Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदशिनी टोका अ१८ उपदेशश्रवणानन्तर राश प्रत्रया
२०३ तेन साध गछति । यतश्च गुभाशुभकर्माण्येव जनमनुगन्ति , जतो हे राजन् । शुभहेतुक तप एर समाचरेति भाव ॥१७॥
मुनिवचन निगम्ब राजा यत्कृतवाम्नदुच्यते-- मृलम्--सोऊण तस्स सो धम्म अणगारस्स अतिए ।
महयासवेगनिव्वेय, समावन्तो नराहिवो ॥१८॥ छाया--युत्या तम्य स धर्मम् , अनगारम्य अन्तिके ।
महासवेगनिर्नेट, समापन्नो नरारिप ॥१८॥ टीका--'मोऊण' इत्यादि ।
तम्य-अनगारम्य अन्ति के समीपे पम-श्रुतच रिस्प श्रुत्वा स नराधिप सयत. महासवेगनिर्वेद-सवेगो-मोक्षाभिलापः, निर्वेद: ससारोद्वेग , अनयोः समाहार', महच तत् सवेगनिर्वेद च महासवेगनिर्वेदम् अत्युत्कृष्ट मोक्षाभिलाप पैराग्य च समापन्ना-माप्तवान् ॥१८॥ है। कोई दसरा जन उसके माथ नहीं जाता। जब यह बात है कि जीव के साथ शुम और अशम कमें जाते है, तो हे राजन् । शुभ कर्म हेतुक जो तप है उसको ही तुम करो ॥१७॥
इस प्रकार मुनिराज के वचन सुनकर राजाने क्या किया इस बात को मृत्रकार इस गाथा द्वारा प्रकट करते है--'सोऊण' इत्यादि ।
अन्वयार्थ (तस्स-तस्य) उन (अणगारस्स-अनगारस्य) मुनिराज के (अति-अन्तिके) समीप (धम्म सोऊण-धर्म श्रुत्वा) श्रुतचारित्र रूप धर्मका उपदेश सुनकर (सो नराहियो-स नराधिपः) उस सजय राजा को (मया सवेग निव्वेय समावन्नो-महासवेगनिर्वेद समापन्न) अत्युत्कृष्टसवेग-मुक्ति प्राप्तिकी अभिलापा तथा निर्वेद-ससार से वैराग्य प्राप्त हो गया ॥१८॥ જ્યારે આ વાત છે કે, જીવન સાથે કેવળ શુભ અને અશુભ કર્મ જ જાય છે તે હે રાજન ! શુભકામના હેતુરૂપ જે તપ છે તેને જ તમે આદરે છે ૧૭
આ પ્રકારના મુનિરાજના વચન સાંભળીને“ રાજાએ શુ કયુ , એ વાતને सूत्रा२ मा वाद्वारा प्रगट ४२ छ --"सोऊण" त्या !
मक्या--तस्स-तस्य से अगगाररस-अनगारस्य मुनिराकानीअतिए-अतिके पासेयो धम्म सोऊण-धर्म श्रुत्वा श्रुत यास्त्रि३५ मना उद्देश सामजीन सोनरा हिवो-स नराधिपः मे भय बने महया सवेग निव्वेय समावन्नो-महता सवेगनिर्वेद समापन्न ससार १५२ वैशभ्य मा०ये। तेभर भुलित प्रासिनी मनिता। પૂર્ણપણે જાગી છે ૧૮ છે