Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तगध्ययनमः प्रति पृच्छतिम्मन्न कराति । 'तुगन्द. पादपूरण। चन्दनानन्तर प्रदभिगाभिधान महापुरपेषु दृष्टिपथे समागतेपेर तेपा प्रणाम गर्नध्य , इति मुचनार्थम् ॥७॥
मन्नस्यस्पमाह-- मूलम्-तरुणोऽसिं अनो। पबईओ, भोगकॉलम्मि सजया।
उवडिओऽसि सामन्ने, एयम" सुगामि तो ॥८॥ छाया--तरुणोऽसि आर्य ! मानिो, भोगाले सयत!।
उपास्थितोऽसि श्रामण्ये, एतमर्थ श्रृणोमि तापद |८|| टीका--'तरुणोसि' इत्यादि ।
है आर्य ! हे सयत ! त्व तरुगः युराऽसि, जत पय अस्मिन् भोगकाल =भोगयोग्यवयसि, त्व पर प्रत्रनितः ' कथ च आमण्ये असिधारा तुल्य साधु धर्मपालने उपस्थितोऽसि उद्युक्तोऽसि । तावत्-प्रथमम् एतमय-तब मनव्याया हेतु अणोमि-श्रोतुरामोऽस्मि । पश्चायव स्थयिष्यसि तदापियोप्यामीति भाव. १८|| प्रदक्षिणा पूर्वक उनके न अतिसमीप और न अतिदूर हाथ जोडकर पैठ गये और इस प्रकार पूछने लगे ॥७॥
क्या पृठा ' सो कहते है--'तरुणोसि' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(अनो-आर्य) हे आर्य ! (सजया-सयत) हे सयत । आप इस समय (तरुणोऽसि-तरुणोऽसि) भर जवानी मे है अत• यह समय तो महाराज (भोगकालम्मि पवहओ-भोगकाले प्राजित असि) भोग भोगने रा है-फिर आप इस समय कैसे दीक्षित हो गये हैं और (सामन्ने उवडिओऽसि-श्रामण्ये उपस्थित असि) असिधारा तुल्य जो यह श्रामण्य-साधुपना है उसके पालन करने में कैसे उधुक्त बने है। मैं (ता-तावत्) सर्व प्रथम (ण्यमट्ट सुणामि-एतमय श्रृणोमि) आपके अनासन्ने प्राञ्जलि प्रतिपृति प्रतिक्षा ४0 तमाथी २ ५९ नही तेम मीन પણ નહીં એ રીતે હાથ જોડીને બેસી ગયા અને આ પ્રકારે પૂછવા લાગ્યા છે !
नमे भुनिरा ने शु ५७यु १ ते ४ छ-"नस्णोसि" त्याहि
सन्नया-अज्जो-आर्य माय । सजया-सयत है सयत । २५५ । समय तरुणोऽसि-तरुणोऽसि १२ नुवानीnt छ।, माथी l समय तो महास भोगकालम्मि पत्रदओ-भोगकाले भाजित. ला सागवाना छ त्यारे मावा समये आप ज्याला क्षित माना गया छ। अनेसामण्णे उवडियोऽसि-श्रामण्ये ૩ચર અતિ તરવારની ધાર સમાન જે આ ગ્રામર્થ્ય-સાધુપણું છે એનું પાલન ४२वामा म धुत मन्या छ। १९ ता-तावत् साथी प्रथम एयम मुणामि