Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
उत्तराध्ययनसूत्रे मूलम् -भवति इत्थ सिलोगा। त जहाछाया-भवन्ति अन श्लोका । तद्यथाटीका-'भवति' इत्यादि ।
अन ब्रह्मचर्यसमाधिस्थानविपये ग्लोका =पद्यरूपा भान्ति सन्ति। तद्यथा =ते श्लोका यथा सन्ति तथोच्यन्ते क्रमश.--'ज पिपित्त' इत्यादि । मूलम्-ज विवित्तमणाइन्न, रहिये थीजणेण यें।
वभचेरस्त रक्खटा, आलंय तु निसेवैए ॥१॥ गया--यो विविक्त अनाकीर्ण', रहितः स्नाननेन च ।
ब्रह्मचर्यस्य रक्षार्थम् , आठय तु नियते ॥१॥ टीका-'ज विविक्त' इत्यादि ।
विविक्त -एकान्तभूतः स्वीजनादिनिवासाभावात् , अनाकीर्ण-शीजनायसकुल -तत्तत्प्रयोजनेन तेपा तानागमनात, स्त्रीजनेन व्यारयानन्दनादि समय विहाय समागतेन अकालचारिणा स्त्रीजनेन रहित वर्जित , प्रमाद-पशुपण्डप्रदर्शित करने के लिये कहा गया है ॥१६॥ . अब इसी विषय को पद्यों मे कहने के लिये सूत्रकार कहते है"भवति' इत्यादि ।
मत्रकार ने इन ब्रह्मचर्य के समाधिस्थानो का गद्यरूप मे वर्णन करके अब श्लोको द्वारा भी वर्णन किया है सो वे श्लोक इस प्रकार हैं
'ज' इत्यादि । . अन्वयार्थ (ज-य) जो आलय बसति (विवित्तम्-विविक्त ) स्त्रीजन आदि के निवास के अभाव से एकान्तरूप हो (अणाइन्न-अनाकीर्ण.) स्त्री जनादिक से अव्याप्त हो (रयिम्-रहित ) व्यारयान एव वदना के समय के सिवाय अकाल मे आनेवाले (बीजणेण य-स्त्रीजनेन च) કરવા માટે કહેવાયેલ છે તેવું જાણવું જોઈએ ૧૩
હવે આ જ વિષયને વધોમાં કહેવાને માટે સૂત્રકાર કહે છે– "भवति' छत्याहि ।
સૂત્રકારે આ બ્રાહ્મચર્યના સમાધિસ્થાનોનું ગદ્ય રૂપમાં વર્ણન કરીને હવે શ્લોકો द्वा२१ ४छ से सो मा प्रभारी छ-"ज" या
सन्या-ज-य.२ सती विवित्त-विविक्त सीन महिना निवासना मलावधी ३५ डाय, अणाइण्ण-अनाकीर्ण खीन माहियो ग स डाय, रहियम्-रहित व्याध्यान मने पहना माहिना समय सिवाय मी समये भावनार