Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्र टीका--'पटिकमामि' इत्यादि ।
हे सजय मुने! अह प्रश्नेभ्यः शुभाशुभग्नच केभ्योऽष्टादिषन्नेभ्यः गाअथा-पुनः परमन्त्रेभ्या-परेपा=गृहस्याना ये मन्त्रास्तकार्यालोचनरुपान्तेभ्य मतिकमामि-प्रतिनिटत्तो भगामि । एन स्प साद्य कर्म नाह करोमीति भार । य. सयत एवं पिरसापद्यस्पमश्नादिव्यापारपरिपर्जनेन सयम प्रति उत्थितः उत्थानशीलो भवति अहो ! तद्विपये सिं रक्तव्यम् ? एर विघम्तु कश्चिदेव महात्मा भाति, अत उक्तम् 'अहो' इति । अतो हे सजय मुने! त्वम् इतिःएतदनन्तरोक्तमर्थ विधात जानीयात्ततः अहोरानम् अहर्निश भतिक्षणमित्यर्थ, तप. सावधव्यापारविरतिलभणम् चरे.-भासेवन। न तु प्रश्नादिकम् ॥३१॥
अब क्षत्रिय राजपि अपने नाचार को करते है-'पटिकमामि' इत्यादि।
। अन्वयार्थ हे मजय मुने! मैं (पमिणाण पुणो परमतेहिं वा प्रश्नेभ्य. पुनः परमत्रेभ्योवा) शुमाशुभ सूचक अनुष्ठादि के प्राना से अथवा गृहस्थजनों के तत्तत्कार्यालोचनरुप मत्र है उनसे (पडिकमामि-प्रतिकमामि) प्रतिनिवृत्त हो गया है अर्थात् अय में इस प्रकार के सावद्यरूप कर्म नहीं करता हु, जो सयत इस प्रकार के सावद्यरूप प्रश्नादिक के व्यापार के परिवर्जन से सयम के प्रति सदा (उहिएउत्थितः) उत्थानशील बना रहता है (अहो-अहो) उसके विषय मे क्या कहना है-ऐसा तो कोई ही महात्मा होता है। इसलिये हे संयतमुने। तुम इस अनन्तरोक्त अर्थको (विजा-विद्यात्) जानो और (अहोरायअहोरात्रम्) प्रतिक्षण (तव चरे-तपश्चरे.) सावद्यव्यापार विरतिरूप तपका अनुप्ठान करो। प्रश्नादिक में समय मत बीताओ॥३२॥
व क्षत्रिय व वाताना माघारने हे -"पडिकमामि" त्या
अन्वयार्थ:--3 समयमुनि। पसिणाण पुणो परमतेहि वा-प्रश्नेभ्य पुन परमभ्यागा शुभाशुभ सूय २५ शुहिना प्रश्नोथी या याना तsh बायन३५२ मत छ तनाथी पडिमामि-प्रनिमामि सही निवृत्त / ગયે છુ અર્થાત્ હવે હું તેના પ્રકારના સાવધરૂપ કમને કરતે નથી જે સ યત આ प्रजाना सावध३५ प्रश्नाles व्यापारमा परि नयी सयभना त२६ सह। उहिएउत्थित प्रत्याशाल अनी २७ , अहो-अहो सेना विषयमा शु वानु डाय। ખાવા તે કઈક જ મહાત્મા હોય છે આથી હે સ યત મુનિ ! આ અન તક્ત मथ न विजा-विद्यात् ong | मने अहोराय-अहोरात्रम् प्रतिक्षा तव चरे तपश्चरे સાવધ વ્યાપાર વિરતરૂપ તપનું અનુષ્ઠાન કરે પ્રશ્નાદિકમાં સમય વિતાવે નહીં ૩૧