Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययासूत्रे दर्भादिसस्तारके अनायुक्त' अनुपयुक्तो भवति । कारण गिना रामः प्रथमयामे शेते, तग कुछटोरत् पादपसारण कृत्वा च शेते । स पाप रमण इत्युच्यते ॥१॥
उक्तश्चारिनाचारममादी सम्मति तप आचारममाढी पर्यते-- मूलम्--दुद्धदहा विगईओ, आहोरेड अभिक्खंण ।
अरएं यं तवोकम्मे पावसमणे तिं वुच्चंड ॥१५॥ छाधा--दुमदधिनी विकृति, आहारयति अभीक्ष्णम् ।
अरतश्च तप कर्मणि, पापश्रमण इत्युन्यते ॥१५॥ टीका--'दुदही' इत्यादि। य साधु' कारण विना अभिक्षण-पुन पुन. दुपदधिनी दुग्धदधिरूपे तथा-'ससरस्वपाओ' इत्यादि
अन्वयार्थ-जो साधु ( ससरकपपाओ-सरजस्कपाद.) सचित्त धूलिसे धूसरित पैर होने पर (सुयइ-स्वपिति) सो जाता है तथा (सेजन न पडिलेह-शय्या न प्रतिलेवयति) अपनी वसतिकी प्रतिलेखना नहीं करता है तथा (सथारम अगाउ तो-सस्तारके अनायुक्तः) दर्भादिकके सस्तारकमे अनुपयुक्त रहता है कारणके विना रात्रि के प्रथम याम (प्रहर) मे ही सो जाता है तथा कुकुटी कुकडी-मुर्गीके समान पैर पसार कर सोता है वह (पावप्तनगेति चुन्चह-पापप्रमण इत्युच्यते) साधु पापश्रमण कहा गया है ॥१४॥
चारित्राचारके प्रमादीका स्वरूप कहकर अब तप आचारके प्रमादी के विवयमें करते है-'दुद्धदही' इत्यादि।
अन्वयार्थ-जो सायु कारण विना (अभीक्षण-अभीक्ष्णम्) पुन तथा-ससरक्खपाओ" त्याला
अन्वयार्थ:- साधु ससरक्खपाओ-सरजस्कपाद धूगथी मरेता पोताना 41 डायछे छत। मुयद-स्वपिति अमना सेभ सुनयछ, तथा सेज्ज न पडिलेहइ-शम्यान प्रतिलेखयति पातानी वसतिनी प्रतिमना ४२ता नथी, तथा सथारए अणाउत्तो -सस्तारके अनायुक्त मानिस सस्ता२७मा अनुपयुटत २ छ, हसना प्रथम પ્રહરમાજ સુઈ જાય છે, તથા કુકુટ્ટીની માફક પગ પસારીને સુવે છે તે સાધુ पावसमणेत्ति वुच्चह-पापश्रमग इत्युच्यते पाश्रम ४उपाय छ ॥१४॥
ચારિત્રાચારના પ્રમ દીના સ્વરૂપને કહીને હવે તપ આચારના પ્રમાદીના વિષયમાં ४ छ-"दुद्धदही" Vत्या।
सन्याय-२ साधु ॥२१॥२ अभीक्षण-अभीक्ष्णम् श्रीश दुद्ध-दही