Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
A
मियदशिनी टीका र १८ महावर कथा
४६१ तुभिः उन्मत्त इव-ग्रहगृहीत इस तत्वापलपनेनालजालभापितया मही भुव कर केन प्रकारेण चरेद-विहरे, नेर विहरेदित्यर्थ । कुत इत्याह-यस्मा कारणात् एते-पूर्वोक्ताः गरा-सयमग्रहणे गुरा, तत्परिपालने च दृढपरा नमा भरताढयो विशेप-मिन्यादानेभ्यो जैनदर्शनस्य वैशिष्टयम् आदायगृहीत्या ज्ञात्वेति यारत् एतनिनशासनमेशाश्रितरन्तः। तस्माद धीरेण सजनेन च त्वयाऽपत्र मनोयोगो देय इति ॥५२॥
किं च-- मूलम्-अञ्चतंनियाणखमा, सच्चा में भासिया बंई।
अतरिसु रितेगे, तरिसंसति अणांगया ॥५३॥ छाया- अत्यन्त निदानक्षमा, सत्या मया भापिता वारु ।
अतरन् तरन्त्येके, तरिप्यन्ति अनागता. ॥५३॥ टीका-'अचत' इत्यादि ।
अत्यन्तनिदानक्षमा-निदाने-धर्ममरमोधने अत्यन्तम् अतिशयन क्षमा उन्मत्त हव) उन्मत्त की तरह (अहेऊहिं-अहेतुभि ) ग्बोटी २ युक्तियों द्वारा तत्त्वों का अपलाप करता है एव निरर्थक चकना रहता है वह साधु (मही कह चरे-महीं कर चरेत्) पृथिवी पर निर्विघ्नरीति से कैसे विहार कर सकता है। अर्थात् नहीं कर सकता है। (ए ए-एते) ये पूर्वोक्त भरत आदि (विसेसमादाय-विकोपम् आदाय) मिथ्यादर्शन से जैनदर्शन की विशिष्टता झान कर ही तो (सरा-सराः) सयम के ग्रहण करने में शरवीर होते हुए उस के परिपालन करने में (दढपरकमादृढपराक्रमाः) दृढपराक्रमशाली घने है ॥ ५२ ॥
और भी-'अच्चत०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-(अच्चत नियाणसमा अत्यत निदानक्षमा) कर्ममल के C-भत्तनी मा अहेऊहिं-अहेतभिः मोटी मोटी युतिया द्वारा तत्वाना अपसा५ ४२ छ रे नि मत २ छ ते साधु महिं कहचरे-मही कथ चरेत् पृथ्वी 6५२ निविन विहार ४शश ? अर्थात् ४१ शता नथी ए ए-एते को ५४ मत माहिये विसेसमादाय-विशेषम् आदाय मिथ्या ४शनना त्याग ४ - शननी विशिष्टता anjीने सुरा-गूरा सयभने ७ ७२५ मा शूरवा२ ता पा२१ शने तेनु पालन ३२वामा दढ परकमा-दृढ पराक्रमा• १८ घराभશાળી બનેલ છે . પર છે
वणी ५-- "अचत' त्यादि भ-क्याथ- अच्चत नियाणावमा अत्यतनिदानक्षमा ४मनु साधन