Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराप्ययनस्त्र
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ऽस्ति । ताम् अनाथताम् मम्मम सकाशात् पचित्त =Vफारमनाः, अतण्य निभृतः स्थिरश्च भूत्वा श्रृणुप्पा याटशी साऽनायना तथा---'नियटधम्म' इत्या दिना-निर्ग्रन्थाना धर्म.-आचारम्त लगापिपाप्यापि यथा एकंचिद वह कातरा-निःसत्वा नरा-पुरुषा. सीदन्ति चारिताराधने शिथिली भवन्ति । सीदनलक्षणेयमपराऽनाथ तेति भारः ॥ ॥३॥ तामनाथनामेव दर्शयति--
मूलम्जो' पव्वइत्ताण महव्वयाड, संम्म च नो' फासयई पाया। अणिग्गहप्पा ये रसेसु गिद्धे, ने मूलओ लिदेड बधणं से' ॥३९॥ छाया--प्राज्य महाप्रतानि, सम्यक् च नो स्पृशति प्रमादात् ।
अनिप्रहात्मा च रसेपु गृद्धो, मूलतन्नित्ति व न स ॥३९॥ फिर दूसरे प्रकार से भी अनाथता कहते हैं-'इमा' -इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(निवा-नृप) हे राजन् ! (इमा अण्णावि अणायाइय अपि अन्या अनाथना) यह एक दूसरी प्रकार की भी अनाथता है। (मे तमेगचित्तो निहुओ मुणेहि-मे ताम् एकचित' निभृतः श्रृणु) मैं उसको तुम से कहता है। तुम उसको एकाग्रचित्त एव स्थिर होकर सुनो,। वह अनाथता यह है-(नियठ धम्म लहियाणवि एगे बहु कायरा नरा सीयन्ति-निग्रंन्यधर्म लम्चाऽपि के बहकातराः नरा+ सीदति) निर्घन्य धर्म अर्थात चारित्र को प्राप्त करके भी कितनेक ऐसे कायर नर हुआ करतेहैं जो उस चारित्र की आराधना करने में शिथिल हो जाते है। इस प्रकार यह चारित्राराधन की शिथिलता दृमरे प्रकार की अनाथता कही गई है ॥३८॥
पछी मी थी पY मनायतान छ--"इमा" त्याह।
सया--निवा-नृप है शलन् । इमा अण्णा वि अणाहया-दय अपि अन्या અનાથ આ એક બીજા પ્રકારની પણ અનાતા છે, જે હું તમને કહુ છુ मे तमेगचित्तो निहओ मुणेहि-मे ताम एकचित्त निभृत श्रृणु तभी ते स्थिर ताथी मेथित मनीन सालणे ! ते मनायता मा छ नियटधम्म लहियाण वि एगे बहकायरा नरा सीयन्ति-निग्रन्थधर्म लवाऽपि एके बहुकातरा सीदन्ती નિર્ચ ધર્મ અળતું ચારિત્રને પ્રાપ્ત કરીને પણ કેટલાક એવા કાયર મનુષ્ય થાય છે કે, જે તેઓ ચારિત્રની આરાધના કરવામાં શિથિલ થઈ જાય છે આ પ્રકારની અનાથતા કહેવામા આવેલ છે ૩૮