Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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४९६ गोवृमादि, मेप्याः दासीदासवर्गः, तपु-धनधान्यप्यूवर्गविषये प्रत्ययः, परि ग्रहविवर्जनम्-परिग्रहस्य-तग्रहम्य शिर्जन यावजीर पर्नव्यम् । साधनो धन धान्यमेष्य वर्गाणा सग्रह यार-जीर ने फुर्वन्तीति मार । तया-सारम्भ परित्यागः-सर्वे ये आरम्भा न्याधुपार्जनस्पाः सारवल्यापारास्तेपा परि त्यागश्च यावज्जोर कन्यः। अनेन निराकाहारमुकम् । तया मरेत्र निर्ममत्वम्
ममेति भारराहित्य च याज्मीर धारयितव्यम् । एतत्सरे सुदुष्करम पारि तुमशक्यम् । अनेन पञ्चगमहानतम्य मुहाकरत्र सचितम् ॥२९॥
किं च-'धणधन्न०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-हे पुत्र! साधु (धणधन्नपेसवग्गेसु-धनधान्यमेष्यधर्गेषु) धन, धान्य एव प्रेप्य-दासी, दास आदिके विषय में (परिग्गर विध ज्जण-परिग्रहविवर्जनम्) सग्रह करनेका परित्याग यावनीव कर दता है। तथा (सव्वारभपरिचाओ-सारभपरित्यागः) ट्रव्यादिक की उपाजैनरूप आरम का भी वह त्यामी होता है एव (निम्ममत्त-निर्ममत्वम्) उसको किसी भी वस्तु में कहीं पर भी 'यह मेरी है। इस प्रकार का भाव नहीं करना चाहिये । सो यह सब (सुदरम्-सुदष्करम्) तुम्हार से बेटा! यावज्जीव नहीं मध सकता है। यह मार्ग यरत ही कठीनतम है। इस गाथा द्वारा पचममावत की दुष्करता प्रकट की है।
भावार्थ-मातापिताने मृगापुत्र को यह भी समझाया कि बेटा साधु अवस्था में साधुको यावज्जीव धन, धान्य, दासी, दास आदिका एव ममस्त आरभ का परित्याग फरदेना पड़ता है। तथा किसी भा ठिकाने उसको "यह मेरा है। इस प्रकार का भाव को छोड देना पडता qणी पशु-"धणधन्ना" प्रत्यादि
अन्वयार्थ पुत्र साधु धणधन्नपेसवग्गेस-धनधान्यप्रेष्यवर्गपु धन धान्य भने हासी, स माहिना विषयमा परिगहविवजणा-परिग्रहविवर्जनम् स US ४२वाना त्या भाभ२४शवा ५3 छ वणी सवारभपरिचाभो-सर्वारभपरित्याग. द्रव्यानि 6पान३५ सामना ५ ते त्यासी जाय छ, तभ७ निम्ममत्तनिर्ममत्व ई पस्तुमा "24 भारी छ" या प्रसरतामा शत ना भाट हे पुत्र मा सघाणु सुदुकरम्-सुष्करम तमाराथी 90044 साधी श1413 નથી આ માર્ગ ઘણે જ કઠીન છે આ ગાથા દ્વારા પાચમા મહાવ્રતની કરતા પ્રગટ કરવામાં આવેલ છે
ભાવાર્થ-માતાપિતાએ મૃગાપુત્રને એ પણ સમજાવ્યું કે, હે બેટા ! સાધુ અવસ્થામાં સાધુએ જીદગીભર ધન, ધાન્ય, દાસ, દાસી આદિને તેમ જ સાથ પ્રારને પરિત્યાગ કરી દેવો પડે છેવળી કઈ પણ ઠેકાણે “આ મારૂ છે આ