Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसत्रे मह मन्येय । येन मया नरकेवत्युष्णशीतादयो महावेदना अनन्तवारमनुभूताः, तस्य मम महाप्रतपालन शुदादि सहन ा फथ दुप्फरम् ? frतु नेर दुष्करम् । तस्मात्मनज्यैव मया ग्रहीतव्येति ॥७४॥
एवमुक्त्वा विरते मृगापुरे मातापितरो यदुक्तरन्तौ तदाहमूलम्-तं वित अम्मापिरो, छदेण ऍत्त । पव्वया ।
नवर पुण सार्मपणे, दुख निप्पडिकम्मया ॥७५॥ छाया-त ब्रूतोऽम्बापितरौ, छन्देन पुत्र ! प्रान !
नवर पुनः श्रामण्ये, दुःख निप्पतिकर्मता ॥७५ । टीका-'त वित' इत्यादि।
अम्बापितरो त मृगापुन कुमार व्रत:-हे पुत्र ! छन्देन यधारुचि प्रवन%D प्राज्यां गृहाण | नवर-विशेपस्तु पुनरयमस्ति यत् श्रामण्ये चारित्रे निप्पति एव सुखोपचित कैसे मान । जब मैंने अननगर नरकों में अति उष्ण शीतादिक की दुख वेदनाओं को भोगा है तर उनके आगे महावतों की पालन, करना और क्षुधादिक की वेदनाओं को सहना कौनसी गिनती है। इनके पालन मे उनकी अपेक्षा कोई दुष्करता नहीं है। इसलिये मैं दीक्षा अवश्य २ धारण करूँगा ॥७४॥ - एसा करने पर मातापिताने क्या कहा सो कहते हैं-'त बित' इत्यादि
अन्वयार्थ--मृगापुत्र के इस प्रकार स्थन को सुनकर तथा उसकी हार्दिक दृढता जानकर (अम्मापिअरो-अम्बापितरौ) मातापिता ने (ततम्) उससे (विंत ब्रूत) कहा (पुत्त-पुत्र) हे बेटा ! (छदेण पब्धयाछन्देन प्रज) तुम रुचि के अनुसार दीक्षा ले सकते हो। हमको इसमे कोई बाधा नही है। (नवर-नवरम्) परन्तु एक बात है कि (सामण्णेકઈ રીતે માનું ? જ્યારે મે અન તવાર નરકમાં અતિ ઉષ્ણ શીતાદિકની દુખ વેદનાઓને ભેગવેલ છે ત્યારે એની આગળ મહાવ્રતની પાલન કરવી અને ક્ષુધા દિકની વેદનાઓને સહેવી કઈજ હીસાબમાં નથી એના પાલનમાં તેની અપેક્ષાએ કોઈ દુષ્કરતા નથી. આ કારણે હું દીક્ષા અવશ્ય અવશ્ય ધારણ કરીશ ! ૭૪ ]
मार्ग ४ाथी माता पिताम्य शु यु त ४ छ-"त बित" त्या ।
અન્વયાર્થ–મૃગાપુત્રના આ પ્રકારના વચનને સાભળીને તથા એની હાદિક ४८ताने oneyीन अम्मापिअरो-मातापितरौ माता पिता त-तम् तेन बित-बूत ४-पुत्त-पुन छदेण पव्यया-छन्देन प्रव्रज भारी थी अनुसार दीक्षा स छ। सभा। सभा
वा नयी नवर-नवरम् परतु मे पात ,