Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तगयनसूत्रे
छाया--ता लता सगः छिया, उद्धृत्य समूलिकाम् ।
विराम यथान्याय, मुक्तोऽस्मि रिभक्षणाद ||४६ ॥ टीका'त लय' इत्यादि ---
हे भदन्त । अह वा लता सर्वशः सर्वथा दिसा पुन समूलिका मूल सहिता वा लताम् उद्धृत्य उत्पादन यथान्यायज्जाखानुसारेण साधुमार्गे हि रामि । अत एवाद विपभक्षणात् = विपफलभक्षणस्पात् लिष्टकर्मणो मुक्तोऽस्मि ॥४६॥ केशी पृच्छति
मूत्रम्--लया ये इडे की र्वुत्ता' केसी गोयममवी ।
के" सिमेव वत तु, गोमो इर्णेमव्वेंवी ॥४७॥ छाया - लता च इति उक्ता, केशी गौतममत्रवीत् । शिनमेव वन्त, गौतम इदमत्रवीत् ॥४७॥ टीका--'लया य' इत्यादि व्यख्या स्पष्टा ॥४७॥
गौतम ने इस मन का उत्तर इस प्रकार दिया--'त लय' इत्यादि । अन्वयार्थ -- हे भदन्त ! (त लय सन्वसो जिता-ता लता सर्वश. जित्वा) मे उस लता को सर्वथा दिन्न भिन्न कर के तथा (समृलिय उद्धरितासमृलिकाम् उद्धृत्य ) उस लता को मृल के साथ उखाड करके (विसम क्वणा मुक्कीमि-विषमक्षणात् मुक्तोस्मि ) शास्त्रमार्ग के अनुसार साधु मार्ग में विचरण करता हू। इसीलिये मै विफल मक्षणरूप दुष्कर्म से मुक्त हुआ है ॥४३॥
केशी ने पुन. पूछा- 'लया य' इत्यादि ।
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अन्वयार्थ - (लया य इइ का बुत्ता-लता च (इति का उक्ता.) वह लता कौनसी है जिसको अपने मूल से उखाड दिया है । (केसीमेव व त गोतभे से प्रश्ननो उत्तर या प्रमाणे आयो- "त लय" इत्याहि । अन्वयार्थ--हे अद्दन्न ! तु लय सव्वमो छिता-ता लता सर्वश जिल्ला डु सताने सपृथु पये छिन्नभिन्न ४रीने तथा समूलिय उद्धरिला - समूलिका उद्धृत्य थे सताने भूमनी साथै जाने freeran मुक्काम - विपक्षणात् मुक्तोस्मि શાત્રમાર્ગ અનુસાર સાધુ માગ માં વિચરણ કર્ છું આ કારણે હું વિષફળને ખાવારૂપ દુષ્ક થી મુકત ખનેલ છુ ૪૬u
शीश्रमो इरीधी - छे हैं लेने आये भूजथी
पूछ५- "लया य" छत्याहि !
कात्ता-लता च इति का उक्ता से सत्ता जेडी नामेव छ केसीमेव युक्त तु- केशीमेव व्रवत तृ