Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रिय-शिनो टीका अ. २१ फातचयाया समुपालप्टान्त छाया-हित्वा लग च महाश महामाह, कृष्ण गया वहम् ।
पर्यायधर्मम् अभ्यरोचत. प्रतानि शीलानि परीपहाश्च ॥११॥ टीका-हिनु' इत्यादि।
म समुद्रपारमुनिः महालेश-महान क्लेश चतुर्गतिससारभ्रमगलपण द ग्व यस्माद् यस्मिन्वा स महारले गस्त, महामोह-महान् मोड स्यादिविपयः, अनान वा यस्मात्स महामोहम्त. कृष्ण-कागले ग्याहेतुत्वाकप्यम्, अत एव भया वह-प्राणिना भयगनक सग-वजनादिसम्बध पित्वा त्यत्तवा पर्यायधर्म-पर्याय
प्रत्रज्यापर्यायम्तन यो धर्म महानतादिम्तम् अभ्यरोचत अभिरोचितमानतदनुष्ठानविपया रचि कृतवान् । पर्यायधर्ममेर रिशेपाटाह-प्रतानि महानतानि,
दीक्षित होने के गह समुद्रपाल मुनि ने जिस प्रकार से अपनी मत्ति की तथा जिस तरह से अपनी आत्मा को अनुशासित किया यह बात सूत्रसार अर इन गाथाओ द्वारा प्रगट करते है----
'जहि, इत्यादि।
अन्वयार्थ-समुद्रपाल मुनिने (महाफिलेसम्-महाग्लेशम् ) इस चतुगतिरूप ससार मे भ्रमणस्प महान कट के दायक (महतमोह-महामोहम्) अतिमोह एव अज्ञान के पर्धक (कसिण-कृष्णम् ) कृष्णलेश्या के हेतु होने से स्स्य कृष्णरूप तथा (भावह भयावहम्) प्राणियो को विविध प्रकार के भयो । जनक होने से भयावह ऐसे (सग-सगम्) स्वजनादि सवधरूप परिग्रह का (जहितु-हित्वा) परित्यागकर (परियायधम्म-पर्यायधर्मम् ) प्रव्रज्यापर्याय के महाप्रतादि रूप धर्मको अगीकार किया। उसके पालन मे उनकी विशेष अभिरुचि जगी। इसी बात को मत्रकार- દીક્ષિત થયા પછી એ સમુદ્રપલ મુનિએ જે પ્રકારની પિતાની પ્રવૃત્તિ કરી તથા જે પ્રકારથી પિતાના આત્માને અનુશાસિત બનાવ્યો છે એ વાત સૂત્રકાર હવે सो गाथा द्वारा प्रमट ४२ -"जहित" त्यादि
मन्वयार्थ -समुद्रपार भूनिये महाफिलेसम्-महाशम् ॥ यतुमति३५ ससभा म३५ महान ४०४२ सापना२ महतमोह-महामोहम् ति भार भने मानने पधारना२ कसिण-कृष्णम् गुहेश्याना हेतु पाथी पोते १९५३५ तथा भयारह-भयावहम प्राणीमाने विविध प्रा२ना सयाने मापना२ वाथी भयान या सग-सगम् २वान याहि स५५३५ परियडन। जहित्त-हित्वा परित्याग ४२री परियायधम्म-पर्यायधर्मम् प्रपन्या पर्यायना महानताहि३५ घमने २५४२ કર્યો એના પાલનમાં એની વિશેષ અભિરૂચી જાગી આ વાતને સૂત્રકાર વાળ
८.