Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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তন্ময় 'एमयूर' इत्यारभ्य साइला पानी पाउ' इत्यंतदगाथापन गाया पञ्चकेन दृष्टान्तमुत्या दान्तिक रूपे सात्मनि एतदुपसहर्नु गाथाद्वयमाह-- मूलम्-एव समुदिओ भिक्खू, एवमेवे अणेगंगो।
मिगारिय चरित्ता ण, उडू पमई दिस ॥८२॥ छाया--एर समुत्थितो भिक्षुः, पचमेर अनेग ।
मृगाचर्या चरित्वा खलु, उधी प्रामति दिशम् ॥८२। टीका--'एच' इत्यादि।
एवं मृगवद् समुत्थितः सयमानुष्ठाने समयत इति भारः, एवमेव मृग देव अनेकग अनियतस्थानेषु गमनशोल:-यथा मृगो नैकत्र क्षतले आस्ते, किन्तु कदाचित् क्वचिद् क्षतले, अन्यत्र या निवसति, तथैव साधुरप्यनियत वासितया कदोचित् श्यचित्स्थानेऽन्यदा ऽन्य रिमन् स्थाने निवसतीति भाव । एतादृशो मिशु'-मुनि. मृगचर्यों चरित्वा मृगवद्रोगाभावे गोचर गत्वा, तत्र लब्धेन भक्तपानेन शरीरधारण कृत्वा विशिष्टसम्यग्ज्ञानादि भावत' शुक्ल याना पाउ-पानीय पीत्वा) पानी पीकर और खा कर पीकर अपनी स्वाभाविक गति से इधर फिरता हुआ अपने स्थान पर आ जाता है ॥८॥
अब इसका दाष्टान्तिक कहते हैं-'एव' इत्यादि। __अन्वयार्थ-(एव-नवम्) इसी प्रकार (समुहिओ-समुत्थितो समय के अनुष्ठान करने मे तत्पर अथवा समुद्यत-उद्यम करनेवाला (भिक्खू -भिक्षु.) भिक्षु रोगादिक आतकों की उत्पत्ति के समय चिकित्सा के प्रति निरपेक्ष रहा करता है और (एवमेव) मृग की तरह ही (अनेकगोअणेकग) अनियत स्थानों में फिरता रहता है। और जब वह नीरोग हा जाता है तब (मिगचारिय चारित्ताण-मृगचर्या चारित्वा) बह गोचरी के लिये निकल कर उसमे लब्ध भक्त पान से अपना निर्वाह करता है । तथा पानी य पीत्वा पाणी पीय छ भने मापान घोताना स्वाभावि गतिथी या ત્યા ખેલતા કૂદતા પોતાના સ્થાન ઉપર પહોચી જાય છે કે ૮૧i
वे मानु शिित छ-"एव" त्याह!
अन्वयार्थ:--एक-एवम् माशते समट्रिो -समस्थितो सयमनु मनुष्ठान ४२वाभा acीन अथवा सभुधत भिक्ख-भिक्ष भिक्षु श माताना उत्पात
मते वित्सिा त२५ निश्पक्ष २॥ ४२ छै मन एवमेव-एवमेव भूगनी भाई अणेकगी-अनेकश• अनियत स्थानमा रता र छ यारे ते निरोगी बनी one छ त्यारे ते मिगचारिय चारित्ताण-मगचर्या चरित्वा गायश भाटे निजी भा મળતા ભક્તપાનથી-આહાર પાણીથી પોતાના નિર્વાહ કરતા રહે છે, તથા વિશિષ્ટ