Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ २० मृगापुनचरितपणनम
दत्य श्रेणिकभूपस्य पचन युवा मुनिराह-- मूलम्--अणाहो मि महाराय । नाहो मञ्झ न विजेंड।
अणुकपर्ग सुहि वावि, कंची नामि समेमह ॥९॥ छाया-~-अनायोऽस्मि महाराज, नायो मम न विद्यते ।
अनुकम्पक मुहृद वापि, कचिन्नामिसमेम्यहम् ॥९॥ टीका -'अणाहो' इत्यादि।
हे महाराज ! अहम् अनाथोऽम्मि, अतो मम नाथ योगक्षेमकारीअलयम्य लाभो योग., रब्धस्य परिगरन क्षेम., तत्कारी न कश्चिद् विद्यते । जह कश्चिदपि अनुकम्पकम् अनुकम्पाकारक. जन मुहद-मित्र पाऽपि न अभि समेमिनाभिसगच्छामि-न प्राप्नोमि । मम योगक्षेमकारी कश्चिदप्यनुकम्पर मुहृद् या नाभूनतोऽह प्राजित इति भाव ॥९॥ मुग्व से यह सर पाते मुनना चाहता हु ॥ ८ ॥
अणिकराजा के वचन सुनकर मुनिराज करते है--'अणाहोमि' इत्यादि। __ अन्वयार्थ--(महाराय महाराज !) हे राजा म (अणाहोमि-अनाय. अस्मि) अनाथ इ-मेरा योग क्षेमकारी ोई नहीं है इसी लिये (मझ नाहो न विनइ-मम नाथः न विद्यते) मेरा कोई नाथ नहीं है। अलव्य के लाभ का नाम योग तथा लय के परिपालन करने का नाम क्षेम है। (अह कचि अणुकपग सुर्हि वावि नाभिसमेम्-अह कचित अनुकपक सुहृद वापि न अभिसमेमि) मै किसी भी दयाल तथा मित्रजन के समीप नहीं गया हु । अर्थात्-मुझे ऐसा कोई भी दयालु तथा मित्रजन नहीं दिखा कि जो मेरे लिये योग क्षेमकारी हुआ हो-अन अपने को अनाय समझकर में दीक्षित हो गया ह ॥ ९ ॥ एतमर्थ अणोमि मापना भुमेथी मे पात सामणवानी ७२७१ रामु छु ॥८॥
श्रा 100ना वयत सासणीन मुनिरा ४३ छ--"अणाहोमिया ।
सन्याय-महाराय-महाराज । है शाहु अणाहोमि-अनाथ अस्मि અનાથ છું, મારા ઉપર ક્ષેમ કરનાર એવુ કઈ નથી આ કારણે કેન્દ્ર નાદ विज्जड-मम नाथ न विद्यते भारे। नाय नथी मनामनु नाम योग तथा सम्पनु परिपादान ४२वावाणानु नाम म छे अह कंचिअणुकपग मुहि वावि नाभिसमेम्-अह कचित अनुरुपक सुहृद वापि न अभिसमेमि याण તથા મિત્ર જનની પાસે ગયો નથી અર્થાત્ મને એ કઈ પણ દયાળુ મિત્રજન મળેલ નથી કે જે મારા માટે યોગ ક્ષેમકારી થયેલ હોય આથી મારી જાતને અનાથ મમ ને મે દીક્ષા અંગીકાર કરી છે | ૯ |