Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीश स. २० नेमिनाथचरितनिरूपणम् मूलम्--जड त काहिर्सि भांव, जा जो दिच्छसि नारिओ।
वायाविद्धोव्व हडो, अठियप्पा भविससि ॥४५॥ छाया--यदि त्व करिष्यसि भाव, या या द्रक्ष्यसि नारी।
वाताविद्ध इर हड', अस्थितात्मा भविष्यसि ॥४५॥ टीका--'जड त' इत्यादि
हे स्थनेमे ! यदि त्व या या नारीणसि, तामु तास मार-भोगाभिलाप करिष्यसि । ततस्त्व पातापिद्ध'वायुकम्पितः हडइव-ड नामक निर्मूल वनस्पतिविशेष इव शैवाल इव वा अस्थितात्मा-अस्थित =अस्थिर. अात्मायस्य स तथा, चञ्चलचित्ततयाऽस्थिरस्वभावो भरिप्यसि । अय भावः-जन्म जराम रणजन्य जगदवीपर्यटनदु ग्वपरम्परानिराकरण कारणेभ्ग सयमगुणेभ्यः प्रसवल्या इसलिये हे रथनेमे ! मैं तुमसे यही यात कहती हु कि तुम गन्धन सर्प की तरह न बनकर अगन्धन सर्प की तरह नो और सयम को प्राणपण (प्राणरूपि मूल्य)से निभाने के लिये तत्पर रहो॥४४॥
'जह नशाहिमि' इत्यादि ।। अन्वयार्थ-हे स्थनेमे ! (जइ त जाजा नारिओ विच्छसि-यदि त्व याः या नारी. द्र- यसि) यदि तुम जिन २ नारियो को देखोगे और उनमे (मार शारिसि-भाव करिष्यसि) भोग की अभिलापा मरोगे तो (वायाविद्धो हडोव अट्टियप्पा भविस्ससि-यातासिद्ध हड इव अस्थितात्मा भविष्यसि) वायु से कपित हड नाम के निर्मल वनस्पति की तरह अथवा शैवाल की तरह चचल स्वभाव के हो जाओगे। तात्पर्य इसका यह है कि जन्म, जरा, एव मरणजन्य इस जगतरूपी कान्तार मे તમને આ વાત કહુ છુ કે, તમો ગન્ધન સર્પના જેના ન બનતા અગ ધન સર્ષને જેવા બને અને સાયમને પ્રાણના ભોગે નિભાવવા માટે તત્પર રહે ૪તા
"जइ त साहिसि" इत्यादि
माय--- २यनेमि ! जइ त जाजा नारिओ दि सि-यदित्व या' याः नारी दक्षसि लेतमा २२ नाशयाने नेशी मने तेनामा भाव काहिद-भाव करिष्यसि सासनी मलिमा ३२।। त। वायाविद्वो हडोव अद्वियप्पा भविस्ससिवानाविद्ध हडाइव अस्थितात्मा भविष्यसि वायुथी सहा ४ पायमान मेवी नामना નિમૂળ વનસ્પતિની માફક અથવા શેવાળની માફક ચચળ સ્વભાવના બની જશે તાત્પર્ય આનુ એ છે કે, જન્મ, જરા અને મરણ જન્ય આ જગતરૂપી ખાડામાં
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