Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदशिनी टीका अ. २० मृगापुनचरितवर्णनम्
राज्ञो न श्रुता मुनिरह-- मूलम् न तुम जाणे अणाहस्स, अत्थ पोत्थं च पत्थिवा ।।
जंहा अणाहो हवेड, सणाहो वा नराहि वा । ॥१६॥ छाया--नत्त्व जानासि अनायस्य, जयं प्रोत्थ च पार्थिव ! ।
यथा अनारो भवति, सनाथो वा नराधिप ॥१६॥ टीका-'न तुम' इत्यादि।
हे पार्थिव हे प्रथिवीपते ! त्वम् अनाथस्य:अनावशदम्य श्रथ न जानासि, तथा प्रोत्थापकण उत्थान-मूलकारण-केनाभिमायेण मया त्वमनाथ उक्त इत्येव रूपा न जानासि । एतदेव स्पष्टयति-हे नराधिप-हे नरेश्वर ! यथा येन पकारेण पुरुष -अनाथः सनाथो वा भाति, तथा त्व न जनासि ॥१६॥ अनाय कैसे हो सस्ता हु। (ह-हु) इस लिये (मते ! भदन्त) हे भद त मुझे अनाय कहना सर्वथा असत्प्रलाप है। ऐसे प्रलाप मे मृपावाद का दोप आता है। (मा मुस वा-मा मृपा वादी) अत आपको ऐमा (असत्य) नही कहना चाहिये ॥ १५ ॥
इस पर मुनिराज कहते हैं-'न तुम' इत्यादि ।
अन्वयार्थ--(पत्यिवा-पार्थिव) हे राजन् ! (तुम अणाहस्स अत्य पोत्य च नजाणे-त्व अनायस्व अर्थ प्रोत्थ च न जानासि) तुम अनाः के अयं को एव मैंने तुमको अनाथ कैसे कहा है इस मेरे अभिप्राय भी उत्पत्ति के मूलकारण को नहीं जानते होतथा (नराहिवा जहा अणाहो हवह समाहो वा-नराधिप यथा अनाथो भवति सनायो वा) हे नगेधिप। पुरुप अनाय व सनाथ कैसे होता है यह भी तुम नहीं जानते हो इसी लिये तुमको मेरे कथन में मृपावाद प्रतीत होता है ॥ १६ ॥ २५ १ ह ह ४५ भते !-भदन्त महन्त ! मन मनाथ डोक्या असत्य पात छ मापाप्रसा५मा भृपावाहने होप आव छ मा मुम वए-मा मृता वादी• माथी म सा असत्य न मास नये ॥१५॥ . माना 6५२ मुनिश ४ छ-"न तुम" त्यादि : मन्वयाय--पत्थिवा-पार्थिव 3 रानू। तुम अणाहस्स अत्थ पोत्थ च न जाणे-त्व अनाथस्य अर्थ प्रोत्य च न जानासि तभी मनायना मयने, तभी મે તમને અને થ કેમ કહ્યા, એ મારા અભિપ્રાયની ઉત્પત્તિના મૂળ કારણને જાણતા नथी तथा नराहिवा जहा अगाहो हवद सणाहो वा-नराधिप यथा अनाथो भवति સના વા પુરુષ અનાથ તેમ જ સનાથ કઈ રીતે થાય છે એ પણ તમે જાણતા નથી આથી મારા કહેવા માં તમને મૃષાવાદ પ્રતીત થાય છે કે ૧૬
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