Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका १ एकान्तचयाया समुद्रपालटाटान्त
१९ आया--भने के उन्या इह मानवेपु, यान् भारत मप्रारोति भितु ॥
भयभरपास्तर उग्रन्ति भीमा, दिव्या मानुपा अथवा नग्चा ॥१६॥ परीपहा पिहा अनेके, सीदन्ति यत्र रहमातरा नरा ।
श्रपतत्र प्राप्ती नाव्ययत भितु , सग्राम गीदव नागराज ॥१७॥ टीमा-'अणेालग' इत्यादि ।
इह-जगति मान-मनुप्येषु अनेक-पवन्दाअभिमाया भवन्ति । यान अमिायान भिक्षुररिजनगारोऽपि भारत तत्वत्त्या योदयिमादि भारतो पा सम्मररोति करोत्येव । अन एवं तद्गुणा मोक्ता । यहा-अत एरमात्माऽनुशास्यते इनि भाव । चि तर तपतिपत्तौ भयभैरवा' भयेन= भयजनरत्वेन भैरवा -भीपणा' भीमा:द्रा दिव्या दिवि भरा दिव्या., के समाधान निमित्त मृत्रकार कहते है-'अणेग व्दा' इत्यादि 'परीसहा' इत्यादि।
अन्वयार्य- (डह-उह) इस समार मे (माणवे-मानवेपु) मनुप्यों में (अणेगउदा-अनेके लदा) अनेक अभिमाय होते हैं। कि (जे-यान्) जिन अभिप्रायो को (भावनो-भावन) तत्ववृत्ति मे अबरा औदारिक भावों की अपेक्षा से (भिखू-भिक्षु ) भिक्षु भी (सपकरेइ-सम्प्ररोति) कर सकता है। इसलिये वह ऐसे भावो के करने से व्यर्थ समर नष्ट न करे इस विचार से इन गुणो का प्रतिपादन किया गया है अथवा वह स्वय इनमे पडकर आत्माको स्वच्छद न बनालें उसलिये आत्मापर अनुशासन रखने की बात कही गई है। तथा (तत्य-तत्र) महारतों को अगीकार करने पर (भयभेरवा भीमा दिव्या मणुस्सा अदुवा तिरिકહેવામાં આવ્યું છેઆ પ્રકારની શ કાના સમાધાન માટે ત્રકાર કહે છે—
"अणेग उदा" त्यादि "परीपहा' त्यहि ___ मन्या -दह-इह २मा ससारमा माणवेहि-मानवेपु भनुष्याना अणेगछदा -अनेकछदा. मने मलिप्राय हाय छ , २ मलिप्रायाने भावओ-भावत. तत्ववृत्तिमा अथवा मौयि मावोनी ५पेक्षा भिररसु-भिक्षु भिक्षु ५९ सपकरेड सम्प्रकरोति श शछ । भाटे ते मापा मारा मा पोताना समयना વ્યર્થમાં દુરૂપયોગ ન કરે આ વિચારથી એ ગુણોનું પ્રતિપાદન કરેલ છે અથવા તે સ્વય તેમા પડીને આત્માને સવદી ન બનાવે આથી આ મા ઉપર અને शासन यानी पात् अपामा मावेस छ तथा तत्थ-तत्र महामनोनी सगीर ४२ पाथी भयमेरवा भीमादिव्या मणुस्सा अदुवा तिरछा उडति-भयभैरवा भीमा'
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