Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. २० महानिन थम्बरपनिरुपणम् __ यतचा दुश्रग्तैिरेव दुर्गतिप्राप्ति रत आह--
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नंत अंरी कठछित्ता करेई, जं से करे अप्पणिया दुरप्पया। से" नाहिई मच्चुंमुह तु पत्ते, पच्छाणुतावेण दयाविणो ॥४८॥ छाया--न तमरि कण्ठनोत्ता करोति, य तस्य करोत्यात्मीया दुरात्मता ।
म शाम्यति मृत्युमुमत प्राप्तः, पश्चादनुतापेन दयाविहीन ॥४८॥ टीका--'न त' इत्यादि ।
कण्ठन्केत्ता-कण्ठन्छेदनकारक अरि =शनु न तमन करोति, यम् अनर्थ तस्य आत्मीया-स्वकोया दुरात्मता दुष्टाचार प्रवृत्तिरूपा करोति । दयाविहीन % सयमानुष्ठाननितः स द्रव्यमुनिस्तु मृत्युमुग्व प्राप्त =मरणाभिमुस गत. पश्चादनु उसको कल्पनीय अकल्पनीय अशनादिक का कोई भी ध्यान नहीं होता है। चाहे वह औदेशिक हो चाहे क्रीन कृत हो । जन ग्रह पर गति में जाने लगता है तो नरक एव तिर्यश्च गति में जाकर अनत दुग्यो को भोगा करता है ॥४॥
अन्वयार्य-'दुश्चरित से ही दुर्गति प्राप्त होती है। इसलिये कहते है--'न त' इत्यादि । (कठरित्ता-कठच्छेत्ता) कठ को छेदन करनेवाला (अरी-अरि.) शत्रु (त न करेइ-त न करोति) उस अनर्थ को नहीं करता है कि (ज से अप्पणिया दुरप्पया करेड-य तम्य आत्मीया दुरात्मा करोति) जिस अनर्थ को इसकी यह आत्मीय दुष्टाचाररूप प्रवृत्ति करती है। यह (से-सः) वह उस समय (नाहिई-जास्यति) जान सकेगा कि जय वह (दयाविट्टणो-दयाविहीन)सयमानुष्ठान वर्जित द्रव्यमुनि (मन्चु અકલ્પનીય અનાદિકનું કંઈ પણ પ્રકારનું ધ્યાન હેતુ નથી ચાહે તે ઓસ્ટ્રેશન હોય, ચાહે હીતકૃત હોય જ્યારે તે પગતિમાં જાય છે તે નરક અને તીર્ય ચગતિમાં જઈને અન ત ૬ ખેને ભેગવતે રહે છે પાછા
"दुश्चरित्रयीत प्राप्त थाय छ" तेना भाट छ-"नत" त्या
स-क्या-कठडित्ता-कठच्छेत्ता मणाने अपना। अरी-अरि शत्रु त न करेइ-त न करोति से मन नथी ४२ते , ज से अप्पणिया दुरुप्पया करेइय तम्य आत्मना दुरात्मता करोति २पासनयन तवी मामात्मीय हुभाया२३५ प्रवृत्ति ४३ छ मा पात से-स. ते थे सभये नाहिई-ज्ञास्यति tejी शे सारे ते दयाविहणो-दयाविहीन सयभ मनुष्टान तयभान मुन्चुम्रह तु