Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका 4. १९ गाउनचरितवर्णनम् । प्यामि-श्रुतचारित्रलक्षणधर्म विचरिप्यामीत्यर्थः । 'ग' शन्दः, परणे । 'तु' शब्दोऽवधारणे ॥७७॥
__ मृगम्-जया मियस्त आयको, महारपणम्मि जायर्ड ।
अच्छत रखमूलम्मि कोणं ताहे तिगिच्छंई ७८॥ डाया-यदा मृगम्य आतङ्को, महारण्ये जायते ।
आसीन रक्षमूले, रस्त तदा चिरित्सते ॥७८॥ टीका--'जया' इत्यादि।
या महारण्ये महाटव्या मृगस्य आतङ्को-रोगो जायते, तदा वृक्षमले आसीन त मृग कचिकित्सते औषधोपदेशेन नीरोग क करोति, न कोऽपीत्यर्थः। ७८॥
__मूलम्-को वा से ओसंह दे, को वा से पुच्छई सुह ।
को"वों से भत्तपाणं वो, आहरितुं पणामए ७९॥ (पम्म चरिस्मामि-धर्म चरिप्यामि) श्रुतचारित्ररूप धर्म का आचरण कसगा। मुझे इस धमके सेवन में किसी सहायककी अपेक्षा नहीं है ॥७॥
इस पर दृष्टान्त कहते हैं-'जया' इत्यादि ! - अन्वयार्थ-हे माततात ! म आप से पूछताहू कि (जया-यदा) जिम समय महारण्य में विचरने वाले (मियस्स-मृगस्य) मृग को कोई (आयको-आतड्को) रोग हो जाता है उस समय (रुग्वमूलम्मि-वृक्षमूले) वृक्षके मूल म (अन्त -आसीन) एक और पडे हुग (कोण ताहे तिगिच्छह-कस्त तदा चिकित्सते) उम भृगकी चिकित्सा कौन करता है ' अर्थात् कोई नहीं करता है ॥७८॥ मात्माने लावित सन धम्म चरिस्सामि-धर्म चरिष्यामि श्रुत यानि३५ मनु આચરણ કરીશ મને આ ધમ ના સેવનમાં કે સહાયકની અપેક્ષા નથી ૭
मानब ५२ दृष्टान्त छ--"जया" त्याह!
२मन्वयार्थ - माता पिता हु मापने ५५ 33, जया-यदा २ समये महा मरयमा पियवावाणा मियस्स-मृगस्य भृगना आयको- आतङ्को २ थालय, सभये रुक्खमूलम्मि-वृक्षम्ले वृक्षना थडनी पासे अच्छत-आसीन 43सा कोण ताहे तिपिच ई-कस्त नदा चिकित्सति से भृगनी विnि ४२ छ? अर्थात 18 ४२४ नथी । ७८ ॥