Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिा टीका अ. २० महानिर्गन्यम्बरपनिरपणम्
तुल्यपरारमयगत, स नराधिप श्रेणिक परमया-त्युत्कृष्टया भक्त्या अनगार सिंहम् अनगार मिह र त तया, धर्ममृगान प्रति उग्रवादनगारस्य सिंहो पमत्वम् एव पूर्वोक्तममाण स्तुत्वा विमलेन=मि यात्वमरहितेन चेतमा मता धर्मानुरक्त धर्मानुरागयुक्त अत ए- उममितरोमकूप -उन्नसिता'इदिन्ना रोमकूपा रामरमागि यस्य स तथा-रोमाश्चितश्च मन प्रदक्षिणा कत्वा, गिरसा अभिवन्य च म्बम्धानम् अतियातःगत• ॥५८-५९।। ___ अथ महामुनिर्यकतपास्तदुन्यते-- मृतम् इयरो वि गुणमिहो, तिगुर्तिगुत्तो तिदडविरओय । विहंग इव विप्पमुको, विहरंड वसुंह विगयमोहो ति बेमि"160॥ आया-इतरोऽपि गुणसमृद्ध , निगुप्तिगुप्तविदण्डविरतश्च ।
विगइर विप्रमुत्तो, विहरति मुगा विगत मोह निवत्रीमि॥६०॥ टोमा--'दयगे वि' इन्यादि ।
अथ इतरोऽपिः, अनाथि मुनिरपि गुणसमृद्ध =सप्तविंशतिसाधुगुणयुक्त', जैसे उन अनायी मुनि की (ण्व-बम्) इम पूर्वोक्त प्रकार से (युणित्ताण-स्तुत्या) स्तुति करके (विमलेण चेयसा पम्माणुरत्तो-विमलेन चेतसा धर्मानुरक्त) मिथ्यात्वमल से रहित होने से निर्मल चित्स द्वारा धर्मानुराग से युक्त हो गये । और उसी समय उन्होंने (ऊमसि य रोमकृवो -उन्धसितरोमकृप.) रोमाधित शरीरवाले होते हग बडे आदर के साथ (पयाहिण काऊण-प्रदक्षिणा कृत्वा) उनकी प्रदक्षिणा पूर्वक । एवं प्रदक्षिणा करने के पश्चात् (सिरसा अभिवदिऊग-शिरमाअभिवद्य) मस्तक झुकाकर वदना करके (अड्याओ-अतियातः) अपनेपर वापिस गये ।।०८-२०॥
अब राजा के जाने पर अनाथी मुनिने क्या किया मो कहते हैंपरमया भत्तया मति ट देवी तिया अणगारसीह-अनगार सिंहम् मनगार सिह 24 से मनायी भुनिनी एव-एवम् मावी पति प्रसारथी युणित्ताणस्तुत्वा स्तुति ४शन विमलेण चेयसा पम्माणुरत्तो-विमलेन चेतसा धर्मानुरक्त મિથ્યાત્વના મળથી રહિત બનવાથી નિર્મળ ચિત્તદ્વારા ધર્માનુરાગથી યુકત બની गया सने ते सभये तेभ ऊमसियरोमबो-उच्चसितरोमकूप शमाथिन ANपायधने घा२नी साथे पयाहिण काऊण-प्रदक्षिणा कृत्वा तेमनी प्रशिक्षणा ४१ मने प्रदक्षिणा ने पछीथी सिरसा अभिवन्दिऊण-शिरमा-अभिवन्ध भत्ता नभावीनवनाशन अइयाओ-अतियात पाताना स्थान 6५२ पाया ॥५ull