Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे टीका-'जया' इत्यादि ।
यदा सर्वम् अन्तः पुरादिक कोश कोष्ठागारभाण्डागारादिक च परित्यज्य __ अवशस्य-परतन्त्रस्य ते-नव भान्तरमवश्यमेव गन्तव्यम् । तठा हे राजन् । अनित्येऽस्मिनीवलोके राज्ये किं प्रसन्नसिम्कय प्रमक्तो भवसि ॥१२॥
किंच मूलम्-जीविय चेर्व रुंव च, विजुलपायचचल।
जत्थे त मुसि रोय, पञ्चत्थ जावासि ॥१३॥ छाया-जीरित चैत्र स्प च, विद्युत्सपातचञ्चलम् ।
यत्रत्व मुद्यसि राजन !, प्रत्यार्थ नासु यसे ॥१३॥ टीका--'जीविय' इत्यादि । हे राजन् ! यत्र-जीविते रूपे च व मुद्यसि मोह मामोपि, तजीवित 'जया' इत्यादि।
अन्वयार्य-(जया-यदा) जर यह बात निश्चित है कि (अवस स्स-अवशस्य) मृत्यु के पजे द्वारा परोक्षरूप में पराधीन हुए (ते-ते) तुम को (सव्व प्ररिच्चज्ज-सर्व परित्यज्य) इस अन्त.पुर, कोश, कोष्ठा गार, भाण्डागार आदि का परित्याग करके (गतब्व-गन्तव्यम् ) भवान्तर मे जाता है तो हे राजन् ! फिर (किं-किम् ) क्यों (अनिच्चे जीवलोगम्मिअनित्ये जीवलोके) अनित्य-अनवस्थित-इस जीवलोक में वर्तमान (रज्ज म्मि-राज्ये) क्षणभगुर राज्यमें (पसज्जसि-प्रसजसि) फंस रहे हो ॥१२॥
फिर भी-'जीविय' इत्यादि ! अन्वयार्थ हे राजन् । (जत्थ त मुज्झसि-यत्र त्व मुह्यसि) जिन "जया" त्यहि
अन्वयार्थ:-जया-यदा न्यारे से वात निश्चित छ, अवस्सस्स-अवशस्य भृत्युना थी पराधान में न ता ते-ते तभाये सव्व परिच्चज्ज-सर्व परित्यज्य मा सन्तपुर, शा२, सेना, साहसी, माहिनी परित्याशन गतव्यम्-गन्तव्यम् नवा-परभा भवानु छ त, 3 शन् । पछी किं-किम शा भाटे अनिच्चे जीवलोगम्मि-अनित्ये जीवलोके ॥ भनित्य-मनपस्थित
४मा त भान रजम्मि-राज्ये क्षम गुरु सेवा मा याममा पसज्जसि-प्रसज्जमि मारे ५सा २ छ। १ ॥१२॥
छ। पशु-"जीविय" धन्यादि। मन्वयार्थ-3 सन 1 जत्थ व मुज्झसि-यत्र त्व मुखसिरे से साल