Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदिशतो टीका भ० ९ मृगापुश्चरितवर्णनम्
किच-मूल्म- जंहा अग्गिसिहां दित्ता, पाउं होड मुदुक्करा । तेह दुक्कैर कैरेउ जे, तारुण्णे समणत्तणं ॥३९॥ छाया -- यथा अग्निशिखा दीप्ता, पातु भवति सुदुष्करा । तथा दुष्कर कर्त्तुं यद, तारुण्ये श्रमणत्वम् ||३९|| टीका- 'जहा' इत्यादि ।
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हे पुन | यथा दीप्ता = प्रज्वलिता अग्निशिग्वा = अग्निज्वाला पातु पान दुरा भवति । तथैव तारुभ्ये = यौवने श्रमणत्त्र = चारित्र +ं = पालयितु
भावार्थ - चारित्र आराधक पुरुष का यही एक कर्तव्य है कि वह अपने चारित्र की सभाल मे ही अपने जीवन को खपा देवे। इसी लक्ष्य की सिद्धि मे वह अपने को विसर्जित कर देवे । व्यर्थ के झझटों में न पडे । उसकी दृष्टि सर्पकी दृष्टि के समान ही अपने लक्ष्य पर स्थिर - अटूट रहनी चाहिये । क्यों कि चारित्र लौहे के घने हैं । इनका मोमके दातो से चयाना जैसे आसान काम नहीं है उसी प्रकार चारित्र का पालना भी आसान काम नही है । अतः बेटा । हमारी बात मानो - और घर पर ही आनद से रहो ||३८||
और भी - 'जहा' इत्यादि ।
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अन्वयार्थ - हे पुत्र ( जहा- यथा) जैसे (दित्ता - दीसा ) प्रज्वलित (अग्गिसिहा - अग्निशिखा) अग्नि की ज्वाला ( पाउ सुदुक्करा होड-पातु सुदुष्करा भवति) पीना अत्यन्त दुष्कर है (तह- तथा) उसी प्रकार ( तारुण्णे
ભાષા ચારિત્ર આરાધક પુરુષનુ એ જ કન્ય છે કે તે પેાતાના ચાન્તિની સભાળમા જ પોતાના જીવનને ખપાવી દે આજ લક્ષ્યની સિદ્ધિમા તે પેાતાને વિસર્જીત કરી દે વ્યથ વાતામા એ પઢતા નથી એમની દૃષ્ટિ સની દૃષ્ટિની જેમ પેાતાના લક્ષ્ય ઉપર સ્થિર-અતૂટ રહેવી જોઇએ, કેમકે ચારિત્ર એ લાઢાના ચણા ચાવવા જેવુ છે એને ચાવવાનુ કામ જેમ સરળ કામ નથી એજ પ્રમાણે ચારિત્રનુ પાલન કરવું એ પણ સરળ કામ નથી માટે બેટા ! અમારી વત સમજો, માના અને ઘેર હીને આનદ કરા ।। ૩૮ ૧૫
वजी पशु - " जहा " छत्याहि
मन्वयार्थ' – हे थुत्र । जहा यथा ? दित्ता - दीप्ता प्रज्वलित अग्गिसिहा - अग्नि शिखा अग्निीनी क्याजाने पाउ सुदुक्करा होउ - पातु सुदुष्करा भवति चीवी मे