Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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লায়ন टीका---'उद्दोसय' इत्यादि ।
स द्रव्यमुनिः, देिशिकम् उद्देशेन-मप्येक साधूमूहिश्य, नित्तम्-औद्दे शिक-तथा-क्रांतकृत-साध्वर्थ क्रीत नियाग-नित्यपिण्डम्-धामन्त्रणपूर्वक दत्तमशनादिक वा, तथा अन्यदपि अनेपणीयम् साधुभिग्नाव मिचिटप्यशनादिक न मुञ्चति-न परित्यजति-सः गृहातीति भावः । एविध स द्रव्यमुनि अग्निरिव सर्वभक्षी-सर्वम् अपामुकादिक सर्व भक्षयितु शीलमस्पेति तथा, भूत्वा, पापसाध्वाचारपरित्यागस्प 'मह' कृत्वा इतः अस्माद् भवान्चुतो मृत' सन् नर रगति तिग्गतिं च गछति ||४८il . चारित्र की विराधना से नरक निर्यञ्चगति कैसे प्राप्त होती है ? सो कहते हैं---'उदेसिय' इत्यादि ।
अन्वयार्थ--वह द्रव्यमुनि (उद्देसिय-आदेशिम्म) कमि भी एप साधु के उद्देश से तैयार किये गये तथा (फीयगड-क्रीतकृतम् ) साधु के लिये ग्वरीदे गये (निआग-नियागम् ) नित्यपिण्ड-आमन्त्रपूर्वक दिये गये अशनादिक पिण्डको तथा (मिचि अणेसणिज-किञ्चिद् अनेषणीयम्) अन्य कोई भी अनेपणीय-साधु के लिये आल्प्य अशनादिकपिंड-को (न मुचई-न मुचति) नहीं छोडता है। किन्तु (अग्गिविवासव भक्खी भवित्ता-अग्निरिव सर्वभक्षी भृत्वा) अग्नि के समान सर्वभक्षी होकर वह (पावक-पाप कृत्वा) साधु आचार का परित्याग रूप पाप करके (इओ चुओ-इत. च्युत ) इस भव से च्युत होने पर (गन्छइ-गच्छति) नरकगति एव तिर्यश्चगति मे जाता है।
भावार्थ--द्रव्यमुनि अग्नि के समान सर्वभक्षी रहा करता है।
ચારિત્રની વિરાધનાથી નરક ચગતિ કેમ પ્રાપ્ત થાય છે તેને કહે છે "उद्देसिय" त्याला
Aqयाथ- द्रव्यमुनि उदेसिय-औदे शिषम् ५५ मे साधुनदेशथी तयार पामा मावस तथा कीयगड क्रीतक्रतम् साधु भाट महिनामा मात निआग-नियाग नित्यति मात्र मायामा मावस अशनाEि पिउने तथा कि, अणेसणिज-किञ्चित अनेषणीयम भी ५९] मनपणीयसाधु भाट म४८स्य अशनानि पिउने न मुचई-नमति छ।उता नथी ५२तु अग्गीविवास भक्खी भरित्ता-अग्निरिव सर्वभक्षि भूत्वा मनिनी भा५४ समक्षा मनन त पावकटु-पप कृत्वा साधु मायना परित्याग३५ पा५४शन इओ चुओ-इत. च्युत मा अवधी प्रष्ट पाथी गर-गन्छति न२४गति भने तीर्थ य गतिमा लय छ
ભાવાર્થ-દ્રવ્યમુનિ અગ્નિ સમાન સર્વભક્ષી રહ્યા કરે છે તેને જપનીય