Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ २१ एकान्तचर्याया समुद्रपालदृष्टान्त
६५९ ततः स कीटशो जात.! इत्याहमूलम् -स नाणनाणोवगए महेसी, अणुंतर चरिउं धम्मसंचयं । अणुंतरे नागधरे जससी, ओभासंह सूरिएं वर्तलिक्खे ॥२३॥ छाया--स ज्ञानज्ञानोपगतो महर्षिः, अनुत्तर चरित्वा पर्मसचयम् । ___अनुत्तरज्ञानधरो यशस्सी, अवभासते मूर्यइवान्तरिये ॥२३।। टीका--'से' इत्यादि।
ज्ञानज्ञानोपगत -नान तेन यद् नानम्-सा वाचारस्यावयोधस्तमुपगतः प्राप्त स समुद्रपालो मर्पि =मुनि अनुत्तर-सर्वोत्कृष्ट मगचय-मान्त्यादि धर्मसमृह चरित्वा-यासेव्य अनुत्तरज्ञान पर अनुत्तर सर्वोत्कृष्ट यत् ज्ञान केवलारय तस्य परोधारक , अत एव यशम्मी-प्रशम्तयशा अन्तरिक्षे आमाशे मर्य इव जगति अवभासते । 'अणुत्तरे णाणधरे' इत्यत्र एकार आपत्वान् ।।२३।
फिर वे ममुद्रपालमुनि किस प्रकार के पने? मो कहते हैं'से' इत्यादि। ___अन्वयार्थ-(नाणाणोवगए महेसी-ज्ञानभ्यानोपगतः स मार्षि) शुतज्ञान से माधु के आचार विषयक ज्ञान से युक्त वे ममुद्रपाल महर्षि (अणुत्तर पम्मसचय चरिउ-अनुत्तर धर्मसचय चरित्वा) मर्वोत्कृष्ट क्षान्त्यादिक धर्म का सचय करके (अणुत्तरे नाणधरे-अनुत्तरज्ञानधर') सर्बोस्कृप्ट केवलज्ञान के धारी बन गये। अत-एव (जससो-यशस्वी) प्रशस्तयश मपन्न होकर वे (अतलिस्खे मरिग्य ओभासह-अन्तिरिक्षे मर्य इव अवभासते) आकाश में सूर्य की तरह इस जगत में चमरने लगे ॥
अब अध्ययन का उपसहार करते हुए सत्रकार समुद्रपालमुनि के પછી એ સમુદ્રપાલ મુનિ કેવા પ્રકારના બન્યા? એ કહે છે –“ ઈત્યાદિ मन्वयार्थ-नाणझाणोवगए महेसी-ज्ञानध्यानोपगत. महर्षि श्रुशानयी साधुना माया२ विषय ज्ञानथी युत से ममुद्रपाल मुनि अणुत्तर धम्मचय चरिउअनुत्तर धर्मचय चरित्वा मवाट क्षारया भन। सयय ४शन अणुत्तरेणाणपरेअनुत्तरे ज्ञानधरे सवोत्कृष्ट विज्ञानना घा२४ मानी गया जससी-यशस्वी प्रशस्त यश सपन मनीने ते अतरिक्खे मारिएव ओभासइ-अन्तरिक्षे मूर्य दव अवभासने આકાશમાં સૂર્યની જેમ આ જગતમાં ચમકવા લાગ્યા કરવા
હવે અયયનને ઉ સહાર કરતા સૂત્રકાર સમુદ્રપાલ મુનિ દ્વારા આચરિત