Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सा प्रियदर्शिनी टीका अ १८ सयतमुनिस्थिरीकरणे भरतो दाहरणम् १४, सन्चग्नानयुक्तो भवेत् । यम्माटेर तस्मात्-हे मुने । त्वमपि मृदुश्वर-कातरजनर्दुरारा य धर्म-श्रुतचारिनस्प चर-समाराधय ॥३३॥
पुन' पनियराजमपि सजयमुनि महापुरुषोदाहरणे स्थिरीक माह--- मूलम्- एय पुण्णपय सोचा, अत्यधम्मोसोहिय ।
भरहो वि भारह वास, चिच्चा कामांड पचए ॥३४॥ गया--एतत्पुण्यपद श्रुत्वा, पर्यौपशोभितम् ।
भरतोऽपि भारत वपे, त्यक्त्वा कामान् पत्रनित ॥३४॥ टीका-'य' इत्यादि।
अर्थोपशोभितम्-अायते-पा. यते इत्ययः=म्बर्गापवर्गमणः पार्ष,, धर्म: तदुपायभूतः, अर्थश्च धर्मश्च-अर्थधर्मों, ताभ्यामुपशोभितम . महित्तम् एतत्= पूर्वोक्त पुण्यपद-पुण्यहेतुत्वात्पुण्यम् , तञ्च तत्पद चेति तत् , यहा-पुण्य-मुकृत पयते गम्यते (ज्ञायते) येन तत् पुग्यम्-क्रियावाद्यायभिमतनानारुचिपरिवर्जनाया दृष्टि सपन्नः) सम्यक् जान से मपन्न मे । जब मुनिके लिये इस प्रकारका प्रभुका उपदेश है तर तुम भी (मुटुचर चम्मचर-श्वर धर्म चर) कापर जनों से दुराराध्य इस श्रुतवारिकरूप पर्न की आराधना करने में सना मावधान रहो ॥३३॥
इस प्रकार क्षत्रिय गजझवि मजयमुनि को अपने कर्तव्यमे स्थिर रहने के उपदेश के प्रसग मे दृष्टान्त द्वारा उपदेश देते है-'ण्य' इत्यादि ।
अन्वयार्थ (अत्यधम्मोवमोहिय-अर्थधोपगोभितम् ) स्वर्ग मोक्षरूप पदार्थ से एव इस पदार्थ की प्राप्ति मे उपायभृत वर्म से शोभित (ग्य एण्णपय सोचा-एतत्पुण्यपदः श्रुत्वा) इस पूर्वोक्त पुण्यपद को सुनसाय दिद्विसपन्ने-दृष्टिसपन्न, सभ्यशानी 4 4-1 मने न्यारे मुनिना भाट प्रमुनी मा रन पथ छे त्यारे तमे ५५ सुदुच्चर धम्म चर-मुश्वर धर्म વર કાય નથી અને ય એવા આ શ્રુત ચારિત્રરૂપ ધમની આર ધન કરવામાં સદા સાવધાન રહે પ૩૩
આ પ્રકારે ક્ષત્રિય રાજર્ષિ રાજયમુનિને પિતાના વક્તવ્યમાં સ્થિર રહે पाना उपदेशना प्रसभा यात द्वारा समान --"अय" त्यादि।
मन्त्रयाय-अत्यधम्मोवसोहिय-अर्थरर्मोपशोभितम् स्य भीक्ष३५ पहा थ या भने म पनी प्रासम SIय३५ यथा लिन एय पुगपय सोन्चा