Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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उत्तराध्ययनसू
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रति-भीति, दर्पम् अहङ्कारम् , च-पुन. सहमा अपवासितानि-रामुग्या दयिताया सपदि वासोत्पादकानि स्वमूरिस्थासूचकानि नेत्रगोलकस्थिरीकरणादांनी यान्येतानि गृहस्थावस्थायामनुभूतानि न तानि कदाचिदपि अनुचिन्तयेत् अनुम्मरेत् ॥६
॥ इति पप्ठस्थानम् ॥ मूलम्-पणीय भत्तपाण हुँ, खिप्प मर्यविवडण ।
वभचेरेरओ भिख, णिच्चंसो परिवजए ॥७॥ छाया--प्रणीत भक्तपान तु, सिम मदविवर्धनम् ।
ब्रह्मचर्यरतो भिक्षु , नित्या परिचयत् ॥७॥ टीका-'पणीय' इत्यादि।
ब्रह्मचर्यरतो भिक्षु प्रगीत भक्तपान. तु-पुन तिम-शीघ्र यथास्यात्तथामदविवर्धन-मद =कामोद्रेक. तम्यविवर्धनम्मृद्रिकर यद् भक्तपान तत् , उपल क्षणलादेवविध खाद्यस्वाय च नित्यश =मदा परिवर्जयेत् ॥७॥
॥ इति सप्तमस्थानम ॥ अवस्था में की गई हँसी मजाक को (खिड्ड-क्रीडाम्)तथा उनके साथ अनुभूत क्रोडा को (रइम्-रतिम्) प्रीति को (दप्पम्-दर्पम् ) मान कोतया (सहसायत्ता सियाणि य-सहसा अवत्रासितानि च)पराइ सुग्व हुई स्त्री को इकदम त्रासोत्पादक ऐसी अपने द्वारा की गई स्वमुविस्था सूचक नेत्रगोलक आदि को स्थिर करने रूप चेष्टाओ को (कयाइवि-कदाचिदपि) कभी भी (नाणुचिन्ते-न अनुचिन्तयेत) याद न करे। यह छठना समाधिस्थान है ॥६||
'पणीय भत्तपाणतु' इत्यादि___ अन्वयार्थ (बभचेररओ भिक्खू-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षु.) ब्रह्मचर्य की रक्षा करने में सदा सावधान बने हए सासु को चाहिये कि वह भने भ२४। विशेरेने खिड-क्रोडा तथा मेनी साये मनुमवे डीने, रदम्-रतिम प्रीतिने दप्यम्-दर्पम् मानने तथा सहसावत्ता सियाणि य-सहसा अवत्रासितानि च પરાગભૂત બનેલ સ્ત્રીને ત્રાસ પહોચાડનાર એવી પિતાના તરફથી આચરાયેલ સ્વ भूरावस्था सूय मापभी यामी आ५ि यामाने कया इवि-कदाचिदपि ४ी पणु नाणुचिंते-न अनुचितन्येत् या न ४२ मा छ समाधिस्थान छ u६u
पणीय भत्तपाण तु इत्यादि।
मन्वयार्थ -वभचेररओ भिक्खू-ब्रह्मचर्यरतो भिक्षु ब्रह्मयनु रक्षा ४२ पामा सह। साधान मनी २९सा साधु भाटे से भलत्पनु छ , ते पणीय भत्त