Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टोकाज • महानिर्घ स्वगपनिकरणम् मृलम्-तओ ह एवंमासु, दुक्खमा हु पुणो पुंणो।
वेयणा अणुभविउं में, ससारम्मि अणंतए ॥३१॥ आया -ततोऽहमेमनर, दु'क्षमा बलु पुन पुन ।
चंदना अनुभवितु यन् , समारे अनन्त के ॥३१॥ टीका-'तो' इत्यादि ।
तत तदनन्तर-रोगमतीमारेषु रिफलेविति भाव'. अहमेव क्ष्यमाण प्रकारेण अनुपम्, यन् वेदना.= अमिवेदनारिका स-नि-बयेन अनुभरित चेदयितु द समा' दुशमा। एप विधा वेदना अनन्त के ममारे मया पुन पुन = वार पारम् अनुभृता' |॥३१॥
यतश्चमतमूलम्-सड च जंड मुच्चेजा वेयणा विउला इओ।
खंतो दतो निरांरभो, पव्वैए अणगारिय ॥३२॥ डाया--समय यदि मुश्चय, वेदनाया विपुलाया इत.।
सान्ता दान्तो निगरम्भ', प्रजेयमनगारिताम् ॥३२॥ 'तो ह' इत्यादि।
अन्वयार्थ-(तओ-तत.) रोग का प्रतीकार जन विफल हो गया तर (अह एवमाह सु-अहम् एव अब्रुवम् ) मैने ऐमा रहा कि (वेयणा अगुभचिउजे दुस्वमा-वेदना अनुभवितु अक्षमा ) ये आग्व आदि की वेदना ययपि अनुभवन करने के लिये अशक्य है (अणत ए-ससा रम्मि पुणो पुणो-अनन्तके ससारे पुन पुन.) परन्तु क्या किया जायमेने तो इस अनत ससार मे ऐसी वेदनाएँ बारवार भोगी हे ॥१॥
इस प्रकार की अना पता का अनुभव होने पर उन्हो ने क्या विचार "तो हत्या
मन्वयार्थ:-तओ-तत शगना प्रतिहार न्यारे नि नियो त्यारे प्रह एवमासु-अह एमपम् भे मे ४यु वेयणा अणुभविउजे दुक्खमा-वेदना अनुभवितु अक्षमा मा माम माहिनी नामाने भनुस ७२पामा २०२४य छ अगतए ससारम्मि पुणोपुणो-अनन्तके ससारे पुन पुन परतु उपाय शुभे તે આ અન ત સ સામે આવી વેદનાઓ વાર વાર ભેગવી છે ૩૧
આ પ્રકારની અનાથતાને અનુભવ થવાથી મે શું વિચાર કર્યો તે કહે છે –