Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे
द्वितीयममहानतम्य दुप्फरतामाद-- मूलम्-निच्चकोलपमत्तेण, मुसावायविवजणं।
भासियव्य हिंय संच, निचाउत्तेण दुकरम् ॥२६॥ छाया-नित्यकालाप्रमत्तेन, मृपाराधिनम् ।'
___मापितध्य हित सत्य, नित्यायुक्तन दुकरम् ॥२६॥ टीका-'निचकाल इम्यादि ।
नित्यकालाप्रमनेन-नित्यकालम्-अप्रमत्तःममा यनितो नित्यकालाप्रमत्तस्तेन तथा, सर्वदा निद्रादिममादरहितेन, तया नित्यायुक्तेन सर्वदोपयोगवता भिक्षुणा मृपावादविपर्ननम् भूपाभापणपरित्यागो यामीर कर्तव्यम्, दित मत्य च यावलीव भापितव्यम । एतत् दुप्फरम् दुःखेनाचरणीयम् । पात विरमण भी श्रामण्य का एक मनोहर सर्व श्रेष्ठ भूपण है, सो तुम से उसका याचनीय पालन होना मुश्किल है, इसलिये इस श्रामण्य के फेर में मत पडो ॥ २६ ॥ ) । " निचकाल.' इत्यादि। । । - । । अन्वयार्थ-तथा-भिक्षुको (निधशालाप्पमनण निवारण-नित्य कालाप्रमत्तेन नित्यायुक्तन) नित्यकाल-सदा-निद्रा आदि'-प्रमाद से रहित एव उपयोग सहित होना चाहिये, तभी जाकर वह (मुसावाय विवजण हिय सव्व भासियव्य-मृपावादविवर्जनम्-हित मत्य माषित. व्यम्) मृषावादका त्याग और हितकारस सत्य भाषा'शेल सकता है। यह सय कर्तव्य उसका यावनीवतक का है। क्यों कि जो साधु निद्रा आदि प्रमाद पतित होता है वह मृपावाद का परिवर्जन करने में सर्वथा વિરમણ-૫ણ શ્રમયનુ એક સર્વશ્રેષ્ઠ એવું મનહર ભૂષણ છે એનું તમ ર થી છ દગ સુધી પાલન થવુ મુશ્કેલ છે એથી આ શ્રમયના ચક્કરમાં ન પડે ૨૫ / * "निच्चकाल" या!'
. - अन्याथ-qin लिये निच्चालाप्पमत्तेग निच्चाउत्तग-नित्यकाला प्रमसेन नित्यायुक्तेन नित्य-सहानिद्रा माहाहावी रहित मने उपयोnaled २९ नेय त्या ४ ते मुसांबायविवजण-हिय सच्च भसियन्व-भूषावादविव जैनम् हित सत्य भासितव्यम भूषापान त्यागमन वि सत्यने मालीश છે આ સાબુ કર્તવ્ય જીવનભર માટેનું છે, જે સાનિદ્રા આદિ પ્રદાથી પતિત થાય છે તે મૃષાવ નું પરિવર્જન કરવામાં સદા અસમર્થ રહે છે વળી પ્રમાદિ
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