Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टोका अ ७ पापथमणस्वम्पम्
१०३
किंच-- मूलम्- सनाईपिड जेमेड, निच्छेई सामुदाणियं ।
गिहिनिसिज चे वाहेई, पावसमणेत्ति बुचड ॥१९॥ जया--स्त्रज्ञातिपिण्ड जेमति, नेउति सामुदानिम्म् ।
गृहिनिपद्या च वाहयति, पापश्रमण इत्-न्यते ॥१९॥ टीका--'मनाइपिंट' इत्यादि ।
यः स्वजातिपिण्ड-स्वाः सकीया ये ज्ञातय. समारावस्थाया बान्धवान्तैदत्त पिण्ड-यथेप्सितस्निग्धम पुराहार जेमति-भुड़े, किन्तु सामुदानिक-समुदानानि-भिक्षास्तेपा समूह. सामुदानिम्म् अनेकगृहेभ्य आनीता भिक्षाम् , न इन्छति नाभिलपति । च-पुन. गृहिनिपद्या गृहिणा या निपद्या पर्यऋतूल्यादिका ता वाहयति-आरोहति, गृहस्थस्य पर्यादौ समुपविशतीत्यर्थ । स पापश्रमण इत्युच्यते ॥१९॥
सम्मत्य ययनार्यमुपसहरन् उक्तरूपदोपसेवनस्य फलमाह--- मूलम्--एयारिसे पचंकुसीलऽसवुडे, रूवधरे मुणिवण हि हिमे। एयसिलोएँ विसमेव गराहिए, न से उहं ने परस्थ लोएँ ॥२०॥
तया-'सनाइपिड' इत्यादि।।
अन्वयार्थ--जो साधु (सनाइपिड-स्वज्ञातिपिण्डम् ) स्वजातिपिण्ड को-ससारावस्था के अपने धुओं द्वारा प्रदत्त भिक्षा को (जेमेडजेमति) खाता है और (सामुदाणिय निचइ-सामुदानिकम् नेच्छति) अनेक गृहों से लाई हुई भिक्षा की इच्छा नहीं करता है तथा (गिहि निसज्ज च वाहेइ-गृहिनिपद्या च वायति) गृहस्थजनों की शग्या पर बैठता है (से पापसमणेत्ति बुचड-स पापश्रमण इत्युच्यते) वह साधु पापश्रमण कहा जाता है ॥१९॥
तथा-'सनाइपिंड त्या ।
मन्वयार्थ- साधु सनाइपिंड-स्वज्ञातिपिण्डम् स्वातिपिउने-ससार मस्थान पाताना मधुसी द्वारा प्रति लिक्षाने जेमेइ-जेमति माय छ मन सामुदाणिय निच्चइ-सामुदाणिकम-नेच्छति भने गृहस्थाने त्याचा दावामा यावसी निशानी छ। यता नथी तथा गिहि निसज्ज च वाहेइ-गृहि निषधाच वाहयति गृहस्थानी शय्या ५२ से छे से पावसमणेति चुच्चद-स पापश्रमण इत्युच्यते ते साधु १५मा उडवाय ॐ ॥१८॥