Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
उत्तगध्ययनसत्रे लेसना करोति । उपललणत्याव-स्य च वार्तालाप ऊर्थन पतिलेमयनि । तमा -नित्य सर्वदा गुम्परिभाषका=गुरोरागातनाकारको भाति । पताशो य. साधु. स पापश्रमण उत्युच्यते ॥१०॥
तथामृतम् --वहुमायी पमुंहरी, थेहे लुंहे अणिग्गहे ।
असविभागी अचियत्ते, पावसमणे ति बुचंड ॥११॥ छाया-महुमायी ममुखर., स्तन्धो टुन्ध अनिग्रहः ।
असपिभागी अप्रति कर., पापश्रमण इत्युच्यते ॥११॥ टीमा-'पहुभायी' इत्यादि।
बहुमायी-प्रचुरमायायुक्तः प्रमुखर प्रकण वाचालः, स्तन्य =अहकारी लुब्ध-गोमो, अनिद्रह अवशीकृतेन्द्रियन्गेइन्द्रियसमूह , असरिभागीलानादि वस्त्र पानादिकों की प्रतिलेखना करता है वह (पमत्ते-प्रमत्त.) प्रमत्त है तथा प्रनिलेवन क्रियाके समयमे भी जो दूसरोंसे वार्तालाप करता है और प्रतिलेखना करता जाता है वह भी प्रमत्त है तथा (णिच्च गुरु परिभावए-नित्य गुरुपरिभावक) हमेशा जो गुरुदेवली आशातना करता रहता है वह भी पमत्त है ऐसा माधु (पावसमणेत्ति वुच्चइपापमण इत्युच्यते) पापअमग कहा गया है ॥१०॥
तथा-'बहुमायी' इत्यादिजो साधु (बहुमायी-बहुमायो) प्रचुर मायाचार सपन्न हो (पमुहरीप्रमुग्वरः) प्रचुर बकवाद करनेवाला हो ( यद्धे-स्तब्ध ) अहकारी हो (लद्धे-लब्धः) लोभी हो (अनिग्गहे-अनिग्रह) इन्द्रियोको वशमे करने ४२ छ, ते पमत्ते-प्रमत्त प्रमत्त तथा प्रतिमन याना समयमा ५२ બીજાઓથી વાર્તાલાપ કરે છે અને પ્રતિલેખના કરતા જાય છે તે પણ પ્રમત્ત છે तथा णिच गुरुपरिभावए हमेशा २ पोताना गुरुवनी माशातना ४२ ९ ते ५ प्रमत्त छ पावसमणेत्ति वुच्चइ-पापश्रमणइत्युच्यते मेवा साधुने पापश्रमा કહેવામાં આવેલ છે ૧ના
तथा-"वहमायीत्या
अन्वयार्थ साधु वहमायी-बहुमायी प्रयु२-अत्यात मायाया२ सपन्न डाय पामुहरीन्प्रमुखर प्रयु२-१धारे १४वा ४२नार डाय थद्धे-स्तब्ध म री दाय, लद्ध-लुब्ध बोली हाय, अनिग्गहे-अनिग्रह धन्द्रियाने शभा रामनार न डाय