Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसूत्रे सम्मति वीर्याचार प्रमादिनमाह--- मूलम् संयं गेहं परिच्चन, परगेहसि वॉवरे ।
निमित्तेण यं ववहर्रई, पावसमणेत्ति वुच्चड ॥१८॥ छाया--स्वक गेह परित्यज्य, परगेहे व्यापृणोति ।
निमित्तेन च व्यवहरति, पापश्रमण इत्युच्यते ॥१८॥ टीका-सय गेह' इत्यादि।
य' साधु' स्त्रक-स्वकीय गेह परित्यज्य अगार त्यत्माऽनगारिता प्रतिपद्य परगेहे-गृहस्थगृहे व्याप्रियते आहारार्थी सन् गृहस्थम्य कार्य करोतीत्यर्थः । च-पुन. निमित्तेन-शुभाशुभकथनेन व्यवहरतिन्द्रव्यमर्जयति । यद्वा-गृहस्थादि निमित्त क्रयविनयादिक कुरुते । स पापश्रमण इत्युच्यते ।.१८॥ अतिनिन्दाका पात्र होता है। ऐसा जो साधु होता है (पावसमनि बुच्चइ-स पापश्रमण इत्युच्यते) वह पापश्रमण कहलाता है ॥१७॥
अब वीर्याचार मे प्रमाद करने वालेका स्वरूप कहते है-'सय' इत्यादि।
अन्वयार्थ-जो साधु (सय गेह-स्वक गेम्) अपने घरको छोडकर-मुनिव्रत धारण कर-(परगेहसि वावरे-परगेहे व्याप्रियते) गृहस्थ के घरपर आहारार्थी होकर उसका कार्यकरता है और (निमितेण य ववहरड-निभित्तेन न्यवहरति) शुभ और अशुभ के कथनरूप निमित्त से द्रव्य को एकत्रित करता है अथवा गृहस्थ आदि के निमित्त क्रय विक्रयआदि करता है (से पावसमणेत्ति बुच्चइ-स पापश्रमण इत्युच्यते) वह साधु पापश्रमण कहलाता है ॥१८॥ पात्र बने छ सेवा साधु खाय छ ते पावसमणेत्ति वुच्चद-स पापश्रमण इत्युच्यते તે પાપશ્રમણ કહેવાય છે ૧ણા
वे वियायारमा प्रमाह ४२वावाजानु स्व३५ ४ छ~-"सय ' या ।
अन्वया---०२ साधु सय गेह-स्वक गेह पोताना धरने छ।डान भनिनत धारय ४ परगेहसि वावरे-परगेहे व्याप्रियते स्थना ३२ माथी ने मेनु म ४२ छ भने निमित्तण य ववहरइ-निमित्तन व्यवहरति शुमा तथा अशुभ ४थन३५ નિમિત્તથી દ્રવ્યને એકત્રિત કરે છે અથવા ગૃહસ્થ આદિના નિમિત કયવિક્રય કરે છે से पावसमणेत्ति वुच्चर-सपापनमण इत्युच्यते ते साधु पापश्रमायु उपायछ ॥१८॥