Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तगध्ययनसूत्रे पेदक जिनपाचनरूप शब्दमभमानीश्वरसमीपे श्रुत्वा भरतोऽपि-भरतनामाप्रथमचक्रवयपि काचिदाश्रमानेऽनित्यभारना भारयन भारत पं-पटपण्ड द्विसभ्रत भरतक्षेत्र तथा सामान अदारिम्पान कामभोगाय त्यस्ता मानिन' प्रत्रज्या गृहीतवान् । मालपेषु काभानो भरत श्रेष्ठ, तेन समाश्रितोऽय मिनोकमार्ग । मायाऽपि अम्मिन जिनोतमार्ग र गन्तव्यमिति भार |३४||
भरतचावर्तिनः कथाअस्ति भारत वर्षे सपनगरीमुकुटायमाना शाज्ञया पणन विनि मिता नगरीनिर्माणकलाऽऽदर्शभूताऽयो या नाम नगरी। तत्र पूर्णचरित मुनि वैयारत्येन भगवतः प्रथमनिनस्य पुरत्वेनानि भरतो नाम प्रथमश्चक्रवर्ती । करके (भरहोऽवि-भरतोऽपि) भरत नाम के प्रथम चक्रवर्तीने भी (भारह वास कामाद चिचा-भारत वर्ष कामान् त्यत्तवा) भारतवर्ष के ममस्त साम्राज्य का तथा शब्दादिक रूप कामभोगों का परित्याग करके (पच्वइग-प्रबजित) दीक्षा अगीकार की।
भरतचक्रवर्ती की कया इस प्रकार है
भारतवर्ष में अयोध्या नामकी एक नगरी थी। वह अपनी रचना से सकलनगरीयों में प्रधान थी। इमको इन्द्रकी आज्ञा से वैश्रवणदेव-कुबेरने रचाया था। इसके शासक प्रथम जिनेन्द्र ऋषभदेव थे। इनके पुत्र का नाम भरत था। भरतने पूर्वभव मे मुनियों की वैयावृत्ति की थी। उससे अर्जित पुण्यराशि के प्रभाव से ही उसको ऋषभदेव जैसे तीर्थकर के पुत्र होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। भगवान् के दीक्षित होने के बाद ही भरतको चक्रवर्ती पदकी प्राप्ति एतत्पुण्यपद अत्वा मा पुरया पहने मामाने भरहोऽवि-भरतोऽपि मरत नानना प्रथम यता ५ भारह वास कामावद चिच्चा-भारत वर्ष कामान्
જવા ભારતવર્ષના સઘળા સામ્રાજ્યનો તથા શબ્દાદિરૂપ કામગોને પરિત્યાગ ४शन पपइए-प्रनजित दीक्षा २५ ४॥२ ४री
ભારત વર્ષમાં અધ્યા નામની એક નગરી હતી તે પોતાની રચનાથી સઘળી નગરીઓમાં પ્રધાનરૂપે હતી તેને ઈન્દ્રની આજ્ઞાથી વૈશ્રવણ દેવ કુબેરે રચેલ હતી તેના શાસક પ્રથમ અને ઋષભદેવ હતા તેમના પુત્રનું નામ ભરત હતુ ભરતે પૂર્વભવમાં મુનિઓની વૈયાવૃત્તિ (સેવા) કરેલ હતી એનાથી અજીત પુણ્યરાશિના પ્રભાવથી જ તેને રાષભદેવ જેવા તીર્થ કરના પુત્ર થવાનું સૌભાગ્ય