराभिहताः= श्रुतस्य-श्रुतादिरूपस्य जलस्य या धारास्ताभिरभिहताः अभिपिक्ता सन्तोभिन्ना - विव्यापिताः, मा ग्वलुश्चियेन न दहन्ति । 'मे' इति द्वितीयार्थे पष्ठी, यहासम्बन्धमामान्ये पष्ठी गोध्या ॥५३॥ पुनः केशी पाहमूलम्साह गोयम पण्णा ते, छिन्नो मे ससंओ इमो । अन्नो वि" संसओ मांझं, ते मे" कहसु गोयमा ॥५४॥ छाया-साधु गौतम ! प्रज्ञा ते, छिन्नो मे सशयोऽयम् । अन्योऽपि सशयो मम, त मे कथय गौतम ! ५४॥ क्रोपादिक कपाय दाहक ण्व शोपक होने के कारण अग्निस्वरूप तीर्थकर महामभुत्रो ने कहा है। (सुयसीलतवो जल-श्रुतशीलतपो जलम्) श्रुतकपायों के उपशम के हेतुभूत जो अतान्तर्गत उपदेश है वे, तथा महावत स्वरूप शील एवं अनशनादिक-बारह प्रकार के तप ये सब जल स्वरूप हैं। (सुयधारामिया भिन्ना श्रुतधागभिहता भिन्ना.) भगवान् तीर्थकर महामेघ तुल्य एव इनके द्वारा प्रतिपादित आगम महाप्रवाह है यह सब कषाय रूप अग्निसमूह श्रुतादिस्प जल की धारा से अभिहत होकर मेरे मे वुझ चुका है। (न उहति मे-माम् न दहन्ति) अत यह मुझे जलाती नहीं है ॥५३॥ કષાય હક અને શેષા હોવાના કારણે અગ્નિ સ્વરૂપ છે એવુ તીર્થકર મહાપ્રભુએ मावेस , सुयसीलतवो जल-श्रुतशीलतपो जलम् चायाना मना है જે કૃતાન્તર્ગત ઉપદેશ છે, તથા મહાવત સ્વરૂપ શીલ અને અનશન આદિ બાર २ना त५ मे १३ १ १३५ सुयधाराभिहताः भिन्ना-सुतधाराभि ग्ता भिन्नाः भगवान तीर्थ ४२ महामेध तुल्य भने से मना तथा प्रतिपाति આગમ મહાપ્રવાહ છે આ સઘળા કષાયરૂપ અનસમૂહ લતા દરૂપ જળની ધારાથી अमित ने भासमा आ गये , माथी न डहति मे-माम न वहन्ति એ મને બાળી શકતા નથી માપવા

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