Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ. १९ मगापुनचरितवर्णनम्
टुकोऽनिष्ट विपाक = परिणामो येषा ते तथा, परिणामेऽनिष्टदायकाः, तथाअनुबन्धदुखावहाः- अनुवन्ध सातत्येन सलग्न यद् दुःख तदावहन्ति = मापयन्ति ये ते तथा, निरन्तरनरकनिगोधादनन्तदुःसदायकाः, एवरूपा भोगाः = कामभोगा मया भुक्ताः । अय भावः - विपफल हि उपभोगसमये मधुर भवति, परिणामे विपाक जनयति, मारणान्तिक दुःखमुत्पादयति । भोगा अप्येव विधा । ते भोगा मया भुक्ताः अत एव तान् परित्यक्तुमिच्छामीति ॥ ११ ॥ निषेध करते हुए मृगापुत्र कहते है- 'अम्मताय' इत्यादि ।
अन्वयार्थ - ( अम्मनाय - अस्या तातौ) हे माता पिताजी । (विसफलोवमा-विषफलोपमाः) विपक्ष के फल समान आपातरमणीय अर्थात् भोगते समय अच्छे लगने वाले (पच्छा-पश्चात् ) पीछे (कडुगविवागा - कटुकविपाकाः) अनिष्ट फल को देने वाले ऐसे ये (अणुबन्धहावहा - अनुबधदुःखावहा.) अर्थात् परपरासे नरक निगोद आदि के दुःख दाता (भोगा - भोगाः) काम भोग (मए-मया) मैंने (भुत्ता भुक्ता) खूप भोग लिये है । अब इनके भोगने की इच्छा ही नहीं हाती है ।
भावार्थ - चिपफल- किम्पाकफल जैसे ग्वाते समय मधुर लगता है परन्तु परिणाम मे कटुक फल का दाता होता है उसी प्रकार भोगते समय आनद प्रदान करने वाले ये कामभोग भी विपाक में कडवा फल देने वाले है। अतः उनके परित्याग करने को ही मेरा जी चाह रहा है ॥ ११
अन्वयार्थ --अम्मताय- अम्वातात हे भाता पिता । विसफलोचमा-विषफलोपमाः विष जना नेवा-प्रथम दृष्टियो अर्थात रमलीय अर्थात लोगवती वमते सारा सागनार परतु पच्छा-पश्चात् पाछ्थी कटुग विवागा- कटुकविपाका. अनिष्ट ईंजने आापत्राबाजा सेवा मे अणुवधदुहावडा - अनुवधदुःखावहा निरंतर नर निगोह महिना हुँ फोने आापनार भोगा - भोगा' मेवा अभ लोगो भए - मया भूम भुत्ता भुक्ता लोगव्या है हुवे थे लोगोने लोगवबानी भारी नरायण ઈચ્છા થતી જ નથી
ભાવાય —વિષફળ-ક્રિપાક ફળ, કે જે ખાતી વખતે ખૂબજ સ્વાદિષ્ટ લાગે છે પરંતુ પરિણામે એ મીઠા ફળને આપનાર જ હોય છે. આજ પ્રમાણે ભોગવતી વખતે ખાનદપ્રદ લાગનારા આ કામભોગ પણ વિપાકમા માટા ફળને આપવાવાળા છે માથી એના પરિત્યાગ કરવાની જ મારી ઈચ્છા છે ॥ ૧૧ ||