Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदमिनी टीका ध १८ महायर फया तुभि: उन्मत्त इव-गृहीत इस तत्वापलपनेनालजालभापितया मही-भुव कय केन प्रकारेण चरे-पिहरेद, नर विहरेदित्यर्थ । कुत इत्याह-यस्मा कारणात् एते पूर्वोक्ता. गुरासयमग्रहणे गरा, तत्परिपालने च दृढपरा उमा भरतादयो विशेप-मिन्यादर्शनेभ्यो जैनदर्शनस्य वैशिष्टयम् आदायगृहीत्वा शात्येति यावत् एतन्निनगासनमेगाश्रितवन्तः। तस्माद् धीरेण सननेन च त्वयाऽचव मनोयोगो देय इति ॥५२॥
किंचमूलम् -अञ्चतंनियाणखमा, सच्चा में भासिया बई।
अतंरिसु रितेगे, तरिस्सति अणांगया ॥५३॥ छाया- अत्यन्त निदानक्षमा, सत्या मया भापिता वाक् ।
अतरन् तरन्त्येके, तरिप्यन्ति अनागता. ॥५३॥ टीका-'अञ्चत' इत्यादि ।
अत्यन्तनिदानक्षमा निदानेबममलमोधने अत्यन्तम्-अतिशयन क्षमा उन्मत्त इव) उन्मत्त की तरह (अहेऊदि-अहेतुभि ) खोटी २ युक्तियों डारा तत्वों का अपलाप करता है एव निरर्थक वकता रहता है वह साधु (मही कह चरे-महीं कर चरेत्) पृथिवी पर निर्विघ्नरीति से कैसे विहार कर सकता है। अर्थात् नहीं कर सकता है। (ए ए-एते) ये पूर्वोक्त भरत आदि (विसेसमादाय-विशेषम् आदाय) मिथ्यादर्शन से जैनदर्शन की विशिष्टता झान कर ही तो (सरा-सूरा) सयम के ग्रहण करने में शरचीर होते हुए उस के परिपालन करने में (दढपरकमादृढपराक्रमा.) दृढपराक्रमशाली घने है ॥ ५२ ॥
और भी-'अच्चत०' इत्यादि ।
अन्वयार्य-(अच्चत नियाणवमा-अत्यत निदान क्षमाः) कर्ममल के C-भत्तनी भा३४ अहेहि-अहेतुभिः भाटा मोटी युतियो द्वारा तत्वाना अपसा५ ४२ छ १२ निरः मता २ छ ते साधु महिं कहचरे-मही कथ चरेत पृथ्वी ५२ निदिन विहार शश ? अर्थात् ४१ शता नथी ए ए-एते ये ति मत माहिये विसेसमागय-विशेषम् आदाय मिथ्या ४शनना त्याग
रेन शननी विशिष्टता anjी सुरा-पूरा सयभने अड ४२५ मा शूरपार ताधारण शने तेनु पालन ४२वामा दढ परकमा-दृढ पराक्रमाः १८ अराम શાળી બનેલ છે | પર છે
पणी ५-- "अचत' त्याह भन्दया--- अचत नियाणखमा-अत्यतनिदानक्षमाः ४म मनु शोधन