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________________ ३६ उत्तगयनसूत्रे छाया--ता लता सगः छिया, उद्धृत्य समूलिकाम् । विराम यथान्याय, मुक्तोऽस्मि रिभक्षणाद ||४६ ॥ टीका'त लय' इत्यादि --- हे भदन्त । अह वा लता सर्वशः सर्वथा दिसा पुन समूलिका मूल सहिता वा लताम् उद्धृत्य उत्पादन यथान्यायज्जाखानुसारेण साधुमार्गे हि रामि । अत एवाद विपभक्षणात् = विपफलभक्षणस्पात् लिष्टकर्मणो मुक्तोऽस्मि ॥४६॥ केशी पृच्छति मूत्रम्--लया ये इडे की र्वुत्ता' केसी गोयममवी । के" सिमेव वत तु, गोमो इर्णेमव्वेंवी ॥४७॥ छाया - लता च इति उक्ता, केशी गौतममत्रवीत् । शिनमेव वन्त, गौतम इदमत्रवीत् ॥४७॥ टीका--'लया य' इत्यादि व्यख्या स्पष्टा ॥४७॥ गौतम ने इस मन का उत्तर इस प्रकार दिया--'त लय' इत्यादि । अन्वयार्थ -- हे भदन्त ! (त लय सन्वसो जिता-ता लता सर्वश. जित्वा) मे उस लता को सर्वथा दिन्न भिन्न कर के तथा (समृलिय उद्धरितासमृलिकाम् उद्धृत्य ) उस लता को मृल के साथ उखाड करके (विसम क्वणा मुक्कीमि-विषमक्षणात् मुक्तोस्मि ) शास्त्रमार्ग के अनुसार साधु मार्ग में विचरण करता हू। इसीलिये मै विफल मक्षणरूप दुष्कर्म से मुक्त हुआ है ॥४३॥ केशी ने पुन. पूछा- 'लया य' इत्यादि । એ अन्वयार्थ - (लया य इइ का बुत्ता-लता च (इति का उक्ता.) वह लता कौनसी है जिसको अपने मूल से उखाड दिया है । (केसीमेव व त गोतभे से प्रश्ननो उत्तर या प्रमाणे आयो- "त लय" इत्याहि । अन्वयार्थ--हे अद्दन्न ! तु लय सव्वमो छिता-ता लता सर्वश जिल्ला डु सताने सपृथु पये छिन्नभिन्न ४रीने तथा समूलिय उद्धरिला - समूलिका उद्धृत्य थे सताने भूमनी साथै जाने freeran मुक्काम - विपक्षणात् मुक्तोस्मि શાત્રમાર્ગ અનુસાર સાધુ માગ માં વિચરણ કર્ છું આ કારણે હું વિષફળને ખાવારૂપ દુષ્ક થી મુકત ખનેલ છુ ૪૬u शीश्रमो इरीधी - छे हैं लेने आये भूजथी पूछ५- "लया य" छत्याहि ! कात्ता-लता च इति का उक्ता से सत्ता जेडी नामेव छ केसीमेव युक्त तु- केशीमेव व्रवत तृ
SR No.009354
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1961
Total Pages1130
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size33 MB
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