Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे । उत्साह सयम प्रति यस्य स तया, पिनष्टसयमोत्साह इत्यर्थः स चासो पराजित =स्त्रीपरीपहेण पराजित , स भग्नोयोगपराजितम्रा त्यनेमियनमिमुनि दृष्ट्वा असभ्रान्ता भयरहिताम्वात्मीयोल्लासेन जीरभद्गाव स्वात्मान परि पातु दृढमति. सा राजीमती सती तर-गुहायाम् आत्मान समृणोतिचौरा च्छादयति ॥३९॥
ततः किम् ' इत्याह। मूलम्--अहं सा रायवरकन्ना, सुहिया नियमवए।
जाड कुल च सील चं, रक्खमाणी तय वएँ ॥४॥ छाया--जय सा राजवरकन्या, सुस्थिता नियमनते ।
जाति कुल च, शील च, रक्षन्ती तक पदति ॥४०॥ टीका--'अह सा' इत्यादि।
अथ-स्वात्मसररणानन्तर, नियमाते-नियम'द्रव्यक्षेत्र कालमावेनाभि ग्रहग्रहण ब्रतानि-पाणातिपातादिविरमणलक्षणानि पश्चमहानतानि, उभयो समापराइय-भग्नोद्योगपराजितम) जब यह देखा कि स्त्री परीपद से पराजित होकर रथनेमि का उत्साह सयम के प्रति नष्ट हो गया है तय वह सयमभ्रष्ट (त रहनेमि-त रथनेमि) उस रथनेमि को (दट्टण-दृाष्ट्रा) देवकर (असमता-असभ्रान्ता) भयरहित हो गई अर्थात स्वात्मवीर्यो ल्लास से शील रक्षा के लिये दृढमति बन गई। उसी समय उसने (तत्य-तत्र) उस गुफा में (अप्पाण सवरे-आत्मान सवृणोति) - अपने शरीर को घस्त्र से ढक लिया ॥३९॥
उसके बाद क्या हवा सो कहते हैं- 'अहसा' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(अह-अथ) इसके बाद-अपने शरीर के आच्छादन । के पाद (नियमव्वए सुट्टिया-नियमाते सुस्थिता) द्रव्य, क्षेत्र, काल और (घोग पराजितम् यारे नयु, स्त्री ५१५७ ५ लत बन धनभिना
साठ सयम तरथी श्री गये छे त्याचे ते म यमनट त रहनेमि-त रथनेमि |ते २वनेभिन दिहण-दृष्टा ने असमता-असभ्रान्ता सयहित' मनी ४
અર્થાત પિતાના આત્માના વિકાસપી શીલનું રક્ષણ કરવા માટે દઢ મનવાળી બની || ते समये तेथे तत्थ-तत्र मे मा अप्पाण सवरे आत्मान सणोति पाताना 'શરીરને વસ્ત્રથી ઢાકી લો ૩લા ,
मे पछी शु मन्यु ते ४ छ-५ "अहसा" त्या!ि
અવયાર્થ––ગઇ-ગઇ તેના પછી પોતાના શરીરને વસ્ત્રથી ઢાકી લીધા પછી 'नियमन्वए मुडिया-नियमत्रते मुस्थिता न्य, क्षेत्र, भने माना अनुसार