Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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अमुमेवार्थ विशेषतः माह-
उत्तराध्ययनस्त्रे
मूलम् --
तमतमेणेव उ से' अंसीले, सया दुही विष्पेरियासुवेड । सधांवइ नरगति रिक्खजोणी, मोण विराहित्तु अस हुरूपे ॥१४६॥ छाया --तमन्तमसैा तु सोडशील, सदा दुःखी विपर्यासमुपैति । सन्धारति नरकति 'ग्यानी मौन विरा य असाधुप ॥४६॥ टीका--' तमतमे' इत्यादि
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अशील =शीलवर्जित अतएव असाधुस्प तत्तीर यतस्वभाव' स द्रव्य मुनि तमस्तमैर = प्रगाढ मिथ्यात्वनैव हेतुना मौन=चारित्र विराभ्य= दुपयित्वा
भावार्थ - जो मुनिजन अपने निर्वाह के लिए स्त्री पुरुषों के शुभा शुभ चिह्नो का फल उनको कहते हैं तथा स्वप्नों का इष्टानिष्ट फल प्रदर्शित करते है, पुत्र आदि की प्राप्ति निमित्त जो गड़ा तावोज देते है - अमुक स्थान पर स्नान करना कहते है, मत्र तत्र आदि विद्याओं से जो कि ज्ञानावरणीयादि कर्माव के कारण है अन्यजनों को विमोहित कर अपना निर्वाह करते है वे सब द्रव्यमुनि है। इनके ये कर्तव्य नरक आदि योनियों के दुखों से इनको पचा नही सकते है || ४५ ॥ ' इसी अर्थ को विशेष रूप से कहते हैं-- 'तम तमेणेव' इत्यादि ।
अन्वयार्थ - - (असीले - अशील ) शीलवर्जिन होने की वजेट से (असावे - असा धुरूप ) तत्त्वत. असयत् स्वभाव का (से- स ) वह द्रव्यमुनि (तम तमेणेव - तमस्तमसा एव ) प्रगाढ मिथ्यात्व से युक्त होने के कारण (मोण - मौनम् ) चारित्र की (विराहित्तु - विगध्य, विरा
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ભાવાથ – જે મુનિજન પોતાના નિર્વાહ માટે અને પુરૂષોના શુભશુભ ચિ હાના કળાને કહે છે, તથા સ્વપ્નાના સરા માઠા ફળાને સ ભળાવે છે, તથા પુત્ર આદિની પ્રાપ્તિ નિમિત્તે જે તાવીજ વિગેરે બનાવી આપે છે, અમુક સ્થાન ઉપર સ્નાન કર થાતુ કહે છે, મત્રતત્ર આદિ વિદ્યાએથી કે જે જ્ઞાનાવરણીયાદી માસવનુ કાણુ છે અન્ય જનાને વિમેાહિત કરી પેાતાના નિર્વાહ કરે છે તે સઘળ દ્રવ્ય મુનિ છે તેમના એ કત યે નરક તીય ચ અદિ ચાનીએના દુ ખેથી તેમને બચાવી શકતા નથી ૧૫૪પાા शेन अर्थाने विशेष ३५थी हे छे' तम तमेणेव " धत्यहि
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अन्वयार्थ – असीले-अशील शासने भागनारा न होताना डारथी ते असा
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रुवे - आसाधुरूप द्रव्यमुनि तम तमेणेत्र-तमस्तमसा एवं प्रगाढ भिथ्यात्वथी
| मरेसा सोपाना अरशे मोण - मौनम् यस्विनी विरादि - विराय विराधना उर्शने