Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ०० मानिन्धम्बरपरूिपणम् सदा दुरपी सन् विपर्याय नवयु वैपरीत्यम् उपैनि-माप्नोति । एव विपर्या समुपगत स नाकतिर्यग्योनी.-नरकतिर्यग्रूपान भवान सन्धावति। नर . निर्यन र समुत्पाने इत्यर्थः । 'तु' शह पूरण। 'विप्परियाम' इति लुप्त द्वितीयान्नम् । ॥४॥ कथ चारित्र विरा-य नरपतिर्यगति प्राप्नातीत्याह
मृतम्--- उद्देसिय कीयगड निआग नं मुचई किचि अणेसँणिज । अंग्गी विवा सबभैरखीभवित्ती, ईओ चुंओ गच्छंड कह पाव ॥१७॥ छाया--आंगिक क्रीतकृत नियाग, न मुञ्चति किंचिढनेपणीयम् ।
अग्निरिच सर्वभक्षी भूत्वा, इतथ्युतो गति कृत्वा पापम् ॥४७॥ 'पना करके (मया दुही-सदा दुःखी) महा दुली होता हुआ (विप्परियासुवेद-विपर्यासम उपैति) तत्त्वों के विषय में वियरीत भाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार विपरीत भाव से वह (नरगतिरिक्वजोणी -नारक तिर्यग्योनि') नरक ए तिर्यश्वरूप भवों को (सपावह-सन्धायति) माप्त करता है।
भावार्थ-द्रव्यलिङ्गी मायु तत्त्वतः शीलवर्जित होने के कारण असयमी ही माना गया है। यह चारित्र की विराधना इसलिये करता है कि इसके प्रचलमिथ्यात्व का उदय है। और इमीसे यह दुखी होता रहता है। मिथ्यात्व का ही यह प्रभाव है जो इसके हृदय में तत्त्गे के प्रति पथार्थ श्रद्वान नहीं हो सकता है। नरक तिर्यञ्चगति में उत्पन्न होने के लिये इसको यही मिथ्यात्व प्रधान कारण बनता है ॥४०॥ सया दुही-सदा दुखी म नोगता मारता विपरियासुवेद-विपर्यासम કતિ તના વિષયમાં વિપરીત ભાવને પ્રાપ્ત કરનાર બને છે આ પ્રકારનો विपरीत साथी त नरगतिरिक्सजोणी-नरकतिर्यग्योतिः न.४ मनेतिय३५ सवान सधावड-सन्धावति प्रत २ छ
ભાવા–દ્રવ્યલિ ગી સાધુ તત્વત શીલવછત હોવાના કાણે અસ યમી માન વામા આવેલ છે તે ચારિત્રની વિરાધના એ માટે કરે છે કે મને પ્રબળ મિથ્યા ત્વને ઉદય હોય છે અને તેનાથી એ દુખિત થતા રહે છે મિથ્યાત્વને જ એ પ્રભાવ છે જે તેના હદયમાં તન તરફ યથાર્થ શ્રદ્ધા રાખી શકતા નથી નરક તીય ચગતિમાં ઉત્પન્ન થવા માટે એમને આમ પાવ૪ પ્રધ'નું કારણ બને છે જરા