Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदशिनी टोका २० महानिप्रन्यस्वरुपनिरुपणम् कयमनुतापमनुभरत्यसी इति सहप्टान्तमाह--
मूलम्--- एमेवे जहाउदकुंसीलरूवे. मॅग्ग विराहित्तु जिणुत्तमाणं । कुर्ररी विवा भोगरसाणुगिद्धा, निरंटुसोया परितीवमे. ॥५०॥ छाया-पवमेव यथा उन्दकुशीलरूपो, मार्ग विरा य मिनोत्तमानाम् ।
कुररीत्र भोगरसानुरद्धा, निरर्थगोका परितापमेति ॥५०॥ टीका-'मेर' इत्यादि ।
एवमेव-उत्तरूपेणैव महामनाम्पादिना प्रकारेण ययाच्छन्दकुशीलरूप - यथा उन्दा बाचिकल्पिताचारा , कुशीला कुत्सितशीला पार्श्वस्था. परती तीथिकादयो ना, तेपा रूपमिव-स्वभार इस स्प-सभागो यस्य स तथा, जिनो नमाना तीर्थकराणा मार्ग-श्रुनचारित्रलक्षण मार्ग विरा' य-खण्डयित्वा भोगरसानु गृद्धा भोगाना-जिहास्वाददायकाना मामाना रसे अम्बादे अनुटद्धा-लोलुपा , तथा हते भोगे-निरर्थशोका-निरर्थ =निप्पयोजनः शोको यस्याः सा तथा, कुर रोव-कुररीपक्षिणीच परिताप-सन्तापम् एतिम्मामोति । अय भाव.-यथाऽऽ
वह किम प्रकार पश्चात्ताप का अनुभव करता है सो दृष्टान्त द्वारा कहते है-'एमेव' इत्यादि । 1 अन्वयार्थ- (एमेव-एवमेव ) इस पूर्वोक्त प्रगर से ही-महानतों के नहीं पालने आदि प्रकार से ही (जहाछदासीलस्वे-यथाच्छन्दकुशीलरूप) स्वरुचिकल्पित आचार वालों के तथा कुत्सितगीलवालोंपार्श्वस्थ अथवा परतीर्थिक ओदिजनों के स्वभाव जैसे स्वभाववाला यह द्रव्यलिङ्गी (जिणुत्तमाण मग विरहित-जिनोत्तमाना मार्ग विसराय) तीर्थकरों के अंतचारित्रस्प मार्ग का विराधना करके (भोगरसाणुगिद्वा कुररीविवानिरहमोया परितावमेह-भोगरसानुगृद्धा कुररीव निरर्थशोका परितापम् पति) जिहा के लिये आस्वाद दायक मास के आस्वाद मे गृद्ध मे या प्रा२ने पश्चाता५४२ छ भने हटात द्वारा सभी —" एमेव" त्या।
मन्वयार्थ-एमेव-एवमेव २ पूरित प्रारथी-महानाने न पाया मा. प्राथी जहाछद कुसीलरूवे-यथान्छन्दकुशीलरूप' १३थिपी माय२ વાળાના તથા કુત્સિત શીલવાળ –પાશ્વસ્થ અથવા પરતીકિ આદિજનેના સ્વભાવ
वा सलवामामे व्यक्षिी जिणुत्तमाण मग्ग विराहतु-जिनोत्तमाना मार्ग विरा-य ती ४२॥ श्रुत यात्रि३५ यानी विराधना राने भोगरसाणुगिद्धा कुररी विवा निरसोया परितावमेइ-भोगरसानुगृद्धा कुररीव निरर्थशोका परितापमेति