Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका में १२ मृगापुप्रचरितवर्णनम् नास्तिवेदना-बमातरूपा यस्य स तथा, असातवेदनारहित. स जीव मुखी भवति । आमिर्गाथाभिमकरणाकरणयोर्गुणदोपदनाद्धर्म करणाभिप्राय प्रकटितः ॥२१॥
सु रकारितया धर्म एव कर्तव्य इति पूर्वोक्तमागय ढीकते पुनटष्टान्त माह-~मूलम् जहा गेहे पलित्तमि, तस्तं गेहस्त जो पडू ।
सारभडाइ नीणेड, असार अवउझंड ॥२२॥ छाया--या गेहे पीले, तम्य गेहस्य यः प्रभु ।
मारभाण्डानि निप्पासयति, असारम् जपोयति ॥२०॥ टीश-~'जहा' टत्यादि ।
हे पितरों । यथा मेहे प्रदीप्ते प्रचलिते -तम्य गृहम्य य. प्रमुःसात वेदनरूप सुग्व का भोगने वाला होता है। इन गाथाओं द्वारा मूत्रकार ने वर्मारने म तथा धर्म नहीं करने में गुण और दोपों के प्रदर्शन से यह बात पुष्ट की है कि धर्म करना ही श्रेयस्कर है।
भाचार्य-प्रमानावेदनी का नाम दु ग्व और सातादनी का नाम सुख है। जीव जर धर्म की शीतल छत्रछाया का महारा पा लेना है तब वह सावध व्यापारों के करने से रहित हो जाता है। इस तरह पापकर्म से रहित होता हुआ वह जीव जर परलोक जाता है तब उसको परलोक में सातवेदन रूप सुग्वका ही अनुभव होता है। इस तरह वह सुग्वी बन जाता है ॥ २१ ॥
__इसी आशय को मूत्रकार टप्टान्त द्वारा दृढ करते हैं-'नहा' इत्यादि।
अन्वयार्थ--(जहा-या) जैसे (गेहे पलित-गेहे प्रदीप्ते) घर में आग વાય છે ગાથાઓ દ્વાન સૂત્રકારે ધર્મ કરવાના તથા ધર્મ ન કરવાના ગુરુ અને દેશોના પ્રદર્શનવી એ વાતને પુષ્ટ કરી છે કે, ધર્મ કરે એજ શ્રેયસ્કર છે
ભાવાર્થ—- અસાતા વેદનનું નામ દુ ખ અને માતા વેદનનું નામ સુખ છે વ જ્યારે ધમની શીતલ છત્ર છાયાને આશરો મેળવી લે છે ત્યારે તે સાવવ વ્યાપ કરવ થી હિત થઈ જાય છેઆ રીતે પાપકર્મથી હિન બને એ જીવ જ્યારે પોકમાં જાય છે ત્યારે તેને પહેમા માતા વે-નરૂપ સુખનો જ અનુભવ થાય છે આ રીતે એ સુખી બની જાય છે ૨૧
से मायने सूत्रसर सातारा ४८ ४२ छ--"जहा" याहा मन्वयार्थ:-जहा-पथा रेम गेहे पग्निमि-गेहे प्रदीप्ते घरमा भ ने