Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 39 Anuyogdwar Mool evam Vrutti
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम 4 आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स आगम पूज्य आनंद-क्षमा ललित- सुशील-सुधर्मसागर - गुरुभ्यो नमः सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि आगम ४५ "अनुयोगद्वार" मूलं एवं वृत्तिः आग ~1~ पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा भाग 39 आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम.. आगम भागम अभिनव संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] है आजम UNI - BUtet भागम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर पालिताणा SARIS पHI HMA HAR । RAIPUR ELFOSSONO Bagun ~2~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आजस आगम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक EIGERT पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आजम आजम GREDIEN आगम अभिनव संकलनकर्ता ~3~ आजम आगम Cricies आगर आवाम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ] 23 आजम प्रत- प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 आजम Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का मजार पानाका माणक चाय सामान जया ਸਹਸ ਰਸ ਨੂੰ ਕਾਰ ਸ ਜ ਹੈ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਗੁਰ ਬਸ ਜਸ਼ ਸ ਸ ਸ ਸ . आगम माला वाचना शताब्दी वर्ष Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-३९] अनुयोगद्वार (चूलिकासूत्रम् - २) नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद- क्षमा- ललित-सुशील सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः “अनुयोगद्वार" मूलं एवं वृत्तिः [मूलं + मलधारगच्छीय-हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ] [आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह ) पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि) → 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-39 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ श्री आगमोद्धारक - वाचना- शताब्दी वर्ष - निमित्त 'आगम-वृत्ति - मुद्रण- प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब | .जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक्-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक : | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है , फ़िर भी | गरुभक्ति बद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये , तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले । पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज : एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, | । प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। . एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े। देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन-आगम-शास्त्रो को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक : हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया || फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा , सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और । : "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे , उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकत नए ग्रंथो की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो : की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की | .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं . को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई । बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे | सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | .सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | ...ये थे हमारे गुरुदेव “सागरजी"... ........मुनि दीपरत्नसागर... : . -.. -.. -.. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब : ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी , जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के । • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की: प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का । स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए । एक और भी अनसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. | कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : | आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही | रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... | ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ।। पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य , शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। - मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - . ~7~ . . Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - .. - .. - . ____ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर : का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है । ... मुनि दीपरत्नसागर [कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-.. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [-] ............... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-[४५], चूलिका सूत्र-२] “अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई-जैनपुस्तकोद्धारे-ग्रन्थाङ्कः ३७. मलधारगच्छीयाचार्यश्रीमद्धेमचन्द्राचार्यविरचितवृत्तियुक्तं श्रीमदनुयोगद्वारसूत्रम् । (उत्तरार्धम्) प्रकाशकः-शाह नगीनभाई घेलाभाई-जव्हेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः । इदं पुस्तकं मोहमग्या 'निर्णयसागर' मुद्रणालये कोलभाटवीथ्यो २३ तमे गृहे रामचन्द्र येसु शेडगेद्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् वीरसंवत् २४४२. विकमसंवत् १९७२. माईष्ट १९१६. प्रतयः ५०.. पण्यम् रुप्यक पकः. Rs 1-0-0 अनुयोगद्वार सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १५२+१४१ अनुयोगद्वार चूलिका-सूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ३५० | मूलांक: | विषय: | पृष्ठांक: | | मूलांक: विषय: पृष्ठांक: मूलांक: ००१- ०९२ विषय: | पृष्ठांक: अनुयोगदवारसूत्रं | ०१२ ज्ञानविषयक वर्णनं ०१३ → आवश्यक-तस्य . अध्ययनं, →श्रुत- तस्य निक्षेपा:, | ०३९ भेदा:, ....इत्यादि ०३१ १०२ ११६ द्रव्यस्कन्ध: →उपक्रमः, तस्य आनुपूर्वी अनुगमं नाम एवं तस्य भेद-प्ररुपणा →प्रमाण प्ररुपणा ३१३ समय आदि व्याख्या | ३६१ जीवादि द्रव्य ३९७ →निक्षेप-व्याख्या ५१० सप्तनय स्वरुपम् ५३८ १५३ २१९ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [अनुयोगद्वार- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “अनुयोगद्वार सूत्र” के नामसे सन १९१६ (विक्रम संवत १९७२) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाइ है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है। इसी अनयोगदवार सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुन: संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है। * हमारा ये प्रयास क्यों? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर सूत्र आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके | बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस -] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है। शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-३९ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | .......मुनि दीपरत्नसागर. ~11~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [-] / गाथा ||--|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: KHABHISAXE श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाइ जैनपुस्तकोद्धार-ग्रन्थाङ्के ॥अहम् ॥ श्रीमद्गणधरप्रवरगौतमस्वामिवाचनानुगतम् । श्रीमन्मलधारीयहेमचन्द्रसूरिसंदृब्धवृत्तियुतम् । श्रीअनुयोगद्वारसूत्रम् । - enteeronea ऐं नमः । श्रीवीतरागाय नमः ॥ सम्यकसुरेन्द्रकृतसंस्तुतिपादपद्म-मुद्दामकामकरिराजकठोरसिंहम् । सद्धर्मदेशकवरं वरदं नतोऽस्मि, वीरं विशुद्धतरबोधनिधिं सुधीरम् ॥१॥ अनुयोगभृतां पादान बन्दे श्रीगीतमादिसूरीणाम् । निष्कारणवन्धूनां विशेषतो धर्मदाणाम् ॥२॥ यस्याः प्रसादमतुलं संप्राप्य भवन्ति भन्यजननिवहाः । अनुयोगवेदिनस्तां प्रयतः श्रुतदेवतां वन्दे ॥३॥ इहातिगम्भीरमहानीरधिमध्यनिपतितानर्घ्यरत्नमिवातिदुर्लभं प्राप्य मानुषं जन्म ततोऽपि लब्ध्या त्रिभुवनैकहितश्रीमजिनप्रणीतयोधिलाभं स SHARESS वृत्तिकार कृत् मंगलं, वंदन तथा आरम्भ-कथनं ~ 12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [१] / गाथा ||--|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयोर मलधारीया 550 मासाद्य विरत्यनुगुणपरिणाम प्रतिपद्य चरणधर्ममधीत्य विधिवत् सूत्रं समधिगम्य तत्परमार्थ विज्ञाय वृत्तिः खपरसमयरहस्यं तथाविधकर्मक्षयोपशमसंभविनीं चावाप्य विशदप्रज्ञा जिनवचनानुयोगकरणे यतितव्यं, अनुयो. तस्यैव सकलमनोऽभिलषितार्थसार्थसंसाधकत्वेन यथोक्तसमग्रसामग्रीफलत्वात् । स चानुयोगो यद्यप्यनेक-151 अधि० अन्धविषयः संभवति, तथापि प्रतिशास्त्रं प्रत्यध्ययनं प्रत्युद्देशक प्रतिवाक्यं प्रतिपदं चोपकारित्वात्प्रथममनु-दा योगद्वाराणामसी विधेयः । जिनवचने ह्याचारादि श्रुतं प्रायः सर्वमप्युपक्रमनिक्षेपानुगमनयद्वारैर्विचार्यते, प्रस्तुतशास्त्रे च तान्येवोपक्रमादिद्वाराण्यभिधास्यन्ते, अतोऽस्यानुयोगकरणे वस्तुतो जिनवचनस्य सर्वस्याप्यसौ कृतो भवतीत्यतिशयोपकारित्वात्प्रकृतशास्त्रस्यैव प्रथममनुयोगो विधेयः । स च यद्यपि चूर्णिटीकाबारेण वृद्धरपि विहितः, तथापि तबचसामतिगम्भीरत्वेन दुरधिगमत्वादु' मन्दमतिनाऽपि मयाऽसाधारणश्रुतभक्तिजनितीत्सुक्यभावतोऽविचारितखशक्तिवादल्पधियामनुग्रहार्थत्वाच्च कर्तुमारभ्यते ॥ ॥नाणं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-आभिणिबोहियनाणं सुयनाणं ओहिनाणं मणपजव नाणं केवलनाणं (सू०१-५०९) अस्य च शास्त्रस्य परमपदप्राप्तिहेतुत्वेन श्रेयोभूतखात् संभाव्यमानविनत्वात् तदुपशमार्थ शिष्टसमयप- ॥१॥ रिपालनार्थ चादौ मङ्गलरूपं सूत्रमाह-नाणं पञ्चविहं' इत्यादि, व्याख्या-ज्ञातिर्ज्ञानं 'कृत्यल्युटो बहुलं (पा० JaERI ज्ञानस्य पञ्चविधत्वस्य प्ररुपणा ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [?] दीप अनुक्रम [3] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१] / गाथा ||--II पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः | ३-३-११३ ) इति वचनात् भावसाधनः ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनास्मादस्मिन्वेति वा ज्ञानं, जानाति खविषयं परिच्छिनत्तीति वा ज्ञानं ज्ञानावरणकर्मक्षयोपशमक्षयजन्यो जीवस्वतत्त्वभूतो बोध इत्यर्थः, 'पश्चविहंति' पश्चेति-सङ्ख्यावचनो विधानानि विधा:-भेदाः पञ्च विधा अस्येति पञ्चविधं पञ्चमकारमित्यर्थः, 'पण्णतंति' प्रज्ञप्तमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैः प्ररूपितमित्यर्थः अनेन सूत्रकृता आत्मनः खमनीषिका परिहृता भवति, अथवा प्राज्ञात्-तीर्थकरादासं प्रासं गणधरैरिति प्राज्ञाप्तम्, अथवा प्राज्ञैः गणधरैस्तीर्थकरादात्तंगृहीतमिति प्राज्ञासं, प्रज्ञया वा भव्यजन्तुभिराप्तं प्राप्तं प्रज्ञाप्तं, न हि प्रज्ञाविकलैरिदमवाप्यत इति प्रतीतमेव, ह्रस्वत्वं सर्वत्र प्राकृतत्वादित्यवयवार्थः, अक्षरयोजना त्वेवम्-ज्ञानं परमगुरुभिः प्रज्ञप्तमिति सम्बन्धः, कतिविधमिति, अत्रोच्यते, पञ्चविधमिति ॥ तस्यैव पञ्चविधत्वस्योपदर्शनार्थमाह- 'तंजहेत्यादि' तद्यथेत्युपन्यासार्थः, आभिनियोधिकज्ञानं श्रुतज्ञानम् अवधिज्ञानं मनःपर्यायज्ञानं केवलज्ञानं चेति । तत्र अभीत्याभिमुख्ये नीति नैपत्ये, ततश्चाभिमुखो वस्तुयोग्यदेशावस्थानापेक्षी नियत-इन्द्रियाण्याश्रित्य स्वस्वविषयापेक्षी बोधः अभिनिबोध इति भावसाधनः, स्वार्थिकतद्वितोत्पादात्स एवाभिनियोधिकम्, अभिनिवुध्यते आत्मना स इत्यभिनिबोध इति कर्म्मसाधनो वा, अभिनिवुध्यते वस्त्वसावित्यभिनिबोध इति कर्तृसाधनो वा, स एवाभिनियोधिकमिति तथैव, आभिनिवोधिकं च तद् ज्ञानं चाभिनिवोधिकज्ञानम्-इन्द्रियपञ्चकमनोनिमित्तो बोध इत्यर्थः । श्रवणं श्रुतम् अभिलापलावितार्थग्रहणस्वरूप उपलब्धिविशेषः श्रुतं च तद् ज्ञानं च श्रुतज्ञा Ja on ematen For P&Pase Cnly ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूल [१] / गाथा ||--|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः अनुयो० अधि० अनुयो नम्, अथवा श्रूयत इति श्रुतं-शब्दः स चासौ कारणे कार्योपचारादू ज्ञानं च श्रुतज्ञानं, शब्दो हि श्रोतुः मलधा- सामिलापज्ञानस्य कारणं भवतीति सोऽपि श्रुतज्ञानमुच्यते । अवधानमवधिः-इन्द्रियाद्यनपेक्षमात्मनः सा-13 रीया शिक्षादर्थग्रहणम्, अवधिरेव ज्ञानमवधिज्ञानम्, अथवा अवधिः-मर्यादा तेनावधिना-रूपिद्रव्यमर्यादात्मकेन ज्ञानमवधिज्ञानं । संज्ञिभिर्जीवैः काययोगेन मनोवर्गणाभ्यो गृहीतानि मनोयोगेन मनस्त्वेन परिणमितानि ॥२ ॥ द्रव्याणि मनासीत्युच्यन्ते, तेषां मनसां पर्यायाः-चिन्तनानुगुणाः परिणामास्तेषु ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम्, अथवा यथोक्तखरूपाणि मनांसि पर्येति-अवगच्छतीति मनःपर्यायमिति कर्मण्यण (पा०३-२-१), तच्च तद् ज्ञानं च मनःपर्यायज्ञानं । केवलं-संपूर्णज्ञेयविषयत्वात् संपूर्ण तच तद् ज्ञानं च केवलज्ञानमिति ॥ अवग्रहादिभेदचिन्ता त्वेतेषां ज्ञानानामन्त्र न क्रियते, सूत्रेऽनुक्तत्वेनाप्रस्तुतत्वात् नन्द्यादिषु विस्तरेणोक्तत्वाचेति । अनेन च शास्त्रस्थादावेच ज्ञानपञ्चकोत्कीर्तनेन मङ्गलं कृतं भवति, सकलक्लेशविच्छेदहेतुत्वेन ज्ञानस्य परम-12 मङ्गलत्वात् । अभिधेयं तु गुणनिष्पन्नानुयोगद्वारलक्षणशास्त्रनामत एव सकाशात्प्रतीयते, उपक्रमाद्यनुयोगदाराणामेवेहाभिधास्यमानत्वात् । प्रयोजनं तु प्रकरणकर्तृश्रोत्रोः प्रत्येकमनन्तरपरम्परभेदाचिन्तनीयं, तत्र प्रकरणकर्तुरनन्तरं सत्त्वानुग्रहः प्रयोजनं, श्रोतुश्च प्रकरणार्थपरिज्ञानं, परम्परं तु द्वयोरपि परमपदप्राप्तिः, इदं तु यद्यपीह साक्षान्नोक्तं तथापि सामोदवसीयते, तथाहि-सत्त्वानुग्रहप्रवृत्ता एव परमगुरव इदमुपदि-४॥ शन्ति, तदनुग्रहे च क्रमेण परमपदप्राप्तिः प्रतीतैव, श्रोताऽपि गुरुभ्यः प्रस्तुतप्रकरणार्थ विज्ञानाति, तत्परिज्ञाने ॥ २॥ ~15 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [3] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१] / गाथा ||--II पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः च सकलजिनवचनानुयोगकरणे कुशलतामासादयति, तत्कुशलतायां च विप्रहाय हेयानुपादाय उपादेयान् संप्राप्य प्रकर्षचचरणकरणं कृत्वाऽतिदुष्करतपश्चरणं अनुभूय विशदकेवलालोकतः सकलत्रिलोकीतलसाक्षात्करणं प्रविश्य सकलकर्म्मविच्छेदकर्तृ शैलेशीकरणं सकलमुक्तजनशरणं परमपदमधिगच्छतीति । सम्बन्धोऽप्युपायोपेपलक्षणो गम्पत एव, वचनरूपापन्नं हि शास्त्रमिदमुपायस्तदर्धस्तूपेय इति । एवं च समस्तशास्त्रकाराणां समयः परिपालितो भवति, उक्तं च तैः - "संबंधभिधेयपओयणाई तह मंगलं च सत्यम्मि। सीस| पवित्तिनिमित्तं निव्विग्घत्थं च चिंतिजा ॥ १ ॥" इत्यलं विस्तरेण ॥ १ ॥ तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाई ठवणिजाई णो उद्दिसंति णो समुद्दिसंति णो अणुण्णविज्जंति, सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ (सू०२-१०१८ ) यदि नाम ज्ञानं पञ्चविधं प्रज्ञसं ततः किमित्याह - 'तत्थे'त्यादि, 'तत्र' तस्मिन् ज्ञानपञ्चके आभिनिबोधिकावधिमनः पर्यायके वलाख्यानि चत्वारि ज्ञानानि 'उप्पाइति' स्थाप्यानि असंव्यवहार्याणि, व्यवहारनयो हि | यदेव लोकस्योपकारे वर्त्तते तदेव संव्यवहार्ये मन्यते, लोकस्य च हेयोपादेयेष्वर्थेषु निवृत्तिप्रवृत्तिद्वारेण प्रायः १. सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि तथा महल व शास्त्रे शिष्यप्रवृत्तिनिमित्तं निर्विप्रार्थं च विन्तयेत् ॥ १ ॥ २ णो उद्दिविनंति णो समुद्दिसति प्र Fir P&Pale Cnly ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२] / गाथा ||-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधा- रीया वृत्तिः अनुयो अधिक GASCARAS ॥३ ॥ श्रुतमेव साक्षादयन्तोपकारि, यद्यपि केवलादिदृष्टम) श्रुतमभिधत्ते तथापि गौणवृत्त्या तानि लोकोपकारीणीति भावः । ययुक्तन्यायेनासंव्यवहार्याणि तानि ततः किमित्याह-'ठवणिज्जाइंति' ततः स्थापनीयानि एतानि, तथाविधोपकाराभावतोऽसंव्यवहार्यत्वात्तिष्ठन्तु, न तैरिहोदेशसमुद्देशाद्यवसरेऽधिकार इत्यर्थः, अ * थवा स्थाप्पानि-अमुखराणि खखरूपप्रतिपादनेऽप्यसमर्थानि, न हि शन्दमन्तरेण स्वखरूपमपि केवलादीनि प्रतिपादयितुं समर्थानि, शब्दश्वानन्तरमेव श्रुतत्त्वेनोक्त इति खपरखरूपप्रतिपादने श्रुतमेव समर्थ, स्वरूपकधनं चेदमतः स्थाप्यानि-अमुखराणि यानि चत्वारि ज्ञानानि तानीहानुयोगद्वारविचारपक्रमे किमित्याह-अनुपयोगित्वात् स्थापनीयानि-अनधिकृतानि, यत्रैव खुद्देशसमुद्देशानुज्ञादयः क्रियन्ते, तत्रैवानुयोगः तद्द्वाराणि चोपक्रमादीनि प्रवर्त्तन्ते, एवंभूतं त्वाचारादि श्रुतज्ञानमेव इत्यत उद्देशाद्यविषयत्वादनुपयोगीनि शेषज्ञानानि, इत्यतोऽत्रानधिकृतानि । अब्राह-अनुयोगो व्याख्यानं, तच शेषज्ञानचतुष्टयस्यापि प्रवर्तत एवेति कथमनुपयोगित्वं ?, मनु समयचर्यानभिज्ञतासूचकमेवेदं वचो, यतो हन्त तत्रापि तज्ञानप्रतिपादकसू संदर्भ एवं व्याख्यायते, स च श्रुतमेवेति श्रुतस्यैवानुयोगप्रवृत्तिरिति । अथवा-स्थाप्यानि-गुर्वनधीनत्वेनोद्देशायविषयभूतानि, एतदेव विवृणोति-स्थापनीयानीति, एकाचौं दावपि, इदमुक्तं भवति-अनेकार्थवादतिगम्भी-1 रत्वादिविधमत्रापतिशयसम्पन्नवाच प्रायो गुरूपदेशापेक्षं श्रुतज्ञानं, तब गुरोरन्तिके गृह्यमाणं परमकल्या-1 णकोशत्वादुद्देशादिविधिना गृह्यत इति तस्योद्देशादयः प्रवर्त्तन्ते, शेषाणि तु चत्वारि ज्ञानानि तदावरण - - ॥३॥ ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [२] / गाथा ||--|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: दो कर्मक्षयक्षयोपशमाभ्यां खत एव जायमानानि नोद्देशादिप्रक्रममपेक्षन्ते । यतश्चैवमत आह-'नो उद्दिसि जंती'त्यादि, नो पदिश्यन्ते नो समुद्दिश्यन्ते नो अनुज्ञायन्ते, तत्र इदमध्ययनादि त्वया पठितव्यमिति गुरुवचनविशेष उद्देशः, तस्मिन्नेव शिष्येण अहीनादिलक्षणोपेतेऽधीते गुरोर्निवेदिते स्थिरपरिचितं कुर्विद-15 मिति गुरुवचनविशेष एव समुदेशः, तथा कृत्वा गुरोर्निवेदिते सम्यगिदं धारयान्यांबाध्यापयेति तद्वचनविशेष एवानुज्ञा 'सुयणाणस्सेत्यादि' श्रुतज्ञानस्योद्देशः समुद्देशोऽनुज्ञा अनुयोगश्च प्रवर्तते ॥२॥ | तत्रोद्देशादीनां बयाणां स्वरूपं संक्षेपत उक्तमपि विनेयानुग्रहार्थे किचिद्विस्तरतः उच्यते-तत्राचाराद्यङ्गस्य | | उत्तराध्ययनादिकालिकश्रुतस्कन्धस्य औपपातिकात्कालिकोपागाध्ययनस्य चायमुझेशविधिः-इहाचाराङ्गाद्य-पटू न्यतरश्रुतमध्येतुमिच्छति यो विनेयः स खाध्यायं प्रस्थाप्य गुरुं विज्ञपयति-भगवन ! अमुकं मम श्रुतमुद्दि शत, गुरुरपि भणति 'इच्छाम' इति, ततो विनेयो वन्दनकं ददाति १, ततो गुरुरुत्थाय चैत्यवन्दनं करोति, दतत ऊर्ध्वस्थितो वामपार्कीकृतशिष्यो योगोत्क्षेपनिमित्तं पञ्चविंशत्युच्छ्रासमानं कायोत्सर्ग करोति, 'चंदेसुई निम्मलयरे'ति यावच्चतुर्विंशतिस्तवं चिन्तयतीत्यर्थः, ततः पारितकायोत्सर्गः संपूर्ण चतुर्विंशतिस्तवं भणित्वा । तथास्थित एव पश्चपरमेष्ठिनमस्कारंवारत्रयमुच्चार्य 'नाणं पञ्चविहं पण्णत्त'मित्यादि उद्देशनन्दी भणति, तदन्ते हैच'इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्य अस्य साधोरिदमङ्गममुं श्रुतस्कन्धं इदमध्ययनं वा उद्दिशामि क्षमाश्रमणानां हस्तेन सूत्रमर्थं तदुभयं च उद्दिष्टमित्येवं वदति, क्षमाश्रमणानामित्यादि त्वात्मनोऽहङ्कारवर्जनार्थमभिधत्ते, ततो RECASSSSSSSSS ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [२] / गाथा ||-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयोग मलधारीया ॥४॥ विनेय 'इच्छामी'ति भणित्वा वन्दनकं ददाति २, तत उत्थितो ब्रवीति 'संदिशत किं भणामी ति, ततो गुरु- वृत्तिः दति वन्दित्वा प्रवेदये ति, ततो विनेय 'इच्छामी ति भणित्वा वन्दनकं ददाति ३, ततः पुनरुत्थितः प्रति- अनुयो० ४पादयति-भवद्भिर्ममामुकं श्रुतमुद्दिष्टमिच्छाम्यनुशास्ति' ततो गुरुः प्रत्युत्तरपति–'योगं कुर्विति, एवं अधिक सन्दिष्टो विनेय 'इच्छामी'ति भणित्वा बन्दनकं दाति, ततोऽत्रान्तरे नमस्कारमुच्चारयन्नसौ गुरुं प्रदक्षिणपति, तदन्ते च गुरोः पुरतः स्थित्वा पुनर्वदति-'भवद्भिर्ममामुकं श्रुतमुद्दिष्टमिच्छाम्यनुशास्ति' ततो गुरुराह -'योगं कुन्धि'ति, एवं संदिष्ट इच्छामीति भणित्वा वन्दित्वा च पुनस्तथैव गुरुं प्रदक्षिणयति, तदन्ते च पुनस्तथैव गुरुशिष्ययोर्वचनप्रतिवचने, तथैव च तृतीयप्रदक्षिणां विदधाति विनेया, एतानि च चतुर्थवन्दनकादीनि श्रीपपि वन्दनकान्येकमेव चतुर्थं गण्यते, एकार्थप्रतिबद्धत्वादिति ४, ततस्तृतीयप्रदक्षिणान्ते गुरुनिषीदति, निषण्णस्य च गुरोः पुरतो वनतगात्री विनेयो वक्ति-'युष्माकं प्रवेदितं, संदिशत साधूनां प्रवेद-IA यामि ततो गुरुराह-प्रवेदये ति, तत इच्छामीति भणिवा विनेयो वन्दनकं ददाति ५, प्रत्युत्थितश्चोचारितपश्चपरमेष्ठिनमस्कारः पुनर्वन्दनकं ददाति ६, पुनरुत्थितो वदति-'युष्माकं प्रवेदितं साधूनां च तत् प्रवेदितं, सन्दिशत करोमि कायोत्सर्ग' ततो गुरुरनुजानीते-'कुचि'ति, ततः पुनरपि वन्दनकं ददाति ७४ एतानि सप्त थो(छो)भवन्दनकानि श्रुतप्रत्ययानि भवन्ति, ततः प्रत्युत्थितोऽभिधत्ते-'अमुकस्योदेशनिमित्तं | करोमि कायोत्सर्गमन्यत्रोच्छ्रसितादित्यादि यावन्धुत्सृजामीति' ततः कायोत्सर्गस्थितः सप्तविंशतिमुच्छासां | Aठाकर ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [२] / गाथा ||-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: चिन्तयति 'सागरवरगम्भीरेति'यावचतुविशतिस्तवं चिन्तयति इत्यर्थः, 'उद्देससमुद्देसे सत्तावीसं अणुण्णवणयाए' इतिवचनात्, ततः पारितकायोत्सर्गः संपूर्ण चतुर्विशतिस्तवं भणित्वा परिसमासोद्देशक्रियत्वाद गुरोः थोभवन्दनकं ददाति, तच न श्रुतप्रत्ययं, किं तर्हि ?, श्रुतदातृत्वादिना गुरुः परमोपकारी, तबिनयप्रतिपKIतिनिमित्तमिति । अङ्गादिसमुद्देशेऽप्ययमेव विधिर्वक्तव्यो, नवरं पूर्वप्रवेदिते योगं कुर्वित्युक्तमत्र तु स्थिरपरिचितं कुर्विति बदति, योगोत्क्षेपकायोत्सर्गो नन्द्याकर्षण प्रदक्षिणात्रयविधिश्च न क्रियते, शेषः ससवन्दनकादिको विधिस्तथैव । अनुज्ञाविधिस्तु योगोत्क्षेपकायोत्सर्गवर्जः सर्वोऽप्युदेशविधिवद्वक्तव्यो, नवरं प्रवेदिते गुरुर्वदति-'सम्यग् धारयान्येषां च प्रवेदयं अन्यानपि पाठयेत्यर्थः, आवश्यकादिषु तण्डुलविचारणादिप्रकीर्णकेष्वपि वैष एव विधिः, नवरं खाध्यायप्रस्थापनं योगोत्क्षेपकायोत्सर्गश्च न क्रियते, एवं सामायिकायध्ययनेषूद्देशकेषु च चैत्यवन्दनप्रदक्षिणात्रयादिविशेषक्रियारहितः सप्तवन्दनकमदानादिकः स एव विधिरिति तावदियं चूर्णिकारलिखिता सामाचारी, साम्प्रतं पुनरन्यथापि ताः समुपलभ्यन्ते, न च तथोपलभ्य , सम्मोहः कर्त्तव्यः, विचित्रत्वात्सामाचारीणामिति । इदानीमनुयोगविधिरुच्यते-तत्रानुयोगो-वक्ष्यमाणशब्दार्थः, स यदाऽधीतसूत्रस्थाचार्यपदप्रस्थापनयोग्यस्य शिष्यस्थानुज्ञायते तदाऽयं विधि:-प्रशस्तेषु तिधिनक्षप्रकरणमुहर्सेषु प्रशस्ते च जिनायतनादी क्षेत्रे भुवं प्रमाणं एका गुरूणामेका त्वक्षाणामिति निषद्यादयं क्रि १ उरेशे समुदेने सप्तविंशतिरनुमापने. ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [२] / गाथा ||-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः अनुयोग अनुयोग्य ते, ततः प्राभातिककाले प्रवेदिते निषद्यानिषण्णस्य गुरोचोलपट्टकरजोहरणमुखवत्रिकामात्रोपकरणो वि-ह मलधा- नेयः पुरतोऽवतिष्ठते, ततो दावपि गुरुशिष्यौ मुखवस्त्रिका प्रत्युपेक्षयतः, तया च समग्रं शरीरं प्रत्युपेक्षरीया यतः, ततो विनेयो गुरुणा सह द्वादशावर्त्तवन्दनकं दत्वा वदति-इच्छाकारेण संदिशत स्वाध्यायं प्रस्थाप यामि', ततश्च द्रावपि स्वाध्यायं प्रस्थापयतः, ततः प्रस्थापिते खाध्याये गुरुर्निषीदति, तुतः शिष्यो बादशा-1 वर्त्तवन्दनकं ददाति, ततो गुरुरुत्थाय शिष्येण सहानुयोगप्रस्थापननिमित्तं कायोत्सर्ग करोति, ततो गुरुनिषीदति, ततस्तं शिष्यो बादशाव-वन्दनकेन बन्दते, ततो गुरुरक्षानभिमन्योत्तिष्ठति, उत्थाय च निषा &ापुरतः कृत्वा वामपाचीकृतशिष्यश्चैत्यवन्दनं करोति, ततः समासे चैत्यवन्दने पुनः गुरुरूर्वस्थित एव नम स्कारपूर्व नन्दिमुचारयति, तदन्ते चाभिधत्ते-'अस्य साधोरनुयोगमनुजानामि, क्षमाश्रमणानां हस्तेन, द्रव्यगुणपर्यायैरनुज्ञात' ततो विनेयइछोभयन्दनकेन वन्दते, उत्थितश्च ब्रवीति-'संदिशत किं भणामि? ततो गुरुराह-वन्दित्वा प्रवेदय' ततो वन्दते शिष्यः, उत्थितस्तु ब्रवीति 'भवद्भिर्ममानुयोगोऽनुज्ञातः, इच्छाम्यनुशास्ति' ततो गुरुर्वदति-सम्यग् धारय अन्येषां च प्रवेदय अन्येषामपि व्याख्यानं कुबित्यर्थः, ततो बन्दतेऽसौ, वन्दित्त्वा च गुरुं प्रदक्षिणयति, प्रदक्षिणान्ते च भवद्भिर्ममानुयोगोऽनुज्ञात इत्यायुक्तिप्रत्युक्तिर्वितीयप्रदक्षिणा च तथैय, पुनस्तृतीयापि तथैव, ततस्तृतीयप्रदक्षिणान्ते गुरुर्निषीदति, तत्पुरस्थितश्च विनेयो| वदति-'युष्माकं प्रवेदितं, सन्दिशत साधूनां प्रवेदयामी'त्यादि, शेषमुद्देशविधिवद्वक्तव्यं यावदनुयोगानुज्ञा R- 47 RS-4 -* ॥५ ॥ ~21~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [२] / गाथा ||--II पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः निमित्तं कायोत्सर्ग करोति, तदन्ते च सनिषद्यः शिष्यो गुरुं प्रदक्षिणयति, तद्न्ते च वन्दते पुनः प्रदक्षिणयति, एवं तिस्रो वाराः, ततो गुरोर्दक्षिणभुजासन्ने निषीदति, ततो गुरुपारम्पर्यागतानि मन्त्रपदानि गुरुः तिस्रो वाराः शिष्यस्य कथयति, तदनन्तरं यथोत्तरं प्रवर्द्धमानाः प्रवर सुगन्धमिश्रास्तिस्रोऽक्षतमुष्टस्तस्मै ददाति ततो निषयाया गुरुरुत्थाय शिष्यं तत्रोपवेश्य यथासन्निहितसाधुभिः सह तस्मै वन्दनकं ददाति, ततो विनेयो निषद्यास्थित एव 'नाणं पंचविहं पण्णत्तमित्यादिसूत्रमुचार्य यथाशक्ति व्याख्यानं करोति, तदन्ते च साधवो वन्दनकं ददति, ततः शिष्यो निषद्यातः उत्तिष्ठति, गुरुरेव पुनस्तत्र निषीदति, ततो द्वावप्यनुयोगविसर्गार्थं कालप्रतिक्रमणार्थे च प्रत्येकं कायोत्सर्ग कुरुतः, ततः शिष्यो निरुद्धं प्रवेदयते, निरुद्धं करोतीत्यर्थः । एवं श्रुतस्यैव उद्देशादयः प्रवर्त्तन्ते, न शेषज्ञानानाम्, अत्र चानुयोगेनैवाधिकारो न शेषैः, अनुयोगद्वारविचारस्यैवेह प्रक्रान्तत्वाद् ॥ जइ सुयनाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुष्णा अणुओगो य पवत्तइ, किं अंगपविट्ठस्स उद्देसो समुदेसो अणुण्णा अणुओगो य पवत्तइ ?, किं अंगबाहिरस्स उद्देसो समुद्देसो अण्णा अणुओगो य पवत्तइ ?, अंगपविट्टस्सवि उद्देसो जाव पवत्तइ, अणंगपेविट्ट १ अंगवादिरस्थवि प्र. 'श्रुतज्ञान आदीनाम् 'उद्देश- समुद्देश- अनुज्ञा' प्रवर्तन For P&Praise Cly ~ 22~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूल [३] / गाथा ||--|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधा वृत्तिः अनुयो० अधि० रीया ॥६ ॥ स्सवि उद्देसो जाव पवत्तइ ?, इमं पुण पट्टवणं पडुच्च अणंगपविट्ठस्स अणुओगो (सू० ३-५०४०) अत्र यथाभिहितमुपजीव्याह शिष्यो-'यदीत्यादि, यमुक्तक्रमेण श्रुतज्ञानस्योद्देशः समुद्देशोऽनुज्ञा अनु-| योगश्च प्रवर्तते, तर्हि किमसावङ्गप्रविष्टस्य प्रवर्तते, उताङ्गबाह्यस्येति ?, तत्राङ्गेषु प्रविष्टम्-अन्तर्गतमङ्गप्रविष्टं, श्रुतम्-आचारादि तद्वावं तु उत्तराध्ययनादि, अत्र गुरुर्निर्वचनमाह-'अंगपविहस्सवी स्यादि, अपिशब्दो परस्परसमुच्चयायौँ, अङ्गमविष्टस्याप्युद्देशादि प्रवर्तते, अङ्गाहाह्यस्यापि, 'इदं पुनः' प्रस्तुतं 'प्रस्थापन प्रारम्भ, 'प्रतीत्य' आश्रित्याङ्गवाद्यस्य प्रवर्तते नेतरस्य, आवश्यक ह्यत्र व्याख्यास्यते, तच्चाङ्गबाह्यमेवेतिभावः ॥ ३ ॥ जइ अणंगपविटुस्स अणुओगो, किं कालिअस्स अणुओगो? उक्कालिअस्स अणुओगो?, कालिअस्सवि अणुओगो उकालिअस्सवि अणुओगो, इमं पुण पटवणं पडुच्च उक्कालिअस्स अणुओगो (सू०४-५०२०) अत्राङ्गबाह्यस्येति सामान्योक्तौ सत्यां संशयानो विनेय आह-जह अंगबाहिरस्से'त्यादि, यद्यङ्गबाह्यस्योदेशादिः किमसौ कालिकस्य प्रवर्तते उत्कालिकस्य वा?, द्विधाऽप्यङ्गाबाह्यस्य संभवादितिभावः, तत्र दिवसनिशाप्रथमचरमपौरुषीलक्षणे कालेऽधीयते नान्यत्रेति कालिकम्-उत्तराध्ययनादि, यत्तु कालवेलामात्रवर्ज ॥६ ॥ ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [४] / गाथा ||-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: शेषकालानियमेन पठ्यते तदुत्कालिकम्-आवश्यकादि । अत्र गुरुः प्रतिवचनमाह-कालियस्सवी'त्यादि, कालिकस्याप्यसी प्रवर्त्तते, उत्कालिकस्थापि, इदं पुनः प्रस्तुतं प्रस्थापनं-प्रारम्भं प्रतीत्य उत्कालिकस्थासौ मसन्तव्यः, आवश्यकमेव ह्यत्र व्याख्यास्यते, तबोत्कालिकमेवेति हृदयम् ॥ ४॥ उत्कालिकस्येति सामान्यवचने विशेषजिज्ञासुः पृच्छति जइ उकालिअस्स अणुओगो किं आवस्सगस्स अणुओगो? आवस्सगवतिरित्तस्स अणुओगो?, आवस्सगस्सवि अणुओगो आवस्सगवतिरित्तस्सवि अणुओगो, इमं पुण पट्टवणं पडुच्च आवस्सगस्स अणुओगो (सू०५) । __ यगुत्कालिकस्योद्देशादिस्तत्किमावश्यकस्यायं प्रवर्तते, यहाऽऽवश्यकव्यतिरिक्तस्य?, उभयथाऽप्युत्कालिकस्य सम्भवादिति परमार्थः । तत्र श्रमणैः श्रावकैश्चोभयसन्ध्यमवश्यंकरणादावश्यक-सामायिकादिषडध्ययनकलापः, तस्मात्तु व्यतिरिक्तं-भिन्नं दशवैकालिकादि, गुरुराह-'आवस्सगस्सी 'त्यादि, दयोरप्येतयोग सामान्येनोद्देशादिः प्रवर्तते, किंस्विदं प्रस्तुतं प्रस्थापन प्रारम्भं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोगो नेतरस्य, सकलसामाचारीमूलवादस्यैवेह शेषपरिहारेण व्याख्यानादिति भावनीयम्, उद्देशसमुद्देशानुज्ञास्त्वावश्यके प्रवर्तमाना अप्यत्र नाधिकृताः, अनुयोगावसरत्वाद्, अतस्तत्परिहारेणोक्तम्, 'अणुओगोत्ति, अयमत्र भावार्थ: अनु. २ + 4 JEScamine ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [५] / गाथा ||-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः अनुयो० अधि० अनुयो र अनुयोगस्य प्रक्रान्तत्त्वात् तद्वक्तव्यताप्रतिवद्धाया अस्या गाथाया इहावसरः, तद्यथा-निक्खेवेगट्ठ निरुत्ति मलधा-1विही पवित्ती य केण वा कस्स? । तदारभेयलक्खणतदरिहपरिसा य सुत्तत्थो॥१॥ अस्या विनेयानुग्रहार्थ रीया व्याख्या-इहानुयोगस्य निक्षेपो-नामस्थापनादिको वक्तव्यः १, तथाऽनुयोगस्यैकार्थिकानि वक्तव्यानि, यदाह-अणुओगो य निओगो भास विभासा य वत्तियं चेव । एए अणुओगस्स य नामा एगट्ठिया पंचते ॥२॥२, तथाऽनुयोगस्य निरुक्तं वक्तव्यं, तद्यथा-खाभिधायकसूत्रेण सहार्थस्य अनु-नियतः अनुकूलो वा योगः-अस्येदमभिधेपमित्येवं संयोज्य शिष्येभ्यः प्रतिपादनमनुयोगः-सूत्राधेकधनमित्यर्थः, अथवा-एकस्यापि सूत्रस्थानन्तोऽर्थ इत्यर्थो महान् , सूत्रं त्वणु, ततवाणुना-सूत्रेण सहार्थस्य योगो अणुयोगः, तदुक्तम्"निययाणुकुलो जोगो मुत्तस्सत्येण जो य अणुओगो । सुत्तं च अणुं तेणं जोगो अत्थस्स अणुओगो ॥१॥" ३, तथाऽनुयोगस्य विधिर्वक्तव्यो, यथा-प्रथम सूत्रार्थ एव शिष्यस्य कथनीयः, द्वितीयवारायां सोऽपि नियुक्तपकथनमिश्रः, तृतीयवारायां तु प्रसङ्गानुप्रसङ्गागतः सोऽप्यों वाच्या, तदुक्तम्-"सुत्तत्थो खलु १निक्षेप एकार्थः निरुक्तिः विधिः प्रवृत्तिव्य केन वा कस्य । तदाराणि भेदाः लक्षणं तदहीं परिषद सूत्रार्थः॥१॥ २ अनुयोगध नियोमो भाषा विभाषा वार्तिकं (यक्तिक) चैत्र । एतान्यनुयोगस्य च नामान्य कार्थिकानि पत्र ॥१॥ नियतोऽनुकूलो योगः सूत्रस्वार्थेन यः सोऽनुयोगः । सूर्य चाणु तेन योगोऽस्यानुयोगः ॥१॥ ४ सूत्रार्थः खल प्रथमो द्वितीयो नियुक्ति मिधितो भणितः । तृतीयश्च निरवशेष एप विधिर्भवति अनुयोगे ॥१॥ ॥७ ॥ ~25 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [५] / गाथा ||--|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: पढमो बीओ निज्जुत्तिमीसितो भणितो । तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥१॥" इत्याधन्योऽपि अत्र विधिर्वाच्यो, दिशात्रवादस्येति ४, तथाऽनुयोगस्य प्रवृत्तिर्यथा भवति तथा वाच्यं, तत्रोद्यमी सूरिरुयमिनः शिष्याः, उद्यमी मूरिरनुयमिनः शिष्याः, अनुद्यमी सरिरुयमिनः शिष्याः, अनुद्यमी मूरिरनुद्यमिनः शिष्या इति चतुर्भङ्गी, अब प्रथमभङ्गे अनुयोगस्य प्रवृत्तिर्भवति, चतुर्थे तु न भवति, दितीय-18 तृतीययोस्तु काचित्कथश्चिद्भवत्यपि ५, तथाऽनुयोगः केन कर्त्तव्य इति तद्योग्यः कर्ताऽभिधानीयो, यदाह"देसकुलजाइरूवी संघयणी थिइजुओ अणासंसी।अविकत्यणो अमाई थिरपरिवाडी गहियवको ॥१॥” घिर-11 परिवाडित्ति अविस्मृतसूत्रः। “जियपरिसो जियनिहो मज्झत्यो देसकालभावन्नू । आसन्नलद्धपइभो नाणाविहै हदेसभासपणू ॥२॥ पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू । आहरणहेउउवणयनयनिउणो गाह णाकुसलो ॥३॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सियो सोमो । गुणसयकलिओ जुत्तो पवयणसारं परिकहेउं ॥४॥'सिवोत्ति मन्त्रादिसामर्थ्यादुपशामितोपद्रवः, युक्तः-उचितः प्रवचनसारं परिकथयितुं ६, तथा अयमनुयोगः कस्य शास्त्रस्यैवंभूतेन गुरुणा कर्त्तव्य इत्यपि वाच्यं ७, तथा 'तद्दारत्ति' तस्य-अनुयोगस्य देशकुलजातिरूपवान् संहननी भूतियुतोऽनाशंसी । अविकत्यनोऽमायाची स्थिरपरिपाटिलावाक्यः ॥1॥ जितपर्षत् जितनिद्रो मध्यस्थो देषाकालभावाः बासनलब्धप्रतिभो नानाविधदेशभाषायः ॥ २॥ पनविधे आचारे युफः सूत्रार्थतदुभयविधिनः । आहरणहेतूपनयनयनिपुणः अवगाहनाकुपालः ॥३॥ ससमय| पररामयवित गम्भीरो दीप्तिमान् शिवः सौम्यः । गुणशतकलितो युक्तः प्रवचनसार परिकथयितुम् ॥ ४ ॥ SCIRCC RECROCOM JaEcAH ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [५] / गाथा || --II पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधाया ॥ ८ ॥ द्वाराणि उपक्रमादीन्यत्रैव वक्ष्यमाणखरूपाणि वाच्यानि ८, तथा 'भेदत्ति' तेषामेव द्वाराणामानुपूर्वीनामप्रमाणादिकोऽत्रैव वक्ष्यमाणस्वरूपो भेदो वक्तव्यः ९, तथाऽनुयोगस्य लक्षणं वाच्यं, यदाह - "संहियां य पदं चैव पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥ १ ॥” प्रश्ने कृते सति 'पसिद्धित्ति' चालनायां सत्यां प्रसिद्धिः समाधानं 'विद्धित्ति' जानीहि व्याख्येयसूत्रस्य च 'अलियमुवधायजणय मित्यादिद्वात्रिंशद्दोषरहितत्वादिकं लक्षणं वक्तव्यं १०, तथा तस्यैव-अनुयोगस्य योग्या परिषवक्तव्या, * सा च सामान्यतस्त्रिधा भवति, तद्यथा- “जणंतिया अजाणंतिया य तह दुब्बियढिया चेव । तिविहा य होइ परिसा तीसे नाणत्तगं वोच्छं ॥ १ ॥ गुणदोसविसेसण्णू अणभिग्गहिया य कुस्स्सुइमएसुं । सा खलु | जाणगपरिसा गुणतन्तिल्ला अगुणवज्जा ॥ २ ॥ खीरमिव रायहंसा जे तुहंति गुणे गुणसमिडा । दोसेवि य छडूडिता ते वसभा धीरपुरिसत्ति ॥ ३ ॥” इति ज्ञायकपरिषत् । "जे हुंति पगइसुद्धा मिगसावगसीहकुकुडगभूया । रयणमिव असंठविया सुहसंणप्पा गुणसमिद्धा ॥ ४ ॥ सावगशब्दः सर्वत्र संबध्यते, ततो मृगसिंहकुर्कुटशावो लघुमृगायपत्यं तद्भूता अत्यन्तर्जुत्वसाम्यात् तत्सदृशी येत्यर्थः, सहजरत्नमिवासंस्कृता 'सुहस १ संहिता व पदं चैव पदार्थः पदविग्रहः चालना च प्रसिद्धि पद्विधं विद्धि लक्षणम् ॥ १॥ १२ जानाना अजानाना च तथा दुर्विदश्या चैव । त्रिविधा भवति पर्षद तस्या नागास्वं वक्ष्ये ॥१॥ गुणदोषविशेषशा अनभिगृहीता च कुश्रुतिमतेषु । सा खलु ायकपर्यंत गुणतृप्ता अगुणवर्जा ॥ २ ॥ क्षीरमिव राजहंसा ये पिबन्ति गुणान् गुणसमृध्याः । दोषानपि त्यक्त्वा ते वृषभा धीरपुरुष इति ॥ ३ ॥ या भवति प्रकृति शुद्धा मृगसिंहकुकुटशावक (बाल) भूता । रत्नमिवासंस्थिता मुखसंज्ञप्या गुणसमुदाः ॥ ४ ॥ For P&Praise City ~27~ वृत्तिः अनुयो० अधि० ॥ ८ ॥ Stay w Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूल [५] / गाथा ||--|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: BREAST कापणप्पत्ति' मुखप्रज्ञापनीया "जो खलु अभाविया कुस्सहहिं न य ससमए गहियसारा। अकिलेसकरा सा। ४ खलु वइरं छकोडिसुद्धं च ॥५॥" षट्कोणशुई वज्रमिव-हीरक इव विशुद्धा या सा खल्वज्ञायकपरिषदिति वाक्यशेषः । इदानीं दुर्विदग्धपरिषदुच्यते-"न य कत्थवि निम्माओ न य पुच्छह परिभवस्स दोसेणं । व-16 स्थिव्व वायपुषणो फुडइ गामिल्लगवियदो॥६॥ किंचिम्मत्तगाही पल्लवगाही य तुरियगाही य । दुविढिया उ एसा भणिया तिविहा इमा परिसा ॥७॥" अनाद्यपरिषद्धयमनुयोगार्ह तृतीया त्वयोग्येति ११,४ एतत्सर्वमभिधाय ततः सूत्रार्थो वक्तव्यः १२ इति लेशतो व्याख्यातेयं गाथा । विस्तरार्थिना तु कल्पपीठि-1& काऽन्वेषणीयेत्येवं चानुयोगस्य द्वादश बाराणि वक्तव्यानि भवन्ति । तत्र शेषबारोपलक्षणार्थं कस्य शास्त्र- स्थायमनुयोग इति सप्तमं द्वारं चेतसि निधाय 'जइ सुयनाणस्स उद्देसों' इत्यादिसूत्रप्रपञ्चपूर्वकमुक्तं सूत्र-13 कृता-'इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतील्यावश्यकस्यानुयोग' इति ॥५॥ पुनरप्याह विनेयः जइ आवस्सगस्सै अणुओगो किं अंग अंगाई सुअखंधो सुअखंधा अज्झयणं अज्झय SC १या सल्लभाविता कुधुतिभिः न च खसमये गृहीतसारा । अशकरी खल सा षट्कोदिधदवअमिर ॥ ५॥ न व कुत्रापि निर्मातो न च पृच्छति परिभ-17 पस्य दोषण । बस्तिरिय पासपूर्ण स्फुरति प्रामेयको विदग्धः ॥६॥ किश्चिन्मात्रपाहिणी पजवग्राहिणी सरितपाहिणीबदुर्विदग्धा वषा भणिता त्रिविधये पर्षत् ॥ ७॥ २भावस्सयं णं इसधिक प्र. ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [६] / गाथा ||-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः अनुयो मलधारीया णाई उद्देसो उद्देसा?, आवस्सयस्स णं नो अंगं नो अंगाई सुअखंधो नो सुअखंधा नो अज्झयणं अज्झयणाइं नो उद्देसो नो उद्देसा (सू०६) अनुयो. अधिक यद्यावश्यकस्य प्रस्तुतोऽनुयोगः, तर्हि किं णमिति वाक्यालङ्कारे, किमिति परमश्ने, किमेकं द्वादशानान्तर्गतमङ्गमिदम्, उत बहून्यङ्गानि, अथैकः श्रुतस्कन्धो बहवो वा श्रुतस्कन्धाः, अध्ययनं वैकं बहनि वाऽध्ययनानि, उद्देशको वा एको बहवो वा उद्देशका इत्यष्टौ प्रश्नाः, तत्र श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि चेदमिति प्रतिपत्तव्यं, षडध्ययनात्मकश्रुतस्कन्धरूपत्वादस्य, शेषास्तु षट् प्रश्ना अनादेयाः, अनङ्गादिरूपत्वादिति, एतदेवाह-'आवस्सयस्स णमित्यादि, अत्राह-नन्वावश्यक किमङ्गमङ्गानीत्येतत् प्रश्नयमत्रानवकाशमेव, नन्यध्ययन एवास्यानङ्गप्रविष्टत्वेन निर्णीतत्वात्, तथात्राप्यङ्गवायोत्कालिकक्रमेणानन्त-| रमेवोक्तत्वादिति, अत्रोच्यते, यत्तावदुक्तं-नन्द्यध्ययन एवेत्यादि' तदयुक्तं, यतो नावश्यं नन्यध्ययनं ६ व्याख्याय तत इदं व्याख्येयमिति नियमोऽस्ति, कदाचिदनुयोगदारव्याख्यानस्यैव प्रथम प्रवृत्तः, अनियमज्ञापकश्चायमेव सूत्रोपन्यासः, अन्यथा ह्यङ्गबाह्यत्वेऽस्य तत्रैव निश्चिते किमिहागानङ्गप्रविष्टचिन्तासूबोपन्यासेनेति, मङ्गलार्थमवश्यं नन्दिरादी व्याख्येया इति चेन्न, ज्ञानपञ्चकाभिधानमात्रस्यैव मालत्वात्तस्य 81 चेहापि कृतवादिति, यच्चोक्तम् 'अत्राप्यङ्गबाह्योत्कालिकक्रमेणेत्यादि' तत्रापि समुदितानामुद्देशसमुद्देशानु 4-9-4551345645605 26- 2 ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [६] / गाथा ||-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ज्ञानुयोगानां प्रश्नप्रकरणे तदुक्तम्, अत्र तु केवलोऽनुयोग एवाधिकृतः, तत्प्रस्तावे त्विदमेवोक्तम्-इदं पुनः प्रस्थापनं प्रतीत्यावश्यकस्यानुयोग' इत्यतो भिन्नप्रस्तावत्वात् पृच्छा क्रियते 'आवस्सयस्स णं.किमित्यादि, विस्मरणशीलाल्पबुद्धिमाषतुषादिकल्पसाध्वनुग्रहार्थे वेत्यदोषः ॥ ६॥ तदेवं यस्माद् इदं पुनः प्रस्थापनं प्रती-15 त्यावश्यकस्यानुयोग' इत्यनेनावश्यकमिति शास्त्रनाम निर्णीतं, यस्माचाष्टम्वनन्तरोक्तमनेष्वावश्यकं श्रुतस्कन्धत्वेनाध्ययनकलापात्मकत्वेन च निर्णीतं, तस्मात्किमित्याह. तम्हा आवस्सयं निक्खिविस्सामि सुअं निक्खिविस्सामि खंधं निक्खिविस्सामि अ ज्झयणं निक्खिविस्सामि (सू०७) यस्मात्प्रस्तुतानुयोगविषयं शास्त्रमुक्तक्रमेणावश्यकादिरूपतया निर्णीतं, तस्मादावश्यकं निक्षेप्स्यामि श्रुतं निक्षेप्स्यामि स्कन्धं निक्षेपस्यामि अध्ययन निक्षेप्स्यामि, इदमुक्तं भवति-आवश्यकादिरूपतया प्रकृतशास्त्रस्य। निश्चितत्वादावश्यकादिशब्दानामों निरूपणीयः, स च निक्षेपपूर्वक एव स्पष्टतया निरूपितो भवति, अतोऽमीषां निक्षेपः क्रियते, तत्र निक्षेपणं निक्षेपो यथासंभवमावश्यकादेर्नामादिभेदनिरूपणम् ॥७॥ जत्थ य जं जाणेज्जा निक्खेवं निक्खिवे निरवसेसं । जत्थविअ न जाणेजा चउक्कगं निक्खिवे तत्थ ॥१॥ (१) ~30~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [७] / गाथा ||१|| ............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अनुयोग मलधारीया अधिक ॥१०॥ गाथा ||१|| 5 तत्र जघन्यतोऽप्यसौ चतुर्विधो दर्शनीय इति नियमार्थमाह-'यत्र च' जीवादिवस्तुनि यं जानीयात् निक्षेप न्यास, यत्तदोनित्याभिसंबन्धात्तत्र वस्तुनि तं निक्षेपं 'निक्षिपेत् निरूपयेत् 'निरवशेष समग्रं, अनयो. यत्रापि च न जानीयान्निरवशेषं निक्षेपभेद्जालं तत्रापि नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणं चतुष्कं निक्षिपेन, इदमुक्तं भवति-पत्र तावन्नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभवभावादिलक्षणा भेदा ज्ञायन्ते तत्र तैः सर्वैरपि वस्तु निक्षिप्यते, यत्र तु सर्वभेदा न ज्ञायन्ते तत्रापि नामादिचतुष्टयेन वस्तु चिन्तनीयमेव, सर्वव्यापकत्वात्तस्य, न हि किमपि तद्वस्तु अस्ति यन्नामादिचतुष्टयं व्यभिचरतीति गाथार्थः ॥१॥ तत्र 'यथोदेशं निर्देश इत्यावश्यकनिक्षेपार्थमाहहै. से किं तं आवस्सयं?, आवस्सयं चउव्विहं पण्णतं, तंजहा-नामावस्सयं ठवणावस्सयं दव्वावस्सयं भावावस्सयं (सू०८) अत्र से शब्दो मागधदेशीप्रसिद्धोऽथशब्दार्थे वर्त्तते, अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः, तथा चोक्तम्-"अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गलोपन्यासनिर्वचनसमुच्चयेषु” इति, किमिति प्रश्ने, तदिति सर्वनाम पूर्वप्रकान्तपरामर्शार्थे, ततश्चायं समुदायार्थ:-अथ किंखरूपंतदावश्यकम्?, एवं प्रश्निते सत्याचार्यः शिष्यवचनानुरोधेन आदराधानार्थ प्र-Mn त्युच्चार्य निर्दिशति-'आवस्सयं चउबिह'मित्यादि, अवश्यं कर्तव्यमावश्यकम्, अथवा गुणानां आ-समन्ताब दीप अनुक्रम अथ 'आवश्यकस्य नाम-आदि चत्वार: निक्षेपा: ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [८] / गाथा ||१...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: इयमात्मानं करोतीत्यावश्यकं, यथा अन्तं करोतीति अन्तकः, अथवा-आवस्सयंति प्राकृतशैल्या आवासकं, तत्र 'वस निवासे' इति गुणशून्यमात्मानम् आ-समन्तात् वासयति गुणैरित्यावासकं, 'चउन्विहं पण्णत्तंति' चतस्रो विधा-भेदा अस्येति चतुर्विधं प्रज्ञसं-प्ररूपितमर्थतस्तीर्थकरैः सूत्रतो गणधरैः, तयथा-'नामावस्सयमित्यादि। नाम-अभिधानं तद्रूपमावश्यकं नामावश्यकम् आवश्यकाभिधानमेवेत्यर्थः, अथवा नाना-नाममात्रेणावश्यक नामावश्यकं जीवादीत्यर्थः, तल्लक्षणं चेदम्-“यवस्तुनोऽभिधानं स्थितमन्यार्थे तदर्थनिरपेक्षम् । पर्यायानभिधेयं च नाम यादृच्छिकं च तथा ॥ १ ॥” विनेयानुग्रहार्थमेतद्व्याख्या-यवस्तुन इन्द्रादेः 'अभिधानम्' इन्द्र इत्यादिवर्णावलीमात्रमिदमेव च आवश्यकलक्षणवर्णचतुष्टयावलीमात्रं यत्तदोर्नियाभिसंबन्धात्तन्नामेति संटङ्कः, अथ प्रकारान्तरेण नाम्नो लक्षणमाह-'स्थितमन्याथै तदर्थनिरपेक्षं पर्यायानभिधेयं चेति' तदपि नाम, यत्कथंभूतमित्याह-अन्यवासावर्चश्वान्यार्थी-गोपालदारकादिलक्षणः तत्र स्थितम्, अन्यनेन्द्रादावर्थे यथार्थत्वेन प्रसिद्धं सदन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितमित्यर्थः, अत एवाह-तदर्थनिरपेक्षम्' इति, तस्य-इन्द्रादिनानोऽर्थः-परमैश्वर्यादिरूपस्तदर्थः, स चासावर्थश्चेति वा तदर्थः, तस्य निरपेक्ष गोपालदारकादौ तदर्थस्थामावात्, पुनः किंभूतं तदित्याह-'पर्यायानभिधेयमिति' पर्यायाणां-शक्रपुरन्दरादीनामनभिधेयम्-अवाच्यं, गोपालदारकादयो हीन्द्रादिशब्दरुकयमाना अपि शचीपत्यादिरिव शक्रपुरन्दरादिशब्दै भिधीयन्ते, अतस्तनामापि नामतदतोरभेदोपचारात्पर्यायानभिधेयमित्युच्यते, चशब्दो नाम्न एव लक्षणान्तरसूचका, शची ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................... मूलं [८] / गाथा ||१...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधा- रीया पत्यादी प्रसिद्धं तबाम वाच्यार्थशून्ये अन्यत्र गोपालदारकादौ यदारोपितं तदपि नामेति तात्पर्य, तृतीयम-1 कारेणापि तल्लक्षणमाह-'यादृच्छिकं च तथेति' तथाविधव्युत्पत्तिशून्यं डिस्थडवित्थादिरूपं 'यादृच्छिक खे-10 अनुयो. छया नाम क्रियते तदपि नामेत्यार्थिः ॥ १॥८॥ अथ नामावश्यकखरूपनिरूपणार्थ सूत्रकार एवाह अधिक से किं तं नामावस्सयं?, २ जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा आवस्सएत्ति नाम कजइ से तं नामावस्सयं (सू०९) अथ कितन्नामावश्यकम् इति प्रसत्याहनामावस्सयं जस्स णमित्यादि, अन्न बिकलक्षणेनाङ्केन सूचितं बि-| तीयमपि नामावस्सयंतिपदं द्रष्टव्यम्, एवमन्यत्रापि यथासम्भवमभ्यूचं,णमिति वाक्यालङ्कारे, यस्य वस्तुनो जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानामजीवानां वा तभयस्य वातदुभयानां वा आवश्यकमिति यन्नाम क्रियते तन्नामावश्यकमित्यादिपदेन सम्बन्धः, नाम च तदावश्यक चेति व्युत्पत्तेः, अथवा यस्य जीवादिवस्तुनः आवश्यकमिति नाम क्रियते तदेव जीवादिवस्तु नामावश्यक, नाना-नाममात्रेणावश्यकं नामावश्यकमिति व्युत्पत्तेः, वाशब्दाः पक्षान्तरसूचका इति समुदायार्थी, तन्त्र जीवस्य कथमावश्यकमिति नाम सम्भवतीति, उच्यते, यधा लोके जीवस्य वपुत्रादेः कश्चित्सीहको देवदत्त इत्यादि नाम करोति, तथा कश्चित् स्वाभिप्रायवशादावश्यकआमित्यपि नाम करोति, अजीवस्य कथमिति चेद, उच्यते, इहावश्यकावासकशब्दयोरेकाधेता मागुक्ता, ततश्चोर्द्ध -56-05 JEicintil ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: शुष्कोऽचित्तो बहुकोटराकीर्णो वृक्षोऽन्यो वा तथाविधः कश्चित्पदार्थविशेषः सर्पोदेरावासोऽयमिति लौकि-13 कैर्यपदिश्यत एव, स च वृक्षादियद्यप्पनन्तः परमाणुलक्षणैरजीवद्रव्यैर्निष्पन्नस्तथाऽप्येकस्कन्धपरिणतिमाश्रित्य एकाजीवत्वेन विवक्षित इति स्वार्थिककप्रत्ययोपादानादेकाजीवस्यावासकनाम सिद्धं, जीवानामपि बहनामावासकनाम दृश्यते यथा-इष्टकापाकायग्निर्मूषिकावास इत्युच्यते, तत्र ह्यग्नौ किल मूषिकाः संमूच्छन्ति अतस्तेषामसंख्येयानामग्निजीवानां पूर्ववदाबासकं नाम सिद्धम् , अजीवानां तु यथा नीडं पक्षिणामावास इत्युच्यते, तद्धि बहुभिस्तृणायजीवनिष्पयते इति बहूनामजीवानामावासकनाम भवति, इदानीमुभयस्यावा-12 सकसंज्ञा भाव्यते-तत्र गृहदीर्घिकाऽशोकवनिकायुपशोभितः प्रासादादिप्रदेशो राजादेरावास उच्यते, सौधमादिविमानं वा देवानामावासोऽभिधीयते, अत्र च जलवृक्षादयः सचेतनरत्नाद्यश्च जीवा इष्टकाकाष्ठादयोचेतनरत्नादयश्चाजीवास्तन्निष्पन्नमुभयं तस्य कप्रत्ययोपादाने आवासकसंज्ञा सिद्धा, उभयानां त्वावासकसंज्ञा यथा संपूर्णनगरादिकं राजादीनामावास उच्यते, संपूणे: सीधम्मोदिकल्पो वा इन्द्रादीनामावासोऽभि-18 धीयते, अन च पूर्वोक्तप्रासादविमानयोलघुत्वादेकमेव जीवाजीवोभयं विवक्षितमत्र तु नगरादीनां सौधर्मा दिकल्पानां च महत्वाइहूनि जीवाजीवोभयानि विवक्षितानीति विवक्षया भेदो द्रष्टव्यः, एवमन्यत्रापि 18 जीवादीनामावासकसंज्ञा यथासंभवं भावनीया, दिगमात्रप्रदर्शनार्थत्वादस्य । निगमयन्नाह-'से त्तमित्यादि द से तमित्यादि वा कचित् पाठः, तदेतनामावश्यकमित्यर्थः॥९॥ इदानीं स्थापनावश्यकनिरूपणार्थमाह JaEHA ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० मलधारीया प्रत सूत्रांक [१०] ॥१२॥ से कि त ठवणावस्सयं ?, २ जपणं कट्ठकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्प वृत्तिः अनुयो कम्मे वा गंथिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघाइमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो A अधिक वा अणेगो वा सब्भावठवणा वा असब्भावठवणा वा आवस्सएत्ति ठवणा ठविजइ से तं ठवणावस्सयं (सू०१०) अथ किं तत् स्थापनावश्यकमिति प्रश्ने सत्याह-'ठवणाचस्सयं जपण'मित्यादि, तत्र स्थाप्यते अमुकोऽयमित्यभिप्रायेण क्रियते निर्वर्त्यत इति स्थापना-काष्ठकादिगतावश्यकवत्साध्वादिरूपासा चासौ आवश्यकतबतोरभेदोपचारादावश्यकं च स्थापनावश्यक, स्थापनालक्षणं च सामान्यत इदम्-"यत्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण | यच तत्करणि । लेप्यादिकर्म तत्स्थापनेति क्रियतेऽल्पकालंच॥१॥” इति,विनेयानुग्रहार्थमन्त्रापि व्याख्या-तुशब्दो नामलक्षणात् स्थापनालक्षणस्य भेदसूचका, सचासावर्थश्च तदर्थो-भावेन्द्रभावावश्यकादिलक्षणस्तेन वियुक्तं-रहितं यबस्तु तदभिप्रायेण भावेन्द्राद्यभिप्रायेण 'क्रियते' स्थाप्यते तत् स्थापनेति सम्बन्धः, किंविशिष्टं यदित्याह'यच्च तत्करणि' तेन भावेन्द्रादिना सह करणिः-सादृश्यं यस्य(तत्) तत्करणि-तत्सदृशमित्यर्थः,चशब्दात्तदकरणि चाक्षादि वस्तु गृह्यते, असदृशमित्यर्थः, किं पुनस्तदेवंभूतं वस्त्वित्याह-लेप्यादिकम्र्मेति' लेप्यपुत्तलिकादीत्यर्थः,स आदिशब्दात् काष्टपुत्तलिकादि गृह्यते, अक्षादि वाऽनाकारं, कियन्तं कालं तत् क्रियत इत्याह-अल्पः कालो यस्य PRATS*%%ARRIOR दीप अनुक्रम [११] ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०] दीप अनुक्रम [११] तदल्पकालम् इत्वरकालमित्यर्थः, चशब्दायावत्कथिकं च शाश्वतप्रतिमादि, यत्पुनर्भावेन्द्रायर्थरहितं साकारम-1 नाकारं वा तदर्थाभिप्रायेण क्रियते तत् स्थापनेति तात्पर्यमित्यार्याधः ॥१॥ इदानी प्रकृतमुच्यते-'जंग'ति 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, यत्काष्ठकर्मणि वा चित्रकर्मणि वा वराटके वा एको वा अनेको वा सद्भावस्थापनया वा असद्भावस्थापनया वा 'आवस्सएत्ति आवश्यकतबतोरभेदोपचारात्तदानिह गृह्यते, ततश्चैको वा अनेको वा, कधभूताः? अत उच्यते-आवश्यकक्रियावानावश्यकक्रियावन्तो वा 'ठवणा ठविजइत्ति' स्थापनारूपं स्थाप्यते-क्रियते, आवृत्त्या बहुवचनान्तत्वे स्थापनारूपाः स्थाप्यन्ते-क्रियन्ते, तत् स्थापनावश्यकमित्यादिपदेन सम्बन्ध इति समुदायार्थः । काष्ठकादिष्वावश्यकक्रियां कुर्वन्तो यत् स्थापनारूपाः साध्वादयः स्थाप्यन्ते तत् स्थापनावश्यकमिति तात्पर्पम् । अधुना अवयवार्थ उच्यते-तत्र क्रियत इति कर्म काष्ठे कर्म काष्ठ-12 कर्म-काष्ठनिकुहितं रूपकमित्यर्थः, 'चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकं पोत्यकम्मे वत्ति अन पोत्थं-पोतं वस्त्रमित्यर्थः,8 तत्र कर्म-तत्पल्लवनिष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्य-पुस्तकं तचेह संपुटकरूपं गृह्यते, तत्र कर्मतन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः, अथवा पोत्थं-ताडपत्रादि तत्र कर्म-तच्छेदनिष्पन्न रूपकं, 'लेप्यकर्म लेप्यरूपकं, 'ग्रन्थिम' कौशलातिशया' ग्रन्थिसमुदायनिष्पादितं रूपकं, 'वेष्टिमं पुष्पवेष्टनक्रमेण निष्पन्नमानन्दपुरादिप्रतीतरूपम्, अथवा एकं यादीनि वा वस्त्राणि वेष्टयन् कश्चित् रूपकं उत्थापयति तदेष्टिमं, 'पूरिम भरिम' पित्तलादिमयप्रतिमावत् 'संघातिम' बहुवस्त्रादिखण्डसंघातनिष्पन्नं कशुकवत्, 'अक्षा' चन्दनको % अनु. ३ ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] दीप अनुक्रम [१२] अनुयोराटको' कपर्दकः, अत्र वाचनान्तरे अन्यान्यपि दन्तकर्मादिपदानि दृश्यन्ते तान्यप्युक्तानुसारतो भावनी- वृत्तिः मलधा- यानि, वाशब्दाः पक्षान्तरसूचकाः, यथासम्भवमेवमन्यत्रापि, एतेषु काष्ठकर्मादिषु आवश्यकक्रियां कुर्वन्तः अनुयो. रीया एकादिसाध्वादयः सहावस्थापनया असद्भावस्थापनया वा स्थाप्यमानाः स्थापनावश्यक, तत्र काष्ठकर्मादि-II अधिक प्वाकारवती सद्भावस्थापना, साध्वाधाकारस्य तत्र सद्भावात्, अक्षादिषु वनाकारवती असद्भावस्थापना, ॥ १३ ॥ साध्वाद्याकारस्य तत्रासद्भावादिति, निगमयन्नाह-सेतमित्यादि तदेतत् स्थापनावश्यकमित्यर्थः॥१०॥ अत्र नामस्थापनयोरभेदं पश्यन्निदमाहनामटवणाणं को पइविसेसो?, णामं आवकहिअं, ठवणा इत्तरिआ वा होज्जा आवकहिआ वा (सू० ११) नामस्थापनयोः कः प्रतिविशेषो?, न कश्चिदित्यभिप्रायः, तथाहि-आवश्यकादिभावार्थशून्ये गोपालदारकादौ द्रव्यमाने यथा आवश्यकादि नाम क्रियते, तत्स्थापनापि तथैव तच्छून्ये काष्ठकर्मादौ द्रव्यमाने क्रियते, अतो भावशून्ये द्रव्यमाने क्रियमाणस्वाविशेषान्नानयोः कश्चिद्विशेषा, अनोत्तरमाह-नामं आवकहियमि-| त्यादि' नाम यावस्कथिक-स्खाश्रयगव्यस्यास्तित्वकथां यावदनुवर्तते, न पुनरन्तराऽप्युपरमते(ति), स्थापना पुनरित्वरा-खल्पकालभाषिनी वा स्याद्यावत्कथिका वा, वाश्रयद्रव्ये अवतिष्ठमानेऽपि काचिदन्तराऽपि निवर्त्तते का-| चित्तु तत्सत्ता यावदवतिष्ठत इतिभावः, तथाहि-नाम आवश्यकादिकं मेरुजम्बूदीपकलिङ्गमगधसुराष्ट्रादिकं वा है। 6 ॥१३॥ यावत् खाश्रयो गोपालदारकदेहादिः शिलासमुच्चयादिवा समस्ति तावदवतिष्ठत इति तद्यावत्कथिकमेव, स्था-| ROST CRACCASS ~37~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूल [११] / गाथा ||१...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] पना वावश्यकत्वेन योऽक्षः स्थापितः स क्षणान्तरे पुनरपि तथाविधप्रयोजनसम्भवे इन्द्रत्वेन स्थाप्यते, पुनरपि |च राजादित्वेनेत्यल्पकालवर्तिनी, शाश्वतप्रतिमादिरूपा तु यावत्कथिका वर्तते, तस्याश्चार्हदादिरूपेण सर्वदा तिष्ठतीति स्थापनेति व्युत्पत्तेः स्थापनात्वमवसेयं, न तु स्थाप्यत इति स्थापना, शाश्वतत्वेन केनापि स्थाप्यमानत्वाभावादिति, तस्माद्भावशून्यद्रव्याधारसाम्येऽप्यस्त्यनयोः कालकृतो विशेषः । अब्राह-ननु यथा स्थापना काचिदल्पकालीना तथा नामापि किश्चिदल्पकालीनमेव, गोपालदारकादौ विद्यमानेऽपि कदाचिदनेकनामपरा|वृत्तिदर्शनादू, सस्यं, किन्तु प्रायो नाम यावत्कथिकमेव, यस्तु कचिदन्यथोपलम्भः सोऽल्पस्वान्नेह विवक्षित इत्यदोषः । उपलक्षणमात्रं चेदं कालभेदेनैतयोर्भेदकथनम्, अपरस्यापि बहुप्रकारभेदस्य सम्भवात्, तथाहि-यथेन्द्रादिप्रतिमास्थापनायां कुण्डलाङ्गदादिभूषितः सन्निहितशचीवनादिराकार उपलभ्यते न तथा ना|मेन्द्रादी, एवं यथा तत्स्थापनादर्शनाद् भावः समुल्लसति नैवमिन्द्रादिश्रवणमात्राद्, यथा च तत्स्थापनायां लोकस्योपयाचितेच्छापूजाप्रवृत्तिसमीहितलाभादयो दृश्यन्ते नैवं नामेन्द्रादावित्येवमन्यदपि वाच्य-14 मिति ॥ ११॥ उक्तं स्थापनावश्यकम्, इदानीं द्रव्यावश्यकनिरूपणाय प्रशं कारयति से किं तं दव्वावस्सयं?, २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-आगमओ अ नोआगमओ अ (सू०१२) a अथ किं तत् द्रव्यावश्यकमिति पृष्टे सत्याह-दव्वावस्सयं दुविहमित्यादि तत्र द्रवति-गच्छति ताँस्तान्पर्यायानिति द्रव्यं-विवक्षितयोरतीतभविष्यद्भावयोः कारणम्, अनुभूतविवक्षितभावमनुभविष्यद्विवक्षतभावं वा दीप अनुक्रम [१२] अथ द्रव्य-आवश्यकस्य भेद-प्रभेदयुक्त विस्तृत-वर्णनं क्रियते ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१२] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१२] अनुयोवस्त्वित्यर्थः, द्रव्यं च तदावश्यकं च द्रव्यावश्यकम् , अनुभूतावश्यकपरिणाममनुभविष्यदावश्यकपरिणामं वा मलधा- साधुदेहादीत्यर्थः । द्रव्यलक्षणं च सामान्यत इदम् भूतस्य भाविनो या भावस्य हि कारणं तु यल्लोके । तत् अनुयो रीया द्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥ १॥ व्याख्या-तद् द्रव्यं तत्त्वज्ञैः कथितं, यत्कथंभूतमित्याह-यत्का अधि. कारणं-हेतुः, कस्येत्याह-'भावस्य' पर्यायस्य, कथंभूतस्येत्याह-भूतस्य' अतीतस्य 'भाविनो वा' भविष्यतो ॥१४॥ वा, 'लोके आधारभूते, तच्च सचेतनं-पुरुषादि अचेतनं च-काष्टादि भवति, एतदुक्तं भवति-यः पूर्व स्वर्गादिविन्द्रादित्वेन भूत्वा इदानीं मनुष्यादित्वेन परिणतः सोऽतीतस्येन्द्रादिपर्यायस्य कारणत्वात्साम्प्रतमपि द्रव्यत इन्द्रादिरभिधीयते, अमात्यादिपदपरिभ्रष्टामात्यादिवत्, तथा अग्रेऽपि य इन्द्रादित्वेनोत्पत्स्यते स इदानीमपि भविष्यदिन्द्रादिपदपर्यायकारणत्वात् द्रव्यत इन्द्रादिरभिधीयते, भविष्यद्राजकुमारराजवत्, एवमचेतनस्यापि काष्ठादेर्भूतभविष्यत्पर्यायकारणत्वेन द्रव्यता भाषनीयेत्यार्यार्थः ॥१॥ इतः प्रकृतमुच्यते-तचेह द्रव्यरूपमावश्यकं प्रकृतं, तनावश्यकोपयोगाधिष्ठितः साध्वादिदेहो बन्दनकादिसूत्रोचारणलक्षणश्चागमः। आवादिका क्रिया चावश्यकमुच्यते, आवश्यकोपयोगशून्यास्तु ता एव देहागमक्रिया द्रव्यावश्यक, तथा द्विविधं प्रज्ञप्तमिति, तद्यथा-'आगमतः' आगममाश्रित्य 'नोआगमतः' नोआगममाश्रित्य, नोआगमशब्दार्थ यधावसरमेव वक्ष्यामः, चशब्दो बयोरपि खखविषये तुल्यप्राधान्यख्यापनार्थो ॥१२॥ अनायभेदजिज्ञासुराह से किं तं आगमओ दव्वावस्सयं?,२ जस्स णं आवस्सएत्ति पदं सिक्खितं ठितं जितं दीप अनुक्रम [१३] 55 ॥१४॥ JaEarni ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३] / गाथा ||१...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः मितं परिजितं नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणञ्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरं अक्खलिअं अमिलिअं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोहविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअट्टणाए धम्मकहाए नो अणुपेहाए, कम्हा ? 'अणुवओगो दव्व' मितिकट्टु ( सू० १३ ) अथ किं तदागमतो द्रव्यावश्यकमिति, आह- 'आगमतो दब्वावस्सयं जस्स णमित्यादि' 'ण'मिति पूर्ववत्, 'जस्स' त्ति यस्य कस्यचित् 'आवस्सएत्तिपयति आवश्यकपदाभिधेयं शास्त्रमित्यर्थः, ततश्च यस्य कस्यचिदावश्यकशास्त्रं शिक्षितं स्थितं जितं यावत् वाचमोपगतं भवति, 'से णं तत्थे 'ति स-जन्तुस्तत्रआवश्यकशास्त्रे वाचनाप्रच्छनापरिवर्त्तनाधम्र्म्मकथाभिर्वर्त्तमानोऽप्यावश्यकोपयोगे अवर्त्तमानः 'आगमतः ' आगममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः । अत्राह- नन्वागममाश्रित्य द्रव्यावश्यकमित्यागमरूपमिदं | द्रव्यावश्यकमित्युक्तं भवति एतचायुक्तं यत आगमो ज्ञानं ज्ञानं च भाव एवेति कथमस्य द्रव्यत्वमुपपद्यते ?, सत्यमेतत् किन्त्वागमस्य कारणमात्मा तदधिष्ठितो देहः शब्दश्वोपयोगशून्यसूत्रोच्चारणरूप इहास्ति, न तु साक्षादागमः, एतच्च त्रितयमागमकारणत्वात्कारणे कार्योपचारादागम उच्यते, कारणं च विवक्षित भावस्य द्रव्यमेव भवतीत्युक्तमेवेत्यदोषः । तत्रादित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तच्छि For P&P Cy ~40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१३] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: मलधा वृत्तिः अनुयो. अधिक प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] अनुयो० क्षितमुच्यते, तदेवाविस्मरणतश्चेतसि स्थित-स्थितत्वात् स्थितमप्रच्युतमित्यर्थः, परावर्त्तनं कुर्वतः परेण वा दिकचित् पृष्ठस्य यच्छीघमागच्छति तजितं, विज्ञातश्लोकपदवर्णादिसंख्यं मितं, परि-समन्तात्सर्वप्रकारैर्जितं रीया परिजितं-परावर्तनं कुर्वतो यत्क्रमेणोत्क्रमेण वा समागच्छतीत्यर्थः, नाम-अभिधानं तेन समं नामसमम् , इदमुक्तं भवति-यथा स्वनाम कस्यचिच्छिक्षितं जितं मितं परिजितं भवति तथैतदपीत्यर्थः, घोषा-उदात्ता॥१५॥ |दयः तैर्वाचनाचार्याभिहितघोषैः समं घोषसम, यथा गुरुणा अभिहिता घोषास्तथा शिष्योऽपि यत्र शिक्षते तत् घोषसममिति भावः, एकट्यादिभिरक्षरहीनं हीनाक्षरं न तथा अहीनाक्षरम् , एकादिभिरक्षरैरधिकमत्यक्षरं न तथा अनत्यक्षरम, 'अब्वाइद्धक्खर ति विपर्यस्तरतमालागतरत्नानीव व्याविद्धानि-विपर्यस्तान्यक्षराणि यत्र तयाविद्धाक्षरं न तथाऽच्याविद्धाक्षरं, 'अब्वाइद्ध'मिति कचित्पाठः, तत्रापि व्याविद्धाक्षरयोगाद्व्याविद्धं न है। तथाऽव्याविद्धम्, उपलशकलाद्याकुलभूभागे लालमिव स्खलति यत्तत् स्खलितं न तथाऽस्खलितम्, अनेकशास्त्रसम्बन्धीनि सूत्राण्येकत्र मीलयित्वा यत्र पठति तत् मिलितमसदृशधान्यमेलकवत्, अथवा परावर्त्तमानस्य यत्र पदादिविच्छेदोन प्रतीयते तन्मीलितं न तथाऽमीलितम्, एकस्मिन्नेव शास्त्रेऽन्यान्यस्थाननिवहान्येकार्थानि सूत्राण्येकत्र स्थाने समानीय पठतो व्यत्यानेडितम्, अथवा आचारादिसूत्रमध्ये खमतिचर्चितानि तत्सदृशानि सूत्राणि कृत्वा प्रक्षिपतो व्यत्यानेडितम्, अस्थानविरतिकं वा व्यत्यानेडितं न तथाऽ-18 व्यत्यानेडितं, सूत्रतो बिन्दुमात्रादिभिरनूनमर्थतस्त्वध्याहाराकासादिरहितं प्रतिपूर्णम् , उदात्तादिघोषैरविकलं M ॥१५॥ ~ 41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१३] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] प्रतिपूर्णघोषम् । अत्राह-घोषसममित्युक्तमेव तत्क इह विशेष इति, उच्यते, घोषसममिति शिक्षाकालमधिकृत्योक्तं, प्रतिपूर्णघोषं तु परावर्तनादिकालमधिकृत्येति विशेषः, कण्ठोष्ठश्च कण्ठोष्ठमिति प्राण्यङ्गवात्समाहारस्तेन विप्रमुक्तं कण्ठोष्ठविप्रमुक्तं, बालमूकभाषितवद्यव्यक्तं न भवतीत्यर्थः, गुरुप्रदत्तया वाचनया उपगतं-प्राप्तं गुरुवाचनोपगतं न तु कर्णाघाटकेन शिक्षितं, न वा पुस्तकात् स्वयमेवाधीतमिति भावा, तदेवं यस्य जन्तोरावश्यकशास्त्रं शिक्षितादिगुणोपेतं भवति स जन्तुम्तबावश्यकशास्त्रे वाचनया-शिष्या-13 ध्यापनलक्षणया प्रच्छभया-तद्गतार्थादेर्गुरुं प्रति प्रश्नलक्षणया परावर्तनया पुनः पुनः सूत्रार्थाभ्यासलक्षणया धर्मकथया-अहिंसादिधर्मप्ररूपणखरूपया वर्तमानोऽपि, अनुपयुक्तवादिति साध्याहारम् , आगमतो द्रव्यावश्यकमित्यनेन सम्बन्धः । ननु यथा वाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि द्रव्यावश्यकं भवति तथाऽनुप्रेक्षयाऽपि तत्र वर्तमानस्तद्भवति?, नेत्याह-'नो अणुप्पेहात्ति अनुप्रेक्षया ग्रन्थार्थानुचिन्तनरूपया, तत्र वर्तमानो न द्रव्यावश्यकमित्यर्थः, अनुप्रेक्षाया उपयोगमन्तरेणाभावादू, उपयुक्तस्य च द्रव्यावश्यकत्वायोगादिति भावः । अत्राह परम्-'कम्हत्ति, ननु कस्मादाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि द्रव्यावश्यकं ? कस्माचानुप्रेक्षया दतन वर्तमानो न तथेति प्रच्छकाभिप्रायः, एवं पृष्टे सत्याह-'अणुवओगो दम्वमितिकट्ठत्ति' अनुपयोगोद द्रव्यमितिकृत्वा, उपयोजनमुपयोगो-जीवस्य बोधरूपो व्यापारः, सह विवक्षितार्थे चित्तस्य विनिवेशखरूपो गुह्यते, न विद्यतेऽसौ यत्र सोऽनुपयोगः-पदार्थः, स विवक्षितोपयोगस्य कारणमात्रत्वात् द्रव्यमेव भवति दीप अनुक्रम [१४] SCX ~ 42~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१३] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधारीया वृत्तिः अनुयो। अधि० प्रत सूत्रांक ॥१६॥ [१३] इतिकृत्वा' अस्मात्कारणाद् अनन्तरोक्तमुपपद्यत इति शेषः, एतदुक्तं भवति-उपयोगपूर्वका अनुपयोगपूकाश्च वाचनापच्छनादयः संभवन्त्येव, तन्त्रेह द्रब्यावश्यकचिन्ताप्रस्तावादनुपयोगपूर्वका गृह्यन्ते, अत एव सूत्रेऽनभिहितस्याप्यनुपयुक्तत्वस्याध्याहारस्तत्र कृतः, अनुपयोगस्तु भावशून्यता, तच्छ्न्यं च वस्तु द्रव्यमेव लाभवतीयतो वाचनादिभिस्तत्र वर्तमानोऽपि द्रव्यावश्यकम्, अनुप्रेक्षा तूपयोगपूर्षिकैव संभवति अतस्तत्र | वर्तमानो न तथेति भावार्थः। अत्राह-नन्वागमतोऽनुपयुक्तो वक्ता द्रव्यावश्यकमित्येतावतैवेष्टसिद्धेः शिक्षिता|दिश्रुतगुणसमुत्कीर्तनमनर्थकम्, अत्रोच्यते, शिक्षितादिगुणोत्कीर्तनं कुर्वन्निदं ज्ञापयति-यदुवंभूतमपि निर्दोषं श्रुतमुचारयतोऽनुपयुक्तस्य द्रव्यश्रुतं द्रव्यावश्यकमेव भवति, किं पुनः सदोषम् ?, उपयुक्तस्य तु स्ख|लितादिदोषदुष्टमपि निगदतः भावश्रुतमेव भवति, एवमन्यत्रापि प्रत्युपेक्षणादिक्रियाविशेषाः सर्वे निर्दोषा अप्यनुपयुक्तस्य तथाविधफलशून्या एव संपद्यन्ते, उपयुक्तस्य तु मतिवैकल्यादितः सदोषा अप्यमी कर्ममलापगमार्यवेत्यलं विस्तरेण । अवाह-ननु भवत्वेवं, किन्तु हीनाक्षरे सूत्रे समुच्चारिते को दोषो? येनोक्तमहीनाक्षरमिति, अत्रोच्यते, लोकेऽपि तावविद्यामश्रादिभिरक्षरादिहीनरुच्चार्यमाणैर्विवक्षितफलबैकल्पमनर्थावाप्तिश्च दृश्यते, किं पुनः परममश्रकल्पे सिहान्ते?, तथाहि-राजगृहनगरे समवमृतस्य भगवतश्चरमतीर्थाधिपतेर्वन्दनार्थ विबुधविद्याधरनरनिवहः श्रेणिकश्च सपुत्रः समाययो, ततो भगवदन्तिके धर्म श्रुत्वा प्रतिनिवृ-| त्तायां परिषदि कस्यचिनियाधरस्य गगनोत्पतनहेतुविद्यासंबन्ध्येकमक्षरं विस्मृतिपथमवततार, विस्मृते च दीप अनुक्रम [१४] WHAT ॥१६॥ ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१३] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [१४] तस्मिन्किश्चिन्नभस्युत्पत्य पुनर्निपतत्यसौ पुनरुत्पतति पुनश्च निपतति, एवं च कुवेन्तममुं विलोक्य श्रेणिकेन भगवान् पृष्टा-किमित्ययं महाभागः खेचरो विधुरितपक्ष: पक्षीव नभसि किश्चिदुत्पत्य पुनर्निपतति ?, भगवता च विद्याक्षरविस्मरणव्यतिकरस्तस्मै निवेदितः, तं च निवेद्यमानं श्रुत्वा अभयकुमारः खेचरमुपमृत्यैवमवादीत्भोः खेचर! यदि मां समानसिद्धिकं करोषि तदा त्वविद्याक्षरमुपलभ्य कथयामि, प्रतिपन्नं च तेन, अभय-त. कुमारस्य चैकस्मादपि पदादनेकपदाभ्यूहनशक्तिरस्तीति शेषाक्षरानुसारेणोपलभ्य तदक्षरं निवेदितं खेचरस्य। सोऽपि संजातसंपूर्णवियो हष्टः श्रेणिकसुताय विद्यासाधनोपार्य कथयित्वा गतः समीहितप्रदेशमिति, एष: दृष्टान्ता, उपनयस्त्वयम्-यथा तस्य विद्याधरस्य हीनाक्षरतादोषान्नभोगमनमुपरतं, तदुपरमे च व्यर्थैव विद्या, तथेहापि हीनाक्षरतायामर्थभेदस्तभेदे क्रियाभेदस्त दे च मोक्षाभावस्तदभावे च दीक्षादिग्रहणवैयर्थ्यमेवेति । एवमधिकाक्षरादिष्वपि दोषाः सदृष्टान्ता अभ्यूह्य वाच्याः ॥१३॥ नेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगं दव्वावस्सयं दोपिण अणुवउत्ता आगमओ दोषिण दव्वावस्सयाई तिषिण अणुवउत्ता आगमओ तिणि दव्वावस्सयाई एवं जावइआ अणुवउत्ता आगमओ तावइआई दव्वावस्सयाई, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा अणुवउत्तो वा अणुवउत्ता वा आगमओ दव्याव ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४] / गाथा ||१...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १७ ॥ Ja Ehem स्सयं दव्वावस्सयाणि वा, से एगे दव्वावस्सए, उज्जुसुअस्स एगो अणुवडतो आगमतो एगं दव्वावस्सयं पुहुत्तं नेच्छइ, तिण्हं सहनयाणं अणुथु, कम्हा ?, जइ जाणए अणुवउत्ते न भवति जइ अणुवउत्ते जाणए ण भवति, तम्हा णत्थि आगमओ दव्वावस्सयं । से तं आगमओ दव्वावस्सयं (सू० १४) इह जिनमते सर्वमपि सूत्रमर्थश्च श्रोतृजनमपेक्ष्य नयैर्विचार्यते, 'नत्थि नएहिं विहणं सुत्तं अत्थो य जिणमए किंचि । आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया ॥ १ ॥ इति वचनात्, अत इदमपि द्रव्यावश्यकं नयैश्चिन्त्यते, ते च मूलभेदानाश्रित्य नैगमादयः सप्त, तदुक्तम्- "नगमसंगयवहार उज्जुसुए चेव होई बोद्धव्वे । सदे य समभिरू एवंभूते य मूलनया ॥ १ ॥ तच नैगमस्तावत्कियन्ति द्रव्यावश्यकानीच्छतीत्याह - 'नेगमस्सेत्यादि' सामान्यविशेषादिप्रकारेण नैकः अपि तु बहवो गमा-वस्तुपरिच्छेदा यस्यासौ निरुक्तविधिना ककारस्य लोपानैगमः, सामान्यविशेषादिप्रकारैः बहुरूपवस्त्वभ्युपगमपर इत्यर्थः, तस्य नैगमस्यैको देवदत्तादिरनुपयुक्त आगमत एकं द्रव्यावश्यकं, दो देवदत्तयज्ञदतावनुपयुक्तौ आगमतो हे द्रव्यावश्यके, त्रयो | देवदतयज्ञदत्तसोमदत्ता अनुपयुक्ता आगमतस्त्रीणि द्रव्यावश्यकानि, किं बहुना ?, एवं यावन्तो देवदत्ताद १ नास्ति नयविहीनं सूत्रम जिनमसे किचित् आसाद्य तु श्रोतारं नया नयविशारदो ब्रूयात् ॥ १ ॥ २ नैगमः संग्रह व्यवहार जुसूत्रचैव भवति बोद्धव्यः शब्दव समभिरुढ एवम्भूतव मूलनयाः ॥ १ ॥ For P&Praise Cly ~45~ वृत्तिः अनुयो० अधि० ॥ १७ ॥ Categ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१४] / गाथा ||१...|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] योऽनुपयुक्तास्तावन्त्येव तान्यतीतादिकालत्रयवर्तीनि नैगमस्यागमतो द्रव्यावश्यकानि, एतदुक्तं भवति-नैगमो हि सामान्यरूपं विशेषरूपं च वस्त्वभ्युपगच्छत्येव, न पुनर्वेक्ष्यमाणसंग्रहवत्सामान्यरूपमेव, ततो विशेषवादिस्वादस्पेह प्राधान्येन विवक्षितत्वाद्यावन्तः केचन देवदत्तादिविशेषा अनुपयुक्तास्तावन्ति सर्वाण्यप्यस्य द्रव्यावश्यकानि, न पुनः संग्रहवत्सामान्यवादित्वादेकमेवेतिभावः । एवमेव 'ववहारस्सवित्ति व्यवहरणं व्यवहारो लौकिकमवृत्तिरूपस्तत्प्रधानो नयोऽपि व्यवहारः, तस्यापि 'एवमेव' नैगमवदेको देवदत्तादि-1 रनुपयुक्त आगमत एक द्रव्यावश्यकमित्यादि सर्व वाच्यम्, इदमुक्तं भवति-व्यवहारनयो लोकव्यवहारोप8|कारिण एव पदाथोंनभ्युपगच्छति, न शेषान, लोकव्यवहारे च जलाहरणनणपिण्डीप्रदानादिके घटनिम्बा-18 दिविशेषा एवोपकुर्वाणा दृश्यन्ते न पुनस्तदतिरिक्तं तत्सामान्यमिति विशेषानेव वस्तुत्वेन प्रतिपातेऽसौ न सामान्यं, व्यवहारानुपकारित्वाद्विशेषव्यतिरेकेणानुपलश्यमानत्वाचेति, अतो विशेषवादिनैगममतसाम्ये नातिदिष्टः । अत्र चातिदेशेनैवेष्टार्थसिद्धेग्रन्थलाघवार्थ संग्रहमतिक्रम्य व्यवहारोपन्यासः कृत इति भावनीदयम् । 'संगहस्सेत्यादि सर्वमपि भुवनब्रयान्तर्वर्ति वस्तुनिकुरुम्बं संगृह्णाति-सामान्यरूपतयाऽध्यवस्यतीति। संग्रहस्तस्य मते एको वा अनेके वा अनुपयुक्तोऽनुपयुक्ता वा यदागमतो द्रव्यावश्यकं द्रव्यावश्यकानि वा तत्किमित्याह-से एगे'त्ति तदेकं द्रव्यावश्यकम्, इदमत्र हृदयम्-संग्रहनयः सामान्यमेवाभ्युपगच्छति न लाविशेषान, अभिदधाति च-सामान्याविशेषा व्यतिरिक्ताः स्युः अव्यतिरिक्ता वा स्युः, ययायः पक्षस्तर्हि दीप अनुक्रम CALCCCCCCESS ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१४] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम अनुयोन सन्त्यमी, निःसामान्यत्वात् , खरविषाणवत्, अथापरः पक्षस्तर्हि सामान्यमेव ते, तदव्यतिरिक्तत्वात् , सा-11 मलधा- मान्यस्वरूपबत् , तस्मात्सामान्यव्यतिरेकेण विशेषासिद्धेयानि कानिचिद् द्रव्यावश्यकानि तानि तत्सामा- अनुयो रीया न्याव्यतिरिक्तवादेकमेव संग्रहस्य द्रव्यावश्यकमिति । 'उज्जुसुयस्से त्यादि ऋजु-अतीतानागतपरकीयपरिहा- अधि० रेण प्राञ्जलं वस्तु सूत्रयति-अभ्युपगच्छतीति ऋजुसूत्रः, अयं हि वर्तमानकालभाव्येव वस्तु अभ्युपगच्छति, ॥१८॥ नातीतं विनष्टखानाप्यनागतमनुत्पन्नवादू, वर्तमानकालभाव्यपि खकीयमेव मन्यते खकार्यसाधकत्वात् स्वधनवत् , परकीयं तु नेच्छति खकार्याप्रसाधकत्वात् परधनवत्, तस्मादेको देवदत्तादिरनुपयुक्तोऽस्य मते आगमत एकं द्रव्यावश्यकमस्ति 'पुहुत्तं नेच्छईत्ति अतीतानागतभेदतः परकीयभेदतश्च 'पृथकत्वं' पार्थक्यं नेच्छत्यसौ, किं तर्हि ?, वर्तमानकालीनं खगतमेव चाभ्युपैति, तचैकमेवेति भावः, 'तिण्हं सहनयाण'मित्यादि, शब्दप्रधाना नयाः शब्दनया:-शब्दसमभिरूद्वैवंभूताः, ते हि शब्दमेव प्रधानमिच्छन्तीति, अर्थ तु गौणं, शब्दवशेनैवार्थप्रतीते, तेषां त्रयाणां शन्दनयानां ज्ञायकोऽध चानुपयुक्त इत्येतदवस्तु, न सम्भवतीत्यर्थः, 'कम्हे ति कस्मादेवमुच्यते इत्याह-'जई'त्यादि, यदि ज्ञायकस्तानुपयुक्तो न भवति, ज्ञानस्योपयोगरूपत्वाद्, KIइदमत्र हृदयम्-आवश्यकशास्त्रज्ञस्तत्र चानुपयुक्त आगमतो द्रव्यावश्यकमिति प्राग्निीतम्, एतच्चामी न प्रति-IA पद्यन्ते, यतो यद्यावश्यकशास्त्रं जानाति कथमनुपयुक्त, अनुपयुक्तश्चेत् कथं जानाति?, ज्ञानस्योपयोगरूपत्वात्,का पा ॥१८॥ यदप्यागमकारणत्वादात्मदेहादिकमागमत्वेनोक्तं, तदप्यौपचारिकत्वादमी न मन्यन्ते, शुद्धनयत्वेन मुख्यव ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१४] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४] दीप अनुक्रम [१५]] स्त्वभ्युपगमपरत्वात् , तस्मादेतन्मते द्रव्यावश्यकस्यासंभव इति, निगमयन्नाह-'सेत्त'मित्यादि, तदेतदागमतो द्रव्यावश्यकम् ॥ १४ ॥ उक्तं सप्रपञ्चमागमतो द्रव्यावश्यकमिदानीं नोआगमतस्तदुच्यते से किं तं नोआगमओ दवावस्सयं ?, २ तिविहं पण्णत्तं, तंजहा-जाणयसरीरदव्वाव स्सयं भविअसरीरदव्वावस्सयं जाणयसरीरभविअसरीरवतिरित्तं दव्वावस्सय(सू०१५) अथ किं तन्नोआगमतो द्रव्यावश्यकमिति प्रश्ना, उत्तरमाह-नोआगमओ दब्वावस्सयं तिविहं पण्णत्तमित्यादि, नोआगमत इत्यत्र नोशब्द आगमस्य सर्वनिषेधे देशनिषेधे वा वर्तते,यत उक्तं पूर्वमुनिभिः-"आ-13 गमसम्बनिसेहे नोसद्दो अहव देसपडिसेहे । सव्वे जह णसरीरं भव्वस्स य आगमाभावा॥१॥" व्याख्या-आग-2 Sमस्य-आवश्यकादिज्ञानस्य सर्वनिषेधे वर्तते नोशब्दः, अथवा तस्यैव देशप्रतिषेधे वर्तते, तत्र 'सब्वें'त्ति सर्वनि-1 षेधे उदाहरणमुच्यते, यधेत्युपप्रदर्शने, 'णसरीरंति ज्ञस्य-जानतः शरीरं ज्ञशरीरं नोआगमत इह द्रव्यावश्यकं, "भव्यस्य च योग्यस्य यच्छरीरं तदपि नोआगमत इह द्रव्यावश्यक, कुत इत्याह-आगमस्य-आवश्यकादिज्ञानलक्षणस्य सर्वधाऽभावाद, इदमुक्तं भवति-ज्ञशरीरं भव्यशरीरं चानन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपं नोआगमतः सर्वथा आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकमुच्यते, नोशब्दस्यात्र पक्षे सर्वनिषेधवचनस्वादिति गाथार्थः॥ देशप्रतिषेधवचनेऽपि नोशब्दे उदाहरणं यथा-"किरियागमुच्चरतो आवासं कुणइ भावसुन्नो उ । किरिया अनु. ४ ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१५] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५] अनुयोगमो न होई तस्स निसेहो भवे देसे ॥१॥" व्याख्या-क्रियाम्-आवादिकां कुर्वन्नित्यध्याहारः, आगमं च-11 वृत्तिः मलधा- वन्दनकसूत्रादिकमुचारयन भावशून्यो य आवश्यकं करोति, सोऽपि नोआगमतः, इह द्रव्यावश्यकमिति1 अनुयो० रीया शेषः, अत्र च क्रिया आवादिकाऽऽगमोन भवति, जडत्वाद, आगमस्य च ज्ञानरूपत्वाद्, अतस्तस्याऽऽगमस्य अधि. देशे क्रियालक्षणे निषेधो भवति, क्रिया आगमो न भवतीत्यर्थः, अतो नोआगमत इति, इह किमुक्तं भ-IN ॥१९॥ वति?-देशे क्रियालक्षणे आगमाभावमाश्रित्य द्रव्यावश्यकमिदमिति गाथार्थः ।। तदेवं नोआगमत आगमाभा-1 वमाश्रित्य द्रव्यावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञसं, तद्यथा-ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकं, भव्यशरीरद्रव्यावश्यक, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ॥१५॥ तत्राऽऽयभेदं विवरीपुराह से किं तं जाणयसरीरदव्वावस्सयं?, २ आवस्सएत्ति पयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुतचावितचत्तदेहं जीवविप्पजढं सिज्जागयं वा संथारगयं वा निसीहिआगयं वा सिद्धसिलातलगयं वा पासित्ता णं कोई भणेजा-अहो! णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्रेणं भावेणं आवस्सएत्तिपयं आधवियं पण्णविअं परविअं दंसिअं निदंसिअं उवदंसिअं, जहा को दिटुंतो?, अयं महुकुंभे आसी अयं घयकुंभे आसी, सेतं जाणयसरीरदव्वावस्सयं (सू०१६) Acccsex दीप अनुक्रम [१६] ॥१९॥ ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१६] / गाथा ||१...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अथ किं तत् शशरीरद्रव्यावश्यकमिति प्रश्ने निर्वचनमाह-- 'जाणगसरीरदव्यावस्सयं आवस्सएसीत्यादि, ज्ञानवानिति ज्ञः, प्रतिक्षणं शीर्यत इति शरीरं ज्ञस्य शरीरं ज्ञशरीरं तदेव अनुभूतभावत्वाद् द्रच्यावश्यके, किं तदित्याह यच्छरीरकं संज्ञायां कच् वपुरित्यर्थः कस्य सम्बन्धीत्याह- 'आवस्सएतीत्यादि, आवश्यकमिति यत्पदं आवश्यकपदाभिधेयं शास्त्रमित्यर्थः, तस्यार्थ एवार्थाधिकारोऽनेके वा तद्गतार्थाधिकारा गृह्यन्ते, तस्य तेषां वा ज्ञातुः सम्बन्धि, कथंभूतं तदिदं ज्ञशरीरं द्रव्यावश्यकं भवतीत्याह-व्यपगतच्युतच्या वितत्यतदेहं जीवविप्रमुक्तमित्यक्षरयोजना, इदानीं भावार्थ: कश्चिदुच्यते-तत्र व्यपगतं -चैतन्यपर्यायादचैतन्यलक्षणं पर्यायान्तरं प्राप्तम्, अत एव च्युतं - उच्छ्रासनिःश्वासजीवितादिदशविधप्राणेश्यः परिभ्रष्टम्, अचेतनस्योच्छ्वासाथयोग्यत्वादन्यथा लेष्ट्वादीनामपि तत्प्रसङ्गात्, तेभ्यश्च परिभ्रंशस्तु खभाववादिभिः कैश्चित् स्वभावत एवाभ्युपगम्यते, तदपोहार्थमाह-व्यावितं बलीयसा आयुःक्षयेण तेभ्यः परिभ्रंशितं, न तु स्वभावतः, तस्य सदाऽवस्थितत्वेन सर्वदा तत्प्रसङ्गादू, एवं च सति कथंभूतं तदित्याह त्यक्तदेहं - 'दिह उपचये त्यक्तो देह आहारपरिणतिजनित उपचयो येन तत् त्यक्तदेहम्, अचेतनस्याऽऽहारग्रहणपरिणतेरभावात्, एवमुक्तेन विधिना जीवेन-आत्मना विविधम्- अनेकधा प्रकर्षेण मुक्तं जीवविप्रमुक्तं, तदेतदावश्यकं ज्ञस्य शरीरमतीतावश्यकभावस्य कारणत्वाद् द्रव्यावश्यकम्, अस्य च नोआगमत्वमागमस्य तदानीं सर्वथाऽभावात्, नोशब्दस्य चात्र पक्षे सर्वनिषेधवचनत्वादिति भावः । ननु For P&Pase Cnly ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१६] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: 5 प्रत सूत्रांक रीया [१६] दीप अनुक्रम [१७]] अनयोयदि जीवविप्रमुक्तमिदं, कथं तहस्य द्रव्यावश्यकत्वं?, लेष्ट्रवादीनामपि तत्प्रसङ्गात्, तत्पुद्गलानामपि कदा- वृत्तिः मलधा-18चिदावश्यकवेतृभिगृहीत्वामुक्तत्वसम्भवादित्याशङ्कयाह-सेजागत'मित्यादि, यस्मादिदं शय्यागतं वा संस्ता-14 अनुयो. रगतं वा नैधिकीगतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि ब्रूयाद्-अहो! अनेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिन- अधि० दृष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत् पदं गृहीतमित्यादि यावदुपदर्शितमिति, तस्मादतीतवर्तमानकालभावि॥२०॥ वस्त्वेकत्वग्राहिनयानुसारिणामेवंवादिना सम्भवाद् यथोक्तशरीरस्य द्रव्यावश्यकत्वं न विरुध्यते, लेष्ट्वादिINIदर्शने पुनस्थम्भूतः प्रत्ययः कस्यापि समुत्पद्यत इति न तेषां तत्पसङ्गः, तेनैव करचरणोरुग्रीवादिपरिणाम नानन्तरमेवाऽऽवश्यककारणत्वेन व्याप्तत्वात्, तदेव तथाविधप्रत्ययजनक द्रव्यावश्यकं, न लेष्ट्वादय इति भाव इति समुदायार्थः । इदानीमवयवार्थ उच्यते-तत्र शय्या-महती सर्वाङ्गप्रमाणा तां गतं शय्यागतं शय्यास्थितमित्यर्थः, संस्तारो-लघुकोऽधतृतीयहस्तमानस्तं गतं तत्रस्थमित्यर्थः, यत्र साधवस्तपःपरिकर्मितशरीराः खयमेव गत्वा भक्तपरिज्ञाद्यनशनं प्रतिपन्नपूर्वाः प्रतिपद्यन्ते प्रतिपत्स्यन्ते च तत् सिद्धशिलातलमुच्यते, क्षेत्रगुणतो ४ यथाभद्रकदेवतागुणतो वा साधूनामाराधनाः सिद्ध्यन्ति तत्रेतिकृत्वा, अन्ये तु व्याचक्षते-यत्र महर्षिः ॐ कश्चित् सिद्धस्तत् सिद्धशिलातलं, तद्गतं तत्रस्थित सिद्धशिलातलगतम्, इह 'निसीहियागयं त्यादीन्यपि पदानि वाचनान्तरे दृश्यन्ते, तानि च सुगमत्वात् स्वयमेव भावनीयानि, नवरं नैषेधिकी शबपरिस्थाप ॥२०॥ नभूमिः, अपरं चात्रान्तरे 'पासित्ता णं कोई भणिजत्ति ग्रन्थः कचिद् दृश्यते, स च समुदायार्थकथनावसरे 35555E ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१६] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [१७]] योजित एव, यत्र तु न दृश्यते तत्राध्याहारो द्रष्टव्यः, अहोशब्दो दैन्यविस्मयामश्रणेषु वर्तते, स चेह त्रिप्वपि घटते, तथाहि-अनित्यं शरीरमिति दैन्ये, आवश्यकं ज्ञातमिति विस्मये, अन्य पार्श्वस्थितमामनयमाणस्याऽऽमणे, 'अनेन' प्रत्यक्षतया दृश्यमानेन शरीरमेव पुद्गलसङ्घातत्त्वात् समुच्छ्रयस्तेन, 'जिनदृष्टेन'-तीर्थकराभिमतेन, 'भावेन' कर्मनिर्जरणाभिप्रायेण, अथवा-भावेन-तदावरणकर्मक्षयक्षयोपशमलक्षणेन, आवश्यकपदाभिधेयं शाखें 'आघवियंति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाच गुरोः सकाशादागृहीतं, 'प्रज्ञापितं' सामान्यतो विनेयेभ्यः कथितं, 'प्ररूपितं तेभ्य एवं प्रतिसूत्रमर्थकथनता, 'दर्शितं प्रत्युपेक्षणादिक्रियादर्शनतः इयं क्रिया एभिरक्षरैरत्रोपात्ता इत्थं च क्रियते इत्येवं विनेयेभ्यः प्रकटितमिति भावः, 'निदर्शितं' कथश्चिदगृह्णतः परयाऽनुकम्पया निश्चयेन पुनः पुनः दर्शितम्, 'उपदर्शितं' सर्वनययुक्तिभिः । आह-नन्वनेन शरीरसमुच्छयेणाऽऽवश्यकमागृहीतमित्यादि नोपपद्यते, ग्रहणप्ररूपणादीनां जीवधर्मत्वेन शरीरस्याघटमानत्वात्, सत्यं, किन्तु भूतपूर्वगत्या जीवशरीरयोरभेदोपचारादित्थमुपन्यास इत्यदोषः । पुनरप्याह-ननु यद्यपि तच्छरीरकं शय्यादिगतं दृष्ट्वा पूर्वोक्तवतारो भवन्ति, तथाऽपि कथं तस्य द्रव्यावश्यकता?, यत आवश्यकस्य कारणमेव द्रव्यावश्यक भवितुमर्हति, भूतस्य भाविनो वेत्यादिपूर्वोक्तवचनात् , कारण चाऽऽगमस्य चेतनाधिष्ठितमेव शरीरं न स्थिदं, चेतनारहितत्वात् , तस्यापि तत्कारणत्वेऽतिप्रसङ्गात्, सत्यं, किन्त्वतीतपर्यापानुवृत्यभ्युपगमपरनयानुवृत्याऽतीतमावश्यककारणत्वपर्यायमपेक्ष्य द्रव्यावश्यकताऽस्योच्यत इत्यदोषः । स्यादेवं, यद्यत्रार्थे ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१६] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: SAKAC वृत्तिः प्रत अनुयो मलधारीया ॥ २१॥ सूत्रांक अधिक [१६] दीप अनुक्रम [१७]] CLASSACROSSACS कश्चिद् दृष्टान्तः स्यादिति विकल्प्य पृच्छति-यथा कोऽत्र दृष्टान्तः?, इति पृष्टे सत्याह-यथाऽयं घृतकुम्भ आसीत्, अयं मधुकुम्भ आसीदित्यादि, एतदुक्तं भवति-यथा मधुनि घृते वा प्रक्षिप्यापनीते तदाधारस्वपर्यायेऽतिक्रान्तेऽप्ययं मधुकुम्भः अयं च घृतकुम्भ इति व्यपदेशो लोके प्रवर्तते, तथा आवश्यककारणत्वपर्यायेऽतिक्रान्तेऽपि अतीतपर्यायानुवृत्त्या द्रव्यावश्यकमिदमुच्यत इति भावः, निगमयन्नाह-से तमित्यादि, तदेतद् ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकम् ॥ १६॥ उक्तो नोआगमतो द्रव्यावश्यकप्रथमभेदः, अथ बितीयभेद- निरूपणार्थमाह से किं तं भविअसरीरदव्वावस्सयं?, २ जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते इमेणं चेव आत्तएणं सरीरसमुस्सएणं जिणोवदिट्टेणं भावेणं आवस्सएत्तिपयं सेयकाले सिक्खिस्सइ न ताव सिक्खइ, जहा को दिटुंतो?, अयं महुकुंभे भविस्सइ अयं घयकुंभे भविस्सइ, से तं भविअसरीरदव्वावस्सयं (सू० १७) अथ किंतव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति प्रश्न सत्याह-'भवियसरीरदव्यावस्सयं जे जीवें'इत्यादि, विवक्षितपर्यायेण भविष्यतीति भव्यो-विवक्षितपर्यायाहस्तयोग्य इत्यर्थः, तस्य शरीरं, तदेव भाविभावावश्यककारणत्वात् द्रव्यावश्यकं, भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं, किं पुनस्तदित्यत्रोच्यते-यो जीवो योनीजन्मत्वनिष्क्रान्तो CORSCOOKE का॥२१॥ ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [82] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ (मूलं + वृत्ति:) मूलं [१७] / गाथा ||१...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ऽनेनैव शरीरसमुच्छ्रयेणा सेन जिनोपदिष्टेन भावेन आवश्यकमित्येतत् पदं आगामिनि काले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः । साम्प्रतमवयवार्थ उच्यते तत्र यः कश्चिद् 'जीवो जन्तुः योन्या- योषिद्वाच्यदेशलक्षणायाः परिपूर्णसमस्तदेहो जन्मत्वेन - जन्मसमयेन निक्रान्तो न पुनरामगर्भावस्थ एवं पतितो योनीजन्मत्वनिष्क्रान्तः, अनेनैव शरीरमेव पुद्गल सङ्घातत्वादुत्पत्तिसमयादारभ्य प्रतिसमयं समुत्सर्पणाद् वा समुच्छ्रयस्तेन आतेन-आदत्तेन वा गृहीतेन प्राकृतशैलीवशादात्मीयेन वा जिनोपदिष्टेनेत्यादि पूर्ववत् 'सेयकालि त्ति छान्दसत्वादागामिनि काले शिक्षिष्यते-अध्येष्यते सास्प्रतं तु न तावदद्यापि शिक्षते, तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरद्रव्यावश्यकं । नोआगमत्वं चात्राप्यागमाभावमाश्रित्य मन्तव्यं तदानीं तत्र वपुष्यागमाभावात्, नोशब्दस्य चात्रापि सर्वनिषेधवचनत्वात् । अत्राSS - नम्वावश्यकस्य कारणं द्रव्यावश्यकमुच्यते, यदि त्वत्र वपुष्यागमाभावः कथं तर्हि तस्य तं प्रति कारपणत्वम्? न हि कार्याभावे वस्तुनः कारणत्वं युज्यते, अतिप्रसङ्गात्, अतः कथमस्य द्रव्यावश्यकता ?, सत्यं, किं तु भविष्यत्पर्यायस्येदानीमपि योऽस्तित्वमुपचरति नयस्तदनुवृत्त्याऽस्य द्रव्यावश्यकत्वमुच्यते, तथा च तदनुसारिणः पठन्ति - भाविनि भूतवदुपचार' इति, अत्रार्थे दृष्टान्तं दिदर्शयिषुः प्रश्नं कारयति - यथा को ऽत्र दृष्टान्त इति, निर्वचनमाह-यथाऽयं मधुकुम्भो भविष्यतीत्यादि एतदुक्तं भवति यथा मधुनि घृते वा प्रक्षे| सुमिष्टे तदाधारत्व पर्याये भविष्यत्यपि लोकेऽयं मधुकुम्भो घृतकुम्भो वेत्यादि व्यपदेशो दृश्यते, तथाऽत्रा For P&Praise City ~ 54~ ty Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१७] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: * अधिक प्रत सूत्रांक [१७] ॥२२॥ अनुयोप्यावश्यककारणत्वपर्याये भविष्यत्यपि तदस्तित्वपरनयानुवृत्त्या द्रव्यावश्यकत्वमुच्यत इति भावः, निग-II मलधा- मयन्नाह-'सेत्तमित्यादि, तदेतद्भव्यशरीरद्रव्यावश्यकमिति ॥ १७ ॥ उक्तो नोआगमतो द्रव्यावश्यकदिती अनुयो० रीया यभेदः, तृतीयभेदनिरूपणार्थमाह से कि तं जाणयसरीरभविअसरीरवतिरित्तं दवावस्सयं ?, २ तिविहं पण्णत्तं, तं जहा लोइअं कुप्पावयणियं लोउत्तरिअं (सू०१८) RI अथ किं तत ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकम् ?, निर्वचनमाह-जाणगसरीरभवियसरीरबहरित्ते दव्वावस्सए तिविहे' इत्यादि, यत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरयोः सम्बन्धि पूर्वोक्तं लक्षणं न घटते तत् ताभ्यां व्यतिरिक्तं-भिन्नं द्रव्यावश्यकमुच्यते, तच त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-लौकिकं कुमावचनिकं लोकोत्तरिकं च ॥१८॥ तत्र प्रथमभेदं जिज्ञासुराह से किं तं लोइयं दव्वावस्सयं ?, २ जे इमे राईसरतलवरमांडबिअकोडंबिअइब्भसेद्विसेणावइसत्थवाहप्पभितिओ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए सुविमलाए फुल्छुप्पल C ॥२२॥ कमलकोमल्लुम्मिलिअंमि अहापंडुरे पभाए रत्तासोगपगासकिंसुअसुअमुहगुंजद्धरागस SHRESTHA दीप अनुक्रम [१८] ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”– चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [१९] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ॐॐॐ प्रत सूत्रांक [१९] दीप रिसे कमलागरनलिणिसंडबोहए उट्टिमि सूरे सहस्सरसिमि दिणयरे तेअसा जलंते मुहधोअणदंतपक्खालणतेल्लफणिहसिद्धत्थयहरिआलिअअदागधूवपुष्फमल्लगंधतंबोलवत्थाइआई दव्वावस्सयाइं करेंति, ततो पच्छा रायकुलं वा देवकुलं वा आरामं वा उज्जाणं वा सभं वा पर्व वा गच्छन्ति, सेतं लोइयं दव्वावस्सयं (सू०१९) अत्र निर्वचनमाह-लोइयमित्यादि, लोके भवं लौकिक शेषं तथैव, अत्र राजेश्वरतलवरायः प्रभा-18 तसमये मुखधावनादि कृत्वा तत: पश्चादू राजकुलादी गच्छन्ति, तत्तेषां सम्बन्धि मुखधावनादि लौकिकं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः । तत्र राजा-चक्रवर्ती वासुदेवो बलदेवो महामण्डलिकश्च, ईश्वरो-युवराजः सामान्यमण्डलिकोऽमात्यश्च, अन्ये तु व्याचक्षते-अणिमायष्टविधैश्वर्ययुक्त ईश्वरः, परितुष्टनरपतिप्रदत्तरत्नालङ्कृतसौवर्णपट्टविभूषितशिरास्तलवरः, यस्य पार्श्वत आसनमपरं ग्रामनगरादिकं नास्ति तत्सर्वतश्छिन्नजनाश्रयविशेषरूपं मडम्बमुच्यते, तस्याधिपतिर्माडम्बिका, कतिपयकुटुम्बप्रभुः कौटुम्बिका, इभो-हस्ती तत्प्रमाणं द्रव्यमहतीतीभ्यः-यस्य सत्कपुञ्जीकृतहिरण्यरत्नादिद्रव्येणान्तरितो हस्त्यपि न दृश्यते सः, अधिकतरद्रव्यो वा इभ्य इत्यर्थः, श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपविभूषितोसमाङ्गः पुरज्येष्ठो बणिग्विशेषः श्रेष्ठी, हस्त्यश्वरथपदातिसमुदायलक्षणायाः सेनायाः प्रभुः अनुक्रम [२०] 6-0-50-58 Jatical ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१९] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुयो सेनापति:-"गणिम धरिमं मेलं पारिच्छेनं च दुव्बजायं तु । घेचूर्ण लाभत्थं वच्चा जो अनदेसं तु वृत्तिः मलधा-18|॥१॥ निवषहमओ पसिद्धो दीणाणाहाण बच्छलो पंथे । सो सत्यवाहनामं धणोब्व लोए समुबहई अनुयो. रीया C॥२॥” एतल्लक्षणयुक्तः सार्थवाहा, प्रभृतिग्रहणेन शेषप्राकृतजनपरिग्रहः, 'कलं पाउप्पभायाए'इत्यादि.5 अधिक कल्यमिति विभक्तिव्यत्ययात् सामान्येन प्रभाते, प्रभातस्यैव विशेषावस्थाः प्राह-'पाउइत्यादि, प्रादु:॥२३॥ प्राकाश्ये, ततश्च प्रकाशप्रभातायां रजन्यां, किञ्चिदुपलभ्यमानप्रकाशायामिति भावः, तदनन्तरं 'सुविमलायां | तस्यामेव किञ्चित्परिस्फुटतरप्रकाशायाम्, अथशब्द आनन्तर्ये, तदनन्तरं पाण्डुरे प्रभाते, कथंभूत इत्याह-'फुल्लोत्पलकमलकोमलोन्मीलिते' फुलं-विकसितं तच तदुत्पलं च फुल्लोत्पलं,. कमलो-हरिण४/विशेषः, फुल्लोत्पलं च कमलश्च फुल्लोत्पलकमली तयोः, कोमलम्-अकठोरै दलानां नयनयोश्चोन्मीलितम् उन्मीलनं यत्र प्रभाते तत् तथा, अनेन च प्रागुक्तायाः सुविमलतायाः वक्ष्यमाणसूर्योदयस्य चान्तरालभाविनीं पूर्वस्यां दिश्यरुणप्रभावस्थामाह, तदनन्तरं 'उहिए सूरिए'त्ति अभ्युद्गते आदित्ये, कथम्भूते इस्याह'रक्ताशोकप्रकाशकिंशुकशुकमुखगुञ्जार्धरागसदृशे' रक्ताशोकप्रकाशस्य किंशुकस्य-पुष्पितपलाशस्य शुकमुखस्य गुञ्जाधेस्य च रागेण सदृशो यः स तथा तस्मिन् , आरक्के इत्यर्थः, तथा 'कमलाकरनलिनीखण्डबोधके । गण्य पात्रं मेवं परियं च द्रव्यजातं तु । गृहीत्या लाभार्थ जति योऽन्यदेशं तु ॥१॥ नृपबहुमतः प्रसिद्धो दीनानायेषु वत्सला पथि । स सार्थवा-IC ॥२३॥ हनाम धन्य इव लोके समुदहति ॥ ३॥ अनुक्रम [२०] ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१९] / गाथा ||१...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] कमलानामाकरा-उत्पत्तिभूमयो हुदादिजलाशयविशेषास्तेषु यानि नलिनीखण्डानि तेषां बोधको यः स तथा तस्मिन् , पुनः किंभूते तस्मिन्नित्याह-सहस्ररश्मी, दिनं करोतीति दिनकरस्तस्मिन् , तेजसा ज्वलति सति, तत्रैवैते भावाः सर्वेऽपि सन्तीति ज्ञापनार्थं सूर्यस्य विशेषणबहुत्वम्, अनेन चोत्तरोत्तरकालभाविना आवइयककरणकालविशेषणकलापेन प्रकृष्टमध्यमजघन्योद्यमवतां सत्त्वानां तं तमावश्यककरणसमयमाह, तथाहि-केचित् प्रकृष्टोद्यमिनः किञ्चित् प्रकाशमानायां रजन्यां मुखधावनाद्यावश्यकं कुर्वन्ति, मध्यमोद्यमिनस्तु तस्यामेव सुविमलायामरुणप्रभावसरे वा, जघन्योद्यमिनस्तु समुद्गते सवितरीति, 'मुहधोवणे'त्यादि, मुख-II ६ धावनं च दन्तप्रक्षालनं च तैलं च फणिहश्च सिद्धार्थाश्च हरितालिका च आदर्शश्च धूपश्च पुष्पाणि च माल्यं तेच गन्धाश्च ताम्बूलं च वस्त्राणि च तान्यादिः येषां लानाभरणपरिधानादीनां तानि तथा, तत्र फणिहा-कङ्क तकस्तं मस्तकादी व्यापारयन्ति, सिद्धार्थाः-सर्षपाः, हरितालिका-दूवा, एतदद्वयं मङ्गलाथै शिरसि प्रक्षिपन्ति, आदर्शषु मुखादि निरीक्षन्ते, धूपेन वस्त्रादि धूपयन्ति, अग्रथितानि पुष्पाणि, तान्येव ग्रथितानि माल्यम्, अथवा विकसितानि पुष्पाणि तान्येवाविकसितानि माल्यम् , एतेषां च मस्तकादिषूपयोगः, शेष स्वरूपत उपयोगतश्च प्रतीतमेव, एतानि द्रव्यावश्यकानि कृत्वा ततः पश्चाद्राजकुलादौ गच्छन्ति । तत्र रमणीयतातिशयेन स्त्रीपुरुषमिथुनानि यत्रारमन्ति स विविधपुष्पजात्युपशोभित आरामः, वस्त्राभरणादिसमलङ्कृतविग्रहाः सन्निहिताशनायाहारा मदनोत्सवादिषु क्रीडार्थ लोका उदान्ति यत्र तचम्पकादितरुख SOCIOLSSES दीप अनुक्रम [२०] CH ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१९] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः अनुयो. अधिक प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुयोण्ड मण्डितमुद्यानं, भारतादिकथाविनोदेन यत्र लोकस्तिष्ठति सा सभा, शेषं प्रतीतम् । अत्राह-ननु राजा-2 मलधा-शदिभिः प्रभातेऽवश्यं क्रियत इति व्युत्पत्तिमात्रेणाऽऽवश्यकत्वं भवतु मुखधावनादीनां, द्रव्यत्वं तु कथमरीया मीषां?, विवक्षितभावस्य हि कारणं द्रव्यं भवति, 'भूतस्य भाविनोवा भावस्य ही'त्यादिवचनात्, न च* ॥२४॥ राजादिभिः क्रियमाणानि मुखधावनादीनि भावावश्यककारणं भवन्ति, सत्यं, किन्तु 'भूतस्य भाविनो वेंत्यायेव द्रव्यलक्षणं न मन्तव्यं, किं तर्हि ? "अप्पाहण्णेवि दव्वसद्दोत्ती(त्थी)"ति वचनाप्रधानवाचकोऽपि द्रव्यशब्दोऽवगन्तव्यः, अप्रधानानि च मोक्षकारणभावावश्यकापेक्षया संसारकारणानि राजादिमुखधावनादीनि, ततश्च द्रव्यभूतानि अप्रधानभूतान्यावश्यकानि द्रव्यावश्यकानि एतानीत्यदोषः, 'नोआगमत्वं चेहाप्यागमाभावानोशब्दस्य च सर्वनिषेधवचनवादित्यलं विस्तरेण, निगमयन्नाह से तं लोइयमित्यादि, तदेतज्ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं लौकिकं द्रव्यावश्यकमित्यर्थः ॥ १९ ॥ उक्तो नोआगमतो द्रव्यावश्यकान्तर्गतज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यकप्रथमभेदः । अथ द्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह से किं तं कुप्पावयणिअं दव्वावस्सयं ?,२ जे इमे चरगचीरिंगचम्मखंडिअभिक्खोंडपंडुरंगगोअमगोब्बतिअगिहिधम्मधम्मचिंतगअविरुद्धविरुद्धवुद्धसावगप्पभितओ पासंडत्था कल्लं पाउप्पभाए रयणीए जाव तेअसा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुहस्स वा अनुक्रम [२०] ॥२४ ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] दीप अनुक्रम सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जक्खस्स वा भूअस्स वा मुगुदस्स वा अजाए वा दुग्गाए वा कोहकिरियाए वा उवलेवणसंमजणआवरिसणधूवपुप्फगंध मल्लाइआई दव्यावस्सयाइं करेंति, से तं कुप्पावयणियं दवावस्सयं (सू०२०) II अथ किं तत् कुमावनिक द्रव्यावश्यकम् ?, अत्र निर्वचनम्-'कुप्पावपणियं दब्बावस्सयं जे इमें | इत्यादि, कुत्सितं प्रवचनं येषां ते कुप्रवचनास्तेषामिदं कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यकं, किं पुनस्तदित्याह जे इमें इत्यादि, य एते चरकचीरिकादयः प्रभातसमये इन्द्रस्कन्दादेरुपलेपनादि कुर्वन्ति तत् कुमावनिक द्रव्यावश्यकमिति समुदायाः ॥ तन्त्र धादिवाहकाः सन्तो ये भिक्षा चरन्ति ते चरकाः, अथवा ये भुञ्जा-| नाश्चरन्ति ते चरकाः, रथ्यापतितचीरपरिधानाचीरिकाः, अथवा येषां चीरमयमेव सर्वमुपकरणं ते चीरिका: चर्मपरिधानाश्वर्मखण्डिकाः, अथवा चर्ममयं सर्वमेवोपकरणं येषां ते चर्मखण्डिकाः, ये भिक्षामेव भुञ्जते न तु स्वपरिगृहीतगोदुग्धादिकं ते भिक्षोण्डाः, सुगतशासनस्था इत्यन्ये, पाण्डुराङ्गा भस्मोद्धूलितगात्राः, विचि-18 पादपतनादिशिक्षाकलापयुक्तवराटकमालिकादिचर्चितवृषभकोपायतः कणभिक्षाग्राहिणो गोतमाः, गोच र्यानुकारिणो गोत्रतिकाः, ते हि वयमपि किल तिर्यक्षु वसाम इति भावनां भावयन्तो गोभिर्निर्गच्छन्तीभिः IN सह निर्गच्छन्ति स्थिताभिस्तिष्ठन्त्यासीनाभिरुपविशन्ति भुञ्जानाभिस्तदेव तृणपत्रपुष्पफलादि भुञ्जन्ति, [२१] ॐ ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०]] * दीप अनुक्रम अनुयोतदुक्तम्-“गाचीहि समं निग्गमपवेसठाणासणाइ पकरंति । भुंजंति जहा गावी तिरिक्खवासं विभावंता वृत्तिः मलधा- 181॥१॥” गृहस्थधर्म एव श्रेयानित्यभिसन्धाय तद्यथोक्तचारिणो गृहिधर्माः, तथा च तदनुसारिणां बचा-"P-1 | अनुयो० रीया हाश्रमसमो धर्मो, न भूतो न भविष्यति । तं पालयन्ति ये धीराः, क्लीवाः पाषण्डमाश्रिताः॥१॥” इति । अधि. याज्ञवल्क्यप्रभृतिऋषिप्रणीतधर्मसंहिताश्चिन्तयन्ति ताभिश्च व्यवहरन्ति(ये) ते धर्मचिन्तकाः, देवताक्षितीशमा॥ २५॥ ॥ तापितृतिर्यगादीनामविरोधेन विनयकारिखादविरुद्धा-बैनयिकाः, पुण्यपापपरलोकाधनभ्युपगमपरा अक्रि यावादिनो विरुद्धाः, सर्वपापण्डिभिः सह विरुद्धचारित्वाद्, अनाऽऽह-ननु यद्यते पुण्यायनभ्युपगमपराः कथं तहर्वेषां वक्ष्यमाणमिन्द्रागुपलेपनं संभवति ?, पुण्यादिनिमित्तमेव तस्य सम्भवात्, सत्यं, किन्तु जीविकादिहेतोस्तेषामपि तत्संभवतीत्यदोषः । प्रथममेवाऽऽद्यतीर्थकरकाले समुत्पन्नत्वात् प्रायो वृद्धकाले दीक्षा प्रतिपत्तेश्च वृद्धाः-तापसाः, श्रावका-ब्राहाणाः प्रथमं भरतादिकाले श्रावकाणामेव सतां पश्चाद् ब्राह्मणत्वसाभावादू, अन्ये तु वृद्धश्रावका इत्येकमेव पदं ब्राह्मणवाचकत्वेन व्याचक्षते, एतेषां बन्दसमासः, प्रभृतिKग्रहणात् परिवाजकादिपरिग्रहः, पाषण्ड-व्रतं तत्र तिष्ठन्तीति पापण्डस्थाः, 'कलं पाउप्पभायाए' इत्यादि, पूर्वबदू यावत्तेजसा ज्वलतीति । 'इंदस्स वे'त्यादि, तत्रेन्द्रः-प्रतीतः, स्कन्द-कार्तिकेयः, रुद्रो-हरः, शिवस्त्वाकारविशेषधरः स एव, व्यन्तरविशेषो वा, वैश्रवणो-यक्षनायका, देवः-सामान्या, नागो-भवनपतिविशेषः, EHIM२५॥ १ गोभिः समं निर्गमप्रवेशस्थानासनादि प्रकुर्वन्ति । भुजते यथा गायः तिर्यम्वास विभावयन्तः ॥१॥ २प्रपालयन्ति. [२१] JaEcuamin ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२०] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] यक्षभूती-व्यन्तरविशेषौ, मुकुन्दो-बलदेवः, आर्या-प्रशान्तरूपा, दुर्गा सैव महिषारूढा, तत्कुहनपरा कोदृक्रिया, अनोपचारादिन्द्रादिशब्देन तदायतनमप्युच्यते, अतस्तस्येन्द्रादेरुपलेपनसम्माजनावर्षणपुष्पधूपगन्धमाल्यादीनि द्रव्यावश्यकानि कुर्वन्ति, तत्र उपलेपनं-छगणादिना प्रतीतमेव, सम्मार्जनं-दण्डपुञ्छनादिना, आवर्षणं-गन्धोदकादिना, शेषं गतार्थ, तदेवं य एते चरकादय इन्द्रादेरुपलेपनादि कुर्वन्ति तत् कुमा|वचनिक द्रव्यावश्यकम् , अत्र द्रब्यत्वमावश्यकत्वं नोआगमत्वं च लौकिकद्रव्यावश्यकोरुमिव भावनीडायम् । निगमयन्नाह-'सेत'मित्यादि, तदेतज्ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं कुमावचनिक द्रव्यावश्यकमित्यर्थः, उक्तो नोआगमतो द्रव्यावश्यकान्तर्गतज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यावश्यकद्वितीयभेदः ॥ २०॥ अथ तृतीयभेदनिरूपणार्थमाह-- से किं तं लोगुत्तरिअं दव्वावस्सयं ?, २ जे इमे समणगुणमुक्कजोगी छकायनिरणुकंपा हया इव उद्दामा गया इव निरंकुसा घट्टा मट्टा तुप्पोट्टा पंडुरपडपाउरणा जिणाणमणाणाए सच्छंद विहरिऊणं उभओकालं आवस्सयस्स उबटुंति, से तं लोगुत्तरिअं दव्वावस्सयं, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वावस्सयं, से तं नोआगमतो दवावस्सयं, से तं दवावस्सयं (सू० २१) दीप अनुक्रम [२१] ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२१] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधारीया - प्रत सूत्रांक [२१] ॥२६॥ -- अध किं तल्लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकम् ?, अत्र निर्वचनमाह-लोकस्योत्सरा-साधवः, अथवा लोकस्योत्तर-पति प्रधानं लोकोत्तरं-जिनशासनं तेषु तस्मिन् वा भवं लोकोत्तरिकं, द्रव्यावश्यकमिति व्याख्यातमेव, किं पुनस्त- अनयो दित्याह-जे इमें इत्यादि, य एते श्रमणगुणमुक्तयोगित्वादिविशेषणविशिष्टाः साध्वाभासा जिनानामना- अधिक ज्ञया स्वच्छन्द विहत्योभयकालमावश्यकाय-प्रतिक्रमणायोपतिष्ठन्ते तत्तेषां प्रतिकमणानुष्ठानं लोकोत्सरिक द्रव्यावश्यकमिति समुदायार्थः । इदानीमवयवार्थ उच्यते-तत्र श्रमणा:-साधवस्तेषां गुणा-मूलोत्तरगुणरूपाः, तत्र जीववधविरत्यादयो मूलगुणाः पिण्डविशुद्ध्यादयस्तूत्तरगुणाः, तेषु मुक्तो योगो व्यापारो यैस्तै सर्वधनादेराकृतिगणवात् श्रमणगुणमुक्तयोगिनः, एते च जीववधादिविरतिमुक्तव्यापारा अपि मनसा कदाचित् सानुकम्पा अपि स्युरित्याह-पदसु कायेषु-पृथिव्यादिषु विषये निर्गता अपगता अनुकम्पा-मनासाईता येभ्यस्ते सथा, निरनुकम्पताचिह्नमेवाऽऽह-हया इव-तुरगा इव, उद्दामा:-चरणनिपातजीवोपमईनिर-18 पेक्षत्वाद् द्रुतचारिण इत्यर्थः, किमित्येवंभूतास्ते इत्याह-यतो गजा इव-दुष्टदिरदा इव निरङ्कुशाः-गुर्वाज्ञा-18 व्यतिक्रमचारिण इत्यर्थः, अत एव 'घट्टत्ति येषां जद्धे श्लक्ष्णीकरणार्थ फेनादिना घृष्टे भवतस्तेऽवयवावयविनोरभेदोपचारात् घृष्टाः, तथा 'मट्ठ'त्ति तैलोदकादिना येषां केशाः शरीरं वा मृष्टं ते तथैव मृष्टाः, अथवा ॥२६॥ १वतः प्र. दीप अनुक्रम [२२] ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२१] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२२] केशादिषु मृष्टं विद्यते येषां ते मृष्टवन्तः, वत्प्रत्ययलोपान्मृष्टाः, तथा 'तुप्पोह'त्ति तुपा-म्रक्षिता मदनेन वा कावेष्टिताः शीतरक्षादिनिमित्तमोष्ठा येषां ते तुप्रोष्टाः, तथा मलपरीषहासहिष्णुतादूरीकृतत्वात् पाण्डुरोधौतः पट:-प्रावरणं येषां ते तथा, 'जिनानामनाज्ञया खच्छन्द विहत्य' तीर्थकराज्ञावाह्याः स्वखरुच्या विविध चेष्टाः कृत्वा तत्रोभयकालं-प्रभातसमयेऽस्तमयसमये च चतुयेथे षष्ठीतिकृरखा आवश्यकाय-प्रतिक्रमणाकायोपतिष्ठन्ते तत्तेषामावश्यकं लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकम्, अत्र तु द्रव्यावश्यकत्वं भावशून्यत्त्वात् तत्फला-13 भावाचाप्रधानतयाऽवसेयं, नोआगमत्वमपि देशे क्रियालक्षणे आगमाभावान्नोशब्दस्य चात्र देशप्रतिषेधवचनत्त्वादिति । अत्र च लोकोत्तरिके द्रव्यावश्यके उदाहरणम्-वसन्तपुरे नगरेऽगीतार्थोऽसंविग्नो गच्छ एको विचरति, तत्र श्रमणगुणमुक्तयोगी संविग्नाभासः साधुरेका प्रतिदिनं पुरःकर्मादिदोषदुष्टमनेषणीयं भक्तादि गृहीत्वा महता संवेगेन प्रतिक्रमणकाले आलोचयति, तस्मै च गच्छाचार्योऽगीतार्थत्वात् प्रायश्चित्तं प्रयच्छन| भणति-पश्यत अहो ! कथमसौ भावमगोपयन अशठतया सर्व समालोचयति ?, सुखं हि आसेवना क्रियते, दुःखं चेत्थमालोचयितुं, तस्मादशठतयैव शुद्धोधसी, तथा च तं प्रशस्यमानं दृष्ट्वा तत्र अन्येऽप्यगीतार्थश्रमणाः प्रशंसन्ति, चिन्तयन्ति च-गुरोश्चेदित्थमालोच्यते तर्हि दोषासेवनायामसकृतकृतायामपि न कश्चिद्दोषः, आलोचनाया एव साध्यत्वाद्, एवं चान्यदा तत्र संविग्नगीतार्थः साधुः कश्चिदायाता, तेन च प्रतिदिनं तमेव व्यतिकरमालोक्य सूरिरुक्ता-वमित्यमस्य प्रशंसां कुर्वन् विवक्षितक्षितीश इव लक्ष्यसे, तथाहि-गिरिनगर ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२१] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: | अनुयो प्रत सूत्रांक [२१] दीप अनुक्रम [२२] अनुयो- वासी कश्चिमिभक्तो वणिक पद्मरागरत्नानां गृहं भृत्वा प्रतिवर्ष वह्निना प्रदीपयति, तं चाविवेकितया तन्नमलधा- गरनरपतिलॊकश्च लाघते-अहो! धन्योऽयं वणिग, यो भगवन्तं हुतभुजमिस्थमौदार्यभक्त्यतिशयाद् रत्नै-* रीया स्तर्पयति, अन्यदाच प्रवलपवनपटलप्रेरितस्तत्पदीपितदहनः सराजप्रासादं समस्तमपि तन्नगरं दहति स्म, | अधिक असी च राज्ञा दण्डितो नगराच निष्कासितः, तदेवं यथा राज्ञा तस्य प्रशंसां कुर्वता आत्मा नगरलोकश्च | नाशितस्तथा खमपि अस्याविधिप्रवृत्तस्य प्रशंसां कुर्वन्नात्मानं समस्तगच्छं चोच्छेदयसि, यदि पुनरेनमेक शिक्षयसि तदा तथाविधनप इव सपरिकरो निरपायतामनुभवसि, तथाहि-अन्येन केनचिद् राज्ञा तथैव | कुवेन् कश्चिदू वणिगाकर्णितः, ततो नगरदाहापायदर्शिना क्षितीशेन अरण्यं गत्वा किमित्थं न करोषीत्याK दिवचोभिस्तिरस्कृत्य दण्डितो निष्कासितश्च, एवं त्वमपीत्यादि,उपनयो गतार्थी, इत्यादि बहुप्रकारं भणितो भयावसी तत्पशंसातो न निवर्तते तावत्सेन गीतार्थसाधुना शेषसाधवोऽभिहिता:-एष गणाधिपो महा8 निधर्मतास्पदमगीतार्थो यदि न परित्यज्यते तदा भवतां महतेऽनर्थाय प्रभवतीति । तदेवं तत् साध्वावश्य कप्रकारं सर्व लोकोत्सरिकं द्रव्यावश्यकमिति । निगमयबाह-से तमित्यादि, तदेतल्लोकोत्तरिक द्रव्यावश्यकं, एतद्भणने च ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं त्रिविधमपि द्रब्यावश्यकं समर्थितं भवत्यतस्तदपि निगमयति-से तमि'त्यादि, एतत्समर्थने च नोआगमतो द्रव्यावश्यकस्य सप्रभेदस्य समर्थितत्वात्तदपि निगमयति |-'से तं नोआगमतो' इत्यादि, एतत्समर्थने च यत् प्रक्रान्तं द्रव्यावश्यकं तत्सोत्तरभेदमप्यवसितमतो ~65~ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [२१] / गाथा ||१...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SROSORDERROR [२१] निगमयति-से तं दब्बावस्सय मिति, तदेतत् द्रव्यावश्यकं समर्थितमित्यर्थः ॥ २१ ॥ उक्तं सप्रपञ्च द्रव्यावश्यक, साम्प्रतमवसरायातभावावश्यकनिरूपणार्थमाह से किं तं भावावस्सयं?, २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-आगमतो अ-नोआगमतो अ (सू. २२) अथ किं तद् भावावश्यकमिति, अत्र निर्वचनमाह-भावावस्मयं दुविहमित्यादि, वक्तृविवक्षितपरिणाहै मस्य भवनं भावः, उक्तं च-"भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुक्तो हि वै समाख्यातः । सर्वज्ञैरिन्द्रादिवदिहेन्द-17 नादिक्रियाऽनुभवात् ॥१॥" व्याख्या-वक्तर्विवक्षितक्रियायाः-विवक्षितपरिणामस्य इन्दनादेरनुभवनम्-अनुभू-15 हतिस्तया युक्तो योऽर्थः स भावतद्धतोरभदोपचाराद्भावः सर्वज्ञः समाख्यातः, निदर्शनमाह-इन्द्रादिवदित्यादि * यथा इन्दनादिक्रियानुभवात् परमैश्वर्यादिपरिणामेन परिणतत्वादिन्द्रादिर्भाव उच्यत इत्यर्थः, इत्यार्यार्थः। भावश्चासौ आवश्यकं च भावमाश्रित्य वा आवश्यक भावावश्यक, तच द्विविधं प्रज्ञतं, तबधा-आगमत:द आगममाश्रित्य नोआगमत:-आगमाभावमाश्रित्य ॥ २२ ॥ तत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह से किं तं आगमतो भावावस्सयं?,२ जाणए उवउत्ते, से तं आगमतो भावावस्सयं (सू०२३) अथ किं तदागमतो भावावश्यकम् ?, अनाह-'आगमओ भावावस्सयं जाणए' इत्यादि, ज्ञायक उपयुक्त आगमतो भावावश्यकम्, इदमुक्तं भवति-आवश्यकपदार्थज्ञस्तननितसंवेगविशुद्ध्यमानपरिणामस्तत्र चो KASARSA दीप अनुक्रम [२२] JaIRI अथ भाव-आवश्यकस्य भेद-प्रभेदयुक्तं विस्तृत-वर्णनं क्रियते ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२३] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] - अनुयोपयुक्तः साध्वादिरागमतो भावावश्यकम् , आवश्यकार्थोपयोगलक्षणस्याऽऽगमस्थात्र सद्भावात्, भावावश्य- वृत्तिः मलधा-18|कता चात्राऽऽवश्यकोपयोगपरिणामस्य सद्भावात्, भावमाश्रित्य आवश्यकमिति व्युत्पत्तेः, अधवाऽऽवश्य-IX अनुयो. कोपयोगपरिणामानन्यत्वात् साध्वादिरपि भावः, ततश्च भावश्चासावावश्यकं चेति व्युत्पत्तेरप्यसौ मन्तव्य अधिक इति । 'से तमित्यादि निगमनम् ।। २३ ।। अथ भावावश्यकद्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह॥ २८॥ से किं तं नोआगमतो भावावस्सयं?, २ तिविहं पण्णत्तं, तंजहा-लोइयं कुप्पावय णियं लोगुत्तरिअं, (सू०२४) | अथ किं तन्नोआगमतो भावावश्यकम् ?, अत्राऽऽह-नोआगमतो भावावश्यकं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा ४ा लौकिकं कुमावनिक लोकोत्तरिकं च ॥ २४ ॥ तत्र प्रथमभेदनिर्णयार्थमाह से किं तं लोइयं भावावस्सयं ?, २ पुव्वण्हे भारहं अवरपहे रामायणं से तं लोइयं. भावावस्सयं (सू० २५) अथ किं तल्लोकिकं भावावश्यकमिति ?, आह-'लोइयं भावावस्सयं पुरवण्हे' इत्यादि, लोके भवं लौकिक यदिदं लोकः पूर्वाह्ने भारतमपराहे रामायणं वाचयति शृणोति वा, तल्लौकिकं भावावश्यक, लोके हि भारतरामायणयोर्वाचनं श्रवणंवा पूर्वाहापराह्वयोरेच रूढं, विपर्यये दोषदर्शनात् , ततश्चेत्थमनयोलोकेऽवश्यकरणी-18 - दीप अनुक्रम [२४] ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२५] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] MORR दीप यत्वादावश्यकत्वं, तबाचकस्य श्रोतृणां च तदर्थोपयोगपरिणामसद्भावात् भावत्वं, तवाचकाः श्रोतारश्च पत्रकपरावर्तनहस्ताभिनयगात्रसंयतत्वकरकुमालमीलनादिक्रियायुक्ता भवन्ति, क्रिया च नोआगमखेन प्रागिहोक्ता 'किरियाऽऽगमो न होई'सि वचनात्, ततश्च क्रियालक्षणे देशे आगमस्याभावात् नोआगमत्वमपि भावनी-14 यं, नोशब्दयात्र देशनिषेधवचनवाद, देशे खागमोऽस्ति, लौकिकाभिप्रायेण भारतादेरागमत्त्वात्, तस्माद् यथानिर्दिष्टसमये लौकिकास्तदुपयुक्ता यदवश्यं भारतादि वाचयन्ति शृण्वन्ति वा तल्लौकिकं भाबावश्यकमिति स्थितं भावमाश्रित्याऽऽवश्यकं भावावश्यक, भावश्चासाचावश्यकं चेति वा भावावश्यकमित्यलं विस्तरेण । 'से तमित्यादि निगमनम् ।। २५ ॥ उक्तो नोआगमतो भावावश्यकप्रथमभेदः, अथ तद्धितीयभेदनिरूपणार्थमाह से कि तं कुप्पावयणियं भावावस्सयं ?, २ जे इमे चरगचीरिंग जाव पासंडत्था इजजलिहोमजपोन्दुरुक्कनमोकारमाइआई भावावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावयणिअं भावावस्सयं (सू० २६) अत्र च निर्वचनमाह-कुप्पाबयणियं भावावस्सयं जे इमे इत्यादि, कुत्सितं प्रवचनं येषां ते तथा तेथे| भवं कुमावनिकं भावावश्यक, किं तद्, उच्यते, य एते चरकचीरिकादयः पाषण्डस्था यथावसरं इज्याज-1 CARRORRECORDS अनुक्रम [२६] -5-15345 ~68~ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२६] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२६] अनुयोग लिहोमादीनि भावरूपाण्यावश्यकानि भावावश्यकानि कुर्वन्ति तत् कुप्रावचनिकं भावावश्यकमिति स- वृत्तिः मलधा-Iम्बन्धः । तत्र चरकादिखरूपं प्रागेवोक्तम्, इज्याञ्जल्यादिवरूपं तुच्यते-तत्र यजनमिज्या याग इत्यथेस्तदि-15 अनयो रीया ||षयो जलस्याञ्जलिः इज्याञ्जलिः यागदेवतापूजावसरभावीति हृदयम् , अथवा यजनमिज्या-पूजा गायत्र्या अधिक दादिपाठपूर्वकं विप्राणां सन्ध्यार्चनमित्यर्थः, तम्राञ्जलिः इज्याञ्जलिः, अथवा देशीभाषया इज्येति माता तस्या ॥ २९॥ नमस्कारविधी तद्भक्तः क्रियमाणः करकुड़मलमीलनलक्षणोऽञ्जलिरिज्याञ्जलिः, होमः अग्निहोत्रिकैः क्रियमाणमनिहवन, जपो मनायभ्यासः 'उंदुरुकत्ति देशीवचनं उन्तु-मुख तेन कपा-वृषभादिशब्दकरणमुन्दुरुक देवतादिपुरतो वृषभगर्जितादिकरणमित्यर्थः, नमस्कारो-नमो भगवते दिवसनाथायेत्यादिका, एतेषां बन्दे इज्याञ्जलिहोमजपोन्दुरुकनमस्कारास्ते आदियेषां तानि तथा, आदिशब्दात् स्तवादिपरिग्रहा, एतेषां च चर-1 कादिभिरवश्य क्रियमाणवादावश्यकत्वम्, एतत्कणां च तदर्थोपयोगडादिपरिणामसद्भावात् भाव-1 त्वम्, अन्यच चरकादीनां तदर्थोपयोगलक्षणो देश आगमः देशस्तु करशिरोव्यापारादिक्रियालक्षणो| नोआगमस्ततो देश आगमाभावमाश्रित्य नोआगमत्वमवगन्तव्यं, नोशब्दस्यहापि देशनिषेधपरत्वात्, तस्माचरकादयस्तदुपयुक्ता यथावसरं यदवश्यमिज्याजल्यादि कुर्वन्ति तत् कुमावनिकं भावावश्यक, भावा-| वश्यकशब्दस्य च व्युत्पत्तिद्वयं तथैव, 'से तमि'त्यादि निगमनम् ॥ २६ ॥ उक्तो नोआगमती भावावश्यक-| | दितीयभेदः, अथ तृतीयभेदनिरूपणार्थमाह ॥२९॥ RE दीप अनुक्रम [२७] JaEAKI ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२७] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] से किं तं लोगुत्तरिअं भावावस्सयं ?, २ जण्णं इमे समणे वा समणी वा सावओ वा साविआ वा तञ्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पिअकरणे तब्भावणाभाविए अपणत्थ कत्थइ मणं अकरेमाणे उभओकालं आवस्सयं करेंति से तं लोगुत्तरियं भावावस्सयं, से तं नोआगमतो भावावस्सयं, से तं भावा वस्सयं (सू० २७) अत्र निर्वचनम्-'लोउत्तरियं भावावस्सयं जं णमित्यादि 'जं 'ति णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिदं श्रमXणादयस्तचित्तादिविशेषणविशिष्टा उभयकालं प्रतिक्रमणाद्यावश्यकं कुर्वन्ति तल्लोकोत्तरिकं भावावश्यक |मिति सण्टङ्कः, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः-साधुः, श्रमणी-साध्वी, शृणोति साधुसमीपे जिनप्रणीतां सामान चारीमिति श्रावक-श्रमणोपासकः, श्राविका-श्रमणोपासिका, वाशब्दाः समुचयार्थाः, तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके चित्तं-सामान्योपयोगरूपं यस्येति स तचित्ता, तस्मिन्नेव मनो-विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः, तत्रैव लेश्याशुभपरिणामरूपा यस्येति स तल्लेश्या, तथा तदध्यवसितः-इहाध्यवसायोऽध्यवसितं, ततश्च तचित्तादिभावयुक्तस्य सतस्तस्मिन्नेवाऽऽवश्यकेऽध्यवसितं क्रियासम्पादनविषयमस्येति तदध्यवसितः, तथा तत्तीव्राध्यवसाया-तस्मिन्नेवाऽऽवश्यके तीव्र प्रारम्भकालादारभ्य प्रतिक्षणं प्रकर्षयायि प्रयत्न विशेषलक्षणमध्यवसानं यस्य दीप अनुक्रम [२८] CRACT ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [२७] / गाथा ||१...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७]] दीप अनुक्रम [२८] अनुयोगस तथा, तथा 'तदर्थोपयुक्तः तस्य-आवश्यकस्यार्थस्तदर्धस्तस्मिन्नुपयुक्तस्तदपियुक्तः-प्रशस्ततरसंवेगविशु-18 वृत्तिः मलधा- ज्यमानः, तस्मिन्नेव प्रतिसूत्रं प्रतिक्रियं चार्थेषूपयुक्त इत्यर्थः, तथा 'तर्पितकरणः' करणानि-तत्साधकतमानिअनुयोग रीया II देहरजोहरणमुखवत्रिकादीनि तस्मिन्-आवश्यके यथोचितच्यापारनियोगेनार्पितानि-नियुक्तानि तानि येन । अधिक स तथा, सम्यग्यथास्थानन्यस्तोपकरण इत्यर्थः, तथा 'तद्भावनाभावितः' तस्थ-आवश्यकस्य भावना-अव्य॥३०॥ वच्छिन्नपूर्वपूर्वतरसंस्कारस्य पुनः पुनस्तदनुष्ठानरूपा तया भावितोऽङ्गाङ्गिभावेन परिणतावश्यकानुष्ठानपरिणामस्तद्भावनाभावितः, तदेवं यथोक्तप्रकारेण प्रस्तुतव्यतिरेकतोऽन्यत्र कुत्रचिन्मनोऽकुर्वन् उपलक्षणत्वादाचं कायं चान्यत्राकुर्वन, एकार्थिकानि या विशेषणान्येतानि प्रस्तुतोपयोगप्रकर्षप्रतिपादनपराणि, अमूनि च लिङ्गविपरिणामतः श्रमणीश्राविकयोरपि योज्यानि, तस्मात् तचित्तादिविशेषणविशिष्टाः श्रमणादयः 'उभयकालम्' उभयसन्ध्यं यदावश्यकं कुर्वन्ति तल्लोकोत्तरिक, भावमाश्रित्य भावश्चासाचावश्यकं चेति वा भावावश्यकम्, अन्नाप्यवश्यंकरणादावश्यकत्त्वं तदुपयोगपरिणामस्य च सद्भावात् भावत्वं मुखवस्त्रिकाप्रत्युपेक्षणरजोहरणब्यापारादिक्रियालक्षणदेशस्यानागमत्वात् नोआगमत्वं भावनीयम्, 'से तमित्यादि निगमनम् | ॥२७॥ तदेवं स्वरूपत उक्तं भावावश्यकम्, अनेन चात्राधिकार इत्यतो नानादेशजविनेयानुग्रहार्थं तस्यैव पर्यायाभिधानार्थमाहतस्स णं इमे एगहिआ णाणाघोसा णाणावंजणा णामधेज्जा भवंति, तंजहा-आव ॥३०॥ ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९]] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [२८] / गाथा ||२, ३|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत [२८] गाथा ||२,३|| 45-45 SEXERCS स्सयं अवस्संकरणिजं धुवनिग्गहो विसोही अ। अज्झयणछक्कवग्गो नाओ आराहणामग्गो ॥१॥ (२) समणेणं सावएण य अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा । अंतो अहोनिसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ॥२॥(३) से तं आवस्सयं (सू० २८) 'तस्य आवश्यकस्य 'अमूनि वक्ष्यमाणानि 'एकार्थिकानि परमार्थत एकार्थविषयाणि 'नानाघो-12 पाणि' पृथगभिन्नोदासादिखराणि 'नानाव्यञ्जनानि' पृथग्भिन्नककाराद्यक्षराणि 'नामधेयानि' पर्यायवनयो भवन्ति, तद्यथा-"आवस्सयं' गाहा, व्याख्या-श्रमणादिभिरवश्यं क्रियत इति निपातनादावश्यकम् , | अथवा ज्ञानादिगुणा मोक्षो वा आ-समन्तावश्यः क्रियतेऽनेनेत्यावश्यकम् , अथवा आ-समन्ताबश्या इन्द्रियकषायादिभावशत्रयो येषां ते तथा, तैरेव क्रियते यत् तदावश्यकम् , अथवा समग्रस्यापि गुणग्रामस्यावासकमित्यावासकमित्याचपरमपि स्वधिया वाच्यं, पूर्वमपि च व्युत्पादितमिदं, तथा मुमुक्षुभिर्नियमानुष्ठेयत्वाद्यश्यकरणीयं, तथा 'ध्रुवनिग्रह' इति अनानादित्वात् कचिदपर्यवसितत्वाच धुर्व-कर्म तत्फलभूतः संसारो वा तस्य निग्रहहेतुत्वान्निग्रहो ध्रुवनिग्रहः, तथा कर्ममलिनस्याऽऽत्मनो विशुद्धिहेतुत्वाद्विशुद्धिः, तथा सामापिकादिषडध्ययनकलापात्मकत्वाध्ययनषडर्गः, तथाऽभीष्टार्थसिद्धेः सम्यगुपायत्वात् न्यायः, अथवा जीवकर्मसम्बन्धापनयनान्यायः, अयमभिप्रायो-यथा कारणिकैदृष्टो न्यायो इयोरर्थिप्रत्यार्थिनोभूमिद्रव्यादि दीप अनुक्रम [२९-३२] अनु. ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................... मूलं [२८] / गाथा ||२, ३|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत वृत्तिः अनुयो. मलधारीया श्रुतनि २८ क्षेपः ॥३१॥ गाथा ||२,३|| ROR सम्बन्ध चिरकालीनमप्यपनयत्येवं जीवकर्मणोरनादिकालीनमप्याश्रयाश्रयिभावसम्बन्धमपनयतीत्यावश्य- कमपि न्याय उच्यते, तथा मोक्षाराधनाहेतुत्वादाराधना, तथा मोक्षपुरमापकत्वादेव मार्ग इति गाथार्थः ॥१॥ उक्तगाथाया आद्यपदं सूत्रकार एवं व्युत्पादयन्नाह 'समणेण' गाहा, श्रमणादिना अहोरात्रस्य मध्ये यस्मादवश्यं क्रियते तस्मादावश्यकम् , एवमेवावश्यकरणीयादिपदानामपि व्युत्पत्तिद्रष्टव्या उपलक्षणवादस्याः, इति गाथार्थः॥१॥ से तमित्यादि निगमनं, तदेतदावश्यक निक्षिप्तमित्यर्थः । तदेवं नामादिभेदैनिक्षिसमावश्यक, तन्निक्षेपे च यदुक्तम्-'आवश्यकं निक्षेप्स्यामीति तत् सम्पादितम्, [इति अनुयोगबारग्रन्थे | आवश्यकाधिकारः कथितः ।। २८ ॥ अथ श्रुताधिकारः कथ्यते -साम्प्रतं पुनर्यदुक्तम्-'श्रुतं निक्षेप्स्यामीति तत्सम्पादनार्थमाह से किं तं सुतं १, २ चउन्विहं पण्णत्तं, तंजहा-नामसुअं ठवणसुअं दव्वसुअं भाव सुअं (सू० २९) अथ किं तत् श्रुतमिति प्रश्ना, अन निर्वचनं 'सुझं चउब्विहमि'त्यादि, 'श्रुतं' माग्निरूपितशब्दार्थ चतु-IN विध प्रज्ञप्त, तयथा-नामश्रुतं स्थापनाश्रुतं द्रव्यश्रुतं भावश्रुतं च ।। २९॥ तत्राऽऽद्यभेदनिर्णयार्थमाह दीप अनुक्रम [२९-३२] ॥३१॥ अथ 'श्रुतस्य चत्वार: निक्षेपा: प्ररुप्यते ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [३०] / गाथा ||३...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३०] से किं तं नामसुअं?, २ जस्स णं जीवस्स वा जाव सुएत्ति नामं कजइ से तं नाम सुअं(सू०३०) अत्र निर्वचन-नामश्रुतं, 'जस्स णमित्यादि, यस्य जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां चा अजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयानां वा श्रुतमिति यन्नामक्रियते तन्नामश्नुतमित्यादिपदेन सम्बन्धा, नाम च तत् श्रुतं चेति व्युत्पत्तेः, अथवा यस्य जीवादेः श्रुतमिति नाम क्रियते तज्जीवादिवस्तु नामश्रुतं, नाना-नाममात्रेण श्रुतं 8 | नामश्रुतमिति व्युत्पत्तेः । तत्र जीवस्य कथं श्रुतमिति नाम सम्भवतीत्यादिभावना यथा नामावश्यके तथा तदनुसारेण यथासम्भवमभ्यूह्य वाच्या, 'से तमित्यादि निगमनम् ॥ ३०॥ उक्तं नामश्रुतम्, अथ स्थापनाश्रुतनिरूपणार्थमाह से किं तं ठवणासुअं?, जं णं कट्टकम्मे वा जाव ठवणा ठविज्जइ से तं ठवणासुअं। नामठवणाणं को पइविसेसो ?, नाम आवकहिअं ठवणा इत्तरिआ वा होजा आव कहिआ वा (सू०३१) अन्न निर्वचनम्-'ठवणासुअंजं णमित्यादि, अत्र व्याख्यानं यथा स्थापनावश्यके तथा समपर्थ द्रष्टव्यं. नवरमावश्यकस्थाने श्रुतमुचारणीयं, काष्ठकर्मादिषु श्रुतपठनादिक्रियावन्त एकादिसाध्यादयः स्थाप्यमानाः। दीप अनुक्रम [३४] ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [३०] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक [३१] अनुयो स्थापनाश्रुतमिति तात्पर्यम् । 'से तमित्यादि निगमनम् । 'नामठवणाणं को पइविसेसो ?' इत्यादि पूर्व भामलधा-1 वितमेव, वाचनान्तरे तु 'नामठवणाओ भणियाओ' इत्येतदेव दृश्यते, आवश्यकनामस्थापनाभणनेन प्रायो-10 श्रुतनिरीया Mऽभिन्नार्थत्वात् श्रुतनामस्थापने अप्युक्ते एव भवतः, इत्यतो नात्र ते पुनरुच्येते इति भावः ॥ ३१ ॥ द्रव्यश्रु- क्षेपः तनिरूपणार्थमाह॥३२॥ से किं तं दव्वसुअं?, २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-आगमतो अनोआगमतो अ (सू०३२) अत्र निर्वचनम्-'दब्बसुअं दुविहमित्यादि, द्रव्यश्रुतं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तयधा-आगमतो नोआगमतश्च ॥ ३२॥ अत्राऽद्यभेदनिर्णयार्थमाह से किं तं आगमतो दव्वसुअं?, २ जस्स णं सुएत्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं जाव णो अणुप्पेहाए, कम्हा ?, अणुवओगो दव्वमितिकट्ठ, नेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमतो एगं दव्वसुअं जाव कम्हा ?, जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ । से तं आग मतो दव्वसुअं (सू० ३३) IPI अत्र निर्वचनम् आगमओ दब्वसुअमि'त्यादि, यस्य कस्यचित् श्रुतमिति पदं श्रुतपदाभिधेयमाचारादि-1 ॥३२॥ शास्त्रं शिक्षितं स्थितं यावद्वाचनोपगतं भवति स जन्तुस्तत्र वाचनाप्रच्छनादिभिर्वर्तमानोऽपि श्रुतोपयोगेऽवर्त दीप अनुक्रम [३५]] अत्र द्रव्यश्रुतस्य भेद-प्रभेदयुक्तं विस्तृत वर्णनं क्रियते ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [३३] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: 25 % प्रत सूत्रांक [३३] मानवादागमत:-आगममाश्रित्य द्रव्यश्रुतमिति समुदायार्थः। शेषोऽत्राक्षेपपरिहारादिप्रपञ्चो नयविचारणा च द्रव्यावश्यकवत् द्रष्टव्या, अत एव सूत्रेऽप्यतिदेशं कुर्वता 'जाव कम्हा , जइ जाणए' इत्यादिना पर्यन्तनिर्दिष्टानां शब्दनयानां सम्बन्धी सूत्रालापको गृहीतः । एतच काञ्चिदेव वाचनामाश्रित्य व्याख्यायते, वाचनान्तराणि तु हीनाधिकान्यपि दृश्यन्ते, 'से तमित्यादि निगमनम् ॥ ३३ ॥ उक्तमागमतो द्रव्यश्रुतम्, इदानीं नोआगमतस्तदेवोच्यते से किं तं नोआगमतो दव्वसुअं?, २ तिविहं पण्णत्तं, तंजहा-जाणयसरीरदव्वसुअं भविअसरीरदव्वसुअं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं (सू०३४) अत्र निर्वचनम्-नोआगमओ दब्बसुअंतिविहमित्यादि 'जाणयसरीर भविअसरीर० जाणयसरीरभविअसरीरवइरित दव्वसुअं॥ ३४ ॥ अत्राऽऽद्यभेदज्ञापनार्थमाह से किं तं जाणयसरीरदव्वसुअं?, २ सुअत्तिपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुअचाविअचत्तदेहं तं चेव पुव्वभणिअं भाणिअव्वं जाव से तं जाणयसरीरदव्वसुअं (सू० ३५) अनोत्तरम्-'जाणयसरीरदश्वसुयं सुअत्ती'त्यादि, ज्ञातवानिति शस्तस्य शरीरं तदेवानुभूतभावत्वाद् दीप अनुक्रम [३७]] A ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [३५] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः श्रुतनि प्रत रीया क्षेपः सूत्रांक [३५] दीप अनुयो० द्रव्यश्रुतं ज्ञशरीरद्रव्यश्रुतं, श्रुतमिति यत्पदं तदाधिकारज्ञायकस्य यच्छरीरकं व्यपगतादिविशेषणविशिष्टं मलधा- तज्ज्ञशरीरद्रव्य श्रुतमित्यर्थः । ननु यदि जीवविप्रमुक्तमिदं कथं तास्य द्रव्यश्रुतत्वं ?, लेष्ट्रवादीनामपि तत्प सकात्, तत्पुद्गलानामपि कदाचित् श्रुतकर्तृभिः गृहीत्वा मुक्तत्वसम्भवादित्याशङ्कायाऽऽह-'सेवागयमित्यादि। शेषोऽत्रावयवव्याख्यादिप्रपञ्चो ज्ञशरीरद्रव्यावश्यकवत्, श्रुताभिलापतो वाच्यः, यावत् 'सेतमित्यादि निगमनम् ।। ३५ ॥ द्वितीयभेदनिरूपणार्थमाह से किं तं भविअसरीरदव्वसुअं?, २ जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते जहा दव्वाव स्सए तहा भाणिअव्वं जाव से तं भविअसरीरदव्वसुअं (सू०३६) अत्र प्रतिवचा-'भविअसरीरव्वसुअं जे जीवें' इत्यादि, विवक्षितपर्यायेण भविष्यतीति भव्यो-विवक्षितपर्यायाहः तद्योग्य इत्यर्थः, तस्य शरीरं तदेव भाविभावश्रुतकारणत्वात् द्रव्यश्रुतं भव्यशरीरद्रव्यश्रुतं, किं द पुनस्तदिति, अनोच्यते, यो जीवो योनिजन्मत्वनिष्क्रान्तोऽनेनैव शरीरसमुच्छ्रयेणादत्तेन जिनोपदिष्टेन भावेन श्रुतमित्येतत् पदमागामिकाले शिक्षिष्यते न तावच्छिक्षते तज्जीवाधिष्ठितं शरीरं भव्यशरीरं द्रव्यश्रुतमित्यर्थः । शेषं व्यावश्यकवत् श्रुताभिलापेन सर्व वाच्यं, यावत् ‘से तमित्यादि निगमनम् ॥ ३६ ॥ तृतीयभेदपरिज्ञानार्थमाह अनुक्रम [३९] SEARCH ~77~ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [३७] / गाथा ||३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३६] से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं दव्वसुअं?, २ पत्तयपोत्थयलिहिअं, अहवा जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्तं व्वसुअं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-अंडयं बोंडयं कीडयं वालयं वागयं, अंडेयं हंसगब्भादि, बोंडयं कप्पासमाइ, कीडयं पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-पट्टे मलए अंसुए चीणंसुए किमिरागे, बालयं पंचविहं पपणतं, तंजहा-उपिणए उहिए मिअलोमिए कोतवे किडिसे, वागयं सणमाइ, से तं जाणयसरीरभविअ सरीरवइरित्तं दव्वसुअं, से तं नोआगमतो दव्वसुअं, से तं दव्वसुअं (सू०३७) अत्र निर्वचनम्-'जाणयसरीरभविअसरीरवइरितं दब्वसुमित्यादि, यत्र ज्ञशरीरभव्यशरीरयोः ससम्बन्धि अनन्तरोक्तखरूपं न घटते तत् ताभ्यां व्यतिरिक्तं-भिन्नं द्रव्यश्रुतं, किं पुनस्तदित्याह-'पत्तयपोल्थ यलिहियं ति पत्रकाणि-तलताल्यादिसंबन्धीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकाः, ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखितं पत्रकपुस्तकलिखितम्, अथवा 'पोत्थयं ति पोतं-बलं पत्रकाणि च पोतं च तेषु लिखितं पत्रकपोतलिखितं ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम्, अत्र च पत्रकादिलिखितस्य श्रुतस्य भाव १ प्रश्नोत्तरपूर्व व्याख्यान श सा तथाविधादर्शनुसारेण, दीप अनुक्रम [४०] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [३७] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो वति श्रुतनि मलधारीया प्रत सूत्रांक [३७] ॥३४॥ श्रुतकारणत्वात् द्रव्यत्वमवसेयं, नोआगमत्वं तु आगमतो द्रव्यश्रुत इव आगमकारणस्थात्मदेहशब्दन्न-ला यरूपस्याभावाद् भावनीपम् । तदेवमेकेन प्रकारेण ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्य श्रुतमुक्तं, साम्प्रतं तदेव प्रकारान्तरेण निरूपयितुमाह-'अहवेत्यादि, अथवा श्रुतं पञ्चविधं प्रज्ञप्तं, तबधा-अंडयमित्या-31 दि, अनाऽऽह-ननु श्रुते प्रकान्ते सूत्रस्य प्ररूपणमप्रस्तुतं, सत्यं, किन्तु प्राकृतशैलीमगीकृत्य श्रुतस्याण्ड-13 जादिसूत्रस्य च सूत्रलक्षणेनैकेन शब्देनाभिधीयमानत्वसाम्यादिदमपि प्ररूपयतीत्यदोषः, प्रसङ्गतोऽण्डजा-1 दिसूत्रखरूपज्ञापनेन शिष्यव्युत्पत्तिश्चैवं कृता भवति, अत एव भावभुते प्रक्रान्ते नामश्रुतादिनरूपणमप्रस्तुतमित्याद्यपि प्रेर्यमपास्तं, तस्यापि शिष्यव्युत्पादनादिफलत्वात्, न च भावभुतप्रतिपक्षस्य नामश्रुतादेः प्ररूपणमन्तरेण भावश्रुतस्य निर्दोषत्वादिखरूपनिश्चयः कर्तुं पार्यते, 'जे सव्वं जाणइ से एगं जाणह'त्ति वचनादित्यलं विस्तरेण । अत्राऽऽयभेदज्ञापनार्थमाह-से किं तमित्यादि, अनोत्तरम्-'अंडयं हंसगम्भाईत्ति अण्डाजातमण्डज हंसः-पतङ्गश्चतुरिन्द्रियो जीवविशेषः, गर्भस्तु तन्निर्वर्तितः कोसिकाकारो, हंसस्य गर्भो हंसगर्भः, तदुत्पन्नं सूत्रमण्डजमुच्यते, आदिशब्दः खभेदप्रख्यापनपरः । ननु यदि हंसगर्भोत्पन्नसूत्रमण्डजमुच्यते तर्हि सूत्रे 'अंडयं हंसगन्भाइ'त्ति सामानाधिकरण्यं विरुध्यते, हंसगर्भस्य प्रस्तुतसूत्रकारणत्वादेव, सत्यं, कारणे कार्योपचारात् तदविरोधा, कोशकारभवं सूत्रं चटकसूत्रमिति लोके प्रती-&ा ॥ ३४॥ तमण्डजमुच्यत इति हृदयं, पञ्चेन्द्रियहंसगर्भसम्भवमित्यन्ये, 'से तमित्यादि निगमनम् । अथ दितीय दीप अनुक्रम [४१] CCCCIENCE +964 ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [३७] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4% [३७] भेद उच्यते-से किं तमित्यादि, अत्र निर्वचनम्-'घोडयं फलिहमाह'त्ति बोंडं वमनीफलं तस्माज्जातं बोण्डजं, फलिही चमनी तस्याः फलमपि फलिहं कर्पासाश्रयं कोशकरूपं, तदिहापि कारणे कार्योपचाराहोण्डज सूत्रमुच्यते इति भावः, 'से तमित्यादि निगमनम् । अथ तृतीयभेद उच्यते-से किं तमित्यादि, अनोत्तरम्-'कीडयं पंचविहमित्यादि, कीटाजातं कीटर्ज-सूत्रं तत् पञ्चविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-पट्टेत्ति पट्टसूत्रं मलप्रायम् 'अंशुकं' चीनांशुकं कृमिरागम् , अत्र वृद्धव्याख्या-किल यत्र विषये पट्टसूत्रमुत्पद्यते, तत्रारण्ये वननिकुञ्ज-ग मास्थाने मांसचीडादिरूपस्याऽऽमिषस्य पुञ्जाः क्रियन्ते, तेषां च पुञ्जानां पाश्वेतो निम्ना उन्नताश्च सान्तरा बहवः। & कीलका भूमी निखायन्ते, तत्र बनान्तरेषु संचरन्तः पतङ्गकीटाः समागत्य मांसायामिषोपभोगलुब्धाः कील-3 कान्तरेचितस्ततः परिभ्रमन्तो लालाः प्रमुअन्ति, ताश्च कीलकेषु लग्नाः परिगृह्यन्ते, इत्येतत् पसूत्रमभिधी-1 Bायते, अनेनैव क्रमेण मलयविषयोत्पन्नं तदेव मलयम्, इत्थमेव चीनविषये बहिस्तादुत्पन्नं तदेवांशुक, इत्यमेव चीनविषयोत्पन्नं तदेव चीनांशुकमभिधीयते, क्षेत्रविशेषाद्धि कीटविशेषस्तविशेषात् तु पदसूत्रादिव्यपदेश इति भावः। एवं कचिद्विषये मनुष्यादिशोणितं गृहीत्वा केनापि योगेन युक्तं भाजनसम्पुटे स्थाप्यते, तत्र ४ाच प्रभूताः कृमयः समुत्पयन्ते, तेच वाताभिलाषिणो भाजनच्छिद्रनिर्गत्य आसन्नं पर्यटन्तो यल्लालाजा लमभिमुश्चन्ति तत् कृमिरागं पट्टसूत्रमुच्यते, तच रक्तवर्णकृमिसमुत्थत्वात् खपरिणामत एव रक्तं भवति ।। अन्ये त्वभिद्धति-यदा तत्र शोणिते कृमयः समुत्पन्ना भवन्ति तदा सकृमिकमेव तन्मलित्वा किट्टिसं परि 15755-45515 दीप अनुक्रम [४१] JaElic ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [३७] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० मलधा रीया प्रत सूत्रांक [३७]] ॥३५॥ CASSACRACKSOCT दीप अनुक्रम [४१] त्यज्य रसो गुद्यते, तत्र च कश्चिद योगः प्रक्षिप्यते, ततस्तेन यद रज्यते पट्टसूत्र तत् कृमिरागमुच्यते. तच वृत्तिः धौताद्यवस्थासु मनागपि कथश्चिद्रागं न मुञ्चन्ति, 'से तमित्यादि निगमनम् । अथ चतुर्थों भेद उच्यते-से श्रुतनिकिं तमित्यादि, अत्रोत्तरम्-'वालयं पंचविहमित्यादि, वालेभ्यः-ऊरणिकादिलोमभ्यो जातं वालजं, तत् क्षेपः पञ्चविधं प्रज्ञप्त, तद्यथा-ऊर्णाया इदमौर्णिकम् , उष्ट्राणामिदमौष्टिकम्, एते दे अपि प्रतीते, ये मृगेभ्यो इखका मृगाकृतयो बृहत्पुच्छा आटविकजीवविशेषास्तल्लोमनिष्पन्नं मृगलोमिकम्, उन्दुररोमनिष्पन्न कौतवं, ऊर्णादीनां यदुद्धरितं किहिसं तनिष्पन्नं सूत्रमपि किटिसम् , अथवा एतेषामेवोर्णादीनां बिकादिसंयोगतो निष्पन्नं सूत्रं किहिसं, अथवा उक्तशेषाश्वादिलोमनिष्पन्न किसिं 'से तमित्यादि निगमनम् । अथ पञ्चमो भेदो|ऽभिधीयते-से किं तमित्यादि, वल्काजातं वल्कजं, तच सणप्रभृति, कचित् पुनरतस्यादीति पाठः, तत्रातसीसूत्रं मालवादिदेशप्रसिद्धं, 'से तमित्यादि निगमनम् । उक्तं पश्चविधमण्डजादिसूत्रं, तणने चोक्तं ज्ञशरीरभव्यशरीरब्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतम्, अतस्तदपि निगमयति-से तं जाणगे'त्यादि, एतद्भणने च समर्थितं । नोआगमतो द्रव्यश्रुतमतस्तदपि निगमयति-से तं नोआगमओ इत्यादि, एतत्समर्थने च समर्थितं द्विविधमपि3 द्रव्यश्रुतमतस्तदपि निगमयति-से तं वसुअमित्यादि ॥ ३७॥ अथ भावश्रुतनिरूपणार्थमाहसे किं तंभावसुअं?,२ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-आगमतो अनोआगमतो अ (सू०३८) ॥३५॥ अनोत्तरम्-'भावसुअं दुविहमित्यादि, विवक्षितपरिणामस्य भवनं भावः स चासी श्रुतं चेति भाव-18|| अत्र भावश्रुतस्य भेद-प्रभेदयुक्तं विस्तृतं वर्णनं क्रियते ~81~ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [३८] / गाथा ||३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] श्रुतं भावप्रधानं वा श्रुतं भावश्रुतं, तद् द्विविधं प्रज्ञप्तम्-आगमतो नोआगमतश्च ॥ ३८ ॥ तत्राऽऽद्यभेदनि-3 रूपणार्थमाह से किं तं आगमतो भावसुअं?,२ जाणए उवउत्ते, से तं आगमतो भावसुअं (सू०३९) अत्रोत्तरं-श्रुतंपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्त आगमतः-आगममाश्रित्य भाव श्रुतं, श्रुतोपयोगपरिणामस्य सद्भा-IN यात् तस्य चाऽऽगमत्त्वादिति भावः, से तमित्यादि निगमनम् ॥ ३९ ॥ अथ द्वितीयभेद उच्यते से किं तं नोआगमतो भावसुअं?, २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-लोइअं लोगुत्तरिअं च (सू०४०) अत्रोत्तरम्-'नोआगमओ भावसुअं दुविहं पण्णत्तं, लोइयं लोउत्तरिअमित्यादि ॥ ४० ॥ अनाऽऽ-14 यभेदनिरूपणार्थमाह से किं तं लोइअं नोआगमतो भावसुअं?, २ जं इमं अण्णाणिएहि मिच्छदिट्ठीहिंसच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं, तंजहा-भारहं रामायणं भीमासुरुकं कोडिल्लयं घोडयमुहं सगडभद्दिआउ कप्पासिअं णागसुहुमं कणगसत्तरी वेसियं वइसेसियं बुद्धसासणं दीप अनुक्रम [४२] JaticRA ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [४१] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: नि अताने क्षेपः प्रत सूत्रांक [४१] दीप अनुक्रम [४५]] अनुयो. काविलं लोगायतं सद्वियंतं माढरपुराणवागरणनाडगाइ, अहवा बावत्तरिकलाओ चमलधा तारि वेआ संगोवंगा, से तं लोइयं नोआगमतो भावसुअं (सू०४१) रीया अत्र निर्वचनम्-'लोइयं भावसुअंजं इममित्यादि, लोकैः प्रणीतं लौकिकं, किं पुनस्तदित्याह-यदिदमज्ञानिकर्मिथ्यादृष्टिभिः खच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं तल्लीकिकं भावभुतमिति सम्बन्धः, तत्राल्पज्ञानभावतोऽधनवदशीलवद् वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्तेऽत आह-मिथ्यादृष्टिभिः स्वच्छन्दमतिबुद्धिविकल्पितम्, इंहावग्रहे बुद्धिः अपायधारणे तु मतिः, खच्छन्देन-खाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसार-12 मन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं खचान्दबुद्धिमतिविकल्पितं-स्वबुद्धिविकल्पनाशिल्पिनिर्मितमित्यर्थः । तत्प्रकटनार्थमेवेदमाह-तद्यथा-भारतमित्यादि, एतच्च भारतादिक नाटकादिपर्यन्तं श्रुतं लोकप्रसिद्धिगम्यम्। अथ प्रकारान्तरेण लौकिकश्रुतनिरूपणार्थमाह-'अहवा वावत्तरिकलाओं' इत्यादि, तत्र कलनानि-वस्तुपपरिज्ञानानि कलास्ताश्च द्विसप्ततिः समवायाङ्गादिग्रन्थप्रसिद्धाः, चत्वारश्च वेदाः (ग्रन्थाग्रम् १०००) सामवेहैदऋग्वेदयजुर्वेदाथर्वणवेदलक्षणाः साङ्गोपाङ्गाः, तत्राङ्गानि शिक्षा १ कल्प २व्याकरण ३ च्छन्दो ४ निरुक्त ५ ज्योतिष्कायन ६ लक्षणानि षट्, उपाङ्गानि तद्व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते इति साङ्गोपाङ्गाः। 'से तमिलत्यादि निगमनम् ।। ४१ ।। उक्तं नोआगमतो लौकिकं भावश्रुतम् , अथ लोकोत्तरिकं तदेवाऽऽह RAKHABAR ॥३६॥ ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [४२] / गाथा ||३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: SCOR प्रत सूत्रांक [४२]] दीप से किं तं लोउत्तरिअं नोआगमतो भावसुअं?, २ जे इमं अरिहंतेहिं भगवतेहिं उप्पण्णणाणदसणधरेहिं तीयपचुप्पण्णमणागयजाणएहिं सवण्णूहिं सबदरिसीहिं तिल्लुक्कवहितमहितपूइएहिं अप्पडिहयवरणाणदंसणधरेहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं, तंजहा-आयारो सूअगडो ठाणं समवाओ विवाहपण्णत्ती नायाधम्मकहाओ उवासगदसाओ अंतगडदसाओ अणुत्तरोववाइअदसाओ पण्हावागरणाई विवागसुअं, दिट्रीवाओ अ, सेतं लोउत्तरियं नोआगमतो भावसुअं, से तं नोआगमतो भावसुअं, से तं भावसुअं (सू०४२) लोकोत्तरैः-लोकप्रधानरहद्भिः प्रणीतं लोकोत्तरिकं, किं पुनस्तदित्याह-'लोउत्तरियं भावसुअंजं इममित्यादि, यदिमहद्भिर्यादशाङ्गं गणिपिटकं प्रणीतं तल्लोकोत्तरिक भावश्रुतमिति सम्बन्धः, तद्यथा-'आयारो सुयगडमि'(डो इत्यादि, तत्र सदेवमनुजासुरलोकविरचितां पूजामहन्तीति अर्हन्तस्तैः, एवंभूताश्चातीर्थकरा अपि केवल्यादयो भवन्त्यतस्तीर्थकरप्रतिपत्तये आह-'भगवद्भिरि'ति, समस्तैश्वर्यनिरुपमरूपयशाश्रीधर्मप्रयत्नवद्भिरित्यर्थः, इत्थंभूताश्च अनायप्रतिघज्ञानादिमन्तः केचित् कैश्चिदभ्युपगम्यन्ते, उक्तं चैतदादिभि:-"ज्ञानम अनुक्रम [४६] ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूल [४२] / गाथा ||३...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अनुयो मलधारीया सूत्रांक [४२] ॥३७॥1 दीप प्रतिधं यस्थ, वैराग्यं च जगत्पतेः। ऐश्वर्यं चैव धर्मश्च, सह सिद्धं चतुष्टयम् ॥१॥” इत्यादि । अतस्तव्य-II वृत्तिः बच्छेदार्थमाह-ज्ञानावरणक्षपणादिप्रकारेणोत्पन्ने न तु सहजे ज्ञानदर्शने धरन्तीत्युत्पन्नज्ञानदर्शनधरास्तैः, न || श्रुतनिच प्रस्तुतविशेषणव्यवच्छेद्या अप्येवंभूता एव, 'सह सिद्धं चतुष्टयमित्यादिवचनविरोधप्रसहात, तर्हि सुगता81 क्षेपः इत्थंभूता अपि भविष्यन्तीत्याशङ्कयाऽऽह-तीयपचुप्पण्णे त्यादि, अतीतवर्तमानभविष्यदर्पज्ञायकैरियर्थः, न च सुगतानामतीतभविष्यदर्थज्ञातृत्वसम्भवः, एकान्तक्षणभङ्गवादित्वेन तदसत्त्वाभ्युपगमादू, असतां च ग्रहणेऽतिप्रसङ्गाद्, अथ सन्तानद्वारेण कालत्रयेऽप्यर्थानां सहावादतीताद्यर्थज्ञातृत्वं तेषामपि न विहन्यत इत्याशङ्कयाह-'सर्वदर्शिभि'रिति, सर्वम्-एकेन्द्रियहीन्द्रियजीवादि वस्तु केवलज्ञानेन जानन्तीति स ज्ञाः, तदेव सर्वं केवलदर्शनेन पश्यन्तीति सर्वदर्शिनस्तैः, शाक्यानां त्वतीताद्यर्थज्ञातृत्वेऽपि सर्वज्ञादित्वं नोपपद्यते, कतिपयधर्मायभीष्टपदार्थज्ञातृत्वस्यैव तेष्वभ्युपगमादू, यत उक्तं तच्छिष्यैः-"सर्व पश्यतु मा वाऽसाविष्टमर्थं तु पश्यतु । कीटसङ्ख्यापरिज्ञानं, तत्र नः कोपयुज्यते ? ॥१॥” इत्यादि, यथोक्तगुणविशिष्टवात् 'तिलुकवहियमहियेत्यादि, बहिय'त्ति विगलहद्दलानन्दाश्रुदृष्टिभिः सहर्ष निरीक्षिता यथावस्थितानन्यसाधारणगुणोत्कीर्तनलक्षणेन भावस्तवेन महिता-अभिष्टुताः सुगन्धिपुष्पप्रकरक्षेपादिना तु द्रब्यस्तवेन पूजिताः, तत एषां बन्ये त्रैलोक्येन-भवनपतिव्यन्तरनरविद्याधरवैमानिकादिसमुदायलक्षणेन बहि ॥३७॥ १प्रसन्तरे नास्ति. अनुक्रम [४६] ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [४२] / गाथा ||३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: 4% 82-5 प्रत सूत्रांक [४२] तमहितपूजितास्तैः, अनाऽऽह-ननूत्पन्नज्ञानदर्शनधरैरित्युक्तम्, उत्पत्तिमत् सप्रतिघं दृष्टं यथा मूर्तेष्ववध्यादिज्ञानं, उत्पन्ने च तज्ज्ञानदर्शने अभ्युपगते, अतस्ताभ्यां ते सप्रतिघज्ञानिनः प्राप्नुवन्ति, तथा च पूर्वोक्तसर्वज्ञत्वादिहानिरित्याशङ्कयाऽऽह-'अप्रतिहतवरज्ञानदर्शनधरैरिति, समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वाप्रतिहते-मूर्तामूर्तेषु समस्तवस्तुष्वस्खलिते अत एव वरे-प्रधाने केवलज्ञानदर्शनलक्षणे ज्ञानदर्शने धरन्ति येते तथा तैः, यत्ववध्यादेः सप्रतिघत्वं तनोत्पत्तिमत्त्वेन, किं तर्हि !, आवरणसद्भावाद, अतोऽप्रतिघकेवलज्ञानदर्शने समस्तावरणक्षयसम्भूतत्वात्, तत्क्षयेऽपि सप्रतिघत्वाभ्युपगमेऽतिप्रसङ्गाद, इदं च विशेषणं कस्याश्चि-11 देव वाचनायां दृश्यते, न सर्वत्र, तदेवं यथोक्तप्रकारेण तावद् व्याख्यातान्यमूनि विशेषणानि, अन्यथा वा|ऽविरोधतः सुधिया व्याख्येयानि । तैरर्थकथनद्वारेण 'प्रणीतं' प्ररूपित, किं तदू?-'बादशाङ्गं श्रुतं' परमपुरुषस्याङ्गानीवाङ्गानि द्वादश अङ्गानि-आचारादीनि यत्र तद् द्वादशाझं, किंभूतं?-'गणिपिटक' गुणगणोऽस्यास्तीति गणी-आचार्यस्तस्य पिटक-सर्वखं गणिपिटक, तद्यथा-आचार इत्यादि सुगमम् । अत्र बादशाङ्गश्रुतस्य चरणगुणसमन्वितस्य विवक्षितत्वानोआगमत्वं भावनीयं, देशस्य चरणगुणलक्षणस्थानागमत्वानोशब्दस्य च देशप्रतिषेध(क)खेनाश्रयणादू, एवं पूर्वत्रापि लौकिकभावश्रुते वाच्यम्, निगमयमाह-से तं लोउत्तरिय मित्यादि । एतगणने च समर्थितं द्विविधमपि नोआगमतो भावश्रुतम् , अतस्तदपि निगमयति -से तं नोआगमतो भावसुअं इत्यादि । एतगणने चोक्तं सर्वमपि भावभुतमतो निगमयति-से तं भाव-| दीप अनुक्रम [४६] ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [४३] / गाथा ||४|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत IM वृत्तिः सत्राक अनुयो मलधारीया श्रुतनि [४३] क्षेपः ॥३८॥ गाथा ||१|| सुमिति ॥ ४२ ॥ तदेवं स्वरूपत उक्तं भाव श्रुतमनेनैव चात्राधिकार इस्यतोऽस्यैव पर्यायनिरूपणार्थमाह तस्स णं इमे एगट्रिआ णाणाघोसा णाणावंजणा नामधेजा भवंति, तंजहा-सुअसुत्तगंथसिद्धंतसासणे आणवयण उवएसे। पन्नवण आगमेऽवि अ एगट्टा पज्जवा सुत्ते ॥१॥ (8) से तं सुअं (सू० ४३) 'तस्य' श्रुतस्य 'अमूनि' अनन्तरमेव वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षाणि एकाथिकानि तत्वत एकार्थविषयाणि 'नानाघोपाणि' पृथगभिन्नोदात्तादिखराणि 'नानाव्यञ्जनानि' पृथगभिन्नाक्षराणि 'नामधेयानि' पर्यायध्वनिरूपाणि भव-18 |न्ति, तद्यथा-'सुअंगाहा, व्याख्या-गुरुसमीपे श्रुयत इति श्रुतम्, अर्थानां सूचनात् सूत्रं, विप्रकीर्णार्थग्रन्थनाद ग्रन्धः, सिई-प्रमाणप्रतिष्ठितमर्थमन्तं-संवेदननिष्ठारूपं नयतीति सिद्धान्तः, मिथ्यात्वाविरतिकषायादिनवृत्तजीवानां शासनात्-शिक्षणाच्छासनं, प्रवचनमिति पाठान्तरं, तत्रापि प्रशस्तं प्रधानं प्रथमं वा वचनं प्रवचनं, मोक्षार्थमाज्ञाप्यन्ते प्राणिनोनयेत्याज्ञा, उक्तिर्वचनं वाग्योग इत्यर्थः, हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपदेशनादुपदेशः, यथावस्थितजीचादिपदार्थज्ञापनात् प्रज्ञापना, आचार्यपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, आप्तवचनं वाऽऽगम इति, 'सूत्रे मूत्रविषये एकार्थाः पर्याया इति गाथार्थः ॥ १ ॥ 'से तं सुमित्यादि, तदेतन्नामादिभेदै रुक्तं श्रुतमित्यर्थः । [इति अनुयोगद्वारग्रन्थे श्रुताधिकारः कथितः ॥ ४३ ॥ अथ स्कन्धाधिकारः कथ्यते-] ट्रासाम्प्रतं यदुक्तं 'स्कन्धं निक्षेप्स्यामी ति, तत्सम्पादनार्थेमुपक्रमते दीप अनुक्रम [४७-४९] ॥३८॥ ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [४४] / गाथा ||४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [५०] से किं तं खंधे ?, २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-नामखंधे ठवणाखंधे दव्वखंधे भाव खंधे ( सू०४४) अथ किं तत् स्कन्ध इत्युच्यते इति प्रश्ने निर्वचनमाह-खंधे चउब्बिहे' इत्यादि । ४४ ॥ नामट्रवणाओ पुश्वभणिआणुक्कमेण भाणिअव्वाओ (सू०४५) अत्र नामस्कन्धस्थापनास्कन्धप्रतिपादकसूत्रं नामस्थापनावश्यकप्रतिपादकसूत्रव्याख्यानुसारेण खयमेव भावनीयम् ॥ ४५ ॥ से किं तं दव्वखंधे ?, २ दुविहे पण्णते, तंजहा आगमतो अ नोआगमतो अ, से किं तं आगमओ दव्वखंधे ?, २ जस्स णं खंधेत्ति पयं सिक्खियं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणिअव्वं, नवरं खंधाभिलावो जाव से किं तं जाणयसरीरभविअसरी रखइरित्ते दव्वखंधे ?, २तिविहे पपणत्ते, तंजहा-सच्चित्ते अचित्ते मीसए (सू०४६) द्रव्यस्कन्धसूत्रमपि भव्यशरीरद्रब्यस्कन्धसूत्रं यावद् द्रव्यावश्यकोक्तव्याख्यानुसारेणैव भावनीय, प्राय१ गयाओ प्र. अथ 'स्कन्धस्य नाम-आदि चत्वार: निक्षेपा: प्ररुप्यते ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [४६] / गाथा ||४...|| ....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत रीया सूत्रांक [४६] दीप अनुक्रम [५२ अनुयोस्तु ल्यवक्तव्यत्वादिति । 'से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवहरिते दब्बखंधे' इति प्रश्ने निर्वचनमाह-जा-151 वृत्तिः मलधा- णयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वखंधे तिविहे पन्नत्ते' इत्यादि, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्यस्कन्धखि- स्कन्धविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सचित्तोऽचित्तो मिश्रः॥४६॥ तत्राऽऽयभेदं जिज्ञासुः पृच्छति क्षेपः ॥ ३९ ॥ से किं तं सचित्ते दब्वखंधे ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-हयखंधे गयखंधे किन्नर खंधे किंपुरिसखंधे महोरगखंधे गंधब्वखंधे उसभखंधे से तं सचित्ते दव्वखंधे (सू०४७) अनोत्तरम्-'सचित्तद्वखंधे अणेगविहे पण्णत्ते' इत्यादि, चित्तं मनो विज्ञानमिति पर्यायाः, सह चि-15 तेन वर्तत इति सचित्तः, स चासो द्रव्यस्कन्धश्चेति सचित्तद्रव्यस्कन्धः, 'अनेकविधों व्यक्तिभेदतोऽनेकप-II कारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'हयस्कन्ध' इत्यादि, हयः-तुरगः स एच विशिष्टैकपरिणामपरिणतत्वात् स्कन्धो हयस्कन्धः, एवं गजस्कन्धादिष्यपि समासः, नवरं किन्नरकिम्पुरुषमहोरगा व्यन्तरविशेषाः 'उसभ'त्ति वृषभः,15 कचिद्गन्धर्वस्कन्धादीन्यधिकान्यप्युदाहरणानि दृश्यन्ते, सुगमानि च, नवरं 'पसुपसयविहगवानरखंधेत्ति कचिद् दृश्यते, तत्र पशुः-छगलका, पसयस्तु आटविको द्विखुरः चतुष्पदविशेषः, विहगः-पक्षी, वानरः-प्रतीतः, स्कन्धशब्दस्तु प्रत्येकं द्रष्टव्यः । इह च सचित्तस्कन्धाधिकाराज्जीवानामेव च परमार्थतः सचेतनत्वात् ॥ ३९ ॥ कथश्चिच्छरीर। सहाभेदे सत्यपि हयादीनां सम्बन्धिनो जीवा एव विवक्षिता न तु तदधिष्ठितशरीराणीति ~89~ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [४७] / गाथा ||४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४७] सम्प्रदाया, न च जीवानां स्कन्धत्वं नोपपद्यते, प्रत्येकमसङ्ख्येयप्रदेशात्मकत्वेन तेषां स्कन्धत्वस्य सुप्रतीतत्वादिति, हयस्कन्धादीनामन्यतरेणैकेनाप्युदाहरणेन सिद्धं, किं प्रभूतोदाहरणाभिधानेनेति चेत्, सत्यं, किन्तु पृथग्मिनस्वरूपविजातीयस्कन्धबहुत्वाभिधानेनाऽऽत्माद्वैतवादं निरस्थति, तथाऽभ्युपगमे मुक्तेतरादिब्यव-| हारोच्छेप्रसङ्गात्, ‘से तमित्यादि निगमनम् ॥४७॥ अथाचित्तद्रव्यस्कन्धनिरूपणार्थमाह से किं तं अचित्ते दव्वखंधे?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए संखिजपएसिए असंखिज्जपएसिए अणंतपएसिए, से तं अचित्ते दव्वखंधे (सू०४८) अत्र निर्वचनम्-'अचित्तदव्वखंधे इत्यादि, अविद्यमानचित्तोऽचित्तः स चासौ द्रव्यस्कन्धश्चेति समासः, अयमनेकविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-द्विप्रदेशिकः स्कन्ध इत्यादि, तत्र प्रकृष्टः पुद्गलास्तिकायदेशः प्रदेशः परमाणुरित्यर्थः, बी प्रदेशी यन्त्र स बिप्रदेशिकः स चासौ स्कन्धश्च विप्रेशिकस्कन्धा, एवमन्यत्रापि यथायोगं समासः । 'सेत मित्यादि निगमनम् ॥४८॥ अथ मिश्रद्रव्यस्कन्धनिरूपणायाऽऽह से किं तं मीसए दव्वखंधे ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-सेणाए अग्गिमे खंधे सेणाए मज्झिमे खंधे सेणाए पच्छिमे खंधे, से तं मीसए दव्वखंधे (सू०४९) दीप अनुक्रम [५३] SSSSS ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [४९] / गाथा ||४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो क्षेप: प्रत सुत्रांक [४९]] दीप अत्रोत्तरम्-'मीसए दब्वखंधे सेणाएं इत्यादि, सचेतनाचेतनसंकीर्णो मिश्रः स चासौ द्रव्यस्कन्धश्चेति मलधा- मिश्रद्रव्यस्कन्धः, कोऽसावित्याह-सेनायाः-हस्त्यश्वरथपदातिसन्नाहखड्गकुन्तादिसमुदायलक्षणायाः अग्रस्करीया न्धोऽग्रानीकमित्यर्थः, मध्यमस्कन्धो मध्यमानीकं, पश्चिमस्कन्धः पश्चिमानीकम् , एतेषु हि हस्त्यादयः स-ol चित्ताः खङ्गादयस्त्वचित्ता इत्यतो मिश्रत्वं भावनीयमिति । 'से तमित्यादि निगमनम् । तदेवमेकेन प्रकारेण | ॥४०॥ मतपतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः प्ररूपितः॥४९॥ अथ तमेव प्रकारान्तरेण प्ररूपयितुमाह अहवा जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वखंधे तिविहे पण्णते, तंजहा-कसिणखंधे अकसिणखंधे अणेगदवियखंधे (सू०५०) | 'अथवा' अन्येन प्रकारेण ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धस्त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-कृत्लस्कन्धः अकृत्स्नस्कन्धोग्नेकद्रव्यस्कन्धः॥४९॥ तत्राऽऽद्यभेदनिरूपणार्थमाह से किं तं कसिणखंधे ?, २ से चेव हयक्खंधे गयक्खंधे जाव उसभखंधे, से तं कसिण खंधे (सू० ५१) अत्रोत्तरम्-'कसिणक्खंधे' इत्यादि, यस्मादन्यो बृहत्तरः स्कन्धो नास्ति स कृस्नः-परिपूर्णः स्कन्धः कृ-IXI॥४॥ त्लस्कन्धः, कोऽयमित्याह-से चेवेत्यादि, स एव हयखंधेत्यादिनोपन्यस्तो हयादिस्कन्धः कृत्स्नस्कन्धः। आह अनुक्रम [५५] Jantial ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [५१] / गाथा ||४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] दीप लयद्येवं प्रकारान्तरत्वमसिहं, सचित्तस्कन्धस्यैव संज्ञान्तरेणोक्तखात्, नैतदेवं, प्राग सचित्तद्रव्यस्कन्धाधिकारात् तथाऽसम्भविनोऽपि वुद्ध्या निष्कृष्य जीवा एवोक्ताः, इह तु जीवतदधिष्ठितशरीरावयवलक्षणः समुदायः कृत्लस्कन्धत्वेन विवक्षित इत्यतोऽभिधेयभेदात् सिद्धं प्रकारान्तरत्वम् । यद्येवं तर्हि हयादिस्कन्धस्य कृत्लत्वं नोपपद्यते, तदपेक्षया गजादिस्कन्धस्य बृहत्तरत्वात्, नैतदेवं, यतोऽसवयेयप्रदेशात्मको जीवस्तदधिष्ठिताश्च शरीरावयवा इत्येवंलक्षणः समुदायो हयादिस्कन्धत्वेन विवक्षितो जीवस्य चासङ्घयेयप्रदेशात्मकतया सर्वत्र तुल्यत्वाद्जादिस्कन्धस्य बृहत्तरत्वमसिद्ध, यदि हि जीवप्रदेशपुगलसमुदाय: सामस्त्येन वढेत तदा स्याद्गजादिस्कन्धस्य बृहत्त्वं, तच नास्ति, समुदायवृद्ध्यभावात्, तस्मादितरेतरापेक्षया जीवप्रदेशपुद्गलसमुदायस्य | महीनाधिक्याभावात् सर्वेऽपि हयादिस्कन्धाः परिपूर्णत्वात् कृत्स्नस्कन्धाः । अन्ये तु पूर्व सचित्तस्कन्धविचारे जीवतदधिष्ठितशरीरावयवसमुदायः सचित्तस्कन्धोऽत्र तु शरीरात् बुद्ध्या पृथक्कृत्य जीव एव केवलः कृत्ल-] स्कन्ध इति व्यत्ययं व्याचक्षते, अत्र च व्याख्याने प्रेर्यमेव नास्ति, हयगजादिजीवानां प्रदेशतो हीनाधिक्याभावेन कृत्लस्कन्धत्वस्य सर्वत्राविरोधादित्यलं प्रसङ्गेन ॥ ५१ ॥ से तमित्यादि निगमनम् । अथाकृनस्कन्धनिरूपणार्थमाह से किं तं अकसिणखंधे ?, २ सो चेव दुपएसियाइखंधे जाव अणंतपएसिए खंधे, से तं अकसिणखंधे (सू० ५२) अनुक्रम [५७] ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१२] / गाथा ||४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत वृत्तिः स्कन्धक्षेप: सूत्रांक [४२] दीप अनुयो० अनोत्तरम्-'अकसिणखंधे से चेवे' त्यादि, न कृत्लोऽकृत्लः स चासौ स्कन्धश्चाहरलस्कन्धो यस्मादमलधा- न्योऽपि वृहत्तरः स्कन्धोऽस्ति सोऽपरिपूर्णत्वादकृत्स्नस्कन्ध इत्यर्थः । कश्चायमित्याह से चेवेत्यादि, स एवं रीया |'दुपएसिए खंधे तिपएसिए खंधे' इत्यादिना पूर्वमुपन्यस्तो द्विप्रदेशिकादिरकृत्लस्कन्ध इत्यर्थः, बिप्रदेशिकस्य ॥४१॥ त्रिप्रदेशिकापेक्षयाऽकृत्स्नत्वात्, त्रिप्रदेशिकस्यापि चतुष्पदेशिकापेक्षयाऽकृत्लत्वाद्, एवं तावद्वाच्यं यावत् काल्यं नापद्यत इति । पूर्व बिप्रदेशिकादि: सर्वोत्कृष्टप्रदेशश्च स्कन्धः सामान्येनाचित्ततया प्रोक्तः, इह तु सर्वोत्कृष्टस्कन्धारोवर्तिन एवोत्तरोत्तरापेक्षया पूर्वपूर्वतरा अकृत्लस्कन्धत्वेनोक्ता इति विशेषः । 'सेत'-| शामित्यादि निगमनम् ॥५२॥ अथानेकद्रव्यस्कन्धनिरूपणार्थमाह से किं तं अगदवियखंधे ?, २ तस्स चेव देसे अवचिए तस्स चेव देसे उवचिए, से तं अणेगदविअखंफे, से तं जाणयसरीरभवियसरीवइरित्तेदव्वखंधे, से तं नोआगमओ दव्वखंधे, से तं दव्वखंधे (सू०५३) अनोत्तरम्-'अणेगदवियखंधे तस्स चेवेत्यादि, अनेकद्रव्यश्चासौ स्कन्धश्चेति समासः, तस्यैवेत्यत्रानुवर्तमानं स्कन्धमानं संबध्यते, ततश्च तस्यैव यस्य कस्यचित् स्कन्धस्य यो 'देशो-'नखदन्तकेशादिलक्षण: "अपचितों' जीवप्रदेशैविरहितो, यश्च तस्यैव 'देशः' पृष्ठोदचरणादिलक्षण 'उपचितों जीवप्रदेशाप्त इत्यर्थः, अनुक्रम [५८] ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१३] / गाथा ||४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३] तयोर्यधोक्तदेशयोविशिष्टैकपरिणामपरिणतयोयाँ देहाख्यः समुदायः सोऽनेक व्यस्कन्धः, सचेतनाचेतनानेकद्रव्यात्मकत्वादिति भावः । स चैवंभूतः सामर्थ्यात्तुरगादिस्कन्ध एव प्रतीयते । पयेवं तर्हि कृत्स्नस्कन्धादस्य को विशेष इति चेदू, उच्यते, स किल यावानेव जीवप्रदेशानुगतस्तावानेव विवक्षितो, न तु जीवप्रदेशाव्याप्तनखाद्यपेक्षया, अयं तु नखाद्यपेक्षयाऽपीति विशेषः । पूर्वोक्तमिश्रस्कन्धादस्य तर्हि को विशेष इति चेदू, उच्यते, तत्र खगाद्यजीवानां हस्त्यादिजीवानां च पृथगव्यवस्थितानां समूहकल्पनया मिश्रस्कन्धत्वमुक्तम् । अत्र तु जीवप्रयोगतो विशिष्टैकपरिणामपरिणतानां सचेतनाचेतनद्रव्याणामनेकद्रव्यस्कन्धत्वमिति विशेष इत्यलं प्रसनेन । 'सेत' मित्यादि निगमनम् । तदेवमुक्तो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यति|रिक्तो द्रव्यस्कन्धा, तगणने च समर्थितो नोआगमतो द्रव्यस्कन्धविचारः, तत्समर्थने च समर्थितो द्रव्यस्कन्ध इति ॥ ५३ ॥ अथ भावस्कन्धनिरूपणार्धमाह से किं तं भावखंधे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ नोआगमओ अ (सू०५४) अत्रोत्तरम-भावसंधे दविहे' इत्यादि, भावश्चासौ स्कन्धश्च भावस्कन्धः, भावमाश्रित्य वा स्कन्धो भावस्कन्धः, स च विविधः प्रज्ञसा, तद्यथा-आगमतश्च मोआगमतश्च ॥५४॥ से किं तं आगमओ भावखंधे ?,२ जाणए उवउत्ते, सेतं आगमओ भावखंधे (सू०५५) ST दीप अनुक्रम [५९] ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [५५] / गाथा ||४...|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मलधारीया वृत्तिः स्कन्धक्षेपः प्रत सूत्रांक [५५] ॥४२॥ तन्नाऽऽगमतः स्कन्धपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः तदुपयोगानन्यवाद्भावस्कन्धः ॥५५॥ से किं तं नोआगमओ भावखंधे ?, २ एएसिं चेव सामाइअमाइयाणं छण्हं अज्झयणाणं समुदयसमिइसमागमेणं आवस्सयसुअखंधे भावखंधेत्ति लब्भइ, से तं नोआग मओ भावखंधे, से तं भावखंधे (सू० ५६) नोआगमतस्तु एतेषामेव प्रस्तुतावश्यकभेदानां सामायिकादीनां षण्णामध्ययनानां समुदायः, स चैतेषां विशकलितानामपि तथाविधदेवदत्तादीनामिव स्यादत उच्यते-समुदयस्य समितिः-नैरन्तर्येण मीलना, सा च नैरन्तर्यावस्थापितायःशलाकानामिव परस्परनिरपेक्षाणामपि स्यादत उच्यते-तस्याः समुदयसमितेयः। समागमः-परस्परं सम्बद्धतया विशिष्टैकपरिणामः समुदयसमितिसमागमस्तेन निष्पन्नो य आवश्यकश्रुतस्कन्धः स 'भावस्कन्ध इति 'लभ्यते' प्राप्यते भवति इति हृदयम् । इदमुक्तं भवति-सामायिकादिषडध्ययनसंहशतिनिष्पन्न आवश्यकश्रुतस्कन्धो मुखवस्त्रिकारजोहरणादिव्यापारलक्षणक्रियायुक्ततया विवक्षितो नोआगमतो भावस्कन्धा, नोशन्दस्य देशे आगमनिषेधपरत्वात् क्रियालक्षणस्य च देशस्थानागमत्वादिति भावः । 'से है तमित्यादि निगमनम् । तदेवं प्रतिपादितो द्विविधोऽपि भावस्कन्ध इति निगमयति-से तं भावखंधेति॥५६॥ इदानीं त्वस्यैव एकार्थिकान्यभिधित्सुराह RAKES दीप अनुक्रम [६१] ॥४२॥ ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...................... मूलं [१७] / गाथा ||५|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [५७] गाथा ||१|| तस्स णं इमे एगट्टिया णाणाघोसा णाणावंजणा नामधेजा भवंति, तंजहा-गण काए अ निकाए खंधे वग्गे तहेव रासी अ। पुंजे पिंडे निगरे संघाए आउल समूहे ॥१॥(५) से तं खंधे (सू० ५७) गतार्थम् । 'गण काए'गाहेति, व्याख्या-मल्लादिगणवद्गणः, पृथिवीकायादिवत् कायः, षडूजीवनिकायवन्नि-2 |कायः, श्यादिपरमाणुस्कन्धवत् स्कन्धा, गोवर्गवद् वर्गः, शालिधान्यादिराशिवद् राशिः, विप्रकीर्णपुञ्जीकृतधान्यादिपुञ्जवत् पुञ्जः, गुडादिपिण्डवत् पिण्डः, हिरण्यद्रव्यादिनिकरवन्निकरः, तीर्थादिषु सम्मीलितजनस सातवत् सङ्घाता, राजगृहाङ्गणजनाकुलवदाकुलः, पुरादिजनसमूहवत् समूहा, एते भाषस्कन्धस्य पर्यायवापचका ध्वनय इति गाथार्थः॥१॥'से तमित्यादि निगमनम् ।[इति स्कन्धाधिकारः कथितः ॥ ५७॥ अथ आवश्यकषडध्ययनविवरणं कथ्यते] आवस्सगस्स णं इमे अत्याहिगारा भवंति, तंजहा-सावज्जजोगविरई उक्त्तिण गुणवओ अ पडिवत्ती। खलिअस्स निंदणा वणतिगिच्छ गुणधारणा चेव ॥१॥ (६)(सू०५८) आह-नन्वावश्यके किमिति षडध्ययनानि?, अत्रोच्यते, षडाधिकारयोगात्, के पुनस्ते इत्याशङ्कय तदुपदशेनार्चमाह-'आवस्सगस्स णमित्यादि, आवश्यकस्य 'एते' वक्ष्यमाणा अर्थाधिकारा भवन्ति, तद्यथा-सा SECCASION-GOGA दीप अनुक्रम [६३-६५]] भत्र आवश्यकस्य षड् अर्थाधिकारा: वर्णयते ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [५८] / गाथा ||६|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राका आवश्य [५८ रीया गाथा ||१|| अनुयो बज्जजोग'गाहा, व्याख्या-प्रथमे सामायिकलक्षणे अध्ययने प्राणातिपातादिसर्वसावद्ययोगविरतिराधिकारः, वृत्तिः मलधा- 131'उकित्तणत्ति द्वितीये चतुर्विशतिस्तवाध्ययने प्रधानकर्मक्षयकारणत्वाल्लब्धबोधिविशुद्धिहेतुत्वात् पुनर्बोधि-10 लाभफलत्वात् सावद्ययोगविरत्युपदेशकत्वेनोपकारित्वाच तीर्थङ्कराणां गुणोत्कीर्तनार्थाधिकारः, 'गुणवओ। अर्थाधिक य पडिवत्तित्ति गुणा-मूलोत्सरगुणरूपा व्रतपिण्डविशुद्ध्यादयो विद्यन्ते यस्य स गुणवाँस्तस्य प्रतिपत्तिः-वन्द॥४३॥ नादिका कर्तव्येति तृतीये वन्दनाध्ययनेऽर्थाधिकारः, चशब्दात् पुष्टालम्बनेऽगुणवतोऽपि प्रतिपत्तिः कर्तव्येति । द्रष्टव्यम्, उक्तं च-"परियोय परिस पुरिसं खेत्तं कालं च आगमं नाउं । कारणजाए जाए जहारिहं जस्स जं जोगं ॥१॥” 'खलियस्स निंदण'त्ति स्खलितस्य-मूलोत्तरगुणेषु प्रमादाचीर्णस्य प्रत्यागतसंवेगस्य जन्तो-11 विशुद्धयमानाध्यवसायस्याकार्यमिदमिति भावयतो निन्दा प्रतिक्रमणेऽर्थाधिकारः, 'वणतिगिच्छत्ति वणचि-16 दकित्सा कायोत्सर्गाध्ययनेऽर्थाधिकारः, इदमुक्तं भवति-चारित्रपुरुषस्य योऽयमतिचाररूपो भावव्रणस्तस्य दश-16 विधप्रायश्चित्सभेषजेन कायोत्सर्गाध्ययने चिकित्सा प्रतिपाद्यते, 'गुणधारणा चेवत्ति गुणधारणा प्रत्याख्या-11 |नाध्ययने अर्धाधिकार, अयमत्र भावार्थ:-मूलगुणोत्तरगुणप्रतिपत्तिस्तस्याश्च निरतिचारं सन्धारणं यथा भवति तथा प्रत्याख्यानाध्ययने प्ररूपणा करिष्यते, चशब्दादन्येऽप्यवान्तरार्थाधिकारा विज्ञेयाः, एबकारोऽवधारण इति गाथार्थः ॥ १ ॥ तदेवं यदादौ प्रतिज्ञातम् 'आवश्यकं निक्षेप्स्यामी'त्यादि, तत्रावश्यक १पर्याय पर्षदं पुरुष क्षेत्र कासं चाममं च झाला । कारणजाते जाते यथाई यस्य योग्यम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [६६-६७] ॥५३॥ ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) ཎྜཱཡྻཱ + ཛཡྻཱསྶ |||| [६८-६९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [५८] / गाथा ||७|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Ebene श्रुतस्कन्धलक्षणानि त्रीणि पदानि निक्षिप्तानि, साम्प्रतं त्वध्ययनपदमवसरायातमपि न निक्षिप्यते, वक्ष्यमाणनिक्षेपानुयोगद्वार ओघनिष्पन्ननिक्षेपे तस्य निक्षेप्स्यमानत्वाद्, अत्रापि भणने च ग्रन्थगौरवापत्तेरिति | ॥ ५८ ॥ इदानीमावश्यकस्य यद्व्याख्यातं तच (यच्च) व्याख्येयं तदुपदर्शयन्नाह - आवस्सस्स एसो पिंडत्थो वण्णिओ समासेणं । एत्तो एक्केकं पुण अज्झयणं कित्तइस्तामि ॥ १ ॥ ( ७ ) तंजहा - सामाइअं चडवीसत्थओ वंदणयं पडिकमणं काउस्सग्गो पञ्चक्खाणं । तत्थ पढमं अज्झयणं सामाइयं, तस्स णं इमे चत्तारि अणुओगदारा भवंति, तंजहा- उक्कमे १ निक्खेवे २ अणुगमे ३ नए ४ ( सू ५९ ) व्याख्या- 'आवश्यकस्य' आवश्यकपदाभिधेयस्य शास्त्रस्य 'एष:' पूर्वोक्तप्रकार: 'पिण्डार्थः' समु दायार्थो 'वर्णितः' कथितः 'समासेन' संक्षेपेण, इदमत्र हृदयम् - आवश्यकश्रुतस्कन्ध इति शास्त्रनाम पूर्व व्याख्यातं तच सान्वर्थे, ततश्च यथा सान्वर्थादाचारादिनामत एव तद्वाच्यशास्त्रस्य चारित्राद्याचारोऽत्राभिधास्यत इत्यादिलक्षणः समुदायार्थः प्रतिपादितो भवति, एवमत्राप्यावश्यकश्रुतस्कन्ध इति सान्वर्थनामकथनादेवावश्यं करणीयं सावद्ययोगविरत्यादिकं वस्त्वन्नाभिधास्यत इति समुदायार्थः प्रतिपादितो भवति, अत ऊर्ध्वं पुनरेकैकमध्ययनं 'कीर्तयिष्यामि' भणिष्यामीति गाथार्थः ॥ १ ॥ तत्कीर्तनार्थमेवाऽऽह तद्यथा For P&Praise City ~98~ www.y Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [५९] / गाथा ||७|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राका [५८) गाथा अनुयोसामायिक चतुर्विशतिस्तवो वन्दनं प्रतिक्रमणं कायोत्सर्गः प्रत्याख्यानम् । 'तत्र' तेषु अनन्तरोद्दिष्टेषु षट्सु वृत्तिः मलधा अध्ययनेषु मध्ये 'प्रथमम् आद्यमध्ययनं सामायिकम् , आग्रुपन्यासश्चास्य निःशेषचरणादिगुणाधारत्वेन | आवश्यरीया प्रधानमुक्तिकारणत्वात्, उक्तं च-"सामायिकं गुणानामाधारः खमिव सर्वभावानाम् । न हि सामायिकही- अर्थाधि. नाश्चरणादिगुणान्विता येन ॥१॥ तस्माजगाद भगवान् सामायिकमेव निरुपमोपायम् । शारीरमानसाने॥४४॥ कदुःखनाशस्य मोक्षस्य ॥२॥" तन बोधादेरधिकमयनं-प्रापणमध्ययनं प्रपञ्चतो वक्ष्यमाणशब्दार्थ, 'सामा यिक मित्यत्र यः सर्वभूतान्यात्मवत् पश्यति स रागद्वेषवियुक्तः समः तस्याऽऽयः-प्रतिक्षणं ज्ञानादिगुणोत्कर्षप्राप्तिः समायः, समो हि प्रतिक्षणमपूर्वेः ज्ञानदर्शनचरणपर्यायैर्भवाटवीभ्रमणहेतुसंक्लेशविच्छेदकैर्निरुपमसुखहेतुभिः संयुज्यते, समायः प्रयोजनमस्याध्ययनस्य ज्ञानक्रियासमुदायरूपस्येति सामायिक, समाय एवं सामायिक, तस्य सामायिकस्य, 'ण'मिति वाक्यालङ्कारे, 'इमेत्ति अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणानि चत्वार्यनुयोगदाराणि भवन्ति, तत्राध्ययनार्थकथनविधिरनुयोगः, द्वाराणीव द्वाराणि महापुरस्येव सामायिकस्यानुयोगार्थ-व्याख्यानार्थ द्वाराण्यनुयोगद्वाराणि, अत्र नगरदृष्टान्तं वर्णयन्त्याचार्याः, यथा हि अकृतद्वारं नगरम नगरमेव भवति, निर्गमप्रवेशोपायाभावतोऽनधिगमनीयत्वात्, कृतैकद्धिकादिवारमपि दुरधिगम कार्यातिपसत्तये च भवति, चतुर्मूलबारं तु प्रतिद्वारानुगतं सुखाधिगम कार्यानतिपत्तये च संपद्यते, एवं सामायिकपुर मप्याधिगमोपायद्वारशून्यमशक्याधिगमं स्याद्, एकादिवारानुगतमपि दुरधिगमं भवेत्, सप्रभेदचतुर्दा-8 दीप अनुक्रम [६८-६९] ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [५९] / गाथा ||७|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राका (५८) गाथा ||१|| रानुगतं तु सुखाधिगमं भवति, अतः फलवाँस्तदधिगमार्थों द्वारोपन्यासः । कानि पुनस्तानीति तदर्शनार्थमाह-तय'त्यादि, तत्रोपक्रमणं-दूरस्थस्य वस्तुनस्तैः तैः प्रतिपादनप्रकारैः समीपमानीय निक्षेपयोग्यताकरणमुपक्रमः, उपक्रान्तं हि-उपक्रमान्तर्गतभेदैर्विचारितं हि निक्षिप्यते नान्यथेति भावः, उपक्रम्यते वा निक्षेपयोग्यं क्रियतेऽनेन गुरुवाग्योगेनेत्युपक्रमः, अथवा उपक्रम्यते अस्मिन् शिष्यश्रवणभावे सतीत्युप क्रमः, अथवा उपक्रम्यते अस्मादिनीतविनयविनयादित्युपक्रमः, विनयेनाराधितो हि गुरुर्निक्षेपयोग्यं शास्त्रं #करोतीति भावः, तदेवं करणाधिकरणापादानकारकैर्गुरुवाग्योगादयोऽर्थी भेदेनोक्ताः, यदि खेकोऽप्यन्यत-IN कारोऽर्थः करणादिकारकवाच्यत्वेन विवक्ष्यते तथापि न दोषः । एवं निक्षेपणं-शास्त्रादेर्नामस्थापनादिभेदैन्य सन-व्यवस्थापन निक्षेपः, निक्षिप्यते-नामादिभेदैर्व्यवस्थाप्यते अनेनास्मिन्नस्मादिति वा निक्षेपः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव । एवमनुगमनं-सूत्रस्यानुकूलमर्थकधनमनुगमः, अथवा अनुगम्यते व्याख्यायते सूत्रमनेना|स्मिन्नस्यादिति वाऽनुगमः, वाच्यार्थविवक्षा तथैव । एवं नयनं नयो नीयते-परिच्छिद्यते अनेनास्मिन्नम्मादिति वा नया, सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तुन्येकांशग्राहको बोध इत्यर्थः । अत्र चोपकान्तमेव निक्षेपयोग्यतामानीतमेव निक्षिप्यत इत्युपक्रमानन्तरं निक्षेप उपन्यस्तः, नामादिभेदैनिक्षिप्तमेव चानुगम्यत इति निक्षेपानन्तरमनुगमः, अनुगम्यमानमेव च नयैर्विचार्यते नान्यथेति तदनन्तरं नय इति यथोक्तकमेणोपन्यासः फलवानिति ॥ ५९॥ तत्रोपक्रमो विधा, शास्त्रीय इतरश्च-लोकप्रसिद्धः, तत्रेतराभिधित्सया प्राह दीप अनुक्रम [६८-६९] Jatic ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [६०] दीप अनुक्रम [७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [६०] / गाथा ||७...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ४५ ॥ से किं तं वक्कमे ?, २ छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा - णामोवक्कमे ठवणोवक्कमे दव्वोवक्कमे खेत्तोकमे कालोकमे भावोवकमे, नामठवणाओ गयाओ से किं तं दव्वोवक्कमे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- आगमओ अ नोआगमओ अ, जाव जाणगसरीरभविअसरीवइरित्ते दव्वोकमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा - सचित्ते अचित्ते भीसए (सू० ६० ) 'बक छब्बिहे पण्णत्ते इत्यादि, अन्त्र कचिदेवं दृश्यते— 'उबकमे दुबिहे पण्णत्ते इत्यादि, अयं च पाठ आधुनिकोऽयुक्तच, 'अहवा उवकमे छब्बिहे पण्णसे' इत्यादिवक्ष्यमाणग्रन्थोपन्यासस्याघमानताप्रसङ्गात्, यदि शास्त्रीयोपक्रमोऽत्र प्रतिज्ञातः स्यात्तदा वक्ष्यमाणसूत्रमेवं स्यात् 'से किं तं सत्थोवकमे ?, सत्थोवकमे छब्बिहे पण्णत्ते इत्यादि, न न चैवं तस्मान्नेह सूत्रे दैविध्यप्रतिज्ञा, किन्त्वितोपक्रमभणनं चेतसि विकल्प्य यथानिर्दिष्टमेव सूत्रमुक्तमित्यलं विस्तरेण, प्रकृतं प्रस्तुमः तत्र नामस्थापनोपक्रमव्याख्या नामस्थापनावश्यकिं तं जाणयसरीर भवि कव्याख्यानुसारेण कर्तव्या द्रव्योपक्रमव्याख्याऽपि Sasurarunaदेव यावत् असरीरवइरिते दब्बोवकमे?' इत्यादि, तत्र द्रव्यस्य नटादेरुपक्रमणं - कालान्तरभाविनापि पर्यायेण सहेदानीमेवोपायविशेषतः संयोजनं द्रव्योपक्रमः अथवा द्रच्येण-घृतादिना द्रव्ये भूम्यादौ द्रव्यतः घृतादेरेवोपक्रमो द्रव्योपक्रम इत्यादिकारकयोजना विवक्षया कर्तव्येति । स च त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-सश्चित्तद्रव्यविषयः सचित्तः, अचित्तद्रव्यविषयोऽचित्तः, मिश्रद्रव्यविषयस्तु मिश्रः, द्रव्योपक्रम इति वर्तते ।। ६० ।। अथ 'उपक्रम'स्य नामादि षड् निक्षेपाः वर्णयते For P&Palle Cinly ~ 101 ~ X वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ४५ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [६१] / गाथा ||७...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] से किं तं सचित्ते दव्वोवक्कमे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-दुपए चउप्पए अपए, एकिके पुण दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-परिकमे अ वरथुविणासे अ (सू०६१) | तत्र सचित्तद्रव्योपक्रमस्त्रिविधः, तद्यथा-द्विपदानां-नटनर्तकादीनां चतुष्पदानाम् अश्वहस्त्यादीनाम्, अ-1 दीपदानाम्-आम्रादीनां तत्रैकैकः पुनरपि विधा-परिकर्मणि वस्तुविनाशे च, तत्रावस्थितस्यैव वस्तुनो गुण-18 विशेषाधानं परिकर्म, तत्र परिकर्मणि परिकर्मविषयो द्रव्योपक्रमा, यदा तु वस्तुनो विनाश एवोपायविशे रुपक्रम्यते तदा वस्तुनाशविषयो द्रव्योपक्रमः, तत्र द्विपदानां नटनर्तकादीनां घृतागुपयोगेन (घ) बल-17 वर्णादिकरणं कर्णस्कन्धवर्धनादिक्रिया वा स परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमः॥ ११॥ विविधमप्येतमुपक्रम विभणिषुराह से किं तं दुपए उवक्कमे ?, २ नडाणं नहाणं जल्लाणं मल्लाणं मुट्रियाणं वेलंबगाणं कहगाणं पवगाणं लासगाणं आइक्खगाणं लंखाणं मंखाणं तूणइल्लाणं तुंबवीणियाणं कावोयाणं मागहाणं, से तं दुपए उवक्कमे (सू०६२) दीप अनुक्रम [७१] १ कावडिआर्ण प्र. ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [६२] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: उपक्र प्रत सूत्रांक [६२] अनुयो ट्रा अत्र निर्वचनम्-'दुपयाणं नडाण'मित्यादि, तत्र नाटकानां नादयितारो नटास्तेषां, 'नाणंति नृत्यवि- वृत्तिः मलधा- धापिनो नर्तकास्तेषां, 'जल्लाणं ति जल्ला-वरचाखेलकास्तेषां, राजस्तोत्रपाठकानामित्यन्ये, 'मल्लाणति मल्ला:-17 रीया प्रतीतास्तेषां, 'मुट्ठियाणं'ति मौष्टिका ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति मल्लविशेषा एव तेषां, 'वेलबगाणं ति विडम्बका-131 |माधिः लाविषका नानावेषादिकारिण इत्यर्थः तेषां, 'कहगाणं ति कथकाना-प्रतीतानां 'पवगाणं'ति प्लवका ये उतष्ठ-15 ॥४६॥ वन्ते-गादिकं झम्पाभिल इयन्ति नद्यादिकं वा तरन्ति तेषां 'लासगाणं'ति लासका ये रासकान गायन्ति तेषां, जयशब्दप्रयोकूणां वा भाण्डानामित्यर्थे, 'आइक्खगाणं ति ये शुभाशुभमाख्यान्ति ते आण्यायकास्तेषां, 'लंखाणं ति ये महावंशाग्रमारोहन्ति ते लङ्खास्तेषां, 'मंखाणं ति ये चित्रपटादिहस्ता भिक्षां चरन्ति ते मङ्खास्तेषां, 'तूणइल्लाणीति तूणाभिधानवाद्यविशेषवतां, 'तुंबवीणियाणं ति वीणावादकानां, 'कावोयाण'ति कावडिवाहकानां, 'मागहाण ति मङ्गलपाठकानाम् , एषां सर्वेषामपि यद् घृतागुपयोगेन बलवर्णादिकरणं15 वर्णस्कन्धवर्द्धनादिक्रिया वा स परिकर्मणि सचित्तद्रव्योपक्रमः, यस्तु खड्गादिभिरेषां नाश एवोपक्रम्यतेसंपाद्यते स वस्तुनाशे सचित्तद्रव्योपक्रम इति वाक्यशेषः । अन्ये तु शास्त्रगन्धर्वनृत्यादिकलासम्पादनमपि परिकर्मणि द्रव्योपक्रम इति व्याचक्षते, एतच्चायुक्तं, विज्ञानविशेषात्मकत्वात् शास्त्रादिपरिज्ञामस्थ, तस्य च भावत्वादिति, अथवा यद्यात्मद्रव्यसंस्कारमात्रापेक्षया शरीरवणोदिकरणवदित्थमुच्यते तर्खेतदप्यदुष्टमेवेति ।।दा ४॥ से तमित्यादि निगमनम् ॥ १२ ॥ अथ चतुष्पदानां विविधमप्युपक्रमं विभणिषुराह दीप अनुक्रम [७२]] JaEcial ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [६३] / गाथा ||७...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६३] दीप से कि तं चउप्पए उवक्रमे ?, २ चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं इच्चाइ, से तं चउप्पए उबक्कमे (सू०६३) अन्न निर्वचनम्-'चउप्पयाणं आसाणं हत्थीण'मित्यादि, अश्वादयः प्रतीता एव, तेषां शिक्षागुणविशे-1 करणं परिकर्मणि खनादिभिस्त्वेषां नाशोपक्रमणं वस्तुनाशे, सचित्तद्रव्योपक्रम इतीहापि वाक्यशेषः। 'सेत'मित्यादि निगमनम् ॥ ६३ ॥ अधापदानां दिविधमप्युपक्रम विभणिपुराह से किं तं अपए उवक्कमे?, २ अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं इच्चाइ, से तं अपओवक्कमे, से तं सचित्तदव्वोवक्कमे (सू०६४) अत्र निर्वचनम्-'अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणमित्यादि, इहाऽऽम्रादयो देशपतीता एव, नवरं 'चारा-18 ण ति येषु चारकुलिका उत्पद्यन्ते ते चारवृक्षाः, आम्रादिशन्दैश्च वृक्षास्तत्फलानि वा गृह्यन्ते, तत्र वृक्षाणां वृक्षायुर्वेदोपदेशाबार्द्धक्यादिगुणापादनं तत्फलानां तु गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालस्थगनादिना आश्वेव पाकादिकरणं परिकर्मणि शस्त्रादिभिस्तु मूलत एव विनाशनं वस्तुनाशे, सचित्तद्रव्योपक्रम इत्यत्रापि वाक्यशेषः |'से तमित्यादि निगमनदयम् ॥ १४ ॥ अथाचित्तद्रव्योपक्रम विवक्षुराह अनुक्रम [७३] ~ 104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ ६५ ] दीप अनुक्रम [७५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [ ६५ ] / गाथा || ७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः से किं तं अचित्तदव्वोवक मे ?, २ खंडाईणं गुडाईणं मच्छंडीणं, से तं अचित्तदव्योवकमे (सू०६५) ॥ ४७ ॥ 'अचित्तदव्वोक मे' इत्यादि, खण्डादयः प्रतीता एव, नवरं 'मच्छंडी' खण्डशर्करा एतेषां खण्डायचित्तद्रव्याणामुपायविशेषतो माधुर्यादिगुणविशेषकरणं परिकर्मणि सर्वथा विनाशकरणं वस्तुनाशे, अचित्तद्रव्यो* पक्रम इत्यत्रापि वाक्यशेषः । 'से त'मित्यादि निगमनम् ॥ ६५ ॥ अथ मिश्रद्रव्योपक्रममाह अनुयो० मलधारीया से किं तं मीसए दव्वोवक्कमे ?, २ से चेव थासगआयंसगाइमंडिए आसाइ, से तं मीसए दव्वोवकमे, से तं जाणयसरीरभविअसरीरखइरित्ते दव्वोवकमे, से तं नोआगमओ दव्वोवक्कमे से तं दव्वोवक्कमे ( सू० ६६ ) स्वासकोऽश्वाभरणविशेषः, आदर्शस्तु वृषभादिग्रीवाभरणं, आदिशब्दात् कुङ्कुमादिपरिग्रहः । ततश्च तेषामश्वादीनामेडकान्तानां कुङ्कुमादिभिर्मण्डितानां स्थासकादिभिस्तु विभूषितानां यच्छिक्षादिगुणविशेषकरणं खङ्गादिभिर्विनाशो वा स मिश्रद्रव्योपक्रम इति शेषः । अश्वादीनां सचेतनत्वात् स्थासकादीनामचेतनत्वात् मिश्रद्रव्यत्वमिह भावनीयम् । अत्र च संक्षिप्ततरा अपि वाचनाविशेषा दृश्यन्ते, तेऽप्युक्तानुसारेण भावनीया: । 'से त'मित्यादि निगमनचतुष्टयम् । उक्तो द्रव्योपक्रमः ।। ६६ ।। इतः क्षेत्रोपक्रममभिधित्सुराह For P&Pase City ~ 105~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ४७ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [६७] / गाथा ||७...|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६७]] से किं तं खेत्तोवक्कमे ?, २ जपणं हलकुलिआईहिं खेत्ताई उवकमिजंति, से तं खेत्तो वक्कमे (सू०६७) क्षेत्रस्योपक्रमः-परिकर्मविनाशकरणं क्षेत्रोपक्रमः, स क इत्याह-खेत्तोवक्कमे जं णं हलकुलिआईहिं खेत्ताई उचकमिजति'त्ति तत्र हलं-प्रतीतम् , अधोनिबद्धतियक्तीक्ष्णलोहपट्टिकं, 'कुलिक' लघुतरं काष्ठं तृणा-| दिच्छेदार्थ यत् क्षेत्रे वाह्यते तत् मरुमण्डलादिप्रसिद्धं कुलिकमुच्यते, ततश्च यदव हलकुलिकादिभिः क्षेत्रा-14 प्युपक्रम्यन्ते-पीजवपनादियोग्यतामानीयन्ते स परिकर्मणि क्षेत्रोपक्रमः, आदिशब्दाद्गजेन्द्रबन्धनादिभिः क्षेत्राण्युपक्रम्यन्ते विनाश्यन्ते स वस्तुनाशे क्षेत्रोपक्रमः, गजेन्द्र मूत्रपुरीषादिदग्धेषुहि क्षेत्रेषु वीजानामप्ररोहणादू विनष्ठानि क्षेत्राणि इति व्यपदिश्यन्ते । आह-यद्येवं क्षेत्रगतपृथिव्यादिद्रव्याणामेव एतौ परिकर्मविनाशी, इत्थं च द्रव्योपक्रम एवार्य, कथं क्षेत्रोपक्रम ? इति, सत्यं, किन्तु क्षेत्रमाकाशं तस्य चामूर्तत्वात् मुख्यतयोपक्रमो न संभवति, किन्तु तदाधेयद्व्याणां पृथिव्यादीनां य उपक्रमः स क्षेत्रेऽपि उपचर्यते, दृश्यते| च आधेयधर्मोपचार आधारे, यथा मश्चाः कोशन्ति, उक्तं च-"खित्तमरूवं निचं न तस्स परिकम्मणं न य विणासो । आहेयगयवसेण उ करणविणासोवयारोऽत्थ ॥१॥" इत्यादि, 'से तमित्यादि निगमनम् ॥१७॥ इदानीं कालोपक्रमः, तत्र कालो द्रव्यपर्याय एव, द्रव्यपर्यायौ च मेचकमणिवत् संवलितरूपाविति द्रव्यो क्षेत्रमरूपं निखं न तस्य परिकर्म न च विनाशः । आधेयगतकोनेर करणविनाशोपचारोध ॥१॥ दीप अनुक्रम [७७]] ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूल [६७] / गाथा ||७...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक उपक्रमाधिक [६७] अनुयोपक्रमाभिधाने कालोपक्रम उक्त एव भवति, अथवा 'समयावलियमुहुत्ते इत्यादिरूपस्य कालस्य खतन्त्रमे वोपक्रममभिधित्सुराह सूत्रकार:रीया से किं तं कालोवक्कमे ?, २ ज णं नालिआईहिं कालस्सोवकमणं कीरइ, से तं कालोवक्कमे (सू०६८) ॥४८॥ MRI कालस्योपक्रमः कालोपक्रमः, स क इत्याह-'जणं नालिआईहिं कालस्स उवकमणं' णमिति वाक्यालङ्कारे, यदिह नालिकादिभिरादिशब्दात् शङ्कुच्छाया नक्षत्रचारादिपरिग्रहस्तैः काल उपक्रम्यते, स कालोपक्रम इति शेषः, तत्र नालिका-ताम्रादिमयघटिका तया, शकुच्छायादिना वा नक्षत्रचारादिना वा एतावत्पौरुष्यादिका लोऽतिक्रान्त इति यत् परिज्ञानं भवति स परिकर्मणि कालोपक्रमः, यथावत् परिज्ञानमेव हि तस्येह परिकर्म, सायत्तु नक्षत्रादिचा कालस्य विनाशनं स वस्तुनाशे कालोपक्रमः,तथाहि-अनेन ग्रहनक्षत्रादिचारेण विनाशित कालो, न भविष्यन्त्यधुना धान्यादिसम्पत्तय इति वक्तारो भवन्ति, उक्तं च पूज्यैः-"छायाऍ नालियाए व परिकम्मं से जहत्यविनाणं । रिक्खाइयचारेहि य तस्स विणासो विवज्जासो ॥१॥” इत्यादि, 'से त'मित्यादि| निगमनम् ॥ १८॥ अथ भावोपक्रमार्थमाह से किं तं भावोवक्कमे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ नोआगमओ अ, १छायया मालिकया या परिकम तस यथार्थविज्ञानम् । ऋक्षादिकचारच तस्य विनाशो विपर्यासः ॥१॥ दीप अनुक्रम [७७]] 5645% ॥४८॥ % ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [६९] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६९] आगमओ जाणए उवउत्ते, नोआगमओ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पसत्थे अ अपसत्थे अ, तत्थ अपसत्थे डोडिणिगणिआअमच्चाईणं पसत्थे गुरुमाईणं, से तं नोआगमओ भावोवक्कमे, से तं भावोवक्कमे, से तं उवक्कमे (सू०६९) भावोपक्रमो द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आगमतश्च नोआगमतच, तत्रोपक्रमशब्दार्थज्ञः तत्रोपयुक्तश्चागमतो भावोपक्रमः, 'से किं तं नोआगमओ इत्यादि, अनोत्तरम्-'नोआगमओ भावोवक्कमे दुविहे इत्यादि, इहाभिप्रायाण्यो जीवद्रव्यपर्यायो भावशब्देनाभिप्रेता, उक्तं च-"भावाभिख्याः पश्च खभावसत्तात्मयोन्यभिप्रायाः" ततश्च भावस्थ परकीयाभिप्रायस्योपक्रमण-यथावत् परिज्ञानं भावोपक्रमः, स च दिविधा-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति, तत्राप्रशस्ताभिधित्सया आह-से किं तमित्यादि । अत्र निर्वचनम् -'अप्पसत्थे डो. डिणिगणिआअमच्चाईणति इदमिह तात्पर्यम्-ब्राह्मण्या वेश्यया अमात्येन च यत् परकीयभावस्य यथावत् परिज्ञानलक्षणमुपक्रमणं कृतं सोऽप्रशस्तभावोपक्रमः, संसारफलत्वात्, तत्र कथं ब्राह्मण्यादिभिः परभावोपक्रमणमकारीति?, अन्रोच्यते, एकस्या ब्राह्मण्यास्तिस्रः पुत्रिकाः, तासां च परिणयनानन्तरं तथा करोमि यथैताः मुखिता भवन्तीति विचिन्त्य माता ज्येष्ठदुहितरं प्रत्यवोचत्-यदुत त्वयाऽऽवासभवनसमागमे खभर्ता १ प्रश्नोत्तरलेखमूलकादर्शानुसारेण वृत्तिरत्र. दीप अनुक्रम ७ि९ा 845 ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [६९] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमाधि.' [६९] दीप अनुयो।कञ्चिदपराधमुद्भाव्य मूर्ति पादप्रहारेण हन्तव्यो, हतश्च यदनुतिष्ठति तन्ममाऽऽख्येयं, कृतं च तया तथैव, मलधा- सोऽप्यतिलेहतरलितमना अयि प्रियतमे! पीडितस्ते सुकुमालश्चरणो भविष्यतीत्यभिधानपूर्वकं तस्यारीया चरणोपमर्दनं चकार, अमुं च व्यतिकरं सा मात्रे निवेदितवती, साऽप्युपक्रान्तजामातृभावा हृष्टा दुहितरं प्रत्यवादीत्-पुत्रिके! यद् रोचते तत् त्वदीयगृहे कुरु त्वं, न तवावचनकरो भर्ता भविष्यतीति । द्वितीयाऽपि ॥४९॥ तथैव शिक्षिता, तयाऽपि च तथैव खभर्ता शिरसि प्रहतः, केवलमसौ नैतच्छिष्टानां युज्यत इत्यादि किचित् कोपं कृत्वा निवर्तितः, अमुच व्यतिकरं सा मात्रे निवेदितवती, हृष्टा पुत्रीं प्रत्ययादीत्-पुत्रिके! त्वद्भा क्षणमेकं रुषित्वा स्थास्यति । एवं च तृतीययाऽपि प्रहतः, केवलममुना समुच्छलदतुच्छकोपेन उक्तम्-कुलीना त्वं ?, यैवं शिष्टजनानुचितं चेष्टसे इत्याद्यभिधाय गाढं कुदृयित्वा गृहान्निष्काशिता, तया चाऽऽगत्य सर्व मात्रे निवेदितं, तयाऽपि विज्ञातजामातृभावया गत्वा तत्समीपे वत्स! कुलस्थितिरस्माकमियं यदुत प्रथमसमागमे वध्वा वरस्येत्थं कर्तव्यमित्यादि किश्चिदभिधाय कथमप्यनुनयितोऽसौ, दुहिता च प्रोक्ता-वत्से! दुराराधस्ते भर्ता भविष्यति, परमदेवतावदप्रमत्तया समाराधनीय इति । तथैकस्मिन्नगरे चतुःषष्टिविज्ञानसहिता गणिका, 18 तया च पराभिप्रायपरिज्ञानार्थ रतिभवनभित्तिषु स्वखव्यापारं कुर्वत्यः सर्वा अपि राजपुत्रादिजातयश्चित्रकर्मणि लेखिताः, तत्र च यः कश्चिद् राजपुत्रादिरागच्छति स तत्रैव कृताभ्यासतया स्वकीयखकीयव्यापारमेव १ क्षणोकं प्रापिला उपरतः, तस्बिंध तया मातुनिवेदिते मात्रा प्रोक्तम्-मरसे ! लमपि गोष्ट त्वद्हे बिजम्भख, केवलं (इति पा.) २ नूनं प्र. अनुक्रम ७ि९] ॥४९॥ ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [६९] दीप अनुक्रम [७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [६९] / गाथा ||७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः बाढं प्रशंसति, ततोऽसौ विलासिनी राजपुत्रादीनामन्यतरत्वेन तं विनिश्चित्य यथौचित्येनोपचरति, आनुकूल्येनोपचरिताश्च भुजङ्गाः प्रचुरतरमर्थजातं तस्यै प्रयच्छन्तीति । तथैकस्मिन्नगरे कश्चिद्राजा अमात्येन सहाश्ववाहनिकायां निर्गतः, तत्र च पथि गच्छता राजतुरङ्गमेन कुत्रचित् खिलप्रदेशे प्रश्रवणमकारि, तच तत्प्रदेशे पृथिव्याः स्थिरत्वेन बद्धच्छिल्लरकं चिरेणाप्यशुष्कं व्यावर्तमानो राजा तथैव व्यवस्थितमद्राक्षीत्, चिरावस्थायिजलं शोभनमत्र प्रदेशे तडागं भवतीति चिन्तयँश्चिरमवलोकितवाँश्च तदिङ्गिताकारपरिज्ञानकुशलतया चामात्येन राज्ञाऽभणितेनापि विदिततदभिप्रायेण खानितं तत्र प्रदेशे महासरः, तत्पाल्यां च रोपिताः सर्वर्तुकपुष्पफलसमृद्धयो नानाजातीयतरुनिवहाः, अन्यदा च तेनैव प्रदेशेन गच्छता भूपेन दृष्टं, पृष्टं चाहो ! मानससरोवद्रमणीयकं केनेदं खानितम् ?, अमात्यो जगाद - भवद्भिरेव, राजा सविस्मयं प्राह-कदा कश्च मयैतत्करणाय निरूपित इति, अतः सचिवो यथावृत्तं सर्व कथितवान्, अहो ! परचित्तोपलक्षकत्वममात्यस्पेति विचिन्त्य परितुष्टो राजा तस्य वृत्तिं वर्द्धयामासेति ॥ तदेवमित्या (वमा) दिकः संसारफलोऽपरोऽप्यप्रश| स्तभावोपक्रमः । अथ प्रशस्त भावोपक्रममाह - 'पसत्थो गुरुमाईणं'ति, तत्र श्रुतादिनिमित्तं गुर्वादीनां यद्भावोपक्रमणं स प्रशस्तभावोपक्रमः । आह- नन्वनुयोगद्वारविचारोऽत्र प्रकान्तः, अनुयोगश्च व्याख्यानम्, ततश्च यदेव तदुपकारि किञ्चित् तदेव वक्तव्यं भवति, गुरुभावोपक्रमस्त्वप्रस्तुतो, व्याख्यानानुपकारित्वात्, | तदेतदयुक्तं, गुरुभावोपक्रमस्यैव मुख्यव्याख्याङ्गत्वात् उक्तं च-- "गुर्वायत्ता यस्माच्छास्त्रारम्भा भवन्ति सर्वे For P&Pase Cnly ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [६९] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: उपक प्रत सूत्रांक [६९]] अनुयोऽपि । तस्माद् गुर्वाराधनपरेण हितकाङ्गिणा भाव्यम् ॥१॥ अन्यच्च-"जुत्तं गुरुमणगहणं नाऊण तयं जह वृत्तिः हियं तत्तो । जह होइ सुप्पसन्नं तह जइयव्वं गुणत्थीहिं ॥१॥ गुरुचित्तायत्साई बक्खाणंगाइ जेण सब्वाई। तेण जह सुप्पसन्नं होइ तयं तं तहा कुजा ॥२॥ आगारिंगियकुसलं जइ सेयं वायसं वए पुजा । तह विय माधि ॥५०॥ से नवि कूडे विरहम्मि य कारणं पुच्छे ॥३॥ निवपुच्छिएण भणिओ गुरुणा गंगा कओमुही वहई। संपा बाइयवं सीसो जह तह संवत्थ कायव्वं ॥४॥” इत्यादि । भवत्वेवं तर्हि भावोपक्रमस्य सार्थकत्वं, शेषास्तु नामस्थापनाद्रब्याापक्रमा अनर्थका एव, नैतदेवं, यतो गुरोस्तथाविधप्रयोजनोत्पत्तौ तच्चित्तप्रसादनार्थ-X) मेवाशनपानवस्नपात्रौषधादि द्रव्यं व्याख्यास्थानादि क्षेत्रं प्रवज्यालग्नादिकालमुपक्रमतो विनेयस्य द्रव्यक्षेत्रकालोपक्रमा अपि सार्थका एच, नामस्थापनोपक्रमौ तु प्रकृतानुपयोगित्वेऽप्युपक्रमसाम्याग्रोक्तो, अथवा | सर्वेऽप्यमी प्रकृतानुपयोगिनोऽप्यन्यत्रोपयोक्ष्यन्ते उपक्रमसाम्याचात्रोक्ता इत्यदोषः ॥ ६९॥ तदेवं लौकिकोपक्रमप्रकारेणोक्त उपक्रमा, साम्प्रतं तु तमेव शास्त्रीयोपक्रमलक्षणेन प्रकारान्तरेणाभिधित्सुराह १युक्त गुरुमनोग्रहणं झाला तकत् यथास्थितं ततः। यथा भवति सुप्रसन्न तथा यतित्तव्यं गुणार्थिभिः॥१॥ गुरचित्तायतानि व्याख्यानामानि थेग सअाणि । तेन यथा सुप्रसनं भवति तकत्तराषा कुर्यात् ॥ २ ॥ आकारेरितकुशल यदि श्रेतं वायसं यदेयुः पूज्याः । नैव तेषां वचनं कूदयेत् बिरहे च कारणे पू-IM Tीच्छेत् ॥1॥पहेन भणितो गुरुना गया कुतोमुणी बहति | सम्पादितवान् शिष्यों यथा तथा रायैत्र करीव्यम् ॥४॥ % दीप * अनुक्रम ७ि९] ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७०] दीप अनुक्रम [ ८० ] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [ ७०] / गाथा || ७...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Eheme in अहवा उक्कमे छवि पण्णत्ते, तंजहा आणुपुव्वी १ नामं २ पमाणं ३ वत्तव्वया ४ अत्थाहिगारे ५ समोआरे ६ ( सू०७०) अथवा अनन्तरं यः प्रशस्त भावोपक्रमः उक्तः स हि द्विविधो द्रष्टव्यो- गुरुभावोपक्रमः शास्त्र भावोपक्रमञ्च, | शास्त्रलक्षणो भावः शास्त्र भावस्तस्योपक्रमः शास्त्रभावोपक्रमः, तत्रैकेन गुरुभावोपक्रमलक्षणेन प्रकारेणोक्तः, अथ द्वितीयेन शास्त्रभावोपक्रमलक्षणेन प्रकारान्तरेण तमभिधित्सुराह— 'अहवा उबक्कमे' इत्यादि, 'अथवे 'ति पक्षान्तरसूचकः, उपक्रमः प्रथमपातनापक्षे शास्त्रीयोपक्रमो द्वितीयपातनापक्षे तु शास्त्र भावोपक्रमः, 'षड्विधः' षद्मकारः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-आनुपूर्वी १ नाम २ प्रमाणं ३ वक्तव्यता ४ अर्थाधिकारः ५ समवतारः ६ । तेषां तु शब्दव्युत्पत्त्यादिखरूपं यथावसरं पुरस्तादेव वक्ष्यामः ॥ ७० ॥ तत्राऽऽनुपूर्वी खरूपनिरूपणार्थमाह से किं तं आणुपुव्वी ?, २ दसविहा पण्णत्ता, तंजहा -नामाणुपुव्वी १ ठवणाणुपुव्वी २ दव्वाणुपुव्वी ३ खेत्ताणुपुव्वी ४ कालाणुपुव्वी ५ उक्कित्तणाणुपुब्वी ६ गणणाणुपुव्वी ७ संठाणाणुपुव्वी ८ सामाआरआणुपुव्वी ९ भावाणुपुव्वी १० (सू० ७२ ) अथ किं तदानुपुर्वीवस्त्विति प्रश्नार्थः । अत्र निर्वचनम् - 'आणुपुब्वी दसविहेत्यादि, इह हि पूर्व प्रथ For P&Praise Cly •••अत्र सूत्र क्रमांकने यत् (सू० ७२) मुद्रितं तत् मुद्रणदोष:, अत्र सूत्र क्रमांक ७१ एव वर्त उपक्रमस्य आनुपूर्वी आदि षड् भेदाः विस्तरेण वर्णयते ~ 112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७१] दीप अनुक्रम [८१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [७१] / गाथा ||७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ५१ ॥ বতনও ममादिरिति पर्यायाः, पूर्वस्य अनु-पश्चादनुपूर्व, 'तस्य भाव' इति यण्प्रत्यये स्त्रियामीकारे चानुपूर्वी अनुक्रमोऽनुपरिपाटीति पर्यायाः, त्र्यादिवस्तुसंहतिरित्यर्थः । इयमनुपूर्वी 'दशविधा' दशप्रकारा प्रज्ञप्ता, तद्यथानामानुपूर्वी स्थापनानुपूर्वी द्रव्यानुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी कालानुपूर्वी उत्कीर्तनानुपूर्वी गणनानुपूर्वी संस्थानानुपूर्वी सामाचार्यानुपूर्वी भावानुपूर्वीति ॥ ७१ ॥ नामठवणाओ गयाओ से किं तं दव्वाणुपुव्वी १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी १, २ जस्स णं आणुपुव्वित्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव नो अणुप्पेहाए, कम्हा ?, अणुवओगो दव्वमितिकट्टु णेगमस्स णं एगो अणुवउत्तो आगमओ एगा दव्बाणुपुव्वी जात्र कम्हा ? जइ जाणए अणुवउत्ते न भवइ, से तं आगमओ दव्वाणुपुव्वी । से किं तं नोआगमओ दव्वाणुपुव्वी ?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - जाणयसरीरदव्वाणुपुव्वी भविअसरीरदव्वाणुपुब्वी जाणयसरीरभविअसरीरखइरित्ता दव्वाणुपुब्वी । से किं तं जाणयसरीरदव्वाणुपुथ्वी ?, २ पयत्थाहिगारजाणयस्स जं स For P&Pernaise Cly ~113~ वृत्तिः उपक्र भाधि० ॥ ५१ ॥ my w Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७२] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२]] रीरयं ववगयचुयचावियचत्तदेहं सेसं जहा दव्वावस्सए तहा भाणिअव्वं, जाव से तं जाणयसरीरदव्वाणुपुव्वी । से किं तं भविअसरीरदव्वाणुपुठवी ?, २ जे जीवे जोणीजम्मणनिक्खंते सेसं जहा दव्वावस्सए जाव से तं भविअसरीरदव्वाणुपुवी । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ता दव्वाणुपुव्वी ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उवणिहिआ य अणोवणिहिआ य, तत्थ णं जा सा उवणिहिआ सा ठप्पा, तत्थ णं जा सा अणोवणिहिआ सा दुविहा पपणत्ता, तंजहा-नेगमववहाराणं संग हस्स य (सू०७२) | अत्र नामस्थापनानुपूर्वीसूत्रे नामस्थापनावश्यकसूत्रव्याख्यानुसारेण व्याख्येये, द्रव्यानुपूर्वीसूत्रमपि द्रव्या वश्यकवदेव भावनीयं, यावत् 'जाणयसरीरभविअसरीरबारिता दवाणुपुब्बी दुविहे'त्यादि, तत्र निधानं द निधिर्निक्षेपो न्यासो विरचना प्रस्तारः स्थापनेति पर्यायाः, तथा च लोके-'निधेहीदं निहितमिदमित्यत्र निपूर्वस्य धागो निक्षेपार्थः प्रतीयत एव, उप-सामीप्येन निधिरुपनिधिः-एकस्मिन् विवक्षितेऽर्थे पूर्व व्यवस्था-| पिते तत्समीप एवापरापरस्य वक्ष्यमाणपूर्वानुपूादिक्रमेण यनिक्षेपणं स उपनिधिरित्यर्थः, उपनिधिः प्रयो दीप अनुक्रम [८२] ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७२] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्ति प्रत सूत्रांक [७२]] अनुयोजनं यस्या आनुपूर्व्याः सा औपनिधिकीति प्रयोजनार्थे इकणप्रत्ययः, सामायिकाध्ययनादिवस्तूनां वक्ष्य-|| मलधा- माणपूर्वानुपूर्व्यादिप्रस्तारप्रयोजना आनुपूर्वी औपनिधिकीत्युच्यत इति तात्पर्यम् । अनुपनिधिर्वक्ष्यमाण पूर्वानुपूादिक्रमेणाविरचनं प्रयोजनमस्था इत्यनीपनिधिकी, यस्यां वक्ष्यमाणपूर्वानुपादिक्रमेण विरचना|Bा माधिः &न क्रियते सा श्यादिपरमाणुनिष्पन्नस्कन्धविषया आनुपूर्वी अनौपनिधिकीत्युच्यते इति भावः । आह-नन्वा॥५२॥ नुपूर्वी परिपाटिरुच्यते, भवता च त्र्यणुकादिकोऽनन्ताणुकावसान एकैकः स्कन्धोऽनोपनिधिक्यानुपूर्वीत्वेनाभिप्रेतो, न च स्कन्धगतत्र्यादिपरमाणूनां नियता काचित् परिपाटिरस्ति, विशिष्टैकपरिणामपरिणतत्वात् ४ तेषां, तत् कथमिहानुपूर्वीत्वं ?, सत्यं, किन्तु व्यादिपरमाणूनामादिमध्यावसानभावेन नियतपरिपाट्या व्यव स्थापनयोग्यताऽस्तीति योग्यतामाश्रित्यात्राप्यानुपूर्वीवं न विरुध्यते । तत्थ ण मित्यादि, तत्र याऽसावी४पनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी सा स्थाप्या-सा न्यासिकी तिष्ठतु तावदल्पतरवक्तव्यस्वेन, तस्या उपरि वक्ष्यमाण स्वादिति भावः । अनौपनिधिकी तु पश्चान्निर्दिष्टाऽपि बहुतरवक्तव्यत्वेन प्रथमं व्याख्यायते, बहुतरवक्तव्यत्वे हि वस्तुनि प्रथममुख्यमानेऽल्पतरवक्तव्यवस्तुगतः कश्चिदर्थेस्तन्मध्येऽप्युक्त एव लभ्यते इति गुणाधिक्यं पर्यालोच्य सूत्रकारोऽनोपनिधिक्याः खरूपं विवरीषुराह-तस्थ ण' मित्यादि, तत्र याऽसावनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी सा नयवक्तव्यताश्रयणात् द्रव्यास्तिकनयमतेन दिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यव- ॥५२॥ हारयोः सङ्ग्रहस्य च, नैगमव्यवहारसंमता सङ्ग्रहसंमता चेत्यर्थः, अयमत्र भावार्थ:-इहौषतः सप्त नया दीप अनुक्रम [८२] ~115~ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७२] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम भवन्ति नैगमादयः, उक्तं च-"नैगमसङ्ग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरुडैवंभूता नयाः” एते च द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकलक्षणे नयदयेऽन्तर्भाव्यन्ते, द्रव्यमेव परमार्थतोऽस्ति न पर्याया इत्यभ्युपगमपरो द्रव्यास्तिका पर्याया एव वस्तुतः सन्ति न द्रव्यमित्यभ्युपगमपरः पर्यायास्तिकः, तत्राऽद्यास्त्रयो द्रव्यास्तिकाः, शेषास्तु पर्यायास्तिकाः, पुनद्रव्यास्तिकोऽपि सामान्यतो द्विविधो-विशुद्धोऽविशुद्धश्च, तत्र नैगमव्यवहाररूपोऽविशुद्धः, सङ्घहरूपस्तु विशुद्धः, कधम् !-यतो नैगमव्यवहारावनन्तपरमाण्वमन्तवणुकाचनेकव्यक्त्यात्मक कृष्णायनेकगुणाधारं त्रिकालविषयं वा विशुद्धं द्रव्यमिच्छता, सग्रहश्च परमाण्वादिकं परमाण्वादिसाम्यादेकं तिरोभूतगुणकलापमविद्यमानपूर्वापरविभागं नित्यं सामान्यमेव द्रव्यमिच्छति, एतच किलानेकतायभ्युपगमकलङ्केनाकलङ्कितत्वाच्छुई, ततः शुद्रव्याभ्युपगमपरत्वादयमेव शुद्धः । अत्र च द्रव्यानुपूर्येव विचारयितुं प्रक्रान्ता, अतः शुद्धाशुद्धखरूपं द्रब्यास्तिकमतेनैवासौ दर्शयिष्यते न पर्यायास्तिकमतेन, पर्यायविचारस्याप्रक्रान्तवादित्यलं विस्तरेण ॥ ७२ ॥ तत्र नैगमव्यवहारसंमतामिमां दर्शयितुमाह से किं तं नेगमववहाराणं अणोवणिहिआ दव्वाणुपुवी ?, २ पंचविहा पण्णता, तंजहा-अट्ठपयपरूवणया १ भंगसमुक्त्तिणया २ भंगोवदंसणया ३ समोआरे ४ अणुगमे ५ (सू०७३) [८२] कककककक JaEarna ~116~ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [८३] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [७३] / गाथा ||७...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधाया ॥ ५३ ॥ Jan Eben अत्र निर्वचनम् — 'नगमववहाराणं अणोवणिहिआ दव्वाणुपुथ्वी पंचविहेत्यादि, अर्थपदप्ररूपणतादिभिः पञ्चभिः प्रकारैर्विचार्यमाणत्वात् पञ्चविधा पञ्चप्रकारा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-अर्थपद्प्ररूपणता भङ्गसमुत्कीर्तनता भङ्गोपदर्शनता समवतारोऽनुगमः । एभिः पञ्चभिः प्रकारैर्नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिक्याः द्रव्यानुपूर्व्याः स्वरूपं निरूप्यत इतीह तात्पर्यम् । तत्र अर्यत इत्यर्थः व्यणुकस्कन्धादिस्तद्युक्तं तद्विषयं वा पद्मा नुपूर्व्यादिकं तस्य प्ररूपणं-कथनं तद्भावोऽर्थपद्द्मरूपणता, इयमानुपूर्व्यादिका संज्ञा अयं च तदभिधेयरूयणुकादिरर्थः संज्ञीत्येवं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धकथनमात्रं प्रथमं कर्तव्यमिति भावार्थः । तेषामेवानुपूर्व्यादिपदानां समुदितानां वक्ष्यमाणन्यायेन सम्भविनो विकल्पा भङ्गा उच्यन्ते, भज्यन्ते विकल्प्यन्ते इतिकृत्वा तेषां समुत्कीर्तनं- समुच्चारणं भङ्गसमुत्कीर्तनं, तद्भावो भङ्गसमुत्कीर्तनता, आनुपूर्व्यादिपदनिष्पन्नानां प्रत्येकभङ्गानां ध्यादिसं| योगभङ्गानां च समुच्चारणमित्यर्थः । तेषामेव सूत्रमात्रतया अनन्तरसमुत्कीर्तितभङ्गानां प्रत्येकं स्वाभिधेयेन व्यणुकाद्यर्थेन सहोपदर्शनं भङ्गोपदर्शनं तद्भावो भङ्गोपदर्शनता । भङ्गसमुत्कीर्तने भङ्गकविषयं सूत्रमेव केवलमुच्चारणीयं, भङ्गोपदर्शने तु तदेव खविषयभूतेनार्थेन सहोचारयितव्यमिति विशेषः । तथा तेषामेवानुपूर्व्यादिद्रव्याणां स्वस्थानपरस्थानान्तर्भावचिन्तनप्रकार: समवतारः । तथा तेषामेव आनुपूर्व्यादिद्रव्याणां सत्पदप्ररूपणादिभिरनुयोगद्वारैरनुगमनं-विचारणमनुगमः ॥ ७३ ॥ तत्राऽऽद्यभेदं विवरीपुराह से किं तं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया १, २ तिपएसिए आणुपुब्वी चउप्पएसिए For P&Praise Cinly ~ 117~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ५३ ॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७४] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] आणुपुव्वी जाव दसपएसिए आणुपुब्बी संखेजपएसिए आणुपुवी असंखिजपएसिए आणुपुवी अणंतपएसिए आणुपुव्वी, परमाणुपोग्गले अणाणुपुवी, दुपएसिए अवत्तव्वए, तिपएसिआ आणुपुवीओ जाव अणंतपएसिआओ आणुपुव्वीओ, परमाणुपोग्गला अणाणुपुव्वीओ, दुपएसिआई अवत्तव्वयाई, से तं गमववहाराणं अटुपयपरूवणया (सू०७४) अथ केयं नैगमव्यवहारयोः सम्मता अर्थपदप्ररूपणतेति, अनोत्तरमाह-'नेगमववहाराण'मित्यादि, तत्र त्रयः प्रदेशा:-परमाणुनयलक्षणा यत्र स्कन्धे सा आनुपूर्वीत्युच्यते, एवं यावदमन्ता अणवो यत्र सोऽनन्ताणुकः सोऽप्यानुपूर्वीस्युच्यते, 'परमाणुपोग्गले'त्ति एका परमाणुः परमाण्वन्तरासंसक्तोनानुपूर्वीत्यभिधीयते, द्वौ प्रदेशौ यत्र स विप्रदेशिकः स्कन्धोऽवक्तव्यकमित्याख्यायते, बहवस्निपदे-18 शिकादयः स्कन्धा आनुपूर्यो, यहवश्चैका किपरमाणवोऽनानुपूर्यो, बहूनि च ध्यणुकस्कन्धद्रव्याण्य वक्तव्यकानि । आनुपूया प्रक्रान्तायामनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोः प्ररूपणमसङ्गतमिति चेत्, न तत्प्रतिपक्षवात्त४ योरपि प्ररूपणीयत्वात्, प्रतिपक्षपरिज्ञाने च प्रस्तुतवस्तुनः सुखावसेयत्वादिति भावार्थः । इहाऽऽनुपूर्वी अनुपरिपाटिरिति पूर्वमुक्तं, सा च यत्रैवादिमध्यान्तलक्षणः सम्पूर्णो गणनानुक्रमोऽस्ति तंत्रैवोपपद्यते, ना- दीप अनुक्रम [८४]] Jatic ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [८४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [७४] / गाथा || ७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ५४ ॥ न्यत्र एतच त्रिप्रदेशिकादिस्कन्धेष्वेव तथाहि यस्मात् परमस्ति न पूर्व स आदिः यस्मात् पूर्वमस्ति न परं सोऽन्तः, तयोश्चान्तरं मध्यमुच्यते, अयं च संपूर्णो गणनानुक्रमस्त्रिप्रदेशादिस्कन्ध एव, न परमाणौ, तस्यैकद्रव्यत्वेनादिमध्यान्तव्यवहाराभावाद्, अत एवायमनानुपूर्वीत्वेनोक्तो, नापि द्व्यणुकस्कन्धः, तत्रापि मध्याभावेन सम्पूर्णगणनानुक्रमाभावाद्, अत्राऽऽह- ननु - पूर्वस्यानु पश्चादनुपूर्वं तस्य भाव आनुपूर्वीति पूर्व व्याख्यातम्, एतच्च द्व्यणुकस्कन्धेऽपि घटत एव, परमाणुद्वयस्यापि परस्परापेक्षया पूर्वपञ्चाद्भावस्य विद्यमानत्वात्, ततः सम्पूर्णगणनानुक्रमाभावेऽपि कस्मादयमप्यानुपूर्वी न भवति ?, नैतदेवं यतो यथा मेर्वादिके कचित् पदार्थे मध्येऽवधौ व्यवस्थापिते लोके पूर्वादिविभागः प्रसिद्धस्तथा यद्यत्रापि स्यात्तदा स्यादप्येवं न चैवमत्रास्ति, मध्येऽवधिभूतस्य कस्यचिदभावतोऽसाङ्कर्येण पूर्वपश्चाद्भावस्थासिद्धत्वात् यद्येवं परमाणुवद् द्व्यणुकस्कन्धोऽप्यनानुपूर्वीत्वेन कस्मान्नोच्यते ?, सत्यं, किन्तु परस्परापेक्षया पूर्वपश्चाद्भावमात्रस्य सद्भावादेवमप्यभिधातुमशक्योऽसौ तस्मादानुपूर्व्यनानुपूर्वी प्रकाराभ्यां वक्तुमशक्यत्वादुवक्तव्यकमेव व्यणुरुस्कन्धः, तस्माद्व्यवस्थितमिदम्-आदिमध्यान्तभावेनावधिभूतं मध्यवर्तिनमपेक्ष्यासाङ्कर्येण मुख्यस्य पूर्वपञ्चाद्भावस्य सद्भावात् त्रिप्रदेशादिस्कन्ध एवाऽऽनुपूर्वी, परमाणुस्तुक्तयुक्त्याऽनानुपूर्वी, द्व्यणुकोऽवक्तव्यकः, इत्येवं संज्ञासंज्ञिसम्बन्धकथनरूपा अर्थपदप्ररूपणा कृता भवति । यथैवं त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्य इत्यादिबहुवचननिर्देश: किमर्थः ?, एकत्वमात्रेणैव संज्ञासंज्ञिसम्बन्धकथनस्य सिद्धत्वात्, सत्यं, किन्त्वानुपूर्व्यादिद्रव्याणां प्रतिभेद For P&Praise City ~ 119~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ५४ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [८४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [७४] / गाथा || ७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. १० मनन्तव्यक्तिख्यापनार्थी नैगमव्यवहारयोरित्थंभूताभ्युपगमप्रदर्शनार्थश्च बहुत्वनिर्देश इत्यदोषः । अग्राऽऽहनन्वनानुपूर्वीद्रव्यमेकेन परमाणुना निष्पद्यते, अवक्तव्यकद्रव्यं परमाणुद्धयेन, आनुपूर्वीद्रव्यं तु जघन्यतोऽपि परमाणुत्रयेणेति, इत्थं द्रव्यवृद्ध्या पूर्वानुपूर्वीक्रममाश्रित्य प्रथममनानुपूर्वी ततोऽवक्तव्यकं ततश्चाऽऽनुपूर्वीत्येवं निर्देशो युज्यते, पञ्चानुपूर्वीक्रमाश्रयेण तु व्यत्ययेन युक्तः, तत् कथं क्रमद्वयमुल्लङ्घयान्यथा निर्देशः कृतः ?, सत्यमेतत् किन्त्वनानुपूर्व्यपि व्याख्याङ्गमिति ख्यापनार्थः, यदिवा त्र्यणुकच तुरणुकादीन्यानुपूर्वीद्रव्याण्यनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येभ्यो बहूनि तेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्याण्यल्पानि तेभ्योऽप्यवक्तव्यकद्रव्याण्यल्पतराणीत्यत्रैव वक्ष्यते, ततश्चेत्थं द्रव्यूहान्या पूर्वानुपूर्वीक्रमनिर्देश एवायमित्यलं विस्तरेण । 'से त'मित्यादि निगमनम् ॥ ७५ ॥ एआए णं नेगमववहाराणं अट्ठपयपरूवणयाए किं पओअणं ?, एआए णं नेगमववहाराणं अपयपरूवणयाए भंगसमुक्कित्तणया कज्जइ ( सू० ७५ ) • 'एआए णमित्यादि, 'एतया' अर्थपदप्ररूपणतया किं प्रयोजनमिति, अत्राऽऽह - 'एतया' अर्थपदप्ररूपणतया भङ्गसमुत्कीर्तना क्रियते, इदमुक्तं भवति- अर्थपदप्ररूपणतायां संज्ञासंज्ञिव्यवहारो निरूपितस्तस्मिंश्च सत्येवं भङ्गकाः समुत्कीर्तयितुं शक्यन्ते, नान्यथा, संज्ञामन्तरेण निर्विषयाणां भङ्गानां प्ररूपयितुमशक्यत्वात्, तस्माद् युक्तमुक्तम्-एतया अर्धपद्प्ररूपणतया भङ्गसमुत्कीर्तना क्रियत इति ॥ ७५ ॥ तामेव भङ्गसमुत्कीर्तनां निरूपयितुमाह For P&Praise City ~ 120~ watyw Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [८६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [ ७६ ] / गाथा || ७...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीचा ॥ ५५ ॥ Ja Ekemon से किं तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणया १, २ अस्थि आणुपुव्वी १ अत्थि अणापुव्वी २ अस्थि अवत्तव्वए ३ अत्थि आणुपुव्वीओ : अत्थि अणाणुपुव्वीओ ५ अत्थि अवत्तव्वयाई ६ | अहवा अत्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वी अ १ अहवा अत्थि आणुपुब्बी अ अणाणुपुव्वीओ अ २ अहवा अस्थि आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुवी अ ३ अहवा अस्थि आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुव्वीओ अ ४ अहवा अत्थि आणुपुव्वी अ अवत्तव्वए अ ५ अहवा अस्थि आणुपुव्वी अ अवतव्वयाई च ६ अहवा अस्थि आणुपुवीओ अ अवत्तव्वए अ ७ अहवा अत्थि आणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाइं च ८ अहवा अत्थि अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्वए अ ९ अहवा अत्थि अणाणुपुव्वी अ अवतव्वयाई च १० अहवा अत्थि अणाणुपुव्वीओ अ अवतव्वए अ ११ अहवा अस्थि अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाई च १२ | अहवा अत्थि आणुपुब्वी अ अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्वए अ १ अहवा अस्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्व For P&Praise Cinly ~ 121 ~ ★ वृतिः उपऋ माधि० ॥ ५५ ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७६] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] याई च २ अहवा अत्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वए अ ३ अहवा अत्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुवीओ अ अवत्तव्वयाई च ४ अहवा अस्थि आणुपुठवीओ अ अणाणुपुवी अ अवत्तव्वए अ५ अहवा अत्थि आणुपुवीओ अ अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्वयाई च ६ अहवा अत्थि आणुपुवीओ अ अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वए अ ७ अहवा अत्थि आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाई च ८ एए अड भंगा । एवं सब्वेऽवि छठवीसं भंगा । से तं नेगमववहाराणं भंगसमुक्त्ति णया (सू०७६) प्रश्न चानुपूर्खादिपवयेणैकवचनान्तेन त्रयो भङ्गा भवन्ति, बहुवचनान्तेनापि तेन त्रय एव भक्ताः, एवमेतेऽसंयोगतः प्रत्येकं भङ्गाः षड् भवन्ति, संयोगपक्षे तु पदत्रयस्यास्य प्रयो बिकसंयोगाः, एकैकमिंस्तु विकसंयोगे एकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गीसद्भावतः त्रिष्वपि बिकयोगेषु बादचा भक्काः संपद्यन्ते, त्रिकयोगस्त्वत्रैक एष, तत्र च एकवचनबहुवचनाभ्यामष्टौ भङ्गाः सर्वेऽप्यमी षर्विशतिः । अत्र स्थापना चेयम् SENIONACOCKROACC दीप अनुक्रम ८६] U ~122~ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [८६ ] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र -२ (मूलं + वृत्तिः) मूलं [ ७६ ] / गाथा ||...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र- [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ५६ ॥ ....... आनुपूर्वी १ BE Sm आनुपूर्वी १ अनापूर्वी १ अनानुपूर्व्यः २ आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ ३ अनानुपूर्वी १ अवतव्यकः १ आनुपूः ३ अनानुपूर्व्यः ३ अवक्तव्यकाः आनुपूर्व्यः ३ आनुपूर्वी १ अवकव्यकः १ आनुपूर्वी १ अवकन्यकाः ३ अवक्तव्यकः १ आनुपूर्वः ३ आनुपूर्यः ३ अवक्तव्यका ३ अनापूर्वी १ पूर्वी १ अनानुपूर्व्यः २ अनानुपूर्व्यः ३ अवक्तव्यकः १ अवकन्यकाः ३ अवकन्यकः १ अवकन्यकाः ~ 123~ १ अनानुपूर्वी अनानुपूर्वी १ अनानुपूज्यः नानुपूव्यः नुवा आनुपूर्वा अनुपू For P&Peale City ...... 168214k h भालुवा आनुपूज्यः ३ आनुपूर्व्यः २ आनुपूर्व्यः आनुपूव्येः अनानुपूर्व्यः अनानुपूव्यः त्रिसंयोगेऽटी भङ्गाः वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ५६ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७६] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: -% प्रत सूत्रांक -- -- [७६] - दीप सर्वेऽपि षड्वंशतिरेव, एते चोत्तरं प्रयच्छता अनेनैव क्रमेण सूत्रेऽपि लिखिताः सन्तीति भावनीयाः । अथ | || किमर्थं भङ्गकसमुत्कीर्तनं क्रियत इति चेद्, उच्यते, इहानुपूादिभित्रिभिः पदैरेकवचनान्तबहुवचनान्त: प्रत्येकचिन्तया संयोगचिन्तया च षड्विंशतिर्भङ्गाः संजायन्ते, तेषु च मध्ये येन केनचिगङ्गेन वक्ता द्रव्यं प्रवक्तुमिच्छति तेन प्रतिपादयितुं सर्वानपि प्रतिपादनप्रकाराननेकरूपत्वान्नैगमव्यवहारनयाविच्छत इति प्रदपार्शनार्थ भङ्गाकसमुत्कीर्तनमिति । 'से तमित्यादि निगमनम् ॥ ७६ ॥ उक्ता भइसमुत्कीर्तनता, अथ भङ्गोपदर्शनतां प्रतिपिपादयिषुराह एआए णं नेगमववहाराणं भंगसमुक्कित्तणयाए किं पओअणं?, एआए णं नेगमववहा राणं भंगसमुक्त्तिणयाए भंगोवदंसणया कीरइ सू० (७७) 'एतयां भङ्गसमुत्कीर्तनतया किं प्रयोजनमिति, अबोत्तरमाह-एआए ण'मित्यादि, 'एतया' भङ्गसमुकीर्तनतया भङ्गोपदर्शनता क्रियते, इदमुक्तं भवति-भङ्गसमुत्कीर्तनतायां भङ्गकसूत्रमुक्तं, भोपदर्शनतायां तस्यैव वाच्यं न्यणुकस्कन्धादिकं कथयिष्यते । तच सूत्रे समुत्कीर्तित एव कवयितुं शक्यते, वाचकमन्तरेण वाच्यस्य कथयितुमशक्यत्वादू, अतो युक्तं भङ्गकसमुत्कीर्तनतापां भगोपदर्शनताप्रयोजनम् । अत्राऽऽहननु भोपदर्शनतायां वाच्यस्य त्र्यणुकस्कन्धादेः कथनकाले आनुपूर्व्यादिसूत्रं पुनरप्युत्कीर्तयिष्यति, तत् १ उत्कर्षयिष्यति प्र. SSSSSSS* अनुक्रम ८६] ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [bb] दीप अनुक्रम [८७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [७७] / गाथा || ७...|| ..... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ५७ ॥ Ja Eberh किं भङ्गसमुत्कीर्तनतया प्रयोजनमिति, सत्यं, किन्तु भङ्गसमुत्कीर्तनतासिद्धस्यैव सूत्रस्य भङ्गोपदर्शनतायां वाच्यवाचकभावसुखप्रतिपत्त्यर्थं प्रसङ्गतः पुनरपि समुत्कीर्तनं करिष्यते, मुख्यतयेत्यदोषः, यथा हि 'संहिता च पदं चैवेत्यादिव्याख्याक्रमे सूत्रं संहिताकाले समुचारितमपि पदार्थकथनकाले पुनरप्यर्थकधनार्थमुच्चार्यते तद्वदत्रापीति भावः ॥ ७७ ॥ अथ केयं पुनर्भङ्गोपदर्शनतेति प्रश्नपूर्वकं तामेव निरूपयितुमाह से किं तं नेगमववहाराणं भंगोवदंसणया ?, २ तिपएसिए आणुपुव्वी १ परमाणुपोगले अणाणुपुवी १ दुपएसिए अवतव्वए २, अहवा तिपएसिया आणुपुवीओ परमाणुपोग्गला अणाणुपुवीओ दुपएसिया अवत्तव्वयाई ३, अहवा तिपएसिए अ परमाणुपुग्गले अ आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वी अ ४ चउभंगो, अहवा तिपएसिए य दुपए सिए अ आणुपुव्वी अ अवत्तव्वए य चउभंगो, अहवा परमाणुपोग्गले य दुषएसिए य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य चउभंगो १२, अहवा तिपएसिए अ पर१ द्वादयामको प्र. For P&Pase Cnly न ~ 125~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ५७ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७८] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक (७८) 444444 माणुपोग्गले अ दुपएसिए अ आणुपुवी अ अणाणुपुवी अ अवत्तव्वए अ१ अहवा तिपएसिए अ परमाणुपोग्गले अ दुपएसिआ य आणुपुवी अ अणाणुपुब्वी अ अवत्तव्वयाई च २ अहवा तिपएसिए अ परमाणुपुग्गला अ दुपएसिए य आणुपुवी अ अणाणुपुवीओ अ अवत्तव्वए अ ३ अहवा तिपएसिए अ परमाणुपोग्गला य दुपएसिया अ आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाई च ४ अहवा तिपएसिआ य परमाणुपोग्गले अ दुपएसिए य आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुत्वी अ अवत्तव्वए अ ५ अहवा तिपएसिआ य परमाणुपोग्गले अ दुपएसिआ य आणुपुठवीओ अ अणाणुपुब्बी अ अवत्तव्वयाई च ६ अहवा तिपएसिआ य परमाणुपोग्गला य दुपएसिए अ आणुपुव्वीओ अ अणाणुपुव्वीओ य अवत्तव्बए य ७ अहवा तिपएसिआ य परमाणुपोग्गला अ दुपएसिआ य आणुपुत्वीओ अ अणाणुपुव्वीओ अ अवत्तव्वयाइं च ८ । से तं नेगमववहाराणं भंगोवर्दसणया (सू०७८) दीप अनुक्रम ८" ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७८] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयोना प्रत सूत्रांक रीया [७८] दीप 'तिपएसिए आणुपुब्बी'त्ति त्रिप्रदेशिकोऽर्थः आनुपूर्वीत्युच्यते, त्रिप्रदेशिकस्कन्धलक्षणेनार्थेनानु-IPI वृत्तिः पूर्वीति भङ्गको निष्पद्यत इत्यर्थः, एवं परमाणुपुद्गललक्षणोऽर्थोऽनानुपूर्वीत्युच्यते, विप्रदेशिकस्कन्धलक्षणः|| उपक्रअर्थोऽवक्तव्यकमुच्यते, एवं बहबस्त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्यः बहवः परमाणुपुद्गला अनानुपूर्यो बहवो दिप्रदे-14 माधिक शिकस्कन्धा अवक्तव्यकानीति षण्णां प्रत्येकभानामर्थकथनम् । एवं दिकसंयोगेऽपि त्रिप्रदेशिकस्कन्धः कापरमाणुपुद्गलश्चाऽऽनुपूय॑नानुपूर्वीवेनोच्यते, यदा त्रिप्रदेशिकस्कन्धः परमाणुपुद्गलश्च प्रतिपादयितुमभीष्टो|४ भवति तदा 'अस्थि आणुपुब्बी अ अणाणुपुब्वी इत्येवं भङ्गो निष्पद्यत इत्यर्थः, एवमर्थकथनपुरस्सराः शेषभङ्गा अपि भावनीयाः । अब्राह-नन्वर्थोऽप्यानुपूयादिपदानां ध्यणुकस्कन्धादिकोऽर्थपदप्ररूपणतालक्षणे प्रथमहारे कधित एव तत्किमनेन ?, सत्यं, किन्तु तत्र पदार्थमात्रमुक्तम्, अन तु तेषामेवाऽऽनुपूादिपदानां भङ्गकरचनासमादिष्टानामर्थः कथ्यत इत्यदोषो, नयमतवैचित्र्यप्रदर्शनार्थ वा पुनरिस्थमर्थोपदर्शनमित्यलं विस्तरेण । 'से तमित्यादि निगमनम् ॥ ७८ ॥ उक्ता भङ्गोपदर्शनता, अथ समवतारं विभणिषुराह से किं तं समोआरे ?, २ नेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाई कहिं समोअरंति ?, किं आणुपुढवीदव्वेहिं समोअरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोअरंति ? अवत्तव्वयदव्वेहि ला॥५८॥ समोअरंति ?, नेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाई आणुपुब्बीदव्वेहिं समोअरंति नो अनुक्रम LCUSSCDCO M ८" ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७९] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [७९]] दीप अणाणुपुब्वीदव्वहिं समोअरंति नो अवत्तव्वयदव्वेहि समोअरंति, नेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाइं कहिं समोअरंति ?, किं आणुपुव्वीदव्वेहि समोअरंति ? अणाणुपुठवीदव्वेहि समोअरंति ? अवत्तव्बयदव्वेहिं समोअरंति ?, नो आणुपुत्वीदव्वेहिं समोअरंति अणाणुपुवीदव्वेहि समोअरंति नो अवत्तव्बयदव्वेहिं समोअरंति, नेगमववहाराणं अवत्तव्वयव्वाई कहिं समोअरंति ?, किं आणुपुत्वीदव्वेहिं समोअरंति ? अणाणुपुत्वीदव्वेहि समोअरंति ? अवत्तव्वयदव्वेहिं समोअरंति?, नो आणुपुब्बीदव्वेहि समोअरंति नो अणाणुपुत्वीदव्वेहिं समोअरंति अवत्तव्वयदव्वेहि समोअरंति । से तं समोआरे (सू०७९) अथ कोऽयं समवतार इति प्रश्ने सत्याह-'समोआरे'त्ति, अयं समवतार उच्यत इति शेषः, का पुनरयमित्याह-'नेगमववहाराणं आणुपुचीदव्बाई कहिं समोयरंती'त्यादिप्रश्ना, अत्रोत्तरम्-'नेगमववहाराणं आणुपुब्बी इत्यादि, आनुपूर्वीद्रव्याणि आनुपूर्वीद्रव्यलक्षणायां खजातावेव वर्तन्ते, न खजात्यतिक्रमेणेत्यर्थः, इदमुक्तं भवति-सम्यग्-अविरोधेनावतरणं-वर्तनं समवतारोऽविरोधवृत्तिता प्रोच्यते, सा च खजा अनुक्रम JaElicatiN ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [७९] / गाथा ||७...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [८०] अनुयो० मलधा- रीया FAS उपक्र माधिक ॥ ५९॥ गाथा ||१|| तिवृत्ताव स्यात्, परजातिवृत्तेविरुद्धत्वात्, ततो नानादेशादिवृत्तीन्यपि सर्वाण्यानुपुर्वीद्रव्याणि आनुपू-|| वृत्तिः वीद्रव्येष्वेव वर्तन्ते इति स्थितम् । एवमनानुपूर्व्यादीनामपि खस्थानावतारो भावनीयः। 'सेत मित्यादि। निगमनम् ।। ७९ ।। उक्तः समवतार!, अथानुगमं विभणिषुरुपक्रमते से किं तं अणुगमे ?, २ नवविहे पण्णत्ते, तंजहा-संतपयपरूवणया १ दव्वपमाणं च२ खित्त ३ फुसणा य४ । कालो य ५ अंतरं ६ भाग ७ भाव ८ अप्पाबहुं चेव ॥१॥ (८०) अत्रोत्तरम्-'अणुगमे नवविहे इत्यादि, तत्र सून्नार्थस्यानुकूलमनुरूपं वा गमनं-व्याख्यानमनुगमः, अथवा सूत्रपठनादनु-पश्चाद्गमनं-व्याख्यानमनुगमः, यदिवा अनुसूत्रमों गम्यते-ज्ञायते अनेनेत्यनुगमो-12 व्याख्यानमेवेत्याद्यन्यदपि वस्त्वविरोधेन स्वधिया वाच्यमिति । स च नवविधो-नवप्रकारो भवति, तदेव नवविधत्वं दर्शयति-तद्यथेत्युपदर्शनार्थः 'संतपयगाहा, सदर्थविषयं पदं सत्पदं तस्य प्ररूपणं-प्रज्ञापन सत्पद्मरूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता सा प्रथमं कर्तव्या, इदमुक्तं भवति-इह स्तम्भकुम्भादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, खरशृङ्गब्योमकुसुमादीनि त्वसदर्थविषयाणि, तत्राऽऽनुपूर्व्यादिपदानि ॥ ५९॥ हैकिं स्तम्भादिपदानीव सदर्थविषयाण्याहोश्चित् (खित्) खरविषाणादिपवत् असदर्थगोचराणीत्येतत् प्रथमं में दीप अनुक्रम [९०-९१] SACROG ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [८०] / गाथा ||८|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक ८०] AAAAAAA गाथा ||१|| पर्यालोचयितव्यं, तथा आनुपूर्व्यादिपदाभिधेयद्रष्याणां प्रमाणं-सङ्ख्याखरूपं प्ररूपणीय, चा समुच्चये, एवमन्यत्रापि, तथा तेषामेव क्षेत्रं-तदाधारस्वरूपं प्ररूपणीयं, कियति क्षेत्रे तानि भवन्तीति चिन्तनीयमित्यर्थः, तथा स्पर्शना च वक्तव्या, कियत् क्षेत्रं तानि स्पृशन्तीति चिन्तनीयमित्यर्थः, तथा कालश्च तस्थितिलक्षणो वक्तव्यः, तथा अन्तरं-विवक्षितखभावपरित्यागे सति पुनस्तद्भावप्रासिविरह लक्षणं प्ररूपणीयं, तथा आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां कतिभागे वर्तन्ते इत्यादिलक्षणो भागः प्ररूपणीया, तथा आनुपूादिद्रव्याणि कस्मिन् भावे वर्तन्ते इत्येवंरूपो भावः प्ररूपणीयः, तथा अल्पबहुत्वं चानुपूादिवब्याणां द्रव्यार्थप्रदेशार्थउभयार्थताश्रयणेन परस्परं स्तोकबहुत्वचिन्तालक्षणं प्ररूपणीयम्, एवकारोऽवधारणे, एतावत्प्रकार एवानुगम इति गाथासमासार्थः ॥१॥८० ।। व्यासार्थ तु ग्रन्थकारः स्वयमेव विभणिषुराद्यावयवमधिकृत्याऽऽह नेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं किं अस्थि नत्थि ?, णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अणाणुपुव्वीदव्वाई किं अत्थि णत्थि ?, णियमा अस्थि, नेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई किं अत्थि णत्थि ?, नियमा अत्थि (सू०८१) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीशब्दाभिधेयानि द्रव्याणि व्यणुकस्कन्धादीनि कि सन्ति नेति प्रश्ना, अनोत्तरम् । -'नियमा अस्थि' इति, एतदुक्तं भवति-नेदं खरशङ्गादिवदानुपूर्वीपद्मसदर्थगोचरम्, अतो नियमात् सन्ति दीप अनुक्रम [९०-९१] ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८१] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधि. [८१] ॥६ ॥ दीप 6456-53-555 तद्भिधेयानि द्रव्याणि, तानि च त्र्यणुकस्कन्धादीनि पूर्व दर्शितान्येव, एवमनानुपूर्यवक्तव्यकपक्षबयेऽपि NIवाच्यम् ॥ ८१ ।। कृता सत्पदप्ररूपणा, अथ द्रव्यप्रमाणमभिधित्सुराह नेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाई किं संखिजाई असंखिजाई अणंताई?, नो संखिजाई नो असंखिज्जाइं अणंताई, एवं अणाणुपुवीदव्वाई अवत्तव्वगदव्वाइं च अणं ताई भाणिअव्वाइं (सू०८२) 'नेगमववहाराणं आणुपुब्बीदव्वाई किं संखेजाइ'मित्यादि, अयमत्र निर्वचनभावार्थ:-दहानुपूय॑नानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणि प्रत्येकमनन्तान्येकैकसिमन्नप्याकाशप्रदेशे प्राप्यन्ते, किं पुनः सर्वलोके, अतः सङ्ख्येयासङ्ख्येयप्रकारद्रयनिषेधेन त्रिष्वपि स्थानेष्वानन्त्यमेव वाच्यमिति । न च वक्तव्यं कथमसब्जयेये लोके अनन्तानि द्रव्याणि तिष्ठन्ति ?, अचिन्त्यत्वात् पुद्गलपरिणामस्य, दृश्यते चैकगृहान्तवाकाशप्रदेशेष्वेकप्रदीपप्रभापरमाणुण्यासष्यप्यनेकापरप्रदीपप्रभापरमाणूनां तत्रैवावस्थानं, न चाक्षिदृष्टेऽप्यर्थेऽनुपपत्तिः, अतिम-10 सङ्गात् इत्यलं प्रपश्चन २॥ ८२॥ इदानी क्षेत्रद्वारमुरुयतेनेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखिज्जइभागे होजा असंखिज्जइभागे ४ १ अवतिष्ठन्तै प्र. अनुक्रम [९२] ॥६ ॥ ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८३] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SSOCN 1८३] दीप अनुक्रम होजा संखेजेसु भागेसु होज्जा असंखेजेसु भागेसु होजा सव्वलोए होज्जा ?, एगं दव्वं पडुच्च संखेजइभागे वा होजा असंखेजइभागे वा होजा संखेजेसु भागेसु वा होजा असंखिज्जेसु भागेसु वा होज्जा सव्वलोए वा होजा, णाणादब्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज्जा । नेगमववहाराणं अणाणुपुव्वीदव्वाइं किं लोअस्स संखिज्जइभागे होज्जा जाव सव्वलोए वा होजा?, एगं दव्वं पडुच्च नो संखेजइभागे होजा असंखिजइभागे होजा नो संखेजेसु भागेसु होजा नो असंखेजेसु भागेसु होजा नो सव्वलोए होजा, णाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा, एवं अव तब्बगदवाई भाणिअब्वाइं (सू० ८३) आनुपूर्वीद्रव्याणि किं लोकस्यैकस्मिन् सङ्ख्याततमे भागे 'होजत्ति आर्षत्वाद्भवन्ति अवगाहन्त इतियावत्, यदिवा एकस्मिन्नसङ्ख्याततमे भागे भवन्ति, उत बहुषु सङ्ख्येयेषु भागेषु भवन्ति, आहोश्निहुष्वसयेयेषु भागेषु भवन्त्यथ च सर्वलोके भवन्तीति पश्च पृच्छास्थानानि, अन्न निर्वचनसूत्रस्येयं भावना-दहानुपू-| १ स्पष्टाः प्रभाः प्रत्यन्तरे २ दयागिलि प्र. 4-%04 [९४]] %4%94%EX अनु. ११ ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८३] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः प्रत सूत्रांक 1८३] दीप अनुक्रम अनुयोIद्रव्याणि ध्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यवसानान्युक्तानि, तत्र च सामान्यत एक द्रव्यमाश्रित्य तथामलधा- विधपरिणामवैचित्र्यात् किचिल्लोकस्यैकस्मिन् सज्जयाततमे भागे भवति, एकं तत्सङ्ख्यातभागमवगाह्य तिष्ठती-31 रीया त्यर्थः, अन्यत्तु तदसङ्ख्येयभागमवगाहते, अपरं तु बहूँस्तत्सङ्ख्येयान् भागानवगाध वर्तते, अन्यच बहूँस्तद- माधि० ॥६१॥ सङ्खयेयभागानवगाय तिष्ठतीति, 'सब्बलोए वा होज'त्ति इहानन्तानन्तपरमाणुप्रचयनिष्पन्न प्रज्ञापनादि-1 प्रसिद्धाचित्तमहास्कन्धलक्षणमानुपूर्वीद्रव्यं समयमेकं सकललोकावगाहि प्रतिपत्तव्यमिति । कथं पुनरयमचित्तमहास्कन्धः सकललोकावगाही स्याद्?, उच्यते, समुद्घातवर्तिकेवलिवत्, तथाहि-लोकमध्यव्यवस्थितोऽसौ प्रथमसमये तियेगसङ्ग्यातयोजनविस्तरं सङ्ख्यातयोजनविस्तरं वा ऊर्ध्वाधस्तु चतुर्दशरज्ज्वायतं विश्रसापरिणामेन वृत्तं दण्डं करोति, द्वितीये कपाट, तृतीये मन्यानं, चतुर्थे लोकव्याप्ति प्रतिपद्यते, पश्चमे अन्तराणि संहरति, षष्ठे मन्यानं सप्तमे कपाटमष्टमे तु दण्डं संहत्य खण्डशो भिद्यत इत्येके, अन्ये वन्यथापि व्याचक्षते, तत्तु विशेषावश्यकादवसेयमिति । वाशब्दः समुचये, एवं यथासम्भवमन्यत्रापि । 'णाणादव्वाई। पडुचे त्यादि, नानाद्रव्याण्यानुपूर्वीपरिणामपन्ति प्रतीत्य प्रकृत्य वा अधिकृत्येत्यर्थः 'नियमात् नियमेन सर्वलोके भवन्ति, न सवयेयादिभागेषु, यतः सर्वलोकाकाशस्य स प्रदेशोऽपि नास्ति यत्र सक्ष्मपरिणामवन्त्यनन्तान्यानुपूर्वीद्रव्याणि न सन्तीति । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येषु वेकं द्रव्यमाश्रित्य लोकस्यासङ्ख्येय ॥६१॥ भाग एवं वृत्तिः, न सन्ख्येयभागादिषु, यतोऽनानुपूर्वी तावत् परमाणुरुच्यते, स काकाशप्रदेशाचगाद| [९४]] JEach ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८३] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक HABAR [८३] एव भवति, अवक्तव्यकं तु व्यणुकस्कन्धः, स चैकप्रदेशावगाढो दिनदेशावगादो वा स्यादिति यथोक्तभागवृत्तितैवेति, नानाद्रव्यभावना पूर्ववदू, इत्युक्त क्षेत्रद्वारम् ॥ ८३ ॥ साम्प्रतं स्पर्शनादारमुच्यते नेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति असंखेजइभागं फुसंति संखेजे भागे फुसंति असंखेजे भागे फुसंति सव्वलोगं फुसंति ?, एगं दव्वं पडुच्च लोगस्स संखेज्जइभागं वा फुसंति जाव सव्वलोगं वा फुसति, णाणादव्वाई पडुच्च निअमा सबलोगं फुसति । गमववहाराणं अणाणुपुवीदव्वाइं लोअस्स किं संखेज्जइभागं फुसंति जाव सव्वलोगं फुसंति ?, एगं दव्वं पडुच्च नो संखिजइभागं फुसंति असंखिज्जइभागं फुसंति नो संखिज्जे भागे फुसंति नो असंखिजे भागे फुसंति नो सव्वलोअं फुसंति, नाणादब्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोअं फुसंति, एवं अवत्तव्वगदव्वाई भाणिअव्वाई (सू०८४) भावना क्षेत्रवारवदेव कर्तव्या, नवरं क्षेत्रस्पर्शनयोरयं विशेष:-क्षेत्रम्-अवगाहाक्रान्तप्रदेशमात्रं, स्पर्शना १ स्पष्टानि उत्तराणि प्र. दीप अनुक्रम [९४]] ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८४] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: उपक प्रत सूत्रांक [८४] अनुयोगातु पदिकः प्रदेशैस्तद्वहिरपि भवति, तथा च परमाणुद्रव्यमाश्रित्य तावदवगाहनास्पर्शनयोरन्यत्रोक्तो भेदा- वृत्तिः मलधा-14'एगपएसोगाई सत्तपएसा य से फुसण'त्ति, अस्यार्थ:-परमाणुद्रव्यमवगाद तावदेकस्मिन्नेवाकाशप्रदेशे,II रीया स्पर्शना तु 'से' तस्य सप्त प्रदेशा भवन्ति, पदिग्व्यवस्थितान् षट् प्रदेशान् पत्र चावगाहस्तं च स्पृशतीत्यर्थः, माधि० एवमन्यत्रापि क्षेत्रस्पर्शनयोआंदो भावनीयः। अत्र सौगताः प्रेरयन्ति-यदि परमाणोः षड्दिक्स्पर्शनाऽभ्युप॥६२॥ गम्यते तहकत्वमस्य हीयते, तथाहि-प्रष्टव्यमत्र, किं येनैव खरूपेणासौ पूर्वाद्यन्यतरदिशा सम्बद्धस्तेनैवान्यदिग्भिरुत स्वरूपान्तरेण ?, यदि तेनैव तदा अयं पूर्वदिकसम्बन्धोऽयं चापरदिक्सम्बन्ध इत्यादिविभागो न स्था, एकखरूपखात्, विभागाभावे च षड्दिक्सम्बन्धवचनमुपप्लवत एच, अधापरो विकल्पः कल्प्यते तर्हि तस्य षट्रखरूपापत्त्या एकत्वं विशीर्यते, उक्तं च-"दिग्भागभेदो यस्यास्ति, तस्यैकत्वं न युज्यत" इति, अत्र प्रतिविधीयते, इह परमाणुद्रव्यमादिमध्यान्त्यादिविभागरहितं निरंशमेकखरूपमिष्यते, अतः सांशवस्तुसम्भवित्वात् परोक्तं विकल्पवयं निरास्पदमेव, अधानभ्युपगम्यमानाऽपि परमाणोः सांशताऽनन्तरोक्तविकल्पवलेनापाद्यते, ननु भवन्तोऽपि तर्हि प्रष्टव्याः कचिद् विज्ञानसन्ताने विवक्षितः कश्चिविज्ञानलक्षणक्षणः खजनकपूर्वक्षणस्य कार्य स्वजन्योत्तरक्षणस्य कारणमित्यन्त्र सौगतानां तावदविप्रतिपत्तिः, तत्रेहापि (तत्रापि) विचार्यते-किमसी येन खरूपेण पूर्वक्षणस्य कार्य तेनैवोत्तरक्षणस्य कारणमुत स्वरूपान्तरेण , यद्याचा पक्ष-12॥६॥ लास्तर्हि यथा पूर्वापेक्षयाऽसौ कार्य तथोत्तरापेक्षयापि स्याद्, यथा वा उत्तरापेक्षया कारणं तथा पूर्वापेक्षयापि दीप अनुक्रम [९५] ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८४] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] दीप स्थादू, एकखरूपत्वात् तस्येति, अथ द्वितीयः पक्षस्तर्हि तस्य सांशत्वप्रसङ्गोऽत्रापि दुर्वारः स्याद्, अथ निरंश एवासी ज्ञानलक्षणक्षणोऽकार्याकारणरूपा तत्तबस्तुव्यापूतत्वात् तथा तथा व्यपदिश्यते, न पुनस्तस्थानेकखरूपत्वमस्ति, नन्वस्माकमपि नेदमुत्तरमतिदुर्लभं स्यात्, यतो द्रव्यतया निरंश एव परमाणुस्तथाविधाचिन्त्यप-1 रिणामस्वात् दिकषट्रेन सह नैरन्तर्येणावस्थितत्वात् तस्य स्पर्शक उच्यते, न पुनस्तत्रांशैः काचित् स्पर्शना समस्तीति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, स्थानान्तरेषु चर्चितत्वादित्यलं विस्तरेण ॥ ८४ ॥ उक्तं स्पर्शना-18 बारम् , इदानीं कालद्वारं बिभणिषुराह णेगमववहाराणं आणुपुन्वीदव्वाइं कालओ केवच्चिरं होइ ?, एगं दव्वं पडुच्च जहपणेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, णाणादव्वाई पडुच्च णियमा सव्वद्धा, अणाणुपुत्वीदव्वाई अवत्तव्यगदव्वाइं च एवं चेव भाणिअव्वाई (सू०८५) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणि 'कालतः' कालमाश्रित्य 'कियचिरं कियन्तं कालं "भवन्ति' आनुपूर्वीत्वपर्यायेणावतिष्ठन्ते ?, अनोत्तरम्-'एग दवमित्यादि, इयमत्र भावना-परमाणुयादेरपरकादिपरमाणुमीलने|ऽपूर्व किश्चिदानुपूर्वीद्रव्यं समुत्पन्न, ततः समयादृर्वं पुनरप्येकाद्यणी वियुक्तेऽपगतस्तद्भाव इत्येकमानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जघन्यतः समयोऽवस्थितिकालः, यदा तु तदेवासङ्ख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वाऽनन्तरोक्तख अनुक्रम [९५] JaEc ~136~ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८५] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८५]] वृत्तिः उपक्रमाधि० दीप अनुयो० रूपेण वियुज्यते तदा उत्कृष्टतोऽसख्येयोऽवस्थितिकाला प्राप्यते, अनन्तं कालं पुनर्नावतिष्ठते, उत्कृष्टाया अपि मलधा-15 पुद्गलसंयोगस्थितेरसख्येषकालत्वादिति । 'नानाद्रव्याणि बहूनि पुनरानुपूर्वीद्रव्याण्यधिकृत्य सर्वाडा स्थितिरीया सर्भवति, नास्ति स कश्चित् कालो यत्रानुपूर्वीद्रव्यविरहितोऽयं लोकः स्यादिति भावः । अनानुपूर्वीअवक्तव्यकद्र- व्येष्वपि जघन्यादिभेदभिन्न एतावानेवावस्थितिकालः, तथाहि-कश्चित् परमाणुरेकं समयमेकाकीभूत्वा | ॥६३॥ ततः परमाण्वादिना अन्येन सह संयुज्यते, इस्थमेकमनानुपूर्वीद्रव्यमधिकृत्य जघन्यतः समयोऽवस्थितिकाला। यदा तु स एवासङ्ख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा अन्येन परमाण्वादिना सह संयुज्यते तदोत्कृष्टतोऽसख्येयोऽवस्थितिकालः संप्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षस्तु पूर्ववदेव भावनीयः। अवक्तव्यकद्रव्यमपि परमाणुबयलक्षणं यदा समयमेकं संयुक्तं स्थित्वा ततो वियुज्यते तदवस्थमेव वाऽन्येन परमाण्वादिना संयुज्यते तदा तस्याव-18 क्तव्यकद्रव्यतया जघन्यतः समयोऽवस्थानं लभ्यते, यदा तु तदेवासख्यातं कालं तद्भावेन स्थित्वा विघटते| तदवस्थमेव वाऽन्येन परमाण्यादिना संयुज्यते तदोत्कृष्टतः अवक्तव्यकद्रव्यतयाऽसख्यातं कालमवस्थानं| प्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षस्तु तथैव भावनीय इति ॥८५॥ उक्तं कालबारम्, अथान्तरद्वारं प्रतिपिपादयिषुराह णेगमववहाराणं आणुपुब्बीदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ?, एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं, नाणादव्वाई पडच्च णस्थि अंतरं । णेग अनुक्रम [९६] ~137 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [८६] / गाथा ||८...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६] मववहाराणं अणाणुपुवीदव्वाणं अन्तरं कालओ केवञ्चिरं होइ?, एग दव्वं पडुच्च जहपणेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, नाणादव्वाइं पड्डुच्च णत्थि अंतरं । णेगमववहाराणं अवत्तव्यगदव्वाणं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ? एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणतं कालं, नाणादव्वाइं पडुच्च णत्थि अंतरं (सू०८६) नैगमव्यवहारयोरानुपूर्वीद्रव्याणामन्तरं कालतः कियचिरं भवतीति प्रश्नः, 'अन्तरं' व्यवधानं, तच क्षेत्रतोऽपि भवति यथा भूतलसूर्ययोरष्टी योजनशतान्यन्तरमित्यतस्तव्यवच्छेदार्थमुक्तम्-'कालतः' कालमाश्रित्य, तयमत्रार्थ:-आनुपूर्वीद्रव्याण्यानुपूर्वीखरूपतां परित्यज्य कियता कालेन तान्येव पुनस्तथा भवन्ति, आनु8. पूर्वीवपरित्यागपुनलाभयोरन्तरे कियान् कालो भवतीत्यर्थः । अन्न निर्वचनम् -'एगं दवमित्यादि' इयमत्र भा-18 बना-इह विवक्षितं ध्यणुकस्कन्धादिकं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं विश्रसापरिणामात् प्रयोगपरिणामावा खण्डशो वियुज्य परित्यक्तानुपूर्वीभावं सञ्जातम्, एकमाच समयादृर्व विश्रसादिपरिणामात् पुनस्तरेव परमाणुभिस्तथैव तन्निष्पन्नमित्येवं जघन्यतः सर्वस्तोकतया एक द्रव्यमाश्रित्याऽनुपूर्वीत्वपरित्यागपुनर्लाभयोरन्तरे समयः प्राप्यते, उत्कृष्टतः सर्वबहुतया पुनरन्तरमनन्तं कालं भवति, तथाहि-तदेव विवक्षितं किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं तथैव भिन्नं, मित्वा च ते परमाणवोऽन्येषु परमाणुव्रपणुकश्यणुकादिषु अनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तेषु अनन्तस्थानेषूत्कृष्टान्तरा SAR SANGA दीप अनुक्रम [९७] +CANCE 45-45 ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८६] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: दावृत्तिः प्रत सूत्रांक [८६] रीया प अनुयोरधिकारादसकृत् प्रतिस्थानमुस्कृष्टां स्थितिमनुभवन्तः पर्यटन्ति, कृत्वा चेत्थं पर्यटनं कालस्यानन्तत्वाद् विश्रसा-रा मलधा- दिपरिणामतो यदा तैरेव परमाणुभिस्तदेव विवक्षितमानुपूर्वीद्रव्यं निष्पद्यते तदाऽनन्त उत्कृष्टान्तरकालः प्रा प्यते, नानाद्रव्याण्यधिकृत्य पुनर्नास्त्यन्तरं, न हि स कश्चित् कालोऽस्ति यत्र सर्वाण्यप्यानुपूर्वीद्रव्याणि युग-4 माधि पदानुपूर्वीभावं परित्यजन्ति, अनन्तानन्तरानुपूर्वीद्रव्यैः सर्वदैव लोकस्याशून्यखादिति भावः । अनानुपूर्वी॥६४॥ द्रव्यान्तरकालचिन्तायां 'एगं दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एकं समय'ति, इह यदा किश्चिदनानुपूर्वीद्रव्यं परमाणुलक्षणमन्येन परमाणुट्यणुकच्यणुकादिना केनचिद् द्रव्येण सह संयुज्य समयादूज़ वियुज्य पुनरपि तथास्वरूपमेव भवति तदा समयलक्षणो जघन्यान्तरकालः प्राप्यते, 'उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं'ति तदेवानानुपूर्वी-1 द्रव्यं यदा अन्येन परमाणुद्यणुकत्र्यणुकादिना केनचिद् द्रव्येण सह संयुज्यते, तत्संयुक्तं चासङ्ख्येयं कालं स्थित्वा वियुज्य पुनस्तथाखरूपमेव भवति तदाऽसङ्ख्यात उत्कृष्टान्तरकालो लभ्यते । अत्राह-ननु अना&नुपूर्वीद्रव्यं यदा अनन्तानन्तपरमाणुप्रचितस्कन्धेन सह संयुज्यते, तत्संयुक्तं चासङ्ख्येयं कालमवतिष्ठते, ततोऽसौ स्कन्धो भिद्यते, भिन्ने च तस्मिन् यस्तस्माल्लघुस्कन्धो भवति तेनापि सह संयुक्तमसङ्ख्यातं कालमवतिष्ठते, पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने यस्तस्माल्लघुतरः स्कन्धो भवति तेनापि संयुक्तमसङ्ख्येयं कालमवतिछते, पुनस्तस्मिन्नपि भिद्यमाने यस्तस्माल्लघुतमः स्कन्धो भवति तेनापि संयुक्तमसङ्ख्येयं कालमवतिष्ठते, इ-1 साता॥६४॥ येवं तत्र भिद्यमाने क्रमेण कदाचिदनन्ता अपि स्कन्धाः संभाव्यन्ते, तत्र च प्रतिस्कन्धसंयुक्तमनानुपूर्वीद्रव्यं 500 दीप अनुक्रम [९७] ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [८६] दीप अनुक्रम [७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [८६] / गाथा ||८...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः यदा यथोक्तां स्थितिमनुभूय तत एकाक्येव भवति तदा तस्य यथोक्तानन्तस्कन्धस्थित्यपेक्षया अनन्तोऽपि कालोऽन्तरे प्राप्यते किमित्यसङ्ख्येय एवोक्तः ?, अत्रोच्यते, स्यादेवं हन्त यदि संयुक्तोऽणुरेतावन्तं कालं तिष्ठेद्, एतच नास्ति, पुद्गलसंयोगस्थितेरुत्कृष्टतोऽप्यसङ्ख्येयकालत्वादित्युक्तमेव, अथ ब्रूयाद्-यस्मिन्नेव स्कन्धे संयुज्यतेऽसौ परमाणुः स चेत्स्कन्धोऽसङ्ख्यकालाद्भियते ततावतैव चरितार्थः पुनलसयोगासख्येयकालनियमो, विवक्षित परमाणु द्रव्यस्य तु वियोगो मा भूदपीति, नैतदेवं यस्यान्येन संयोगो जातस्तस्यासङ्ख्येयकाला वियोगश्चिन्त्यते, यदि च परमाण्वाश्रयः स्कन्धो वियुज्यते तर्हि परमाणोः किमायातः, | तस्यान्यसंयोगस्य तदवस्थत्वात् तस्मादणुत्वेनासौ संयुक्तोऽसङ्ख्यकालादणुत्वेनैव वियोजनीय इति यथोक्त एवान्तरकालो न त्वनन्त इति, कथं पुनरणुत्वेनैव तस्य वियोगश्चिन्तनीय इति चेत् सूत्रप्रामाण्यात्, प्रस्तुतसूत्रे व्याख्याप्रज्ञत्यादिषु च परमाणोः पुनः परमाणुभवनेऽसङ्ख्येयरूपस्यैवान्तरकालस्योक्तत्वादित्यलं विस्तरेण । 'नाणादव्वाहं पडुचे'त्यादि पूर्ववद्भावनीयम् । अवक्तव्यकद्रव्याणामन्तरचिन्तायाम् 'एगं दव्वं पहुचेत्यादि, अत्र भावना-इह कश्चिद् द्विप्रदेशिकः स्कन्धो विघटितः, स्वतन्त्रं परमाणुद्वयं जातं, समयं चैकं तथा स्थित्वा पुनस्ताभ्यामेव परमाणुभ्यां दिप्रदेशिकः स्कन्धो निष्पन्नः, अथवा विघटित एव विप्रदे शिकः स्कन्धोऽन्येन परमाण्वादिना संयुज्य समयादूर्ध्वं पुनस्तथैव वियुक्त इत्यवक्तव्यकस्य पुनरप्यवक्तव्यकभवने उभयथापि समयोऽन्तरे लभ्यते, 'उक्कोसेणं अणतं कालं' इति, कथम् ?, अत्रोच्यते, अवक्तव्यकद्रव्यं For P&Pase Cinly ~ 140~ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८६] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० मलधा- उपक्र रीया [८६] ॥६५॥ दीप किमपि विघटितं विशकलितपरमाणुद्वयं जातं, तचानन्तः परमाणुभिरनन्तर्यणुकस्कन्धरनन्तैख्यणुकस्कन्ध-11 वृत्तिः र्यावदनन्तैरनन्ताणुकस्कन्धैः सह क्रमेण संयोगमासाय उत्कृष्टान्तराधिकाराच्च प्रतिस्थानमसकृदुत्कृष्टां संयोगस्थितिमनुभूय कालस्यानन्तत्वात् यदा पुनरपि तथैव व्यणुकस्कन्धतया संयुज्यते तदा अवक्तव्यकैक- माधि. द्रव्यस्य पुनस्तथाभवने अनन्तोऽन्तरकालः प्राप्यते, नानाद्रव्यपक्षभावना लोके सर्वदैव तद्भावात् पूर्ववद् वक्तव्या ।। ८६ ॥ उक्तमन्तरद्वारम् , साम्प्रतं भागद्वारं निर्दिदिक्षुराह णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाई सेसव्वाणं कइभागे होजा ? किं संखिज्जइभागे होजा असंखिज्जइभागे होजा संखेजेसु भागेसु होजा असंखेजेसु भागेसु होजा?, नो संखिजइभागे होज्जा नो असंखिज्जइभागे होजा नो संखेजेसु भागेसु होज्जा नियमा असंखेजेसु भागेसु होजा । णेगमववहाराणं अणाणुपुत्वीदव्वाई सेसदव्वाणं कइभागे होजा किं संखिजइभागे होजा असंखिज्जइभागे होजा संखेजेसु ॥६५॥ भागेसु होजा असंखेजेसु भागेसु होजा?, नो संखेजइभागे होजा नो असंखेजइभागे अनुक्रम [९७] ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [८७] / गाथा ||८...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७] होजा नो संखेजेसु भागेसु होजा असंखेज्जेसु भागेसु होजा । एवं अवत्तव्वगदव्वा णिवि भाणिअव्वाणि (सू०८७) नैगमव्यवहारयोख्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि सर्वाण्यप्यानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्याणां समस्तानामनानुपूव्यवक्तव्यकद्रव्यलक्षणानां 'कहभागे होज्जत्ति कतिभागे भवन्तीत्यर्थः, किं सख्याततमे भागे| भवन्ति, यथा असत्कल्पनया शतस्य विंशतिमिताः, किमसङ्ख्याततमे भागे भवन्ति , यथा शतस्यैव दश, अथ सङ्ख्यातेषु भागेषु भवन्ति ?, यथा शतस्यैव चत्वारिंशत् षष्टिा, किमसङ्ख्यातेषु भागेषु भवन्ति, यथा शतस्यैवाशीतिरिति प्रश्नः, अत्र निर्वचनम्-'नो संखेवाभागे होना इत्यादि, नियमात् 'असंखेनेसु भागेसु होज्जत्ति, इह तृतीयार्थे सप्तमी, ततश्चानुपूर्वीद्रव्याणि शेषेभ्योऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येभ्योऽसङ्ख्ययै गैरधिकानि, भवन्तीति वाक्यशेषो द्रष्टव्यः, ततश्चायमर्थः प्रतिपत्तव्या-आनुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रव्येभ्यो-12 सङ्ख्येयगुणानि, शेषद्रव्याणि तु तदसख्येयभागे वर्तन्ते, न पुनः शतस्याशीतिरिवानुपूर्वीद्रव्याणि शे-18 पेभ्यः स्तोकानीति, कस्मादेवं व्याख्यायते ?, स्तोकान्यपि तानि भवन्विति चेत्, नैतदेवम् , अघटमानत्वात्, तथाहि-अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येषु एकाकिनः परमाणुपुद्गला पणुकाश्च स्कन्धा इत्येतावन्त्येव द्रव्याणि लभ्यन्ते, शेषाणि तु ज्यणुकस्कन्धादीन्यनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तानि द्रव्याणि समस्तान्यप्यानुपूर्वीरूपाण्येव, दीप अनक्रम RECRका ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८७] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८७] अनुयो. मलधारीया माधिक ॥६६॥ तानि च पूर्वेभ्योऽसङ्ख्येयगुणानि, यत उक्तम्-"एएसि णं भंते! परमाणुपोग्गलाणं संखिजपएसियाणं असंखेजपएसियाणं अणंतपएसियाण य खंधाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सम्वत्थोवा अणंतपएसिया खंधा, परमाणुपोग्गला अणंतगुणा, संखिज्जपएसिआ खंधा संखिज्जगुणा, असंखेजपएसिया खंधा असंखेजगुणा" तन्त्र सूत्रे पुद्गलजाते. सर्वस्या अपि सकाशादसख्यातप्रदेशिकाः स्कन्धा असख्यातगुणा उक्ताः, ते चाऽऽनुपूज्योमन्तर्भवन्ति, अतस्तदपेक्षया आनुपूSI/द्रव्याणि शेषात् समस्तादपि द्रव्यादसडूनख्यातगुणानि, किं पुनरनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्यमानात, ततो यथो रक्तमेव व्याख्यानं कर्तव्यमित्यलं विस्तेरण । 'अणाणुपुव्वीवाईमित्यादि, इहानानुपूर्वीद्रव्याण्यवक्तव्यक द्रव्याणि च शेषरब्याणां यथाऽसख्याततम एव भागे भवन्ति, न शेषभागेषु, तथाऽनन्तरोक्तन्यायादेव भावनीयमिति ॥ ८७॥ उक्तं भागद्वारं, साम्प्रतं भावद्वारमाह णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं कतरंमि भावे होजा? किं उदइए भावे होजा उवसमिए भावे होजा खइए भावे होजा खओवसमिए भावे होजा पारिणामिए भावे १ एतेषां भदन्त ! परमाणुपुद्गलानां सहयप्रदेशिकानामसमेयप्रदेशिकानामनन्तप्रदेशिकानां च स्कन्धानां के केभ्योऽल्पा वा बहुका वा तुल्या वा विशेषाविका वा १, गौतम! सर्वस्तोका अनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः परमाणुपुरला अनन्तगुणाः सोयप्रदेशिकाः स्कन्धाः सलोयगुणाः असलोयप्रदेशिकाः स्कन्धा असक्के 35555 दीप अनक्रम ९८॥ 696 ॥६६॥ वगुणाः ACT ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८८] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८८] दीप अनुक्रम [९९] होजा संनिवाइए भावे होजा ?, णियमा साइपारिणामिए भावे होज्जा, अणाणुपुत्वीदवाणि अवत्तव्बगदव्वाणि अ एवं चेव भाणिअव्वाणि (सू०८८) गमववहाराणमित्यादि प्रश्नः, अत्र चौदयिकादिभावानां शब्दार्थो भावार्थश्च विस्तरेणोपरिष्टात् स्वस्थान एव वक्ष्यते, अत्र निर्वचनसूत्रे 'नियमा साइपारिणामिए भावे होजत्ति परिणमनं-द्रव्यस्य तेन तेन रूपेण वर्तनं-भवनं परिणामः, स एव पारिणामिकः, तत्र भवस्तेन वा निवृत्त इति वा पारिणामिकः, स च द्विविधः-सादिरनादिश्च, तत्र धर्मास्तिकायाद्यरूपिद्रव्याणामनादिः परिणामः, अनादिकालात्तद्रव्यत्वेन तेषां परिणतत्वाद्, रूपिद्रव्याणां तु सादिः परिणामः, अभ्रेन्द्रधनुरादीनां तथापरिणतेरनादित्वाभावाद, एवं च शस्थिते 'नियमाद्' अवश्यंतयाऽऽनुपूर्वीद्रव्याणि सादिपारिणामिक एव भावे भवन्ति, आनुपूर्वीत्वपरिणतेरनादित्वासम्भवात, विशिष्टैकपरिणामेन पुद्गलानामसङ्ख्येयकालमेवावस्थानादिति भावः । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वपीत्थमेव भावना कार्या इति ।। ८८ ॥ उक्तं भावद्वारम्, इदानीमल्पबहुवहारं विभणिषुराह एपसिं णं भंते ! णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाणं अणाणुपुवीदव्वाणं अवत्तव्वगदवाण य दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दवट्रपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा अनु. १२ ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८९] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमाधि० ८९ दीप अनुक्रम [१०० अनुयो. वहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवाइं गमववहाराणं अवमलधारीया तव्वगदव्वाइं दवट्ठयाए अणाणुपुबीदव्वाई दव्वट्टयाए विसेसाहिआई आणुपु व्वीदव्वाइं दवट्टयाए असंखेज्जगुणाई, पएसटुयाए णेगमववहाराणं सव्वत्थोवाई ॥६७॥ अणाणुपुवीदव्वाइं अपएसट्टयाए अवत्तव्वगदव्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहिआई आणुपुत्वीदव्वाइं पएसट्टयाए अर्णतगुणाई, दवट्ठपएसट्टयाए सव्वस्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाइं दव्वट्टयाए अणाणुपुव्वीदव्वाइं दव्वट्रयाए अपएसट्टयाए विसेसाहिआइं अवत्तव्वगदव्वाइं पएसट्टयाए विसेसाहिआई आणुपुवीदवाई दव्वट्ठयाए असंखेजगुणाई ताई चेव पएसट्टयाए अणंतगुणाई, से तं अणुगमे, से तं नेगमवव हाराणं अणोवणिहिआ दव्वाणुपुवी (सू०८९) द्रव्यमेवार्थो द्रव्यार्थः तस्य भावो द्रव्यार्थता तया, द्रव्यत्वेन इत्यर्थः, प्रकृष्टो-निरंशो देशः प्रदेशः स चासाविश्व प्रदेशार्थः तस्य भावः प्रदेशार्थता तया, परमाणुत्वेनेति भावः, द्रव्यार्थप्रदेशार्थतया तु यथोक्तोभयरूप तयेति भावः तदयमर्थ:-एतेषां भदन्त! आनुपूर्व्यादिद्रव्याणां मध्ये 'कयरे कपरेहिंतो'त्ति कतराणि कान्याश्रित्य R ६७॥ EARNI ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८९] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक 4646459 [८९ द्रव्यापेक्षया प्रदेशापेक्षया उभयापेक्षया वाऽल्पानि विशेषहीनस्वादिना बहूनि असख्येयगुणत्वादिना तुल्यानि समसङ्ख्यत्वेन विशेषाधिकानि किञ्चिदाधिक्येनेति, वाशब्दाः पक्षान्तरवृत्तिद्योतकाः, इति पृष्टे दू वाचः क्रमवर्तित्वाद् द्रव्यार्थतापेक्षया तावदुत्तरमुच्यते, तत्र-'सब्वत्थोवाई नेगमववहाराणं अवसब्बगदम्बाई व्वट्टयाए'त्ति नैगमब्यवहारयोः द्रव्यार्थतामपेक्ष्य तावद्वक्तव्यकद्रव्याणि सर्वेभ्योऽन्येभ्यः स्तोकानि सर्व| स्तोकानि, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु द्रव्यार्थनामेवापेक्ष्य विशेषाधिकानि, कथम् ?, वस्तुस्थितिखभावाद, उक्तं च-" एएंसि ण भंते। परमाणुपोग्गलाण दुपएसिपाण खंधाणं कयरे कयरेहिंतो बहुया?, गोयमा! दुपएसिएहिंतोखंधेहिंतो परमाणुपोग्गला बहुग"त्ति,तेभ्योऽपि आनुपूर्वीद्रव्याणि द्रव्यार्थतयैवासङ्ख्येयगुणानि, यतोऽनानुपूर्वीद्रव्येष्ववक्तव्यकद्रव्येषु च परमाणुलक्षणं व्यणुकस्कन्धलक्षणं चकैकमेव स्थानं लभ्यते, आनुपूर्वीद्रव्येषु तु व्यणुकस्कन्धादीन्येकोत्तरवृद्धयाऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्ताम्यनन्तानि स्थानानि प्राप्यन्ते, अतः स्थानबहुत्वादानुपूर्वीद्रव्याणि पूर्वेभ्योऽसख्यातगुणानि । ननु यदि तेषु स्थानान्यनन्तानि तानन्तगुणानि पूर्वेभ्यस्तानि कस्मान्न भवन्तीति चेत्, नैवं, यतोऽनन्ताणुकस्कन्धाः केवलानानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽप्यनन्तभागवर्तित्वात् खभावादेव स्तोका इति न किश्चित्तैरिह बर्द्धते, अतो वस्तुवृत्त्या किलासङ्ख्यातान्येव तेषु स्थानानि प्राप्यन्ते, तदपेक्षया स्वसङ्ख्यातगुणान्येव तानि, एतच पूर्व भागद्वारे लिखितप्रज्ञापनासूत्रात् सर्व भावनीयमित्यलं| १ एतेषां भवन्त ! परमाणुपुद्गलानां विप्रदेशिकानां स्कन्धानां कतरे कतरेभ्यो बहुकाः १, गौतम ! विप्रदेशिकेभ्यः स्कन्धेभ्यः परमाणुपुद्गला बहुकाः. CAREERICA दीप अनुक्रम [१०० ~146~ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८९] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक रीया ८९] अनुयो|विस्तरेण । उतं वष्यातया अल्पबहुत्वम् , इदानी प्रदेशार्थतया तदेवाऽऽह-'पएसट्टयाए सव्यस्थोवाइं नेग- II वृत्तिः मलधा- मववहाराणमित्यादि, नैगमव्यवहारयोः प्रदेशार्थतया अल्पबहुत्वे चिन्त्यमाने अनानुपूर्वीद्रव्याणि सर्वेभ्यः उपक्रस्तोकानि, कुत इत्याह-अपएसट्टयाए'त्ति प्रदेशलक्षणस्यार्थस्य तेष्वभावादित्यर्थः, यदि हि तेषु प्रदेशाः माधिक स्युस्तदा द्रव्यार्थतायामिव प्रदेशाधतायामप्यवक्तव्यकापेक्षयाऽधिकत्वं स्यात्, न चैतदस्ति 'परमाणुरप्रदेश ॥ ६८॥ इति वचनाद्, अतः सर्वस्तोकान्येतानि, ननु यदि प्रदेशार्थता तेषु नास्ति तर्हि तया विचारोऽपि तेषां न शयुक्त इति चेत्, नैतदेवं, प्रकृष्टः-सर्वेसक्ष्मः पुद्गलास्तिकायस्य देशो निरंशो भागः प्रदेश इति व्युत्पत्तेः प्रतिप-12 रमाणु प्रदेशार्थताऽभ्युपगम्यत एव, आत्मव्यतिरिक्तप्रदेशान्तरापेक्षया त्वप्रदेशार्थतेत्यदोषः, अवक्तव्यकद्रव्याणि प्रदेशार्थतयाऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानि, यतः किलासत्कल्पनया अवक्तव्यकद्रव्याणां षष्टिः अनानुपूर्वीद्रव्याणां तु शतं, ततो द्रव्यार्थताविचारे एतानीतरापेक्षया विशेषाधिकान्युक्तानि, अब तु प्रदे-। शार्थताविचारेऽनानुपूर्वीद्रव्याणां निष्प्रदेशत्वात् तदेव शतमवस्थितम् अवक्तव्यकद्रव्याणां त्विह प्रत्येक दिप्रदेशत्वाद् द्विगुणितानां विंशत्युत्तर प्रदेशशतं जायत इति तेषामितरेभ्यः प्रदेशातया विशेषाधिकत्वं भावनीयम् । आनुपूर्वीद्रव्याणि प्रदेशार्थतया अवक्तव्यकद्रव्येभ्योऽनन्तगुणानि भवन्ति, कधम् ?, यतो द्रव्याथेतयाऽपि तावदेतानि पूर्वेभ्योऽसख्यातगुणान्युक्तानि, यदा तु सख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामसख्यातप्रदेशिकस्कन्धानामनन्ताणुकस्कन्धानां च सम्बन्धिनः सर्वेऽपि प्रदेशा विवक्ष्यन्ते तदा महानसी राशिर्भवती दीप अनुक्रम [१०० ६८ ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [८९] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [८९ दीप अनुक्रम [१०० तीति प्रवेशार्थतयाऽभीषां पूर्षेभ्योऽनन्तगुणत्वं भावनीयम् । उक्तं प्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वम्, इदानीमुभयार्थ तामाश्रित्य तदाह-'दब्बठ्ठपएसट्टयाए'इत्यादि, इहोभयार्थताधिकारेऽपि यदेवाल्पं तदेवादी दयते, अववक्तव्यकद्रव्याणि च सर्वाल्पानि इति प्रथममेवोक्तम् , 'सव्वत्थोवाई गमववहाराणं अवत्तब्वगदब्याई दब्व याए'त्ति(च), अपरं चोभयार्थताधिकारेऽपि 'अणाणुपुथ्वीदवाई दचट्ठयाए'इत्यादि यदुक्तम् 'अपएसद्वयादापत्ति, तदात्मव्यतिरिक्तपदेशान्तराभावतोऽनानुपूर्वीद्रव्याणामप्रदेशिकत्वादिति मन्तव्यं, ततश्चेदमक्तं भव-10 ति-द्रव्यार्थतया अप्रदेशार्थतया च विशिष्टान्यनानुपूर्वीद्रव्याण्यवक्तव्यकद्रव्येभ्यो विशेषाधिकानि, शेषभावना तु प्रत्येकचिन्तावत् सर्वा कार्या । आह-यद्येवं प्रत्येकचिन्तायामेव प्रस्तुतोऽर्थः सिद्धः किमनयोभयार्थताचिन्तयेति चेत्, नैवं, यत आनुपूर्वीद्रव्येभ्यस्तत्प्रदेशाः कियताऽप्यधिका इति प्रत्येकचिन्तायां न निश्चितम् , अत्र तु ताई चव पएसट्टयाए अणंतगुणाई' इत्यनेन तनिीतमेव, ततोऽनवगतार्थप्रतिपादनार्थत्वात प्रत्ये-18 कावस्थातो भिन्नयोभयावस्था वस्तूनामिति दर्शनार्थत्वाच युक्तमेवोभयार्थताचिन्तनमित्यदोषः । तदेवमुक्तो नवविधोऽप्यनुगम इति निगमयति-से तं अणुगमे 'त्ति । तद्भणने च समर्थिता नैगमव्यवहारयोरनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी इति निगमयति-से ले नेगमें यादि ।। ८९॥ व्याख्याता नैगमव्यवहारनयमतेन अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्षी, साम्प्रतं संग्रहनयमतेन तामेध व्याश्चिख्यासुराह ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [९०] / गाथा ||८...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० वृत्तिः प्रत सूत्रांक मलधा उपक्र रीया माधि [९०] ॥६९॥ दीप अनुक्रम [१०१] से किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ दवाणुपुव्वी ?, २ पंचविहा पण्णत्ता, तंजहाअट्रपयपरूवणया १ भंगसमुक्कित्तणया २ भंगोवदंसणया ३ समोआरे ४ अणुगमे ५ (सू०९०) सामान्यमात्रसंग्रहणशीलः संग्रहो नयः, अथ तस्य संग्रहनयस्य किं तदस्त्वनीपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति प्रश्नः, आह-ननु नैगमसंग्रहव्यवहारेत्यादिसूत्रक्रमप्रामाण्यानगमानन्तरं संग्रहस्योपन्यासो युक्तः, तस्किमिति व्यवहारमपि निर्दिश्य ततोऽयमुच्यत इति, सत्यं, किन्तु नैगमव्यवहारयोरत्र तुल्यमतत्वाल्लाघवार्थ युगपत् तन्निर्देशं कृत्वा पश्चात् संग्रहो निर्दिष्ट इत्यदोषः । अत्र निर्वाचनमाह-संगहस्स अणोवणिहिया दव्वाणुपुथ्वी पंचविहा पण्णत्त'त्ति, संग्रहनयमतेनाप्यनोपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी-प्राग्निरूपितशब्दार्था पञ्चभिरर्थपदप्ररूपणतादिभिः प्रकारैर्विचार्यमाणत्वात् पञ्चविधा-पश्चप्रकारा प्रज्ञप्ता । तदेव दर्शयति-तंजहेत्यादि, अत्र व्याख्या पूर्ववदेव ॥१०॥ से किं तं संगहस्स अट्टपयपरूवणया ?, २ तिपएसिए आणुपुव्वी चउप्पएसिए आणुपुठवी जाव दसपएसिए आणुपुव्वी संखिज्जपएसिए आणुपुव्वी असंखिजपएसिए ॥६९॥ ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [९१] / गाथा ||८...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः आणुपुब्बी अपएसए आणुपुव्वी परमाणुपोग्गले अणाणुपुथ्वी दुपपसिए अवत्त aar, से तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया ( सू० ९१ ) यावत् 'तिपएसिए आणुपुब्बी इत्यादि, इह पूर्वमेकस्त्रिप्रदेशिक आनुपूर्वी अनेके त्रिप्रदेशिका आनुपूर्व्य इत्याद्युक्तम्, अत्र तु संग्रहस्य सामान्यवादित्वात् सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिका एकैवाऽऽनुपूर्वी, इमां चात्र युक्ति| मयमभिधत्ते- त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धास्त्रिप्रदेशिकत्वसामान्याद् व्यतिरेकिणोऽव्यतिरेकिणो वा ?, पयायः पक्षस्तर्हि ते त्रिप्रदेशिकाः स्कन्धाः त्रिप्रदेशिका एव न भवन्ति, तत्सामान्यव्यतिरिक्तत्वात्, द्विप्रदेशिकादिवदिति, अथ चरमः पक्षस्तर्हि सामान्यमेव ते, तदव्यतिरेकात्, तत्खरूपवत्, सामान्यं चैकस्वरूपमेवेति सर्वेऽपि त्रिप्रदेशिका एकैवानुपूर्वी, एवं चतुष्प्रदेशिकत्वसामान्याव्यतिरेकात् सर्वेऽपि चतुष्प्रदेशिका एकैवानुपूर्वी, एवं यावदनन्तप्रदेशिकत्वसामान्याव्यतिरेकात् सर्वेऽप्यनन्तप्रदेशिका एकैवाऽऽनुपूर्वी इत्यविशुद्धसंग्रहनयमतं, विशुद्ध संग्रहनयमतेन तु सर्वेषां त्रिप्रदेशिकादीनामनन्ताणुकपर्यन्तानां स्कन्धानामानुपूर्वीत्व सामान्यान्यतिरेकाद्व्यतिरिक्ते चानुपूर्वीत्वाभावप्रसङ्गात् सर्वाऽप्येकैवानुपूर्वीति । एवमनानुपूर्वीत्वसामान्याव्यतिरेकात् | सर्वेऽपि परमाणुपुद्गला एकैवानानुपूर्वी, तथाऽवक्तव्यकत्व सामान्याव्यतिरेकात् सर्वेऽपि द्विप्रदेशिकस्कन्धा एकमेवावक्तव्यकमिति सामान्यवादित्वेन सर्वत्र बहुवचनाभावः, 'से त'मित्यादि निगमनम् ॥ ९१ ॥ भङ्गसमुस्कीर्तनतां निर्दिदिक्षुराह For P&Praise Cnly ~ 150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१२] / गाथा ||८...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो. प्रत सूत्रांक मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधि. [११] ॥७०॥ एआए णं संगहस्स अट्रपयपरूवणयाए किं पओअणं?, एआए णं संगहस्स अट्रपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुक्त्तिणया कज्जइ ॥ से किं तं संगहस्स भंगसमुक्तितणया ?, २ अस्थि आणुपुवी १ अस्थि अणाणुपुव्वी २ अस्थि अवत्तव्वए ३, अहवा अत्थि आणुपुव्वी अ अणाणुपुव्वी अ४ अहवा अस्थि आणुपुवी अ अवत्तव्वए अ ५ अहवा अस्थि अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्वए अ ६ अहवा अत्थि आणुपुत्वी अ अणाणुपुव्वी अ अवत्तव्बए अ७, एवं सत्त भंगा, से तं संगहस्स भंगसमुकित्तणया॥ एआए णं संगहस्स भंगसमुकित्तणयाए किं पओयणं?, एयाएणं संगहस्स भंगसमुक्कि तणयाए संगहस्स भंगोवदंसणया कीरइ (सू०९२) अन्नापि व्याख्या कृतैव द्रष्टव्या यावत् 'अत्थि आणुपुव्वी'त्यादि, इहैकवचनान्तात्रय एच प्रत्येकभङ्गाः, सामान्यवादित्वेन ब्यक्तिबहुत्याभावतो बहुवचनाभावादू, आनुपूष्योंदिपद्मयस्य च यो दिकसंयोगा| भवन्ति, एकैकसिंग निकयोंगे एकवचनान्त एक एव भङ्गः, त्रिकयोगेऽपि एक एवैकवचनान्त इति, सर्वेऽपि सप्त- I भङ्गाः संपद्यन्ते, शेषास्त्धेकोनविंशतिर्बहुवचनसम्भविस्वान्न भवन्ति । अत्र स्थापना-आनुपूर्वी १ अनानु दीप अनुक्रम [१०२] ॐॐॐ n Jal ~151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२] / गाथा ||८...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [१०४] पूर्वी १ अवक्तव्यक १ इति त्रयः प्रत्येकभङ्गाः, आनुपूर्वी १ अनानुपूर्वी १ इति प्रथमो द्विकयोगः, आनुपूर्वी १ अवक्तव्यक १ इति द्वितीयो बिकयोगः, अनानुपूर्वी अवक्तव्यक इति तृतीयो दिकयोगः, आनुपूर्वी १ अनाहै|नुपूर्वी १ अवक्तव्यक १इति त्रिकयोगः, एवमेते सप्त भङ्गाः। 'सेत'मित्यादि निगमनम् ॥ १२॥ भोपदर्श-IN |नतां विभणिषुराह से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया ?, २ तिपएसिया आणुपुठवी परमाणुपोग्गला अणाणुपुवी दुपएसिया अवत्तव्वए, अहवा तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य आणुपुब्बी य अणाणुपुटवी य, अहवा तिपएसिया य दुपएसिया य आणुपुव्वी य अवत्तव्वए य अहवा परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य अणाणुपुवी य अवत्तव्वए य अहवा तिपएसिया य परमाणुपोग्गला य दुपएसिया य आणुपुब्बी य अणाणुपुव्वी य अवत्तव्वए य, से तं संगहस्स भंगोवदंसणया (सू०९३) से किं तं संगहस्स समोयारे ?, २ संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई कहिं समोयरंति ?, किं आणुपुत्वीदव्वेहिं समोयरंति ? अणाणुपुवीदव्वेहिं समोयरंति ? अवत्तव्वगदव्वेहि XCHAR 6-18SE ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [४] दीप अनुक्रम [१०५ ] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [९४] / गाथा ||८...|| ...... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० सलधा रीया ॥ ७१ ॥ समोयरंति ?, संगहस्स आणुपुब्वीदव्वाइं आणुपुब्बीदव्वेहिं समोयरंति नो अणापुव्वदव्वेहिं समोयरंति नो अवसव्वगदव्वेहिं समोयरंति, एवं दोन्निवि सहाणे सट्टाणे समोयरंति से तं समोयारे ( सू० ९४ ) अत्रापि सप्तभङ्गास्त एवार्थकथनपुरस्सरा भावनीयाः, भावार्थस्तु सर्वः पूर्ववत्, 'से त'मित्यादि निगमनम् । अथ समवताराभिधित्सया प्राह-'से किं तं संगहस्स समोयारे इत्यादि इदं च द्वारं पूर्ववन्निखिलं भावनीयम् ।। ९३-९४ ॥ अथानुगमं व्याचिख्यासुराह से किं तं अणुगमे १, २ अटुविहे पन्नत्ते, तंजहा संतपय परूवणया दव्वपमाणं च खित्तफुसणा य । कालो य अंतरं भाग भावे अप्पाबहुं नत्थि ॥ १ ॥ संगहस्स आणुपु०वीदव्वाई किं अत्थि णत्थि ?, नियमा अस्थि, एवं दोन्निवि । संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई किं संखिज्जाई असंखेज्जाइं अनंताई ?, नो संखेजाइं नो असंखेजाइं नो अनंताई नियमा एगो रासी, एवं दोन्निवि । संगहस्स आणुपुव्वदव्वाई लोगस्स कइभागे होजा? किं संखेजड़भागे होजा असंखेजइभागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होजा असं For P&Pale Cnly ~ 153~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ७१ ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [९५] / गाथा ||९|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ॥१॥ खेजेसु भागेसु होजा सव्वलोए होज्जा ?, नो संखेजइभागे होज्जा नोअसंखेज्जइभागे होजा नो संखेजेसु भागेसु होज्जा नो असंखेजेसु भागेसु होजा नियमा सव्वलोए होज्जा, एवं दोन्निवि । संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखेजइभागं फुसंति असंखेजइभागं फुसंति संखिजे भागे फुसंति असंखिजे भागे फुसंति सव्वलोगं फुसंति ?, नो संखेजइभागं फुसंति जाव नियमा सव्वलोगं फुसंति, एवं दोन्निवि । संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाइं कालओ केवच्चिरं होंति ?, सव्वद्धा, एवं दोपिणवि । संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाणं कालतो केवञ्चिरं अंतरं होंति ?, नत्थि अंतरं, एवं दोषिणवि । संगहस्स आणुपुवीदव्वाइं सेसदव्वाणं कइभागे होज्जा ? किं संखेजइभागे होजा असंखेजइभागे होज्जा संखेज्जेसु भागेसु होजा असंखेजेसु भागेसु होज्जा ?, नो संखेजइभागे होज्जा नो असंखेजइभागे होजा नो संखेजेसु भागेसु होज्जा नो असंखेजेसु भागेसु होज्जा नियमा तिभागे होजा, एवं दोन्निवि । CCESSAGE दीप अनुक्रम [१०६-१०८] । ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [९५] / गाथा ||९|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः अनुयो मलधारीया उपक्रमाधि गाथा ॥७२॥ ॥१॥ संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई कयरंमि भावे होज्जा ?, नियमा साइपारिणामिए भावे होजा, एवं दोनिवि । अप्पावडं नस्थि । से तं अणुगमे, से तं संगहस्स अणोव 'णिहिया दव्वाणुपुव्वी, से तं अणोवणिहिया दव्वाणुपुव्वी (सू० ९५) ___ अत्रोत्तरम्-'अणुगमे अट्ठविहे पन्नत्ते इति पूर्व नवविध उक्तोऽत्र त्वष्टविध एव, अल्पबहुत्ववाराभावात्, तदेवाष्टविधत्वं दर्शयति-तयथेत्युपदर्शनार्थी, संतपय गाहा, इयं पूर्व व्याख्यातेव, नवरं 'अप्पाबहं। नत्थि' संग्रहस्य सामान्यवादित्वात् सामान्यस्य च सर्वत्रैकत्वादल्पबहुत्वविचारोऽत्र न संभवतीत्यर्थः। तत्र सत्पदनरूपणताभिधानार्थमाह-संगहस्से'त्यादि, ननु संग्रहविचारे प्रक्रान्ते आनुपूर्वीद्रव्याणि सन्तीत्यनुपपन्नम् , आनुपूर्वीसामान्यस्यैवैकस्य तेनास्तित्वाभ्युपगमात्, सत्यं, मुख्यरूपतया सामान्यमेवास्ति, गुणभूतं |च व्यवहारमात्रनिवन्धनं द्रव्यबाहुल्यमप्यसौ वदतीत्यदोषः, शेषभावना पूर्ववदिति । द्रव्यप्रमाणबारे यदुक्तं 'नियमा एगो रासिसि, अत्राह-ननु यदि सन्ख्येयादिस्वरूपाणि एतानि न भवन्ति तयेको राशिरित्यपि कानोपपद्यते, द्रव्यवाहुल्ये सति तस्योपपद्यमानत्वाद, बीद्यादिराशिषु तथैव दर्शनात्, सत्यं, किन्त्वेको राशि-14 रिति वदतः कोऽभिप्रायः ?, बहनामपि तेषामानुपूर्वीत्वसामान्येनकेन कोडीकृतत्वादेकत्वमेव, किं च-यथा X विशिष्टैकपरिणामपरिणते स्कन्धे तदारम्भकावयवानां बाहुल्येऽप्येकतैव मुरूया,तहबाऽऽनुपूर्वीद्रव्यवाहुल्येऽपि दीप अनुक्रम [१०६-१०८] ॥७२॥ ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...................... मूलं [९५] / गाथा ||९|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक गाथा ॥१॥ तत्सामान्यस्यैकरूपत्वादेकत्वमेव मुख्यमसौ नयः प्रतिपद्यते, तदशेनैव तेषामानुपूर्वीत्वसिद्धेः, अन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, तस्मान्मुख्यस्यैकत्वस्थानेन कक्षीकृतत्वात् सङ्ख्येयरूपतादिनिषेधो गुणभूतानि द्रव्याण्याश्रित्य राशिभावोऽपि न विरुध्यते, एवमन्यत्रापि भावनीयमित्यलं प्रपश्चेन । क्षेत्रद्वारे 'नियमा सव्वलोए होज'त्ति आनुपूर्वीसामान्यस्यैकत्वात् सर्वलोकव्यापित्वाचेति भावनीयम्, एवमितरदयेऽप्यभ्यूह्यमिति । स्पर्शनादारमप्येवमेव चिन्तनीयमिति । कालद्वारेऽपि तत्सामान्यस्य सर्वदाऽव्यवच्छिन्नत्वात् त्रयाणामपि सर्वाद्धाऽवस्थानं भावनीयमिति, अत एवान्तरबारे जास्त्यन्तरमित्युक्तं, तदभावव्यवच्छेदस्य कदाचिदप्यभावादिति। भागद्वारे 'नियमा तिभागे होज्जत्ति त्रयाणां राशीनामेको राशिस्त्रिभाग एवं वर्तत इति भावः, यत्तु राशिॐागतद्रव्याणां पूर्वोक्तमत्पबहुत्वं तत्र न गण्यते, द्रव्याणां प्रस्तुतनयमते व्यवहारसंवृत्तिमात्रेणैव सत्त्वा-18 दिति । भावहारे 'सादिपारिणामिए भावे होज'त्ति यथा आनुपूादिद्रव्याणामेतद्भाववर्तित्वं पूर्व भावितं | तथाऽत्रापि भावनीयं, तेषां यथाखं सामान्याव्यतिरिक्तत्वादिति । अल्पवहुत्वद्वारासम्भवस्तूक्त एच, इति समर्थितोऽनुगमः, तत्समर्थने च समर्थिता संग्रहमतेनानीपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी, तत्समर्थने च व्याख्याता सर्वथाऽपीयम् . अतः ‘से त'मित्यादि निगमनत्रयम् ॥१५॥ गताऽनोपनिधिकीद्रव्यानुपूर्वी, साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टामेवोपनिधिकी तां व्याचिख्यासुराह मानुपूर्वासामान्यीकरूपत्वात एकत्यमेव मुख्पमसी नयः प्रतिपद्यते, तदशेनैव तेषामानुपूर्वाद्वारमपि (प्र.) इदमेकत्ययोधनाय टोपितगभविष्यदिति क्षवित्वोपेक्षितम्, दीप अनुक्रम [१०६-१०८] अनु. १३ HETAN ~156~ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [९६] दीप अनुक्रम [१०९ ] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ९६] / गाथा ||९...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया से किं तं उवणिहिया दव्वाणुपुव्वी १, २ तिंविहा पन्नत्ता, तंजहा- पुव्वाणुपुव्वी पच्छापुव्वी अणाणुपुवीय ( सू० ९६ ) ॥ ७३ ॥ अथ केयं प्रागनिर्णीत शब्दार्थमात्रा औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वीति प्रश्नः अत्र निर्व्वचनम् औपनिधिकीॐ द्रव्यानुपूर्वी त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा पूर्वानुपूर्वीत्यादि, उपनिधिर्निक्षेपो विरचनं प्रयोजनमस्या इत्यौपनिधिकी द्रव्यविषयाऽऽनुपूर्वी-परिपाटिर्द्रव्यानुपूर्वी, सा त्रिप्रकारा, तत्र विवक्षितधर्म्मास्तिकायादिद्रव्यविशेषसमुदाये यः पूर्वः - प्रथमस्तस्मादारभ्यानुपूर्वी अनुक्रमः परिपाटिः निक्षिप्यते विरच्यते यस्यां सा पूर्वानु पूर्वी, तत्रैव यः पाश्चात्यः- चरमस्तस्मादारभ्य व्यत्ययेनैवानुपूर्वी-परिपाटिः विरच्यते यस्यां सा निरुक्तविधिना पश्चानुपूर्वी न आनुपूर्वी अनानुपूर्वी, यथोक्तप्रकारद्वयातिरिक्तस्वरूपेत्यर्थः ॥ ९६ ॥ तत्राद्यभेदं तावन्निरूपयितुं प्रश्नमाह से किं तं पुव्वाणुपुवी १, २ धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिare पोग्गलत्थकाए अद्धासमए से तं पुव्वाणुपुव्वी से किं तं पच्छाणुपुव्वी १, २ असम पोग्गलत्थकाए जीवत्थिकाए आगासत्थिकाए अहम्मत्थिकाए धम्मत्थि For P&Peale Cinly ~ 157 ~ वृत्तिः उपक्रमाधि० ॥ ७३ ॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [९७] / गाथा ||९...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९७] काए, से तं पच्छाणुपुव्वी। से किं तं अणाणुपुव्वी?, २ एयाए चेव एगाइआए एगु त्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दूरुचूणो से तं अणाणुपुठवी (सू०९७) इह च द्रव्यानुपूर्व्यधिकाराद् धर्मास्तिकायादीनामेव च द्रव्यत्वादित्यं निर्वचनमाह-'धम्मत्धिकाए' इत्यादि, तत्र जीवपुद्गलानां खत एवं गतिक्रियापरिणतानां तत्स्वभावधारणादू धर्मः, अस्तयः-प्रदेशास्तेषां कायः-सङ्घातोऽस्तिकायः, धर्मश्चासावस्तिकायश्चेति समासः, सकललोकव्याप्यसङ्ख्येयप्रदेशात्मकोऽमूर्तद्रव्यविशेष इत्यर्थः, जीवपुद्गलानामेव तथैव गतिपरिणतानां तत्वभावाधारणादधमे, जीवपुद्गलानां स्थित्यु-8 पष्टम्भकारक इत्यर्थः, शेषं धर्मास्तिकायवत् सर्व, सर्वभावावकाशनादाकाशम्, आ-मर्याद्या तत्संयोगेऽपि खकीयस्वरूपेऽवस्थानतः सर्वथा तत्स्वरूपत्वाप्राप्तिलक्षणया प्रकाशन्ते-खभावलाभेन अवस्थितिकरणेन च दीप्यन्ते पदाधेसार्था यत्र तदाकाशमिति, अथवा आ-अभिविधिना सर्वात्मना तत्संयोगानुभवनलक्षणेन काशन्ते-तत्रैव दीप्यन्ते पदार्था यत्र तदाकाशमिति भावः, तच तदस्तिकायश्चेति आकाशास्तिकाया, लोकालोकव्याप्यनन्तप्रदेशात्मको मूर्तद्रष्यविशेष इत्यर्थः, जीवन्ति जीविष्यन्ति जीवितवन्त इति जीवा:18 ते च तेऽस्तिकायाश्चेति समासः, प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशात्मकसकललोकभाविनानाजीवद्रव्यसमूह इत्यर्थः पूरणगलनधर्माणः पुद्गला:-परमाण्वादयोऽनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्ताः, ते हि कुतनिद्रव्यागलन्ति-वियुज्यन्ते । किश्चित्तु द्रव्यं तत्संयोगतः पूरयन्तीति भावः, तेच तेऽस्तिकायाति समासः, अद्धाशन्दः कालवचन: ४ दीप अनुक्रम [११०] ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ९७] / गाथा ||... || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ७४ ॥ समयः सङ्केतादिवाचकोऽप्यस्ति ततो विशिष्यते - अद्धारूपः समयोऽद्धासमयः, वक्ष्यमाणपट्टसाटिकादिपाटनदृष्टान्तसिद्धः सर्वसूक्ष्मः पूर्वापरकोटिविप्रमुक्तो वर्तमान एकः कालांश इत्यर्थः, अत एवात्र अस्तिकायत्वाभावः बहुप्रदेशत्व एव तद्भावाद्, अत्र त्वतीतानागतयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेन वर्तमानस्यैकस्यैव कालप्रदेशस्य सद्भावात्, नन्वेवमावलिकादिकालाभावः, समयबहुत्व एव तदुपपत्तेरिति चेद् भवतु तर्हि को निवारयिता ?, 'समयावलियमुहुत्ता दिवसमहोरत्तपक्वमासा य इत्याद्यागमविरोध इति चेत्, नैवम्, अभिप्रायापरिज्ञानाद्, व्यवहारनयमतेनैव तत्र तत्सत्त्वाभ्युपगमाद्, अत्र तु निश्चयनयमतेन तदसत्त्वप्रतिपादनात् न हि पुद्गलस्कन्धे परमाणुसङ्गात इवावलिकादिषु समयसङ्घातः कश्चिदवस्थितः समस्तीति तदसत्त्वमसौ प्रतिपद्यत इत्यलं चर्चयेति । अत्र च जीवपुद्गलानां गत्यन्यथाऽनुपपत्तेर्धर्मास्तिकायस्य तेषामेव स्थित्यन्यथाऽनुपपत्तेरधर्मास्तिकायस्य सत्वं प्रतिपत्तव्यं, न च वक्तव्यं तङ्गतिस्थिती च भ |विष्यतो धर्माधर्मास्तिकायी च न भविष्यत इति प्रतिबन्धाभावादेनकान्तिकतेति, तावन्तरेणापि तद्भवनेऽलोकेऽपि तत्प्रसङ्गात्, यदि तु अलोकेऽपि तद्वतिस्थिती स्यातां तदाऽलोकस्यानन्तत्वाल्लोकान्निर्गत्य जीवपुद्गलानां तत्र प्रवेशादेकविध्यादिजीवपुद्गलयुक्तः सर्वथा तच्हन्यो वा कदाचिल्लोकः स्यात् न चैतद्दृष्टमिष्टं वेत्याधन्यदपि दूषणजालमस्ति, न चोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति । आकाशं तु जीवादिपदार्थानामाधारान्य १ समय आवलिका मुहतों दिवसोऽहोरात्रं पक्षो मासव. For P&Praise Cly ~ 159~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ७४ ॥ watyw Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ९७] / गाथा ||९|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Ehem थाऽनुपपत्तेरस्तीति श्रद्धेयं, न च धर्माधर्मास्तिकायावेव तदाधारौ भविष्यत इति वक्तव्यं, तयोस्तद्गतिस्थितिसाधकत्वेनोक्तत्वात्, न चान्यसाध्यं कार्यमन्यः साधयति, अतिप्रसङ्गादिति । घटादिज्ञानगुणस्य प्रतिप्राणि स्वसंवेदनसिद्धत्वाज्जीवस्यास्तित्वमवसातव्यं, न च गुणिनमन्तरेण गुणसत्ता युक्ता, अतिप्रसङ्गात्, न च देह एवास्य गुणी युज्यते, यतो ज्ञानममूर्त चिद्रूपं सदैवेन्द्रियगोचरातीतत्वादिधम्मोपेतम्, अतः तस्यानुरूप एव कश्चिद्गुणी समन्वेषणीयः, स च जीव एव न तु देहो, विपरीतत्वाद्, यदि पुनरननुरूपोऽपि गुणानां गुणी कल्प्यते तर्ह्यनवस्था, रूपादिगुणानामप्याकाशादेर्गुणित्वकल्पनाप्रसङ्गादिति । पुद्गलास्तिकायस्य तु घटादिकार्यान्यथानुपपत्तेः प्रत्यक्षत्वाच्च सत्वं प्रतीतमेवेति । कालोऽप्यस्ति बकुलाशोकचम्पकादिषु पुष्पफलप्रदानस्यानियमेनादर्शनाद्, यस्तु तत्र नियामकः स काल इति, स्वभावादेव तु तद्भवने 'नित्यं सत्त्वमसत्त्वं वेत्यादिदूषणप्रसङ्गः, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, ग्रन्थदुरवगमताभयादिति । आह-धर्मास्तिकायस्य प्राथम्यमत्रमस्तिकायादीनां तु तदनन्तरं क्रमेणेत्थं निर्देशः कुतः सिद्धो ? येनात्र पूर्वानुपूर्वीरूपता स्यादिति, अत्रोच्यते, आगमे इत्थमेव पठितत्वात् तत्रापि कथमित्थमेव पाठ इति चेदू, उच्यते, धर्मास्तिकाय इत्यत्र यदार्थ धर्मेति पदं तस्य माङ्गलिकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य प्रथममुपन्यासः, ततस्तत्प्रतिपक्षत्वादधर्मास्तिकायस्य, ततस्तदाधारत्वादाकाशास्तिकायस्य ततः खाभाविकामूर्तत्व साम्पाजीवास्तिकायस्थ, ततस्तदुपयोगित्वात् पुद्गलास्तिकायस्थ, ततो जीवाजीवपर्यायत्वात् तदनन्तरमद्धासमयस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीसिद्धिरिति । अथ For P&Paley ~ 160~ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [९७] / गाथा ||९...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मलधा- रीया [९७] ॥७५ ॥ दीप अनुक्रम [११०] पश्चानुपूर्वी निरूपयितुमाह-'से किं तं पच्छाणुपुब्बी'त्यादि, पाश्चात्यादारभ्य प्रतिलोमं व्यत्ययेनैवानुपूर्वी-परि वृत्तिः पाटिः क्रियते यस्यां सा पश्चानुपूर्वी, अत्रोदाहरणमुत्क्रमेण, इदमेवाह-'अहासमयेत्यादि,गतार्थमेव । अथा उपक्रनानुपूर्वी निरूपयति-से किं तमित्यादि, अन निर्वचनम्-'अणाणुपुब्बी एयाए चेवें'त्यादि, न विद्यते आनु माधि० पूर्वी-यथोक्तपरिपाटिद्वयरूपा यस्यां सा अनानुपूर्वी, विवक्षितपदानामनन्तरोतक्रमवयमुल्लाथ परस्परासदशैः सम्भवद्भिर्भङ्गकैर्यस्यां विरचना क्रियते साऽनानुपूर्वीत्यर्थः, का पुनरियमित्याह-'अन्नमनभासो'त्ति, अन्योऽन्य-परस्परमभ्यासो-गुणनमन्योऽन्याभ्यासः 'दूरुवोणोति बिरूपन्यूनः आद्यन्तरूपरहितः अनानुपूर्वीति सण्टङ्कः, कस्यां विषये योऽसावभ्यास इत्याह-श्रेण्यां' पती, कस्यां पुनः श्रेण्यामित्याह-एयाए चेवें'ति, 'अस्यामेव' अनन्तराधिकृतधर्मास्तिकायादिसम्बन्धिन्यां, कथंभूतायामित्याह-एक आदिर्यस्यां सा एकादिकी,13 एकैक उत्तरः प्रवर्द्धमानो यस्यां सा एकोत्तरा तस्यां पुनः कथंभूतायामित्याह-'छगच्छगयाए'त्ति, षषणां गच्छ:-समुदायः षड्गच्छस्तं गता-प्राप्ता षड्गच्छगता तस्यां, धर्मास्तिकायादिवस्तुषदविषयाषामित्यथें, आदी व्यवस्थापितककायाः पर्यन्ते न्यस्तषठाया धर्मास्तिकायादिवस्तुषविषयायाः पङ्गेयों परस्परगुणने भनाकसया भवति सा आचन्तभङ्गकबयरहिता अनानुपूर्वीति भावार्थः । तत्रोधिः किलैककादयः षट्पर्यन्ता| अङ्काः स्थापिताः, तत्र चैककेन बिके गुणिते जातौ दावेव, ताभ्यां त्रिको गुणितो जाताः षट्, तैरपि चतु-10 VI॥७५॥ ष्कको गुणितो जाता चतुर्विंशतिः, पञ्चकस्य तु तद्गुणने जातं विंशं शतं, षट्रस्य तद्गुणने जातामि विंशत्य ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ९७] / गाथा ||... || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ebcman |धिकानि सप्त शतानि । स्थापना ६५४३२१, आगतम् ७२०, अत्राऽऽयो भङ्गः पूर्वानुपूर्वी अन्त्यस्तु पश्चानुपूवति तदपगमे शेषाण्यष्टादशोत्तराणि सप्त भङ्गकशतान्यनानुपूर्वीति मन्तव्यानि । अत्र च भङ्गकस्वरूपानयनार्थ करणगाथा - 'पुष्वाणुपुच्वि हिट्ठा समयाभेएण कुरु जहाजे । उवरिमतुलं पुरओ नसेज पुग्वकमो सेसे ॥ १ ॥ इति, व्याख्या इह विवक्षितपदानां क्रमेण स्थापना पूर्वानुपूर्वीत्युच्यते, तस्याः 'हेट्ठ'त्ति अधस्ताद् द्वितीयादिभङ्गकान् जिज्ञासुः 'कुरुति स्थापय एकादीनि पदानीति शेषः, कथमित्याह-ज्येष्ठस्यानतिक्रमेण यथाज्येष्ठं, यो यस्यादौ स तस्य ज्येष्ठो, यथा द्विकस्यैकको ज्येष्ठः, त्रिकस्य त्वेककोऽनुज्येष्ठः, चतुष्कादीनां तु स एव ज्येष्ठानुज्येष्ठ इति, एवं त्रिकस्य द्विको ज्येष्ठः स एव चतुष्कस्यानुज्येष्ठः, पञ्चकादीनां तु स एव ज्येष्ठानुज्येष्ठ इत्यादि, एवं च सति उपरितनाङ्कस्य अधस्ताज्ज्येष्ठो निक्षिप्यते, तत्रालभ्यमाने अनुज्येष्ठः, तत्राप्यलभ्यमाने ज्येष्ठानुज्येष्ठ इति यथाज्येष्ठं निक्षेपं कुर्यात्, कथमित्याह - 'समयाभेदेने ति समयः सङ्केतः प्रस्तुतभङ्गकरचनव्यवस्था तस्य अभेदः - अनतिक्रमः, तस्य च भेदस्तदा भवति यदा तस्मिन्नेव भङ्गके निक्षिप्ताङ्कसदृशोऽपरोऽङ्कः पतति, ततो यथोक्तं समयभेदं वर्जयन्नेव ज्येष्ठायङ्कनिक्षेपं कुर्याद्, उक्तं च- “जहियंमि उ निक्खिसे पुणरवि सो चेव होइ कायव्वो । सो होह समयभेओ वज्जेयब्वो पयसेणं ॥ १ ॥" निक्षिप्तस्य चाकस्य यथासम्भवं 'पुरओ'त्ति अग्रतः उपरितनास्तुल्यं सदृशं यथा भवत्येवं न्यसेत्, उपरितनाङ्कसदृशाने १ यस्मिंस्तु निक्षिप्ते पुनरपि स चैव भवति कर्तव्यः स भवति समयभेदो वर्जयितव्यः प्रयमेन ॥ १ ॥ For P&Praise Chly ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [९७] / गाथा ||९...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: उपक्र प्रत सूत्रांक माधि [९७) अनुयो वाङ्कानिक्षेपेदित्यर्थः, 'पुवकमो सेसे'त्ति स्थापितशेषानकान्निक्षिप्साङ्कस्य यथासम्भवं पृष्ठतः पूर्वक्रमेण स्थापये-II मलधा- 1दित्य, यः सयपालधुरेककादिः स प्रथम स्थाप्यते वस्तुतया महान विकादिः स पश्चादिति पूर्वक्रमः, पूर्षानुपू-II रीया लक्षणे प्रथमभनके इत्यमेव दृष्टत्वादिति भाव इत्यक्षरघटना । भावार्थस्तु दिग्मात्रदर्शनार्थ सुखाधिगमाय च त्रीणि पदान्याश्रित्य तावद् दर्यते-तेषां च परस्पराभ्यासे षड़ भङ्गका भवन्ति, ते चैवमानीयन्ते-पूर्वानुपूर्वी-11 ॥७६॥ लक्षणस्तावत् प्रथमो भगः, तद्यथा-१२३, अस्याश्च पूर्वानुपूर्व्या अधस्ताद् भङ्गकरचने क्रियमाणे एककस्य ताव-| ज्येष्ठ एव नास्ति, दिकस्य तु विद्यते एकः, स तदधो निक्षिप्यते, तस्य चाग्रतरित्रको दीयते, 'उवरिमतुल्ल-4 मित्यादिवचनात्, पृष्टतस्तु स्थापितशेषो द्विको दीयते, ततोऽयं द्वितीयो भङ्गः २१३, अत्र च द्विकस्य विद्यते । एकको ज्येष्ठः परं नासी तदधस्तानिक्षिप्यते, अग्रतः सदृशाङ्कपातेन समयभेदप्रसङ्गाद, एकस्य तु ज्येष्ठ एव नास्ति, त्रिकस्य तु विद्यते बिको ज्येष्ठा, स तदधस्तान्निक्षिप्यते, अन्न चाग्रभागस्य तावदसम्भव एव, पृष्ठतस्तु स्थापितशेषावेककत्रिकी क्रमेण स्थाप्येते 'पुव्वक्कमो सेसे'त्तिवचनात् , ततस्तृतीयोऽयं भङ्गः १३२, अत्राप्येककस्य | ज्येष्ठ एव नास्ति, त्रिकस्य ज्येष्ठो छिको, न च निक्षिप्यते, अग्ने सदृशाङ्कपातेन समयभेदापत्ते, ततोऽस्यैवानुज्येष्ठ एककः स्थाप्यते, अग्रतस्तु द्विकः 'उवरिमतुल्ल मित्यादिवचनात्, पृष्ठतस्तु स्थापितशेषस्त्रिको दीयते इति चतुर्थोऽयं भङ्गः३१२, एवमनया दिशा पञ्चमषष्ठावप्यभ्यूह्यो, सर्वेषां चामीषामियं स्थापना-अत्राप्याद्यभङ्गस्य Ans पूर्वानुपूर्वीत्वादन्त्यस्य च पश्चानुपूर्वीत्वान्मध्यमा एवं चत्वारोऽनानुपूर्वीत्वेन मन्तब्याः, एवमनया दिशा दीप अनुक्रम [११०] बर JaEaru ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [११०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ ९७] / गाथा ||९|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः | १२३ चतुरादिपद्सम्भविनोऽपि भङ्गा भावनीयाः, भूयांस बेहोत्तराध्ययनटीकादिनिर्दिष्टा प्रस्तुतभङ्गानयनो| १३२ पायाः सन्ति, न चोच्यन्तेऽतिविस्तरभयात्, तदर्थिना तु तत एवावधारणीयाः । तदिदमत्र तात्पर्यम्३१२ पूर्वानुपूर्व्या तावद्धर्मास्तिकायस्य प्रथमत्वमेव, तदनुक्रमेणाधर्मास्तिकायादीनां द्वितीयादित्वं पञ्चानु२३१ पूर्व्यं त्वद्धासमयस्य प्रथमत्वं, पुद्गलास्तिकायादीनां तु प्रतिलोमतया द्वितीयादित्वम्, अनानुपूर्व्यं त्व३२१ नियमेन कचिद्भङ्गके कस्यचित् प्रथमादित्वमित्यलं विस्तरेण । 'से त'मित्यादि निगमनम् ॥ ९७ ॥ तदेवमत्र पक्षे धर्मास्तिकायादीनि षडपि द्रव्याणि पूर्वानुपूर्व्यादिस्वेनोदाहृतानि, साम्प्रतं त्वेकमेव पुङ्गलास्तिकायमुदाहर्तुमाह अहवा उवणिहि दव्वाणुपुव्वी तिविहा प० तं०-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुब्वी अ पुवी, से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ?, २ परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए जाव दसपएसिए संखिज्जपएसिए असंखिजपएसिए अनंतपए सिए से तं पुव्वाणुपुब्वी, से किं तं पच्छाणुपुव्वी १, २ अनंतपएसिए असंखिजपएसिए संखिजपएसिए जाव दसपए सिए जाव तिपए लिए दुपपसिए परमाणुपोग्गले से तं पच्छाणुपुव्वी, से किं तं अणाणुपुब्बी ?, २ एआए चेत्र एगाइआए एगुत्तरिआए अनंतगच्छगयाए से For P&Praise City ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [९८] / गाथा ||९...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमाधि [९८] अनुयो० ढीए अन्नमण्णब्भासो दुरूवूणो से तं अणाणुपुवी, से तं उवणिहिआ दव्वाणुपुबी, मलधा से तं जाणगवइरित्ता दव्वाणुपुत्वी, से तं नोआगमओ दव्वाणुपुव्वी, से तं दवाणुरीया पुठवी (सू०९८) ॥७७॥ अत्र चापैनिधिक्या द्रव्यानुपूर्ध्या ज्ञातमपि त्रैविध्यं यत्पुनरप्युपन्यस्तं तत्प्रकारान्तरभणनप्रस्तावादेवेति है मन्तव्यम् । 'अणंतगच्छगयाए'त्ति अत्रैकोत्तरवृद्धिमत्स्कन्धानामनन्तत्वादनन्तानां गच्छ:-समुदायोऽनन्तग-15 च्छस्तं गता अनन्तगच्छगता तस्याम्, अत एव भङ्गा अत्रानन्ता एवावसेया इति। शेषभावना च सर्वा पूर्वो-14 क्तानुसारतः खयमप्यचसेयेति । आह-ननु यथैकः पुद्गलास्तिकायो निर्धार्य पुनरपि पूर्वानुपूर्खादित्वेनोदाहता, एवं शेषा अपि प्रत्येक किमिति नोदाहियन्ते?, अनोच्यते, द्रव्याणां क्रमा-परिपाट्यादिलक्षणः पूर्वानुपूादिविचार इह प्रकान्ता, स च द्रव्यबाहुल्ये सति संभवति, धर्माधर्माकाशास्तिकायेषु च पुद्गलास्ति कायवन्नास्ति प्रत्येकं द्रव्यबाहुल्यम् , एकैकद्रव्यत्वात्तेषां, जीवास्तिकाये खनन्तजीवद्रव्यात्मकत्वादस्ति द्रव्य-14 ४बाहुल्यं, केवलं परमाणुद्धिप्रदेशिकादिद्रव्याणामिव जीवद्रव्याणां पूर्वानुपूर्व्यादित्वनिवन्धनः प्रथमपाश्चात्या-| दादिभावो नास्ति, प्रत्येकमसदयेयप्रदेशत्वेन सर्वेषां तुल्यप्रदेशत्वात्, परमाणुविप्रदेशिकादिद्रब्याणां तु विष-1 १ प्रत्सन्दारे नास्ति. SASANCHALEGACASSADOES दीप अनुक्रम [१११] - - ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [९८] / गाथा ||९...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९८] मनदेशिकत्वादिति, अद्धासमयस्यैकत्वादेव तदसम्भव इत्यलमतिचर्चितेन । तदेवं समर्धिता औपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी, तत्समर्थने च समर्थिता प्रागुद्दिष्टा बिमकाराऽपि द्रव्यानुपूर्वी, ततः 'से तमित्यादि निगमनानि, इति द्रव्यानुपूर्वी समाप्ता ॥ ९८॥ उक्ता द्रव्यानुपूर्वी, अथ प्रागुद्दिष्टामेव क्षेत्रानुपूर्वी व्याचिख्यासुराह से किं तं खेत्ताणुपुव्वी ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-उवणिहिआ य अणोवणिहिआ य (सू०९९) तत्थ णं जा सा उवणिहिआ सा ठप्पा, तत्थ णं जा सा अ णोवणिहिआ सा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-णेगमववहाराणं संगहस्स य (सू० १००) इह क्षेत्रविषया आनुपूर्वी क्षेत्रानुपूर्वी, का पुनरियमित्यत्र निर्वचन-क्षेत्रानुपूर्वी दिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथाऔपनिधिकी-पूर्वोक्तशब्दार्था अनौपनिधिकी च, तत्र या सा औपनिधिकी सा स्थाप्या, अल्पवक्तव्यत्वादुपरि वक्ष्यत इत्यर्थः, तत्र याऽसावनीपनिधिकी सा नयवक्तव्यताश्रयणादू द्विविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-नैगमव्यवहारयोः सङ्ग्रहस्य च, सम्मतेति शेषः ॥ १०॥ तत्र नैगमव्यवहारसम्मतां तावदर्शयितुमाह से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिआ खेत्ताणुपु०वी ?, २ पंचविहा पपणत्ता, तं दीप अनुक्रम [१११] ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१०१] अनुयो. मलधारीया उपक माधिक ॥७८।। गाथा ॥१॥ जहा-अपयपरूवणया भंगसमुकित्तणया भंगोवदंसणया समोआरें अणुगमे, से किं तं गमववहाराणं अट्ठपयपरूवणया?, २ तिपएसोगाढे आणुपुव्वी जाव दसपएसोगाढे आणुपुत्वी जाव संखिजपएसोगाढे आणुपुवी असंखिजपएसोगाढे आणुपुव्वी, एगपएसोगाढे अणाणुपुवी, दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, तिपएसोगाढा आणुपुव्वीओ जाव दसपएसोगाढा आणुपुव्वीओ जाव असंखिजपएसोगाढा आणुपुवीओ एगपएसोगाढा अणाणुपुबीओ दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाई, से तं गमववहाराणं अटुपयपरूवणया । एआए णं णेगमववहाराणं अतृपयपरूवणयाए किं पओअणं?, एयाए णेगमववहाराणं अटुपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुकित्तणया कज्जइ।से किं तं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया?, २ अत्थि आणुपुव्वी अस्थि अणाणुपुत्वी अस्थि अवत्तव्वए, एवं दव्वाणुपुब्विगमेणं खेत्ताणुपुवीएऽवि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणिअव्वा, जाव से तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया । एआए णं णेगमववहाराणं भंगसम. दीप अनुक्रम SC-DRESS 555552 [११४-११६] सा॥७८॥ ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| 54545454545994%2595%2565 कित्तणयाए किं पओअणं?, एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्तित्तणयाए गमववहाराणं भंगोवदंसणया कजइ । से किं तं गमववहाराणं भंगोवदसणया ?, २ तिपएसोगाढे आणुपुब्बी एगपएसोगाढे अणाणुपव्वी दुपएसोगाढे अवत्तव्बए तिपएसोगाढा आणुपुत्वीओ एगपएसोगाढा अणाणुपुव्वीओ दुपएसोगाढा अवत्तव्वगाई, अहवा तिपएसोगाढे अ एगपएसोगाढे अ आणुपुव्वी अ अणाणुपुत्वी अ एवं तहा चेव दव्वाणुपुब्विगमेणं छठवीसं भंगा भाणिअव्वा जाव से तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया । से किं तं समोआरे?, २ णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाईं कहि समोअरंति ? किं आणुपुठवीदव्वेहिं समोअरंति अणाणुपुब्बीदव्वेहिं समोअरंति ? अवत्तव्वगदव्वेहिं समोअरंति ?, आणुपुव्वीदव्वाई आणुपुत्वीदव्वेहि समोअरंति नो अणाणुपुवीदव्वहिं नो अवत्तव्वयदव्वेहिं समोयरंति, एवं तिण्णिवि सट्टाणे समोअरंतित्ति भाणिअव्वं, से तं समोआरे । से किं तं अणुगमे?, २ नवविहे पण्णते, तं दीप अनुक्रम [११४-११६] भन.१४ ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] वृत्तिः अनुयोग मलधारीया माधि गाथा ॥७९॥ ||| काल जहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबडं चेव ॥१॥णेगमववहाराणं आणुपुवीदव्वाई किं अत्थि णस्थि?, णियमा अस्थि, एवं दुपिणवि । गमववहाराणं आणुपुव्विदव्वाई किं संखिज्जाइं असंखिजाई अणंताई?, नो संखिज्जाई असंखिज्जाइं नो अणंताई, एवं दुण्णिवि॥ इह व्याख्या यथा द्रव्यानुपूर्ध्या तथैव कर्तव्या, विशेषं तु वक्ष्यामः, तत्र 'तिपएसोगाढे आणुपुब्बि'त्ति, दात्रिषु-नभाप्रदेशेष्ववगाढः-स्थितः त्रिप्रदेशावगाढरूयणुकादिकोऽनन्ताणुकपर्यन्तो द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी, ननु यदि द्रव्यस्कन्ध एवानुपूर्वी कथं तर्हि तस्य क्षेत्रानुपूर्वीवं, सत्यं, किन्तु क्षेत्रप्रदेशत्रयावगाहपयोंयवि|शिष्टोऽसी द्रव्यस्कन्धो गृहीतो नाविशिष्टा, ततोऽत्र क्षेत्रानुपूय॑धिकारात् क्षेत्रावगाहपयोंयस्य प्राधान्यात् सोऽपि क्षेत्रानुपूर्वाति न दोषः, प्रदेशत्रयलक्षणस्य क्षेत्रस्यैवात्र मुख्यं क्षेत्रानुपूर्वीत्वं, तदधिकारादेव, किन्तु तदवगाद द्रव्यमपि तत्पर्यायस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् क्षेत्रानुपूर्वीत्वेन न विरुध्यत इति भावः, यद्येवं तर्हि मुख्य क्षेत्रं परित्यज्य किमिति तवगाढद्रव्यस्यानुपूादिभावश्चिन्त्यते ?, उच्यते, 'संतपयपरूवणयेतात्यादिवक्ष्यमाणबहुतरविचारविषयत्वेन द्रव्यस्य शिष्यमतिव्युत्पादनार्थत्वात्, क्षेत्रस्य तु नित्यत्वेन सदा वस्थितमानत्वादचलत्वाच प्रायो वक्ष्यमाणविचारस्य सुप्रतीतत्वेन तथाविधशिष्यमतिव्युत्पत्त्यविषयत्वादू, दीप अनुक्रम 4.99-2564%-0-994-582-% 844 [११४-११६] ॥७९॥ ~169~ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| ACCESCRCE एवमन्यदपि कारणमभ्यूद्यमित्यलं विस्तरेण । एवं चतुष्पदेशावगाढादिष्वपि भावना कार्या, यावदसजयातप्रदेशावगाढा आनुपूर्वीति, असङ्ख्यातप्रदेशेषु चावगाढोऽसङ्ख्याताणुकोऽनन्ताणुको वा द्रव्यस्कन्धो मन्तव्यो, यतः पुद्गलद्रव्याणामवगाहमित्थं जगद्गुरवः प्रतिपादयन्ति-परमाणुराकाशस्यैकस्मिन्नेव प्रदेशेऽवगाहते, द्विप्रदेशिकादयोऽसङ्ख्यातप्रदेशिकान्तास्तु स्कन्धाः प्रत्येकं जघन्यत एकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽवगाहन्ते, उत्कृष्टतस्तु यत्र स्कन्धे यावन्तः परमाणवो भवन्ति स तावत्स्वेव नभापदेशेष्ववगाहते, अनन्ताणुकस्कन्धस्तु जघन्यतस्तथैव उत्कृष्टतस्त्वसङ्ख्येयेष्वेव नभःप्रदेशेष्ववगाहते, नानन्तेषु, लोकाकाशस्यैवासङ्ख्येयप्रदेशत्वात, अलोकाकाशे च द्रव्यस्थावगाहाभावादित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतमुच्यते । तत्रानुपूर्वीप्रतिपक्षवादनानुपूष्योंदिवरूप|माह-'एगपएसोगाढे अणाणुपुब्वि'त्ति, एकस्मिन्नभाप्रदेशे अवगाढः-स्थित एकप्रदेशावगाढः परमाणुसङ्घातः स्कन्धसङ्घातश्च क्षेत्रतोऽनानुपूर्वीति मन्तव्यः, 'दुप्पएसोगाढे अवत्तब्बए'त्ति, प्रदेशद्वयेऽवगादो दिनदेशिकादिस्कन्धः क्षेत्रतोऽवक्तव्यकं, शेषो बहुवचननिर्देशादिको अन्धो यथाऽधस्ताद् द्रव्यानुपूया व्याख्यातस्तथेहापि तदुक्तानुसारतो व्याख्येयो, यावद् द्रव्यप्रमाणद्वारे 'णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं किं संखेजाई' इत्यादि प्रश्ना, अनोत्तरम्-'नो संखेजाइ'मित्यादि, श्यादिप्रदेशविभागावगाढानि द्रव्याणि क्षेत्रत आनुपूर्वीत्वेन निर्दिष्टानि, व्यादिप्रदेशविभागाश्चासङ्ख्यातप्रदेशात्मके लोकेऽसङ्ख्याता भवन्ति, अतो द्रव्य-15 तया बहूनामपि क्षेत्रावगाहमपेक्ष्य तुल्यप्रदेशावगाढानामेकत्वात् क्षेत्रानुपूामसङ्ख्यातान्येबानुपूर्वीद्रव्याणि दीप अनुक्रम [११४-११६] ~170~ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] अनुयो मलधारीया उपक्रमाधि गाथा ॥८ ॥ ||१|| 4645-55645C%5 भवन्तीति भावः, एवमेकप्रदेशावगाढं बहपि द्रव्यं क्षेत्रत एकैवानानुपूर्वीत्युक्तं, लोके च प्रदेशा असङ्ख्याता | भवन्ति, अतस्तत्तुल्पसङ्ख्यत्वादनानुपूर्वीद्रव्याण्यप्यसङ्ख्येयानीति, एवं प्रदेशद्रयेऽवगाढं बह्वपि द्रव्यं क्षेत्रत एकमेवावक्तव्यकमुक्त, बिप्रदेशात्मकाच विभागा लोकेऽसङ्ख्याता भवन्त्यतस्तान्यप्यसङ्खयेयानीति ॥ क्षेत्रबारे निर्वचनसूत्रे णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं लोगस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा असंखिजइभागे होजा जाब सव्वलोए होजा?, एगं दव्वं पडुच्च लोगस्स संखिज्जइभागे वा होज्जा असंखिजइभागे वा होजा संखेजेसु असंखेज्जेसु भागेसु वा होजा देसूणे वा लोए होज्जा, नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा, णेगमववहाराणं अणाणुपुवीदव्वाणं पुच्छाए एगदव्वं पडुच्च नो संखिज्जइभागे होज्जा असंखिज्जइभागे होज्जा नो संखेजेसु नो असंखेजेसु नो सव्वलोए होजा, नाणादव्वाइं पडुच्च नियमा सव्व लोए होजा, एवं अवत्तव्वगदवाणिवि भाणिअव्वाणि ॥ इह स्कन्धद्रव्याणां विचित्ररूपत्वात् कश्चित् स्कन्धो लोकस्य सङ्खयेयं भागमवगाह्य तिष्ठति, अन्यस्त्वस दीप अनुक्रम IH८." [११४-११६] ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| 35-45-45555 येयम्, अन्यस्तु सद्धयेयास्तद्भागानवगाय वर्तते, अन्यस्त्वसङ्खयेयानित्यतस्तत्स्कन्धद्रव्यापेक्षया सङ्खयेयादिभागवर्तिवं भावनीयं, विशिष्टक्षेत्रावगाहो (ग्रन्धानम् २०००) पलक्षितानां स्कन्धद्रव्याणामेव क्षेत्रानुपूर्वीत्वेनोक्तत्वादिति भावः । 'देसूणे वा लोए होज'त्ति, देशोने वा लोके आनुपूर्वीद्रव्यं भवेदिति, अत्रा-2 |ऽऽह-नन्वचित्तमहास्कन्धस्य सर्वलोकव्यापकत्वं पूर्वमुक्तं, तस्य च समस्तलोकवर्त्य सङ्ख्येयप्रदेशलक्षणायां क्षेत्रानुपूर्ध्यामवगाढत्वात् परिपूर्णस्यापि क्षेत्रानुपूर्वीत्वं न किश्चिद् विरुध्यते, अतस्तदपेक्षं क्षेत्रतोऽप्यानुपूर्वीद्रव्यं सर्वलोकव्यापि प्राप्यते, किमिति देशोनलोकव्यापिता प्रोच्यते ?, सत्य, किन्तु लोकोऽयमानुपूर्व्यनानु-18 पूर्ववक्तव्यकद्रव्यैः सर्वदेवाशून्य एवैष्टव्य इति समयस्थितिः, यदि चात्राऽऽनुपूर्व्याः सर्वलोकव्यापिता निगर्दिश्येत तदाऽनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणां निरवकाशतयाऽभावः प्रतीयते(येत), ततोऽचित्तमहास्कन्धपूरितेऽपि लोके जघन्यतोऽप्येकः प्रदेशोऽनानुपूर्वीविषयत्वेन प्रदेशवयें चावक्तव्यकविषयत्वेन विवक्ष्यते, आनुपूर्वीद्रव्यस्य तत्र सत्वेऽप्यप्राधान्यविवक्षणादनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोस्तु प्राधान्यविवक्षणादिति भावः, ततोऽनेन प्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन हीनोऽत्र लोकः प्रतिपादित इत्यदोषः, उक्तं च पूर्वमुनिभिः"महखंधापुण्णेविअवसव्वगणाणुपुब्बिव्वाई। जद्देसोगाढाई तद्देसेणं स लोगूणो ॥१॥” ननु ययेवं तर्हि द्रव्यानुपूामपि सर्वलोकन्यापित्वमानुपूर्वीद्रव्यस्य यदुक्तं तदसङ्गतं प्राप्नोति, अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामनवकाशस्वेन १ महास्कन्धापूर्णेऽपि भक्तव्यकानानुपूर्वाइव्यापि । यद्देशावगादानि तदेशेन स लोको नः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [११४-११६] ~172~ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] वृत्तिा उपक्रमाधिक गाथा ॥८१॥ अनुयो तत्राप्यभावप्रतीतिप्रसङ्गात्, सर्वकालं च तेषामप्यवस्थितिप्रतिपादनात्, नैतदेवं, यतो द्रव्यानुपूज्या द्रव्याणामलधा- | मेवानुपूादिभाव उक्तो, न क्षेत्रस्य, तस्य तत्रानधिकृतत्वादू, द्रव्याणां चानुपूादीनां परस्परभिन्नानारीया मप्येकत्रापि क्षेत्रेऽवस्थानं न किश्चिद्विरुध्यते, एकापवरकान्तर्गतानेकमदीपप्रभावस्थानदृष्टान्तादिसिद्धत्वात्, अतो न तत्र कस्याप्यनवकाश:, अन्न तु द्रव्याणामौपचारिक एवानुपूादिभावो मुख्यस्तु क्षेत्रस्यैव, क्षेत्रानुपूयधिकारात्, ततो यदि लोकप्रदेशाः सामस्त्येनैवानुपूर्व्या कोडीकृताः स्युस्तदा किमन्यदनानुपूष्यवक्तव्यकतया प्रतिपद्येत?, यस्त्विहैच येष्वाकाशप्रदेशेष्वानुपूर्व्यस्तेष्वेवेतरयोरपि सद्भावः कथयिष्यते स द्रव्यावगाहभेदेन क्षेत्रभेदस्य विवक्षणाद्, अत्र तु तदविवक्षणादिति, तस्मादनानुपूर्व्यवक्तव्यकविषयप्रदेशत्रयलक्षणेन देशेन लोकस्योनता विवक्षितेति, अथवा आनुपूर्वी द्रब्यस्य स्वावपवरूपा देशाः कल्प्यन्ते, यथा| पुरुषस्याङ्कल्पादयः, ततश्च विवक्षिते कस्मिंश्चिद्देशे देशिनोऽसद्भावो विवक्ष्यते, यथा पुरुषस्यैवाङ्गुलीदेश, देशिवस्यैव तत्र प्राधान्येन विवक्षितत्वादिति भावः, न च वक्तव्यं देशिनो देशो न कश्चिदिन्नो दृश्यते, एकान्ताभेदे देशमात्रस्य देशिमात्रस्य चाभावप्रसङ्गात्, ततश्च समस्तलोकक्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यानदयणादब्राचिसमहास्कन्धस्याऽऽनुपूर्वीखेऽपि देशोन एव लोका, खकीयैकस्मिन् देशे तस्याभावविवक्षणात्, तम्मिश्चानुपूर्वव्याप्सदेशे इतरयोरवकाशः सिद्धो भवतीति भावः, न च देशदेशिभावः कल्पनामात्रं, सम्म-100 त्यादिन्यायनिर्दिष्टयुक्तिसिद्धवादित्यलं प्रसङ्गेन, 'नाणादब्बाइ'मित्यादि, ज्यादिप्रदेशावगावद्ध्यभेदतोऽ SRORSCOREGARDS ||१|| दीप अनुक्रम [११४-११६] ॥८१॥ ~173~ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| बाऽऽनुपूर्वीणां नानात्वं, तैश्च च्यादिप्रदेशावगाव्यभेदैः सर्वोऽपि लोको व्याप्त इति भावः । अत्रानानुपूर्वीचिन्तायामेकद्रव्यं प्रतीत्य लोकस्यासययभागवर्तित्वमेव, एकप्रदेशावगाढस्यैवानानुपूर्वीत्वेन प्रतिपादनाद्, एकप्रदेशस्य च लोकासङ्खयेयभागवर्तित्वादिति, 'नाणादब्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होज'त्ति, एकैकमहा देशाचगारपि द्रव्यभेदैः समस्तलोकव्यासेरिति एवम् 'अवत्तब्बगदब्वाणिचिति, अवक्तव्यकद्रव्यमप्येक लोकासङ्ख्येयभाग एव वर्तते, विप्रदेशावगाढस्यैवावक्तव्यकत्वेनाभिधानात्, प्रदेशद्रयस्य च लोकासङ्ख्येयभागवर्तित्वादिति, तथा प्रत्येकं विप्रदेशावगाडैरपि द्रव्यभेदैः समस्तलोकव्याप्सर्नानाद्रव्याणामत्रापि सर्वलोकव्यापित्वमवसेयमिति । अत्राह-नन्वानुपूादिद्रव्याणि त्रीण्यपि सर्वलोकव्यापीनीत्युक्तानि, ततश्च येष्वेवाकाशप्रदेशेष्वानुपूर्वी तेष्वेवेतरयोरपि सद्भावः प्रतिपादितो भवति, कथं चैतत् परस्परविरुद्धं भिन्नविषयं व्यपदेशत्रयमेकस्य स्यात् ?, अनोच्यते, इह श्यादिप्रदेशावगादादू द्रव्यानिन्नमेव तावदेकप्रदेशावगाद, ताश्यां च भिन्नं विप्रदेशावगाद, ततश्चाधेयस्थावगाहकद्रव्यस्य भेदादाधारस्याप्यवगाह्यस्य भेदः स्यादेव, तथा च व्यपदेशभेदो युक्त एव, अनन्तधर्माध्यासिते च वस्तुनि तत्तत्सहकारिसन्निधानात्तत्तद्धर्माभिव्यक्ती दृश्यत एव समकालं व्यपदेशभेदो, यथा खगकुन्तकवचादियुक्ते देवदत्ते खड्गी कुन्ती कवचीत्यादिरिति, इह कचिद्र वाचनान्तरे "अणाणुपुब्बीदव्वाई अवत्तव्वगद्व्याणि य जहेव हिडे"ति अतिदेश एव दृश्यते, तत्र हिडेति दीप अनुक्रम [११४-११६] ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वत्तिः [१०१] अनुयो० मलधारीया माति गाथा ॥८२॥ ||१|| यथाऽधस्ताद् द्रव्यानुपूर्ध्यामनयोः क्षेत्रमुक्तं तथाऽत्रापि ज्ञातव्यमित्यर्थः, तच्च व्याख्यातमेव, इत्येषमन्यत्रापि यथासम्भवं वाचनान्तरमवगन्तव्यमिति ॥ गतं क्षेत्रदारं, णेगमववहाराणं आणुपुवीदव्वाइं लोगस्स किं संजइभागं फुसंति असंखिजड़भागं फुसंति संखेजे भागे फुसंति जाव सव्वलोअं फुसंति ?, एगं दव्वं पडुच्च संखिजइभागं वा फुसइ संखिज्जइभागे असंखिज्जइभागे संखेजे भागे वा असंखेजे भागे वा देसूर्ण वा लोगं फुसइ, णाणादव्वाइं पडुच्च णियमा सव्वलोअं फुसंति, अणा णुपुव्वीदव्वाइं अवत्तव्वगदव्वाइंच जहा खेत्तं नवरं फुसणा भाणियव्वा ॥ स्पर्शनाद्वारमपि चेत्थमेव निखिलं भावनीयं, नवरमन्त्र कस्याश्चिवाचनाया अभिप्रायेणानुपूर्ध्यामेकद्रव्यस्य सङ्ख्येयभागादारभ्य यावद्देशोनलोकस्पर्शना भवतीति ज्ञायते, अन्यस्यास्त्वभिप्रायेण सङ्ख्ययभागादारभ्य पायावत् सम्पूर्णलोकस्पर्शना स्यादित्यवसीयते, एतच द्वयमपि बुध्यत एव, यतो यदि मुख्यतया क्षेत्रप्रदेशा-14 नामानुपूर्वीत्वमङ्गीक्रियते तदा अनानुपूर्व्यवक्तव्यकयोर्निरवकाशतामसङ्गात् पूर्ववद्देशोनता लोकस्य वाच्या, अथानुपूर्वीरूपे क्षेत्रेऽवगाढत्वादचित्तमहास्कन्धस्यैवानुपूर्वीत्वं तर्हि च्यानुपूर्व्यामिवात्रापि सम्पूर्णता लो-15॥ ८२ ॥ कस्य वाच्येति, न चात्रानुपूा सकलस्थापि लोकस्य स्पृष्टत्वादितरयोरवकाशाभाव इति वक्तव्यम्, एकै दीप अनुक्रम ॐॐॐॐ [११४-११६] ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| कप्रदेशरूपे विधिप्रदेशरूपे च क्षेत्रेऽवगाढानां प्रत्येकमसलयेयानां द्रव्यभेदानां सहायतस्तयोरपि प्रत्येकमहै सङ्खयेयभेदयोलोके सद्भावाद्, द्रव्यावगाहभेदेन च क्षेत्रभेदस्येह विवक्षितत्वादिति भावः, वृद्धबहुमतश्चाय मपि पक्षो लक्ष्यते, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति । क्षेत्रस्पर्शनयोस्तु विशेषः प्राग् निदर्शित एवेति, गतं स्पर्शनाद्वारम्, अथ कालद्वार णेगमववहाराणं आणुपुवीदव्वाइं कालओ केवश्चिरं होइ?, एवं तिपिणवि, एर्ग दव्वं पडुच्च जहन्नेणं एर्ग समयं उक्कोसेणं असंखिजं कालं, नाणादव्वाई पडुच्च णि यमा सव्वद्धा ॥ तत्र क्षेत्रावगाहपर्यायस्य प्राधान्यविवक्षया व्यादिप्रदेशावगाढद्रव्याणामेवानुपूर्व्यादिभावः पूर्वमुक्ता, असतस्तेषामेवावगाहस्थितिकालं चिन्तयन्नाह-'एग दब्वं पडचेत्यादि, अन भावना-दह बिप्रदेशावगाढस्य बा४॥ एकप्रदेशावगाढस्य वा द्रव्यस्य परिणामवैचित्र्यात् प्रदेशत्रयायवगाहभवने आनुपूर्वीव्यपदेशः सञ्जातः, समयं चैकं तद्भावमनुभूय पुनस्तथैव विप्रदेशावगाढमेकप्रदेशावगाद वा तव्यं संजातमित्यानुपूाः समयो जघन्यावगाहस्थितिः, यदा तु तदेव द्रव्यमसंख्ययं कालं तद्भावमनुभूय पुनस्तथैव विप्रदेशावगाढमेकप्रदेशा&ीवगार्द वा जायते तदा उत्कृष्टतया असङ्ख्येयोऽवगाहस्थितिकाल: सिद्ध्यति, अनन्तस्तु न भवति, विवक्षिते दीप अनुक्रम SXEWS [११४-११६] ~ 176~ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] अनुयो. मलधा रीया ॥ ८३ ॥ वृत्तिः उपक्रमाधि गाथा ||१|| GARACCORREAK कद्रव्यस्यैकावगाहेनोत्कृष्टतोऽप्यसङ्ख्यातकालमेवावस्थानादिति, नानाद्रव्याणि तु 'सर्वाद्धा' सर्वकालमेव भवन्ति, व्यादिप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैवावस्थानादिति, एवं यदा समयमेकं किञ्चिद् द्रव्यमेकस्मिन् प्रदेशेऽवगादं स्थित्वा ततो यादिप्रदेशावगादं भवति तदाऽनानुपूाः समयो जघन्यावगाहस्थितिः, यदा तु तदेवासङ्ख्यातं कालं तद्रूपेण स्थित्वा ततो द्वयादिप्रदेशावगाढ भवति तदोत्कृष्टतोऽसङ्खयेयोऽवगाहस्थितिकालः, नानाद्रव्याणि तु सर्वकालम्, एकप्रदेशावगाबद्रव्यभेदानां सर्वदैव सद्भावादिति, अवक्तव्यकस्य तु द्विप्रदेशावगाढस्य समयादूर्ध्वमेकस्मियादिषु वा प्रदेशेष्ववगाहप्रतिपत्ती जघन्यः समयोऽवगाहस्थितिः, असङ्खयेयकालावं विप्रदेशावगाहं परित्यजत उत्कृष्टतोऽसङ्ख्येयोऽवगाहस्थितिकाला सिद्ध्यति, नानाद्रव्याणि तु सर्वकालं, विप्रदेशावगाढद्रव्यभेदानां सदैव भावादिति, एवं समानवक्तव्यखादतिदिशति'एवं दोणिवित्ति । इदानीमन्तरबारम् णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाणमंतरं कालओ केवच्चिरं होइ?, तिण्हपि एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, नाणादव्वाई पडुच्च णत्थि अंतरं ॥ 'जहण्णेणं एकं समर्ष'ति, अत्र भावना-इह यदा व्यादिप्रदेशावगा किमप्यानुपूर्वीद्रव्यं समयमेकं तमा-1 दीप अनुक्रम [११४-११६] ॥८३ Jatil ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०१] + गाथा |||| दीप अनुक्रम [११४ -११६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार” - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं +वृत्तिः) मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः द्विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रावगाहं प्रतिपद्य पुनरपि केवलमन्यद्रव्यसंयुक्तं वा तेष्वेव विवक्षितत्र्याद्याकाशप्रदेशेध्ववगाहते तदैकानुपूर्वीद्रव्यस्य समयो जघन्योऽन्तरकालः प्राप्यते, 'उकोसेणं असंखेजं कालं ति तदेव यदाऽन्येषु क्षेत्रप्रदेशेष्वसङ्घयेयं कालं परिभ्रम्य केवलमन्यद्रव्यसंयुक्तं वा समागत्य पुनरपि तेष्वेव विवक्षितत्र्याद्याकाशप्रदेशेष्यवगाहते तदोत्कृष्ठतोऽसङ्घयेयोऽन्तरकालः प्राप्यते, न पुनर्द्रव्यानुपूर्व्यामिवानन्तो, यतो द्रव्यानुपूर्व्या विवक्षितद्रव्यादन्ये द्रव्यविशेषा अनन्ताः प्राप्यन्ते, तैश्च सह क्रमेण संयोगे उक्तोऽनन्तः कालः, अत्र तु विवक्षितावगाहक्षेत्रादन्यत् क्षेत्रमसङ्ख्येयमेव, प्रतिस्थानं चावगाहनामाश्रित्य संयोगस्थितिरत्राप्यसङ्घधेयकालैव, ततश्चासङ्घयेये क्षेत्रे परिभ्रमता द्रव्येण पुनरपि केवलेनान्यसंयुक्तेन वाऽसङ्घयेयकालात्तेष्वेव | नभः प्रदेशेष्वागत्यावगाहनीयं, न च वक्तव्यमसङ्ख्येयेऽपि क्षेत्रे पौनः पुन्येन तत्रैव परिभ्रमणे कस्मादनन्तोऽपि कालो नोच्यत इति ?, यत इहासङ्घयेयक्षेत्रेऽसङ्ख्येयकालमेवान्यत्र तेन पर्यदितव्यं तत ऊर्ध्वं पुनस्तस्मिन्नेव विवक्षितक्षेत्रे नियमादवगाहनीयं, वस्तुस्थितिस्वाभाव्यादिति तावदेकीयं व्याख्यानमादर्शितम् । अन्ये तु व्याचक्षते यस्मात् व्यादिप्रदेश लक्षणाद्विवक्षितक्षेत्रात् तदानुपूर्वी द्रव्यमन्यत्र गतं, तस्य क्षेत्रस्य स्वभावा| देवासङ्घयेयकाला दूर्ध्वं तेनैवानुपूर्वीद्रव्येण वर्णगन्धरसस्पर्शसङ्ख्यादिधर्मैः सर्वथा तुल्येनान्येन वा तथाविधाधेयेन संयोगे सति नियमात् तथाभूताधारतोपपत्तेरसङ्ख्येय एवान्तरकाल इति, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्ति, गम्भीरत्वात् सूत्रप्रवृत्तेरिति । 'नाणादव्वाई' इत्यादि, न हि ज्यादिप्रदेशावगाढानुपूर्वीद्रव्याणि युगपत् सर्वा For P&Praise Chly ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०१] + गाथा |||| दीप अनुक्रम [११४ -११६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १०१ ] / गाथा ||१०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ८४ ॥ व्यपि तद्भावं विहाय पुनस्तथैव जायन्त इति कदाचिदपि सम्भवति, असत्येयानां तेषां सर्वदेवोक्तत्वादिति भावः । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्येष्वप्यसावेवैकानेकद्रव्याश्रया अन्तरकालवक्तव्यता, केवलमनानुपूर्वीद्रव्यस्यैकप्रदेशावगाढस्यावक्तव्यकद्रव्यस्य तु विप्रदेशावगाढस्य पुनस्तथा भवनेऽन्तरकालचिन्तनीयः, शेषा तु व्याख्यादयभावना सर्वाऽपि तथैवेति । उक्तमन्तरद्वारम्, साम्प्रतं भागद्वारमुच्यते महाराणं आणुपुवीदव्वाई सेसदव्वाणं कइभागे होजा ?, तिष्णिवि जहा दव्वाणुव्व ॥ तत्र यथा द्रव्यानुपूर्व्या तथाऽत्राप्यानुपूर्वीद्रव्याणि अनानुपूर्व्यवक्तव्यकलक्षणेभ्यः शेषद्रव्येभ्योऽसङ्ख्येयेर्भागैरधिकानि, शेषद्रव्याणि तु तेषामसङ्घयेयभागे वर्तन्त इति । अत्राह - ननु त्र्यादिप्रदेशावगाढानि द्रव्या|ण्यानुपूर्व्य एकैकप्रदेशावगाढान्यनानुपूर्व्यो द्विद्विप्रदेशावगाढान्यवक्तव्यकानीति प्राक् प्रतिज्ञातम्, एतानि चानुपूर्व्यादीनि सर्वस्मिन्नपि लोके सन्त्यतो युक्त्या विचार्यमाणान्यानुपूर्वीद्रव्याण्येव स्तोकानि ज्ञायन्ते, तथाहि असत्कल्पनया किल लोके त्रिंशत् प्रदेशाः, तत्र चानानुपूर्वीद्रव्याणि त्रिंशदेव, अवक्तव्यकानि तु पञ्चदश, आनुपूर्वीद्रव्याणि तु यदि सर्वस्तोकतया त्रिप्रदेशनिष्पन्नानि गण्यन्ते तथापि दशैव भवन्तीति शेषेभ्यः स्तोकान्येव प्राप्नुवन्ति, कथमसङ्घयेयगुणानि स्युरिति, अत्रोच्यते, एकस्मिन्नानुपूर्वीद्रव्ये ये नमःम For P&Praise Cly ~ 179~ वृत्तिः उपक्र माधि० ६ ॥ ८४ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०१] + गाथा |||| दीप अनुक्रम [११४ -११६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. १५ Ja Ekemarin | देशा उपयुज्यन्ते ते यद्यन्यस्मिन्नपि नोपयुज्येरंस्तदा स्यादेवं तच नास्ति यत एकस्मिन्नपि प्रदेशत्रयनिष्पन्ने आनुपूर्वीद्रव्ये ये त्रयः प्रदेशास्त एवान्यान्यरूपतयाऽवगाढेनाधेयद्रव्येणाक्रान्ताः सन्तः प्रत्येकमनेकेषु त्रिकसंयोगेषु गण्यन्ते, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदात्, तद्भेदे चाधारभेदादिति भावः एवमन्यान्यपि चतुष्प्र| देशावगाढा द्याधेयेनाध्यासितत्वात्त एवानेकेषु चतुष्कसंयोगेष्वनेकेषु पञ्चकसंयोगेषु यावदनेकेष्वसङ्ख्येयकसंयोगेषु प्रत्येकमुपयुज्यन्ते, एवं चतुरादिप्रदेशनिष्पन्नेष्वप्यानुपूर्वीद्रव्येषु ये चतुरादयः प्रदेशास्तेषामप्यन्यान्यसंयोगोपयोगिता भावनीया, तस्मादसङ्ख्येयप्रदेशात्मके स्वस्थित्या व्यवस्थिते लोके यावन्तस्त्रिकसंयोगायोऽसङ्घयेयकसंयोगपर्यन्ताः संयोगा जायन्ते तावन्त्यानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति, प्रतिसंयोगमाधेयद्रव्यस्य भेदेनावस्थिति सद्भावाद्, आधेयभेदे चाधारभेदात्, न हि नभःप्रदेशा येनैव स्वरूपेणैकस्मिन्नाधेये उपयुज्यन्ते तेनैव स्वरूपेणाधेयान्तरेऽपि, आधेयैकताप्रसङ्गाद्, एकस्मिन्नाधारखरूपे तदवगाहाभ्युपगमादू, घटे तत्स्वरूपवत् तस्मात्यादिसंयोगानां लोके बहुत्वादानुपूर्वीणां बहुत्वं भावनीयम्, अवक्तव्यकानि तु स्तोकानि, द्विकसंयोगानां तत्र स्तोकत्वाद्, अनानुपूर्व्योऽपि स्तोका एव, लोकप्रदेश सङ्खयमात्रत्वाद् । अत्र सुखप्रतिपत्यर्थे लोके किल पञ्चाकाशप्रदेशाः कल्प्यन्ते, तद्यथा-:, अत्रानानुपूर्व्यस्तावत् पञ्चैव प्रतीताः, अवक्तव्यकानि त्वष्टौ द्विकसंयोगानामिहाष्टानामेव सम्भवाद्, आनुपूर्व्यस्तु षोडश संभवन्ति, दशानां त्रिकसंयोगानां पञ्चानां चतुष्कसंयोगानामेकस्य तु पञ्चकयोगस्येह लाभाद्, दश त्रिकयोगाः कथमिह लभ्यन्ते ? For P&Praise City ~180~ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०१] माधिक गाथा ॥८५|| ||१|| अनुयो। इति चेद्, उच्यते, षट् तावत् मध्यव्यवस्थापितेन सह लभ्यन्ते चत्वारस्तु त्रिकसंयोगा दिग्व्यवस्थापितैमलधा चतुर्भिरेव केवलैरिति, चतुष्कयोगास्तु चत्वारो मध्यव्यवस्थापितेन सह लभ्यन्ते, एकस्तु तन्निरपेक्षैदिग्व्यव-15 रीया स्थितैरेवेति सर्वे पञ्च, पञ्चकयोगस्तु प्रतीत एवेति, तदेवं प्रदेशपश्चकप्रस्तारेऽप्यानुपूर्वीणां बाहुल्यं दृश्यते, अत एव तदनुसारेण सद्भावतोऽसङ्ख्येयप्रदेशात्मके लोकेऽन्नानुपूर्वीद्रव्याणां शेषेभ्योऽसङ्ख्यातगुणत्वं भावनीयमित्यलं विस्तरेण । उक्तं भागद्वारम्, साम्प्रतं भावदारम् णेगमववहाराणं आणुपुब्वीदव्वाई कयरंमि भावे होजा?, णियमा साइपारिणामिए भावे होजा, एवं दोषिणवि। तत्र च द्रव्याणां व्यादिप्रदेशावगाहपरिणामस्य एकप्रदेशावगाहपरिणामस्य द्विप्रदेशावगाहपरिणामस्य च |सादिपारिणामिकत्वात् त्रयाणामपि सादिपारिणामिकभाववर्तित्वं भावनीयमिति । अल्पबहुत्ववारे• एएसि णं भंते ! णेगमववहाराणं आणुपुव्वीदव्वाणं अणाणुपुत्वीदव्वाणं अवत्तव्वगदव्वाण य दव्वट्टयाए पएसट्टयाए दव्वटुपएसट्टयाए कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिआ वा?, गोयमा ! सव्वत्थोवाई गमववहाराणं अवत्तव्वग CREKAR %2595%256 दीप अनुक्रम [११४-११६] ॥॥८५॥ Jatic ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूल [१०१] / गाथा ||१०|| ......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११] गाथा ||१|| दव्वाई दवट्टयाए अणाणुपुत्वीदव्वाइं दवट्टयाए विसेसाहियाइं आणुपुत्वीदव्वाई दव्वट्टयाए असंखेजगुणाई, पएसट्टयाए सव्वत्थोवाइं गमववहाराणं अणाणुपुठवीदव्वाइं अपएसट्टयाए अवत्तव्वगदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाई आणुपुवीदव्वाई पएसट्टयाए असंखेजगुणाई, दव्वटुपएसट्टयाए सव्वत्थोवाई णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाई दबट्टयाए अणाणुपुव्वीदव्वाइं दवट्रयाए अपएसट्टयाए विसेसाहिआई अवत्तव्वगदव्वाई पएसट्टयाए विसेसाहियाइं आणुपुत्वीदव्वाई दव्वट्टयाए असंखेजगुणाई ताई चेव पएसट्टयाए असंखेज्जगुणाई, से तं अणुगमे । से तं गमववहाराणं अणोवणिहिआ खेत्ताणुपुवी (सू० १०१) इह द्रव्यगणनं द्रव्यार्थता प्रदेशगणनं प्रदेशार्थता उभयगणनं तूभयार्थता, तत्रानुपूया विशिष्टद्रव्याPवगाहोपलक्षिताख्यादिनभाप्रदेशसमुदायास्तावद् द्रव्याणि समुदायारम्भकास्तु प्रदेशाः, अनानुपूी स्वेकै कप्रदेशावगाहिद्रव्योपलक्षिताः सकल नभाप्रदेशाः प्रत्येकं द्रव्याणि, प्रदेशास्तु न संभवन्ति, एकैकप्रदेशद्रव्ये हि प्रदेशान्तरायोगाद्, अवक्तव्यकेषु तु यावन्तो लोके विकयोगाः संभवन्ति तावन्ति प्रत्येकं द्रव्याणि तदा दीप अनुक्रम SARAccक्त [११४-११६] कल ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१०१] / गाथा ||१०|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत S सूत्रांक + [१०१] मलधा उपक. + रीया ॥८६॥ गाथा ||१|| अनुयो० शरम्भकास्तु प्रदेशा इति, शेषा स्वत्र व्याख्या द्रव्यानुपूर्वीवत् कर्तव्येति, नवरं 'सव्वत्योबाई गमववहाराणं वृत्तिः अवत्तब्वगदम्बाई मित्यादि, अत्राह-ननु यदा पूर्वोक्तयुक्त्या एकैको नभःप्रदेशोऽनेकेषु दिकसंयोगेषूपयुज्यते तदा अनानुपूर्वीद्रव्येभ्योऽवक्तव्यकद्रव्याणामेव वाहुल्यमवगम्यते, यतः पूर्वोक्तायामपि पञ्चप्रदेशनभाकल्प माधि० नायामवक्तव्यकद्रव्याणामेवाष्टसङ्खयोपेतानां पञ्चसङ्खयेभ्योऽनानुपूर्वीद्रव्येभ्यो बाहुल्यं दृष्टं, तत्कथमत्र व्यत्ययः प्रतिपाद्यते?, सत्यम्, अस्त्येतत् केवलं लोकमध्ये, लोकपर्यन्तवर्तिनिष्कुटगतास्तु ये कण्टकाकृतयो विश्रेण्या निर्गता एकाकिनः प्रदेशास्ते विश्रेणिव्यवस्थितत्वावक्तव्यकत्वायोग्या इत्यनानुपूर्वीसङ्ख्यायामेवान्तर्भवन्ति, अतो लोकमध्यगतां निष्कुटगतां च प्रस्तुतद्रव्यसङ्ख्यां मीलयित्वा यदा केवली चिन्तयति तदाऽवक्तव्यकद्रव्याण्येव स्तोकानि, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु तेभ्यो विशेषाधिकतां प्रतिपद्यन्ते, अत्र निष्कुटस्थापना ४४४, अत्र विश्रेणिलिखितौ दो अवक्तव्यकायोग्यौ द्रष्टव्याविति, एवम्भूताश्च कि लामी सर्वलोकपर्यन्तेषु बहवः सन्तीत्यनानुपूर्वीणां बाहुल्यमित्यलं विस्तरेण । आनुपूर्वीद्रव्याणां तु तेभ्योRऽसङ्ख्यातगुणस्त्वं भावितमेव, शेष द्रव्यानुपूर्व्यनुसारेण भावनीयं, नवरमुभयार्थताविचारे आनुपूर्वीद्रव्याणि खद्रव्येभ्यः प्रदेशार्थतयाऽसस्पेयगुणानि, कथम् ?, एकैकस्य तावद् द्रव्यस्य च्यादिभिरसख्येयान्तभःप्रदे-12 शैरारब्धत्वात्, नभाप्रदेशानां च समुदितानामप्यसङ्ख्येयत्वादिति । 'सेत'मित्यादि निगमनदयम् ॥१.१॥॥८६॥ उक्का नैगमव्यवहारमतेनानोपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी, अथ तामेव संग्रहमतेन विभणिपुराह दीप अनुक्रम [११४-११६] JaE ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [१०२] / गाथा ||११|| ........................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२] गाथा ||१|| से किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ खेत्ताणुपुब्बी ?, २पंचविहा पण्णत्ता, तंजहाअट्ठपयपरूवणया भंगसमुक्त्तिणया भंगोवदंसणया समोआरे अणुगमे, से किं तं संगहस्स अटुपयपरूवणया?, २ तिपएसोगाढे आणुपुव्वी चउप्पएसोगाढे आणुपुव्वी जाव दसपएसोगाढे आणुपुव्वी संखिजपएसोगाढे आणुपुवी असंखिजपएसोगाढे आणुपुवी एगपएसोगाढे अणाणुपुब्बी दुपएसोगाढे अवत्तव्वए, से तं संगहस्स अट्रपयपरूवणया । एआए णं संगहस्स अट्टपयपरूवणयाए किं पओअणं?, संगहस्स अटुपयपरूवणयाए संगहस्स भंगसमुकित्तणया कज्जइ, से किं तं संगहस्स भंगसमुकित्तणया ?, २ अस्थि आणुपुब्वी अस्थि अणाणुपुव्वी अस्थि अवत्तव्बए, अहवा अस्थि आणुपुवी अ अणाणुपुवी अ एवं जहा दवाणुपुबीए संगहस्स तहा भाणिअव्वं जाव से तं संगहस्स भंगसमुकित्तणया । एआए णं संगहस्स भंगसमुकितणयाए किं पओअणं?, एआए णं संगहस्स भंगसमुक्त्तिणयाए संगहस्स भंगो दीप अनुक्रम [११७ ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०२] / गाथा ||११|| ........................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक भनुवो. [१०२]] मख्यारीया गाथा ॥८७॥ ||१|| RSSCRACCES वर्दसणया कजइ, से किं तं संगहस्स भंगोवदंसणया ?, २ तिपएसोगाढे आणुपुव्वी एगपएसोगाढे अणाणुपुव्वी दुपएसोगाढे अवतव्वए अहवा तिपएसोगाढे अ एगपएसोगाढे अ आणुपुवी अ अणाणुपुव्वी अ एवं जहा दव्वाणुपुबीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुठवीए वि भाणिअव्वं जाव से तं संगहस्स भंगोवदंसणया । से किं तं समोआरे?, २ संगहस्स आणुपुत्वीदव्वाई कहिं समोअरंति ? किं आणुपुवीदव्वेहि समोअरंति अणाणुपुत्वीदव्वेहि अवत्तव्वगदव्वहिं ?, तिषिणवि सटाणे समोअरंति, से तं समोआरे । से किं तं अणुगमे?, २ अट्रविहे पण्णत्ते, तंजहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं नत्थि ॥ २॥ संगहस्स आणुपुव्वीदव्वाई किं अस्थि णत्थि ?, नियमा अत्थि, एवं तिष्णिवि, सेसगदाराई जहा दवाणुपुठवीए संगहस्स तहा खेत्ताणुपुबीए वि भाणिअव्वाई, जाव से तं अणुगमे । से तं संगहस्स अणोवणिहिआ खेताणुपुवी। से तं अणोवणिहिआ खेत्ताणुपुवी (सू० १०२) 1994-954:584 दीप अनुक्रम [११७ ॥८७॥ Jatica ~185 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१०२] / गाथा ||११|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०२] गाथा ||१|| इह संग्रहामिमतव्यानुपूर्व्यनुसारेण निखिलं भावनीयं, नवरं क्षेत्रप्राधान्यादा 'तिपएसोगाटा आणुपुब्बी जाव असंखेजपएसोगाढा आणुपुब्वी एगपएसोगाढा अणाणुपुब्धी दुपएसोगाढा अवत्तब्वए' इत्यादि वक्तव्यं, शेषं तथैवेति ॥ १०२ ॥ उक्ता अनौपनिधिकी क्षेत्रानुपूर्वी, अथोपनिधिकीं तां निर्दिदिक्षुराह से किं तं उवणिहिआ खेत्ताणुपुवी?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुठवी अणाणुपुव्वी।से किं तं पुव्वाणुपुवी?, २ अहोलोए तिरिअलोए उङ्कलोए, से तं पुव्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छाणुपुवी?, २ उङ्कलोए तिरिअलोए अहोलोए, से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुवी?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरि आए तिगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुवी।। अत्र व्याख्या पूर्ववत् कर्तव्या, नवरं तत्र द्रव्यानुपूय॑धिकाराद् धर्मास्तिकायादिद्रव्याणि पूर्वानुपूर्व्यादिस्वेनोदाहृतानि, अन तु क्षेत्रानुपूर्ण्यधिकाराधोलोकादिक्षेत्रविशेषा इति, इह चोर्ध्वाधश्चतुर्दशरज्वायतस्य विस्तरतस्त्वनियतस्य पञ्चास्तिकायमयस्य लोकस्य त्रिधा परिकल्पनेऽधोलोकादिविभामाः सम्पयन्ते, तत्रास्या रत्नप्रभायां बहुसमभूभागे मेरुमध्ये नभाप्रतरदयेऽष्टप्रदेशो रुचकः समस्ति, तस्य च प्रतरवयस्य मध्ये एक दीप अनुक्रम [११७ ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० हैवृत्तिः [१०४] मलधा रीया गाथा ||१-४|| स्मादधस्तनप्रतरादारभ्याधोऽभिमुखं नव योजनशतानि परिहस्य परतः सातिरेकसप्तरज्ज्यायतोऽधोलोकः, तत्र लोक्यते-केवलिप्रज्ञया परिच्छिद्यत इति लोका, अधोव्यवस्थितो लोकोऽधोलोकः, अथवा अधाशब्दो- उपक्रशुभपर्यायः, तत्र च क्षेत्रानुभावाद बाहुल्येनाशुभ एव परिणामो द्रव्याणां जायते, अतोऽशुभपरिणामवद्- माधि. द्रव्ययोगादधा-अशुभो लोकोऽधोलोका, उक्तं च-"अहव अहोपरिणामो खेत्तणुभावेण जेण ओसपणं । असुभो अहोत्ति भणिओ व्वाणं तेणऽहोलोगो ॥१॥"त्ति, तस्यैव रुचकपतरद्वयस्य मध्ये एकस्मादुपरि-3 तनप्रतरादारभ्योव नव योजनशतानि परिहत्य परतः किञ्चिन्यूनससरज्ज्वायत अचेलोकः, ऊम्-उपरि व्यवस्थापितो लोकः ऊर्द्धलोकः, अथवा ऊर्ध्वशब्दःशुभपर्यायः, तत्र च क्षेत्रस्य शुभत्वात्तदनुभावाद् द्रव्याणां प्रायः शुभा एव परिणामा भवन्ति, अतः शुभपरिणामवद्रव्ययोगादूर्ध्व-शुभो लोक ऊबैलोका, उक्तं च-1 "उहृति उपरि जंचिय सुभखित्तं खेसओ य दव्वगुणा । उप्पजति सुभा वा तेण तओ उडूलोगोत्ति॥१॥" तयोश्चाधोलोकोर्ध्वलोकयोर्मध्ये अष्टादशयोजनशतानि तिर्यगलोकः, समयपरिभाषया तिर्यग्-मध्ये व्य-12 वस्थितो लोकस्तिर्यगलोकः, अथवा तिर्यकशब्दो मध्यमपर्यायः, तत्र च क्षेत्रानुभावात् प्रायो मध्यमपरिणामवन्त्येव द्रव्याणि संभवन्ति, अतस्तद्योगात्तिर्यङ्-मध्यमो लोकस्तिर्यग्लोकः, अथवा खकीयो धोभा अथवा अधःपरिणामः क्षेत्रानुभावेन येनोत्सनम् । अशुभोऽध इति भणितः द्रव्याणां तेनाथोलोकः ॥१॥ २ऊयमिति उपरि यदेव शुभक्षेत्रं क्षेत्रतच*॥८८॥ द्रव्यगुणाः । उत्पद्यन्ते शुभा वा तेन सक ऊर्चलोक इति ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२०-१२५] SOCTOR JEET ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०४] + गाथा ॥१-४॥ दीप अनुक्रम [१२० -१२५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१०४] / गाथा || १२-१५ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Econ गात्तिर्यग्भाग एवातिविशालतयाऽत्र प्रधानम्, अतस्तेन व्यपदेशः कृतः, तिर्यग्भागप्रधानो लोकस्तिर्यग्लोकः, उक्तं च- "मैज्झणुभावं खेतं जं तं तिरियंति वयणपज्जवओ। भण्णइ तिरियं विसालं अतो व तं तिरियलोगोन्ति ॥ १ ॥" 'वयणपज्जवओ'ति मध्यानुभाववचनस्य तिर्यग्ध्वनेः पर्यायतामाश्रित्येत्यर्थः । अत्र च जघन्यपरिणामवद्रव्ययोगतो जघन्यतथा गुणस्थानकेषु मिथ्यादृष्टेरिवादावेवाधोलोकस्योपन्यासः, तदुपरि मध्यमद्रव्यवत्त्वात् मध्यमतया तिर्यग्लोकस्य तदुपरिष्टादुत्कृष्टद्रव्यवत्त्वादूर्ध्वलोकस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीत्व सिद्धिः, पञ्चानुपूर्वी तु व्यत्ययेन प्रतीतेव, अनानुपूर्व्यां तु पत्रयस्य षड् भङ्गा भवन्ति, ते च पूर्व दर्शिता एव, शेष भावना विह प्राग्वदेवेति । अत्र च कचिद्वाचनान्तरे एकप्रदेशावगाडादीनां असङ्ख्यातप्रदेशावगाढान्तानां प्रथमं पूर्वानुपूर्व्यादिभाव उक्तो दृश्यते, सोऽपि क्षेत्रानुपूर्घ्यधिकारादविरुद्ध एव, सुगमत्वाचोक्तानुसारेण भावनीय इति ॥ साम्प्रतं वस्त्वन्तरविषयत्वेन पूर्वानुपूर्व्यादिभावं दिदर्शयिषुरधोलोकादीनां च भेदपरिज्ञाने शिष्यव्युत्पत्तिं पश्यन्नाह - अहोलोअखेत्ताणुपुवी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- पुव्वाणुपुल्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी से किं तं पुव्वाणुपुव्वी १, २ रयणप्पभा सकरप्पभा वालुअप्पभा पंकप्पभा १ मध्यानुमा क्षेत्रं यत् ततिर्यगिति वचनपर्ववात् भण्यते तिर्यग विशालमती या सर्वखोक इति ॥ १ ॥ For&Pase Cinly ••• सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~188~ watyw Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] अनुयो० मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधिक ॥८९॥ गाथा ||१-४|| धूमप्पभा तमप्पभा तमतमप्पभा, से तं पुव्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छाणुपुवी ?, २ तमतमा जाव रयणप्पभा, से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुव्वी ?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए सत्तगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुव्वी । तिरिअलोअखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पपणत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी। 'अहोलोयखेत्ताणुपुव्वी तिविहे'त्यादि, अधोलोकक्षेत्रविषया आनुपूर्वी २, औपनिधिकीति प्रक्रमाल्लभ्यते, सा त्रिविधा प्रज्ञप्ता, तद्यथेत्यादि, शेषं पूर्ववद्भावनीयं यावद्रत्नप्रभेत्यादि, इन्द्रनीलादिबहुविधरत्नसम्भवान्नरकवर्जप्रायो रवानां प्रभा-ज्योत्ला यस्यां सा रत्नप्रभा, एवं शर्कराणाम्-उपलखण्डानां प्रभा-प्रकाशनं स्वरूपेणावस्थानं यस्यां सा शर्करामभा, वालुकाया वालिकाया वा-परुषपांशत्कररूपायाः प्रभा-खरूपावस्थितिर्यस्यां सा वालुकाप्रभा वालिकाप्रभा वेति, पङ्कस्य प्रभा यस्यां सा पङ्कप्रभा, पङ्काभद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः, धूमस्य प्रभा यस्यां सा धूमप्रभा, धूमाभद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः, तमसः प्रभा यस्यां सा तमःप्रभा, कृष्णद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः, कचित्तमति पाठः, तत्रापि तमोरूपद्रव्ययुक्तत्वात्तमा इति, महातमसः प्रभा यस्यां साहू महातमामभा, अतिकृष्णद्रव्योपलक्षितेत्यर्थः, क्वचित्तमतमेति पाठः, तत्राप्यतिशयवसमस्तमस्तमस्तद्रूपद्र दीप अनुक्रम [१२०-१२५] ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू. १०३' स्थाने १०४ इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: .................. प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१-४|| व्ययोगात् तमस्तमा इति, अन प्रज्ञापकप्रत्यासन्नेति रत्नप्रभाया आदावुपन्यासः कृतः, ततः परं व्यवहितव्यवहिततरादित्वात् क्रमेण शर्कराप्रभादीनामिति पूर्वानुपूर्वीस्वं, व्यत्ययेन पश्चानुपूर्वीत्वम्, अमीषां च सप्तानां पदानां परस्पराभ्यासे पश्च सहस्राणि चत्वारिंशदधिकानि भङ्गानां भवन्ति, तानि चायन्तभद्कदयरहितान्यनानुपूज्या द्रष्टव्यानीति, शेषभावना पूर्ववदिति से किं तं पुव्वाणुपुव्वी ?, २ जंबूद्दीवे लवणे धायइकालोअ पुक्खरे वरुणे । खीरघयखोअनंदी अरुणवरे कुंडले रुअगे ॥ १॥ आभरणवत्थगंधे उप्पलतिलए अ पुढविनिहिरयणे । वासहरदहनईओ विजया वक्खारकप्पिंदा ॥२॥ कुरुमंदरआवासा कूडा नक्खत्तचंदसूरा य । देवे नागे जक्खे भूए अ सयंभुरमणे अ॥३॥ से तं पुव्वाणुपुवी । से किं तं पच्छाणुपुव्वी?, २ सयंभूरमणे अ जाव जंबूद्दीवे, से तं पच्छाणुपुवी । से किं तं अणाणुपुठवी ?, २ एआए चेव एगाइआए पगुत्तरिआए असंखेज गच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरुपूणो, से तं अणाणुपुवी। तिर्यग्लोके क्षेत्रानुपूा 'जंबूदी' इत्यादिगाधाव्याख्या गाभ्यां प्रकाराभ्यां स्थानवाइबामायण दीप अनुक्रम [१२०-१२५] ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| ...... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्र|माधि ॥१०॥ गाथा ||१-४|| हेतुत्वलक्षणाभ्यां प्राणिनः पान्तीति दीपा:-जन्त्वावासभूतक्षेत्र विशेषाः, सह मुद्रया मर्यादया वर्तन्त | इति समुद्रा:-प्रचुरजलोपलक्षिताः क्षेत्रविशेषा एव, एते च तिर्यग्लोके प्रत्येकमसन्ख्यया भवन्ति, तत्र समस्तदीपसमुद्राभ्यन्तरभूतत्वेनादौ तावजम्बूवृक्षणोपलक्षितो द्वीपो जम्बूद्वीपः, ततस्तं परिक्षिप्य स्थितो लवणरसास्वादनीरपूरितः समुद्रो लवणसमुद्रः, एकदेशेन समुदायस्य गम्यमान वाद्, एवं पुरस्तादपि यथासम्भवं द्रष्टव्यं, 'धायइ कालो यत्ति, ततो लवणसमुद्र परिक्षिप्य कास्थितो धातकीवृक्षखण्डोपलक्षितो बीपो धातकीखण्डः, तत्परितोऽपि शुद्धोदकरसाखादः कालोदः समुद्रः, तं च परिक्षिप्य स्थितः पुष्करैः-पद्मवरैरुपलक्षितो द्वीपः पुष्करवरदीपः, तत्परितोऽपि शुद्धोदकरसास्वाद एव पुष्करोदः समुद्रः, अनयोश्च द्वयोरप्येकेनैव पदेनात्र संग्रहो द्रष्टव्यः 'पुक्खरैत्ति, एवमुत्तरत्रापि, ततो 'वरुपणो'सि वरुणवरो द्वीपस्ततो वारुणीरसाखादो वारुणोदः समुद्रः, 'खीर'त्ति क्षीरवरो द्वीपः क्षीररसास्वादः क्षीरोदः समुद्रः, 'घय'त्ति घृतवरो दीपः धृतरसास्वादो घृतोदः समुद्र, 'खोय'त्ति इक्षुवरो बीपः इक्षुरसा| खाद् एवेक्षुरसः समुद्रः, इत ऊध्र्व सर्वेऽपि समुद्राः बीपसदृशनामानो मन्तव्या, अपरं च स्वयम्भूरमणवर्जाः सर्वेऽपीक्षुरसाखादाः, तत्र दीपनामान्यमूनि, तद्यथा नन्दी-समृद्धिस्तया ईश्वरो द्वीपो नन्दीश्वर, एव|मरुणवरः अरुणावासः कुण्डलवरः शखबरः रुचकवर इत्येवं षड् दीपनामानि चूर्णी लिखितानि दृश्यन्ते, सूत्रे तु 'नन्दी अरुणवरे कुण्डले रुयगे' इत्येतस्मिन् गाथादले चत्वार्येव तान्युपलभ्यन्ते, अतः चूर्णिलिखि दीप अनुक्रम [१२०-१२५] ॥९ ॥ ४ JaEl. c om ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू. १०३' स्थाने १०४ इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१-४|| तानुसारेण रुचकत्रयोदशः, सूत्रलिखितानुसारतस्तु स एवैकादशो भवति, तत्त्वं तु केवलिनो विदन्तीति गाथार्थः । इदानीमनन्तरोक्तबीपसमुद्राणामवस्थितिखरूपप्रतिपादनार्धं शेषाणां तु नामाभिधानार्थमाहM"जंबुद्दीवाओ खलु निरन्तरा सेसया असंखइमा । भुयगवरकुसवराविय कोचवराभरणमाई य॥१॥" इति, व्याख्या-एते पूर्वोक्ताः सर्वेऽपि जम्बूदीपादारभ्य 'निरन्तरा' नैरन्तर्येण व्यवस्थिताः, न पुनरमीषामन्तरेऽपरो मादीपः कश्चनापि समस्तीति भावः, ये तु शेषका भुजगवराय इत ऊध्वं वक्ष्यन्ते ते प्रत्येकमसङ्ख्याततमा|5 ट्रद्रष्टव्याः, तथाहि-'भुजगवरेति पूर्वोक्तादू रुचकबरादू द्वीपादसख्येयान् बीपसमुद्रान् गत्वा भुजगवरो|M नाम द्वीपः समस्ति, 'कुसवर'त्ति ततोऽप्यसङ्ख्येयाँस्तान् गत्वा कुशवरो नाम द्वीपः समस्ति, अपिचेति समुचये, 'कोंचवरे'त्ति ततोऽप्यसख्येयाँस्तानतिक्रम्य क्रौश्चवरो नाम द्वीपः समस्ति, 'आभरणमाई यत्ति ट्राएषमसख्येयान दीपसमुद्रानुल्लघ्याऽऽभरणादयश्च-आभरणादिनामसहशनामानव दीपा वक्तव्याः, समु* दास्तु तत्सदृशनामान एव भवन्तीत्युक्तमेवेति गाधार्थः ॥ इयं च गाथा कस्याञ्चिद्वाचनायां न दृश्यत एव, केवलं कापि वाचनाविशेषे दृश्यते, टीकाचूयोस्तु तद्व्याख्यानमुपलभ्यत इत्यस्माभिरपि व्याख्यातेति । तानेवाभरणादीनाह-'आभरणवत्थेत्यादि गाथाद्वयम्, असङ्ख्येयानाम् असख्येयानां दीपानामन्ते आभरणवस्त्रगन्धोत्पल तिलकादिपर्यायसदृशनामक एकैकोऽपि द्वीपस्तावद्वक्तव्यो यावदन्ते स्वयम्भूरमणो बीपः, |शुद्धोदकरसः स्वयम्भूरमण एव समुद्र इति गाथादयभावार्थः ॥ ननु यद्येवं तर्थसख्येयान् बीपानतिक्रम्य ये दीप अनुक्रम [१२०-१२५]] अनु. १६ JaE ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०४] / गाथा ||१२-१५|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ब सूत्रांक [१०४] उपक गाथा ||१-४|| अनुयो हैवर्तन्ते तेषामेव दीपानामेतानि नामान्याख्यातानि, ये त्वन्तरालेषु दीपास्ते किनामका इति वक्तव्यं, सध्यं,TI मलधा- लोके पदार्थानां शङ्खध्वजकलशस्वस्तिकश्रीवत्सादीनि यावन्ति शुभनामानि तैः सर्वैरप्युपलक्षितास्तेषु दीपाः रीया प्राप्यन्त इति खयमेव द्रष्टव्यं, यत उक्तम्-"दीवसमुद्दा णं भंते! केवइया नामधिज्जेहिं पण्णत्ता, गोयमा! माधि ॥९१॥ जावड्या लोए सुभा नामा सुभा ख्वा सुभा गंधा सुभा रसा सुभा फासा एवढ्या णं दीवसमुदा नामविजेहिं पण्णत्ता" इति, सङ्ख्या तु सर्वेषामसङ्ख्येयस्वरूपा 'उद्धारसागराणं अट्ठाईजाण जत्तिया समया । दुगुणादुगुणपवित्थर दीवोदहि रज्जु एवझ्या ॥१॥ इति गाथाप्रतिपादिता द्रष्टव्या, तदेवमत्र क्रमोपन्यासे | पूर्वानुपूर्वी व्यत्ययेन पश्चानुपूर्वी, अनानुपूर्वी त्वमीषामसख्येयानां पदानां परस्पराभ्यासे येऽसङ्ख्येया| सभा भवन्ति भङ्गकद्वयोना तत्स्वरूपा द्रष्टव्येति ॥ उडलोअखेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुब्वी पच्छाणुपुठवी अणाणुपुवी । से किं तं पुव्वाणुपुवी?, २ सोहम्मे ईसाणे सर्णकुमारे माहिदे बंभलोए लंतए महासुक्के सहस्सारे आणए पाणए आरणे अच्चुए गेवेजविमाणे अणुत्तरविमाणे १द्वीपसमुद्रा भदन्त 1 कियन्तो नामधेयः प्राप्ताः १, गौतम! यावन्ति लोके शुभानि नामानि शुभानि रूपाणि शुभा गन्धाः भा रसाः छभा स्पर्धा इयन्तो ॥११॥ WIद्वीपसमुहा नाम: प्रशक्षा: उद्धारसागराणामतृतीयानां यावन्तः समयाः । दिगुणद्विगुणप्रविस्तारादीपोदषयो रज्वामियन्तः ॥१॥ 6-05-5645-4584% दीप अनुक्रम [१२०-१२५] ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू. १०३' स्थाने १०४ इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१०४] / गाथा ||१५...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४] गाथा ||१-४|| ईसिपब्भारा, से तं पुव्वाणुपुवी । से किं तं पच्छाणुपुठवी ?, २ ईसिपम्भारा जाब सोहम्मे, से तं पच्छाणुपुब्बी । से किं तं अणाणुपुव्वी?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए पेन्नरसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुत्वी। अहवा उवणिहिआ खेत्ताणुपुव्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुब्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी, से किं तं पुव्वाणुपुवी?, २ एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे दसपएसोगाढे संखिजपएसोगाढे जाव असंखिज्जपएसोगाढे, से तं पुव्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छाणुपुब्बी?, २ असंखिजपएसोगाढे संखिजपएसोगाढे जाव एगपएसोगाढे, से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुव्वी ?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए असंखिज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुत्वी । से तं उव णिहिआ खेत्ताणुपुवी । से तं खेत्ताणुपुव्वी (सू० १०४) ऊर्ध्वलोकक्षेत्रानुपू` 'सोहम्मे'त्यादि, सकलविमानप्रधानसौधर्मावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षि द्वादश देवलोकाः यैवेयका अनुत्तरा ईषप्रारभाराच. दीप अनुक्रम [१२०-१२५] ... सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं. तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~194~ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०४] + गाथा ॥१-४॥ दीप अनुक्रम [१२० -१२५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१०४] / गाथा ||१५...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ९२ ॥ तत्वात् सौधर्म:, एवं सकलविमानप्रधानेशानावतंसकविमानविशेषोपलक्षित ईशानः, एवं तत्तद्विमानावतंसकप्राधान्येन तत्तन्नाम वाच्यं यावत् सकलविमानप्रधानाच्युतावतंसकाभिधानविमानविशेषोपलक्षितोऽच्युतः, लोकपुरुषस्य ग्रीवाविभागे भवानि विमानानि ग्रैवेयकानि, नैषामन्यान्युत्तराणि विमानानि सन्तीत्यनुत्तरविमानानि, ईषद्वाराक्रान्तपुरुषवन्नता अन्तेष्वितीषत्प्रागभारेति, अत्र प्रज्ञापकप्रत्यासत्तेरादौ सौधर्मस्योपन्यासः, ततो व्यवहितादिरूपत्वात् क्रमेणेशानादीनामिति पूर्वानुपूर्वीत्वं, शेषभावना तु पूर्वोक्तानुसारतः कर्तव्येति क्षेत्रानुपूर्वी समाप्ता ॥ १०४ ॥ उक्ता क्षेत्रानुपूर्वी, साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टामेव क्रमप्राप्तां कालानुपूर्वी व्याचिख्यासुराह- से किं तं कालाणु० १, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - उवणिहिआ य अणोवणिहिआ य ( सू० १०५ ) । तत्थ णं जा सा उवणिहिआ सा ठप्पा, तत्थ णं जा सा अणोवणिहिआ सा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा - णेगमववहाराणं संगहस्स य ( सू० १०६ ) । से किं तं गमववहाराणं अणोवणिहिआ कालाणु० १, २ पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा - अटुपयपरूवणया भंगसमुक्कित्तणया भंगोवदंसणया समोआरे अणुगमे (सू० १०७ ) । से किं तं गमववहाराणं अट्ठपयरूवणया ?, २ तिसमयट्ठिइए आणु० जाव दससम Ja Eco Intematona For P&Palise Cnly ••• सूत्रस्य क्रमांकने मुद्रणदोषत्वात् सू० १०३' स्थाने १०४' इति क्रम: मुद्रितं तत् कारणात् अत्र मया अपि १०४' इति लिखितम् ~195~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ९२ ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] | गाथा ||१५...|| ..................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५ -११२]] दीप अनुक्रम [१२६-१३५] यट्रिईए आणु० संखिजसमयदिईए आणु० असंखिज्जसमयट्रिईए आणु०, एगसमयट्टिईए अणाणु० दुसमयट्टिईए अवत्तव्वए, तिसमयठिइआओ आणुपुब्बीओ एगसमयदिईआओ अणाणुओ दुसमयटिइआ अवत्तव्वगाई, से तं गमववहाराणं अटुपयपरूवणया । एआए णं णेगमववहाराणं अटुपयपरूवणयाए किं पओअणं ?, एआए णं णेगमववहाराणं अटुपयपरूवणयाए णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया कज्जइ (सू० १०८)। से किं तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया?, २ अस्थि आणु० अस्थि अणाणु० अस्थि अवत्तव्वए, एवं दव्वाणुपुवीगमेणं कालाणुपुव्वीएवि ते चेव छव्वीसं भंगा भाणिअव्वा जाव से तं गमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणया । एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए किं पओअणं?, एआए णं णेगमववहाराणं भंगसमुक्त्तिणयाए णेगमववहाराणं भंगोवदंसणया कजई (सू०१०९)।से किं तं णेगमववहाराणं भंगोवर्दसणया?, २ तिसमयट्रिईए आणु० एगसमयट्रिईए अणाणु० ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्ति अनुयो मलधारीया [१०५-११२] उपक्र माषिक ॥१३॥ गाथा दुसमयट्टिईए अवत्तव्वए, तिसमयट्टिईआ आणुपुब्बीओ एगसमट्टिइआ अणाणुपुव्वीओ दुसमयट्टिईआ अवत्तव्वगाई, अहवा तिसमयट्टिईए अपगसमयट्टिईए अ आणु० अणाणु अ, एवं तहा चेव दवाणु० गमेणं छठवीसं भंगा भाणिअव्वा, जाव से तं गमववहाराणं भंगोवदंसणया (सू० ११०)। से किं तं समोआरे? २णेगमववहाराणं आणुव्दव्वाइं कहिं समोअरंति ? किं आणुव्दवेहिं समोअरंति ? अणाणु०दव्बेहिं ?, एवं तिण्णिवि सटाणे समोअरंति इति भाणिअव्वं । से तं समोआरे (सू० १११) ।से किं तं अणुगमे?, २ णवविहे पण्णत्ते, तंजहा-संतपयपरूवणया जाव अप्पाबहुं चेव ॥१॥णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदव्वाइं कि अस्थि णस्थि?, नियमा तिषिणवि अस्थि । णेगमववहाराणं आणु०दव्वाई किं संखेज्जाई असं खेज्जाइं अणंताई?, तिपिणवि नो संखिज्जाइ असंखेजाई नो अणंताई अब्राक्षरगमनिका यथा द्रव्यानुपूा तथा कर्तव्या, यावत् 'तिसमयहिईए आणुपुब्धी'त्यादि, त्रयः समयाः स्थितिर्यस्य परमाणुपणुकत्र्यणुकायनन्ताणुकस्कन्धपर्यन्तस्य द्रव्यविशेषस्य स त्रिसमयस्थितिव्यवि ॥१॥ दीप ॥९२ अनुक्रम [१२६-१३५] ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०५ -११२] गाथा ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२६ -१३५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः शेष आनुपूर्वीति, आह- ननु यदि द्रव्यविशेष एवात्राप्यानुपूर्वी कथं तर्हि तस्य कालापूर्वीव, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानादू, यतः समयत्रयलक्षणकालपर्यायविशिष्टमेव द्रव्यं गृहीतं, ततश्च पर्याय पर्यायणोः कथञ्चिदभेदात् कालपर्यायस्य चेह प्राधान्येन विवक्षितत्वाद् द्रव्यस्यापि विशिष्टस्य कालानुपूर्वीत्वं न दुष्यति, मुख्यं समयत्रयस्यैवात्रानुपूर्वीत्वं किन्तु तद्विशिष्टद्रव्यस्यापि तदभेदोपचारात्तदुक्त इति भावः एवं चतुःसमयस्थित्यादिष्वपि वाच्यं, याबद्दश समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादिद्रव्यसङ्घातस्य स तथा, सङ्ख्येयाः समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादेः स तथा, असङ्ख्येयाः समयाः स्थितिर्यस्य परमाण्वादेः स तथा, अनन्तास्तु समया द्रव्यस्य स्थितिरेव न भवति, स्वाभाव्याद् इत्युक्तमेवेति शेषा बहुवचननिर्देशादिभावना पूर्ववदेव, एकसमयस्थितिकं परमाण्वाद्यनन्ताशुकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमनानुपूर्वी, द्विसमयस्थितिकं तु तदेवावक्तव्यकमिति, शेषं पूर्वोक्तानुसारेण सबै भावनीयं यावद् द्रव्यप्रमाणद्वारे 'नो संखेज्जाई असंखेजाई नो अनंताई' इति, अस्य भावना-इह व्यादिसमयस्थितिकानि परमाण्वादिद्रव्याणि लोके यद्यपि प्रत्येकमनन्तानि प्राप्यन्ते तथाऽपि समयत्रयलक्षणायाः स्थितेरेकखरूपत्वात् कालस्य चेह प्राधान्येन द्रव्यवहुत्वस्य गुणीभूतत्वात् त्रिसमयस्थितिकैरनन्तैरप्येकमेवानुपूर्वीद्रव्यम्, एवं चतुःसमयलक्षणायाः स्थितेरेकत्वादनन्तैरपि चतुःसमयस्थि| तिकद्रव्ये रेकमेवानुपूर्वीद्रव्यम्, एवं समयवृद्ध्या तावन्नेयं यावदसङ्ख्येयसमयलक्षणायाः स्थितेरेकत्वादनन्तेरप्यसङ्ख्येय समयस्थितिकैर्द्रव्येरेक मेवानुपूर्वीद्रव्यमिति, एवमसङ्ख्येयान्येवात्रानुपूर्वीद्रव्याणि भवन्ति, एव For P&Praise Cinly ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१०५ -११२] गाथा |||| दीप अनुक्रम [१२६ -१३५] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः मनानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याण्यपि प्रत्येकमसङ्ख्येयानि वाच्यानि अत्राह - नन्वेकसमयस्थितिकद्रव्यस्यानानुपूर्वीत्वं हिसमयस्थितिकस्य त्ववक्तव्यकत्वमुक्तं, तत्र यद्यप्येकद्विसमयस्थितीनि परमाण्वादिद्रव्याणि लोके प्रत्येकमनन्तानि लभ्यन्ते तथाऽप्यनन्तरोक्तत्वादुक्तयुक्त्यैव समयलक्षणाया द्विसमयलक्षणायाश्च स्थितेरेकैकरूपत्वाद् द्रव्यबाहुल्यस्य च गुणीभूतत्वादेकमेवानानुपूर्वी द्रव्यमेकमेव चावक्तव्यकद्रव्यं वक्तुं युज्यते, न तु ॥ ९४ ॥ ४ प्रत्येकमसख्येयत्वम्, अथ द्रव्यभेदेन भेदोऽङ्गीक्रियते तर्हि प्रत्येकमानन्त्यप्रसक्तिः, एकसमयस्थितीनां ॐ द्विसमयस्थितीनां च द्रव्याणां प्रत्येकमनन्तानां लोके सद्भावादिति, सत्यमेतत् किन्त्वेकसमयस्थितिकमपि यदवगाहभेदेन वर्तते तदिह भिन्नं विवक्ष्यते, एवं द्विसमयस्थितिकमप्यवगाहभेदेन भिन्नं चिन्त्यते, लोके चासङ्ख्येया अवगाहभेदाः सन्ति, प्रत्यवगाहं चैकद्विसमयस्थितिकानेकद्रव्यसम्भवाद नानुपूर्व्यवक्तव्यकद्रव्याणामाधारक्षेत्रभेदात् प्रत्येकमसङ्ख्येयत्वं न विहन्यते इति, अनया दिशाऽतिगहनमिदं सूक्ष्मधिया पर्यालोचनीयमिति । क्षेत्रद्वारे अनुयो० मलधा रीया Ja Eco intematon णेगमववहाराणं आणु०दव्वाई लोगस्स किं संखिज्जइभागे होज्जा ? असंखिज्जइभागे होजा? संखेजेसु भागेसु वा होज्जा ? असंखेज्जेसु भागेसु वा होज्जा ? सव्वलोए वा 'होजा?, एगं दव्वं पडुच्च संखेज्जइभागे वा होजा असंखेज्जइभागे वा होजा संखेज्जेसु For P&Pase Cnly ~ 199~ वृत्तिः उपऋमाघि० ॥ ९४ ॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-११२] SHESASUSA गाथा ॥१॥ वा भागेसु होजा असंखेजेसु वा भागेसु होजा देसूणे वा लोए होज्जा ?, नाणादव्वाई पडुच्च नियमा सव्वलोए होजा, एवं अणाणुपुव्वीदव्वं, आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु होजा, एवं अवत्तव्वगदव्वाणि वि जहा खेत्ताणुपुवीए । फुसणा कालाणुपुवीएवि तहा चेव भाणिअव्वा । 'एगं ब्वं पहुच लोगस्सासंखेजइभागे होजा, जाव देसूणे वा लोगे होज'त्ति, इह त्र्यादिसमयस्थितिकन्यस्य तत्तदवगाहसम्भवतः सख्येयादिभागवर्तित्वं भावनीयं, यदा ठ्यादिसमयस्थितिका सूक्ष्मपरिणामः | स्कन्धो देशोने लोकेऽवगाहते तदैकस्यानुपूर्वीद्रव्यस्य देशोनलोकवर्तित्वं भावनीयं, अन्ये तु 'पदेसूणे वा लोगे होज'त्ति पाठं मन्यन्ते, तत्राप्ययमेवार्थः, प्रदेशस्थापि विवक्षया देशत्वादिति, सम्पूर्णेऽपि लोके कस्मादिदं न प्राप्यत इति चेद, उच्यते, सर्वलोकव्यापी अचित्तमहास्कन्ध एवं प्राप्यते, स च तद्व्यापितया एकमेव समयमवतिष्ठते, तत ऊर्ध्वमुपसंहारस्योक्तत्वात, न चैकसमयस्थितिकमानुपूर्वीद्रव्यं भवितुमर्हति, ज्यादिस-18| INमपस्थितिकस्वेन तस्योक्तत्वात, तम्माज्यादिसमयस्थितिकमन्यद द्रव्यं नियमादेकेनापि प्रदेशेनोन एच लोके ऽवगाहत इति प्रतिपत्तव्यम् । अत्राह-नन्वचित्तमहास्कन्धोऽप्येकसमयस्थितिको न भवति, दण्डायवस्था-12 समयगणनेन तस्याप्यष्टसमयस्थितिकत्वाद, एवं च सति तस्याप्यानुपूर्वीत्वात् सम्पूर्णलोकन्यापित्वं युज्यते दीप अनुक्रम [१२६-१३५] EARTHI ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० [१०५-११२] उपक्र मलधारीया ॥ ९५॥ SAKC+% गाथा ॥१॥ त्र वक्तुमिति, नैतदेवम्, अवस्थाभेदेन वस्तुभेदस्वेह विवक्षितत्वात् , भिन्नाश्च परस्परं दण्डकपाटाद्यवस्था, वृत्तिः ततस्तद्रेदेन वस्तुनोऽपि भेदादू अन्यदेव दण्डकपाटाद्यवस्थाद्रव्येभ्यः सकललोकव्याप्पचित्तमहास्कन्धद्रव्यं, तचैकसमयस्थितिकमिति न तस्यानुपूर्वीत्वम्, एतच्चानन्तरमेव पुनर्वक्ष्यत इत्यलं विस्तरेण । अथवा यथा माधिक क्षेत्रानुपूयी तथाऽत्रापि सर्वलोकव्यापिनोऽप्यचित्तमहास्कन्धस्य विवक्षामात्रमाश्रित्य एकस्मिन्नभाणदेशेऽ-15 प्राधान्याद्देशोनलोकवर्तित्वं वाच्यम् , एकसमयस्थितिकस्थानानुपूर्वीद्रव्यस्य दिसमयस्थितिकावक्तव्यकस्य है च तत्र प्रदेशे प्राधान्याश्रयणादिति भावः, एवमन्यदपि आगमाविरोधतो वक्तव्यमिति । 'नाणाब्वाइं पहुंच |णियमा सब्बलोए होज'त्ति, व्यादिसमयस्थितिकद्रव्याणां सर्वलोकेऽपि भावादिति भावनीयम् । अनानुपूर्वी द्रव्यचिन्तायां यथा क्षेत्रानुपूया तथा अवाप्येकद्रव्यं लोकस्यासङ्ख्येयभाग एव वर्तते, कथमिदम् ?, उहाच्यते, यत्कालत एकसमयस्थितिकं तत्क्षेत्रतोऽप्येकप्रदेशावगाढमेवेहानानुपूर्वीखेन विवक्ष्यते, तच लोकास-11 ख्येयभाग एव भवति, 'आएसंतरेण वा सव्वपुच्छासु होज'त्ति, अस्य भावना-इहाचित्तमहास्कन्धस्य दण्डाद्यवस्थाः परस्परं भिन्नाः, आकारादिभेदात्, द्वित्रिचतुःप्रदेशकादिस्कन्धवत्, ततश्च ता एकैकसमयवृ. कात्तित्वात् पृथगनानुपूर्वीद्रव्याणि, तेषु च मध्ये किमपि कियत्यपि क्षेत्रे वर्तत इत्यनया विवक्षया किलैकमनानुपूर्वीद्रव्यं मतान्तरेण सयेयभागादिकासु पञ्चखपि पृच्छासु लभ्यते, एतच सूत्रेषु प्रायो न दृश्यते, टी ला॥९५॥ काचूयोस्त्वेवं व्याख्यातमुपलभ्यत इति । नानाद्रव्याणि तु सर्वस्मिन्नपि लोके भवन्ति, एकसमयस्थितिक दीप अनुक्रम [१२६-१३५] ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-११२] गाथा द्रव्याणां सर्वत्र भावादिति । अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायां क्षेत्रानुपामियैकद्रव्यं लोकस्खास-ख्येयभाग एव ४ वर्तते, कथमिति, उच्यते, यत्कालतो बिसमयस्थितिकं तत् क्षेत्रतो बिप्रदेशावगानमेवेहावक्तव्यकखेन गृ-1 ह्यते, तच लोकास-ख्येयभाग एव स्याद्, अथवा दिसमयस्थितिक द्रव्य खभावादेव लोकस्यासख्येयभाग एवावगाहते, न परता, आदेशान्तरेण वा 'महाखंधवजमन्नदब्वेसु आइलंचउपुच्छासु होज'त्ति, अस्य हृदयं-मतान्तरेण किल दिसमयस्थितिकमपि द्रव्यं किञ्चिल्लोकस्य सख्येयभागेऽवगाहते किश्चिश्वसङ्ख्येये अन्यत्तु सङ्ख्येयेषु तद्भागेष्ववगाहते अपरं त्वसख्येयेष्विति, महास्कन्धं वर्जयित्वा शेषद्रव्याण्याश्रित्य | यथोक्तखरूपाखाद्यासु चतसृषु पृच्छाखेकमवक्तव्यकद्रव्यं लभ्यते, महास्कन्धस्य त्वष्टसमयस्थितित्वेनोक्तत्वान्न | द्विसमयस्थितिकत्वसम्भव इति तर्जनम्, अत एव सर्वलोकव्याप्तिलक्षणायाः पञ्चमपृच्छाया अत्रासम्भवः, महास्कन्धस्यैव सर्वलोकव्यापकत्वात्, तस्य चावक्तव्यकत्वायोगादिति । एतदपि सूत्रं वाचनान्तरे कचिदेव दश्यते । नानाद्रव्याणि तु सर्वलोके भवन्ति, द्विसमयस्थितीनां सर्वत्र भावादिति । गतं क्षेत्रदारं, स्पर्शना-13 द्वारमप्येवमेव भावनीयं । कालद्वारे णेगमववहाराणं आणुपुब्बीदव्वाई कालओ केवच्चिरं होति?, एगं दव्वं पडुच्च जहण्णेणं तिपिण समया उक्कोसेणं असंखेज कालं, नाणादवाई पडुच्च सम्बद्धा, ॥१॥ दीप अनुक्रम [१२६-१३५] ~202~ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-११२] अनुयो मलधा रीया माधि ॥९६॥ * गाथा णेगमववहाराणं अणाणुपुठवीदव्वाई कालओ केवञ्चिरं होइ ?, एग दव्वं पडुच्च अजहन्नमणुकोसेणं एकं समयं नाणादव्वाइं पडुच्च सव्वद्धा, अवत्तव्वगदव्वाणं पुच्छा, पगं दव्वं पडुच्च अजहण्णमणुक्कोसेणं एवं समयं नाणादव्वाई पडुच्च स व्वद्धा। 'एगं दव्यं पडच जहणणेणं तिण्णि समय सि, जघन्यतोऽपि त्रिसमयस्थितिकस्यैवानुपूवीत्वेनोक्तत्वादिति भावः । 'उकोसेणं असंखेज कालं ति असन्ख्येयकालात् परत एकेन परिणामेन द्रव्यावस्थानस्यैवाभावा-11 |दिति हृदयम् । नानागव्याणि तु सर्वकालं भवन्ति, प्रतिप्रदेश लोकस्य सर्वदा तैरशून्यस्वादिति । अनानुपूर्व्यवक्तव्यकचिन्तायाम्-'अजहन्नमणुक्कोसेणं ति जघन्योत्कृष्टचिन्तामुत्सृज्येत्यर्थः, न हि एकसमयस्थितिकस्यैवानानुपूर्वीखे दिसमयस्थितिकस्यैव चावक्तव्यकत्वेऽभ्युपगम्यमाने जघन्यतोत्कृष्टचिन्ता सम्भवतीति भावः, नानाद्रव्याणि तूभयत्रापि सर्वकालं भवन्ति, प्रतिप्रदेशं तैरपि सर्वदा लोकस्याशून्यत्त्वादिति ॥ अन्तरद्वारे णेगमववहाराणं आणुपुत्वीदवाणमंतरं कालओ केवच्चिर होइ?, एग दव्वं पडुच्च जहण्णेणं एगं समयं उक्कोसेणं दो समया नाणादव्वाइं पडुच्च नत्थि अंतरं । ॥१॥ R **45 दीप ॥९६॥ अनुक्रम [१२६-१३५] ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -CC [१०५-११२] गाथा ॥१॥ णेगमववहाराणं अणाणुपुठवीदव्वाणमंतरं कालओ केवञ्चिर होइ ?, एगं दव्वं पडुच्च जहपणेणं दो समया उक्कोसेणं असंखेजं कालं, णाणादव्वाइं पडुच्च णस्थि अंतरं ।णेगमववहाराणं अवत्तव्वगदव्वाणं पुच्छा, एगं दव्वं पडुच्च जहणणेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, णाणादव्वाई पडुच्च णस्थि अंतरं । भागभावअप्पाबहुं चेव जहा खेत्ताणुपुव्वीए तहा भाणिअव्वाई, जाव से तं अणुगमे । से तं गमववहाराणं अ णोवणिहिआ कालाणुपुवी (सू० ११२) 'एगं दव्वं पडच जहपणेणं एक समयंति, अन्न भावना-इह व्यादिसमयस्थितिकं विवक्षितं किश्चिदेकमा-1 नुपूर्वीद्रव्यं तं परिणाम परित्यज्य यदा परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा पुनस्तेनैव परिणामेन व्यादिसम यस्थितिकं जायते तदा जघन्यतया समयोऽन्तरे लभ्यते, 'उकोसेणं दो समयत्ति, तदेव यदा परिणामाट्रान्तरेण बी समयी स्थित्वा पुनस्तमेव श्यादिसमयस्थितियुक्तं प्राक्तनं परिणाममासादयति तदा ही समया बुत्कृष्टतोऽन्तरे भवतः, यदि पुनः परिणामान्तरेण क्षेत्रादिभेदतः समयदयात्परतोऽपि तिष्ठेत्तदा तत्राप्याजानुपूर्वीत्वमनुभवेत्, ततोऽन्तरमेव न स्यादिति भावः । नानाद्रव्याणां तु नास्त्यन्तरं, सर्वदा लोकस्य तद् दीप अनुक्रम [१२६-१३५] ~204~ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५-११२] अनुयो. मलधारीया उपक्र ॥१७॥ tos गाथा ॥१॥ त शून्यत्वादिति । अनानुपूर्वीचिन्तायां 'एग दव्वं पडुच जहण्णेणं दो समयसि, एकसमयस्थितिक द्रव्यं यदा वृत्तिः [परिणामान्तरेण समयद्वयमनुभूय पुनस्तमेवैकसमयस्थितिक परिणाममासादयति तदा समयदयं जघन्योन्तरकाला, यदि तु परिणामान्तरेणाप्येकमेव समयं तिष्ठेत् तदा अन्तरमेव न स्यात्, तत्राप्यनानुपूर्वीत्वादू, माधि० अथ समयदयात् परतस्तिष्ठेत्तदा जघन्यत्वं न स्यादिति भावः । 'उक्कोसेणं असंखेनं कालं ति, तदेव यदा परिणामान्तरेणासडूनख्येयकालमनुभूय पुनरेकसमयस्थितिक परिणाममनुभवति तदोत्कृष्टतोऽसङ्ख्ययोन्तरकालः प्राप्यते । आह-ननु यदि च अन्यान्यद्रव्यक्षेत्रसम्बन्धे तस्यानन्तोऽपि कालोऽन्तरे लभ्यते कि|मित्यसङ्ख्येय एवोक्तः, सत्यं, किन्तु कालानुपूर्वीप्रक्रमात् कालस्यैवेह प्राधान्यं कर्तव्यं, यदि त्वन्यान्यद्-4 व्यक्षेत्रसम्बन्धतोऽन्तरकालबाहुल्यं क्रियते तदा तद्वारेणैवान्तरकालस्य बहुत्वकरणात्सयोर्दयोरेव प्राधान्यमाश्रितं स्यान्न कालस्य, तस्मादेकस्मिन्नेव परिणामान्तरे यावान् कश्चिदुत्कृष्टः कालो लभ्यते स एवान्तरे चिन्त्यते, स चासख्येय एव, ततः परमेकेन परिणामेन वस्तुनोऽवस्थानस्यैव निषिद्धत्वादित्येवं भगवतः सूत्रस्य विवक्षावैचित्र्यात् सर्व पूर्वमुत्तरत्र चागमाविरोधेन भावनीयमिति । नानाद्रव्याणां तु नास्त्यन्तरं, प्रतिप्रदेशं लोके सर्वदा तल्लाभादिति । अवक्तव्यकद्रव्यचिन्तायां 'जहपणेणं एगं समयंति, दिसमयस्थितिकं| किश्चिद्वक्तव्यकद्रव्यं परिणामान्तरेण समयमेकं स्थित्वा यदा पूर्वानुभूतमेव दिसमयस्थितिकपरिणाममा-॥९॥ सादयति तदा समयो जघन्यान्तरकालः । 'उकोसेणं असंखेज़ कालं ति, तदेव यदा परिणामान्तरेणासङ्ख्येयं दीप अनुक्रम [१२६-१३५] 414 Jaticha ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१०५-११२] / गाथा ||१५R|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०५ -११२]] कालं स्थित्वा पुनस्तमेव पूर्वानुभूतं परिणाममासादयति तदाऽसङ्ख्यात उत्कृष्टान्तरकालो भवति, आक्षेपपरिहाराचन्त्राप्यनानुपूर्वीवत् द्रष्टव्याविति । नानाद्रव्यान्तरं तु नास्ति, सर्वदा लोके तङ्कावादिति । उक्त-18 मन्तरद्वार, भागबारे तु यथा द्रव्यक्षेत्रानुपूल्योंस्तथैवानुपूर्वीद्रव्याणि शेषद्रष्येभ्योऽसख्येपै गैरधिकानि| व्याख्ययानि, शेषद्रव्याणि खानुपूर्वीद्रव्याणामसङ्ख्येयभाग एवं वर्तन्त इति, भावना वित्थं कर्तव्या-इहा-12 नानुपूयोमेकसमपस्थितिलक्षणमेकमेव स्थान लभ्यते, अवक्तब्यकेष्वपि बिसमयस्थितिलक्षणमेकमेव तल्ल-1४॥ भ्यत, आनुपूच्या तु त्रिसमयचतुःसमयपञ्चसमयस्थित्यादीन्येकोत्तरवृज्याऽसख्येयसमयस्थित्यन्तान्यसङ्ख्येयानि स्थानानि लभ्यन्त इत्यानुपूर्वीद्रव्याणामसरूपेयगुणत्वम्, इतरयोस्तु तदस-ख्येयभागवर्तिस्वमिति | |भावद्वारे सादिपारिणामिकभाववर्तिवं त्रयाणामपि पूर्ववद्भावनीयम् । अल्पबहुत्वद्वारे सर्वस्तोकान्यवक्तव्यकद्रव्याणि, दिसमयस्थितिकद्रव्याणां खभावत एव स्तोकस्वादु, अनानुपूर्वीद्रव्याणि तु तेभ्यो विशेषाधिकानि, एकसमयस्थितिकद्रव्याणां निसर्गत एवं पूर्वेभ्यो विशेषाधिकत्वादू, आनुपूर्वीद्रव्याणां तु पूर्वेभ्यो| सङ्ख्यातगुणत्वं भागबारे भावितमेव, शेषं तु क्षेत्रानुपूर्व्यायुक्तानुसारतः सर्व वाच्यमिति। अत एव केषुचि-18 वाचनान्तरेषु भागादिवारत्रयं क्षेत्रानुपूर्ण्यतिदेशेनैव निर्दिष्टं दृश्यते, न तु विशेषतो लिखितमिति । से हातमित्यादि निगमनम् । उक्ता नैगमव्यवहारनपमतेनानोपनिधिकी कालानुपूर्वी, अथ संग्रहनयमतेन तामेव दव्याचिख्यासुराह दीप अनुक्रम [१२६-१३५]] ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [११३-११४] / गाथा ||१५...|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत RSSC वृत्तिः अनुयो मलधारीया सूत्रांक उपकर माधि [११३ -११४ ॥९८॥ से किं तं संगहस्स अणोवणिहिआ कालाणुपुवी ?, २ पंचविहा पण्णत्ता, तंजहाअट्रपयपरूवणया भंगसमुकित्तणया भंगोवदंसणया समोआरे अणुगमे (सू० ११३)। से किं तं संगहस्स अट्ठपयपरूवणया?, २ एआइं पंचवि दाराइं जहा खेत्ताणुपुवीए संगहस्स तहा कालाणु० एवि भाणिअव्वाणि, णवरं ठिइअभिलावो, जाव से तं अ णुगमे । से तं संगहस्स अणोवणिहिआ कालाणु० (सू० ११४)। यथा क्षेत्रानुपूर्व्यामियं संग्रहमतेन प्राग्निर्दिष्टा तथाऽत्रापि वाच्या, नवरं 'तिसमयट्टिइआ आणुपुब्बी जाव असंखेजसमयठिइआ आणुपुम्वी'त्यादि अभिलापः कार्यः, शेषं तु तथैवेति ॥ ११४ ॥ उक्ता संग्रहमतेनाप्यनीपनिधिकी कालानुपूर्वी, तथा च सति अवसितस्तद्विचारः, इदानीं प्रागुद्दिष्टामेवोपनिधिकीं तां निर्दिदिक्षुराह से किं तं उवणिहिआ कालाणुपुव्वी?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुब्वाणु० पच्छाणु०अणाणुलासे किं तं पुव्वाणु०१, २ समए आवलिआ आण पाणू थोवे लवे मुहत्ते दीप अनुक्रम [१३६ ॥९८॥ -१३७] अथ 'समय' गणितं प्रकाश्यते ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [११५] / गाथा ||१५...|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: -२ (मूलं वान (४५) गरेण संकाल १११] / गाथा प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१३८] अहोरत्ते पक्खे मासे उऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससयसहस्से पुव्वंगे पुव्वे तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अववे हुहुअंगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे णलिणंगे णलिणे अत्थिनिऊरंगे अथिनिऊरे अउअंगे अउए नउअंगे नउए पउअंगे पउए चूलिअंगे चूलिआ सीसपहेलिअंगे सीसपहेलिआ पलिओवमे सागरोवमे ओसप्पिणी उस्सप्पिणी पोग्गलपरिअढे अतीतद्धा अणागतद्धा सव्वद्धा, से तं पुव्वाणुलासे किं तं पच्छाणु०१, २ सव्वद्धा अणागतद्धा जाव समए, से तं पच्छाणु से किं तं अणाणु०?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए अणंतगच्छगयाए सेढीए अण्णमण्णब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुवी। अहवा उवणिहिआ कालाणुपुत्वी तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुब्वी अणाणुपुत्वी । से किं तं पुव्वाणुपुव्वी?, २ एगसमयठिइए दुसमयठिइए तिसमयठिइए जाव दससमयठिइए संखिजसमयठिइए असंखिजसमयठिइए, से तं पुव्वाणुपुत्वी । ऊरह ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१३८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [११५] / गाथा || १५...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ९९ ॥ से किं तं पच्छा पुवी ? २ असंखिज्जसमयडिइए जाव एगसमयडिइए, से तं पच्छापुव्वी । से किं तं अणाणुपुव्वी १, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए असंखिज्जगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुव्वी । से तं उवणिहि कालापुव्वी से तं कालाणुपुव्वी ( सू० ११५ ) एकः समयः स्थितिर्यस्य द्रव्यविशेषस्य स तथा एवं यावदसङ्ख्येयाः समयाः स्थितिर्यस्य स तथेति पूर्वानुपूर्वी, शेषभावना त्वत्र पूर्वोक्तानुसारेण सुकरैव । अथ कालविचारस्य प्रस्तुतत्वात्समयादेव कालत्वेन प्रसिद्धत्वाद् अनुषङ्गतो विनेयानां समयादिकालपरिज्ञानदर्शनाच्च तद्विषयत्वेनैव प्रकारान्तरेण तामाह - 'अहवे'त्यादि, तत्र समयो- वक्ष्यमाणस्वरूपः सर्वसूक्ष्मः कालांशः, स च सर्वप्रमाणानां प्रभवत्वात् प्रथमं निईिष्ट १, तैरसख्येयैर्निष्पन्ना आवलिका २, सङ्ख्येया आवलिकाः 'आण'ति आणः, एक उच्छास इत्यर्थः ३, ता एव सङ्ख्येया निःश्वासः, अयं च सूत्रेऽनुक्तोऽपि द्रष्टव्यः, स्थानान्तरप्रसिद्धत्वादिति ४, द्वयोरपि कालः 'पाणु'ति एकः प्राणुरित्यर्थः ५, सप्तभिः प्राणुभिः स्तोकः ६, सप्तभिः स्तोकैर्लयः ७, सप्तसप्तत्या लवानां मुहूर्तः ८, त्रिंशता मूहूतैरहोरात्रं १, तैः पञ्चदशभिः पक्षः १०, ताभ्यां द्वाभ्यां मासः ११, मासद्वयेन ऋतुः १२, ऋतुत्रयमानमयनम् १३, अपनद्वयेन संवत्सरः १४, पञ्चभिस्तैर्युगं १५, विंशत्या युगैर्वर्षशतं १६, तैर्दश For P&Praise Cnly ~209~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ९९ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [११५] / गाथा ||१५...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११५] भिर्वर्षसहस्रं १७, तेषां शतेन वर्षशतसहस्र, लक्षमित्यर्थः १८, चतुरशीत्या च लक्षैः पूर्वाङ्गं भवति १९, तदपि चतुरशीतिल:गुणितं पूर्व भवति २०, तच सप्ततिकोटिलक्षाणि षट्पश्चाशश्च कोटिसहस्राणि वर्षाणाम्, उक्तं च-"पुवस्स उ परिमाणं सयरी खलु हुति कोडिलक्खाउ । छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धब्बा वासकोदाडीणं ॥१॥" स्थापना ७०५६००००००००००, इदमपि चतुरशीत्या लक्षैगुणितं त्रुटिताङ्गं भवति २१, एतदपि|| चतुरशीत्या लक्षगुणितं त्रुटितं भवति २२, तदपि चतुरशीत्या लक्षैर्गुणितमटटाङ्गं २३, एतदपि तेनैव गुण8कारेण गुणितमटटम् २४, एवं सर्वत्र पूर्वः पूर्वो राशिचतुरशीतिलक्षखरूपेण गुणकारेण गुणित उत्तरोत्तर राशिरूपतां प्रतिपद्यत इति प्रतिपत्तव्यं, ततश्च अववाङ्गं २६ अववं २६ हुहुकाझं २७ हहुकं २८ उत्पलाङ्गं २९ उत्पलं ३० पद्माङ्गं ३१ पद्मं ३२ नलिनाङ्गं ३३ नलिनं ३४ अर्थनिपूराङ्ग ३५ अर्थनिपूरं ३६ अयुताङ्गं ३७ अयुतं ३८ नयुताङ्गं ३९ नयुतं ४० प्रयुतानं४१ प्रयुतं ४२ चूलिका ४३ चूलिका ४४ शीर्षप्रहेलिकाङ्गं ४५, एवमेते राशयश्चतुरशीतिलक्षखरूपेण गुणकारेण यथोत्तरं वृद्धा द्रष्टव्यास्तावद् यावदिमेव शीर्षप्रहेलिकाङ्गं चतुरशीत्या लक्षैगुणितं शीर्षप्रहेलिका भवति ४६, अस्याः स्वरूपमङ्कतोऽपि दश्यते ७५८२६३२५३०७ |३०१०२४११५७९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६ अग्रे च चत्वारिंशं शून्यशतं १४०, तदेवं शीर्षप्रहेलिकायां सर्वाण्यमूनि चतुर्णवत्यधिकशतसङ्ख्यान्यङ्कस्थानानि भवन्ति, अनेन चैतावता कालमा १ पूर्वस्य तु परिमाणं सप्ततिः सङ भवन्ति कोटीलक्षाः । षट्पञ्चाशन सहस्राणि बोद्धव्याः वर्षकोटीनाम् ॥ १॥ दीप अनुक्रम [१३८] ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१३८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [११५] / गाथा || १५...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १०० ॥ नेन केषाञ्चिद् रत्वम्भानारकाणां भवनपतिव्यन्तरसुराणां सुषमदुष्षमारकसम्भविनां नरतिरश्रां च यथासूम्भवमायूंषि मीयन्ते, एतस्मात परतोऽपि सङ्ख्येयः कालोऽस्ति, किंत्वनतिशयिनामसंव्यवहार्यत्वात् सर्पपाद्युपमयाऽचैव वक्ष्यमाणत्वाच नेोक्तः, किं तर्हि ?, उपमामात्रप्रतिपाद्यानि पत्योपमादीन्येव, तत्र पल्योपमसागरोपमे - अत्रैव वक्ष्यमाणस्वरूपे, दृशसागरोपमकोटाकोटिमाना त्ववसूर्पिणी, तावन्मानैवोत्सर्पिणी, अनन्ता उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यः पुद्गलपरावर्तः, अनन्तास्ते अतीताद्धा, तावन्मानैवानागताद्धा, अतीतानागतवर्तमानकालस्वरूपा सर्वाद्धेत्येषा पूर्वानुपूर्वी, शेषभावना तु पूर्वोक्तानुसारतः सुकरैव, यावत् कालानुपूर्वी समाप्ता ॥ ११४ ॥ साम्प्रतं प्राशुद्दिष्टामेवोत्कीर्तनानुपूर्वी विभणिपुराह से किं तं उत्तिणाणुपुवी ?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- पुव्वाणुपुत्री पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी । से किं तं पुव्वाणुपुव्वी १, २ उसमे अजिए संभवे अभिनंदणे सुमती पउमपहे सुपासे चंदप्पहे सुविही सीतले सेज्जसे वासुपुजे विमले अनंते धम्मे संती कुंथू अरे मल्ली मुणिसुव्वए णमी अरिट्ठणेमी पासे वद्धमाणे, से तं पुण्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छाणुपुव्वी १, २ वद्धमाणे जाव उसमे से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुव्वी १, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए चउवीसगच्छग For P&Praise Cinly अत्र सूत्रान्ते || १९१५ || मुद्रितं तथा वृत्त्यन्ते || ११४ | मुद्रितं, अनन्तर सूत्रान्ते ||११६ || मुद्रितं, तत् कारणात् मया ||११५ || क्रम स्विकृतम् ~ 211~ वृत्तिः उपक्रमाधि० ॥ १०० ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [११६] दीप अनुक्रम [१३९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [११६] / गाथा || १५...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः या सेडीए अण्णमणभासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुव्वी । से तं उकित्तणाणुपुवी ( सू० ११६ ) उत्कीर्तनं संशब्दनमभिधानोचारणं तस्यानुपूर्वी अनुपरिपाटिः सा पूर्वानुपूर्व्यादिभेदेन त्रिविधा, तत्र ऋषभः प्रथममुत्पन्नत्वात् पूर्वमुत्कीर्त्यते, तदनन्तरं क्रमेण अजितादय इति पूर्वानुपूर्वी, शेषभावना तु पूर्ववदू, अत्राहू-ननु औपनिधिक्या द्रव्यानुपूर्व्या अस्याथ को भेदः ?, उच्यते, तत्र द्रव्याणां विन्यासमात्रमेव पूर्वानुपूर्व्यादिभावेन चिन्तितम् अत्र तु तेषामेव तथैवोत्कीर्तनं क्रियत इत्येतावन्मात्रेण भेद इति, भवत्वेवं, किन्त्वावश्यकस्य प्रस्तुतत्वादुत्कीर्तनमपि सामायिकाद्यध्ययनानामेव युक्तं किमित्यप्रकान्तानां ऋषभादीनां तद्विहितमिति ?, सत्यं, किन्तु सर्वव्यापकं प्रस्तुतशास्त्रमित्यादावेवोक्तं, तद्दर्शनार्थमृषभादिसूत्रान्तरोपादानं, भगवतां च तीर्थप्रणेतृत्वात् तत्स्मरणस्य समस्तश्रेयः फलकल्पपादपत्वाद् युक्तं तन्नामोत्कीर्तनं, तद्विषयत्वेन चोक्तमुपलक्षणत्वादन्यत्रापि द्रष्टव्यमिति, शेषं भावितार्थ यावत् से तमित्यादि निगमनम् ॥ ११६ ॥ इदानीं पूर्वोद्दिष्टामेव गणनानुपूर्वीमाह से किं तं गणणाणुपुथ्वी १, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा- पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी । से किं तं पुव्वाणुपुव्वी १, २ एगो दस सयं सहस्तं दससहस्साइं सय For P&Pase City ~ 212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [११७] / गाथा ||१५...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: HSSPEAK प्रत सूत्रांक अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधि [११७] ॥१०१॥ दीप सहस्सं दससयसहस्साई कोडी दसकोडीओ कोडीसयं दसकोडिसयाई, से तं पुवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुवी?, २ दसकोडिसयाई जाव एको, से तं पच्छाणुपुव्वी । से किं तं अणाणुपुवी?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए दसकोडिसयगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नभासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुव्वी । से तं गणणाणुपुव्वी (सू० ११७) गणनं-परिस-ख्यानं एकं दे त्रीणि चत्वारि इत्यादि, तस्य आनुपूर्वी-परिपाटिर्गणनानुपूर्वी, अत्रोपलक्षणमात्रमुदाहर्तुमाह-एगे'त्यादि सुगमम् , उपलक्षणमात्रं चेदमतोऽन्येऽपि सम्भविनः सख्याप्रकारा अत्र द्रष्टव्याः, उत्कीर्तनानुपू- नाममात्रोत्कीर्तनमेव कृतम्, अत्र खेकादिसङ्ख्याभिधानमिति भेदः । 'से त'मित्यादि निगमनम् ॥ ११७ ॥ अथ प्रागुद्दिष्टामेव संस्थानानुपूर्वीमाह से किं तं संठाणाणुपुवी ?, २ तिविहा पण्णता, तंजहा-पुव्वाणुपुब्बी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी । से किं तं पुवाणुपुव्वी?, २ समचउरंसे निग्गोहमंडले सादी खुजे वामणे हुंडे, से तं पुव्वाणुपुव्वी । से किं तं पच्छाणुपुब्बी ?, २ हुंडे जाव समचउरंसे, अनुक्रम [१४०] 256 JEACHI ~213~ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [११८] / गाथा ||१५...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८] CAKACEBACC से तं पच्छाणुपुटवी । से किं तं अणाणुपुठवी?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवणो, से तं अणाणुपुवी । से तं संठाणाणुपुव्वी (सू० ११८) आकृतिविशेषाः संस्थानानि तानि च जीवाजीवसम्बन्धित्वेन विधा भवन्ति, तत्रेह जीवसम्बन्धीनि, तत्रापि पश्चेन्द्रिपसम्बन्धीनि वक्तुमिष्टानि, अतस्तान्याह-समचउरंसें'त्यादि, तन्त्र समा:-शास्त्रोक्तलक्षणावि संवादिन्यश्चतुर्दिग्वर्तिनः अवयवरूपाश्चतस्रोऽत्रयो यत्र तत् समासान्तात्प्रत्यये समचतुरस्र संस्थान, तुल्याठारोहपरिणाहः सम्पूर्णलक्षणोपेताझोपाडावयवः खाङ्गलाष्टाधिकशतोष्यः सर्वसंस्थानप्रधानः पश्चेन्द्रियजीव शरीराकार विशेष इत्यर्थः १, नाभेरुपरि न्यग्रोधवन्मण्डलम्-आघसंस्थानलक्षणयुक्तत्वेन विशिष्टाकारं न्यग्रोधमण्डलं, न्यग्रोधो-वटवृक्षः, यथा चायमुपरि वृसाकारतादिगुणोपेतखेन विशिष्टाकारो भवत्यवस्तु न तथा, एवमेतदपीति भावः २, सह आदिना-नाभेरधस्तनकायलक्षणेन वर्तत इति सादि, ननु सर्वमपि संस्थानमादिना सहैव वर्तते ततो निरर्थकं सादिवविशेषणं, सत्यं, कि खत एव विशेषणवैफल्यप्रसङ्गादायसंस्थानलक्षणयुक्त आदिरिह गृश्यते, ततस्तथाभूतेन आदिना सह यवर्तते नाभेस्तूपरितनकाये आघसंस्थानलक्षणविकलं तत्सादीति तात्पर्यम् ३, यत्र पाणिपादशिरोमीवं समनलक्षणपरिपूर्ण शेषं तु हृदयोदरपृष्ठलक्षणं दीप अनुक्रम [१४१] + ~214~ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [११८] / गाथा ||१५...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो प्रत रीया सूत्रांक [११८] दकोष्ठ-लक्षणहीनं तत् कुन्ज, यत्र तु हृदयोदरपृष्ठं सर्वलक्षणोपेतं शेषं तु हीनलक्षणं तवामनं, कुजवि- वृत्तिः मलधा- परीतमित्यर्थः ५, यत्र सर्वेऽप्यवयवाः प्रायो लक्षणविसंवादिन एव भवन्ति तत्संस्थानं हुण्डमिति ६ । अत्र चा उपक्र सर्वप्रधानत्वात् समचतुरस्रस्य प्रथमत्वं, शेषाणां तु यथाक्रमं हीनत्वाद् द्वितीयादित्वमिति पूर्वानुपूर्वीत्वं, माधि. शेषभावना पूर्ववदिति । आह-पदीत्थं संस्थानानुपूर्वी प्रोच्यते तर्हि संहननवणेरसस्पर्शायनुपूयोऽपि वक्त॥१० ॥ व्याः स्युः, तथा च सत्यानुपूर्वीणामियत्तेव विशीयेते, ततो निष्फल एवं प्रागुपन्यस्तो दशविधत्वसङ्ख्या नियम इति, सत्यं, किन्तु सर्वांसामपि तासां वक्तुमशक्यत्वादुपलक्षणमात्रमेवार्य समयानियमः, एतदनुसारेणान्या अप्येता अनुसर्तव्या इति तावल्लक्षयामः, सुधिया वन्यथाऽपि वाच्यं, गम्भीरार्थत्वात् परममुनि-13 प्रणीतसूत्रविवक्षायाः, एवमुत्तरत्रापि वाच्यमित्यलं विस्तरेण ॥ ११८॥ सामाचार्यानुपूर्वी विवक्षराह से किं तं सामायारीआणुपुवी?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुव्वी । से किं तं पुव्वाणुपुवी?, २ इच्छामिच्छातहकारो आवस्सिआ य निसीहिआ। आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणा य निमंतणा॥१॥उवसंपया य काले सामायारी भवे दसविहा उ॥ से तं पुव्वाणुपुव्वी। से किं तं पच्छाणुपुवी, २उव ॥१०२॥ संवया जाव इच्छागारो, से तं पच्छाणुपुवी। से किं तं अणाणुपुव्वी,२ एआए दीप अनुक्रम [१४१] ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .................. मूलं [११९] / गाथा ||१६|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] कर गाथा ||१|| चेव एगाइआए एगुत्तरिआए दसगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुव्वी, से तं सामायारीआणुपुव्वी (सू० ११९) तत्र समाचरणं समाचार:-शिष्टजनाचरितः क्रियाकलापस्तस्य भाव इति (उपमाने वतिः ५०९ तत्वौ भावे ५१० यण च ५११ इति का० रू०) यण्पत्यये खियामीकारे च सामाचारी, सा च त्रिविधा-ओघनियुक्त्यभिहितार्थरूपा ओघसामाचारी १, इच्छामिच्छामर्थविषया दशधा सामाचारी २, निशीथकल्पाद्यभिहितप्रायश्चित्तपदविभागविषया पदविभागसामाचारी ३, उक्तं च-"सामायारी तिविहा ओहे दसहा पयविभागेत्ति, तत्रेह दशधा सामाचारीमाश्रित्योक्तम्-'इच्छामिच्छातहकारों'इत्यादि, अन्न कारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, ततश्चैषणमिच्छा-विवक्षितक्रियाप्रवृत्त्यभ्युपगमस्तया करणमिच्छाकारः, आज्ञावलाभियोगरहितो व्यापार इत्यर्थः १, मिथ्या-असदेतद् यन्मयाऽऽचरितमित्येवं करणं मिथ्याकारः, अकृत्ये कस्मिंश्चित् कृते मिथ्यावितथमिदं न पुनर्यथा भगवद्भिरुक्तं तथैवैतन्मवेष्टितमतो दुष्कृतं-दुराचीर्णम् इत्येवमसक्रियानिवृत्त्यभ्युपगमो मिध्याकार इति तात्पर्यम् २, सूत्रव्याख्यानादौ प्रस्तुते गुरुभिः कस्मिंश्चिद् वचस्युदीरिते सति यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति तथैवैतदित्येवंकरणं तथाकारः, अविकल्पगुवोंज्ञाभ्युपगम इस ३, अवश्यकतेव्यमावश्यकं तत्र भवा आवश्यकी-ज्ञानाधालम्बनेनोपाश्रयात् बहिरवश्यंगमने समुपस्थिते अवश्यंकर्त १ सामाचारी त्रिविधा भोघे दशथा पद विभागे इति. दीप अनुक्रम [१४२-१४४] 85 सन.१८ ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [११९] / गाथा ||१६|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] अनुयो० मलधारीया वृत्तिः उपक्र माधिः गाथा ॥१०॥ ||१|| व्यमिदमतो गच्छाम्यहमित्येवं गुरुं प्रति निवेदना आवश्यकीति हृदयं ४, निषेधे भवा नैषेधिकी उपाश्रयाहिः कर्तव्यब्यापारेष्ववसितेषु पुनस्तत्रैव प्रविशतः साधो शेषसाधूनामुत्रासादिदोषपरिजिहीर्षया बहियापारनिषेधेनोपाश्रयप्रवेशसूचनान्नषेधिकीति परमार्थः ५, भदन्त! करोमीदमित्येवं गुरोः प्रच्छनमाप्रच्छना। एकदा पृष्टेन गुरुणा नेदं कर्तव्यमित्येवं निषिद्धस्य विनेयस्य किश्चिद्विलम्ब्य ततश्चेदं चेदं चेह कारणमस्त्यतो यदि पूज्या आदिशन्ति तदा करोमीत्येवं गुरोः पुनः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना, अथवा ग्रामादौ प्रेषितस्य गमनकाले पुनः प्रच्छनं प्रतिप्रच्छना ७, छन्द छदि संवरण'इत्यस्यानेकार्थत्वात् कुरु ममानुग्रहं परिभुक्ष्वेदमित्येवं पूर्वानीताशनादिपरिभोगविषये साधूनामुत्साहना छन्दना ८, इदं वस्तु लब्ध्वा ततोऽहं तुभ्यं दास्थामीत्येवमद्याप्यगृहीतेनाशनादिना साधूनामामश्रण निमन्त्रणा, उक्तं च-पुब्वगहिएण छंदण निमंतणा होई अगहिएणं|”ति ९, त्वदीयोऽहमित्येवं श्रुतायधमन्यदीयसत्ताभ्युपगम उपसम्पदिति १० । एवं एते दशप्रकाराः काले यथा|वं प्रस्तावे विधीयमाना दशविधा सामाचारीति गाधार्थः । इह धर्मस्थापरोपतापमूलत्वादिच्छाकारस्याज्ञा-1 बलाभियोगलक्षणपरोपतापवर्जकत्वात् प्राधान्यात् प्रथममुपन्यासः, अपरोपतापकेनापि च कथञ्चित् स्खलने मिध्यादुष्कृतं दातव्यमिति तदनन्तरं मिथ्याकारस्य, एतौ च गुरुवचनप्रतिपत्तावेव ज्ञातुं शक्यी, गुरुवचनं च तथाकारकरणेनैव सम्यक प्रतिपन्नं भवतीति तदनन्तरं तथाकारस्य, प्रतिपन्नगुरुवचनेन चोपाश्रयाहृहि १ पूर्वग्रहीतेन उन्दना निमश्रच्या भवत्यगृहीतेन. दीप अनुक्रम [१४२-१४४] ॥१०३ 5- 4 JaEcIN ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [११९] / गाथा ||१६|| ............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] गाथा ||१|| निर्गच्छता गुरुपृच्छापूर्वक निर्गन्तव्यमिति तथाकारानन्तरं तत्पृच्छारूपाया आवश्यक्याः, बहिर्निगतेन च नैषे-1 धिकीपूर्वकं पुनः प्रविष्टव्यमिति तदनन्तरं नैषेधिक्याः , उपाश्रयप्रविष्टेन च गुरुमापृच्छय सकलमनुष्छेयमिति तदनन्तरमाप्रच्छनायाः, आपृष्टे च निषिद्धे पुनः प्रष्टव्यमिति तदनन्तरं प्रतिप्रच्छनायाः, प्रतिप्रश्ने चानुज्ञातेनाशनाद्यानीय तत्परिभोगाय साधव उत्साहनीया इति तदनन्तरं छन्दनायाः, एषा च गृहीत एवाशनादौ स्थाद' अगृहीते तु निमन्त्रणैवेति तदनन्तरं निमन्त्रणायाः, इयं च सर्वाऽपि निमन्त्रणापर्यन्ता सामाचारी गुरूपस म्पदमन्तरेण न ज्ञायत इति तदनन्तरमुपसम्पद उपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीत्वसिद्धिरिति । शेषं पूर्ववदिति | 11॥११९ ।। अथ भावानुपूर्वीमाह से किं तं भावाणुपुव्वी?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुव्वाणुपुब्वी पच्छाणुपुव्वी अणाणुपुवी । से किं तं पुवाणुपुवी?, २ उदइए उपसमिए खाइए खओवसमिए पारिणामिए संनिवाइए, से तं पुवाणुपुवी। से किं तं पच्छाणुपुव्वी?,२ सन्निवाइए जाव उदइए, से तं पच्छाणुपुव्वी। से किं तं अणाणुपुवी ?, २ एआए चेव एगाइआए एगुत्तरिआए छगच्छगयाए सेढीए अन्नमन्नब्भासो दुरूवूणो, से तं अणाणुपुवी। से तं भावाणुपुव्वी, से तं आणुपुव्वी, आणुपुव्वीति पदं समत्तं (सू० १२०) दीप अनुक्रम [१४२-१४४] ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२०] / गाथा ||१६...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः उपक्रमाधि मलधारीया प्रत सूत्रांक [१२० ॥१०४॥ दीप अनुक्रम [१४५] M इह तेन तेन रूपेण भवनानि भावा:-वस्तुपरिणामविशेषा:-औदयिकादयः, अथवा तेन तेन रूपेण भव-13 न्तीति भावास्त एव, यहा भवन्ति तैः तेभ्यस्तेषु वा सत्सु प्राणिनस्तेन तेन रूपेणेति भावा यथोक्ता एव, तेषामानुपूर्वी-परिपाटिर्भावानुपूर्वी, औदयिकादीनां तु खरूपं पुरस्तात्र्यक्षेण वक्ष्यते, अत्र च नारकादिगतिरौदयिको भाव इति वक्ष्यते, तस्यां च सत्यां शेषभावाः सर्वेऽपि यथासम्भवं प्रादुर्भवन्तीति शेषभावाधारत्वेन प्रधानत्वादादयिकस्य प्रथममुपन्यासः, ततश्च शेषभावपञ्चकस्य मध्ये औपशमिकस्य, स्तोकविषयत्वात् स्तोकतया प्रतिपादयिष्यत इति तदनन्तरमौपशमिकस्य, ततो बहुविषयत्वात् क्षायिकस्य, ततो बहुतरविरापयत्वात् क्षायोपशमिकस्य, ततो बहुतमविषयत्वात् पारिणामिकस्य, ततोऽप्येषामेव भावानां बिकादिसं-1 योगसमुत्थत्वात् सान्निपातिकस्योपन्यास इति पूर्वानुपूर्वीक्रमसिद्धिरिति । शेषं पूर्वोक्तानुसारेण भावनीयम् । तदेवमुक्ताः प्रागुद्दिष्टा दशाप्यानुपूर्वीभेदाः, तद्भणने चोपक्रमप्रथमभेदलक्षणा आनुपूर्वी समाप्सा ॥१२०॥ साम्प्रतमुपक्रमस्यैव प्रागुद्दिष्टं द्वितीय भेदं व्याचिख्यासुराह से किं तं णामे?, णामे दसविहे पण्णत्ते, तंजहा-एगणामे दुणामे तिणामे चउ णामे पंचणामे छणामे सत्तणामे अट्रणामे णवणामे दसणामे (सू० १२१) इह जीवगतज्ञानादिपर्यायाजीवगतरूपादिपर्यायानुसारेण प्रतिवस्तु भेदेन नमति-तदभिधायकत्वेन प्रवर्तत ॥१०४॥ अथ उपक्रमस्य द्वितिय-भेदः 'नाम'स्य भेद-प्रभेदानाम् वर्णनं आरभ्यते ~219~ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१४६ ] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२१] / गाथा ||१६|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः इति नाम, वस्त्वभिधानमित्यर्थः, उक्तं च- ""जं वत्थुणोऽभिहाणं पज्जयभेयाणुसारियं नामं । पहले अं जं नमई पहभेअं जाइ जं भणिअं ॥ १ ॥ इदं च दशप्रकारं कथमित्याह- 'एगनामे' इत्यादि, इह येन केनचिन्नान्ना एकेनापि सता सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तदेकनामोच्यते, यकाभ्यां तु नामभ्यां द्वाभ्यामपि सर्वे विवक्षितवस्तुजातमभिधानद्वारेण संगृह्यते तद् द्विनाम, पैस्तु त्रिभिर्नामभिः सर्वेऽपि विवक्षितपदार्था अभिधातुं शक्यन्ते तत् त्रिनाम, यैस्तु चतुर्भिर्नामभिः सर्व विवक्षितं वस्त्वभिधीयते तच्चतुर्नाम, एवमनया दिशा ज्ञेयं, यावद् यैर्दशभिर्नामभिः सर्व विवक्षितं वस्तु प्रतिपाद्यते तद् दशनामेति ॥ १२१ ॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इत्येकनामोदाहरन्नाह से किं तं एगणामे ?, २ - णामाणि जाणि काणिवि दव्वाण गुणाण पजवाणं च । तेसिं आगमनिहसे नामंति परूविआ सण्णा ॥ १ ॥ से तं एगणामे ( सू० १२२ ) 'नामाणि गाहा' व्याख्या- 'द्रव्याणां' जीवाजीव भेदानां 'गुणानां ज्ञानादीनां रूपादीनां च तथा 'पर्यायाणां' नारकत्वादीनामेकगुणकृष्णत्वादीनां च नामानि अभिधानानि यानि कानिचिल्लोके रूढानि तद्यथा-जीवो जन्तुरात्मा प्राणीत्यादि, आकाशं नभस्तारापथो व्योमाम्बरमित्यादि, तथा ज्ञानं वुद्धिर्योध इत्यादि, तथा रूपं रसो गन्ध इत्यादि, तथा नारकस्तिर्यङ् मनुष्य इत्यादि, एकगुणकृष्णो द्विगुणकृष्ण इत्यादि, तेषां सर्वेषामप्य १ बस्तुनोऽभिधानं पर्यायभेदानुसारिकं नाम । प्रतिभेदं यन्नमति प्रतिभेदं याति यद्भणितम् ॥ १ ॥ For P&Pase Cinly ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१२२] / गाथा ||१७|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२२] वृत्तिः उपक्रमाधिक गाथा ||१|| अनुयो भिधानानामागम एव निकषो-हेमरजतकल्पजीवादिपदार्थस्वरूपपरिज्ञानहेतुत्वात् कषपट्टकस्तस्मिन्नामेत्येमलधा-18|वरूपा संज्ञा-आख्या प्ररूपिता-व्यवस्थापिता, सर्वाण्यपि जीवो जन्तुरित्याद्यभिधानानि नामत्वसामान्याव्य-15 रीया भिचारादेकेन नामशब्देनोच्यन्त इति भावः, तदेवमिहैकेनाप्यनेन नामशब्देन सर्वाण्यपि लोकरूढाभिधा-16 नानि वस्तूनि प्रतिपाद्यन्त इत्येतदेकनामोच्यते, एकं सन्नामैकनामेतिकृत्वा इति गाथार्थः। 'से तं एगणामेत्ति ॥१०५॥ | निगमनम् ॥ १२२ ॥ से किं तं दुनामे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-एगक्खरिए अ अणेगक्खरिए अ, से किं तं एगक्खरिए ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-हीः श्रीः धीः स्त्री, से तं एगक्खरिए । से किं तं अणेगक्खरिए?,२ कन्ना वीणा लता माला, से तं अणेगक्खरिए । अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-जीवनामे अ अजीवनामे अ, से किं तं जीवणामे ?, २ अणेगविहे पपणत्ते, तंजहा-देवदत्तो जण्णदत्तो विण्हुदत्तो सोमदत्तो, से तं जीवनामे । से किं तं अजीवनामे ?,२ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-घडो पडो कडो रहो, से तं अजीवनामे।अहवा दुनामे दुविहे पण्णत्ते,तंजहा-विसेसिए अअविसेसिए ।अ दीप अनुक्रम SECRE [१४७ -१४९] ॥१०५॥ -EM ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] विसेसिए दव्वे विसेसिए जीवदव्वे अजीवदव्वेअ,अविसेसिए जीवदव्वे विसेसिएणेरइए तिरिक्खजोणीए मणुस्से देवे,अविसेसिए णेरइए विसेसिए रयणप्पहाए सक्करप्पहाए वालुअप्पहाए पंकप्पहाए धूमप्पहाए तमाए तमतमाए, अविसेसिए रयणप्पहापुढविणेरइए विसेसिए पज्जत्तए अ अपज्जत्तए अ, एवं जाव अविसेसिए तमतमापुढवीणेरइए विसेसिए पजत्तए अ अपजत्तए अ। अविसेसिए तिरिक्खजोणिए विसेसिए एगिदिए बेइंदिए तेइंदिए चउरिदिए पंचिंदिए, अविसेसिए एगिदिए विसेसिए पुढविकाइए आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए, अविसेसिए पुढविकाइए विसेसिए सुहुमपुढविकाइए अ बादरपुढविकाइए अ, अविसेसिए सुहुमपुढविकाइए विसेसिप पजत्तयसुहुमपुढविकाइए अ अपज्जत्तयसुहमपुढविकाइए अ, अविसेसिए अ बादरपुढविकाइए विसेसिए पज्जत्तयबादरपुढविकाइए अ अपज्जत्तयबादरपुढविकाइए अ, एवं आउकाइए तेउकाइए वाउकाइए वणस्सइकाइए अविसेसिअविसेसिअपज्ज दीप अनुक्रम [१५०] 44%95% ~222~ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: 5 अनुयोग वृत्तिः उपक्रमाधि प्रत मलधारीया सूत्रांक [१२३] 5 ॥१०६॥ दीप तयअपजत्तयभेदेहिं भाणिअव्वा । अविसेसिए बेइंदिए विसेसिए पजत्तयबेईदिए अ अपजत्तयबेइंदिए अ, एवं तेइंदिअचउरिदिआवि भाणिअव्वा । अविसेसिए पंचिंदिअतिरिक्खजोणिए विसेसिए जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए थलयरपंचिंदिअतिरिकखजोणिए खयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए जलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए विसेसिए संमुच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ गब्भवकंतिअजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए समुच्छिमजलयरपंचेंदियतिरिक्खजोणिए विसेसिए अ पजत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपजत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए, अविसेसिए गब्भवतियजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए विसेसिए पजत्तयगब्भवतिअजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपजत्तयगम्भवकंतिअजलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए थलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए विसेसिए चउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए * अनुक्रम [१५०] 45* * ॥१०६॥ ** ~223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१५०] अपरिसप्पथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए चउप्पयथलयरपं० विसेसिए संमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ गब्भवक्कंतिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए संमुच्छिमचउप्पयथलयर० विसेसिए पज. तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपजत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए गन्भवतिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअ० विसेसिए पजत्तयगब्भवकंतिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयगब्भवतिअचउप्पयथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए परिसप्पथलयर० विसेसिए उरपरिसप्पथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ भुअपरिसप्पथलयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ, एतेऽवि संमुच्छिमा पजत्तगा अपजत्तगा य गम्भवकंतिआवि पजत्तगा अपजत्तगा य भाणिअव्वा । अविसेसिए खहयरपंचिदिअ० विसेसिए संमुच्छिमखहयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ गब्भवतिअखयरपंचिंदिअ ~224~ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] अनुयो० मलधारीया वृत्ति उपक्र माधि० ॥१०७॥ दीप अनुक्रम [१५०] तिरिक्खजोणिए अ, अविसेसिए समुच्छिमखहयरपंचिं० विसेसिए पजत्तयसमुच्छिमखहयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए अ अपजत्तयसंमुच्छिमखहयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए, अविसेसिए गब्भवक्कंतिअखहयरपंचिं० विसेसिए पजत्तयगब्भवकंतिअखहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिए अ अपज्जत्तयगब्भवतिअखहयरपंचिंदिअतिरिक्खजोणिए य। अविसेसिए मणुस्से विसेसिए समुच्छिममणुस्से अगब्भवकंतिअमणुस्से अ, अविसेसिए समुच्छिममणुस्से विसेसिए पज्जत्तगसमुच्छिममणुस्से अ अपज्जत्तगसंमुच्छिममणुस्से अ, अविसेसिए गब्भवतिअमणुस्से विसेसिए कम्मभूमिओ य अकम्मभूमिओ य अंतरदीवओ य संखिजवासाउय असंखिज्जवासाउय पजतापजत्तओ । अविसेसिए देवे विसेसिए भवणवासी वाणमंतरे जोइसिए वेमाणिए अ, अविसेसिए भवणवासी विसेसिए असुरकुमारे नागकु० सुवण्णकु० विजुकु० अग्गिकु० दीवकु० उदधिकु० दिसाकु० वाउकु० थणिअकुमारे, सव्वेसिपि अविसेसिअविसेसिअअपजत्तगपज्जत्तगभेदा REACHECKERALASSE ॥१०७ ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| .................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१५०] भाणिअब्वा । अविसेसिए वाणमंतरे विसेसिए पिसाए भूए जक्खे रक्खसे किण्णरे किंपुरिसे महोरगे गंधव्वे, एतेसिपि अविसेसिअविसेसिअपज्जत्तयअपजत्तगभेदाभाणि अब्वा।अविसेसिए जोईसिए विसेसिए चंदे सूरे गहगणे नक्खत्ते तारारूवे, एतेसिपि अविसेसियविसेसियअपज्जत्तयपजत्तयभेआ भाणिअव्वा ।अविसेसिए वेमाणिए विसेसिए कप्पोवगे अ कप्पातीतगे अ, अविसेसिए कप्पोवगे विसेसिए सोहम्मए ईसाणए सणंकुमारए माहिंदए बंभलोए लंतयए महासुक्कए सहस्सारए आणयए पाणयए आरणए अचुयए, एतेसिपि अविसेसिअविसेसिअअपज्जत्तगपज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा । अविसेसिए कप्पातीतए विसेसिए गेवेज्जए अ अणुत्तरोववाइए अ, अविसेसिए गेवेजए विसेसिए हेटिमहेटिमगेवेज्जए हेट्टिममज्झिमगेवेजए हिडिमउवरिमगेवेजए, अविसेसिए मज्झिमगेविजए विसेसिए हिटिममज्झिमगेविजए मज्झिममज्झिमगेवेजए मज्झिमउवरिमगेवेज्जए, अविसेसिए उवरिमगेवेजए विसेसिए उवरिमहेट्ठिमगे %AX % % % ~226~ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत अनुयो मलधारीया उपक्र सूत्रांक [१२३] ॥१०८॥ दीप वेजए उवरिममज्झिमगेवेजए उवरिमउवरिमगेवेजए अ, एतेसिपि सवेसिं अवि वृत्तिः सेसिअविसेसिअपजत्तगापजत्तगभेदा भाणिअव्वा । अविसेसिए अणुत्तरोववाइए माधि० विसेसिए विजयए वेजयंतए जयंतए अपराजिअए सब्वटसिद्धए अ, एतेसिंपि सव्वेसिं अविसेसिअविसेसिअपजत्तगापज्जत्तगभेदा भाणिअव्वा । अविसेसिए अजीवदव्वे विसेसिए धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए पोग्गलस्थिकाए अद्धासमए अ, अविसेसिए पोग्गलस्थिकाए विसेसिए परमाणुपोग्गले दुपएसिए तिपएसिए जाव अणंतपएसिए अ, से तं दुनामे (सू० १२३) M यत एवेदं दिनामात एव विविध-विप्रकार, तद्यथा-एकं च तदक्षरं च तेन निवृत्तमेकाक्षरिकम् , अनेकानि च तान्यक्षराणि च तैनिवृत्तमनेकाक्षरिक, चकारी समुच्चयायौँ, तत्रैकाक्षरिके ही:-लज्जा देवताविशेषो वा, श्री:-देवताविशेषः, धी:-बुद्धिः, स्त्री-योषिदिति, अनेकाक्षरिके-कन्येत्यादि, उपलक्षणं चेदं बलाकापताकादीनां लव्याद्यक्षरनिष्पन्ननानामिति, तदेवं यदस्ति वस्तु तत् सर्वमेकाक्षरेण वा नानाऽभिधीयतेऽनेकाक्षरेण वा, अतो-IIMeen ऽनेन नामयेन विवक्षितस्य सर्वस्यापि वस्तुजातस्याभिधानाद् द्विनामोच्यते, दिरूपं सत् सर्वस्य नाम* अनुक्रम [१५०] ~227~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२३] / गाथा ||१७...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१५०] द्विनाम, दयोर्वा नानो समाहारो द्विनाममिति । एतदेव प्रकारान्तरेणाह-'अहवा दुनामें इत्यादि, जीवस्य नाम जीवनाम अजीवस्य नाम अजीवनाम, अत्रापि यदस्ति तेन जीवनाम्नाऽजीवनाम्ना वा भवितव्यमिति जीवाजीवनामभ्यां विवक्षितसर्ववस्तुसङ्घहो भावनीयः, शेषं सुगमं । पुनरेतदेवान्यथा पाह-'अहवा दुनामें'इत्यादि, द्रव्यमित्यविशेषनाम जीवे अजीवे च सर्वत्र सद्भावात्, जीवद्रव्यमजीवद्रव्यमिति च विशेषनाम, एकस्य जीव एवान्यस्य त्वजीव एव सद्भावादिति, ततः पुनरुत्तरापेक्षया जीवद्रव्यमित्यविशेषनाम, नारकस्तिर्यडित्यादि तु विशेषनाम, पुनरप्युत्तरापेक्षया नारकादिकमविशेषनाम रत्नप्रभायां भवो रानप्रभ इत्यादि तु वि-14 शेषनाम, एवं पूर्व पूर्वमविशेषनाम उत्तरोत्तरं तु विशेषनाम सर्वत्र भावनीयं, शेष सुगम, नवरं सम्मूर्च्छन्ति-11 तथाविधकर्मोदयाद गर्भमन्तरेणैवोत्पद्यन्त इति सम्मूर्छिमाः, गर्भे व्युत्क्रान्ति:-उत्पत्तिर्येषां ते गर्भव्युत्क्रा|न्तिकाः, उरसा भुजाभ्यां च परिसर्पन्ति-गच्छन्तीति विषधरगोधानकुलादयः सामान्येन परिसर्पाः, विशेपस्तूरसा परिसर्पन्तीत्युर परिसः सर्पादय एव, भुजाभ्यां परिसर्पन्तीति भुजपरिसी:-गोधानकुलादय, एव, शेष सुखोन्नेयं । तदेवमुक्ताः सामान्यविशेषनामभ्यां जीवद्रव्यस्य सम्भविनो भेदाः, साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टमजीवद्रव्यमपि भेदतस्तथैवोदाहर्तुमाह-'अविसेसिए अजीवदब्वे इत्यादि, गतार्थ, तदेवं यदस्ति वस्तु तत्सर्व सामान्यनाम्ना विशेषनाम्ना वा अभिधीयते, एवमन्यत्रापि द्विनामत्वं भावनीयं, 'से तं दुनामें'त्ति निगमनम् ।। १२३ ॥ अनु. ११ JaEcon ना ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्र माधि ॥१०९॥ दीप अनुक्रम [१५१-१५८] से किं तं तिनामे ?, २ तिविहे पपणत्ते, तंजहा-दवणामे गुणणामे पज्जवणामे असे किं तं दवणामे ?, २ छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासत्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए अ, से तं दध्वनामे। किं तं गुणणामे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-वण्णणामे गंधणामे रसणामे फासणामे संठाणणामे । से किं तं वण्णणामे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-कालवण्णनामे नीलवण्णनामे लोहिअवण्णनामे हालिद्दवण्णनामे सुकिल्लवण्णणामे, से तं वपणनामे। से किं तं गंधनामे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुरभिगंधनामे अ दुरभिगंधनामे अ, से तं गंधनामे । से किं तं रसनामे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-तित्तरसणामे कडुअरसणामे कसायरसणामे अंबिलरसणामे महुररसणामे अ, से तं रसणामे । से किं तं फासणामे ?, २ अट्टविहे पण्णत्ते, तंजहा-कक्खडफासणामे मउअफा गरुअफा० लहुअफा० सीतफासणामे उसिणफासणामे णिद्धफा० लुक्खफासणामे, से तं फासणामे । से ~229~ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] किं तं संठाणनामे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-परिमंडलसंठाणनामे वदसं० तं ससं० चउरंससं० आयतसंठाणणामे, से तं संठाणनामे, से तं गुणणामे । यत एवेदं त्रिनाम तत एव विविध-त्रिप्रकार, द्रव्यनामादिभेदात् , तत्र द्रवति-गच्छति ताँस्तान् पर्या-IN | यान् प्रामोतीति द्रव्यं तस्य नाम धर्मास्तिकाय इत्यादि, धर्मास्तिकायादयश्च प्राक् व्याख्याता एव, गुण्यन्ते-संख्यायन्ते इति गुणास्तेषां नाम गुणनाम, 'वण्णनामें इत्यादि, तत्र वपर्यते-अलकियते वस्त्वनेनेति वर्ण:कृष्णादिःपञ्चधाप्रतीत एच, कपिशादयस्त्वेतत्संयोगेनैवोत्पद्यन्ते न पुनःसर्वथा एतद्विलक्षणा इति नेहोदाहृताः, गन्ध्यते-आघायत इति गन्धस्तस्य नाम गन्धनाम, स च विविध:-सुरभिर्दुरभिश्च, तत्र सौमुख्यकृत् सुरभिः, वैमुख्यकृद् दुरभिः, अत्राप्युभयसंयोगजः पृथग्रोक्तः, एतत्संसर्गजत्वादेव भेदाविवक्षणात, रस्यते-आस्वा द्यत इति रसस्तस्य नाम रसनाम, स च तिक्तकटुकषायाम्लमधुरभेदात् पञ्चविधा, तत्र श्लेष्मादिदोषहन्ता लानिम्बायाश्रितस्तिक्तो रसः, तथा च भिषक्शास्त्रम्-"श्लेष्माणमरुचिं पित्तं, तृषं कुष्ठं विषं ज्वरम् । हन्यात तिक्तो रसो बुद्धः, कर्ता मात्रोपसेवितः ॥१॥" गलामयादिप्रशमनो मरिचनागराद्याश्रितः कटुः, उक्तं | च-"कटुर्गलामयं शोफं, हन्ति युक्त्योपसेवितः । दीपनः पाचको रुच्यो, बृंहणोऽतिकफापहः ॥२॥" रक्तदोषाद्यपहर्ता बिभीतकामलककपित्थाद्याश्रितः कषायः, आह च-"रक्तदोषं कर्फ पित्त, कषायो हन्ति दीप अनुक्रम [१५१-१५८] - - JaER ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमाधि० रीया [१२४] ॥११०॥ दीप अनुक्रम [१५१-१५८] सेवितः । रूक्षः शीतो गुणग्राही, रोचकश्च स्वरूपतः ॥ ३॥” अग्निदीपनादिकृदम्लीकाद्याश्रितोऽम्ला, पठ्यते| लाच-"अम्लोऽग्निदीप्तिकृत निग्धः, शोफपित्तकफापहः । क्लेदनः पाचनो रुच्यो, मूढवातानुलोमकः ॥४॥" पित्तादिप्रशमनः खण्डशर्कराद्याश्रितो मधुरः, तथा चोक्तम्-"पित्तं वातं विषं हन्ति, धातवृद्धिकरो गुरुः ।। जीवनः केशकृद्वालवृद्धक्षीणीजसा हितः ॥५॥” इत्यादि, स्थानान्तरे स्तम्भिताहारबन्धविध्वंसादिकता| सिन्धुलवणाद्याश्रितो लवणोऽपि रसः पठ्यते, स चेह नोदाहतो, मधुरादिसंसर्गजत्वात् तदभेदेन विवक्ष-1 णात्, सम्भाव्यते च तत्र माधुर्यादिसंसर्गः, सर्वरसानां लवणप्रक्षेप एव स्वादुत्वप्रतिपत्तेरित्यलं विस्तरेण । स्पृश्यत इति स्पर्श:-कर्कशादिरष्टविधः, तत्र स्तब्धताकारणं दृषदादिगतः कर्कशः, सन्नतिकारणं तिनिशलतादिगतो मृदुः, अधःपतनहेतुरयोगोलकादिगतो गुरु, प्रायस्तिर्यगर्भाधोगमनहेतुरर्कतूलादिनिश्रितो लघुः, देहस्तम्भादिहेतुः पालेयाद्याश्रितः शीतः, आहारपाकादिकारणं वहयाद्यनुगत उष्णः, पुद्गलद्रव्याणां मिथः संयुज्यमानानां बन्धनिवन्धनं तैलादिस्थितः स्निग्धा, तेषामेवाबन्धनिवन्धनं भस्माद्याधारो रूक्षः, एतत्संसर्गजास्तु नोक्ताः, एष्वेवान्तर्भावादिति । संस्थानखरूपं तु प्रतीतमेव । से किं तं पजवणामे ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-एगगुणकालए दुगुणकालप तिगुणकालए जाव दसगुणकालए संखिज्जगुणकालए असंखिजगुणकालए अनंत सा॥११०॥ ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१५१-१५८] गुणकालए, एवं नीललोहिअहालिहसुकिल्लावि भाणिअव्वा । एगगुणसुरभिगंधे दुगुणसुरभिगंधे तिगुणसुण जाव अणंतगुणसुरभिगंधे, एवं दुरभिगंधोऽवि भाणिअन्वो। एगगुणतिते जाव अणंतगुणतित्ते, एवं कडुअकसागअंबिलमहुरावि भाणिअव्वा । एगगुणकक्खडे जाव अणंतगुणकक्खडे, एवं मउअगरुअलहुअसीतउसिणणिद्धलु क्खावि भा०, से तं पज्जवणामे। परिः-समन्तादवन्ति-अपगच्छन्ति न तु द्रव्यवत् सर्वदैवावतिष्ठन्त इति पर्यवा:, अथवा परिः-समन्ताद् अवनानि-गमनानि द्रव्यस्थावस्थान्तरप्राप्तिरूपाणि पर्यवा:-एकगुणकालवादयस्तेषां नाम पर्यवनाम, यत्र तु पर्यायनामेति पाठः, तत्र परि:-समन्तादयन्ते-अपगच्छन्ति न पुनद्रव्यवत् सर्वदेव तिष्ठन्तीति पर्यायाः, अथवा परिः-सामस्त्येन एति-अभिगच्छति व्यामोति वस्तुतामिति पर्यायाः-एकगुणकालवादय एव, तेषां नाम पर्यायनामेति, तत्रेह गुणशब्दोऽशपर्याय:, ततश्च सर्वस्यापि त्रैलोक्यगतकालवस्यासत्कल्पनया पिण्डितस्य य एकः-सर्वजघन्यो गुण:-अंशस्तेन कालकः परमाण्वादिरेकगुणकालकः-सर्वजघन्यकृष्ण इति । दाभ्यां गुणाभ्यां-तदंशाभ्यां कालकः परमाण्वादिरेव द्विगुणकालका, एवं तावन्नेयं यावदनन्तैर्गुणैस्तदंशैः कालकोऽनन्तगुणकालकः स एवेति, एवमुक्तानुसारेणैकगुणनीलकादीनामेकगुणसुरभिगन्धादीनां च सर्वत्र भावना 969 4% ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ........................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] अनुयो मलधारीया उपक्र दीप अनुक्रम [१५१-१५८] कार्येति । आह-गुणपर्याययोः का प्रतिविशेषः ?, उच्यते, सदैव सहवर्तित्वावर्णगन्धरसादयः सामान्येन वृत्ति गुणा उच्यन्ते, न हि मूर्ते वस्तुनि वर्णादिकमात्रं कदाचिदपि व्यवच्छिद्यते, एकगुणकालत्वादयस्तु द्विगुणकालत्त्वाद्यवस्थायां निवर्तन्त एवेति, अतः कमवृत्तित्वात् पर्यायाः, उक्तं च-"सहवर्तिनो गुणा यथा जीवस्य माधि० चैतन्यामूर्तत्वादया, क्रमवर्तिनः पर्याया यथा तस्यैव नारकत्वतिर्यक्त्वाद्यः” इति, ननु यद्येवं तर्हि वर्णादिसामान्यस्य भवतु गुणत्वं, तद्विशेषाणां तु कृष्णादीनां न स्याद्, अनियतत्वात् तेषां, सत्यं, वर्णादिसामान्यभेदानामपि कृष्णनीलादीनां प्रायः प्रभूतकालं सहवर्तित्वात् गुणत्वं विवक्षितमित्यलं विस्तरेण । आह । भवत्वेवं, किन्तु पुद्गलास्तिकायद्रब्यस्यैव संबन्धिनो गुणपर्यायाः किमिति गुणपर्यायनामत्वेनोदाहताः?, न धर्मास्तिकायादीनां, न च वक्तव्यं-तेषां ते न सन्तीति, धर्माधर्माकाशजीवकालद्रव्येष्वपि यथाक्रम गतिस्थित्यवगाहोपयोगवर्तनादिगुणानां प्रत्येकमनन्तानामगुरुलघुपर्यायाणां च प्रसिद्धत्वात्, सत्यं, किन्त्विन्द्रियप्रत्यक्षगम्यत्वात् सुप्रतिपाद्यतया पुद्गलद्रव्यस्यैव गुणपर्याया उदाहता न शेषाणामित्यलं विस्तरेण, तस्माद् यत्किमपि नाम तेन सर्वेणापि द्रव्यनाम्ना गुणनाम्ना पर्यायनाम्ना वा भवितव्यं, नातः परं किमपि नामास्ति, ततः सर्वस्यैवानेन संग्रहात् त्रिनामैतदुच्यत इति । तं पुणणामं तिविहं इत्थी पुरिसंणपुंसगं चेव । एएसिं तिण्हंपि अ अंतमि अपरूवणं वोच्छं ॥१॥ W१११॥ तत्पुनर्नाम द्रव्यादीनां सम्बन्धि सामान्येन सर्वमपि स्त्रीपुनपुंसकलिङ्गेषु वर्तमानत्वात् त्रिविघ-त्रिप्रकार, ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१२४] / गाथा ||१८-२३|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] ACC+C+ दीप अनुक्रम [१५१-१५८] तत्र स्त्रीलिङ्गे नदी महीत्यादि, पुंल्लिङ्गे घटः पट इत्यादि, नपुंसके दधि मध्वित्यादि, एषां च स्त्रीलिङ्गवृत्त्यादीनां ब्रयाणामपि नाम्नां प्राकृतशैल्या उच्चार्यमाणानामन्ते यान्याकारादीन्यक्षराणि भवन्ति तत्परूपणाद्वारेण लक्षणं 18|निर्दिदिक्षुरुत्तरार्द्धमाह-एएसिमित्यादि, गतार्थमेवेति गाथार्थः ।। तत्थ पुरिसस्स अंता आईऊओ हवंति चत्तारि। ते चेव इथिआओ हवंति ओकारपरिहीणा ॥२॥ 'तत्र' तस्मिन् त्रिविधे नानि 'पुरुषस्य' पुंल्लिङ्गवृत्तेर्नान्नः 'अन्ता'अन्तवर्तीन्यक्षराणि चत्वारि भवन्ति, तद्यथा-आकार ईकार ऊकार ओकारश्चेत्यर्थः, एतानि विहाय नापरं प्राकृतपुंल्लिङ्गवृत्तेर्नान्नोऽन्तेऽक्षरं सम्भवतीत्यर्थः, स्त्रीलिङ्गवृत्तेर्नान्नोऽप्यन्ते ओकारवर्जान्येतान्येवाकारकारोकारलक्षणानि त्रीणि अक्षराणि भवन्ति | नापरमिति, अन चानन्तरगाथायां इत्थीपुरिसमिति निर्दिश्यापि यदिहादी पुंल्लिनानो लक्षणकथनं तत्पु रुषप्राधान्यख्यापनार्थमिति गाथार्थः ॥ 181 अंतिअइंतिअ उतिअ अंताउणपुंसगस्स बोद्धव्वा। एतेसिं तिण्हपि अवोच्छामि निर्दसणे एत्तो॥३॥ RI नपुंसकवृत्तिनाम्नां त्वन्ते अंकारः इंकार उकारश्चेत्येतान्येव श्रीण्यक्षराणि भवन्ति नापरं । एतेषां च त्रयाWणामपि निदर्शनम्-उदाहरणं प्रत्येक वक्ष्यामीति गाथार्थः । तदेवाह आगारंतो राया ईगारंतो गिरी अ सिहरी । ऊगारंतो विण्हू दुमो अ अंता उ पुरि RCMCALCOACANCCCESCOACHCock ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१५१ -१५८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२४] / गाथा || १८-२३|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ११२ ॥ অঅ%% % % साणं ॥ ४ ॥ आगारंता माला ईगारंता सिरी अ लच्छी अ । ऊगारंता जंबू बहू अ अंता इत्थीणं ॥ ५ ॥ अंकारंतं धन्नं इंकारंतं नपुंसगं अस्थि । उकारंतो पीलुं महुं च अंता णपुंसाणं ॥ ६ ॥ से तं तिणामे ( सू० १२४ ) गाथात्रयं व्यक्तं, नवरं संस्कृते यद्यपि विष्णुरित्युकारान्तमेव भवति तथापि प्राकृतलक्षणस्यैवेह वक्तुमिष्टत्वादूकारान्तता न विरुध्यते, एवमोकारान्तो द्रुम इत्यादिष्वपि वाच्यं, जम्बूः स्त्रीलिङ्गवृत्तिर्वनस्पतिविशेषः, 'पीलु'ति क्षीरं, शेषं सुगमं, 'से तं तिनामेति निगमनम् ॥ १२४ ॥ से किं तं चउणामे ?, २ चउव्विहे पण्णत्ते, तंजहा- आगमेणं लोवेणं पयईए विगारेणं । से किं तं आगमेणं ?, २ पद्मानि पयांसि कुण्डानि, से तं आगमेणं । से किं तं लोवेणं ?, २ ते अत्र तेऽत्र पटो अत्र पटोऽत्र घटो अत्र घटोऽत्र से तं लोवेणं । से किं तं पराईए १, २ अग्नी एतौ पटू इमौ शाले एते माले इमे से तं पगइए। से किं तं विगारेणं ?, २ दण्डस्य अयं दण्डायं सा आगता साऽऽगता दधि इदं दधीदं For P&Praise Cinly ~ 235~ 77 वृतिः उपक्र माधि० ॥ ११२ ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२५] दीप अनुक्रम [१५९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२५] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Eber नदी इह नदीह मधु उदकं मधूदकं वधू ऊहः वधूहः, से तं विगारेणं, से तं चनामे ( सू० १२५ ) आगच्छतीत्यागमो न्वागमादिस्तेन निष्पन्नं नाम यथा पद्मानीत्यादि, घुट्खरादू घुटि नुः (का० रू० २४ ) इत्यनेनात्र न्वागमस्य विधानादू, उपलक्षणमात्रं चेदं संस्कार उपस्कार इत्यादेरपि सुडाथागमनिष्पन्नत्वादिति, लोपो वर्णापगमरूपस्तेन निष्पन्नं नाम, यथा तेऽत्रेत्यादि, 'एदोत्परः पदान्ते' (लोपमकारः कातरूपमालायां ११५ ) इत्यादिना अकारस्येह लुप्तत्वात्, नामत्वं चात्र तेन तेन रूपेण नमनान्नामेति व्युत्पत्तेरस्येवेति, इत्थमन्यत्रापि वाच्यम् । उपलक्षणं चेदं मनस ईषा मनीषा-बुद्धिः भ्रमतीति भ्रूरित्यादेरपि सकारमकारादिवर्णलोपेन निष्पन्नत्वादिति, प्रकृतिः स्वभावो वर्णलोपाद्यभावस्तया निष्पन्नं नाम, यथा अग्री एतावित्यादि, द्विवचनमनावि (का० सू० ६० ) त्यनेनात्र प्रकृतिभावस्य विधानात्, निदर्शनमात्रं चेदं सरसिर्ज कण्ठेकाल इत्यादीनामपि प्रकृतिनिष्पन्नत्वादिति, वर्णस्यान्यथाभावापादनं विकारस्तेन निष्पन्नं दण्डस्यायं दण्डाग्रमित्यादि, समानः सवर्णे दीर्घीभवति परच लोपम् (का० रू० २४) इत्यादिना दीर्घत्वलक्षणस्य वर्णविकारस्येह कृतत्वाद, उदाहरणमात्रं चैतत् तस्करः षोडशेत्यादेरपि वर्णविकारसिद्धत्वादिति । तदिह यदस्ति तेन सर्वेणापि नाम्ना आगमनिष्पन्नेन वा लोपनिष्पन्नेन वा प्रकृतिनिर्वृत्तेन वा विकारनिष्पन्नेन वा १ विवक्षयानैकपदत्वं नान एकत्वेन विवक्षयात् वृत्तिका रेणापि निरूडप्राचीनव्याकरणापेक्षया तथा प्रतिपादितं पदत्वमिति, अधुना यथा सोसपर्गस्य । For P&Praise Cly ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१२६] / गाथा ||२३...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ॐ%25 प्रत सूत्रांक [१२५] अनुयो० मलधारीया उपक्रमाधि० ॥११३॥ दीप अनुक्रम [१५९] भवितव्यं, डित्यादिनानामपि सनिरुक्तत्वात् 'नाम च धातुजमाहे त्यादिवचनात्, ततश्चतुर्भिरप्यैतैः सर्वस्य | सनहाचतुनोंमेदमुच्यते, ‘से तं चउनामेत्ति निगमनम् ॥ १२५॥ से किं तं पंचनामे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-नामिकं नैपातिकं आख्यातिकम् औपसर्गिकं मिश्र, अश्व इति नामिकं, खल्विति नैपातिकं, धावतीत्याख्यातिकं, परीत्यौपसर्गिकं, संयत इति मिश्र, से तं पंचनामे (सू० १२६) इहाश्व इति किं ?-नामिक, वस्तुवाचकत्वात्, खल्विति नैपातिकं, निपातेषु पठितत्वात्, धावतीत्याख्यातिकं, क्रियाप्रधानत्वात्, परीत्यौपसर्गिकम् , उपसर्गेषु पठितत्वात्, संयत इति मिश्रम्, उपसर्गनामसमुदायनिष्पन्नत्वादिति । एतैरपि सर्वस्य क्रोडीकरणादू पञ्चनामत्वं भावनीयम्, 'से तंपंचनामें'त्ति निगमनम् ॥१२॥ से किं तं छण्णामे १, २ छविहे पण्णत्ते, तंजहा-उदइए उवसमिए खइए खओव समिए पारिणामिए संनिवाइए का अत्रौदयिकादयः षड् भावाः प्ररूप्यन्ते, तथा च सूत्रम्-'उदइए' इत्यादि, अन्नाह-ननु नानि प्रक्रान्त १ नाम व भातुजमाद निरुके, व्याकरणे शकटस च सोकम् । बन पदार्थ विशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च ताम् ॥ १॥ इति वाम्दानुशासनवृत्ती श्रीहेम-16 1 चन्द्रसूरिभिरुदाहृतम् । ॥११३॥ JaEl. com ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः तदभिधेयानामर्थानां भावलक्षणानां प्ररूपणमयुक्तमिति, नैतदेवं, नामनामवतोरभेदोपचारात् तत्प्ररूपणस्याप्यदृष्टत्वादू, एवमन्यत्रापि यथासम्भवं वाच्यं तत्र ज्ञानावरणादीनामष्टानां प्रकृतीनामात्मीयात्मीयस्वरूपेण विपाकतोऽनुभवनमुदयः स एवौद्धिकः, अथवा यथोक्तेनवोदयेन निष्पन्न औदधिको भाव इति सामर्थ्याद् गम्यते, उपशमनमुपशमः कर्मणोऽनुदयाक्षीणावस्था भस्मपटलावच्छन्नानिवत् स एव औपशमिक:, तेन वा निर्वृत्त औपशमिकः क्षयः-कर्मणोऽपगमः स एव तेन वा निर्वृत्तः क्षायिकः, कर्मणो यथोक्तौ क्षयोपशमावेव ताभ्यां वा निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः दरविध्यात भस्मच्छन्नवह्निवत्, परिणमनं तेन तेन रूपेण वस्तूनां भवनं परिणामः स एव तेन वा निर्वृत्तः पारिणामिकः, अनन्तरोकानां द्व्यादिभावानां मेलकः सन्निपातः स एव तेन वा निर्वृत्तः सान्निपातिकः ॥ तत्रामीषां प्रत्येकं स्वरूपनिरूपणार्थमर्थमाह से किं तं उदइए ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- उदइए अ उदयनिष्कण्णे अ । से किं तं उदइए १, २ अहं कम्मपयडीणं उदपणं, से तं उदइए। से किं तं उदयनि न्ने १, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- जीवोदयनिष्पन्ने अ अजीवोदयनिष्पन्ने अ । से किं तं जीवोदयनिफन्ने ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-णेरइए तिरिक्खजोणिए मणुस्से देवे पुढविकाइ जाव तसकाइए कोहकसाई जाव लोहकसाई इत्थीवेदए पुरिसवेयए For P&Praise Cinly ~238~ yung Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ ११४ ॥ पुंगवेद कण्हले से जाव सुक्कलेसे मिच्छादिट्टी ३ अविरए असंणी अण्णाणी आहारए छउमत्थे सजोगी संसारत्थे असिद्धे, से तं जीवोदयनिप्फन्ने । से किं तं अजीवोदयनिफन्ने ?, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-उरालिअं वा सरीरं उरालिअसरीरपओगपरिणामिअं वा दव्वं, वेडव्विअं वा सरीरं वेडव्वियसरीरपओगपरिणामिअं वा दव्वं, एवं आहारगं सरीरं तेअगं सरीरं कम्मगसरीरं च भाणिअव्वं, पओगपरिणामिए वण्णे गंधे रसे फासे, से तं अजीवोदयनिष्कपणे । से तं उदयनिष्फण्णे, से तं उदइए । औदयिको भावो द्विविधः - अष्टानां कर्मप्रकृतीनामुदयस्तन्निष्पन्नश्च, अयं चार्थः प्रकारवयेन व्युत्पत्तिकरणादादावेव दर्शितः, उदयनिष्पन्नः पुनरपि द्विविधो-जीवे उदद्यनिष्पन्नो जीवोदयनिष्पन्नः अजीवे उदयनिष्पन्नोऽजीवोदयनिष्पन्नो, जीवोदयनिष्पन्नस्योदाहरणानि- 'शेरइए' इत्यादि, इदमुक्तं भवति-कर्मणामुदयेनैव सर्वेऽप्येते पर्याया जीवे निष्पन्नाः, तद्यथा - नारकस्तिर्यङ् मनुष्य इत्यादि, अंग्राह- ननु यद्येवमपरेऽपि निद्रापञ्चकवेदनीयहास्यादयो बहवः कर्मोदयजन्या जीवे पर्यायाः सन्ति, किमिति नारकत्वादयः कियन्तोऽप्युपन्यस्ताः ?, सत्यम्, उपलक्षणत्वादमीषामन्येऽपि सम्भविनो द्रष्टव्याः, अपरस्त्वाह-ननु कर्मों For P&Praise Chly ~ 239~ वृत्तिः उपक्रमाधि० ॥ ११४ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] दयजनितानां नारकत्वादीनां भवत्विहोपन्यासों लेश्यास्तु कस्यचित् कर्मण उदथे भवन्तीत्येतन्न प्रसिद्धं | तत्किमितीह तदुपन्यासः, सत्यं, किन्तु योगपरिणामो लेश्याः, योगस्तु त्रिविधोऽपि कर्मोदयजन्य एव, ततो लेश्यानामपि तदुभयजन्यत्वं न विहन्यते, अन्ये तु मन्यन्ते-कर्माष्टकोदयात् संसारस्थत्वासिद्धत्ववल्लेश्या-14 वत्वमपि भावनीयमित्यलं विस्तरेण, तदर्थना तु गन्धहस्तिवृत्तिरनुसर्तव्येति, 'से तं जीवोदयनिष्फपणे'त्ति निगमनम् । अथाजीवोदयनिष्पन्नं निरूपयितुमाह-से किं तमित्यादि, 'ओरालियं वा सरीरीति विशिष्टाकारपरिणतं तिर्यङ्मनुष्यदेहरूपमौदारिकं शरीरं, 'उरालिअसरीरप्पओगे'इत्यादि, औदारिकशरीरप्रयोगप|रिणामितं द्रव्यम् , औदारिकशरीरस्य प्रयोगो-व्यापारस्तेन परिणामितं स्वप्रयोगित्वात् गृहीतं तत्तथा, तच्च वर्णगन्धरसस्पर्शानापानादिरूपं स्वत एवोपरिष्टाद् दर्शयिष्यति, वाशब्दौ परस्परसमुच्चये, एतद्वितयमप्यजीवेपुद्गलद्रव्यलक्षणे औदारिकशरीरनामकर्मोदयेन निष्पन्नत्वादजीवोदयनिष्पन्न औदधिको भाव उच्यते, एवं वैक्रियशरीरादिष्वपि भावना कार्या, नवरं वैक्रियशरीरनामकर्माद्युदयजन्यत्वं यथावं वाच्यमिति । औदारिकादिशरीरप्रयोगेण यत् परिणम्यते द्रव्यं तत् खत एव दर्शयितुमाह-पओगपरिणामिए वपणे इत्यादि, पश्चानामपि शरीराणां प्रयोगेण-व्यापारेण परिणामितं-गृहीतं वर्णादिकं शरीरवर्णादिसम्पादक द्रव्यमिदं द्रष्टव्यम् , उपलक्षणत्वाच वर्णादीनामपरमपि यच्छरीरे संभवत्यानापानादि तत् स्वत एव दृश्यमिति । अत्राह-ननु यथा नारकत्वादयः पर्याया जीवे भवन्तीति जीवोदयनिष्पन्ने औदयिके पठ्यन्ते, एवं शरीराण्यपि जीव एव भव भनु.२० JEcomania ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा या ॥ ११५ ॥ न्ति अतस्तान्यपि तत्रैव पठनीयानि स्युः किमित्यजीवोदयनिष्पन्नेऽधीयन्ते ?, अस्त्येतत् किंत्वौदारिकादिशरीरनामकर्मोदयस्य मुख्यतया शरीरपुङ्गलेष्वेव विपाकदर्शनात् तन्निष्पन्न औवधिको भावः शरीरलक्षणेऽजीव एव प्राधान्याद् दर्शित इत्यदोषः । 'से त' मित्यादि निगमनत्रयम् ॥ उक्तो द्विविधोऽप्यौदयिकः, अथोपशमिकं निर्दिदिक्षुराह - से किं तं उवसमिए १, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा उवसमे अ उवसमनिप्फण्णे असे किं तं उसमे ?, २ मोहणिजस्स कम्मस्स उवसमेणं, से तं उवसमे। से किं तं उवसमनिफणे १, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-उवसंतकोहे जाव उवसंतलोभे उवसंतपेज्जे उबसंतदोसे उवसंतदंसणमोहणिज्जे उवसंतमोहणिजे उवसमिआ सम्मत्तलद्धी उवसमिआ चरितली उवसंतकसायछउमत्थवीयरागे, से तं उवसमनिष्फण्णे । से तं उवसमिए । अयमपि द्विविधः - उपशमस्तन्निष्पन्नश्च तत्र 'उवसमे णं'ति णमिति वाक्यालङ्कारे, उपशमः पूर्वोक्तरूपो मोहनीयस्यैव कर्मणोऽष्टाविंशतिभेदभिन्नस्योपशमश्रेण्यां द्रष्टव्यो न शेषकर्मणां, 'मोहस्सेवोवसमो इति वचनात् उपशम एवोपशमिकः । उपशमनिष्पन्ने तु 'उबसंतकोहे' इत्यादि, इहोपशान्तक्रोधादयो व्यपदेशाः कापि वाचनाविशेषाः (षे) कियन्तोऽपि दृश्यन्ते, तत्र मोहनीयस्योपशमेन दर्शनमोहनीयं चारित्रमो For P&P ~ 241~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ११५ ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] हनीयं चोपशान्तं भवति, तदुपशान्ततायां च ये व्यपदेशाः संभवन्ति ते सर्वेऽप्यन्त्रादुष्टा न शेषा इति भावनीयम् । 'से तमित्यादि निगमनद्वयम् । निर्दिष्टो द्विविधोऽप्यौपशमिका, अथ क्षायिकमाह से कि तं खइए?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-खइए अ खयनिष्फण्णे अ । से कि तं खइए १, २ अटुण्डं कम्मपयडीणं खए णं, से तं खइए । से किं तं खयनिष्फपणे?, २ अणेगविहे पण्णते, तंजहा-उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली खीणआभिणिबोहिअणाणावरणे खीणसुअणाणावरणे खीणओहिणाणावरणे खीणमणपज्जवणाणावरणे खीणकेवलणाणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे णाणावरणिजकम्मविप्पमुके केवलदंसी सव्वदंसी खीणनिद्दे खीणनिदानिदे खीणपयले खीणपयलापयले खीणथीणगिद्धी खीणचक्खुदंसणावरणे खीणअचक्खुदंसणावरणे खीणओहिदंसणावरणे खीणकेवलदसणावरणे अणावरणे निरावरणे खीणावरणे दरिसणावरणिजकम्मविप्पमुक्के खीणसायावेअणिजे खीणअसायावेअणिज्जे अवेअणे निव्वेअणे ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० वृति X मलधारीया माधि प्रत सूत्रांक [१२७] ॥११६॥ खीणवेअणे सुभासुभवेअणिज्जकम्मविप्पमुक्के खीणकोहे जाव खीणलोहे खीणपेजे खीणदोसे खीणदसणमोहणिजे खीणचरित्तमोहणिजे अमोहे निम्मोहे खीणमोहे मोहणिजकम्मविप्पमुके खीणणेरइआउए खीणतिरिक्खजोणिआउए खीणमणुस्साउए खीणदेवाउए अणाउए निराउए खीणाउए आउकम्मविप्पमुक्के गइजाइसरीरंगोवंगबंधणसंघायणसंघयणसंठाणअणेगवोंदिविंदसंघायविप्पमुक्के खीणसुभनामे खीणअसुभणामे अणामे निपणामे खीणनामे सुभासुभणामकम्मविप्पमुक्के खीणउच्चागोए खीणणीआगोए अगोए निग्गोए खीणगोए उच्चणीयगोत्तकम्मविप्पमुक्के खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगंतराए खीणउवभोगंतराए खीणविरियंतराए अणंतराए णिरंतराए खीणंतराए अंतरायकम्मविप्पमुक्के सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिणिव्वुए अंतगडे सव्वदुखप्पहीणे, से तं खयनिष्फणणे । से तं खइए। एषोऽपि द्विधा-क्षयस्तन्निष्पन्नश्च, तन्त्र 'खए ' अत्र णमिति पूर्ववत्, क्षयोऽष्टानां ज्ञानावरणादिकर्मप्रकृ-18|॥११६ ॥ तीनां सोत्तरभेदानां सर्वथाऽपगमलक्षणः स च स्वार्थिकेकणप्रत्यये क्षायिका, क्षयनिष्पन्नस्तु तत्फलरूपः, तत्र दीप अनुक्रम [१६१] ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] च सर्वेष्वपि कर्मसु सर्वथा क्षीणेषु ये पर्यायाः संभवन्ति तान् क्रमेण दिदर्शयिषुर्ज्ञानावरणक्षये तावद् ये भवन्ति तानाह–'उप्पण्णणाणदंसणे'यादि, उत्पन्ने-श्यामतापगमेनादर्शमण्डलप्रभावत् सकलतदाबरणापगमादभिव्यक्त ज्ञानदर्शने धरति यः स तथा, 'अरहा' अविद्यमानरहस्यो, नास्य गोप्यं किश्चिदस्तीति भावः, आवरणशत्रुजेतृत्वाजिना, केवलं-सम्पूर्ण ज्ञानमस्यास्तीति केवली, क्षीणमाभिनियोधिकज्ञानावरणं यस्य स तथा, एवं नेयं यावत् क्षीणकेवलज्ञानावरणः, अविद्यमानमावरणं यस्य स विशुद्धाम्बरे श्वेतरोचिरिवानावरणः, तथा निर्गत आगन्तुकादप्यावरणादू राहुरहितरोहिणीशवदेव निरावरणः, तथा क्षीणमेकान्तेनापुनर्भावितया आवरणमस्येत्यपाकृतमलावरणजात्यमणिवत् क्षीणावरणः, निगमयन्नाह-ज्ञानावरणीयेन कर्मणा विविधम्-अनेकैः प्रकारैः प्रकर्षेण मुक्तो ज्ञानावरणीयकर्मविप्रमुक्ता, एकार्थिकानि वा एतान्यनावरणादिपदानि, अन्यथा वा नयमतभेदेन सुधिया भेदो वाच्यः । तदेवमेतानि ज्ञानावरणीयक्षयापेक्षाणि नामान्युकानि, अथ दर्शनावरणीयक्षयापेक्षाणि तान्येवाह-'केवलदंसी'त्यादि, केवलेन-क्षीणावरणेन दर्शनेन पश्यतीति केवलदर्शी क्षीणदर्शनावरणत्वादेव सर्वं पश्यतीति सर्वदर्शीत्येवं निद्रापश्चकदर्शनावरणचतुष्कक्षयसम्भवीन्यपराण्यपि नामान्यत्र पूर्वोक्तानुसारेण व्युत्पादनीयानि, नवरं निद्रापञ्चकस्वरूपमिदम्-"सुह-| १ मुखप्रतियोथा निदा दुःखप्रतिबोधा च निवानिद्रा च । प्रचल्य भवति स्थितस्य प्रचलाप्रचला व बहमतः ॥ १॥ अतिसक्निष्टकर्माणुवेदने भवति स्थानलगदिस्तु । महानिद्रा दिनचिन्तितव्यापारप्रसाधनी प्रायः ॥ २॥ ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ११७ ॥ Econ | पडियोहा निहा दुहपडिबोहा व निदनिद्दा य । पयला होइ ठियस्सा पयलापयला य चंक्रमओ ॥ १ ॥ अइसंकिलिकम्माणुवेयणे होइ थीणगिद्धी उ । महनिदा दिणचिंतियवावारपसाहणी पायं ॥ २ ॥ अपरं च-अनावरणादिशब्दाः पूर्व ज्ञानावरणाभावापेक्षाः प्रवृत्ता अत्र तु दर्शनावरणाभावापेक्षा इति विशेषः, वेदनीयं द्विधा प्रीत्युत्पादकं सातमप्रीत्युत्पादकं त्वसातं, तत्क्षयापेक्षास्तु क्षीणसातावेदनीयादयः शब्दाः सुखोनेयाः, नवरमवेदनो-वेदनारहितः, स च व्यवहारतोऽल्पवेदनोऽप्युच्यते ततः प्राह-निर्वेदन:- अपगतसर्ववेदनः, स च पुनः कालान्तरभाविवेदनोऽपि स्यादित्याह-क्षीणवेदन:- अपुनर्भाविवेदन:, निगमयन्नाह - 'सुभासुभवेअणिज्जकम्मविप्पमुक्के न्ति । मोहनीयं द्विधा- दर्शनमोहनीयं चारित्रमोहनीयं च तत्र दर्शनमोहनीयं त्रिधा सम्यक्त्वभिश्रमिध्यात्वभेदात्, चारित्रमोहनीयं च द्विधा - क्रोधादिकषायहास्यादिनोकषाय भेदात्, तत एतत्क्षयसम्भवीनि सूत्रलिखितानि क्षीणक्रोधादीनि नामानि सुबोधान्येव, नवरं मायालोभी प्रेम, क्रोधमानौ तु द्वेषः, तथा अमोह:- अपगतमोहनीयकर्मा, स च व्यावहारिकैरल्पमोहोदयोऽपि निर्दिश्यते अत आह-निर्गतो मोहानिर्मोह:, स च पुनः कालान्तरभाविमोहोदयोऽपि स्यादुपशान्तमोहबत् तद्व्यवच्छेदार्थमाह-क्षीणमोह: अपुनर्भाविमोहोदय इत्यर्थः, निगमयति- मोहनीय कर्मविप्रमुक्त इति । नारकायायुष्कभेदेनायुश्चतुर्द्धा तत्क्षयसमुद्भवानि च नामानि सुगमानि, नवरमविद्यमानायुष्कोऽनायुष्कस्तद्भविकायुःक्षयमात्रेऽपि स्यादत उक्तं निरायुष्कः, स च शैलेशीं गतः किञ्चिदवतिष्ठमानायुः शेषोऽप्युपचारतः स्यादत उक्तं For P&Praise C ~ 245 ~ वृत्ति उपक्रमाधि० ॥ ११७ ॥ my Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] S4% दीप अनुक्रम [१६१] -क्षीणायुरिति, आयुःकर्मविप्रमुक्त इति निगमनं । नामकर्म सामान्येन शुभाशुभभेदतो द्विविधं, विशेषतस्तु| गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गादिभेदाद द्विचत्वारिंशदादिभेदं स्थानान्तरादवसेयं, तह तत्क्षयभावीनि कियन्ति तन्नामानि अभिधत्ते-'गइजाइसरीरेत्यादि, इह प्रक्रमान्नामशब्दो यथासम्भवं द्रष्टव्यः, ततश्च नारकादिगतिचतुष्टयहेतुभूतं गतिनाम, एकेन्द्रियादिजातिपञ्चककारणं जातिनाम, औदारिकादिशरीरपञ्चकनिवन्धनं शरीरनाम, औदारिकवैक्रियाहारकशरीरत्रयाङ्गोपाङ्गनिवृत्तिकारणमङ्गोपाङ्गनाम, काष्ठादीनां लाक्षादिद्रव्यमिव शरीरपनकपुद्गलानां परस्परं बन्धहेतुर्वन्धननाम, तेषामेव पुद्गलानां परस्परं बन्धनार्थमन्योऽन्यसांनिध्यलक्षणसङ्घातकारणं काष्ठसन्निकर्षकृत् तथाविधकर्मकर इव सङ्घातनाम, कपाटादीनां लोहपहादिरिवीदारिकशरीरास्था परस्परबन्धविशेषनिवन्धनं संहनननाम, एतच्च बन्धनादिपदत्रयं कचिद्वाचनान्तरे न दृश्यत इति, योन्दिस्तनुः शरीरमिति पर्यायाः, अनेकाच तानानाभवेषु बहीनां तासां भावात् तस्मिन्नेव वा भवे जघन्यतोऽप्यीदारिकतैजसकार्मणलक्षणानां तिसृणां भावाद बोन्द्यश्चानेकबोन्यस्तासां वृन्द-पटलं तदेव पुगलस वातरूपत्वात् सङ्घातोऽनेकबोन्दिवृन्दसरातः, गत्यादीनां च द्वन्द्वे गतिजातिशरीराङ्गोपाङ्गबन्धनसंघातन|संहननसंस्थानानेकपोन्दिवृन्दसघातास्तैर्विप्रमुक्तो यः स तथा, प्राक्तनेन शरीरशब्देन शरीराणां निवन्धनं नामकर्म गृहीतं, बोन्दिवृन्दग्रहणेन तु तत्कार्यभूतशरीराणामेव ग्रहणमिति विशेषा, क्षीणम्-अपगतं तीर्थकरशुभसुभगसुखरादेययशाकीयादिकं शुभं नाम यस्य स तथा, क्षीणम्-अपगतं नरकगत्यशुभदुर्भगदुःखरा --- + ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: SCREESH उपक्र प्रत सूत्रांक [१२७] ॥११८॥ दीप अनुक्रम [१६१] नयनादेयायशःकादिकमशुभं नाम यस्य स तथा, अनामनिर्नामक्षीणनामादिशब्दास्तु पूर्वोक्तानुसारेण भा-II वृस्तिः मलधा वनीयाः, शुभाशुभनामविप्रमुक्त इति निगमनम् । गोत्रं द्विधा-उच्चैर्गानं नीचैर्गोत्रं च, ततस्ततक्षयसम्भ-| रीया &ावनि क्षीणगोत्रादिनामान्युक्तानुसारतः सुखाबसेयान्येव । दानान्तरायादिभेदादन्तरायं पश्चधा, तत्क्षय-| माधि. निष्पनानि च क्षीणदानान्तरायादिनामान्यविषमाण्येव, तदेवमेकैकप्रकृतिक्षयनिष्पन्ननामानि प्रत्येकं निर्दिश्य साम्प्रतं पुनः समुदितप्रकृत्यष्टकक्षयनिष्पनानि सामान्यतो यानि नामानि भवन्ति तान्याह-सिद्धे'इत्यादि, सिद्धसमस्तप्रयोजनत्वात् सिद्धा, बोधात्मकत्वादेव बुद्ध, बाह्याभ्यन्तरग्रन्धवन्धनमुक्तत्वात् मुक्त, परि:समन्तात् सर्वप्रकारैः निर्वृतः-सकलसमीहिताचेलाभप्रकर्षप्राप्तत्वात् शीतीभूतः परिनिर्वृतः, समस्तसंसारान्तकत्वादन्तकदिति, एकान्तेनैव शारीरमानसदुःखप्रहाणात् सवेंदुःखमहीण इति । 'से त'मित्यादि निगम-1 नद्वयम् । उक्तो द्विविधोऽपि क्षायिका, अथ क्षायोपशमिकमाह से कितं खओवसमिए?, २ दुविहे पपणत्ते, तंजहा-खओवसमिए य खओवसमनिष्फण्णेय। से किं तं खओवसमे ?, २ चउण्हं घाइकम्माणं खओवसमेणं, तंजहा-णाणावरणिज्जस्स दसणावरणिजस्स मोहणिजस्स अंतरायस्स खओवसमेणं, से तं खओवसमे। से किं तं खओवसमनिष्फपणे?, २ अणेगविहे पण्णते, तंजहा-खओवसमिआ आ ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] भिणिबोहिअणाणलद्धी जाव खओवसमिआ मणपज्जवणाणलद्धी खओवसमिआ मइअण्णाणलद्धी खओवसमिआ सुअअण्णाणलद्धी खओवसमिआ विभंगणाणलद्धी खओवसमिआ चक्खुदंसणलद्धी अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदसणलद्धी एवं सम्मदसणलद्धी मिच्छादसणलद्धी सम्ममिच्छादंसणलद्धी खओवसमिआ सामाइअचरितलद्धी एवं छेदोबट्टावणलद्धी परिहारविसुद्धिअलद्धी सुहमसंपरायचरित्तलद्धी एवं चरित्ताचरित्तलद्धी खओवसमिआ दाणलद्धी एवं लाभ० भोग० उवभोगलद्धी खओवसमिआ वीरिअलद्धी एवं पंडिअवीरिअलद्धी बालवीरिअलद्धी बालपंडिअवीरिअलद्धी खओवसमिआ सोइंदिअलद्धी जाव खओवसमिआ फासिंदिअलद्धी खओवसमिए आयारंगधरे एवं सुअगडंगधरे ठाणंगधरे समवायंगधरे विवाहपण्णत्तिधरे नायाधम्मकहा. उवासगदसा० अंतगडदसा० अणुत्तरोववाइअदसा० पण्हावागरणधरे विवागसुअधरे खओवसमिए दिट्रिवायधरे खओवसमिए णवपुवी खओवसमिए जाव ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] दीप अनुक्रम [१६१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ ११९ ॥ चउसपुव्वी खओवसमिए गणी खओवसमिए वायए, से तं खओवसमनिष्कषणे, से तं खओवसमिए । असावपि द्विरूपः क्षयोपशमस्तन्निष्पन्नञ्च तत्र विवक्षितज्ञानादिगुणविधातकस्य कर्मण उदयप्राप्तस्य क्षयः सर्वधाऽपगमः अनुदीर्णस्य तु तस्यैवोपशमो - विपाकत उदयाभाव इत्यर्थः, तलच क्षयोपलक्षित उपशमः क्षयोपशमः, ननु चौपशमिकेऽपि यदुदयप्राप्तं तत्सर्वथा क्षीणं शेषं तू न क्षीणं नाप्युदयप्राप्तमतस्तस्योपशम् उच्यत इत्यनयोः कः प्रतिविशेषः ?, उच्यते, क्षयोपशमावस्थे कर्मणि विपाकत एवोदयो नास्ति, प्रदेशतस्त्वस्त्येव, उपशान्तावस्थायां तु प्रदेशतोऽपि नास्त्युदय इत्येतावता विशेषः । तत्र चतुर्णां घातिकर्मणां केवलज्ञानप्रतिबन्धकानां ज्ञानावरणदर्शनावरणमोहनीयान्तरायाणां यः क्षयोपशमः क्षयोपशमरूपः स क्षायोपशमिको भावः, णमिति पूर्ववत्, तद्यथेत्यादिना स्वत एव घातिकर्माणि विवृणोति, शेषकर्मणां तु क्षयोपशमो नास्त्येव, निषिदत्वात् । 'से त' मित्यादि निगमनम् । तेनैव क्षयोपशमेनोक्तस्वरूपेण निष्पन्नः क्षायोपशमिको भावोऽनेकधा भवति, तमाह- 'खाओवसमिया आभिणिबोहियणाणलद्धी' व्यादि, आभिनिवोधिकज्ञानं मतिज्ञानं तस्य लब्धि:- योग्यता खखावरणकर्मक्षयोपशम साध्यत्वात् क्षायोपशमिकी, एवं तावद् वक्तव्यं यावन्मनः पर्यायज्ञानलब्धिः, केवलज्ञानलब्धिस्तु खावरणकर्मणः क्षप एवोत्पथत इति नेहोता, कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं मतिरेव For P&False Cnly ~ 249~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ ११९ ॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१२७] / गाथा ||२३...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक [१२७] अज्ञानं मत्यज्ञानं, कुत्सितत्त्वं चेह मिथ्यादर्शनोदयदूषितत्वात् द्रष्टव्य, दृष्टा च कुत्सार्थे नत्रो वृत्तिः, यथा कुत्सितं शीलमशीलमिलि, मत्यज्ञानस्य लब्धि:-योग्यता, साऽपि वावरणक्षयोपशमेनैव निष्पद्यते, एवं श्रुताज्ञानलब्धिरपि वाच्या, भङ्गः प्रकारो भेद इत्यर्थः, स चेह प्रक्रमादवधिरेव गृह्यते, विरूप:-कुत्सितो भङ्गो विभङ्गः स एवार्थपरिज्ञानात्मकत्वात् ज्ञानं विभङ्गज्ञानं, मिथ्यादृष्टिदेवादेरवधिर्विभङ्गज्ञानमुच्यते इत्यर्थः, इह च विशब्देनैव कुत्सितार्थप्रतीतेने नो निर्देशः, तस्य लब्धिः-योग्यता साऽपि वावरणक्षयोपशमेनैव प्रादु|रस्ति, एवं मिथ्यात्वादिकर्मणः क्षयोपशमसाध्या शेषा अपि सम्यग्दर्शनादिलब्धयो यथासम्भवं भावनीयाः, नवरं वाला-अविरताः पण्डिताः-साधवः बालपण्डितास्तु-देशविरताः तेषां यथारखं वीर्यलब्धिीर्यान्तरादिपकर्मक्षयोपशमादावनीया, इन्द्रियाणि चेह लब्ध्युपयोगरूपाणि भावेन्द्रियाणि गृह्यन्ते, तेषां च लब्धिः योग्यता मतिश्रुतज्ञानचक्षुरचक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमजन्यत्वात् क्षायोपशमिकीति भावनीयम्, आचारधरत्वादिपर्यायाणां च श्रुतज्ञानप्रभवत्वात् तस्य च तदावरणकर्मक्षयोपशमसाध्यत्वादाचारधरादिशब्दा इह पश्यन्ते इति प्रतिपत्तव्यम् । 'से तमित्यादि निगमनद्वयम् ॥ अथ पारिणामिकभावमाश्रित्याह से किं तं पारिणामिए?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-साइपारिणामिए अ अणाइपारिणामिए अ । से किं तं साइपारिणामिए?, २ अणेगविहे पण्णत्ते तंजहा-जुण्णसुरा %%25-259+% दीप अनुक्रम [१६१] % 1% ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| .................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] अनुयो. मलधारीया दृत्तिः उपक्रमाधिक ॥१२०॥ गाथा ||१|| जुण्णगुलो जुण्णघयं जुण्णतंदुला चेव । अब्भा य अब्भरुक्खा संझा गंधव्वणगरा य ॥१॥ उकावाया दिसादाहा गज्जियं विज्जू णिग्घाया जूवया जक्खादित्ता धूमिआ महिआ रयुग्घाया चंदोवरागा सूरोवरागा चंदपरिवेसा सूरपरिवेसा पडिचंदा पडिसूरा इंदधणू उदगमच्छा कविहसिया अमोहा वासा वासधरा गामा णगरा घरा पव्वता पायाला भवणा निरया रयणप्पहा सकरप्पहा वालुअप्पहा पंकप्पहा धूमप्पहा तमप्पहा तमतमपहा सोहम्मे जाव अञ्चए गेवेजे अणुत्तरे ईसिप्पभारा परमाणुपोग्गले दुपएसिए जाव अणंतपएसिए, से तं साइपारिणामिए । से किं तं अणाइपारिणामिए १, २ धम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगासस्थिकाए जीवस्थिकाए पुग्गलथिकाए अद्धासमए लोए अलोए भवसिद्धिआ अभवसिद्धिआ, से तं अणाइपारिणामिए । से तं पारिणामिए । सर्वथा अपरित्यक्तपूर्वावस्थस्य यद्रूपान्तरेण भवन-परिणमनं स परिणामः, तदुक्तम्-"परिणामो वर्धा दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ॥ १२०॥ मा ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] 454 गाथा ||१|| KARXXXX**** न्तरगमनं न च सर्वथा व्यवस्थानम् । न च सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" इति, स एव तेन | वा निर्वृत्तः पारिणामिका, सोऽपि द्विविधः-सादिरनादिश्च, तत्र सादिपारिणामिको 'जुण्णमुरेत्यादि, जीर्णशसुरादीनां जीर्णवपरिणामस्थ सादित्वात् सादिपारिणामिकता, इह चोभयावस्थयोरप्यनुगतस्य सुराद्रव्यस्य' नव्यतानिवृत्ती जीर्णतारूपेण भवनं परिणाम इत्येवं मुखप्रतिपत्त्यर्थे जीर्णानां मुरादीनां ग्रहणम् , अन्यथा नवेप्वपि तेषु सादिपारिणामिकता अस्त्येव, कारणद्रव्यस्यैव नूतनसुरादिरूपेण परिणते, अन्यथा कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गा, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते स्थानान्तरवक्तव्यत्वादस्थार्थस्येति । अभ्राणि सामान्येन प्रतीतान्येव, अभ्रवृक्षास्तु तान्येव वृक्षाकारपरिणतानि, सन्ध्या-कालनीलावभ्रपरिणतिरूपा प्रतीतेच, गन्धर्व नगरा-14 ण्यपि-सुरसद्मप्रासादोपशोभितनगराकारतया तथाविधनभःपरिणतपुद्गलराशिरूपाणि प्रतीतान्येव, उल्कापाता अपि व्योमसम्मूछितज्वलनपतनरूपाः प्रसिद्धा एच, दिग्दाहास्तु-अन्यतरस्यां दिशि छिन्नमूलज्वल-IX नज्वालाकरालिताम्बरप्रतिभासरूपाः प्रतिपत्तव्याः, गर्जितविद्युन्निर्घाताः प्रतीताः, यूपकास्तु-संझाच्छेयावरणो य जूयओ सुक दिण तिनीति गाथादलप्रतिपादितखरूपा आवश्यकादवसेया, यक्षादीप्तकानि न-18 भोदृश्यमानानिपिशाचाः, धूमिका-रुक्षा प्रविरला धूमामा प्रतिपत्तव्या, महिका तु लिग्धा घना, निग्धघनत्वादेव भूमी पतिता सातृणादिदर्शनद्वारेण लक्ष्यते, रजउद्घातो-रजस्खला दिशः, चन्द्रसूर्योपरागा राहुग्रहणानि, १ सन्ध्याछेदावरणव यूपकः शुले दिनोखीन, दीप अनुक्रम [१६१-१६३] अनु. २१ ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| ..................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] अनुयो मलधा- रीया वृत्तिः उपक्र माधि गाथा ||१|| बहुवचनं चात्रा तृतीयद्वीपसमुद्रवर्तिचन्द्रार्काणां युगपदुपरागभावात् मन्तव्यमिति चूर्णिकारः, चन्द्रसूर्यपरिवेषाः-चन्द्रादित्ययोः परितो वलयाकारपुद्गलपरिणतिरूपाः सुप्रतीता एव, प्रतिचन्द्रः-उत्पातादिसूचको द्वितीयश्चन्द्रा, एवं प्रतिसूर्योऽपि, इन्द्रधनु:-असिडमेव, उदकमत्स्यास्तु-इन्द्रधनुःखण्डान्येव, कपिहसितानिअकस्मान्नभसि ज्वलद्भीमशब्दरूपाणि अमोघाः-सूर्यबिम्बादधः कदाचिदुपलभ्यमानशकटोर्द्धिसंस्थितश्यामादिरेखाः वर्षाणि-भरतादीनि वर्षधरास्तु-हिमवदादयः पाताला:-पातालकलशाः, शेषास्तु ग्रामादयः प्रसिद्धा एव । अत्राह-ननु वर्षधरादयः शाश्वतत्वात् न कदाचित्तद्भावं मुश्चन्ति तत्कथं सादिपारिणामिकभावव-टू है तित्त्वं तेषां ?, नैतदेवं, तदाकारमात्रतयैव हि तेऽवतिष्ठमानाः शाश्वता उच्यन्ते, पुद्गलास्त्वसङ्ख्येयकालादूर्व न तेष्वेवावतिष्ठन्ते, किं स्वपरापरे तद्भावेन परिणमन्ति, तावत्कालादूर्वा पुद्गलानामेकपरिणामेनावस्थितेः प्रागेव निषिद्धत्वादिति सादिपारिणामिकता न विरुध्यते, अनादिपारिणामिके तु धर्मास्तिकायादयः, तेषां तद्रूपतया अनादिकालात् परिणतेः, वाचनान्तराण्यपि सर्वाण्युक्तानुसारतो भावनीयानि । 'से तमित्यादि |निगमनद्वयम् । उक्तः पारिणामिकः, अथ सान्निपातिकं निर्दिशति से किं तं सपिणवाइए ?, २ एएसिं चेव उदइअउवसमिअखइअखओवसमिअपारिणामिआणं भावाणं दुगसंजोएणं तियसंजोएणं चउक्कसंजोएणं पंचगसंजोएणं जे दीप अनुक्रम [१६१-१६३] x ॥१२१॥ ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| .................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा ||१|| निप्फज्जइ सब्वे से सन्निवाइए नामे, तत्थ णं दस दुअसंजोगा दस तिअसंजोगा पंच चउकसंजोगा एगे पंचकसंजोगे। सन्निपात:-एषामेवीदपिकादिभावानां व्यादिमेलापकः स एव तेन वा निवृत्तः सानिपातिका, तथा चाह'एएसिं चेचे'त्यादि, एषामौदयिकादीनां पश्चानां भावानां द्विकत्रिकचतुष्कपश्चकसंयोगैर्ये षडूविंशतिर्भङ्गाः भवन्ति ते सर्वेऽपि सान्निपातिको भाव इत्युच्यते, एतेषु मध्ये जीवेषु नारकादिषु षडेव भङ्गाः सम्भवन्ति, |शेषास्तु विंशतिर्मनका रचनामात्रेणैव भवन्ति, न पुनः कचित् सम्भवन्ति, अतः प्ररूपणामात्रतरीय ते अवगन्तव्याः, एतत् सर्व पुरस्ताद्वयक्तीकरिष्यते, कियन्तः पुनस्ते ट्यादिसंयोगाः प्रत्येकं सम्भवन्ति इत्याह'तत्थ णं दस दुगसंजोगा' इत्यादि, पञ्चानामौदयिकादिपदानां दश द्विकसंयोगाः दशैव त्रिकसंयोगाः पञ्च चतुःसंयोगाः एकस्तु पश्चकसंयोगः संपद्यत इति, सर्वेऽपि षड्वंशतिः। तत्र के पुनस्ते दश द्विकसंयोगा इति जिज्ञासायां प्राह एत्थ णं जे ते दस दुगसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइएउवसमनिप्फपणे १ अस्थि णामे उदइएखाइगनिप्फण्णे २ अस्थि णामे उदइएखओवसमनिष्फण्णे ३ अस्थि णामे उदइएपारिणामिअनिष्फपणे ४ अस्थि णामे उवसमिएखयनिष्फपणे ५ दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| ..................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयोग मलधा वृत्तिः [१२७] रीया उपकमाधि. ॥१२२॥ गाथा अत्थि णामे उवसमिएखओवसमनिष्फण्णे ६ अत्थि णामे उवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे ७ अस्थि णामे खइएखओवसमनिप्फपणे ८ अस्थि णामे खइएपारिणामिअनिप्फपणे ९ अत्थि णामे खओवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे १० । कयरे से.नामे उदइएउवसमनिप्फपणे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया, एस णं से णामे उदइएउवसमनिष्फण्णे १, कयरे से णामे उदइएखयनिप्फपणे ?, उदइएत्ति मणुस्से खइ सम्मत्तं, एस णं से नामे उदइएखयनिष्फपणे २, कयरे से णामे उदइएखओवसमनिष्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उदइएखओवसमनिप्फपणे ३, कयरे से णामे उदइएपरिणामिअनिष्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइएपारिणामिअनिप्फण्णे ४, कयरे से णामे उवसमिएखयनिष्फपणे ?, उवसंता कसाया खइ सम्मत्तं, पसणं से णामे उवसमिएखयनिप्फपणे ५, कयरे से णामे उवसमिएखओवसमनिप्फण्णे ?, ॐॐॐ ||१|| दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ॥१२२॥ SA ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] 5454545 गाथा ||१|| उवसंता कसाया खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उवसमिएखओवसमनिप्फपणे ६, कयरे से णामे उवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे ?, उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे ७, कयरे से णामे खइएखओवसमनिप्फण्णे ?, खइयं सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे खइएखओवसमनिप्फण्णे ८, कयरे से णामे खइएपारिणामिअनिप्फण्णे ?, खइ सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खइएपारिणामिअनिप्फपणे ९, कयरे से णामे खओवसमिएपारिणामिअनिप्फपणे ?, खओवसमिआई इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खओवसमिएपारिणामिअनि प्फण्णे १०। नामाधिकारादित्थमाह-अस्ति तावत्सान्निपातिकभावान्तर्वति नाम, विभक्तिलोपादोदयिकौपशमिकलक्षणभावद्भयनिष्पन्नमित्येको भङ्गः, एवमन्येनाप्युपरितनभावत्रयेण सह संयोगादौदयिकेन चत्वारो द्विक . दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| ........................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] वृत्तिः उपक्रमाधि० गाथा ||१|| 9-% अनुयो संयोगा लब्धाः, ततस्तत्परित्यागे औपशमिकस्योपरितनभावत्रयेण सह चारणायां लब्धास्त्रयः, तत्परिहारे मलधा- क्षायिकस्योपरितनभावद्वयमीलनायां लब्धौ द्वौ, ततस्तं विमुच्य क्षायोपशमिकस्य पारिणामिकमीलने लब्ध रीया एक इति सर्वेऽपि दश, एवं सामान्यतो द्विकसंयोगभङ्गाकेषु दर्शितेषु विशेषतस्तत्स्वरूपमजानन् विनेयः। ॥१२३॥ पृच्छति-'कयरे से णामे उदइए? इत्यादि, अनोत्तरम्-'उदइएत्ति मणुस्से इत्यादि, औदयिके भावे मनुष्यत्वं-मनुष्यगतिरिति तात्पर्यम्, उपलक्षणमात्रं चेदं, तिर्यगादिगतिजातिशरीरनामादिकर्मणामप्यत्र सम्भवाद, उपशान्तास्तु कषाया औपशमिके भाव इति गम्यते, अत्राप्युदाहरणमात्रमेतत्, दर्शनमोहनीयनोकषायमोहनीययोरप्यौपशमिकत्वसम्भवादू, एतनिगमयति-'एस से णामे उदइएउवसमनिष्फपणे त्ति, णमिति वाक्यालङ्कारे एतत्तन्नाम यदुद्दिष्टं प्रागौदयिकौपशमिकभावद्वयनिष्पन्नमिति प्रथमद्विकयोगे भङ्गकव्याख्यानम्, अयं च द्विकयोगविवक्षामात्रत एव संपद्यते, न पुनरीहशो भङ्गः कचिजीवे संभवति, तथा ? हि-यस्यौदयिकी मनुष्यगतिरीपशमिकाः कषाया भवन्ति तस्य क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिक जीवत्वं कस्यचित् क्षायिकं सम्यक्त्वमित्येतदपि संभवति, तत्कथमस्य केवलस्य सम्भवः?, एवमेतद्व्याख्यानुद सारेण शेषा अपि व्याख्येयाः, केवलं क्षायिकपारिणामिकभावद्वयनिष्पन्नं नवमभङ्गं विहाय परेऽसम्भविनो द्रष्टव्याः, नवमस्तु सिद्धस्य संभवति, तथाहि-क्षायिके सम्यक्त्वज्ञाने पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येतदेव भावद्वयं तस्यास्ति नापरः, तस्मादयमेकः सिद्धस्य संभवति, शेषास्तु नव द्विकयोगाः प्ररूपणामात्रमिति स्थि दीप अनुक्रम [१६१-१६३] SC ॥१२३॥ RCHEST ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१२७] | गाथा ||२४|| ......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक *ॐ [१२७] गाथा ||१|| COCOC दतम्, अन्येषां हि संसारिजीवानामौदयिकी गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीयत्त्वमित्येतद्भावत्रर्य जघन्यतोऽपि लभ्यत इति कथं तेषु द्विकयोगसम्भव ? इति भावः । त्रिकयोगानिर्दिविक्षुराह तत्थ णं जे ते दस तिगसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइएउवसमिएखयनिप्फपणे १ अस्थि णामे उदइएउवसमिएखओवसमनिप्फपणे २ अस्थि णामे उदइएउवसमिएपरिणामिअनिप्फपणे ३ अस्थि णामे उदइएखइएखओवसमनिप्फण्णे ४ अस्थि णामे उदइएखइएपारिणामिअनिष्फपणे ५ अस्थि णामे उदइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे ६ अत्थि णामे उवसमिएखइएखओवसमनिप्फपणे ७ अस्थि णामे उवसमिएखइएपारिणामिअनिष्फपणे ८ अस्थि णामे उवसमिएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे ९अस्थि णामे खइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे१०। कयरे से णामे उदइएउवसमिएखयनिष्फपणे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइअं सम्मत्तं, एस णं से णामे उदइएउवसमिएखयनिष्फपणे १, कयरे से दीप अनुक्रम [१६१-१६३] C ASSESC ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| .................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो मलधा [१२७] रीया ॥१२४॥ गाथा ||१|| णामे उदइएउवसमिएखओवसमियनिप्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उदइएउवसमिएखओवसमनिप्फपणे २, कयरे से णामे उदइएउवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइएउवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे ३, कयरे से णामे उदइएखइएखओवसमनिप्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से खइ सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उदइएखइएखओवसमनिप्फपणे ४, कयरे से णामे उदइएखइएपारिणामिअनिप्फपणे?, उदइएत्ति मणुस्से खइ सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे उदइएखइएपारिणामिअनिष्फण्णे ५, कयरे से णामे उदइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से खओवसमिआई इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे ६, कयरे से णामे उपसमिएखइएखओवसमनिप्फपणे ?, उवसंता + दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ॥१२४॥ ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] कसाया खइ सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई, एस णं से णामे उपसमिएखइएखओवसमनिष्फपणे ७, कयरे से णामे उवसमिएखइएपारिणामिअनिष्फण्णे ?, उवसंता कसाया खइअं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उपसमिएखइएपारिणामिअनिष्फण्णे ८, कयरे से णामे उवसमिएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फपणे? उवसंता कसाया खओवसमिआई इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उवसमिएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे ९, कयरे से णामे खइएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फपणे ?, खइ सम्मत्तं खओवसमिआइं इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे खइएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फपणे १०। एतदप्यौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावपञ्चकं भूम्यादावालिख्य तत आयभावदयस्योपरितनभावत्रयेण सह चारणायां लब्धात्रयः इत्यादिक्रमेण दशापि भावनीया, एतानेव स्वरूपतो विवरीषुराह–कयरे से णामे उदइएउपसमिए इत्यादि, व्याख्या पूर्वानुसारतोऽत्रापि कर्तव्या, नवरमशत्रौदयिकक्षायिकपारिणामिकभावनयनिष्पन्नः पञ्चमो भगः केवलिनः संभवति, तथाहि-औदयिकी मनुष्य करवाकर गाथा ||१|| दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः 1 १: गतिः क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि पारिणामिकं तु जीवत्वमित्येते त्रयो भावास्तस्य भवन्ति, औपशमिकस्तित्वह नास्ति, मोहनीयाश्रयत्वेन तस्योक्तत्वात्, मोहनीयस्य च केवलिन्यसम्भवात्, तथा क्षायोपशमिकोऽप्यन्त्रापास्य एव, क्षायोपशमिकानामिन्द्रियादिपदार्थानामस्यासम्भवाद, 'अतीन्द्रियाः केवलिन इत्यादिवचनात् तस्मात् पारिशेष्याद्यथोक्तभावत्रयनिष्पन्नः पञ्चमो भङ्गः केवलिनः सम्भवति, षष्ठस्त्वौदयिकक्षा+ योपशमिकपारिणामिकभावनिष्पन्नो नारकादिगतिचतुष्टयेऽपि संभवति, तथाहि औदयिकी अन्यतरा गतिः क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वमित्येवमेतद्भावत्रयं सर्वास्वपि गतिषु जीवानां प्राप्यत इति, शेषास्त्वष्टौ त्रिकयोगाः प्ररूपणामार्थ, काप्यसम्भवादिति भावनीयं । चतुष्कसंयोगान्निर्दिशन्नाह ॥ १२५ ॥ तत्थ णं जे ते पंच चक्कसंजोगा ते णं इमे-अस्थि णामे उदइएउवसमिएखइएखओवसमनिष्फण्णे १ अस्थि णामे उदइएउवसमिएखइए पारिणामिअनिष्फण्णे २ अस्थि णामे उदइएउवसमिएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे ३ अस्थि णामे उदइएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फण्णे ४ अस्थि णामे उवसमिएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे ५, कयरे से णामे उदइएउवसमिएखइएखओवसम अनुयो० मलधा रीया For P&Peralise Cinly ~261~ वृत्तिः उपक्र माधि० | ॥ १२५ ॥ 1 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| ..................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा ||१|| ACCOCALSCRECASS निप्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइ सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई, एसणं से णामे उदइएउवसमिएखइएखओवसमनिष्फण्णे १, कयरे से नामे उदइएउवसमिएखइएपारिणामिअनिप्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइअं सम्मत्तं पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइएउवसमिएखइएपारिणामिअनिष्फण्णे २, कयरे से णामे उदइएउवसमिएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे ?, उदइएत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खओवसमिआई इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे उदइएउवसमिए खओव० पारिणा० ३, कयरे से णामं उदइएखइएखओवसमिएपारिणामिअणिप्फपणे ?, उदइएत्ति मणुस्से खइ सम्मत्तं खओवसमिआइं इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से नामे उदइएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फन्ने ४, कयरे से नामे उवसमिएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिप्फन्ने ?, उवसंता कसाया खइ सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई पारिणा दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः मिए जीवे, एस णं से नामे उवसमिएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फपणे ५ । भङ्गकरचना अकृच्छ्रावसेयैव । इदानीं तान्येव पञ्च भङ्गान् व्याचिख्यासुराह - 'कमरे से नामे उदइए इत्यादि, भावना पूर्वाभिहितानुगुण्येन कर्तव्या, नवरमत्रौदयिकौ पशमिकक्षायोपशमिकपारिणामिकभावनिष्पन्नस्तृतीयभङ्गो गतिचतुष्टयेऽपि संभवति, तथाहि - औदयिकी अन्यतरा गतिः नारकतिर्यग्देवगतिषु प्रथमसम्यक्त्वलाभकाले एवं उपशमभावो भवति, मनुष्यगतौ तु तत्रोपशमश्रेण्यां चौपशमिकं सम्यक्त्वं क्षायोपशमिकानीन्द्रियाणि पारिणामिकं जीवत्वमित्येवमयं भङ्गकः सर्वासु गतिषु लभ्यते, यत्विह सूत्रे प्रोक्तम्- 'उदइपत्ति मणुस्से वसंता कसाय'त्ति, तत्तु मनुष्यगत्यपेक्षयैव द्रष्टव्यं, मनुष्यत्वोदयस्योपशमश्रेण्यां कषायोपशमस्य च तस्यामेव भावाद्, अस्य चोपलक्षणमात्रत्वादिति, एवमौदयिकक्षायिकक्षायोपशमिकपा| रिणामिकभावनिष्पन्नश्चतुर्थभङ्गोऽपि चतसृष्वपि गतिषु संभवति, भावना स्वनन्तरोक्ततृतीयभङ्गकवदेव कर्तव्या, नवरमौपशमिकसम्यक्त्वस्थाने क्षायिकसम्यक्त्वं वाच्यम् अस्ति च क्षायिक सम्यक्त्वं सर्वाखपि गतिषु, नारकतिर्यग्देवगतिषु पूर्वप्रतिपन्नस्यैव, मनुष्यगतौ तु पूर्वप्रतिपन्नस्य प्रतिपद्यमानकस्य च तस्यान्यत्र प्रतिपादितत्वादिति, तस्मादत्राप्येती द्वौ भङ्गको सम्भविनी, शेषास्तु त्रयः संवृतिमात्रं तद्रूपेण वस्तुन्पसम्भवादिति । साम्प्रतं पञ्चकसंयोगमेकं प्ररूपयन्नाह - For P&Pase Cly ~263~ वृत्तिः उपक्र माधि० ।। १२६ ।। www.y Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२७] गाथा |||| दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२७] / गाथा ||२४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः तत्थ णं जे से एक्के पंचगसंजोए से णं इमे अस्थि नामे उदइएउवसमिएखओवसमिएखइएपारिणामिअनिष्फण्णे १, कयरे से नामे उदइएउवसमिएखइएखओवसमिएपारिणामिअनिष्फण्णे ?, उदइपत्ति मणुस्से उवसंता कसाया खइअं सम्मत्तं खओवसमिआई इंदिआई पारिणामिए जीवे, एस णं से णामे जाव पारिणामिअroor, से तं सन्निवाइए, से तं छण्णामे (सू० १२७) अयं च सविवरणः सुगम एव केवलं क्षायिकः सम्यग्दृष्टिः सन् यः उपशमश्रेणीं प्रतिपद्यते तस्यायं भङ्गकः संभवति नान्यस्य, समुदितभावपञ्चकस्यास्य तत्रैव भावादिति परमार्थः, तदेवमेको द्विकसंयोगभङ्गको द्वौ द्वौ त्रिकयोगचतुष्कयोगभङ्गकावेकस्त्वयं पञ्चकयोग इत्येते षड् भङ्गका अत्र सम्भविनः प्रतिपादिताः, शेषास्तु विंशतिः संयोगोत्थानमात्रतयैव प्ररूपिता इति स्थितम्, एतेषु च षट्सु भङ्गकेषु मध्ये एकत्रिकसंयोगो द्वी चतुष्कसंयोगावित्येते प्रयोऽपि प्रत्येकं चतसृष्वपि गतिषु संभवन्तीति निर्णीतम्, अतो गतिचतुष्टयभेदात् ते किल द्वादश वक्ष्यन्ते, ये तु शेषा द्विकयोगत्रिकयोगपञ्चकयोग लक्षणास्त्रयो भङ्गाः सिद्धकेवल्युपशान्त४) मोहानां यथाक्रमं निर्णीताः ते यथो के केकस्थानसम्भवित्वात् श्रय एवेत्यनया विवक्षयाऽयं सान्निपातिको अनु. २२ For P&False Cly ~ 264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१२८] / गाथा ||२५|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७] वृत्तिः उपक्र माधिः गाथा ||१|| अनुयोगभावः स्थानान्तरे पञ्चदशविध उक्तो द्रष्टव्यो, यदाह-'अविरुद्धसन्निवाइयभेया एमेव पण्णरस'त्ति, 'सेतं मलधा- सण्णिवाइय'त्ति निगमनम् । उक्तः सान्निपातिको भावः, तणने चोक्काः षडपि भावाः, ते च तद्बाचकैनामरीया भिविना प्ररूपयितुं न शक्यन्त इति तद्वाचकान्यौदयिकादीनि नामान्यप्युक्तानि, एतैश्च षभिरपि धर्मा-12 ॥१२७॥ स्तिकायादेः समस्तस्यापि वस्तुनः सङ्ग्रहात् षट्प्रकारं सत् सर्वस्यापि वस्तुनो नाम पड़नामेत्यनया दिशा सर्वमिदं भावनीयं, 'से तं छपणामेति निगमनम् ॥ १२७ ॥ उक्तं षड्नाम, अथ सप्तनाम निरूपयितुमाह से किं तं सत्तनामे ?, २ सत्त सरा पण्णत्ता, तंजहा-सजे रिसहे गंधारे, मज्झिमे पंचमे सरे । रेवए चेव नेसाए, सरा सत्त विआहिआ ॥१॥ 'स्वृ शब्दोपतापयों रिति स्वरणानि खरा:-ध्वनिविशेषाः, ते च सप्त, तद्यथा-'सज्जे'त्तिश्लोको, व्याख्याषड्भ्यो जातः षड्जः, उक्तं च-"नासां कण्ठमुरस्तालु, जिहां दन्ताँश्च संश्रितः । षभिः संजायते यस्मात् , तस्मात् षड्ज इति स्मृतः॥१॥” तथा ऋषभो-वृषभस्तद्वत् यो वर्तते स ऋषभः, आह च-"वायुः समु त्थितो नाभेः, कण्ठशीर्षसमाहतः । नर्दन वृषभवद् यस्मात्, तम्मानुषभ उच्यते ॥२॥" तथा गन्धो विद्यते दयस्य स गन्धार, स एव गान्धारो-गन्धवाहविशेष इत्यर्थः, अभाणि च-"वायुः समुत्थितो नाभेहदि कण्ठे समाहतः । नानागन्धावहः पुण्यो, गान्धारस्तेन हेतुना ॥ ३ ॥” तथा मध्ये कायस्य भवो मध्यमा, यद दीप अनुक्रम [१६४-२०४] %259--58 25-45 ॥१२७।। ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१२८] / गाथा ||२५|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक -15% [१२८] 84-56-55-4 गाथा: ||१-३२|| वाचि-"वायुः समुत्थितो नाभेरुरो हृदि समाहतः । नाभिं प्राप्तो महानादो, मध्यमत्वं समश्नुते ॥४॥" तथा पश्चानां षड्जादिखराणां निर्देशक्रममाश्रित्य पूरणः पश्चमः, अथवा पञ्चसु-नाभ्यादिस्थानेषु मातीति पश्चमः खरो, यदभ्यधायि-"वायुः समुत्थितो नाभेरुरोहतकण्ठशिरोहतः । पञ्चस्थानोत्थितस्यास्य, पञ्चमत्वं विधीयते ॥ ५॥" तथाऽभिसन्धयतेऽनुसंधयति शेषस्वरानिति निरुक्तिवशाद्धैवतः, यदुक्तम्-"अभिसंधयते यस्मादेतान् पूर्वोदितखरान् । तस्मादस्य खरस्यापि, धैवतवं विधीयते ॥६॥" पाठान्तरेण रैवतश्चैवेति, तथा निषीदन्ति खरा यस्मिन् स निषादः, यतोऽभिहितम्-"निषीदन्ति स्वरा यस्मिनिषादस्तेन हेतुना । सर्वांश्वामिभवत्येव, यदादित्योऽस्य दैवतम् ॥७॥" इति, तदेवं खरा:-जीवाजीवनिधितध्वनिविशेषाः 'सत्त वियाहियत्ति विविधप्रकारराख्यातास्तीर्थकरगणधरैरिति श्लोकार्थः। आह-ननु कारणभेदेन कार्यस्य भेदात् खराणां च जिहादिकारणजन्यत्वात् तद्वतां च द्वीन्द्रियादित्रसजीवानामसख्येयत्वाजीवनिसृता अपि तावत् खरा असख्याताः प्राप्नुवन्ति किमुताजीवनिमृता इति कथं सप्तसङ्ख्यानियमो न विरुध्यत इति ?, अन्रोच्यते, असन्ख्यातानामपि स्वरविशेषाणामेतेष्वेव सप्तसु सामान्यखरेध्वन्तर्भावाद बादराणां चा केषाश्चिदेवोपलभ्यमानविशिष्टव्यक्तीनां ग्रहणाद्गीतोपकारिणां विशिष्टखराणां वक्तुमिष्टवाददोष इति । खरानामतो निरूप्य कारणतस्तानेवाभिधित्सुराह १ नवाक्षरोऽयं पदः. % दीप अनुक्रम [१६४-२०४] %25646400-% ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१२८] / गाथा ||२६-३१|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८] अनुयोग मलधारीया वृत्तिः उपकमाधि ॥१२८॥ गाथा: ||१-३२|| एएसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरट्टाणा पण्णत्ता, तंजहा-सज्जं च अग्गजीहाए, उरेण रिसहं सरं । कंटुग्गएण गंधारं, मज्झजीहाएँ मज्झिमं ॥२॥ नासाए पंचम बूआ, दंतोटेण अ रेवतं । भमुहक्खेवेण णेसाह, सरट्ठाणा विआहिआ ॥३॥ सत्त सरा जीवणिस्सिआ पण्णत्ता, तंजहा-सजं रखइ मऊरो, कुकुडो रिसभं सरं। हंसो रवइ गंधारं, मज्झिमं च गवेलगा॥ ४ ॥ अह कुसुमसंभवें काले, कोइला पंचम सरं । छटुं च सारसा कुंचा, नेसायं सत्तमं गओ॥ ५॥ सत्तसरा अजीवनिस्सिआ पण्णत्ता, तंजहा-सज रवइ मुअंगो, गोमुही रिसहं सरं । संखो रवइ गंधारं, म. ज्झिमं पुण झल्लरी ॥६॥ चउसरणपइट्ठाणा, गोहिआ पंचमं सरं। आडंबरो रेवइयं, महाभेरी अ सत्तमं ॥७॥ तत्र नाभेरुत्थितोऽविकारी स्वर आभोगतोऽनाभोगतो वा यन्त्र जिहादिस्थान प्राप्य विशेषमासादयति तत् स्वरस्योपकारकमतः खरस्थानमुच्यते, तत्र 'सन्न मित्यादिश्लोकद्वयं सुगम, नवरं चकारोऽवधारणे, षड् दीप अनुक्रम [१६४-२०४] ॥१२८॥ ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२८] / गाथा ||२६-३१|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 25% सूत्रांक [१२८] गाथा: ||१-३२|| जमेव प्रथमखरलक्षणं ब्रूयात् , कयेत्याह-अग्रभूता जिला अग्रजिह्वा जिह्वानमित्यर्थस्तया, इह ययपि षड्जभणने स्थानान्तराण्यपि कण्ठादीनि व्याप्रियन्ते अग्रजिह्वा च खरान्तरेषु व्याप्रियते तथापि सा तत्र बहुव्यापारवतीतिकृत्वा तया तमेव ब्यादित्युक्तम्, इदमत्र हृदयम्-षड्जखरोऽग्रजिह्वां प्राप्य विशिष्ट व्यक्तिमासादयत्यतस्तदपेक्षया सा खरस्थानमुच्यते, एचमन्यत्रापि भावना कार्या, उरो-वक्षस्तेन ऋषभ खरं, यादिति सर्वत्र संबध्यते, 'कंटुग्गएण'ति कण्ठादुद्गमनमुद्गतिः-स्वरनिष्पत्तिहेतुभूता क्रिया तेन कण्ठो-| द्गतेन गान्धारं, जिह्वाया मध्यो भागो मध्यजिह्वा तया मध्यमं, तथा दन्ताधीष्ठी च दन्तोष्ठं तेन धैवतं । मारवतं वेति, भृत्क्षेपावष्टम्भेन निषादमिति । इत ऊर्ध्व सर्व निगदसिद्धमेव, नवरं 'जीवनिस्सिय'त्ति जीवा-15 |श्रिताः जीवेभ्यो वा निस्ता-निर्गताः, 'सज्ज रवई'त्यादिश्लोका, रवति-नदति गवेलसि गावश्च एलकाश्चपाऊरणका गवेलकाः, अथवा गवेलका-ऊरणका एच, 'अह कुसुमे त्यादि, अथेति विशेषणार्थों, विशेषणाप्रार्थता चैवं-यथा गवेलका अविशेषेण मध्यमखरं मदन्ति न तथा पश्चम कोकिला, अपि तु वनस्पतिषु बाहु ल्येन कुसुमानां-मल्लिकापाटलादीनां सम्भवो यस्मिन् काले स तथा तस्मिन् , मधुमास इत्यर्थः, 'अजीव|निस्सिय'त्ति तथैव, नवरमजीवेष्वपि मृदङ्गादिषु जीवव्यापारोत्थापिता एवामी मन्तव्याः, अपरं षड्जादीनां मृदङ्गादिषु यद्यपि नाशाकण्ठागुत्पन्नवलक्षणो व्युत्पत्त्यर्थो न घटते तथापि सादृश्यात् तद्भावोऽवगन्तव्यः, सज्वमित्यादिश्लोकद्वयं, गोमुखी काहला यस्या मुखे गोशृङ्गादि वस्तु दीयत इति, चतुर्भिश्चरणैः प्रतिष्ठान दीप अनुक्रम [१६४-२०४] ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१२८] / गाथा ||३२-३८|| ................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८] वृत्तिः उपकमाधि० ॥१२९॥ गाथा: ||१-३२|| SACROSC अनुयो नम्-अवस्थानं भुवि यस्याः सा गोधा चौवनद्धा गोधिका-वाद्यविशेषो ददरिकेत्यपरनाम्ना प्रसिद्धा, आडमलधा-16 म्बर:-पटहः, सप्तममिति निषादमित्यर्थः। रीया एपसि णं सत्तण्हं सराणं सत्त सरलक्खणा पण्णत्ता, तंजहा-सजेण लहई वित्तिं, कयं च न विणस्सइ । गावो पुत्ता य मित्ता य, नारीणं होइ बल्लहो ॥ ८॥ रिसहेण उ एसज्ज (पसेज), सेणावच्चं धणाणि अ । वत्थगंधमलंकारं, इथिओ सयणाणि य ॥९॥ गंधारे गीतजुत्तिपणा, वजवित्ती कलाहिआ। हवंति कइणो धण्णा, जे अण्णे सत्थपारगा ॥ १०॥ मज्झिमसरमंता उ, हवंति सुहजीविणो । खायई पियई देई, मज्झिमसरमस्सिओ ॥ ११ ॥ पंचमसरमंता उ, हवंति पुहवीपई । सूरा संगहकत्तारो, अणेगगणनायगा ॥ १२ ॥ रेवयसरमंता उ, हवंति दुहजीविणो । कुंचेला य कुवित्ती य, चोरा चंडालमुट्रिया ॥ १३ ॥ णिसायसरमंता उ, होति कलहकारगा । जंघाचरा लेहवाहा, हिंडगा भारवाहगा ॥ १४ ॥ १ साउशिया गाउरिया सोयरिया य मुहिआ इति पाठानुसारिणी मृत्तिः. दीप अनुक्रम [१६४-२०४] ORE ॥१२९॥ JECT ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१२८] / गाथा ||३२-३८|| ............... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: t प्रत सूत्रांक [१२८] गाथा: ||१-३२|| एतेषां सप्तानां खराणां प्रत्येक लक्षणस्य विभिन्नत्वात् सप्त स्वरलक्षणानि-यथाखं फलप्राप्त्यव्यभिचा-15 रीणि खरतत्त्वानि भवन्ति, तान्येव फलत आह-'सजेणे'त्यादि सप्त श्लोकाः, षड्जेन लभते वृत्तिम्, अयहामर्थः-षड्जस्येदं लक्षणं-खरूपमस्ति येन तस्मिन् सति वृत्ति-जीवनं लभते प्राणी, एतच मनुष्यापेक्षया लक्ष्यते, वृत्तिलाभादीनां तत्रैव घटनात्, कृतं च न विनश्यति, तस्येति शेषः, निष्फलारम्भो न भवतीत्यर्थः, गावः पुत्राश्च मित्राणि च भवन्तीति शेषः । गान्धारे गीतयुक्तिज्ञा वर्यवृत्तयः-प्रधानजीविकाः कलाभिरधिकाः कवय:-काव्यकर्तारः प्राज्ञाः-सबोधाः ये चोक्तेभ्यो गीतयुक्तिज्ञादिभ्योऽन्ये-शास्त्रपारगाः चतुर्वेदादिशास्त्रदापारगामिनस्ते भवन्तीति । शकुनेन-इयेनलक्षणेन चरन्ति पापधि कुर्वन्ति शकुनान वा मन्तीति शाकुनिकाः, वागुरा-मृगबन्धनं तया चरन्तीति वागुरिकाः, शूकरेण सन्निहितेन शूकरवधार्थ चरति शूकरान् वा प्रन्तीति शौकरिकाः, मौष्टिका मल्ला इति । पाठान्तराण्यप्युक्तानुसारेण व्याख्येयानि ॥ एएसिणं सत्तण्हं सराणं तओ गामा पण्णता, तंजहा-सज्जगामे मज्झिमगामे गंधारगामे, सज्जगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-मग्गी कोरविआ हरिया, रयणी अ सारकंता य । छट्री अ सारसी नाम, सुद्धसज्जा य सत्तमा ॥ १५॥ मज्झिमगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा दीप अनुक्रम [१६४-२०४] ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१२८] / गाथा ||३९-४२|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० मलधा वतिः [१२८] रीया उपक्रमाधि० ॥१३०॥ गाथा: ||१-३२|| उत्तर मंदारयणी, उत्तरा उत्तरासमा । समोकंता य सोवीरा अभिरूवा होइ सत्तमा ॥ १६ ॥ गंधारगामस्स णं सत्त मुच्छणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-नंदी अ खड्डिआ पूरिमा य चउत्थी अ सुद्धगंधारा। उत्तरगंधारावि अ सा पंचमिआ हवइ मुच्छा ॥१७॥ सुट्टत्तरमायामा सा छट्ठी सव्वओ य णायव्वा । अह उत्तरायया कोडिमा य सा स त्तमी मुच्छा ॥ १८॥ एतचिरन्तनमुनिगाथाभ्यां व्याख्यायते-यथा सजाइतिहागामो, ससमूहो मुच्छणाण विन्नेओ । ता सत्त एकमेक्के तो सत्तसराण इगवीसा ॥१॥ अन्नन्नसरविसेसे उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कत्ता व मुच्छिओ इव कुणई मुच्छ व सो वत्ति ॥ २॥ कर्ता वा मूञ्छित इव ताः करोतीति मूर्च्छना उच्यन्ते, 'मुच्छ व सो वत्ति' मूर्च्छन्निव वा स कर्ता ताः करोतीति मूर्छना उच्यन्त इत्यर्थः, मङ्गीप्रभृतीनां चैकविंशतिमूर्छनानां स्वरविशेषाः पूर्वगतखरप्राभृते भणिताः, इदानीं तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतविशाखिलादिशास्त्रेभ्यो विज्ञेया इति। सत्त सरा कओ हवंति ? गीयस्स का हवइ जोणी । कइसमया ओसासा, कइ वा दीप अनुक्रम [१६४-२०४] 65S543 ॥१३॥ ~271 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२८] गाथाः ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [१६४ -२०४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१२८] / गाथा ||४३-४५ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Ehrm गीयस आगारा ॥ १९ ॥ सत सरा नाभीओ हवंति गीयं च रुइयजोणी । पायसमा ऊसासा तिष्णि य गीयस्स आगारा ॥ २० ॥ आइमउ आरभंता समुव्वहन्ता यमज्झयारंमि । अवसाणे उज्झता, तिन्निवि गीयरस आगारा ॥ २१ ॥ इह चत्वारः प्रश्नाः तत्र कुतः इति कस्मात् स्थानात् सप्त खरा उत्पद्यन्ते, का योनिरिति का जातिः, तथा कति समया येषु ते कतिसमया उच्छासाः किंपरिमाणकाला इत्यर्थः तथा आकाराः - आकृतयः स्वरूपाणि इत्यर्थः । उत्तरमाह - 'सत्तसरा नाभीओ' इत्यादिगाथा स्पष्टा, नवरं रुदितं योनिः समानरूपतया जातिर्यस्य तद् रुदितयोनिकं, पादसमा उच्छ्वासाः, यावद्भिः समयैर्वृत्तस्य पादः समाप्यते तावत्समया उच्छ्वासागीते भवन्तीत्यर्थः, आकारानाह - 'आई' गाहा, त्रयो गीतस्याकाराः-स्वरूपविशेषलक्षणा भवन्ति इति पर्यन्ते सम्बन्धः, किं कुर्वाणा इत्याह- 'आरंभन्तति आरम्भमाणा गीतमिति गम्यते, कथंभूतमित्याह - 'आइमति आदौ प्रथमतो मृदु-कोमलं आदिमृदु, तथा समुद्रहन्तश्च कुर्वन्तश्च महतीं गीतध्वनिभिति गम्यते, 'मध्यकारे' मध्यमभागे तथा अवसाने च क्षपयन्तो गीतध्वनिं मन्द्रीकुर्वन्ति इत्यर्थः, आदी मृदु मध्ये तारं पर्यन्ते मन्द्रं गीतं कर्तव्यम्, अत एते मृदुतादयस्त्रयो गीतस्याकारा भवन्तीति तास्पर्धे । किन्तु — For P&Praise Cnly ~272~ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१२८] / गाथा ||४६-४५|| ................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८] अनुयो० मलधारीया RI वृत्तिः उपक्रमाधिक ॥१३१॥ --१ गाथा: ||१-३२|| छद्दोसे अट्टगुणे तिणि अ वित्ताइं दो य भणिईओ। जो नाही सो गाहिइ, सुसिक्खिओ रंगमज्झमि ॥ २२ ॥ भीअं दुअं उप्पिच्छं उत्तालं च कमसो मुणेअव्वं । कागस्सरमणुणासं छद्दोसा होति गेअस्स ॥ २३ ॥ पुण्णं रत्तं च अलंकिअं च वत्तं च तहेवमविघुटुं। महुरं समं सुललिअं अट्र गुणा होति गेअस्स ॥ २४ ॥ उरकंठसिरविसुद्धं च गिर्जते मउअरिभिअपदबद्धं । समतालपडुक्खेवं सत्तस्सरसीभरं गीय॥२५॥ अक्खरसमं पदसम, तालसमं लयसमं च गेहसमं । नीससिओससिअसमं, संचारसमं सरा सत्त ॥ २६ ॥ निदोसं सारमंतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीअं सोवयारं च, मिअं महुरमेव य ॥ २७॥ समं अद्धसमं चेव, सव्वत्थ विसमं च ज । तिषिण वित्तपयाराई, चउत्थं नोवलब्भइ ॥ २८ ॥ सक्कया पायया चेव, भणिईओ होति दोपिण वा । सरमंडलंमि गिजते, पसत्था इसिभासिआ॥ २९ ॥ केसी गायइ महुरं केसी गायइ खरं च रुक्खं च । केसी गायइ चउर केसी अविलंबिअं दुतं केसी? ॥३०॥ दीप ASCARIC अनुक्रम [१६४-२०४] ॥१३१॥ ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२८] गाथाः | ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [१६४ -२०४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२८] / गाथा ||४६-५६ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः **+ 6 C++ विस्तरं पुण केरिसी । गाथाऽधिकमिदं । गोरी गायति महुरं सामा गायइ खरं च रुक्खं च । काली गायइ चउरं काणा य विलंबिअं दुतं अंधा ॥ ३१ ॥ विस्तरं पुण पिंगला | गाथाऽधिकमिदमपि । सत्त सरा तओ गामा मुच्छणा इक्वीसई । ताणा एगूणपणासं, सम्मत्तं सरमंडलं ॥ ३२ ॥ से तं सत्तनामे ( सू० १२८ ) षड् दोषा वर्जनीयास्तानाह - 'भीयं' गाहा भीतमुत्रस्तमानसं यद्गीयते इत्येको दोषः १, दुतं त्वरितम् २, उप्पिच्छं-श्वासयुक्तं त्वरितं च पाठान्तरेण 'रहस्स'ति हखखरं लघुशब्दमित्यर्थः ३, उत्तालम् उत्प्रा| बल्यायें अनितालमस्थानतालं चेत्यर्थः, तालस्तु कंसिकादिशब्दविशेषः ४, काकस्वरं श्लक्ष्णाश्रव्यवरम् ५, अनुनासं नासाकृतखरम् ६। एते षड् दोषा गीतस्य भवन्ति । अष्टौ गुणानाह - 'पुष्णं' गाहा, खरकलाभिः सर्वाभिरपि युक्तं कुर्वतः पूर्ण १, गेयरागेण रक्तस्य-भावितस्य रक्तम् २, अन्यान्यस्फुटशुभखरविशेषाणां करणादलङ्कृतम् ३, अक्षरखरस्फुटकरणाद्व्यक्तं ४, विक्रोशनमिव यद्विखरं न भवति तदविघुष्टं ५, मधुमत्तको किलारुतन्मधुरखरं ६, तालवंशखरादिसमनुगतं समं ७, खरघोलनाप्रकारेण सुष्ठु अतिशयेन ललतीब यत् सुकुमालं तत् सुललितम् ८, एते अष्टौ गुणा गीतस्य भवन्ति, एतद्विरहितं तु विडम्बनामात्रमेव तदिति । किं चोपलक्षणत्वादन्येऽपि गीतगुणा भवन्ति, तानाह-'डर' गाहा, चकारो गेयगुणान्तरसमुचयार्थः, उरः कण्ठ For P&Praise City ~274~ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२८] गाथा: ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [१६४-२०४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२८] / गाथा ||४६-५६|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १३२ ॥ शिरोविशुद्धं च, अयमर्थः यद्युरसि खरो विशालस्तर्छुरोविशुद्धं, कण्ठे यदि खरो वर्तितोऽतिस्फुटितश्च तदा कण्ठविशुद्धं, शिरसि प्राप्तो यदि नानुनासिकस्ततः शिरोविशुद्धम्, अथवा उरः कण्ठशिरस्सु लेष्मणाऽव्याकुलेषु विशुद्धेषु प्रशस्तेषु यज्ञीयते तदुरः कण्ठशिरोविशुद्ध, गीयते गेयमिति संबध्यते, किंविशिष्टमित्याह-मृदुकं मृदुना-अनिधुरेण खरेण यद्गीयते तन्मृदुकं यत्राक्षरेषु घोलनया संचरन् खरो रङ्गतीव तत् | घोलनाबहुलं रिङ्गितं गेयपदैर्बद्धं विशिष्टविरचनया रचितं पदबद्धं ततश्च पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'समतालपडुक्रखेवं'ति तालशब्देन हस्ततालासमुत्थ उपचाराच्छन्दो विवक्षितः मुरजकांसिकादिगीतोपका|रकातोद्यानां ध्वनिः प्रत्युत्क्षेपः नर्तकीपदप्रक्षेपलक्षणो वा प्रत्युत्क्षेपः समौ गीतखरेण तालप्रत्युत्क्षेपौ यत्र तत् समतालप्रत्युत्क्षेपं, 'सत्तस्सरसी भरं' ति सप्त खराः सीभरन्ति-अक्षरादिभिः समा यत्र तत्सप्तखरसीभरं गीतमिति, ते चामी सप्त स्वरा:- 'अक्खरसमं' गाहा, यत्र दीर्घे अक्षरे दीर्घा गीतस्वरः क्रियते हस्त्रे ह्रस्वः स्रुते लुतः सानुनासिके तु सानुनासिकः तदक्षरसमं यङ्गीतपदं - नामिकादिकं यत्र खरे अनुपाति भवति तत् तत्रैव यत्र गीते गीयते तत् पदसमं यत्परस्पराभिहतहस्ततालखरानुसारिणा खरेण गीयते तत्तालसमं शृङ्गदार्वायन्यतरवस्तुमयेनाङ्गुलीकोशकेन समाहतं, तत्रीस्वरप्रकारो लयस्तमनुसरता खरेण यद्गीयते तलयसमं, प्रथमतो वंशतयादिभियः खरो गृहीतस्तत्समेन खरेण गीयमानं ग्रहसमं, निःश्वसितोच्छुसितमानमनतिक्रमतो यङ्गेयं तन्निःश्वसितोच्छ्वसितसमं वंशतव्यादिष्वेवाङ्गुलीसवारसमं यद्गीयते तत्स For P&Pase Cly ~275~ वृत्तिः उपकमाधि० ॥ १३२ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२८] गाथा: | ॥१-३२|| दीप अनुक्रम [१६४ -२०४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२८] / गाथा ||४६-५६ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. २३ चारसमम् । एवमेते खराः सप्त भवन्ति, इदमुक्तं भवति - एकोऽपि गीतखरोऽक्षरपदादिभिः सप्तभिः स्थानैः सह समत्वं प्रतिपद्यमानः सप्तधात्वमनुभवतीत्येवं सप्त स्वरा अक्षरादिभिः समा दर्शिता भवन्तीति । गीते च यः सूत्रबन्धः सोऽष्टगुण एव कर्तव्य इत्याह- 'निहोस' मित्यादि, तत्र 'अलियमुवधायजणय मित्यादिद्वात्रिंशत्सूत्रदोषरहितं निर्दोषं १ विशिष्टार्थयुक्तं सारवत् २ गीतनिबद्धार्थगमकहेतुयुक्ततया दृष्टं हेतुयुक्तम् ३ उपमायलङ्कारयुक्तमलङ्कृतम् ४ उपसंहारोपनययुक्तमुपनीतम् ५ अनिष्ठुराविरुद्धालज्जनीयार्थवाचकं सानुप्रास वा सोपचारम् ६ अतिवचनविस्तररहितं संक्षिप्ताक्षरं मितं ७ मधुरं श्रव्यशब्दार्थ ८ गेयं भवतीति शेषः । 'तिष्णि य वित्ताई'ति यदुक्तं, तत्राह - 'सम'मित्यादि, यत्र वृत्ते चतुर्ष्वपि पादेषु सङ्ख्यया समान्यक्षराणि भवन्ति तत्समं यत्र प्रथमतृतीय यो द्वितीयचतुर्थयोश्च पादयोरक्षरसङ्ख्यासमत्वं तदर्द्धसमं यत्तु सर्वत्र सर्वपादेष्यक्षरसङ्ख्या वैषम्योपेतं तद्विषमं, 'जं'ति यस्माद्वृत्तं भवतीति शेषः, तस्मात् त्रय एव वृत्तप्रकारा भवन्ति, चतुर्थस्तु प्रकारो नोपलभ्यतेऽसत्त्वादित्यर्थः एवमन्यथाऽप्यविरोधतो व्याख्येयमिदमिति । 'दुणि य भणिइओत्ति यदुक्तं तत्राह - 'सक' त्यादि भणितिर्भाषा खरमण्डले-षड्डादिखरसमूहे, शेषं कण्ठ्यं, गीतविचारप्रस्तावादिदमपि पृच्छति - 'केसी गायई' त्यादिप्रश्नगाथा सुगमा, नवरं 'केसि'त्ति कीदृशी स्त्री इत्यर्थः, 'खरं'ति खरस्थानं, रूक्षं प्रतीतं, चतुरं दक्षम्, विलम्बितं परिमन्थरं द्रुतं शीघ्रमिति । 'विस्सरं पुण केरिसित्ति गाथाऽधिकमिदं । अत्र क्रमेणोत्तरमाह - 'गोरी गायइ महर'मित्यादि, अत्रापि 'विस्सरं पुण For P&Praise City ~276~ y Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१२८] / गाथा ||४६-५६|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२८] वृत्तिः उपक्रमाधि० गाथा: ||१-३२|| अनुयो तापिंगल'त्ति गाथाऽधिकमेव, व्याख्या सुकरैव, नवरं-पिङ्गला-कपिला इत्यर्थः । समस्तखरमण्डलसंक्षेपाभिमलधा- धानेनोपसंहरन्नाह-सत्तसरे त्यादि, ततातन्त्री तानो भषयते, तत्र षड्जादयः स्वराः प्रत्येक सप्तभिस्तानरीया र्गीयन्त इत्येवमेकोनपञ्चाशत्तानाः सप्ततत्रिकायां वीणायां भवन्तीति । एवं तदनुसारेणैकतन्त्रीकायां ॥ १३३॥STHAN त्रितत्रिकायां कण्ठेनापि वा गीयमाना एकोनपञ्चाशदेव ताना भवन्तीति । तदेवमेतैः षड्जादिभिः सप्तभि-] नामभिः सर्वस्यापि स्वरमण्डलस्याभिधानात् सप्तनामेदमुच्यते, 'से तं सत्तनामे त्ति निगमनम् ॥ १२८॥ अथाष्टनाम प्रतिपादयन्नाह से किं तं अटुनामे, २ अट्रविहा वयणविभत्ती पपणत्ता, तंजहा-निदेसे पढमा होइ, बितिआ उवएसणे । तईया करणंमि कया, चउत्थी संपयावणे ॥ १ ॥ पंचमी अ अवायाणे, छट्ठी सस्सामिवायणे । सत्तमी सण्णिहाणत्थे, अटुमाऽऽमंतणी भवे ॥२॥ तत्थ पढमा विभत्ती निद्देसे सो इमो अहं वत्ति । बिइआ पुण उवएसे भण कुणसु इमं व तं वत्ति ॥३॥ तइआ करणंमि कया भणिअंच कयं च तेण व मए वा । हंदि णमो साहाए, हवइ चउत्थी पयामि ॥४॥ अवणय गिण्ह य एत्तो इउत्ति दीप अनुक्रम [१६४-२०४] १३३॥ ~277 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२९] गाथा: ॥१-६॥ दीप अनुक्रम [२०५ -२१२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १२९] / गाथा ||५७-६२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः वा पंचमी अवाया । ट्टी तस्स इमस्स व गयस्स वा सामिसंबंधे ॥ ५ ॥ हवइ पुण सत्तमी तं इमंमि आहारकालभावे अ । आमंतणी भवे अट्टमी उ जहा हे जुवात्ति ॥ ६ ॥ से तं अट्टणामे ( सू० १२९) उच्यन्त इति वचनानि वस्तुवाचीनि विभज्यते प्रकटीक्रियते अर्थोऽनयेति विभक्तिः वचनानां विभ | क्तिर्वचनविभक्तिः, नाख्यातविभक्तिरपि तु नामविभक्तिः प्रथमादिकेति भावः, सा चाष्टविधा तीर्थकर| गणधरैः प्रशसा, का पुनरियमित्याशङ्क्य यस्मिन या विधीयते तत्सहितामष्टविधामपि विभक्तिं दर्श| यितुमाह-'तयथेत्यादि 'निद्देसे' इत्यादिश्लोकद्वयं निगदसिद्धं नवरं-लिङ्गार्थमात्रप्रतिपादनं निर्देशः, तत्र सि औ जसिति प्रथमा विभक्तिर्भवति, अन्यतरक्रियायां प्रवर्तनेच्छोत्पादनमुपदेशस्तस्मिन् अम् औ शस् इति द्वितीया विभक्तिर्भवति, उपलक्षणमात्रं चेदं, कटं करोतीत्यादिपूपदेशमन्तरेणापि द्वितीयाविधानादू, एवमन्यत्रापि यथासम्भवं वाच्यं विवक्षितक्रियासाधकतमं करणं तस्मिंस्तृतीया 'कृता' विहिता, सम्प्रदीयते यस्मै तद्गवादि दानविषयभूतं सम्प्रदानं तस्मिंश्रतुर्थी विहिता, अपादीयते वियुज्यते यस्मात् तद्वियुज्यमानावधिभूतमपादानं तत्र पञ्चमी विहिता, स्वम-आत्मीयं सचित्तादि खामी - राजादिः तयोर्वचने तत्सम्बन्धप्रतिपादने षष्ठी विहितेत्यर्थः संनिधीयते - आधीयते यस्मिंस्तत्सन्निधानम् - आधारस्तदेवार्थस्त For P&Praise Cinly ~278~ www Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१२९] / गाथा ||५७-६२|| .................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२९] ॥१३४॥ गाथा: ||१-६|| अनुयोस्मिन् सप्तमी विहिता, अष्टमी सम्युद्धिः-आमन्त्रणी भवेद्, आमन्त्रणार्थे विधीयत इत्यर्थः । एनमेवार्थ : वृत्तिः मलधा- सोदाहरणमाह-तत्थ पढमेंत्यादिगाथाश्चतस्रो गतार्था एव, नवरं प्रथमा विभक्तिर्निर्देशे, क? यधेस्याह उपक्ररीया -सोत्ति सः तथा 'इमोत्ति अयं 'अहं'त्ति अहं वाशब्द उदाहरणान्तरसूचका, उपदेशे द्वितीया, की माधि० यथेत्याह-भण कुरु वा, किं तदित्याह-'इदं' प्रत्यक्षं तद्वा-परोक्षमिति, तृतीया करणे, क? यथेत्याह-18 भणितं वा कृतं वा, केनेत्याह-तेन वा मया वेति, अत्र यद्यपि कर्तरि तृतीया प्रतीयते, तथापि विवक्षा-1 धीनत्वात् कारकप्रवृत्तेस्तेन मया वा कृत्वा भणितं कृतं वा, देवदत्तेनेति गम्यत इति, एवं करणविवक्षाऽपि| न दुष्यतीति लक्षयामः, तत्त्वं तु बहुश्रुता विदन्तीति, 'हंदि नमो साहाए'इत्यादि, हन्दीत्युपदर्शने, नमो देवेभ्यः स्वाहा अग्नये इत्यादिषु सम्प्रदाने चतुर्थी भवतीत्येके, अन्ये तूपाध्यायाय गां ददातीत्यादिष्वेव सम्प्रदाने चतुर्थीमिच्छन्ति, अपनय गृहाण एतस्मादितो वेत्येवमपादाने पञ्चमी, तस्यास्य गतस्य, कस्य ?भृत्यादेरिति गम्यते, इत्येवं खस्वामिसम्बन्धे षष्ठी, तद्वस्तु बदरादिकं अस्मिन् कुण्डादौ तिष्ठतीति गम्यते, इत्येवमाधारे सप्तमी भवति, तथा 'कालभावे अत्ति कालभावयोश्चयं द्रष्टव्या, तत्र काले यथा मधौ रमते, भावे तु चारित्रेऽवतिष्ठते, आमन्त्रणे भवेदष्टमी यथा हे युवन्निति, वृद्धवैयाकरणदर्शनेन चेयमष्टमी गण्यते, साधूनां हि प्रयह बहुपेलफरणात प्रतिकार्यमाचार्यपृच्छासद्भावान कारकोऽप्राचार्यः विवश्यते करणं च साधवसादा संगतिरत्र. १व्यायादिवत्ता तत्संज्ञाकरणात दीप अनुक्रम [२०५-२१२] 663-56-4-28-3 ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१२९] गाथा: ॥१-६॥ दीप अनुक्रम [२०५ -२१२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१२९] / गाथा ||५७-६२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ऐदयुगीनानां त्वसौ प्रथमैवेति मन्तव्यमिति । इह च नामविचारप्रस्तावात् प्रथमादिविभक्त्यन्तं नामैव गृह्यते, तथा (च्चा) ष्टविभक्तिभेदादष्टविधं भवति, न च प्रथमादिविभक्त्यन्तनामाष्टकमन्तरेणापरं नामास्ति, अतोऽनेन नामाष्टकेन सर्वस्य वस्तुनोऽभिधानद्वारेण सङ्ग्रहादष्टनामेदमुच्यते इति भावार्थ: । (ग्रन्थाग्रं० ३००० ) से तं अट्टनामेत्ति निगमनम् ॥ १२९ ॥ अथ नवनाम निर्दिशन्नाह से किं तं नवनामे ?, २ णव कव्वरसा पण्णत्ता, तंजहा - वीरो सिंगारो अब्भुओ अ रोदो अ होइ बोधव्वो । वेलणओ बीभच्छो हासो कल्लुणो पसंतो अ ॥ १ ॥ नवनाग्नि नव काव्यरसाः प्रज्ञप्ताः, तत्र कवेरभिप्रायः काव्यं, रस्यन्ते अन्तरात्मनाऽनुभूयन्त इति रसाः, तत्तत्सहकारिकारणसन्निधानोद्भूताश्चेतोविकारविशेषा इत्यर्थः, उक्तं च- “बाह्यार्थालम्बनो यस्तु, विकारो मानसो भवेत् । स भावः कथ्यते सद्भिस्तस्योत्कर्षो रसः स्मृतः ॥ १ ॥” काव्येषूपनिबद्धा रसाः काव्यरसाः- वीरशृङ्गारादयः, तानेवाह - 'वीरो सिंगारो' इत्यादिगाथा सुगमा, नवरं 'शूर वीर विक्रान्ता' विति वीर्यति - विक्रामयति त्यागतपोवैरिनिग्रहेषु प्रेरयति प्राणिनमित्युत्तमप्रकृतिपुरुषचरितश्रवणादिहेतुसमुद्भूतो दानाद्युत्साहमकर्षात्मको वीरो, रस इति सर्वत्र गम्यते, शृङ्गं सर्वरसेभ्यः परमप्रकर्ष कोटिलक्षणमियति गच्छतीति कमनीयकामिनीदर्शनादिसम्भवो रतिप्रकर्षात्मकः शृङ्गारः, सर्वरसप्रधान इत्यर्थः, अत एव For P&Praise City ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................... मूलं [१३०] / गाथा ||६३|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] रीया गाथा: ||१-२०|| अनुयो० "शृङ्गारहास्यकरुणा, रौद्रवीरभयानकाः । बीभत्साऽद्भुतशान्ताश्च, नव नाट्ये रसाः स्मृताः ॥१॥” इत्यादि-II वृत्तिः मलधा- ध्वयं सर्वरसानामादावेव पठ्यते, अन तु त्यागतपोगुणो वीररसे वर्तते, त्यागतपसी च 'त्यागो गुणो गुण-18 उपक्रशतादधिको मतो में परं लोकातिगं धाम तपः श्रुतमिति द्वय' मित्यादिवचनात् समस्तगुणप्रधान इत्यनया|| माधि विवक्षया वीररसस्यादावुपन्यास इति २, श्रुतं शिल्पं स्वागतपःशौर्यकर्मादि वा सकलभुवनातिशायि किम॥१३५॥ प्यपूर्व वस्त्वद्भुतमुच्यते, तद्दर्शनश्रवणादिभ्यो जातो रसोऽप्युपचाराद्विस्मयरूपोऽद्भुतः ३, रोदयति-अतिदारुण तया अश्रूणि मोचयतीति रौद्रं-रिपुजनमहारण्यान्धकारादि, तद्दर्शनायुद्भवो विकृताध्यवसायरूपो रसोऽपि हारौद्रः ४, ब्रीडयति-लजामुत्पादयतीति लज्जनीयवस्तुदर्शनादिप्रभवो मनोव्यलीकतादिस्वरूपो ब्रीडनका, अस्य स्थाने भयजनकसङ्ग्रामादिवस्तुदर्शनादिप्रभवो भयानको रसः पठ्यते अन्यत्र, स चेह रौद्ररसान्तर्भावधिवक्षणात् पृथग नोक्तः ५, शुक्रशोणितोचारमश्रवणाद्यनिष्टमुद्वेजनीयं वस्तु बीभत्समुच्यते, तद्दर्शनश्रवणादिप्रभवो जुगुप्साप्रकर्षवरूपो रसोऽपि बीभत्सः ६, विकृतासम्बहपरवचनवेषालङ्कारादिहास्यापदाप-12 भवो मनाप्रकर्षादिचेष्टात्मको रसोऽपि हास्यः ७, कुत्सितं रौत्यनेनेति निरुक्तवशात् करुणः, करुणास्पदत्वात् करुणः, प्रियविप्रयोगादिदुःखहेतुसमुत्था शोकप्रकर्षखरूपः करुणो रस इत्यर्थः ८, प्रशाम्यति क्रोधादिजनितौत्सुक्यरहितो भवत्यनेनेति प्रशान्तः, परमगुरुवचःश्रवणादिहेतुसमुल्लसित उपशमप्रकर्षात्मा प्रशान्तो १३५॥ रस इत्यलं विस्तरेण ९॥ एतानेव लक्षणादिद्वारेण विभणिषुर्वीररसं तावल्लक्षणतो निरूपयन्नाह दीप अनुक्रम [२१३-२३४] SSCRECORRECOR EARCHERE ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१३०] / गाथा ||६४-६५|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा: ||१-२०|| तत्थ परिच्चायंमि अ दाणतवचरणसत्तुजणविणासे अ । अणणुसयधितिपरक्कमलिंगो वीरो रसो होइ ॥२॥ वीरो रसो जहा-सो नाम महावीरो जो रज पयहिऊण पब्ब इओ । कामकोहमहासत्तू पक्खनिग्घायणं कुणइ ॥३॥ 'तत्र तेषु नवसु रसेषु मध्ये 'परित्यागे' दाने 'तपश्चरणे तपोविधाने शत्रुजनविनाशे च यथासङ्ख्यम-16 ननुशयधृतिपराक्रमचिहो वीरो रसो भवति, इदमुक्तं भवति-दाने दत्ते यदाऽनुशयो गाः पश्चात्तापो वा तं | न करोति, तपसि च कृते धृतिं करोति नार्तध्यानं, शत्रुविनाशे च पराक्रमते न तु वैलव्यमवलम्बते तदा एतैर्लिङ्गैायतेऽयं प्राणी वीररसे वर्तते. इत्येवमन्यत्रापि भावना कायेति । उदाहरणनिदर्शनार्थमाह-वीरो रसो यथेत्युपदर्शनार्थमेतत्, 'सो नाम गाहा पाठसिद्धा, नवरं वीररसवत्पुरुषचेष्टितप्रतिपादनादेवप्रकारेषु। काव्येषु वीररसः प्रतिपत्तव्य इति भावार्थः, अपरं चेहोत्तमपुरुषजेतव्यकामक्रोधादिभावशत्रुजयेनैव वीरर-15 सोदाहरणं मोक्षाधिकारिणि प्रस्तुतशास्त्रे इतरजनसाध्यसंसारकारणद्रव्यशत्रुनिग्रहस्याप्रस्तुतत्वादिति मन्तब्यमिति, एवमन्यत्रापि भावार्थोऽवगन्तव्य इति ॥ शृङ्गाररसं लक्षणतस्त्वाह संगारो नाम रसो रतिसंजोगाभिलाससंजणणो । मंडणविलासविव्वोअहासलीलारम दीप अनुक्रम [२१३-२३४] *555575645 ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३०] / गाथा ||६६-६९|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पत्ि [१३०] अनुयो. मलधारीया माधि ॥१३६॥ गाथा: ||१-२०|| णलिंगो॥४॥ सिंगारो रसो जहा-महुरविलाससललिअं हियउम्मादणकर जुवा णाणं । सामा सदुद्दामं दाएती मेहलादामं ॥५॥ शृङ्गारो नाम रसः, किंविशिष्ट इत्याह-रतीत्यादि, रतिशब्देनेह रतिकारणानि सुरतव्यापाराङ्गानि ललनादीनि गृह्यन्ते, ते साई संयोगाभिलाषसंजनका, तस्य तत्कार्यत्वादेव, तथा मण्डनबिलासविब्वोकहास्थलीलारमणानि लिङ्गं यस्य स तथा, तत्र मण्डनं कङ्कणादिभिः, विलासः-कामगर्भो रम्यो नयनादिविभ्रमो, विव्वोयत्ति देशीपदं अङ्गजविकारार्थ, हास्यं प्रतीतं, लीला-सकामगमनभाषितादिरमणीयचेष्टा, रमण-क्रीड-18 नमिति । उदाहरणमाह-'सिंगारों'इत्यादि, 'महुरंगाहा, श्यामा स्त्री मेखलादाम-रसनासूत्रं दर्शयति, प्रकटयतीत्यर्थः, कथंभूतमित्याह-रणन्मणिकिङ्किणीखरमाधुर्यान्मधुरं, तथा विलासै:-सकामैश्चेष्टाविशेषैर्ललितंमनोहारि, तथा शब्दोद्दाम-किङ्किणीखनमुखरं, किमिति तत्प्रकटयतीत्याह-पतो 'हृदयोन्मादनकर' प्रयलस्मरदीपनं यूनामिति, शृङ्गारप्रधानचेष्टाप्रतिपादनादयं शृङ्गारो रस इति ॥ अद्भुतं स्वरूपतो लक्षणतश्चाह विम्हयकरो अपुत्वो अनुभूअपुवो य जो रसो होइ । हरिसविसाउप्पत्तिलक्षणो अब्भुओ नाम ॥ ६॥ अब्भुओ रसो जहा-अब्भुअतरमिह एत्तो अन्नं किं अस्थि जीवलोगंमि । जं जिणवयणे अत्था तिकालजुत्ता मुणिजंति ? ॥७॥ दीप AMAC अनुक्रम [२१३-२३४] ॥ १३६॥ Jamacm ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३०] / गाथा ||६६-६९|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा: ||१-२०|| कस्मिंश्चिदद्भुते वस्तुनि दृष्टे विस्मयं करोति, विस्मयोत्कर्षरूपो यो रसो भवति सोऽद्भुतनामेति सफ्टङ्का, कथंभूतः ?-अपूर्वः-अननुभूतपूर्वोऽनुभूतपूर्वो चा, किंलक्षण इत्याह-हर्षविषादोत्पत्तिलक्षणः, शुभे वस्तुन्य&ाद्भुते दृष्टे हर्षजननलक्षण: अशुभे तु विषादजननलक्षण इत्यथें, उदाहरणमाह-'अब्भुय'गाहा, इह जीव लोकेऽद्भुततरम् इतो जिनवचनात् किमन्यदस्ति?, नास्तीत्यर्थः, कुत इत्याह-'यदू' यस्मालिनवचनेनार्थाः जीवादयः सूक्ष्मव्यवहिततिरोहितातीन्द्रियामूर्ताविखरूपाः अतीतानागतवर्तमानरूपत्रिकालयुक्ता अपि ज्ञायन्त इति ॥ अथ रौद्रं हेतुतो लक्षणतश्चाह भयजणणरुवसबंधयारचिंताकहासमुप्पण्णो । संमोहसंभमविसायसरणलिंगो रसो रोहो ॥८॥ रोदो रसो जहा-भिउडीविडंबिअमुहो संदट्ठोट इअ रुहिरमाकिपणो। हणसि पसुं असुरणिभो भीमरसिअ अइरोह ! रोद्दोऽसि ॥९॥ रूपं शत्रुपिशाचादीनां, शब्दस्तेषामेव, अन्धकार बहुलतमोनिकुरुम्बरूपम् , उपलक्षणवादरण्यादयश्च पदार्था इह गृह्यन्ते, तेषां भयजनकानां रूपादिपदार्थानां येयं चिन्ता-तत्स्वरूपपर्यालोचनरूपा, कथा तत्स्वरूपभणनलक्षणा, तथोपलक्षणत्वादु दर्शनादि च गृह्यते, तेभ्यः समुत्पन्नो-जातो रौद्रो रस इति योगः । किंलक्षण इत्याह-संमोहा' किंकर्तव्यत्वमूढता सम्भ्रमो-व्याकुलत्वं विषादा-किमहमत्र प्रदेश समायात दीप अनुक्रम [२१३ -२३४] ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १३० ] गाथाः | ॥१-२० ॥ दीप अनुक्रम [२१३ -२३४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १३०] / गाथा ||७०-७३|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः इत्यादिखेदखरूपः मरणं भयोद्धान्तगजसुकमालहन्तृसोमिलद्विजस्येव प्राणत्यागस्तानि 'लिङ्गं' लक्षणं यस्य + स तथा आह-ननु भयजनकरूपादिभ्यः समुत्पन्नः संमोहादिलिङ्ग भयानक एव भवति, कथमस्य रौद्रत्वं 3, ॐ सत्यं, किन्तु पिशाचादिरौद्रवस्तुभ्यो जातत्वाद् रौद्रत्वमस्य विवचितमित्यदोषः, तथा शत्रुजनादिदर्शने तच्छिरः कर्त्तनादिप्रवृत्तानां पशुशुकरकुरङ्गवधादिप्रवृत्तानां च यो रौद्राध्यवसायात्मको भ्रुकुटीभङ्गादिलिङ्गो ॥ १३७ ॥ रौद्रो रसः सोऽप्युपलक्षणत्वादत्रैव द्रष्टव्यः, अन्यथा स निरास्पद एवं स्याद्, अत एव रौद्रपरिणामवत्पुरुपचेष्टाप्रतिपादकमेवोदाहरणं दर्शयिष्यति, भीतचेष्टाप्रतिपादकं तु तत् स्वत एवाभ्यमित्यलं प्रसङ्गेन । उदाहरणमाह- 'भिउडी' गाहा, त्रिवलीतरङ्गितललाटरूपया कुड्या विडम्बितं विकृतीकृतं मुखं यस्य तत् सम्बोधनं getfastenमुख ! संदष्ठौष्ठः 'त' इति इत इतच 'रुरिमाकिण्णन्ति विक्षिप्तरुधिर इत्यर्थः, 'हंसि' व्यापादयसि पशुम्, असुरो- दानवस्तन्निभः- तत्सदृशः भीमं रसितं शब्दितं यस्य तत्सम्बोधनं हे भीमरसित ! 'अतिरौद्र' अतिशयरौद्राकृते ! रौद्रोऽसि रौद्रपरिणामयुक्तोऽसीति ॥ अथ व्रीडारसं हेतुतो लक्षणतश्चाह अनुयो० मलधा रीया विणओवयारगुज्झगुरुदारमेरावइकमुप्पण्णो । वेलणओ नाम रसो लज्जासंकाकरणलिंगो ॥ १० ॥ वेलणओ रसो जहा-किं लोइअकरणीओ लजणीअतरंति लज्जयामुत्ति । वारिजंमी गुरुयणो परिवंदइ जं वहुप्पोत्तं ॥ ११ ॥ For P&Palle Cnly ~285~ वृत्तिः उपक्र माधि० ॥ १३७ ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३०] / गाथा ||७०-७३|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत R सूत्रांक [१३०] ANCE गाथा: ||१-२०|| PI बिनयोपचारगुह्यगुरुदारमर्यादानां व्यतिक्रमः-स्थितिलघनं तदुत्पन्नो ब्रीडनको नाम रसो भवति, तत्र | 18 विनयाानां विनयोपचारव्यतिक्रमे शिष्टस्य पश्चात् ब्रीडा प्रादुरस्ति, पश्यत मया कथं पूज्यपूजाव्यतिक्रमः कृत इति?, तथा गुह्यं-रहस्यं तस्य च व्यतिक्रमेऽन्यकथनादिलक्षणे ब्रीडारसः प्रादुर्भवति, तथा गुरवः-पूज्या: पितृव्यकलाग्राहकोपाध्यायादयस्तदारथ सहाब्रह्मसेवादिलक्षणे मर्यादाव्यतिक्रमे कृते लज्जारसः प्रादुर्भव४ातीति, एवमन्योऽपि द्रष्टव्यः, किंलक्षण इत्याह-लज्जाशङ्कयोः करणं-विधानं लिङ्गं यस्य स तथा, तत्र शिरसोऽधोऽवनमनं गात्रसङ्कोचादिका लज्जा, मां न कचित् कश्चित् किश्चिद्भणिष्यतीति सर्वत्राभिशङ्कितत्वं शङ्केति । अत्रोदाहरणं-'किं लोइयगाहा, इह कचिद्देशेऽयं समाचारो, यदुत-अभिनववध्वाः खमत्रो यत् प्रथमयोन्युज्दे कृते शोणितचर्चितं तन्निवसनं अक्षतयोनिरियं न पुनरग्रेऽप्यासेवितानाचारेति संज्ञापनार्थ द प्रतिगृहं भ्राम्यते, सकलजनसमक्षं च श्वधूश्वशुरादिस्तदीयगुरुजनः सतीत्वख्यापनार्थं तद्वन्दत इति, एवं व्यवस्थिते सखीपुरतो वधूर्भणति-किं लोइयकरणीउत्ति करणी-क्रिया, ततश्च लौकिकक्रियाया-लौकिक४ कर्तव्यात् सकाशात् किमन्यल्लज्जनीयतरं ?, न किञ्चिदित्यर्थः, इत्यतो लज्जिताऽहं भवामि, किमिति?-यतो 'वारेजो' विवाहः तत्र गुरुजनो वन्दते 'वहुप्पोत्तंति वधूनिवसनमिति ॥ अथ बीभत्सं हेतुतो लक्षणतश्चाह असुइकुणिमदुईसणसंजोगब्भासगंधनिप्फण्णो । निव्वेअविहिंसालक्खणो रसो दीप अनुक्रम [२१३-२३४] ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३०] / गाथा ||७४-७५|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] अनुयो मलधा रीया ॥१३८॥ वृत्तिः उपक्रमाधि० गाथा: ||१-२०|| होइ बीभत्सो ॥ १२ ॥ बीभत्सो रसो जहा-असुइमलभरियनिज्झरसभावदुग्गंधि सव्वकालंपि । धण्णा उ सरीरकलिं बहुमलकलुसं विमुंचंति ॥ १३ ॥ अशुचि-मूत्रपुरीषादि वस्तु कुणपं-शवः अपरमपि यदुर्दर्शनं गलल्लालादिकरालं शरीरादि तेषां संयोगाभ्यासाद्-अभीक्ष्णं तद्दर्शनादिरूपात् तद्गन्धाच निष्पन्नो बीभत्सो रसो भवतीति सम्बन्धः, किंलक्षण इत्याह-निर्वेदश्च, अकारस्य लुप्सस्य दर्शनादविहिंसा च तल्लक्षणं यस्य स तथा, तत्र निर्वेदः-उद्वेगः अवि[हिंसा-जन्तुघातादिनिवृत्तिः, इह च शरीरादेरसारतामुपलभ्य हिंसादिपापेभ्यः कश्चिन्निवर्तते इत्यविहिंसाऽपि तल्लक्षणत्वेनोक्तेति । 'असुई त्यागदाहरणगाथा, इह कश्चिदुपलब्धशरीराद्यसारतास्वरूपः प्राह-कलिः-जधन्यः कालविशेषः कलहो वा तत्र सर्वानिष्टहेतुत्वात् सर्वकलहमूलत्वाद्वा शरीरमेव कलिः शरीरकलिस्तं मू त्यागेन मुक्तिगमनकाले सर्वथात्यागेन वा धन्याः केचिद्विमुञ्चन्तीति सफ्टङ्कः, कथंभूतम् ?-अशुचिमलभृतानि निर्झराणि-श्रोतादिविवराणि यस्य तत्तथा, सकालमपि खभावतो दुर्गन्धं, तथा बहुमलकलुषमिति, एवं वाचनान्तराण्यपि भावनीयानि ॥ अथ हास्यरसं हेतुलक्षणाभ्यामाह रूववयवेसभासाविवरीअविलंबणासमुप्पण्णो। हासो मणप्पहासो पगासलिंगो रसो दीप अनुक्रम [२१३-२३४] 1॥१३८॥ ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३०] / गाथा ||७६-७७|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा: ||१-२०|| होइ ॥ १४ ॥ हासो रसो जहा-पासुत्तमसीमंडिअपडिबुद्धं देवरं पलोअंती । ही जह थणभरकपणपणमिअमज्झा हसइ सामा ॥१५॥ रूपवयोवेषभाषाणां हास्योत्पादनार्थं वैपरीत्येन या विडम्बना-निवर्तना तत्समुत्पन्नो हास्यो रसो भव-1 प्रतीति संयोगः, तत्र पुरुषादेयोंषिदादिरूपकरणं रूपवैपरीत्य, तरुणादेव॒द्धादिभावापादानं वयोवपरीत्यं, राज-IX पुत्रादेर्वणिगादिवेषधारणं वेषवैपरीत्यं, गुर्जरादेस्तु मध्यदेशादिभाषाभिधानं भाषावैपरीत्यं, स च कथंभूतः कस्यादित्याह-मणप्पहासोंति मनामहर्षकारी प्रकाशो-नेनवकादिविकाशखरूपो लिङ्गं यस्य स तथा, अ-14 धवा प्रकाशानि-प्रकटान्युदरप्रकम्पनाऽहासादीनि लिङ्गानि यस्येति स तथेति ॥१४॥'पासुत्तमसीत्यादि-14 निदर्शनगाथा, इह कयाचिद्ध्वा प्रसुप्तो निजदेवरश्चसूर्या मषीमण्डनेन मण्डितः, तं प्रबुद्धं च सा हसति, तां च हसन्तीमुपलभ्य कश्चित्पार्श्ववर्तिनं कश्चिदामच्य प्राह-हीति कन्दर्पातिशयद्योतकं वचः, पश्यत भोः श्यामा स्त्री यथा हसतीति सम्बन्धः, किं कुर्वती?-देवरं प्रलोकयन्ती, कथंभूतं?-'पासुत्ते'त्यादि, छिन्नप्ररूढादिवदत्र कर्मधारयः, पूर्व प्रसुप्तश्च असौ ततो मषीमण्डितश्चासौ ततोऽपि प्रबुद्धश्च स तथा तं, कथंभूता?-स्तनभरकम्पनेन प्रणतं मध्यं यस्याः सा तथेति ॥ १५॥ अथ हेतुतो लक्षणता करुणरसखरूपमाह पिअविप्पओगबंधवहवाहिविणिवायसंभमुप्पण्णो । सोइअविलविअपम्हाणरुपणलिंगो दीप अनुक्रम [२१३-२३४] अनु.२४ ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा: ||१-२०|| दीप अनुक्रम [२१३ -२३४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १३०] / गाथा ||७८-७९|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा या ॥ १३९ ॥ रसो करुणो ॥ १६ ॥ करुणो रसो जहा- पज्झायकिलामिअयं वाहागयपप्पुअच्छिअं बहुसो । तस्स विओगे पुत्तिय ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ॥ १७ ॥ प्रियवियोगबन्धवधव्याधिविनिपातसम्भ्रमेभ्यः समुत्पन्नः करुणो रस इति योगः, तत्र विनिपातः - सुतादिमरणं सम्भ्रमः -परचक्रादिभयं, शेषं प्रतीतं, किंलक्षण इत्याह-शोचितविलपितप्रम्लानरुदितानि लिङ्गानि| लक्षणानि यस्य स तथा, तत्र शोचितं-मानसो विकारः, शेषं विदितमिति ॥ १६ ॥ 'पज्झाये' त्यागुदाहरणगाधा, अत्र प्रियविप्रयोगभ्रमितां बालां प्रति वृद्धा काचिदाह-तस्य कस्यचित् प्रियतमस्य वियोगे हे पुत्रिके! दुर्बलकं ते मुखं जातं, कथंभूतं ? - 'पज्झायकिलामितयंति प्रध्यातं प्रियजनविषयमतिचिन्तितं तेन क्लान्तं 'वाहागयपप्पु अच्छियंति वाष्पस्यागतम् आगमनं तेनोपप्लुते-व्याप्ते अक्षिणी यत्र तत्तथा, बहुश:-अभीक्ष्णमिति ॥ १७ ॥ अथ हेतुलक्षणद्वारेणैव प्रशान्तरसमुदाहरति निदोसमणसमाहाणसंभवो जो पसंतभावेणं । अविकारलक्खणो सो रसो पसंतोति णायव्व ॥ १८ ॥ पसंतो रसो जहा-सम्भावनिव्विगारं उवसंतपसंतसोमदिट्टीअं । ही जह मुणिणो सोहइ मुहकमलं पीवरसिरीअं ॥ १९ ॥ एए नव कव्वरसा बत्तीसा For P&Praise Cly ~289~ वृत्तिः उपक्र माधि० | ॥ १३९ ॥ stery Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३०] / गाथा ||८०-८२|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] गाथा: ||१-२०|| दोसविहिसमुप्पण्णा । गाहाहिं मुणियव्वा हवंति सुद्धा व मीसा वा ॥ २० ॥ से तं नवनामे (सू० १३०) निर्दोष-हिंसादिदोषरहितं यन्मनस्तस्य यत्समाधान-विषयाद्यौत्सुक्यनिवृत्तिलक्षण स्वास्थ्य तस्मात्सम्भवो, यस्य स तथा, प्रशान्तभाषेन-क्रोधादिपरित्यागेन यो भवतीति गम्यते, स प्रशान्तो रसो ज्ञातव्य इति घटना, स चाविकारलक्षणो-निर्विकारताचिह्न इत्यर्थः १८। 'सम्भावे'त्याादाहरणगाथा, प्रशान्तवदनं कश्चित्साधुमवमालोक्य कश्चित्समीपस्थितं कश्चिदाश्रित्य प्राह-हीति प्रशान्तभावातिशयद्योतका, पश्य भो! यथा मुनेर्मुख-12 कमलं शोभते, कथंभूतं?-सद्भावतो न मातृस्थानतो निर्विकारं-विभूषाधूक्षेपादिविकाररहितम् , उपशान्ता-|| रूपालोकनाद्यौत्सुक्यत्यागतः प्रशान्ता-क्रोधादिदोषपरिहारतोऽत एव सौम्य दृष्टिर्यत्र तत्तथा, अस्मादेव च पीवरश्रीकम्-उपचितोपशमलक्ष्मीकमिति॥१९॥ साम्प्रतं नवानामपि रसानां संक्षेपतः स्वरूपं कथयन्नुपसंहरन्नाह -एए नवकव' गाहा, एते नव काव्यरसाः, अनन्तरोक्तगाथाभिर्यधोक्तप्रकारेणैव 'मुणितव्या ज्ञातव्याः, दो कथंभूता?-'अलियमुबघायजणयं निरत्ययमवत्थयं छलं दुहिल'मित्यादयोऽत्रैव वक्ष्यमाणा ये द्वात्रिंशत् सूत्रदोषास्तेषां विधि:-विरचनं तस्मात् समुत्पन्नाः, इदमुक्तं भवति-अलीकतालक्षणो यस्तावत् सूत्रदोष उक्त-| स्तेन कश्चिदू रसो निष्पद्यते, यथा-'तेषां कटतटभ्रष्टैर्गजानां मदबिन्दुभिः । प्रावर्तत नदी घोरा, हस्त्यश्व SSSSTORok दीप अनुक्रम [२१३-२३४] ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३०] / गाथा ||८०-८२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] उपक्र गाथा: ||१-२०|| अनुयोरथवाहिनी ॥१॥ इत्येवंप्रकारं सूत्रमलीकतादोषदुष्ट, रसश्चायमद्भुतः, ततोऽनेनालीकतालक्षणेन सूत्रदोषे-४ वृत्तिः मलधा-राणाद्भुतो रसो निष्पना, तथा कश्चिद्रस उपघातलक्षणेन सूत्रदोषेण निवस्येते यथा-'स एव प्राणिति प्राणी, रीया पीतेन कुपितेन च । वित्तैर्विपक्षरक्तश्च, प्रीणिता येन मार्गणाः॥१॥ इत्यादिप्रकारं सूत्रं परोपघातलक्षणदो- माधि० पदुष्ट, वीररसश्चार्य, ततोऽनेनोपघातलक्षणेन सूत्रदोषेण वीररसोऽत्र निवृत्त इत्येवमन्यत्रापि यथासम्भवं सूत्र॥१४॥ दोषविधानाद्रसनिष्पत्तिर्वक्तव्या, प्रायोवृत्तिं चाश्रित्यैवमुक्तं, तपोदानविषयस्य चीररसस्य प्रशान्तादिमरसानां च कचिदनुतादिसूचदोषानन्तरेणापि निष्पत्तेरिति । पुन: किंविशिष्टा अमी भवन्तीत्याह-हति| सुद्धा व मीसा वत्ति सर्वेऽपि शुद्धा वा मिश्रा वा भवन्ति, कचित्काव्ये शुद्ध एक एव रसो निबध्यते, क-18 चित्तु द्वयादिरससंयोग इति भाव इति गाथार्थः ॥ तदेवमेतैर्वीरशृङ्गारादिभिर्नवभिर्नामभिरत्र वतुमिष्टस्य रसस्य सर्वस्याप्यभिधानान्नवनामेदमुच्यते । 'से तं नवनामे'त्ति निगमनम् ॥ १३० ॥ अथ दशनामाभि-14 धानार्थमाह से किं तं दसनामे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-गोण्णे नोगोण्णे आयाणपएणं पडिवक्खपएणं पहाणयाए अणाइअसिद्धंतेणं नामेणं अवयवेणं संजोगेणं पमाणेणं । से किं तं गोण्णे?, २ खमईत्ति खमणो तवइत्ति तवणो जलइत्ति जलणो पवइत्ति पवणो, ॥ १४०॥ दीप अनुक्रम [२१३-२३४] ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८२...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [२३५] से तं गोण्णे । से किं तं नोगुण्णे?, अकुंतो सकुंतो अमुग्गो समुग्गो अमुद्दो समुद्दो अलालं पलालं अकुलिआ सकुलिआ नो पलं असइत्ति पलासो अमाइवाहए माइवाहए अबीअवावए बीअवावए नो इंदगोवए इंदगोवे से तं नोगोण्णे । से किं तं आयाणपएणं?, २ (धम्मोमंगलं चूलिआ) आवंती चाउरंगिजं असंखयं अहातस्थिज्ज अदइज जण्णइजं पुरिसइज (उसुकारिजं) एलइज वीरियं धम्मो मग्गो समोसरणं जमइअं, से तं आयाणपएणं। गौणादिनाम्नामेव स्वरूपनिर्णयार्थमाह-से कि तं गुण्णे इत्यादि, गुणैर्निष्पन्नं गौणं, यथार्थमित्यर्थः, तच्चा-| नेकप्रकारं, तत्र क्षमत इति क्षमण इत्येतत् क्षमालक्षणेन गुणेन निष्पन्नं, तथा तपतीति तपन इत्येतत्तपनलक्षणेन गुणेन निवृत्तम् , एवं ज्वलतीति ज्वलन इतीदं ज्वलनगुणेन संभूतमित्येवमन्यदपि भावनीयम् १। 'से किं तं नोगुण्णे' इत्यादि, गुणनिष्पन्न यन्न भवति तन्नोगौणम्-अयथार्थमित्यर्थः, 'अकुंते सकुंतें' इत्यादि, अविद्यमानकुन्ताख्यपहरणविशेष एव सकुन्तत्ति पक्षी प्रोच्यत इत्ययथार्थता, एबमविद्यमानमुद्दोऽपि क| रायाधारविशेषः समुद्गः, अङ्गुल्याभरणविशेषमुद्रारहितोऽपि समुद्रो-जलराशिः, 'अलालं पलालं'ति इह ~292~ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८२...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्ति प्रत उपक्र माधि सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [२३५] अनुयो० IPमकृष्टा लाला यत्र तत्पलालं वस्तु प्राकृते पलालमुच्यते, यत्र तु पलालाभावस्तत्कथं तृणविशेषरूपं पलाल-| मलधा- मुच्यत इति, प्राकृतशैलीमङ्गीकृत्यात्रायथार्थता मन्तव्या, संस्कृते तु तृणविशेषरूपं पलालं नियुत्पत्तिकमेरीया वोच्यते इति न यथार्थायथार्थचिन्ता संभवति, 'अलिया सउलिय'त्ति अत्रापि कुलिकाभिः सह वर्तमा- नैव प्राकृते सउलियत्ति भण्यते, या तु कुलिकारहितैव पक्षिणी सा कथं सउलियत्ति?, इत्येवमिहापि प्राक॥१४१॥ तशैलीमेवाङ्गीकृत्यायथार्थता, संस्कृते तु शकुनिकैव साऽभिधीयत इति कुतस्तचिन्तासम्भवः ?, इत्येवमन्यत्राऽप्यविरोधतः सुधिया भावना कार्या, पलं-मांसमनश्नन्नपि पलाश इत्यादि तु सुगम, नवरं मातृवाहकादयो . विकलेन्द्रियजीवविशेषाः ‘से तं नोगुण्णेत्ति निगमनम् २। 'से किं तं आयाणपएणमित्यादि, आदीयतेतत्प्रथमतया उच्चारथितुमारभ्यते शास्त्रायनेनेत्यादानं तच्च तत्पदं चादानपदं, शास्त्रस्याध्ययनोद्देशकादेश्वादिपदमित्यर्थेः, तेन हेतुभूतेन किमपि नाम भवति, तच 'आवंती'त्यादि, तत्र आवंतीत्याचारस्य पश्चमाध्ययनं, तत्र वादावेव 'आवन्ती केयावन्ती'स्यालापको विद्यत इत्यादानपदेनैतन्नाम, 'चाउरंगिति एतदुत्तराध्ययनेषु तृतीयमध्ययनं, तब चादी 'चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणों' इत्यादि विद्यते, 'असंखयंति इदमप्युत्तदाराध्ययनेष्वेव चतुर्थमध्ययन, तत्र च आदावेव 'असंखयं जीविय मा पमायए' इत्येतत्पदमस्ति, ततस्तेनेदं नाम, एवमन्यान्यपि कानिचिदुत्तराध्ययनान्तर्वर्तीन्यध्ययनानि कानिचित्तु दशवकालिकसूयगडायध्ययनानि खधिया भावनीयानि । 45450564567 SANSKRRENERAGECT ॥१४॥ Jatichaar ~293~ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३१] / गाथा ||८३-८४|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा ||१-२|| से किं तं पडिवक्खपएणं?, २ नवेसु गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु संनिविस्समाणेसु असिवा सिवा अग्गी सीअलो विसं महुरं कहल्लालघरेसु अंबिलं साउअं जे रत्तए से अलत्तए जे लाउए से अलाउए जे सुभए से कुसुभए आलवंते विवलीअभासए, से तं पडिवक्खपएणं । से किं तं पाहण्णयाए ?, असोगवणे सत्तवण्णवणे चंपगवणे चूअवणे नागवणे पुन्नागवणे उच्छवणे दक्खवणे सालिवणे, से तं पाहण्णयाए। से किं तं अणाइसिद्धतेणं?, धम्मस्थिकाए अधम्मत्थिकाए आगसत्थिकाए जीवत्थिकाए पुग्गलत्थिकाए अद्धासमए, से तं अणाइयसिद्धंतेणं से किं तं नामेणं ?, २ पिउपिआमहस्स नामेणं उन्नामिजइ(ए), से तंणामेणं । से किं तं अवयवेणं?, २-सिंगी सिही विसाणी दाडी पक्खी खुरी नही वाली। दुपय चउप्पय बहुपया नंगुली केसरी कउही ॥१॥ परिअरबंधेण भडं जाणिज्जा महिलिअं निवसणेणं । सित्थेण दोणवायं कविं च इक्काए गाहाए ॥२॥ से तं अवयवेणं । दीप अनुक्रम [२३५-२३७] कामकारक ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८३-८४|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] अनुयोग मलधा रीया ॥१४॥ माधि गाथा ||१-२|| विवक्षितवस्तधर्मस्य विपरीतो धर्मों विपक्षस्तद्वाचकं पदं विपक्षपदं तनिष्पन्न किञ्चिन्नाम भवति, यथावृत्तिः शृगाली अशिवाऽप्यमाङ्गलिकशब्दपरिहारार्थ शिवा भण्यते, किं सर्वदा?, नेत्याह-नयेसु'इत्यादि, तत्र ग्रसते: बुद्ध्यादीन् गुणानिति ग्राम:-प्रतीतः, आकरो-लोहाद्युत्पत्तिस्थानं, नगर-कररहितं, खेदं-धूलीमयमाकारोपेतं, कट-कुनगरं, मडम्ब-सर्वतो दूरवर्तिसन्निवेशान्तरं, द्रोणमुर्ख-जलपथस्थलपथोपेतं, पत्तनं-नानादेशागत-II कापण्यस्थानं, तच द्विधा-जलपत्तनं स्थलपत्तनं च, रत्नभूमिरिस्यन्ये, आश्रमः-तापसादिस्थानं. सम्बाध:-अति-18 बहुप्रकारलोकसङ्कीर्णस्थानविशेषः, सनिवेशो-घोषादिरथवा ग्रामादीनां द्वन्द्व ते च ते सन्निवेशाश्चेत्येवं योभाज्यते, ततस्तेष ग्रामादिषु नूतनेषु निवेश्यमानेष्वशिवापि सा मङ्गलार्थं शिवेत्युच्यते. अन्यदा स्वनियमः.12 तथा कोऽपि कदाचित्केनापि कारणवशेनाग्निः शीतो विषं मधुरमित्याद्याचष्टे, तथा कल्पपालगृहेषु किलाम्ल|शब्दे समुचारिते सुरा विनश्यति अतोऽनिष्टशब्दपरिहारार्थमम्लं खादच्यते, तदेवमेतानि शिवादीनि विशेष-IX विषयाणि दर्शितानि, साम्प्रतं त्वविशेषतो यानि सर्वदा प्रवर्तन्ते तान्याह-'जो अलत्तए' इत्यादि, यो रक्तो लाक्षारसेन प्राकृतशैल्या कन्प्रत्ययः, स एव रश्रुतेर्लश्रुत्या अलक्तक उच्यते, तथा यदेव लाति-आवृत्ते धरति प्रक्षिप्तं जलादि वस्तु इति निरुक्तेर्लाबु तदेव अलावु तुम्बकमभिधीयते, य एव च सुम्भका शुभवर्णकारी स| एव कुसुम्भकः, आलवंते'त्ति आलपन्-अत्यर्थ लपन्नसमञ्जसमिति गम्यते, स किमित्याह-'विवलीयभासए'ति ॥१४२॥ भाषकादू विपरीतो विपरीतभाषक इति, राजदन्तादिवत् समासः, अभाषक इत्यर्थः, तथा हि सुबहसम्बद्धं दीप अनुक्रम [२३५-२३७] ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८३-८४|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] ॐॐ गाथा ||१-२|| प्रलपन्तं कञ्चिद् दृष्ट्वा लोके वक्तारो भवन्ति-अभाषक एवायं द्रष्टव्योऽसारवचनत्वादिति, प्रतिपक्षनामता यथायोगं सर्वत्र भावनीया, ननु च नोगौणादिदं न भियते इति चेत्, नैतदेवं, तस्य कुन्तादिप्रवृत्तिनिमित्ताभावमानेणयोक्तत्वादू, अस्य तु प्रतिपक्षधर्मवाचकत्वसापेक्षत्वादिति विशेषः४ । 'से किं तं पाहण्णयाएइत्यादि, प्रधानस्य भावः प्रधानता तया किमपि नाम भवति, यथा बहुष्वशोकवृक्षेषु स्तोकेष्वाम्रादिपादपेष्वशोकप्रधानं वनमशोकवनमिति नाम, सप्तपर्णाः-सप्तच्छदास्तत्प्रधानं वनं सप्तपर्णवनमित्यादि सुगम, नवरमत्राप्याह-ननु गुणनिष्पन्नादिदं न भिद्यते, नैवं, तत्र क्षमादिगुणेन क्षमणादिशब्दवाच्यस्थार्थस्य सामस्त्येन व्याप्तत्वादन्न त्वशोकादिभिरशोकवनादिशब्दवाच्यानां वनानां सामस्त्येन व्याप्तेरभावादिति भेदः ५। 'से किं तं अणाइसिद्धतेण मित्यादि, अमनं अन्तो-वाच्यवाचकरूपतया परिच्छेदोऽनादिसिद्धवासावन्तश्चानादिसिद्धान्तस्तेन, अनादिकालादारभ्येदं वाचकमिदं तु वाच्यमित्येवं सिद्धः-प्रतिष्ठितो योऽसावन्त:-परिच्छेदस्तेन किमपि नाम भवतीत्यर्थः, तच प्राण्याख्यातार्थ धर्मास्तिकायादि, एतेषां च नानामभिधेयं धर्मास्तिकायादिवस्तु न कदाचिदन्यथात्वं प्रतिपद्यते, गौणनाम्नस्तु प्रदीपादेरभिधेयं दीपकलिकादि परित्यजत्यपि खरूपमित्येतावता गौणनाम्नः पृथगेतदुक्तमिति ६ । 'से किं तं नामेण मित्यादि, नाम-पितृपितामहादेवाचकमभिधानं तेन हेतुभूतेन पुत्रपौत्रादिनाम भवति, किं पुनस्तदित्याह-'पिउपिआमहस्स नामेणं उन्नामिए'त्ति पिता च पितामहश्च तयोः समाहारस्तस्य, अथवा पितुः पितामहः पितृपितामहस्तस्य वाचकेन बन्धुदत्ता दीप अनुक्रम [२३५-२३७] ~2964 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१३१] / गाथा ||८३-८४|| .................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] वृत्तिः माधि गाथा ||१-२|| अनुयो दिनाना यः पुत्रादिनामित-पत्क्षिप्तः प्रसिद्धिं गत इतियावत् स एव नामतद्वतोरभेदोपचारानाना हेतु- मलधा- भूतेन नामोच्यते इत्यर्थः, पित्रादेर्यद्वन्धुदत्तादिनामासीत्तत्पुत्रादेरपि तदेव विधीयमानं नाना नामोच्यत रीया I इति तात्पर्यम्, 'से तं नामेणं' । 'से किं तं अवयवेण'मित्यादि, अवयवोऽवयविन एकदेशस्तेन नाम यधा 'सिंगी सिंही त्यादिगाथा, शृङ्गमस्यास्तीति शृङ्गीत्यादीन्यवयवप्रधानानि सर्वाण्यपि सुगमानि, नवरं द्विपदं॥१४३॥ रुयादि चतुष्पद-गवादि बहुपदं-कणेशृगाल्यादि, अत्रापि पावलक्षणावयवप्रधानता भावनीया, 'कहि'ति ककुद-स्कन्धासन्नोन्नतदेहावयवलक्षणमस्यास्तीति ककुदी-वृषभ इति, 'परियर गाहा परिकरबन्धेन-विशिष्टनेपथ्यरचनालक्षणेन भट-शरपुरुष जानीयात्-लक्षयेत्, तथा निवसनेन-विशिष्टरचनारचितपरिधानलक्षणेन | महिलां-स्त्री, जानीयादिति सर्वत्र सम्बध्यते, धान्यद्रोणस्य पाकः-खिन्नतारूपस्तं च तन्मध्याद्गृहीत्वा निरीसाक्षितेनैकेन सिकधेन जानीयाद, एकया च गाधया लालित्यादिकाव्यधर्मोपेतया श्रुतया कविं जानीयाद्, अय मन्त्राभिप्रायो-यदा स नेपथ्यपुरुषायवयवरूपपरिकरबन्धादिदर्शनद्वारेण भटमहिलापाककविशब्दप्रयोगं करोति तदा भटादीन्यपि नामान्यवयवप्रधानतया प्रवृत्तवादवयवनामान्युच्यन्त इति इह तदुपन्यास इति । इदं चावयवप्रधानतया प्रवृत्तत्वात् सामान्यरूपतयाऽप्रवृत्तात्वाद्गौणनानो भियत इति ८। से किं तं संजोएणं ?, संजोगे चउव्विहे पण्णते, तंजहा-दव्वसंजोगे खेत्तसंजोगे SAC45 दीप अनुक्रम [२३५-२३७] ॥१४३॥ ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] कालसंजोगे भावसंजोगे। से किं तं दध्वसंजोगे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-सचित्ते अचित्ते मीसए। से किं तं सचित्ते?.२ गोहिं गोमिए महिसीहि महिसए ऊरणीहिं ऊरणीप उद्दीहिं उद्दीवाले, से तं सचित्ते । से किं तं अचित्ते ?,२ छत्तेण छत्ती दंडेण दंडी पडेण पड़ी घडेण घडी कडेण कडी, से तं अचित्ते। से किं तं मीसए ?, २ हलेणं हालिए सगडेणं सागडिए रहेणं रहिए नावाए नाविए, से तं दव्वसंजोगे। से किं तं खित्तसंजोगे?, २ भारहे एरवए हेमवए एरण्णवए हरिबासए रम्मगवासए देवकुरुए उत्तरकुरुए पुव्वविदेहए अवरविदेहए, अहवा मागहे मालवए सोरटुए मरहट्ठए कुं. कणए, से तं खेत्तसंजोगे। से किं तं कालसंजोगे?, २ सुसमसुसमाए सुसमाए सुसमदुसमाए दुसमसुसमाए दुसमाए दुसमदुसमाए, अह्वा पावसए वासारत्तए सरदए हेमंतए वसंतए गिम्हए, से तं कालसंजोगे । से किं तं भावसंजोगे ?,२ दुबिहे पपणते, तंजहा-पसत्थे अ अपसत्थे अ । से किं तं पसत्थे ?, २ नाणेणं नाणी दंसणेणं RECSCCCCCASEARS दीप अनुक्रम २३८] %-0675%25% % R-50- ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: वृत्तिः उपक्रमाधि० प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम [२३८] अनुयो दसणी चरित्तेणं चरित्ती, से तं पसत्थे। से किं तं अपसत्थे?, २ कोहेणं कोही माणेणं मलधा माणी मायाए मायी लोहेणं लोही, से तं अपसत्थे, से तं भावसंजोगे, से तं संजोएणं। रीया संयोगः-सम्बन्धा, स चतुर्विधः प्रज्ञप्ता, तथधा-द्रव्यसंयोग इत्यादि, सर्व सूत्रसिद्धमेव, नवरं-सचित्तर॥१४४॥ व्यसंयोगेन गावोऽस्य सन्तीति गोमानित्यादि, अचित्तद्रव्यसंयोगेन छत्रमस्यास्तीति छन्त्रीत्यादि, मिश्रद्रव्यसंयोगेन हलेन व्यवहरतीति हालिक इत्यादि, अब हलादीनामचेतनवादू बलीवोनां सचेतनत्त्वान्मिश्र-12 द्रव्यता भावनीया, क्षेत्रसंयोगाधिकारे भरते जातो भरते वाऽस्य निवास इति तत्र जातः (का ०५०७) सोऽस्य निवास इति वाऽण्प्रत्यये भारतः, एवं शेषेष्वपि भावना कार्या, कालसंयोगाधिकारे सुषमसुषमायां जात इति 'सप्तमी पञ्चम्यन्ते जनेर्ड' (का०रू०६९१) इति डप्रत्यये सुषमसुषमजा एवं सुषमजादिष्वपि भापवनीयं, भावसंयोगाधिकारे भावः-पर्यायः, स च द्विधा-प्रशस्तो ज्ञानादिरप्रशस्तश्च क्रोधादिः, शेष सुगमम् , इदमपि संयोगप्रधानतया प्रवृत्तत्वागौणाद्भिद्यत इति ९॥ से किं तं पमाणेणं ?, २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-नामप्पमाणे ठवणप्पमाणे दव्वप्पमाणे भावप्पमाणे। से किं तं नामप्पमाणे?, २ जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स सा॥१४४॥ ~299~ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] दीप अनुक्रम २३८] वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयस्स वा तदुभयाण वा पमाणेत्ति नामं कजइ से तं णामप्पमाणे। अनोत्तरं-'पमाणे चउब्बितें'इत्यादि, प्रमीयते-परिच्छिद्यते वस्तु निश्चीयतेऽनेनेति प्रमाणं नामस्थापनाद्रव्यभावखरूपं चतुर्विधम् । अथ किं तन्नामप्रमाणं?, नामैव वस्तुपरिच्छेदहेतुत्वात् प्रमाणं नामप्रमाणं, तेन हेतुभूतेन किं नाम भवतीति प्रश्नाभिप्रायः, एवमन्यत्रापि भावनीयम्, अत्रोत्तरमुच्यते-यस्य जीवस्य वा अजीवस्य वा जीवानां वा अजीवानां वा तदुभयस्य वा तदुभयानां वा यत्प्रमाणमिति नाम क्रियते तन्नामप्रमाणं, न तत्स्थापनाद्रव्यभावहेतुकं, अपि तु नाममात्रविरचनमेव तत्र हेतुरिति तात्पर्यम् । से किं तं ठवणप्पमाणे १, २ सत्तविहे पण्णत्ते, तंजहा-णक्खत्तदेवयकुले पासंडगणे अ जीविआहेउं । आभिप्पाइअणामे ठवणानामं तु सत्तविहं ॥१॥से किं तं णक्खतणामे ?, २ कित्तिआहिं जाए कित्तिए कित्तिआदिपणे कित्तिआधम्मे कित्तिआसम्मे कित्तिआदेवे कित्तिआदासे कित्तिआसेणे कित्तिआरक्खिए रोहणीहि जाए रोहिणिए रोहिणिदिन्ने रोहिणिधम्मे रोहिणिसम्मे रोहिणिदेवे रोहिणिदासे रोहिणिसेणे रोहि 561875555555 अनु. २५ अत्र प्रमाणस्य भेद-प्रभेदानां वर्णनं क्रियते ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८५-९०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधिक गाथा: ॥१४५॥ ||--|| णिरक्खिए य, एवं सव्वनक्खत्तेसु नामा भाणिअब्वा। एत्थं संगहणिगाहाओ-कित्तिअरोहिणिमिगसिरअदा य पुणव्वसू अ पुस्से अ। तत्तो अ अस्सिलेसा महा उ दो फग्गुणीओ अ॥१॥ हत्थो चित्ता साती विसाहा तह य होइ अणुराहा । जेट्ठा मूला पुव्वासाढा तह उत्तरा चेव ॥२॥ अभिई सवण धणिट्रा सतभिसदा दो अ होति भद्दवया । रेवई अस्सिणि भरणी एसा नक्खत्तपरिवाडी ॥३॥ से तं नक्खत्तनामे । से किं तं देवयाणामे ?, २ अग्गिदेवयाहि जाए अग्गिए अग्गिदिपणे अग्गिसम्मे अग्गिधम्मे अग्गिदेवे अग्गिदासे अग्गिसेणे अग्गिरक्खिए एवं सव्वनक्खत्तदेवयानामा भाणिअव्वा । एत्थंपि संगहणिगाहाओ-अग्गिपयावइ सोमे रुदो अदिती विहस्सई सप्पे । पिति भग अज्जम सविआ तट्रा वाऊ अइंदग्गी ॥१॥ मित्तो इंदो निरई आऊ विस्सो अ बंभ विण्हआ। वसु वरुण अयविवद्धि पूसे आसे जमे चेव ॥२॥से तं देवयाणामे । से किं तं कुलनामे ?, २ उम्गे भोगे रायपणे खत्तिप दीप अनुक्रम [२३८ 45457 -२४७] ॥१४५॥ ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२३८ -२४७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३१] / गाथा ||८५-९०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Inte mat इक्खागे जाते कोरव्वे, से तं कुलनामे से किं तं पासंडनामे ?, २-समणे य पंडुरंगे भिक्खू कावालिए अ तावसए परिवायगे, से तं पासंडनामे । से किं तं गणनामे १, २ म मदिने मम्मे मल्लसम्मे महदेवे मल्लदासे महसेणे महरखिए, से तं गणनामे । से किं तं जीवियनामे १, २ अवकरए उक्कुरुडए उज्झिअए कज्जवए सुप्पए, से तं जीवियनामे । से किं तं आभिप्याइअनामे १, २ अंबए निंबए बकुलए पलासए सिre पिलूए करीरए, से तं आभिप्पाइअनामे से तं ठवणप्पमाणे । are fकं तत्स्थापनाप्रमाणं', 'स्थापनाप्रमाणं सप्तविध' मित्यादि, 'नक्खत' गाहा, इदमत्र हृदयं-नक्षत्रदेवताकुलपाषण्डगणादीनि वस्तुन्याश्रित्य यत्कस्यचिन्नामस्थापनं क्रियते सेह स्थापना गृह्यते, न पुनः यन्तु तदर्थवियुक्तं तदभिप्रायेण यच तत्करणी'त्यादिना पूर्व परिभाषितस्वरूपा, सैव प्रमाणं तेन हेतुभूतेन नाम सप्तविधं भवति, तत्र नक्षत्राण्याश्रित्य यन्नाम स्थाप्यते तद्दर्शयति- कृत्तिकासु जातः कार्तिकः कृत्तिकाभिर्दत्तः कृत्तिकादत्त एवं कृतिकाधर्मः कृत्तिकाशर्मः कृत्तिकादेवः कृत्तिकादासः कृत्तिकासेनः कृत्तिकारक्षितः एवमन्यान्यपि दत्वाददन्तता. Fir P&Praise Cnly ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३१] / गाथा ||८५-९०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा: ||--|| अनुयोगारोहिण्यादिसप्तविंशतिनक्षत्राण्याश्रित्य नामस्थापना द्रष्टव्या, तत्र सर्वनक्षत्रसङ्ग्रहार्थं 'कत्तिपारोहिणी'त्यादि। वृत्तिः मलधा- गाथात्रयं सुगम, नबरमभीचिनक्षत्रेण सह पश्यमानेषु नक्षत्रेषु कृत्तिकादिरेव क्रम इत्यश्विन्यादिक्रममुत्स- उपक्ररीया ज्येत्यमेव पठितवानिति, एषां चाष्टाविंशतिनक्षत्राणामधिष्ठातारः क्रमेणान्यादयोऽष्टाविंशतिरेव देवतावि- माधि शेषा भवन्त्यतः कृत्तिकादिनक्षत्रजातस्य कश्चिदिच्छादिवशतस्तदधिष्ठातृदेवता एवाश्रित्य नामस्थापनं विधत्त ॥१४६॥ इत्येतदर्शनार्थमाह-से किं तं देवयाणामें इत्यादि, अग्निदेवतासु जातः आग्निकः एवमग्निदत्तादीन्यपि, नक्षत्रदेवतानां सवहार्थम् 'अग्गी'त्यादि गाथाद्वयं, तत्र कृत्तिकानक्षत्रस्याधिष्ठाता अग्निः, रोहिण्याः प्रजापतिः, एवं मृगशिरप्रभृतीनां क्रमेण सोमो रुद्रः अदितिः बृहस्पतिः सर्पः पितृ भगः अर्यमा सविता त्वष्टा वायुः इन्द्राग्निः मित्रः इन्द्रः निऋतिः अम्भः विश्वः ब्रह्मा विष्णुः वसुः वरुणः अजः विवर्द्धिः अस्य स्थानेन्यत्र अहिर्बुधः पठ्यते, पूषा अश्वः यमश्चैवेति, 'से तं देवतानामें', 'से किं तं कुलनामें'इत्यादि, यो यस्मिन्नुग्रादिकुले जातस्तस्य तदेवोग्रादि कुलनाम स्थाप्यमानं कुलस्थापनानामोच्यत इति भावार्थः । 'से किं तं|* पासंडणामें इत्यादि, इह येन यत्पाषण्डमाश्रितं तस्य तमाम स्थाप्यमानं पाषण्डस्थापनानामाभिधीयते, तत्र 'निग्गंधसक्वतावसगेरुयआजीव पंचहा समणा' इति वचनान्निग्रंन्धादिपञ्चपापण्डान्याश्रित्य श्रमण उच्यते, ट्रा एवं नैयायिकादिपाषण्डमाश्रिताः पाण्डुराङ्गादयो भावनीयाः, नवरं भिक्षुर्बुद्धदर्शनाश्रितः। 'से किं तं गण-18| नामें इत्यादि, इह मल्लादयो गणाः, तत्र यो यस्मिन् गणे वर्तते तस्य तन्नाम गणस्थापनानामोच्यते इति, मल्ले दीप अनुक्रम [२३८ -२४७] ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२३८ -२४७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३१] / गाथा ||८५-९०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Education मल्लदिपणे इत्यादि । 'से किं तं जीविया हेड' मित्यादि, इह यस्या जातमात्रमपत्यं म्रियते सा लोकस्थितिवैचित्र्याज्जातमात्रमपि किञ्चिदपत्यं जीवननिमित्तमवकरादिष्वस्यति, तस्य चावकरकः उत्कुरुटक इत्यादि यनाम क्रियते तज्जीविकाहेतोः स्थापनानामाख्यायते, 'सुप्पए'त्ति यः सूर्षे कृत्वा त्यज्यते तस्य सूर्पक एव नाम स्थाप्यते, शेषं प्रतीतम् । 'से किं तं आभिप्पाइयनामे' इत्यादि, इह यत् वृक्षादिषु प्रसिद्धं अम्बको निम्बक इत्यादि नाम देशरूढ्या स्वाभिप्रायानुरोधतो गुणनिरपेक्षं पुरुषेषु व्यवस्थाप्यते तदाभिप्रायिकं स्थापनानामेति भावार्थः । तदेतत् स्थापनाप्रमाणनिष्पन्नं सप्तविधं नामेति । से किं तं दव्वप्यमाणे १, २ छव्विहे पण्णत्ते, तंजहा - धम्मत्थिकाए जाव अद्धासमए, से तं दव्वप्यमाणे । अयमत्र भावार्थ:-धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकाय इत्यादीनि पड् द्रव्यविषयाणि नामानि द्रव्यमेव प्रमाणं तेन निष्पन्नानि द्रव्यप्रमाणनामानि धर्मास्तिकायादिद्रव्यं विहाय न कदाचिदन्यत्र वर्तन्त इति तद्धेतुकान्युच्यन्त इति तात्पर्यम् । अनादिसिद्धान्तनामत्वेनैवैतानि प्रागुक्तानीति चेदू, उच्यतां, को दोषः ?, अनन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मापेक्षयाऽनेकव्यपदेशताया अदुष्टत्वाद्, एवमन्यत्रापि यथासम्भवं वाच्यमिति । से किं तं भावप्पमाणे १, २ चउव्विहे पण्णत्ते, तंजहा - सामासिए तद्भियए धाउए For P&Pl ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१३१] / गाथा ||९१-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधि CCTO SKAR गाथा ॥१४७॥ ||१|| निरुत्तिए। से किं तं सामासिए ?, २ सत्त समासा भवंति, तंजहा-दंदे अ बहुव्वीही, कम्मधारय दिग्गु अ । तप्पुरिस अव्वईभावे, एक्कसेसे अ सत्तमे ॥१॥से कित दंदे ?, २ दन्ताश्च ओष्ठौ च दन्तोष्टं, स्तनौ च उदरं च स्तनोदर, वस्त्रं च पात्रं च वस्त्रपात्रम्, अश्वाश्च महिषाश्च अश्वमहिषम्, अहिश्च नकुलश्च अहिनकुलं, से तं दंदे समासे । से किं तं बहुब्बीहीसमासे?, २ फुल्ला इमंमि गिरिंमि कुडयकयंबा सो इमो गिरी फुल्लियकुडयकयंबो, से तं बहुव्वीहीसमासे । से किं तं कम्मधारए ?, २ धवलो वसहो धवलवसहो, किण्हो मियो किण्हमियो, सेतो पडो सेतपडो, रत्तो पडो रत्तपडो, से तं कम्मधारए । से किं तं दिगुसमासे ?, २ तिपिण कडुगाणि तिकडुगं, तिपिण महुराणि तिमहुरं, तिणि गुणाणि तिगुणं, तिषिण पुराणि तिपुरं, तिषिण सेराणि तिसरं, तिणि पुक्खराणि तिपुक्खरं, तिपिण बिंदुआणि तिबिंदुअं, तिणि पहाणि तिपह, पंच नईओ पंचणयं, सत्त गया सत्तगयं, नव तुरंगा नवतुरंग, दस गामा दस दीप अनुक्रम [२४७-२४९] RROSTATES+ ॥१४७॥ ~305~ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूल [१३१] / गाथा ||९१-|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा ||१|| गाम, दस पुराणि दसपुरं, से तं दिगुसमासे । से किं तं तप्पुरिसे ?, २ तित्थे कागो तित्थकागो, वणे हत्थी वणहत्थी, वणे वराहो वणवराहो, वणे महिसोवणमहिसो, वणे मयूरो वणमयूरो, से तं तप्पुरिसे। से किं तं अव्वईभावे ?, २ अणुगामं अणुणइयं अणुफरिहं अणुचरिअं, से तं अब्बईभावे समासे । से किं तं एगसेसे ?, २ जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा तहा एगो पुरिसो, जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो, जहा एगो साली तहा बहवे साली जहा बहवे साली तहा एगो साली, से तं एगसेसे समासे । से तं सामासिए । भावो-युक्तार्थत्वादिको गुणः, स एव तद्वारेण वस्तुनः परिच्छिचमानखात् प्रमाणं तेन निष्पन्न-सदाश्रयेण निवृत्तं नाम सामासिकादि चतुर्विधं भवतीत्यत्र परमार्थः। तत्र 'से किं तं सामासिए' इत्यादि, द्वयोर्षहूनां |वा पदानां समसनं-संमीलनं समासस्तेन निवृत्तं सामासिकं, समासाश्च द्वन्द्वादयः सस, तब समुचयमधानो द्वन्दूर, दन्ताश्चौष्ठी च दन्तोष्ठं, स्तनौ च उदरं च स्तनोदरमिति, प्राण्यङ्गत्वात् समाहारः, वस्त्रपात्र दीप अनुक्रम [२४७-२४९] ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१३१] / गाथा ||९१-|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा ||१|| अनुयो मित्यादौ त्वप्राणिजातिवादश्वमहिषमित्यादौ पुनः शाश्वतिकवैरित्वाद, एवमन्यान्यप्युदाहरणानि भावनी-1 वृत्तिः मलधा- यानि, अन्यपदार्थप्रधानो बहुव्रीहिः पुष्पिताः कुटजकदम्बा यस्मिन् गिरी सोऽयं गिरिः पुष्पितकुटजकदम्बा, उपक्ररीया I/तत्पुरुषः समानाधिकरण: कर्मधारयः, स च धवलश्चासौ वृषभश्च धवलवृषभ इत्यादि, सन्ख्यापूर्वो द्विगु:- माधिः त्रीणि कटुकानि समाहृतानि त्रिकटुकम्, एवं त्रीणि मधुराणि समाहतानि त्रिमधुरं, पात्रादिगणे दर्शना-1 ॥१४८॥ दिह पञ्चपूलीत्यादिवत् स्त्रियामीप्प्रत्ययो न भवति, एवं शेषाण्यप्युदाहरणानि भावनीयानि, द्वितीयादिविभक्त्यन्तपदानां समासस्तत्पुरुषः, तत्र तीर्थे काक इवास्ते तीर्थकाक: ध्वाड्रेण क्षेप' (कातं०) इति सप्तमीतत्पुरुषः, शेषं प्रतीतं, पूर्वपदार्थप्रधानोऽव्ययीभावः, तत्र ग्रामस्य अनु समीपेन मध्येन वाऽशनिर्गता अनुग्रामम्, एवं नद्याः समीपेन मध्येन वा निर्गता अनुनदीत्याद्यपि भावनीयं, 'सरूपाणामेकशेष एकविभक्ता विस्यनेन सूत्रेण समानरूपाणामेकविभक्तियुक्तानां पदानामेकशेषः समासो भवति, सति समासे एकः शिष्यतेऽन्ये तु लुप्यन्ते, यश्च शेषोऽवतिष्ठते स आत्मार्थे लुप्तस्य लुप्सयोलप्सानां चार्थे वर्तते, अथ एकस्य लुप्तस्यात्मनिश्चार्थे वर्तमानात्तस्मात् द्विवचनं भवति, यथा पुरुषश्च पुरुषश्चेति पुरुषी, द्वयोश्च लुसयोरात्मनश्चार्थे वर्तमानाहहुवचनं यथा पुरुषश्च ३ पुरुषा, एवं बहूनां लुसानामात्मनश्वार्थे वर्तमानादपि बहुवचनं यथा पुरुषश्च ४ पुरुषा इति, जातिविवक्षायां तु सर्वत्रैकवचनमपि भावनीयम् । अतः सूत्रमनुश्रीयते-'जहा एगो पुरिसोत्ति|nevan यथैकः पुरुषः, एकवचनान्तः पुरुषशब्द इत्यर्थः, एकशेष समासे सति बहर्थवाचक इति शेषः, 'तहा बहवे 40-50-%-5565561545 दीप अनुक्रम [२४७-२४९] JaEcIT ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१३१] / गाथा ||९२-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा ||१|| 4% 82-%9- पुरिस'त्ति तथा बहवः पुरुषाः, बहुवचनान्तः पुरुषशब्द इत्यर्थः, एकशेष समासे सति बहर्थवाचक इति शेषः, यथा चैकशेषे समासे बहुवचनान्त: पुरुषशब्दो बह्वर्थवाचकस्तथैकवचनान्तोऽपीति न कश्चिद्विशेषा, एतदुक्तं भवति-पथा पुरुषश्च ३ इति विधाय एकपुरुषशब्दशेषता क्रियते तदा यथैकवचनान्तः पुरुषशब्दो बहान् वक्ति तथा बहुवचनान्तोऽपि, यथा बहुवचनान्तस्तथैकवचनान्तोऽपीति न कश्चिदेकवचनान्तबहुवचना-12 शान्तयोर्विशेषः, केवलं जातिविवक्षायामेकवचनं बर्थविवक्षायां तु बहुवचनमिति । एवं कार्षापणशाल्या दिष्वपि भावनीयम् । अयं च समासो बन्दूविशेष एवोच्यते, केवलमेकशेषताऽत्र विधीयते इत्येतावता | पृथगुपात्त इति लक्ष्यते, तत्त्वं तु सकलव्याकरणवेदिनो विदन्तीत्यलंमतिविजृम्भितेन, गतं सामासिकम् । से किं तं तद्धितए ?, २ अट्टविहे पण्णत्ते, तंजहा-कम्मे सिप्पसिलोए संजोगसमीवओ अ संजूहो । इस्सरिअ अवच्चेण य तद्धितणामं तु अट्टविहं ॥१॥ से किं तं कम्मणामे ?, २ तणहारए कट्टहारए पत्तहारए दोसिए सोत्तिए कप्पासिए भंडवेआलिए कोलालिए, से तं कम्मनामे । से किं तं सिप्पनामे ?, २ तुण्णए तंतुवाए पट्टकारे उपट्टे बरुडे मुंजकारे कटकारे छत्तकारे दीप अनुक्रम [२४७-२४९] ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१३१] / गाथा ||९२-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमाधि R गाथा ॥१४९॥ ||१|| वज्झकारे पोत्थकारे चित्तकारे दंतकारे लेप्पकारे सेलकारे कोहिमकारे, से तं सिप्पनामे । से किं तं सिलोअनामे ?, २ समणे माहणे सव्वातिही, से तं सिलोअनामे। से किं तं संजोगनामे १, २ रण्णो ससुरए रण्णो जामाउए रणो साले रणो भाउए रणो भगिणीवई, से तं संजोगनामे । से किं तं समीवनामे ?, २ गिरिसमीवे णयरं गिरिणयरं विदिसासमीवे णयरं वेदिसं णयरं बेन्नाए समीवे णयरं बेन्नायडं तगराए समीवे णयरं तगरायडं, से तं समीवनामे । सेकिं तं संजूहनामे?, २ तरङ्गवइकारे मलयवइकारे अत्ताणुसट्रिकारे बिंदुकारे, से तं संजूहनामे । से किं तं ईसरिअनामे?, २ राईसरे तलवरे माडंबिए कोडुबिए इब्भे सेट्री सत्यवाहे सेणावई, से तं ईसरिअनामे । से किं तं अवच्चनामे ? २ अरिहंतमाया चकवट्टिमाया बलदेवमाया वासुदेवमाया रायमाया मुणिमाया वायगमाया, से तं अवच्चनामे । से तं तद्धितए । से किं तं धाउए ?, २ भू सत्तायां परस्मैभाषा एध वृद्धौ स्पर्द्ध संहर्षे गाध प्रतिष्ठालिप्सयोर्मन्थे दीप अनुक्रम [२४९-२५१] ECRockSACROSOCIAL ॥१४९॥ ~309~ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा |||| दीप अनुक्रम [ २४९ -२५१] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३१] / गाथा ||९२-|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः चबाट लोडने से तं धाउए । से किं तं निरुत्तिए १, २ मह्यां शेते महिषः, भ्रमति च रौति च भ्रमरः मुहुर्मुहुर्लसतीति मुसलं कपेरिव लम्बते त्थेति च करोति कपित्थं चदितिकरोति खलं च भवति चिक्खलं ऊर्ध्वकर्णः उलूकः मेखस्य माला मेखला, से तं निरुत्तिए । से तं भावपमाणे । से तं पमाणनामे । से तं दसनामे से तं नामे । नामेति पयं समत्तं । ( सू० १३१ ) ततिज्ञातं तद्वितजम्, इह तद्वितशब्देन तद्धितप्राप्तिहेतुभूतोऽर्थी गृह्यते, ततो यत्रापि तुन्नाए तंतुवाए तद्धितप्रत्ययो न दृश्यते तत्रापि तद्धेतुभूतार्थस्य विद्यमानत्वात्तद्वितजत्वं सिद्धं भवति, 'कम्मे' गाहा पाठसिद्धा, नवरं श्लोक:- लाघा संयूथो- ग्रन्थरचना, एते च कर्मशिल्पादयोऽस्तद्वितप्रत्ययस्योत्पित्सोनिमित्ती भवन्तीत्येतद्भेदात्तद्वितजं नामाष्टविधमुच्यत इति भावः, तत्र कर्म तद्वितजं 'दोसिए सोत्तिए' इत्यादि, दृष्यं पण्यमस्येति दोषिकः, सूत्रं पण्यमस्येति सौत्रिकः, शेषं प्रतीतं, नवरं भाण्डविचारः कर्मास्येति भाण्डवैचारिकः, कौलालानि मृद्भाण्डानि पण्यमस्येति कोलालिकः, अत्र कापि 'तणहारए' इत्यादिपाठो दृश्यते, तत्र कश्चिदाह- नन्वन्न ततिप्रत्ययो न कश्चिदुपलभ्यते तथा वक्ष्यमाणेष्वपि 'तुन्नाए तंतुवाए' इत्या For P&Praise Cly ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१३१] / गाथा ||९२-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो [१३१] उपक्र रीया ॥१५ ॥ गाथा ||१|| दिषु नायं दृश्यते तत्किमित्येवंभूतनाम्नामिहोपन्यासः, अत्रोच्यते, अस्मादेव सूत्रोपन्यासात् तृणानि हरति-|| वृत्ति हैवहतीत्यादिकः कश्चिदायव्याकरणदृष्टस्तद्धितोत्पत्तिहेतुभूतोऽर्थों द्रष्टव्यः, ततो यद्यपि साक्षात्तद्धितप्रत्ययो । नास्ति तथापि तदुत्पत्तिनिबन्धनभूतमर्थमाश्रित्येह तन्निर्देशो न विरुध्यते, यदि तद्धितोत्पत्तिहेतुरथोंऽस्ति माधि० तर्हि तद्धितोऽपि कस्मानोत्पद्यत इति चेत् ? लोके इत्यमेव रूढत्वादिति बेमा, अथवा अस्मादेवांद्यमुनिप्रणीतसूत्रज्ञापकादेवं जानीया:-तद्धितप्रत्यया एवामी केचित् प्रतिपत्तव्या इति । अथ शिल्पतद्धितनामोच्यते वस्त्रं शिल्पमस्येति वास्त्रिका, तत्रीवादनं शिल्पमस्येति तात्रिका, तुन्नाए तंतुवाए इत्यादि प्रतीतम्, आक्षेपिपरिहारौ उक्तावेव, यह पूर्व च कचिद्वाचनाविशेषेप्रतीतं नाम दृश्यते तद्देशान्तररूढितोऽवसेयम् । अथ श्लाघातद्धितनामोच्यते-'समणे इत्यादि, श्रमणादीनि नामानि श्लाघ्येष्वर्थेषु साध्वादिषु रूढान्यतोऽस्मादेव सूत्रनिवन्धात् श्लाघ्यार्थास्तद्धितास्तदुत्पत्तिहेतुभूतमर्थमात्रं वा अत्रापि प्रतिपत्तव्यम् । संयोगत- द्वितनाम राज्ञः श्वशुर इत्यादि, अत्र सम्बन्धरूपः संयोगो गम्यते, अत्रापि चास्मादेव ज्ञापकात् तद्धितनामता, चित्रं च पूर्वगतं शब्दप्राभृतमप्रत्यक्षं च नः अतः कथमिह भावनाखरूपमस्मादृशैः सम्यगवगम्यते ।। समीपतद्धितनाम गिरिसमीपे नगरं गिरिनगरम् , अत्र 'अदूरभवश्चेत्यण (पा०४-२-७०) न भवति, गिरिनगरमित्येव प्रतीतत्वात, विदिशाया अदूरभवं नगरं वैदिशम् , अन त्वदूरभवोखणू भवत्येव, इस्थमेव रूढ-ल त्वादिति । संयूथतद्धितनाम 'तरंगवइकारए इत्यादि, तद्धिनामता चेहोत्तरत्र च पूर्ववद्भावनीया । ऐश्वर्यत दीप अनुक्रम [२४९ ॥१५ ॥ -२५१] ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१३१] / गाथा ||९२-|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३१] गाथा ||१|| द्वितनाम-राईसरें' इत्यादि, इह राजादिशब्दनिवन्धनमैश्वर्यमवगन्तव्यं, राजेश्वरादिशब्दार्थस्त्विहैव पूर्व व्याख्यात एव । अपत्यतद्धितनाम-'तित्थयरमाया' इत्यादि, तीर्थकरोऽपत्यं यस्याः सा तीर्थंकरमाता, एवमन्यत्रापि सुप्रसिद्धेनाप्रसिद्धं विशिष्यते, अत एव तीर्थकरादिभिर्मातरो विशेषिताः, तडितनामस्वभावना तथैव, गतं तद्धितनाम । अथ धातुजमुच्यते-से किं तं धाउए' इत्यादि, भूरयं परस्मैपदी धातुः सत्तालक्षमाणस्यास्य वाचकत्वेन धातुजं नामेति, एवमन्यत्रापि, अभिधानाक्षरानुसारतो निश्चितार्थस्य वचनं-भणनं, निरुक्तं तत्र भवं नैरुक्तं, तच मद्यां शेते महिष इत्यादिकं पाठसिद्धमेव, तदेवमुक्तं नैरुक्तं नाम । तगणने| चावसित भावप्रमाणनाम, तदवसाने च समर्थितं प्रमाणनाम, तत्समर्थने च समापितं गीणादिकं दशनाम, एतैरपि च दशनामभिः सर्वस्यापि वस्तुनोऽभिधानद्वारेण सङ्ग्रहाद्दशनामेवमुच्यते, तत्समाप्तौ च समाप्समुपक्रमान्तर्गतं द्वितीयं नामद्वारम्, अतः 'से तं निरुत्तिए' इत्यादि पश्च निगमनानि, नामद्वारं समाप्तम् ॥१३१॥ उक्तमुपक्रमान्तर्गतं द्वितीयं नामद्वारमथ तदन्तर्गतमेव क्रमप्राप्तं तृतीयं प्रमाणद्वारमभिधित्सुराह से कि तं पमाणे?, २ चउबिहे पण्णते, तंजहा-दव्वपमाणे खेत्तपमाणे कालप्पमाणे भावप्पमाणे (सू० १३२)। से किं तं दत्वपमाणे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहापएसनिष्कपणे अ विभागनिप्फपणे अ । से किं तं पएसनिष्फपणे ? २ परमाणुपो SHA दीप अनुक्रम [२४९-२५१] अनु. २६ METESCR अथ “प्रमाण वक्तव्यता आरभ्यते ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] वृत्तिः अनुयो उपक्रमे मलधारीया प्रमाणद्वार गाथा: ||--|| ॥१५१॥ ग्गले दुपएसिए जाव दसपएसिए संखिजपएसिए असंखिजपएसिए अणंतपएसिए, से तं पएसनिष्फण्णे। से किं तं विभागनिप्फपणे ?,२ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-माणे उम्माणे अवमाणे गणिमे पडिमाणे । से किं तं माणे ?, २ दुबिहे पण्णते, तंजहाधन्नमाणप्पमाणे अरसमाणप्पमाणे अ।से कितं धन्नमाणपमाणे १,२ दोअसईओपसई दो पसईओ सेतिया चत्तारि सेइआओ कुलओ चत्तारि कुलया पत्थो चत्तारि पत्थया आढगं चत्तारि आढगाइ दोणो सट्टि आढयाई जहन्नए कुंभे असीइ आढयाई मज्झिमए कुंभे आढयसयं उक्कोसए कुंभे अट्र य आढयसइए वाहे, एएणं धण्णमाणपमाणेणं किं पओअणं?. एएणं धण्णमाणपमाणेणं मुत्तोलीमुखइदुरअलिंदओचारसंसियाणं धण्णाणं धण्णमाणप्पमाणनिवित्तिलक्खणं भवइ, से तं धण्णमाणपमाणे । से किं तं रसमाणप्पमाणे १, २ धण्णमाणप्पमाणाओ चउभागविवहिए अभितरसि'हाजुत्ते रसमाणप्पमाणे विहिजइ, तंजहा-चउसटिआ४[चउपलपमाणा] बत्तीसिआ दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ॥१५१॥ ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .................. मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा: ||--|| ८ सोलसिआ १६ अट्रभाइआ ३२ चउभाइआ ६४ अद्धमाणी १२८ माणी २५६ दो चउसटिआओ बत्तीसिआ दो बत्तीसिआओ सोलसिआ दो सोलसिआओ अट्टभाइआ दो अटुभाइआओ चउभाइया दो चउभाइयाओ अद्धमाणी दो अद्धमाणीओ माणी, एएणं रसमाणपमाणेणं किं पओअणं?,२ एएणं रसमाणेणं वारकघडककरककलसिअगागरिदइअकरोडिअकुंडिअसंसियाणं रसाणं रसमाणप्पमाणनिवित्तिल क्खणं भवइ, से तं रसमाणपमाणे, से तं माणे। 'से किं तं पमाणे इत्यादि, प्रमीयते-परिच्छिद्यते धान्यद्रब्यायनेनेति प्रमाणम्-असतिप्रसत्यादि, अथवा इदं चेदं च खरूपमस्य भवतीत्येवं प्रतिनियतखरूपतया प्रत्येक प्रमीयते-परिच्छिद्यते यत्तत्प्रमाण-पयोक्तमेव, दायदिवा धान्यद्रव्यादेरेव प्रमिति:-परिच्छेदः स्वरूपावगमः प्रमाणम्, अन पक्षेऽसतिप्रसृत्यादेस्तदेतुत्वात् प्रमाणता, तच प्रमाणे द्रव्यादिप्रमेयवशाचतुर्विधं, तद्यथा-द्रव्यविषयं प्रमाणं द्रव्यप्रमाणम्, एवं क्षेत्रकालभावप्रमाणेष्वपि वाच्यम् ॥१३२ ।। १कुंडियघोसंसियाण प्र. दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ~314~ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] अनुयो० मलधारीया ॥१५२॥ गाथा: ||--|| तत्र द्रव्यप्रमाणं द्विविध-प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च, तत्र प्रदेशा-एकद्विश्यायणवस्तैर्निष्पन्नं प्रदेश- वृत्तिः निष्पन्न, तत्रैकप्रदेशनिष्पन्नः परमाणुः, द्विप्रदेशनिवृत्तो द्विप्रदेशिक: प्रदेशत्रयघटितस्त्रिप्रदेशिका, एवं उपक्रमे यावदनन्तः प्रदेशैः सम्पन्नोऽनन्तप्रदेशिका, नन्विदं परमाण्वादिकमनन्तप्रदेशिकस्कन्धपर्यन्तं द्रव्यमेव, तत- प्रमाणद्वार स्तस्य प्रमेयत्वात् प्रमाणता न युक्तेति चेत्, नैवं, प्रमेयस्यापि द्रव्यादेः प्रमाणतया रूढत्वात् , तथाहि-प्रस्थका-3 दिप्रमाणेन मित्वा पुञ्जीकृतं धान्यादि द्रव्यमालोक्य लोके वक्तारो भवन्ति-प्रस्थकादिरयं पुञ्जीकृतस्तिष्ठतीति, ततश्चैकद्विच्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलक्षणेन स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमाणत्वात्परमाण्चादिद्रव्यस्यापि कर्मसाधनप्रमाणशब्दवाच्यताऽदुष्टेव, करणसाधनपक्षे खेकद्वित्र्यादिप्रदेशनिष्पन्नत्वलक्षणं स्वरूपमेव मुख्यतया प्रमाण-11 मुच्यते, द्रव्यं तु तत्स्वरूपयोगादुपचारतः, भावसाधनतायां तु प्रमितेः प्रमाणप्रमेयाधीनस्वादुपचारादेव प्रमा-14 णप्रमेययोः प्रमाणताऽवगन्तव्या, तदेवं कर्मसाधनपक्षे परमाण्वादि द्रव्यं मुख्यतया प्रमाणमुच्यते, करणभावसाधनपक्षयोस्तूपचारत इत्यदोषः । इदं च यथोत्तरमन्यान्यसङ्ख्योपेतैः खगतैरेव प्रदेशनिष्पन्नत्वात्। प्रदेशनिष्पन्नमुक्तं. द्वितीयं तु स्वगतप्रदेशान् विहायापरो विविधो विशिष्टो वा भागो भङ्गो विकल्पः प्रकार इतियावत्तेन निष्पन्न विभागनिष्पन्नं, तथाहि-न धान्यमानादेः स्वगतप्रदेशाश्रयणेन स्वरूपं निरूपयिष्यते, अपि तु 'दो असईओ पसईत्यादिको यो विशिष्टः प्रकारस्तेनेति । तच्च पञ्चविधं, तद्यथा-मानम् उन्मानम् | अवमानं गणिमं प्रतिमानं, पुनरपि मानप्रमाणं द्विधा-धान्यमानप्रमाणं च रसमानप्रमाणं च, तत्र मानमेवर दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [२५३-२५६] प्रमाणं मानप्रमाणं घान्यविषयं मानप्रमाणं धान्यमानप्रमाणं, तच्च 'दो असईओं इत्यादि, अश्नुते तत्मभवत्वेन समस्तधान्यमानानि व्यामोतीत्यसतिः-अवाङ्मुखहस्ततलरूपा, तत्परिच्छिन्नं धान्यमपि तथोच्यते, तद्येन निष्पन्ना नावाकारताग्यवस्थापितमाञ्जलकरतलरूपा प्रसूतिः, द्वे च प्रसूती सेतिका, सा च नेह प्रसिद्धा गृह्यते, मागधदेशमसिदस्यैवान मानस्य प्रतिपिपादयिषितत्वाद्, अत इयं तत्पसिद्धा काचिदवगन्तब्या, चतस्रः सेतिकाः कुडवा, ते चरखारः प्रस्था, अमी चत्वार आढक इत्यादि सूत्रसिद्धमेच, याचदष्टभिराढकशतैर्निवृत्तो वाहः, अत्राह शिष्यः-एतेनासत्यादिना धान्यमानप्रमाणेन किं प्रयोजनं-किमनेन विधी यते इत्यर्थः, अत्रोत्तरं, एतेन धान्यमानप्रमाणेन 'मुक्तोलीमुखेनुरालिन्दापचारिसंश्रितानां मुक्तोल्याद्याधा& रगतानां धान्यानां धान्यस्य-पन्मानम् इयत्तालक्षणं तदेव प्रमाणं तस्य निवृत्ति-सिद्धिस्तस्या लक्षण-परि-1 ज्ञानं भवति, एतावत्र धान्यमस्तीति परिज्ञानं भवतीत्यर्थः, तत्र मुक्तोली-मोहा[दा अध उपरि च सङ्कीर्णा यामध्ये त्वीषद्विशाला कोष्टिका, मुखं गच्या उपरि यद्दीयते, सुम्बादिव्यूतं ढश्चनकादि तदिदूरं, आलिन्दक-13 कुण्डुल्कम् अपचारि-दीर्घतरधान्यकोष्ठाकारविशेषः। रसमानप्रमाणमाह-से किं तमित्यादि, रसो-मद्यादिस्तद्विषयं मानमेव प्रमाणं रसमानप्रमाणं, किमित्याह-धान्यमानप्रमाणात् सेतिकादेश्चतुर्भागविवर्जितंचतुर्भागाधिकम् अभ्यन्तरशिखायुक्तं यद् रसमानं विधीयते-क्रियते तद्रसमानप्रमाणमुच्यते, धान्यस्याद्र वरूपखात्किल शिखा भवति, रसस्य तु द्रवरूपत्वान्न शिखासम्भवोऽतो बहि:शिखाभावात् धान्यमाना-1 I ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत S सूत्रांक [१३३] अनुयो मलधारीया ॥१५३॥ गाथा: ||--|| चतुर्भागवृद्धिलक्षणया अभ्यन्तरशिखया युक्तत्वाच्चाभ्यन्तरशिखायुक्तमित्युक्तं, तद्यथा-चतुःषष्टिकेत्यादि, वृत्तिः | इदमुक्तं भवति-षड्पश्चाशदधिकशतद्वयपलमाना माणिकानाम वक्ष्यमाणं रसमानं, तस्य चतुःषष्टितमभा-|| उपक्रम गनिष्पन्ना अर्थादेव चतुष्पलप्रमाणा चतुःषष्टिका, एवं माणिकाया एव द्वात्रिंशत्तमभागवर्तित्वादष्टपल- प्रमाणद्वारं प्रमाणा द्वात्रिंशिका, तथा माणिकाया एव षोडशभागवर्तित्वात् षोडशपलप्रमाणा षोडशिका, तस्या एवाटमभागवर्तित्वात् द्वात्रिंशत्पलप्रमाणा अष्टभागिका, तस्या एव चतुर्भागवर्तित्वात् चतुःषष्टिपलमाना चतुभौगिका, तस्या एवा भागवर्तिनी अष्टाविंशत्यधिकपलशतमानार्दूमाणिका, इदं च बहुषु वाचनाविशेषेषु न दृश्यत एव, षट्पञ्चाशदधिकशतद्वयपलप्रमाणा माणिका, द्वाभ्यां चतुःषष्टिकाभ्यामेका द्वात्रिंशिका 'भवतीत्यादि गतार्थमेव, यावदेतेन रसमानप्रमाणेन किं प्रयोजनम् ?, अत्रोत्तरम्-'एतेन' रसमानप्रमाणेन वारकघटककरकगर्गरीतिककरोडिकाकुण्डिकासंश्रितानां रसाना-रसस्य यन्मानं तदेव प्रमाणं तस्य निवृत्तिः-सिद्धिस्तस्या लक्षणं-परिज्ञानं भवति, तत्रातीवविशालमुखा कुण्डिकैव करोडिका उच्यते, शेषं प्रतीतं, कचित् 'कलसिए'सि दृश्यते, तत्र लघुतर कलश एवं कलशिकेत्यभिधीयते, एवमन्यदपि वाचनान्तरमभ्यूयम् । 'सेत' मित्यादि निगमनद्वयम् । अथोन्मानमभिधित्सुराह ||१५३॥ से किं तं उम्माणे ?, २ जण्णं उम्मिणिजइ, तंजहा-अद्धकरिसो करिसो पलं अद्ध दीप अनुक्रम [२५३-२५६] CRACK EARCANESERECE ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५३ -२५६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३३] / गाथा ||९२...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः पलं अतुला तुला अद्धभारो भारो, दो अद्धकरिसा करिसो दो करिसा अद्धपलं दो अपलाई पलं पंच पलसइआ तुला दस तुलाओ अद्धभारो वीसं तुलाओ भारो, एएणं उम्माणपमाणेणं किं पओअणं ?, एएणं उम्माणपमाणेणं पत्तागरतगरचोअअकुंकुमखंडगुलमच्छंडिआईणं दव्वाणं उम्माणपमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं उम्माणपमाणे । उन्मीयते तदित्युन्मानम् उन्मीयते अनेनेति वा उन्मानमित्यादि, तत्र कर्मसाधनपक्षमधिकृत्याह - 'जं णं उम्मिणिजाई त्यादि, यदुन्मीयते - प्रतिनियतखरूपतया व्यवस्थाप्यते तदुन्मानं तद्यथा-अर्द्धकर्ष इत्यादि, पलस्याष्टमांशोऽर्द्धकर्षः, तस्यैव चतुर्भागः कर्षः, पलस्यार्द्ध अर्द्धपलमित्यादि, सबै मागधदेशप्रसिद्धं सूत्रसिद्धमेव, नवरं पलाशपन्त्रकर्मारीपत्रादिकं पत्रं, चीयओ फलविशेषः, मत्स्यण्डिका- शर्कराविशेषः । अवमानं विवक्षुराह से किं तं ओमाणे १, २ जण्णं ओमिणिज्जइ, तंजहा - हत्थेण वा दंडेण वा धणुकेण १ पंचुत्तर प्र. तुला पति कोशयोः २ अनुरु प्र. For P&Pase Cly ~318~ www Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५३ -२५६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १३३] / गाथा ||९३-९४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १५४ ॥ वा जुगेण वा नालिआए वा अक्खेण वा मुसलेण वा दंडधणू जुगनालिआ य अक्खमुसलं च चउहत्थं । दसनालिअं च रज्जुं विआण ओमाणसण्णा ॥ १ ॥ वत्थुमि हत्थमेज्जं खिते दंडं धणुं च पत्थंमि । खायं च नालिआए विआण ओमाणसण्णाए ॥ १ ॥ एए अवमाणपमाणेणं किं पओअणं ?, एएणं अवमाणपमाणेणं खायचिअकरकचियकडपडभित्तिपरिक्खेवसंसियाणं दव्वाणं अवमाणपमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं अवमाणे । से किं तं गणिमे १, २ जपणं गणिज्जइ, तंजहा- एगो दस सयं सहस्सं दस सहस्साइं सयसहस्सं दस सयसहस्साइं कोडी, एएणं गणिमप्पमाणेणं किं पओअणं ?, एएणं गणिमपमाणेणं भितगभितिभत्तवेअणआयव्ययसंसिआणं दव्वाणं गणियप्पमाणनिव्वित्तिलक्खणं भवइ, से तं गणिमे । अवमीयते परिच्छिद्यते खाताद्यनेनेति अवमानं हस्तदण्डादि, अथवा अवमीयते परिच्छिद्यते हस्तादिना यत्तदवमानं खातादि, तत्र कर्मसाधनपक्षमधिकृत्य तावदाह- 'जं णमित्यादि, यदवमीयते खातादि तदवमानं, केनावमीयते इत्याह- 'हत्थेण वा दंडेण वा' इत्यादि, तत्र हस्तो- वक्ष्यमाणखरूपञ्चतुर्विंशत्यङ्गुल For P&Praise Cnly ~ 319~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १५४ ॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१३३] / गाथा ||९३-९४|| .................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] गाथा: ||--|| मानः, अनेनैव हस्तेन चतुर्भिहस्तैर्निष्पन्ना अवमानविशेषा दण्डधनुर्युगनालिकाऽक्षमुशलरूपा षट् संज्ञा सालभ्यन्ते, अत एवाह-वंर्ड'गाहा, दण्डं धनुयुगं नालिकां चाक्षं मुशलं च करणसाधनपक्षमङ्गीकृत्याबमान-13 संज्ञया विजानीहीति सम्बन्धः, दण्डादिकं प्रत्येकं कथंभूतमित्याह-चतुर्हस्तं, दशभिर्नालिकाभिनिष्पन्नां रj च विजानीयवमानसंज्ञयेति गाथार्थः । ननु यदि दण्डादयः सर्वे चतुर्हस्तप्रमाणास्तथैकेनैव दण्डायन्यत| रोपादानेन चरितार्थत्वात् किमिति षण्णामप्युपादानम् ?, उच्यते, मेयवस्तुषु भेदेन च्याप्रियमाणत्वात् , तथा चाह-वत्थुमि'गाहा, वास्तुनि-गृहभूमौ मीयतेऽनेनेति मेयं-मानमित्यर्थः, लुसद्वितीयैकवचनत्वेन हस्तं |विजानीहीति सम्बन्धः, हस्तेनैव वास्तु मीयत इति तात्पर्यम्, क्षेत्रे-कृषिकर्मादिविषयभूते चतुर्हस्तवंशलक्षणं दण्डमेव मानं विजानीहि, धनुरादीनां चतुर्हस्तत्वे समानेऽपि रूढिवशाइण्डसंज्ञाप्रसिद्धेनैवावमानविशेषेण क्षेत्रं मीयते इति हृदयं, पथि-मार्गविषये धनुरेव मानं, मार्गगव्यूतादिपरिच्छेदो धनुःसंज्ञाप्रसिद्धेनैचावमानविशेषेण क्रियते न दण्डादिभिरिति भावः, खातं च-कूपादिना नालिकयैव यष्टिविशेषरूपया मीयत इति गम्यते, एवं युगादिरपि यस्य यत्र व्यापारो रूढस्तस्य तत्र चाच्यः, यत्कथंभूतं हस्तदण्डादिकमित्याहअवमानसंज्ञयोपलक्षितमिति गाथार्थः । एतेनावमानप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादि भावितार्थमेव, नवरं खातं-कूपादि चितं विष्टिकादि रचितं-प्रासादपीठादि ऋकचितं-करपत्रविदारितं काष्ठादि, कटादयः प्रतीता एव, परिक्षेपो-भित्यादेरेव परिधिः नगरपरिखादिर्वा, एतेषां खातादिसंमृतानामभेदेऽपि भेदवि दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३३] / गाथा ||९३-९४|| .................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] अनुयो० मलधारीया वृत्तिः उपक्रम प्रमाणद्वारं गाथा: ॥१५५॥ ||--|| कल्पनया खातादिविषयाणां द्रव्याणां खातादीनामेवेति तात्पर्यम्, अवमानमेव प्रमाणं तस्य निर्वृत्तिलक्षणं भवतीति, तदेतदवमानमिति निगमनम् । 'से किं तं गणिमे' इत्यादि, गण्यते-सख्यायते वस्त्वनेनेति गणिमम्-एकादि, अथवा गण्यते-सख्यायते यत्तदणिम-रूपकादि, तत्र कर्मसाधनपक्षमङ्गीकृत्याह-'जण्ण'- मित्यादि, गण्यते तद्दणिमं, कथं गण्यते इत्याह-'एक्को' इत्यादि, एतेन गणिमप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादि *गतार्थमेव, नवरं भृतक:-कर्मकरो भृति:-पदात्यादीनां वृत्तिः भक्तं-भोजनं चेतनक-कुविन्दादिना(दीना। व्यूतवस्त्रव्यतिकरेऽर्थप्रदानम्, एतेषु विषये आयव्ययसंश्रितानां-प्रतिबद्धानां रूपकादिद्रव्याणां गणिमप्रमाराणेन निखिलक्षणम्-इयत्तावगमरूपं भवति, तदेतद्गणिममिति । अथ प्रतिमानप्रमाण निरूपयितुमाह से किं तं पडिमाणे ?, २ जपणं पडिमिणिजइ, तंजहा-गुंजा कागणी निष्फावो कम्ममासओ मंडलओ सुवण्णो, पंच गुंजाओ कम्ममासओ कागण्यपेक्षया, चत्तारि कागणीओ कम्ममासओ तिणि निष्फावा कम्ममासओ एवं चउक्को कम्ममासओ काकण्यपेक्षयेत्यर्थः, बारस कम्ममासया मंडलओ एवं अडयालिसं कागणीओ मंडलओ सोलस कम्ममासया सुवण्णो एवं चउसद्रि कागणीओ सुवणो, एएणं पडि दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ॥१५५।। JamacXI ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३३] / गाथा ||९३-९४|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३३] SRC++% गाथा: ||--|| माणपमाणेणं किं पओअणं?, एएणं पडिमाणपमाणेणं सुवण्णरजतमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवालाईणं दव्वाणं पडिमाणप्पमाणनिवित्तिलक्षणं भवइ, से तं पडिमाणे। से तं विभागनिष्फपणे । से तं दद्वपमाणे (सू० १३३) मीयतेऽनेनेति मानं मेयस्य-सुवर्णादेः प्रतिरूपं-सदृशं मानं प्रतिमान-गुञ्जादि, अथवा प्रतिमीयते तदिति प्रतिमानं, तत्र गुञ्जा चणोठिया १ सपादा गुञ्जा काकणी २ सत्रिभागकाकण्या विभागोनगुञ्जाद्वयेन वा निवृत्तो निष्पावः ३, यो निष्पावाः कर्ममाषकः ४, द्वादश कमेंमाषका एको मण्डलका ५, षोडश कर्ममा-1 षका एकः सुवर्ण: ६ । अमुमेवार्थ किञ्चित् सूत्रेऽप्याह-पंच गुंजाओं इत्यादि, पश्च गुञ्जा एका कर्ममाषकः, अथवा चतस्रः काकण्य एकः कर्ममाषका, यदिवा त्रयो निष्पावका एकः कर्ममाषकः, इदमुक्तं भवति-अस्य प्रकारत्रयस्य मध्ये येन केनचित् प्रकारेण प्रतिभाति तेन वक्ता कर्ममाषकं प्ररूपयतु पूर्वोक्तानुसारेण, न कश्चिदर्थभेद इति । एवं 'चउक्को कम्ममासओ'इत्यादि, चतसृभिः काकिणीभिर्निष्पन्नत्वाच्चतुष्को यः कर्ममादिपक इति खरूपविशेषणमात्रमिदं, ते द्वादश कर्ममाषका एको मण्डलका, एवमष्टचत्वारिंशत्काकिणीभिर्म ण्डलको भवतीति शेषः, भावार्थः पूर्ववदेव, षोडश कर्ममाषकाः सुवर्णः, अथवा चतुःषष्टिः काकण्य एकः सुवर्णो, भावार्थः स एवं, एतेन प्रतिमानप्रमाणेन किं प्रयोजनमित्यादि गतार्थ, नवरं रजतं-रूप्यं मणयः दीप अनुक्रम [२५३-२५६] ASA4%9 4 ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३४] | गाथा ||९५-९८|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] अनुयो मलधा- रीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥ १५६॥ गाथा: ||--|| चन्द्रकान्तादयः शिला-राजपट्टका, गन्धपट इत्यन्ये, शेषं प्रतीतं, यावत्तदेतत्पतिमानप्रमाणं, तदेवं समर्थित मानोन्मानादिभेदभिन्न पञ्चविधमपि विभागनिष्पन्नं द्रव्यप्रमाणं, तत्समर्थने च समर्थितं द्रव्यप्रमाणम् ॥१३३॥ अथ क्षेत्रप्रमाणमभिधित्सुराह से किं तं खेत्तपमाणे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पएसणिप्फपणे अविभागणिफण्णे अ। से किं तं पएसणिफण्णे १, २ एगपएसोगाढे दुपएसोगाढे तिपएसोगाढे संखिजप० असंखिज्जप०, से तं पएसणिप्फपणे । से किं तं विभागणिप्फण्णे?,२-अंगुलविहत्थिरयणी कुच्छी धणु गाउअंच बोद्धव्वं । जोयण सेढी पयरं लोगमलोगेऽवि अ तहेव ॥१॥ से किं तं अंगुले ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-आयंगुले उस्सेहंगुले पमाणगुले । से किं तं आयंगुले ?, २ जे णं जया मणुस्सा भवंति तेसि णं तया अप्पणो अंगुलेणं दुवालसअंगुलाई मुहं नवमुहाई पुरिसे पमाणजुत्ते भवइ, दोषिणए पुरिसे माणजुत्ते भवइ, अद्धभारं तुल्लमाणे पुरिसे उम्माणजुत्ते भवइ,-माणुम्माणपमाणजुत्ता(णय) लक्खणवंजणगुणेहि उववेआ। उत्तमकुलप्पसूआ उत्तमपुरिसा मुणे दीप अनुक्रम ACCROCOCCC [२५७ ॥१५६॥ -२७०] ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४ ] / गाथा ||९५-९८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. २७ अव्वा ॥ १ ॥ होंतिं पुण अहिग्रपुरिसा अट्टसयं अंगुलाण उव्विद्धा । छण्णउ अहम्मपुरिसा चउत्तरं मज्झिमिल्ला उ ॥ २ ॥ हीणा वा अहिया वा जे खलु सरसत्तसारपरिहीणा । ते उत्तमपुरिसाणं अवस्स पेसत्तणमुर्वेति ॥ ३ ॥ एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पाओ दो पाया विहत्थी दो विहृत्थीओ रयणी दो रयणीओ कुच्छी दो कुच्छीओ दंडं धणू जुगे नालिआ अक्ख मुसले दो धणुसहस्साइ गाउअं चत्तारि गाउआई जोअणं । इदमपि द्विविधं प्रदेशनिष्पन्नं विभागनिष्पन्नं च तत्र प्रदेशा इह क्षेत्रस्य निर्विभागा भागास्तैर्निष्पन्नं प्रदेशनिष्पन्नं, विभाग:-पूर्वोक्तखरूपस्तेन निष्पन्नं विभागनिष्पन्नं । 'से किं तं परसनिष्कण्णे' तत्रैकप्रदेशावगा| डायस इयेयप्रदेशावगाढपर्यन्तं प्रदेशनिष्पन्नम्, एकप्रदेशाद्यवगाढताया एकादिभिः क्षेत्रप्रदेशैर्निष्पन्नत्वाद् अत्रापि प्रदेशनिष्पन्नता भावनीया, प्रमाणता त्वेकप्रदेशावगाहित्वादिना स्वस्वरूपेणैव प्रमीयमानत्वादिति । विभागनिष्पन्नं त्वङ्गुलादि, तदेवाह - 'अंगुल विहत्थि' गाहा, अङ्गुलादिखरूपं च स्वत एव शास्त्रकारो न्यक्षेण वक्ष्यति । तत्राङ्गुलखरूपनिर्द्धारणायाह- 'से किं तं अंगुले' इत्यादि, अङ्गुलं त्रिविधं प्रज्ञसं, तद्यथा For P&False Cinly ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४ ] / गाथा ||९५-९८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ १५७ ॥ आत्माङ्गुलम् उत्सेधाङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलं, तत्र ये यस्मिन् काले भरतसगरादयो मनुष्याः प्रमाणयुक्ता भवन्ति तेषां च सम्बन्धी अत्रात्मा गृश्यते, आत्मनोऽङ्गुलमात्माङ्गुलम्, अत एवाह - 'जे 'मित्यादि, ये भरतादयः प्रमाणयुक्ता यदा भवन्ति तेषां तदा स्वकीयमङ्गुलमात्माङ्गुलमुच्यत इति शेषः, इदं च पुरुषाणां कालादिभेदेनानवस्थितमानत्वादनियतप्रमाणं द्रष्टव्यम्, अनेनैवात्माङ्गुलेन पुरुषाणां प्रमाणयुक्ततादिनिर्णयं कुर्व२ न्नाह - 'अप्पणो अंगुलेणं दुबालसेत्यादि, यद्यस्यात्मीयमङ्गुलं तेनात्मनोऽङ्गुलेन द्वादशाङ्गुलानि मुखं प्रमाणयुक्तं भवति, अनेन च मुखप्रमाणेन नव मुखानि सर्वोऽपि पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवति, प्रत्येकं द्वादशाङ्गुलैनवभिर्मुखैरष्टोत्तरं शतमङ्गलानां संपद्यते, ततश्चैतावदुच्छ्रयः पुरुषः प्रमाणयुक्तो भवतीति परमार्थः । अथ तस्यैव मानयुक्तताप्रतिपादनार्थमाह-द्रोणिकः पुरुषो मानयुक्तो भवति, द्रोणी- जलपरिपूर्णा महती कुण्डिका तस्यां प्रवेशितो यः पुरुषो जलस्य द्रोणं पूर्वोक्तस्वरूपं निष्काशयति द्रोणोनजलस्योनां वा तां पूरयति स द्रोणिकः पुरुषो मानयुक्तो निगद्यते इति भावः । इदानीमेतस्यैवोन्मानयुक्ततामाह-सारपुद्गलरचितत्वात् तुलारोपितः सन्नर्द्धभारं तुलयन् पुरुष उन्मानयुक्तो भवति, तत्रोत्तमपुरुषा यथोक्तेः प्रमाणमानोन्मानैः अन्यैश्च सर्वैरेव गुणैः सम्पन्ना एव भवन्तीत्येतद्दर्शयन्नाह - 'माणुम्माण' गाहा, अनन्तरोक्तस्वरूपैर्मानोन्मानप्रमाणैर्युक्ता उत्तमपुरुषाः चक्रवर्त्यादयो मुणितव्या इति सम्बन्धः, तथा लक्षणानि शङ्खस्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि - मषीतिलकादीनि गुणाः- क्षान्त्यादयस्तैरुपेताः, तथोत्तमकुलानि उग्रादीनि तत्प्रसूता इति गाथार्थः ॥ अथात्मा For P&Pale Cy अनुयो० मलधा रीया ~ 325~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १५७ ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३४] / गाथा ||९५-९८|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| लेनैवोत्तममध्यमाधमपुरुषाणां प्रमाणमाह-हुंति पुर्ण' गाहा, भवन्ति पुनरधिकपुरुषा-उत्तमपुरुषाचक्र४ वादयः अष्टशतमङ्गलम् उब्बिद्धा-उन्मिता उच्चस्त्वेन वा, पुनःशब्दस्त्वेषामेवाधिकपुरुषादीनामनेकभे दतादर्शकः, आत्माङ्गुलेनैव षण्णवत्यकुलान्यधमपुरुषा भवन्ति, 'चउरुत्तर मज्झमिल्ला उत्ति तेनैवाङ्गुलेन चतुरुत्तरमङ्गुलशतं मध्यमाः, तुशब्दो यथानुरूपशेषलक्षणादिभावप्रतिपादनपर इति गाथार्थः । ये अष्टोत्तरशतागुलमानाद्धीना अधिका वा ते किं भवन्तीत्याह-हीणा वा' गाहा, अष्टोत्तरशताङ्गुलमानात् हीना वा अधिका वा ये खलु स्वर-सकलजनादेयत्वप्रकृतिगम्भीरतादिगुणालङ्कतो ध्वनिः सत्व-दैन्यविनिर्मुक्तो मानसोऽवष्टम्भः सार:-शुभपुद्गलोपचयजः शारीरः शक्तिविशेषः तैः परिहीनाः सन्तस्ते उत्तमपुरुषाणाम्-12 उपचितपुण्यप्रारभाराणाम् अवशा-अनिच्छन्तोऽप्यशुभकर्मवशतः प्रेष्यत्वमुपयान्ति, स्वरादिशेषलक्षणवैकल्पसहायं च यथोक्तप्रमाणादीनाधिक्यमनिष्टफलप्रदायि प्रतिपत्तव्यं, न केवलमिति लक्ष्यते, भरतचक्रवयोदीनां खाङ्गुलतो विंशत्यधिकाङ्गुलशतप्रमाणानामपि निर्णीतत्वात्, महावीरादीनां च केषाश्चिन्मतेन, चतुरशीत्याद्यङ्गुलप्रमाणत्वाद्, भवन्ति च विशिष्टाः खरादयः प्रधानफलदायिनो, यत उक्तम्-"अस्थिवर्थाः Re|सुखं मांसे, त्वचि भोगाः खियोऽक्षिषु । गती यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥१॥” इति गाधाथैः ॥ाद एतेनालप्रमाणेन पडलानि पादः, पादस्य मध्यतलप्रदेशः षडङ्गुलविस्तीर्णः, पादेकदेशत्वात् पादः, द्वी |च युग्मीकृती पादौ वितस्तिः, द्वे च वितस्ती रनिः, हस्त इत्यर्थः, रनिदयं कुक्षिा, प्रत्येक कुक्षिद्वयनिष्पन्नास्तु दीप अनुक्रम [२५७ 435-%%% -२७०] ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३४] / गाथा ||९५-९८|| ....................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत वृत्तिः सूत्रांक [१३४] अनुयो० मलधा- उपक्रमे प्रमाणद्वारे रीया ॥१५८॥ गाथा: ||--|| षट् प्रमाणविशेषा दण्डधनुर्युगनालिकाक्षमुशललक्षणा भवन्ति, तत्राक्षो-धूः शेषाश्च गतार्थाः, द्वे धनुःसहस्र गव्यूतं, चत्वारि गव्यूतानि योजनम् । एएणं आयंगुलपमाणेणं किं पओअणं ?, २ एएणं आयंगुलेणं जे णं जया मणुस्सा हवंति तेसि णं तया णं आयंगुलेणं अगडतलागदहनदीवाविपुक्खरिणीदीहियगुंजालिआओ सरा सरपंतिआओ सरसरपंतिआओ बिलपंतिआओ आरामुजाणकाणणवणवणसंडवणराईओ देउलसभापवाथूभखाइअपरिहाओ पागारअद्यालयचरिअदारगोपुरपासायघरसरणलयणआवणसिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहसगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसिविअसंदमाणिआओ लोहीलोहकडाहकडिल्लयभंडमत्तोवगरणमाईणि अजकालिआई च जोअणाई मविजंति, से समासओ तिविहे पपणत्ते, तंजहा-सूईअंगुले पयरंगुले घणंगुले, अंगुलायया एगपएसिया सेढी सूइअंगुले, सुई सूईगुणिया पयरंगुले, पयरं सूइए गुणितं घणंगुले । एएसि णं भंते! सूइअंगुलपयरंगुलघणंगु दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३४] / गाथा ||९५-९८|| .................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] 4544 गाथा: ||--|| लाणं कयरे कयरोहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा?, सव्वथोवे सूइअंगुले, पयरंगुले असंखेजगुणे, घणंगुले असंखिजगुणे, से तं आयंगुले।। गतार्थ, नवरं ये यदा मनुष्या भवन्ति तेषां तदा आत्मनोऽङ्गुलेम स्वकीयखकीयकालसम्भवीन्यवटहदादीनि मीयन्त इति सण्टङ्कः, तत्र अवट:-कूपः तडाग:-खानितो जलाशयविशेषः वाप्या-चतुरस्रा जलाशयविशेषाः, पुष्करिण्यो-वृत्तास्ता एव पुष्करवन्त्यो बा दीर्घिकाः-सारिण्यः सारिण्य एवं वक्रा गुआलिका | भण्यन्ते सरः-स्वयंसम्भूतो जलाशयविशेष एव सरपंतियाउत्ति-पतिभिर्व्यवस्थापितानि सरांसि सर:-* पतयः सरसरपंतियाउत्ति-यासु सरपतिष्वेकस्मात्सरसोऽन्यत्र ततोऽपि अन्यत्र कपाटसञ्चारकेनोदकं संचरति ताः सरासरःपतयः बिलपतयः प्रतीताः माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि येष्वारमन्ति-क्रीडन्ति ते आरामाः पुष्पफलादिसमृद्धानेकवृक्षसकुलान्युत्सवादी बहुजनपरिभोग्यान्युद्यानानि सामान्यवृक्षजातियुक्तानि नगराभ्यर्णवर्तीनि काननानि, अथवा स्त्रीणां पुरुषाणां वा केवलानां परिभोग्यानि काननानि, यदिवा येभ्यः परतो भूधरोष्टवी वा तानि सर्वेभ्योऽपि चनेभ्यः पर्यन्तवर्तीनि काननानि, शीर्णवृक्षकलितानि वा काननानि, एकजातीयवृक्षाकीर्णानि वनानि, अनेकजातीयैरुत्तमैश्च पादपैराकीर्णानि बनखण्डानि, एकजातीयानामितरेषां वा तरूणां पङ्कयो वनराजयः, सन्तो भजन्त्येतामिति सभा-पुस्तकवाचनभूमिबहुजनसमागमस्थानं या अध उपरि च समखातरूपा खातिका अधः सङ्कीर्णोपरि विस्तीर्णा खातरूपा तु - दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३४] / गाथा ||९५-९८|| ....................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] वृत्तिः गाथा: ||--|| अनुयो परिखा प्राकारोपरि आश्रयविशेषाः अद्यालकाः गृहाणा प्राकारस्य चान्तरे अष्टहस्तविस्तारो हस्त्यादिसञ्चा उपक्रमे पारमार्गश्चरिका प्रतोलीद्वाराणां परस्परतोऽन्तराणि गोपुराणि राजानां देवतानां च भवनानि प्रासादाः मलधारीया उत्सेधबहुला वा प्रासादाः गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा, शरणानि तृणमयावसरिकादीनि लयनानि-उत्कीर्णपर्वतगृहाणि गिरिगुहा वा कार्पटिकायावासस्थानं वा आपणा-हवाः नानाहगृहाध्या॥१५९॥ |सितत्रिकोणो भूभागविशेषः शृङ्गाटक, स्थापना त्रिपथसमागमो वा शृङ्गाटकं त्रिकं तु त्रिपथसमागम एव दतथा प्रभूतगृहाश्रयश्चतुरस्रो भूभागश्चतुष्कं यथा(द्वा) चतुष्पथसमागमो वा चतुष्कं, चत्वरं चतुष्पधसमागम | एच, षट्पथसमागमो वा चत्वरं, चतुर्मुखदेवकुलिकादि चतुर्मुख महान् राजमार्गों महापथः इतरे पन्थानः देव४ाकुलसभादीनि पदानि कचिद्वाचनाविशेषे अत्रैवान्तरे दृश्यन्ते, शकट-गहुकादि रथो द्विधा-पानरथः सङ्ग्रा-13 मिरचक्ष, तत्र सङ्कामरथस्योपरि प्राकारानुकारिणी कटीप्रमाणा फलकमयी वेदिका क्रियते, अपरस्य वसी[] न भवतीति विशेषः, यानं-गड्यादि जुग्गत्ति-गोल्लविषयप्रसिद्ध द्विहस्तप्रमाणं चतुरस्रवेदिकोपशोभित जम्पानं, गिल्लित्ति-हस्तिन उपरि कोल्लररूपा या मानुषंगिलतीव, थिल्लित्ति-लाटानां यदडपल्लाणं रूढ़ तद-12 हान्यविषयेषु दिल्लीत्युच्यते सीयत्ति-शिक्षिका कटाकाराच्छादितो जम्पानविशेष: 'संदमाणिय'त्ति पुरुषप्रमा-14 Mणायामो जम्पानविशेष एव लोहित्ति-लोही मण्डनकादिपचनिका कविल्ली लोहकडाहित्ति-लोहमयं बृहत्क- ॥१५९॥ 18 दिल्लं भाण्डे-मृन्मयादिभाजनं मात्र:-कांश(स्य)भाजनाद्यपकरणमात्राया आधारविशेषः उपकरणं खनेकविध दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] JEN ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१३४] / गाथा ||९५-९८|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| कटपिटकशूर्पादिकं, शेषं तु यदिह कचित्किञ्चिन्न व्याख्यातं तत्सुगमत्वादिति मन्तव्यं । तदेवमात्माङ्गुलेना-13 त्मीयात्मीयकालसम्भवीनि वस्तुन्यद्यकालीनानि च योजनानि मीयन्ते, ये पत्र काले पुरुषा भवन्ति तदकापेक्षयाऽयशब्दो द्रष्टव्यः ॥ इदं चात्माङ्गलं सूच्यङ्गलाविभेदात् त्रिविधं, तत्र देर्येणाङ्कलायता बाहल्यतस्त्वेकप्रादेशिकी नमापदेशश्रेणिः सूख्यङ्गलमुच्यते, एतच सद्भावतोऽसख्येयप्रदेशमप्यसत्कल्पनया सूच्याकारव्यवस्थापितप्रदेशत्रयनिष्पन्नं द्रष्टव्यं, तयथा ०००,सूची सूच्यैव गुणिता प्रतराङ्गलम् , इदमपि परमाथेंतोऽसख्ये-है यप्रदेशात्मकम् , असद्भावतस्त्वेषैवानन्तरदर्शिता त्रिप्रदेशात्मिका सूचिस्तयैव गुण्यते, अतः प्रत्येक प्रदेश-10 यनिष्पन्नसूचीत्रयात्मकं नवप्रदेशसङ्ख्यं संपद्यते, स्थापना प्रतरश्च सूच्या गुणितो दैर्येण विष्कम्भतः18 पिण्डतश्च समसळयं घनाङ्गुलं भवति, दैयादिषु त्रिष्वपि स्थानेषु समतालक्षणस्यैव समयचर्यया घन-16 स्वेह रूढत्वात्, प्रतराङ्गुल तु दैयविष्कम्भाश्यामेव समं, न पिण्डतः, तस्यैकप्रदेशमात्रत्वादिति भावः, इदमपि वस्तुवृत्त्याऽसख्येयप्रदेशमानम् असत्परूपणया तु सप्तविंशतिप्रदेशात्मकं, पूर्वोक्तसूच्या अनन्त रोक्तनवप्रदेशात्मके प्रतरे गुणिते एतावतामेव प्रदेशानां भावाद्, एषां च स्थापना अनन्तरनिर्दिष्टनवप्रदेकशात्मकपतरस्याध उपरिच नव नव प्रदेशान् दत्त्वा भावनीया, तथा च वैयविष्कम्भपिण्डस्तुल्यमिदमाप यते। एएसि णं भंते' इत्यादिना सूच्यङ्गुलादिप्रदेशानामल्पवहुत्वचिन्ता यथानिर्दिष्टव्याख्यानुसारतः सुखाबसेयैव, तदेतदात्माङ्गुलमिति । अधोत्सेधाकुलनिर्णयार्थमाह * दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] CRASA ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१३४] / गाथा ||९९-१००|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१३४] अनुयो. मलधारीया उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥१६ ॥ गाथा: ||--|| से किं तं उस्सेहंगुले ?, २ अणेगविहे पण्णते, तंजहा-परमाणू तसरेणू रहरेणू अग्गयं च वालस्स । लिक्खा जूआ य जवो अट्टगुणविवडिआ कमसो ॥१॥से किं तं परमाणू?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ ववहारिए अ, तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से ववहारिए से णं अणंताणताणं सुहमपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं ववहारिए परमाणुपोग्गले निप्फजइ, से णं भंते ! असिधारं वा खुरधारं वा ओगाहेजा ?, हन्ता ओगाहेजा, से णं तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा?, नो इणट्रे समहे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, से णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा?, हंता विइवएजा, से णं भंते ! तत्थ डहेज्जा?, नो इणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, से णं भंते! पुक्खरसंवदृगस्स महामेहस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?, हंता वीइवएज्जा, से णं तत्थ उदउल्ले सिआ?, नो इणटे समटे, णो खल्लु तत्थ सत्थं कमइ, से णं भंते! गंगाए महाणईए पडिसोयं हव्वमागच्छेज्जा?, हंता हव्वमाग ॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [२५७ १० -२७०] ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१३४] / गाथा ||९९-१००|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| च्छेजा, से णं तत्थ विणिघायमावजेज्जा ?, नो इणटे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ, से णं भंते! उदगावत्तं वा उदगबिंदुं वा ओगाहेज्जा ?, हंता ओगाहेजा, से णं तत्थ कुच्छेजा वा ? परियावज्जेज वा ?, णो इणटे समठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ,-सत्थेण सुतिक्खणवि छित्तुं भेत्तुं च जं किर न सक्का । तं परमाणुं सिद्धा व यंति आई पमाणाणं ॥१॥ उत्सेधः-'अणंताणं मुहुमपरमाणुपोग्गलाण'मित्यादिक्रमेणोच्छ्यो वृद्धिनयनं तस्माजातमङ्गुलमुत्सेधाङ्गुलम् , अथवा उत्सेधो-नारकादिशरीराणामुचस्त्वं तत्स्वरूपनिर्णयार्थमगुलमुत्सेधाङ्गुलं, तच कारणस्य परमाणुनसरेपवादेरनेकविधत्त्वादनेकविध प्रज्ञप्तं, तदेव कारणानेकविधत्वं दर्शयति-तद्यथे'त्यादि, 'परमाणू' इत्यादिगाथा सूत्रकृत् खयमेव विवरीपुराह-से किं तं परमाणू इत्यादि, परमाणुर्द्विविधः प्रज्ञप्त:-सूक्ष्मो व्यावहारिकच, तत्र सूक्ष्मस्तत्वरूपारुपानं प्रति स्थाप्या, अनधिकृत इत्यर्थः, 'से किं तं ववहारिए' इत्यादि, ननु कियद्भिः सूक्ष्मैनेंश्वयिकपरमाणुभिरेको व्यावहारिकः परमाणुनिष्पद्यते?, अत्रोत्तरम्, 'अनंताण'मित्यादि, अनन्तानां सूक्ष्मपरमाणुपुद्गलानां सम्वन्धिनो ये समुदाया:-क्ष्यादिसमुदायात्मकानि वृन्दानि तेषां याः समितयो-बहुनि मीलनानि तासां समागमः-संयोग एकीभवनं समुदयसमितिसमागमः, तेन व्यावहारिकपरमाणुपुद्गल एको नि दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||९९-१०० || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ १६१ ।। Ja Eben ष्पद्यते, इदमुक्तं भवति-निश्चयनयः - "कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरसवर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥ १ ॥" इत्यादिलक्षणसिद्धं निर्विभागमेव परमाणुमिच्छति, यस्त्वे तैरनेकैर्जायते तं सांशत्वात् स्कन्धमेव व्यपदिशति, व्यववहारस्तु तदनेकतानिष्पन्नोऽपि यः शस्त्रच्छेदाग्निदाहादिविषयो न भवति तमद्यापि तथाविधस्थूलताप्रतिपत्तेः परमाणुत्वेन व्यवहरति, ततोऽसौ निश्चयतः स्कन्धोऽपि व्यवहारनयमतेन | व्यावहारिकः परमाणुरुक्तः, न च वक्तव्यम्-अयं तर्हि शस्त्रच्छेदादिविषयो भवति, यतस्तन्निषेधार्थमेव प्रश्नमुउत्पातयति - 'से णं भंते!' इत्यादि, स भदन्त! व्यावहारिकपरमाणुः कदाचित् असिः खङ्गं तद्वारां वा क्षुरोनापितोपकरणं तद्धारां वा अवगाहेत - आक्रामेद् ?, अत्रोत्तरं, 'हन्तावगाहेतेति' हन्तेति कोमलामन्त्रणे अभ्युपगमयोतने वा अवगाहेतेति शिष्यपृष्टार्थस्याभ्युपगमवचनं, पुनः पृच्छति स तत्रावगाढः संश्छिद्येत वाद्विधा क्रियेत भियेत वा अनेकधा विदार्येत सूच्यादिना वस्त्रादिवद्वा सच्छिद्रः क्रियते ?, उत्तरमाह-नायमर्थः समर्थः, नैतदेवमिति भावः, अत्रोपपत्तिमाह-न खलु तत्र शस्त्रं क्रामति, इदमुक्तं भवति-यद्यप्यनन्तैः परमाणुभिर्निष्पन्नाः काष्ठादयः शस्त्रच्छेदादिविषया दृष्टास्तथाप्यनन्तकस्याप्यनन्तभेदत्वात् तावत्प्रमाणेनैव परमाण्वनन्तकेन निष्पन्नोऽसौ व्यावहारिकः परमाणुर्यायो यावत्प्रमाणेन निष्पन्नोऽद्यापि सूक्ष्मत्वान्न शस्त्रच्छेदादिविषयता मासादयतीति भावः । पुनरप्याह-स भदन्तानिकायस्य- वहेर्मध्येमध्येन - अन्तरे व्यतिव्रजेद्-गच्छेत् ?, हन्तेत्याद्युत्तरं पूर्ववत्, नवरं शस्त्रमिहानिशस्त्रं ग्राह्यं पुनः पृच्छति - 'से णं भंते! पुक्खले' For P&Praise City ~333~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ।। १६१ ॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||९९-१०० || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः त्यादि, इदमपि सूत्रं पूर्ववद्भावनीयं, नवरं पुष्करसंवर्तस्य- महामेघस्येयं प्ररूपणा इहोत्सर्पिण्यामेकविंशतिव र्षसहस्रमाने दुष्षमदुष्पमालक्षणे प्रथमारकेऽतिक्रान्ते द्वितीयस्यादी सकलजनस्याभ्युदयार्थं क्रमेणामी पञ्च महामेघाः प्रादुर्भविष्यन्ति तद्यथा- पुष्कलसंवर्तक उदकरसः प्रथमः द्वितीयः क्षीरोद्स्तृतीयो घृतोदचतुर्थीऽमृतोदः पञ्चमो रसोदः, तत्र पुष्कलसंवतऽस्य भरतक्षेत्रस्य पुष्कलं - प्रचुरमपि सर्वमशुभानुभावं भूमिरूक्षतादाहादिकं प्रशस्तोदकेन संवर्तयति-नाशयति, एवं शेषमेघव्यापारोऽपि प्रथमानुयोगादवगन्तव्यः, 'उदउल्ले सियत्ति उदकेनार्द्रः स्यादित्यर्थः, शस्त्रता चात्रोदकस्यावसेया, 'से णं भंते! गंगाए' इत्यादि, गङ्गाया महानद्याः प्रतिश्रोतो हव्यं शीघ्रमागच्छेत्, पूर्वाद्यभिमुखे गङ्गाप्रवाहे वहति सति पश्चिमाभिमुखः स आगच्छेत् तन्मध्येनेति भावः, 'विणिहाय'मित्यादि, विनिघातः- तत्स्रोतसि प्रतिस्खलनं तमापद्येत प्राशुयात्, शेषं पूर्ववत्, 'से णं भंते! उदगावत्त' मित्यादि, उदकावतोदकविन्दोर्मध्ये अवगाद्य तिष्ठेदित्यर्थः 2, स च तत्रोदकसम्पर्कात् कुथ्येद्वा-पूतिभावं यायात् पर्यापद्येत वा जलरूपतया परिणमेदित्यर्थः, शेषं तथैव, पूर्वोक्तमेवार्थे संक्षेपतः प्राह-'सत्थेण' गाहा गतार्था, नवरं लक्षणमेवास्येदमभिधीयते, न पुनस्तं कोऽपि छेतुं भेत्तुमारभते इत्येतत् किलशब्देन सूचयति, सिद्धत्ति - ज्ञानसिद्धाः केवलिनो, न तु सिद्धाः सिद्धिगताः तेषां वदनस्यासम्भवादिति । अनंताणं ववहारिअ परमाणुपोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उसण्हस Fir P&Pealise Chly ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] अनुयो. मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥१६२॥ गाथा: हिआ इ वा सहसहिआ इ वा उढरेणू इ वा तसरेणू इ वा रहरेणू इ वा, अट्ठ उसहसण्हिआओ सा एगा सहसण्हिआ, अट्ठ सहसण्हिआओ सा एगा उड्डुरेणू, अट्ट उतरेणुओ सा एगा तसरेणू, अट्ट तसरेणूओ सा एगा रहरेणू, अट्ठ रहरेणूओ देवकुरुउत्तरकुरूणं मणुआणं से एगे वालग्गे, अट्ट देवकुरुउत्तरकुरूणं मणुआण वालग्गा हरिवासरम्मगवासाणं मणुआणं से एगे वालग्गे, अट्ट हरिवस्सरम्मगवासाणं मणुस्साणं वालग्गा हेमवयहेरण्णवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्र हेमवयहेरपणवयाणं मणुस्साणं वालग्गा पुत्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्र पुव्वविदेहअवरविदेहाणं मणुस्साणं वालग्गा भरहएरवयाणं मणुस्साणं से एगे वालग्गे, अट्ठ भरहेरवयाणं मणुस्साणं वालग्गा सा एगा लिक्खा, अट्ठ लिक्खाओ सा एगा जूआ, अट्ठ जूआओ एगे जवमज्झे, अट्ट जवमझे से एगे अंगुले । एएणं अंगुलाणपमाणेणं छ अंगुलाई पादो बारस अंगुलाई विहत्थी चउवीसं अंगुलाई र वयाणं मागविदेहाणं मणुस्सावालगा सा एगा माझे से एगे अंगुलगुलाई र दीप अनुक्रम [२५७ ॥१६२॥ -२७०] ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४ ] / गाथा ||१००...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. २८ यणी अडवालीसं अंगुलाई कुच्छी छन्नवइ अंगुलाई से एगे दंडे इ वा धणू इ वा जुगे इ वा नालिआ इ वा अक्खे इ वा मुसले इ वा, एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउअं चत्तारि गाउआई जोअणं । एएणं उस्सेहंगुलेणं किं पओअणं ?, एएणं उस्सेहंगुलेणं णेरइअतिरिक्खजोणिअमणुस्त देवाणं सरीरोगाहणा मविजति । अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयसमितिसमागमेन या परमाणुतेति गम्यते सा एका अतिशयेन लक्ष्णा लक्ष्णलक्षणा सैव लक्ष्णलक्ष्णिका, उत्तरप्रमाणापेक्षया उत्-प्राबल्येन श्लक्ष्णलक्ष्णिका उत्लक्ष्णलक्ष्णिका, इतिशब्दः स्वरूपप्रदर्शने, वाशब्द उत्तरापेक्षया समुच्चये, एवं श्लक्ष्णलक्ष्णिकेति वा इत्यादिष्वपि वाच्यम्, एते चोल्लक्ष्णलक्ष्णिकादयो यद्यपि यथोत्तरमष्टगुणत्वेन प्रतिपादयिष्यन्ते तथापि | प्रत्येकमनन्तपरमाणु निष्पन्नत्व साम्यं न व्यभिचरन्त्यतः प्रथमं निर्विशेषितमप्युक्तं 'सा एगा उसण्हसहियाइ वा ' इत्यादि, प्राक्तनप्रमाणादष्टगुणत्वादूर्ध्वरेण्वपेक्षया त्वष्टमभागवर्तित्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकेत्युच्यते, खतः परतो | वा ऊर्ध्वाधस्तिर्यक् चलनधर्मा रेणुरूर्ध्वरेणुः, एतानि चोरलक्षणलक्ष्णिकादीनि श्रीणि पदानि 'परमाणू तसरेणू' इत्यादिगाधायां अनुक्तान्यप्युपलक्षणत्वाद् द्रष्टव्यानि त्रस्यति - पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः For P&P Cy ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४ ] / गाथा ||१००...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १६३ ॥ स त्रसरेणुः, रथगमनोत्खातो रेणू रथरेणुः, वालाग्रलिक्षादयः प्रतीताः, देवकुरूत्तरकुरुहरिवर्षरम्यकादिनिवासिमानवानां केशस्थूलताक्रमेण क्षेत्र शुभानुभावहानिर्भावनीया, शेषं निर्णीतार्थमेव, यावत् इआणं भंते! के महालिआ सरीरोगाहणा पण्णत्ता?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेडव्विआ य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा णं जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पंच धणुसयाई, तत्थ णं जा सा उत्त उव्वसा जपणेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं, रयणप्पहाए पुढवीए नेर आणं भंते! के महालिआ सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गो० ! दुविहा पपणत्ता, तंजहा भवधारणिजा य उत्तरखेडव्विआ य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त धणूइं तिण्णि रयणीओ छच्च अंगुलाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विआ सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेजइभागं उकोसेणं पण्णरस धणु दोन्नि रयणीओ वारस अंगुलाई, सकरप्पहापुढवीए णेरइआणं Fir P&Pallie Caly ~337~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १६३ ॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूल [१३४] / गाथा ||१००...|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] SSCCE गाथा: ||--|| ACCUSESCASSESSAGESGA भंते ! के महालिआ सरीरोगाहणा पण्णता?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-भवधा० उत्तरवे०, तत्थ णं जा सा० सा ज० अंगुलस्स अ० उक्कोसेणं पण्णरस धणूइं दुण्णि रयणीओ बारस अंगुलाई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विआ सा जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं एकतीसं धणूई इक्करयणी अ, वालुअप्पहापुढवीए णेरइयाणं भंते ! के महालिआ सरीरोगाहणा प०, गो! दुविहा पण्णत्ता, तंजहाभवधा० उत्तरवे०, तत्थ णं जा सा भव० सा ज. अंगुलस्स अ० उक्कोसेणं एकतीसं धणूई इक्करयणी अ, तत्थ णं जा सा उत्तर० अंगुलस्स संखेजइभागं उक्कोसेणं बासट्टि धणूई दो रयणीओ अ, एवं सव्वासिं पुढवीणं पुच्छा भाणियव्वा, पंकप्पहाए पुढवीए भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं बासट्टि धणूई दो रयणीओ अ, उत्तरवे० जहन्नेणं अं० सं० उक्कोसेणं पणवीसं धणूसयं, धूमप्पहाए भवधा. अंगुल० अ० उक्कोसेणं पणवीसं धणुसयं, उत्तरवे० अंगुलस्स संखे० उक्कोसेणं अट्ठाइजाई दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ १६४ ॥ णूसयाई, तमाए भवधारणिज्जा० अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं अड्डाइजाइं धणूसयाई, उत्तरवे० अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं पंच धणूसयाई, तमतमाए पुढवीए नेरइयाणं भंते! के महालिआ सरीरोगाहणा पं० ?, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिजा य उत्तरवे०, तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं पंच साई, तत्थ णं जा सा उत्तरवेउव्विआ सा जहन्नेणं अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं धणुसहस्साईं। असुरकुमाराणं भंते! के महालिआ सरीरोगाहणा पं० ?, गो० ! दुविहा पं० तं०-भवधारणिजा उत्तरवेडव्विआ य, तत्थ णं जा सा भवधारणिजा सा जहन्नेणं अं० अ० उक्कोसेणं सत्त रयणीओ, उत्तरखेडव्विआ सा जहन्नेणं अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं, एवं असुरकुमारगमेणं जाव थणियकुमाराणं भाणिअव्वं । अवगाहन्ते - अवतिष्ठन्ते जीवा अस्यामित्यवगाहना-नारकादितनुसमवगाढं क्षेत्रं नारकादितनुरेव वा, ययनेनोत्सेधाङ्गुलेन नारकादीनां शरीरावगाहना मीयते तर्हि भदन्त ! नारकाणां तावत् 'के महालिया कियन्महती किं महत्त्वोपेता कियतीत्यर्थः, शरीरस्यावगाहना शरीरमेव वा अवगाहना भवद्भिरन्यैश्च तीर्थकरैः । For P&Praise Cly ~339~ वृत्तिः उपकमे प्रमाणद्वारं २ ।। १६४ ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| सदेवमनुजासुरायां पर्षदि प्रज्ञप्ता-प्ररूपिता?, अत्र भगवान् गौतममामल्योत्तरमाह-गौतम! द्विविधा-द्विप्रकारा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-भवधारणीया चोत्तरवैक्रिया च, ननु शरीरावगाहनायाः प्रमाणे पृष्टे तवैविध्यलक्षणभेदकथनमप्रस्तुतमिति चेत्, नैवं, तत्प्रमाणकथनाङ्गत्वात्तस्य, न हि विलक्षणप्रमाणयुक्तेन भेदद्वयेन व्यवस्थिताया अवगाहनायास्तझेदकथनमन्तरेण प्रतिनियतं किञ्चित्प्रमाणं प्ररूपयितुं शक्यते, भेदोपन्यासेतु प्रतिभेदनियतं तत्कथ्यत इति भावः, तत्र भवे-नारकादिपर्यायभवनलक्षणे आयु:समाप्तिं यावत्सततं धियते या सा भवधारणीया, सहजशरीरगतेत्यर्थः, या तु तद्हणोत्तरकालं कार्यमाश्रित्य क्रियते सा उत्सरवै|क्रिया, तब भवधारणीया जघन्यतोऽङ्खलास-ख्येयभागमात्रा उत्पद्यमानानां, उत्कृष्टा तु पश्चधनुःशतमाना सप्तमपृथिव्याम्, उत्तरवैक्रिया वाद्यसमयेऽप्यनुलस्य सङ्ख्ययभाग एव भवति, तथाविधप्रयत्नाभावतोसङ्ख्येयस्य भागस्य कर्तुमशक्यत्वादिति भावः, उत्कृष्टा तु धनुःसहस्रप्रमाणा सप्तमपृथिव्यामेव, ओघतो नारकाणां शरीरावगाहनामानं प्रतिपाद्य तदेव विशेषतो निरूपयितुमाह-रयणप्पहा पुढवी' इत्यादि, सूत्रसिद्धमेव, नवरमुत्कृष्टावगाहना सर्वास्वपि पृथिवीषु वकीपखकीयचरमप्रस्तटेषु द्रष्टव्या, भवधारणीयायाश्चोमोत्कृष्टायाः सकाशादुसरक्रिया सर्वत्र द्विगुणाऽवसेया, तदेवं-'नेरहया असुराई पुढवाई दियादओ तहय । पंचेंदियतिरियनरा वंतर जोइसिय वेमाणी ॥१॥' इति समयप्रसिद्धचतुर्विशतिदण्डकस्याद्यपदेऽवगाहना गैरपिका अमुरादयः पृथिव्यादयः वीन्द्रियादयस्तथा च । पञ्चेन्द्रियास्तिर्यश्री नरा व्यन्तरा ज्योतिका वैमानिकाः ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] वृत्तिः उपक्रम प्रमाणद्वार रीया गाथा: ||--|| अनुयो.18|मानं निरूपितं । साम्प्रतमसुरादिपदे तन्मानं निरूपयितुमाह-'असुरकुमाराणं भंते! के महालिये'त्यादि मलधा- दासर्व पाठसिद्धं, नवरम्-उत्तरवैक्रियावगाहनाऽनापि जघन्या अङ्गुलस्य सन्ण्येयभाग एव, उत्कृष्टा तु वश- खपि निकायेषु योजनशतसहस्रमाना, अन्ये त्वाहुः-नागकुमारादिनवनिकायेपूस्कृष्टाऽसी योजनसहस्रमानै18वेति । अथ पृथिव्यादिपदेऽवगाहनामानमाह॥१६५॥ पुढविकाइआणं भंते! के महालिआ सरीरोगाहणा पं०?, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणवि अं०, एवं सुहमाणं ओहिआणं अपज्जत्तगाणं पज्जत्तगाणं च भाणिअव्वं, एवं जाव बादरवाउकाइयाणं पजत्तगाणं भाणिअव्वं, वणस्सइकाइआणं भंते! के महा०पं०?, गो० जहन्नेणं अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं, सुहुमवणस्सइकाइयाणं ओहिआणं अपजत्तगाणं पज्जत्तगाणं तिण्डंपि जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणवि अंगुलस्स अ०, बादरवणस्सइकाइयाणं जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उकोसेणं सातिरेग जोयणसहस्सं, अपजत्तगाणं ज. अंगुलस्स असं० उक्कोसेणवि अंगुलस्स अ०, पजत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उको CACASSAGAR दीप अनुक्रम ESSAMACHAR [२५७ ॥१६५॥ -२७०] ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः सेणं सातिरेगं जोअणसहस्सं । बेइंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं बारस जोअणाई, अपज्जतगाणं जहनेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अंगुलस्स अ०, पजत्तगाणं ज० अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं बारस जोअणाई । तेइंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणं तिष्णि गाउआई, अपज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अंगु०, पज्जत्तगाणं जहन्नेणं अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं तिपिण गाउआई । चउरिंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंगुलस्स अ०, उक्कोसेणं चत्तारि गाउआई, अपज्जत्तगाणं जहन्नेणं उक्कोसेणवि अंगुलस्स अ०, पज्जत्तगाणं ज० अंगुल० सं० उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई । इहौधिक पृथिवीकायिकानां प्रथममवगाहनामानं निरूप्यते १ ततस्तेषामेवौघतः सूक्ष्माणां २ ततः सूक्ष्माणामप्यपर्यासानां ३ तथा पर्याप्तानां ४ तत औधिकबादराणां ५ ततोऽमीषामेवापर्याप्तविशेषितानां ६ तथा पर्याप्तविशेषितानां ७ तेषु च सप्तस्वपि स्थानेषु पृथिवीकायिकानामङ्गुलासख्येयभाग एवावगाहना, किन्त्वसस्येयकस्य असङ्ख्येयभेदत्वेन तस्यापि तारतम्यसम्भवात् जघन्योत्कृष्टताविचारो न विरुध्यते, एवमसे For P&Palle Chly ~342~ watyw Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत * सूत्रांक [१३४] अनुयो मलधारीया ** ॥१६६॥ गाथा: ||--|| * जोवायवनस्पतिष्वङ्गलासख्येयभागावगाहीनि यधोक्तानि सप्त सप्त स्थानानि वाच्यानि, नवरमौघिकवादरव-II वृत्तिः नस्पतिषु पर्याप्तेषु च तेषु जघन्यतोऽङ्गुलासस्येयभागरूपा, उत्कृष्टतस्तु समुदगोतीर्थादिगतपद्मनालाद्या-1 श्रित्य सातिरेकयोजनसहस्रमाना अवगाहना द्रष्टव्या, अत्राह-मनु यदीत्थं भेदतोऽवगाहना चिन्स्यते तदाप्रमाणद्वार नारकासुरकुमारादिष्वप्यपर्याप्तपर्याप्तभेदतः कस्मादसौ न प्रोक्ता, सत्यं, किन्तु ते लब्धितः सर्वेऽपि पर्याप्ता एव भवन्ति, अतोऽपर्याप्तत्वलक्षणस्य प्रकारान्तरस्य किल तत्रासम्भवान्न भेदतस्तचिन्ता, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरित्यलं विस्तरेण । अथ द्वीन्द्रियादिपदे अवगाहनामानमाह-तत्रौधिकबीन्द्रियाणां अपर्याप्तानां पर्याप्सानां चेति स्थानत्रये अवगाहनाऽत्र चिन्त्यते, एतेषु बादरत्वस्यैव सद्भावात्, सूक्ष्मत्वाभावतो न तच्चिन्तासम्भवः, द्वादश च योजनानि शरीरावगाहना स्वयम्भूरमणादिशश्रादीनामबसेया, एवं श्रीन्द्रियेष्वपि स्थानत्रये अवगाहना भावनीया, नवरं गव्यूतत्रयं शरीरावगाहना बहिर्दीपवर्तिकर्णशृगाल्यादीनामबगन्तव्या, एवं चतुरिन्द्रियेष्वपि, नवरं गब्यूतचतुष्टयं शरीरमानं बहिर्दीपवर्तिनां भ्रमरादीनाम् । अथ पञ्चेन्द्रियतिर्यकपदेऽवगाहनां निरूपयितुमाह पंचेंदियतिरि० महालिआ० पं०?, गो०! जहन्नेणं अं० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, जलयरपंचिदियति० पुच्छा, गो०! एवं चेव, संमुच्छिमजलयरपंचिंदियति. पुच्छा, गो०! SHARE ** दीप अनुक्रम [२५७ ॥१६॥ -२७०] ~343~ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| जहन्नेणं अंगु० अ० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, अपजत्तगसमुच्छिमजलयरपंचिंदियपुच्छा, जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिजइभागं उक्कोसेणवि अंगुलस्स अ० पजत्तगसंमुच्छिमजलयर० पुच्छा, गो० जहन्नेणं अं०सं० उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, गब्भवतियजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखिज्जइभागं उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, अपज्जत्तगगब्भ० ज० गो०! जह० अंगु०अ० उक्कोसेणवि अंगु० अ०, पजत्तगगब्भवक्कंतिअजलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स सं० उक्कोसेणं जोअणसहस्सं, चउप्पयथलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० जहन्नणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणं छ गाउआई, संमुच्छिमचउप्पयथलयरपुच्छा, गो! जहन्नेणं अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं गाउअपुहत्तं, अपजत्तगसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अंगु० अ०, पजत्तगसमुच्छिमचउप्पयथलयरपुच्छा, गो० जहन्नेणं अंगुलस्ससं० उको गाउअपुहुत्तं, गब्भवतिअचउप्पयथलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्को छ गाउआई, दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~3444 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१००...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१३४] अनुयो. मलधारीया उपक्रम प्रमाणद्वारं ॥१७॥ गाथा: ||--|| अपजत्तगगम्भवक्कंतिअचउप्पयथलयरपुच्छा, गो.! जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अंगुलस्स असं०, पजत्तगगब्भवतिअचउप्पयथलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स सं० उक्को छ गाउआई, उरपरिसप्पथलयरपंचिंदियपुच्छा, गो०! जह० अंगु० असं० उक्कोसे० जोअणसहस्सं, समुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपुच्छा, गो०! जह• अंगुल. असंखे० उको. जोअणपुहुत्तं, अपजत्तगसंमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपुच्छा, गो.! जह• अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अंगुल० असं०, पजत्तगसम्मुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपुच्छा, गो०! जह• अंगु० संखे० उकोसेणं जोअणपुहत्तं, गब्भवतियउरपरिसप्पथलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगु० असं० उक्को. जोअणसहस्सं, अपजत्तगगब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगुलस्स अ० उक्कोसेणवि अं० असं०, पजतंगगम्भवतियउरप० पुच्छा, गो०! जहन्नेणं अंगु० संखेजइभागं उकोसेणं जोअणसहस्सं, भुअपरिसप्पथलयरपंचिंदियाणं पुच्छा, गो! जह० अंगु० अ० दीप अनुक्रम [२५७ ॥१६७॥ -२७०] ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............................. मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] FACEBCASEARC गाथा: ||--|| उक्कोसेणं गाउअपुहुत्तं, समुच्छिमभुअ० पुच्छा, गो०! जह• अंगु० असं० उक्को० धणुपुहुत्तं, अपजत्तगसमुच्छि०, गो०! जहन्नेणं अंगु० अ० उक्को० अंगु० असं०, पजत्तगसंमुच्छिमभु०, गो०! ज० अं० सं० उक्को० धणु०, गब्भ० भुअ० थल०, गो० ! जह० अ० असं० उक्को० गाउ०, अपज० भुअप०, गो०! जहन्नेणं अं असं० उक्कोसेणवि अं०, पज्जत्त० भुअप० पुच्छा, गो०! जहः अंगु० संखे० उक्को० गाउअपुहुत्तं, खहयरपंचिंदियपुच्छा, गो०! जह० अंगु० असं० उक्को. धणुपुहुत्तं, समुच्छिमखहयराणं जहा भुअगपरिसप्पसंमुच्छिमाणं तिसुवि गमेसु तहा भाणिअव्वं, गब्भवक्कंतिअखहयरपुच्छा, गो० ! जह० अंगु० असं० उक्को. धणुपुहुत्तं, अपजत्तगग० खहयरपुच्छा, गो०! जह० अं असं० उक्कोसेणवि अं०, पजत्तगग० ख०, गो०! जह० अं० संखे० उक्को० धणु०, एत्य संगहणिगाहाओ भवंति, तंजहा-जोअणसहस्सगाउयपुहुत्तं तत्तो अ जोअणपुहुत्तं । दोण्हं तु धणुपुहुन्तं समुच्छिमे होइ उच्चत्तं ॥१॥ जो RSACROCCASS55% दीप अनुक्रम CCCC [२५७ -२७०] X ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| ......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| अनुयो यणसहस्स छग्गाउआई तत्तो अ जोयणसहस्सं । गाउअपुहुत्त भुअगे पक्खीसु भवे मलधाधणुपुहुत्तं ॥२॥ उपक्रमे रीया प्रमाणद्वारं ॥१६८॥1 इहौधिकपश्चेन्द्रियतिरश्चां प्रथममवगाहना चिन्त्यते-सा चोत्कृष्टा योजनसहस्रं जघन्यं तु पदं सर्वत्राजलासङ्ख्येयभागरूपत्वेनाविशेषानोच्यते, खयमेव भावनीयम्, एते च पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चो जलचरस्थलचरखच- रभेदात्रिधा भवन्ति, तत्राधिका जलचराणां प्रथममवगाहना निरूप्यते-साऽप्युत्कृष्टा योजनसहस्रं १, तत|स्तेषामेव सम्मूर्च्छजानां तावन्मानैव २, तत एतेषामेवापर्याप्तत्वविशेषितानामुत्कृष्टाऽप्यनुलासङ्ख्ययभागमानव ३, तदनन्तरममीषामेव पर्याप्तत्वविशिष्टानामुत्कृष्ठा योजनसहस्रम् ४, इतस्तेषामेव गर्भव्युत्क्रान्तिकानामुत्कर्षतो योजनसहस्रम् ५, अत एतेषामेवापर्याप्तत्वालिङ्गितानामुत्कृष्टाऽप्यनुलासख्येयभागः ६, ततोप्यमीषामेव पर्याप्तानां उत्कृष्टा योजनसहस्रम् ७ इति जलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चां सप्त अवगाहनास्थानानि, अत्र च सर्वत्र योजनसहस्रमानं खयम्भूरमणमत्स्यानामवसेयम् । इदानी स्थलचरेषु निरूप्यते-तेऽपि चतुकाष्पदोरम्परिसर्पभुजपरिसभेदात्रिविधा भवन्ति, अत आदावीधिकचतुष्पदस्थलचराणामुच्यते-सा चोत्कृष्ट-12 पदवर्तिनी देवकुर्वादिगतगर्भजद्विरदानाश्रित्य षगव्यूतप्रमाणा निश्वेतव्या १, ततस्तेषामेव सम्मूछेनजत्व मा॥१६८॥ विशेषितानां सा गब्यूतपृथक्त्वं २, ततोऽपर्याप्तानामुत्कुष्टाऽप्यनुलासङ्ख्येयभागः ३, पर्याप्तानां गव्यूत दीप अनुक्रम CENTRACKGRSESS [२५७ -२७०] ~347~ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| धक्त्वं ४, तेषामेव गर्भजानां गव्यूतषट् ५, तेषामेवापर्याप्तानामङ्गुलासङ्ख्येयभागः ६, पर्याप्तानां षङ्गव्यूतानि ७ इति चतुष्पदस्थलचरपश्चेन्द्रियतिरश्चामपि सप्तावगाहनास्थानानि, साम्प्रतं विषधरागुर परिसर्पस्थलचरपश्चेन्द्रियतिर्यश्ववगाहना प्रोच्यते-तत्रौधिकोर परिसर्पाणां बहिर्दीपवर्तिगर्भजसानाश्रित्योत्कृष्टा योजनसहस्रं १ सम्मू→नजानां योजनपृथक्त्वं २, तेषामप्यपर्याप्तानां अङ्गुलासङ्ख्येयभागः३, पर्याप्तानां योजनपूथक्त्वं ४, गर्भजानां सर्पाणां योजनसहस्रम् ५, अपर्याप्तानामगुलासङ्ख्येयभागः ६, पर्याप्तानां योजनसहस्रम् ७ इत्युर परिसपेषु सप्त स्थानानि, एवं भुजपरिसष्वपि गोधानकुलादिस्थलचरेष्वपीत्वमेव सप्तावगाहनास्थानानि द्रष्टव्यानि, नवरमेतेष्वाद्यपदे सामान्यगर्भजपदे पर्याप्तगर्भजपदे च गव्यूतपृथक्वं, सामान्यसम्मूछेनजपदे पर्याप्तसम्मूर्छनजपदे च धनुःपृथक्त्वं, शेषपदयेऽङ्गुलासङ्ख्ययभागः, तदेवं स्थलचरेषु त्रिविधेष्वप्यवगाहना चिन्तिता, एवं खचरेष्वपि सप्तसु स्थानेषु सा वाच्या, नवरमत्राप्यपर्याप्तसम्मूर्च्छजापर्याप्तगर्भजलक्षणस्थानद्वये उत्कृष्टाऽवगाहना प्रत्येक अङ्गुलासख्येयभागः, शेषेषु पञ्चमु स्थानेषु धनुःपृथक्त्वं, तदेवं षट्त्रिंशत्स्थानेषु पञ्चेन्द्रियतिरश्चामवगाहनां निरूप्य सङ्ग्रहं कुर्वन्नाह-एत्थ संगहणिगाहाओ भवंति, तंजहा-जोअणसहस्स गाउअपुहुत्त तत्तो अ जोयणपुहुत्तं । दुहं तु धणुपुहुत्तं समुच्छिम होइ उच्चत्तं ॥१॥' सम्मूर्छजानां जलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहस्रमेव न परतः, सम्मूर्छनजचतुपदानां तु गव्यूतपथक्त्वमेव, सम्मूच्छेजोर परिसर्पाणां योजनपृथक्त्वमेव, सम्मूर्छनजनुजपरिसर्पखचरल दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] Jaticinaarin.nl ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............................. मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० [१३४] मलधा- रीया गाथा: ||--|| क्षणयोर्द्वयोः प्रत्येकं धनु पृथक्त्वमेवेति । तदेवं सम्मू→जविषयः सङ्ग्रहः कृतः। अथ गर्भजविषयं तं कुर्वन्नाह- वृत्तिः "जोयणसहस्स छग्गाउआई तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्तभुयगे पक्खीसु भवे धणुपुहुत्तं ॥१॥" उपक्रमे गर्भजानां जलचरपञ्चेन्द्रियतिरश्चामुत्कृष्टाऽवगाहना योजनसहस्रमेव, गर्भजचतुष्पदानां षडेव गब्यूतानि, प्रमाणद्वारं गर्भजोर परिसाणां योजनसहस्रं, गर्भजभुजगानां गव्यूतपृथक्त्वं, गर्भजपक्षिणां धनुःपृथक्त्वमिति । इदं । गाथाद्वयं कचिदेव वाचमाविशेषे दृश्यते, सोपयोगत्वात्तु लिखितम् । अथ मनुष्याणामवगाहना प्रोच्यते मणुस्साणं भंते ! के महालिआ सरीरोगाहणा पं०?, गो०! जह० अंगुलअ० उक्को० तिण्णि गाउआई, संमुच्छिममणुस्साणं पुच्छा, गो०! जह० अंगु० असंखे० उक्को० अंगु० असं०, अपज्जत्तगगब्भवतियमणुस्साणं पुच्छा, गो! जह• अंगु० असं० उक्कोसेणवि अंगु० असं०, पज्जत्तगग० पुच्छा, गो०! जह० अंगुल० सं० उक्कोसेणं तिपिण गाउआई। तत्रौधिकपड़े देवकुर्वादिमनुष्याणामुत्कृष्टा त्रीणि गब्यूतानि १ वातपित्तशुक्रशोणितादिषु सम्मूछितमनुष्याणामुत्कर्षतोऽप्यनुलासङ्ख्ययभाग एव, ते होतावदवगाहनायामेव वर्तमाना अपर्याप्सा एव नियन्ते, दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ॥१६९।। JaEl.com.ink ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| ....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] एव पर्यासापर्यासचिन्ताऽप्यत्र न कृता, अपर्याप्तत्वादेवैषामिति २, एवं सामान्यतो गर्भजानां ततोऽपयोप्तानां पयोप्सानां च भावना कार्या, तदेवं पञ्चसु स्थानेषु मनुष्याणामवगाहना प्रोक्ता। वाणमंतराणं भवधारणिज्जा य उत्तरवेउठिवआ य जहा असुरकुमाराणं तहा भाणियव्वा, जहा वाणमंतराणं तहा जोइसियाणवि । सोहम्मे कप्पे देवाणं भंते ! के महालिआ०५०?, गो! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विआ य, तत्य णं जा सा भव० सा जह• अंगुलस्स अ० उक्को० सत्त रयणीओ, तत्थ णं जा सा उत्तर० सा जह० अं० संखे० उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं, एवं ईसाणकप्पेऽवि भाणिअव्वं, जहा सोहम्मकप्पाणं देवाणं पुच्छा तहा सेसकप्पदेवाणं पुच्छा भाणिअव्वा जाव अचुअकप्पो। सर्णकुमारे० भव० जह• अंगु० असं० उक्कोसेणं छ रयणीओ, उत्तर० जहा सोहम्मे, भ० जहा सणंकुमारे तहा माहिदेवि भाणियव्वा, बंभलंतगेसु भवधारणिजा जहाणेणं अं असं० उक्को० पंच रयणीओ, उत्तरवेउव्विआ जहा सो SAKAKKAR गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारे RECCANOCAL ॥१७ ॥ गाथा: हम्मे, महासुकसहस्सारेसु भवधारणिज्जा जह• अंगुलस्स असं० उक्को चत्तारि रयणीओ, उत्तर० जहा सोहम्मे, आणतपाणतआरणअच्चुएसु चउसुवि भवधारणिज्जा जहन्नेणं अंगु० असंखे० उक्कोसेणं तिण्णि रयणीओ, उत्तरवेउविआ जहा सोहम्मे, गेवेजगदेवाणं भंते ! के महालिआ सरीरोगाहणा पं०?, गो०! एगे भवधारणिजे सरीरगे पं०, से जह• अंगुलस्स असं० उक्कोसेणं दुन्नि रयणीओ, अणुत्तरोववाइअदेवाणं भंते ! के म. पं०?, गो०! एगे भव० से जह० अंगु० असं० उक्को० एगा रयणी उ। से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-सूइअंगुले पयरंगुले घणंगुले, एगंगुलायया एगपएसिआ सेढी सूईअंगुले, सूई सूईए गुणिआ पयरंगुले, पयरं सूईए गुणियं घणंगुले, एएसि णं सूईअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ?, सव्वथोवे सूइअंगुले, पयरंगुले असंखेजगुणे, घणंगुले असंखेजगुणे, से तं उस्सेहंगुले। 2005 दीप अनुक्रम 515 [२५७ ॥१७॥ -२७०] ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| व्यन्तरज्योतिष्काणामसुरकुमारवद्भावनीया, वैमानिकानामपि तथैव, नवरं सौधर्मशानयोरुत्कृष्टा भवधारणीयशरीरावगाहना सप्तहस्ता, सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षट्, ब्रह्मलोकलान्तकयोः पञ्च, महाशुक्रसहस्रारयोश्चत्वार, आनतप्राणतारणाच्युतेषु त्रयः, अवेयकेषु द्वौ, अवेयकेषु उत्तरवैक्रिया तु न वाच्या, प्रैवेयकेघूत्तरवैक्रियशरीरनिर्वर्तनस्याभावाद्, एवमुत्तरत्रापि, अनुत्तरविमानेषु त्वेको हस्तः, तदेवमेषामवगाहना सर्वा:प्युत्सेधाङ्गुलेन मीयते, एतच्च सूचीपतरधनभेदात् त्रिविधमात्माङ्गुलवद्भावनीयम् ॥ उक्तमुत्सेधाङ्गुलम् , अथ प्रमाणाङ्गुलं विवक्षुराह से किं तं पमाणंगुले ?, पमाणगुले एगमेगस्स रणो चाउरंतचक्कवहिस्स अट्रसोवपिणए कागणीरयणे छत्तले दुवालसंसिए अट्रकण्णिए अहिगरणसंठाणसंठिए पं०, तस्स णं एगमेगा कोडी उस्सेहंगुलविक्खंभा तं समणस्स भगवओ महावीरस्स अद्धंगुलं तं सहस्सगुणं पमाणंगुलं भवइ, एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाई पादो दुवालसंगुलाई विहत्थी दो विहत्थीओ रयणी दो रयणीओ कुच्छी दो कुच्छीओ धणू दो धणुसहस्साई गाउअं चत्तारि गाउआई जोयणं । एएणं पमाणंगुलेणं किं पओ 4555555554 दीप अनुक्रम 5555 [२५७ -२७०] ~352~ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १७१ ॥ अणं?, एएणं पमाणंगुलेणं पुढवीणं कंडाणं पातालाणं भवणाणं भवणपत्थडाणं निरयाणं निरयावलीणं निरयपत्थडाणं कप्पाणं विमाणाणं विमाणपत्थडाणं टंकाणं क्रूडाणं सेलाणं सिहरीणं पदभाराणं विजयाणं वक्खाराणं वासाणं वासहराणं वासहरपव्वयाणं वेलाणं [ वलयाणं ] वेइयाणं दाराणं तोरणाणं दीवाणं समुद्दाणं आयामfaridaपरिक्खेवा मविजंति । सहस्रगुणितादुत्सेधाङ्गुलप्रमाणाज्ञानं प्रमाणाङ्गुलम्, अथवा परमप्रकर्षरूपं प्रमाणं प्राप्तमङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलं, नातः परं बृहत्तर मङ्गलमस्तीति भावः, यदिवा-समस्तलोकव्यवहारराज्यादिस्थितिप्रथमप्रणेतृत्वेन प्रमाणभूतोऽस्मिन्नवसर्पिणीकाले तावद्युगादिदेवो भरतो वा तस्याङ्गुलं प्रमाणाङ्गुलम्, एतच काकणीरत्नस्वरूपपरिज्ञानेन शिष्यव्युत्पत्तिलक्षणं गुणाधिक्यं पश्यंस्तद्वारेण निरूपयितुमाह-'एगमेगस्स णं रण्णो इत्यादि, एकेकस्य राज्ञः चतुरन्तचक्रवर्तिनोऽष्टसौवर्णिकं काकणीरत्नं षट्तलादिधर्मोपेतं प्रज्ञतं, तस्यैकैका कोटिरुत्सेघाङ्गलविष्कम्भा, तच्छ्रमणस्य भगवतो महावीरस्यार्द्धाङ्गुलं, तत्सहस्रगुणं प्रमाणाकुलं भवतीति समुदायार्थः, तत्रा| न्यान्यकालोत्पन्नानामपि चक्रिणां काकणीरत्नतुल्यताप्रतिपादनार्थमेकैकग्रहणं निरुपचरितराजशब्दविषय| ज्ञापनार्थ राजग्रहणं दिकत्रय भेदभिन्नसमुद्रत्रयहिमवत्पर्वत पर्यन्त सीमाचतुष्टयलक्षणा ये चत्वारोऽन्तास्ताँश्च For P&Praise City ~ 353~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १७१ ॥ catesyung Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| तुरोंऽपि चक्रेण वर्तयति-पालयतीति चतुरन्तचक्रवर्ती तस्य-परिपूर्णषट्खण्डभरतभोक्तरित्यर्थः, चत्वारि म-18 टाधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः, षोडश सर्षपा एक धान्यमाषफलं, द्वे धान्यमाषफले एका गुञ्जा, पन गुजारात एका कर्ममापका, षोडश कर्ममाषका एक सुवर्णः, एतैरष्टभिः काकणीरनं निष्पचते, एतानि च मधुरतूण-101 बाफलादीनि भरतचक्रवंतिकालसम्भवीन्येव गृह्यन्ते, अन्यथा कालभेदेन तद्वैषम्यसम्भवे काकिणीरत्नं सर्वचक्रिणां तुल्यं न स्यात्, तुल्यं चेष्यते तदिति, चत्वारि चतसृष्वपि दिक्षु द्वे ऊर्ध्वाध इत्येवं षट् तलानि यत्र तत् षट्तलम् , अध उपरि पार्श्वतम्य प्रत्येक चतसृणामस्त्रीणां भावात् द्वादश अत्रया-कोठ्यो यत्र तबादशा-12 श्रिक, कर्णिका:-कोणास्तेषां चाध उपरि च प्रत्येकं चतुर्णा सावादष्टकर्णिकम् , अधिकरणिः-सुवर्णकारोप-18 करणं तत्संस्थानेन संस्थितं-तत्सदृशाकारं समचतुरस्रमिति यावत् प्रज्ञप्त-मरूपितं, तस्य काकिणीरत्नस्यैकैका कोटिरुत्सेधाङ्गुलप्रमाणविष्कम्भा द्वादशाप्यश्रय एकैकस्य उत्सेधाङ्गुलप्रमाणा भवतीत्यर्थ:, अस्य समचतुर खादायामो विष्कम्भश्च प्रत्येकमुत्सेधाङ्गुलप्रमाण इत्युक्तं भवति, यैव च कोटिरूवीकृत्य आयाम प्रतिपद्यते सैव तिर्यक व्यवस्थापिता विष्कम्भभागो भवतीत्यायामविष्कम्भयोरेकतरनिर्णयेऽप्यपरनिश्चयः स्यादेवेति सूत्रे विष्कम्भस्यैव ग्रहणं, तद्ब्रहणे चायामोऽपि गृहीत एव, समचतुरस्रत्वात्तस्येति । तदेवं सर्वत उत्सेधाङ्गलप्रमाणमिदं सिद्धं, यच्चान्यत्र-'चउरंगुलप्पमाणा सुवण्णवरकागणी नेयेति श्रूयते, तन्मतान्तरं संभाव्यते, १ चतुरङ्गलप्रमाणा सुवर्णवरकाकिणी शेया. दीप अनुक्रम RECAPSARAICCRE BHAGRAT [२५७ -२७०] ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्ति उपक्रम [१३४] रीया गाथा: ||--|| अनुयोनिश्चयं तु सर्ववेदिनो विदन्तीति । तदेकैककोटिगतमुत्सेधाङ्गुलं श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याङ्गुिलं, कथमलधा- मिदम् ', उच्यते, श्रीमहावीरस्य सप्तहस्तप्रमाणत्वादेकैकस्य च हस्तस्य चतुर्विशत्युत्सेधाङ्गुलमानत्वादष्टष-31 नाट्यधिकशताङ्गलमानो भगवानुत्सेधाङ्गुलेन सिद्धो भवति, स एव चात्माङ्गुलेन मतान्तरमाश्रित्य खहस्तेन प्रमाणद्वार सार्द्धहस्तत्रयमानत्वाचतुरशीत्यङ्गुलमानो गीयते, अतः सामोदेकमुत्सेधाजुलं श्रीमन्महावीरास्माङ्गलापे॥१७२॥ क्षया अर्धाङ्गलमेव भवति, येषां तु मतेन भगवानात्माङ्गुलेनाष्टोत्तरशताङ्गुलमानः खहस्तेन सार्द्धहस्तचतु-18 |ष्टयमानत्वात् तन्मतेन भगवत एकस्मिनात्माङ्गुले-एकमुत्सेधाङ्गुलं तस्य च पञ्च नवमभागा भवन्ति, अष्ट-13 षष्ट्यधिकशतस्याष्टोत्तरशतेन भागापहारे एतावत एव भावात्, यन्मतेन तु भगवान्विशत्यधिकमङ्गुलशतं खहस्तेन पञ्चहस्तमानत्वात्, तन्मतेन भगवत एकस्मिन्नात्माङ्गुल एकमुत्सेधाजुलं तस्य च द्वौ पचभागी भवतः, अष्टषष्ट्यधिकशतस्य विंशत्यधिकशतेन भागे हृते इयत एव लाभात्, तदेवमिहायमतमपेक्ष्यैकमुत्सेधाडलं, भगवदात्माङ्गलस्थाईरूपतया प्रोक्तमित्यवसेयमिति । तदुच्छ्रयाङ्गुलं सहस्रगुणितं प्रमाणामुलं भवति, कथछामिवमवसीयते ?, उच्यते, भरतश्चक्रवर्ती प्रमाणाङ्गुलेनात्माङ्गुलेन च किल विंशतिशतमङ्गलानां भवति, भर-13 तात्माङ्गुलस्य प्रमाणाङ्गुलस्य चैकरूपत्वात् , उत्सेधाङ्गुलेन तु पञ्चधनु शतमानत्वात् प्रतिधनुश्च षषणवत्यङ्गुलसद्भावाद अष्टचत्वारिंशत् सहस्त्राण्यगुलानां संपद्यते, अतः सामोदेकस्मिन् प्रमाणाङ्गुले चत्वारि शतान्यु- १७२॥ त्सेधाङ्गुलानां भवन्ति, विंशत्यधिकशतेन अष्टचत्वारिंशत्सहस्राणां भागापहारे एतावतो लाभात्, दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः यद्येवमुत्सेधाङ्गुलात्प्रमाणाङ्गुलं चतुःशतगुणमेव स्यात् कथं सहस्रगुणमुक्तं ?, सत्यं, किन्तु प्रमाणाङ्गुलस्यातृतीयोत्सेधानुरूपं बाहुल्यमस्ति ततो यदा स्वकीयबाहुल्येन युक्तं यथाऽवस्थितमेवेदं चिन्त्यते तदोत्सेधाङ्गुलाच्चतुः शतगुणमेव भवति यदा स्वर्धतृतीयोत्सेधाङ्गुललक्षणेन बाहल्येन शतचतुष्टयलक्षणं दैर्ध्य गुण्यते तदा अङ्गुलविष्कम्भा सहस्राङ्गुलदीर्घा प्रमाणाङ्गुलविषया सूचिर्जायते, इदमुक्तं भवति-अर्द्धतृतीयाङ्गुलविष्कम्भे प्रमाणाङ्गुले तिस्रः श्रेणयः कल्प्यन्ते, एका अङ्गुलविष्कम्भा शतचतुष्टयदीर्घा, द्वितीयाऽपि तावन्मानैव, तृतीयाऽपि दैर्येण चतुःशतमानैव विष्कम्भे स्वर्द्धाङ्गुलं, ततोऽस्यापि दैयच्छतद्वयं गृहीत्वा विष्कम्भोऽलप्रमाणः संपद्येते, तथा च सत्यहुलशतद्वयदीर्घा अङ्गुलविष्कम्भा इयमपि सिद्धा, ततस्तिसृणामप्येतासामुपर्युपरि व्यवस्थापने उत्सेधाङ्गुलतोऽङ्गुलसहस्रदीर्घा अङ्गुलविष्कम्भा प्रमाणाङ्गुलस्य सूचिः सिद्धा भवति, तत इमां सूचिमधिकृत्योत्सेधाला तत्सहस्रगुणमुक्तं, वस्तुतस्तु चतुःशतगुणमेत्र, अत एव पृथ्वीपर्वतविमानादिमानान्यनेनैव चतुःशतगुणेन अर्द्धतृतीयाङ्गुललक्ष| णखविष्कम्भान्वितेनानीयन्ते न तु सहस्रगुणया अङ्गुलविष्कम्भया सूच्येति शेषं भावितार्थे, यावत् 'पुढ वीणं'ति रत्नप्रभादीनां 'कंडाणं'ति रत्नकाण्डादीनां 'पातालाणं'ति पातालकलशानां 'भवणाणं'ति भवनप त्यावासादीनां 'भवणपत्थडाण'ति भवप्रस्तटा नरकप्रस्तटान्तरे तेषां 'निरयाणं'ति नरकावासानां 'निरयाव १] अन्तर्भूत्या संपायते इति. For P&Pase City ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] वृत्तिः उपक्रमे गाथा: ||--|| अनुयो० लियाण'ति नरकावासपतीनां 'निरयपत्थडाणति 'तेरकारस नव सत्त पंच तिनि य तहेव एको येत्यादिना 8 मलधा टीप्रतिपादितानां नरकग्रस्तटानां, शेषं प्रतीतं, नवरं 'टकाणं ति छिन्नटकानां कूडाण'ति रत्नकुटादीनां 'सेला-I रीया जति मुण्डपर्वतानां 'सिहरीण'ति पर्वतानामेव शिखरवतां 'पदभाराणं ति तेषामेवेषन्नतानां 'वेलाणं'ति जलधिवेलाविषयभूमीनामूर्खाधोभूमिमध्येऽवगाहः, तदेवम् 'अंगुलविहत्थिरयणी'त्यादिगाथोपन्यस्ताङ्गुला॥१७॥दीनि योजनावसानानि पदानि व्याख्यातानि । साम्प्रतं शेषाणि श्रेण्यादीनि व्याचिख्यासुराह से समासओ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-सेडीअंगुले पयरंगुले घणंगुले, असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ सेढी, सेढी सेढीए गुणिया पयरं, पयरं सेढीए गुणियं लोगो, संखेजएणं लोगो गुणिओ संखेजा लोगा असंखेज्जएणं लोगो गुणिओ असंखेज्जा लोगा अणंतेणं लोगो गुणिओ अणंता लोगा । एएसि णं सेढिअंगुलपयरंगुलघणंगुलाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा?, सव्वथोवे सेढिअंगुले, पयरंगुले असंखेजगुणे, घणंगुले असंखिजगुणे, से तं पमाणंगुले। से तं विभागनिष्फपणे । से तं खेत्तप्पमाणे (सू०१३४) M दीप अनुक्रम COMSACANACAN [२५७ -२७०] ॥१७३॥ ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............................. मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: ||--|| CCCCESCAR 'अस्संखेज्जाउ जोयणकोडाकोडीओ सेदित्ति अनन्तरनिर्णीतप्रमाणाङ्गलेन यद्योजनं तेन योजनेनासङ्ख्यया योजनकोटीकोव्यः संवर्तितसमचतुरस्रीकृतलोकस्यैका श्रेणिर्भवति, कथं पुनलोकः संवर्य समचतुरश्रीक्रियते?, उच्यते,इह स्वरूपतो लोकस्तावञ्चतुर्दशरजूच्छ्रिता, अधस्ताद्देशोनससरज्जुविस्तरः, तिर्यग्लोकमध्ये एकपारज्जुविस्तृतः, प्रह्मलोकमध्ये पञ्चरज्जुविस्तीर्णी, उपरि तु लोकान्ते एकरज्जुविष्कम्भा, शेषस्थानेषु कचिस्को-४ |ऽप्यनियतो विस्तरः, रज्जुप्रमाणं तु स्वयम्भूरमणसमुद्रस्य पौरस्त्यपाश्चात्यवेदिकान्तं यावद्दक्षिणोत्तरवेदिकान्तं | दावा यावदवसेयम् । एवं स्थितोऽसौ लोको बुद्धिपरिकल्पनया संवर्त्य धनीक्रियते, तथाहि-रज्जुविस्तीर्णाया-ISK खसनाडिकाया दक्षिणदिग्वबंधोलोकखण्डमधस्ताद्देशोनरज्जुनयविस्तीर्ण क्रमेण हीयमानविस्तरं तदेवोपरिधाद्रज्ज्वसङ्ख्येयभागविष्कम्भं सातिरेकससरज्जूच्छ्रितं गृहीखात्रसनाडिकाया एवोत्तरपार्वे विपरीतं सङ्घात्यते, अधस्तनं भागमुपरिकृत्वा उपरितन चाधः समानीय संयोज्यत इत्यर्थः, एवं च कृते अधोवर्तिलोकस्याई दे-18 शोनरज्जुचतुष्टयविस्तीर्ण सातिरेकसप्तरजूच्छ्रितं वाहल्यतोऽपि अधः कचिद्देशोनसप्तरज्जुमानमन्यत्र त्वनियतवाहल्यं जायते, इदानीमुपरितनलोकार्द्ध संवर्त्यते-तत्रापि रज्जुविस्तरापास्त्रसनाडिकाया दक्षिणदिग्वर्तिनी ब्रह्मलोकमध्यादधस्तनमुपरितनं च द्वे अपि खण्डे ब्रह्मलोकमध्ये प्रत्येक द्विरज्जुविस्तीर्णे उपर्यलोकसमीपे| अघस्तु रत्नप्रभाक्षुल्लकातरसमीपे अङ्गुलसहस्रभागविस्तरवती देशोनसार्द्धरज्जुत्रयोच्छ्रिते बुद्ध्या गृहीत्वा । तस्या एवोत्तरपाचे पूर्वोक्तस्वरूपेण वैपरीवेन सहायेते, एवं च कृते उपरितनं लोकस्याई द्वाभ्यामङ्गुलसह-15 दीप अनुक्रम C [२५७ -२७०] ASS KC ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र [४५], चूलिकासूत्र -[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि- रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ १७४ ॥ प्रभागाश्यामधिकं रज्जुत्रयविष्कम्भम्, इह चतुर्णां खण्डानां पर्यन्तेषु चत्वारोऽकुल सहस्रभागा भवन्ति, केवलमेकस्यां दिशि यौ ताभ्यां द्वाभ्यामप्येक एवाङ्गुलसहस्रभागः, एकदिग्वर्तित्वादेव, अपराभ्यामपि द्वाभ्यामिस्थमेवेत्यतस्तद्व्याधिकत्वमुक्तं देशोनसप्तरज्जूच्छ्रितं, बाहल्यतस्तु ब्रह्मलोकमध्ये पञ्च रज्जुबाहल्यमन्यत्र त्वनियतं जायते, इदं च सर्वे गृहीत्वा आघस्त्यसंवर्तितलो कार्डस्योत्तरपार्श्वे संघात्यते, एवं च योजिते आधस्त्यखण्डस्योच्छ्रये यदितरोच्छ्रयादधिकं तद् खण्डित्वा उपरितनसङ्घातितखण्डस्य बाहल्ये ऊर्ध्वायत संघात्यते, एवं च सातिरेकाः पञ्च रजवः कचिद्वाहत्यं सिद्ध्यति, तथा आधस्त्य खण्डमधस्ताद्यथा सम्भवं देशोनससरज्जुबाहुल्यं प्रागुक्तम्, अत उपरितनखण्डबाहल्यादेशोनरज्जुद्वयमत्रातिरिच्यत इत्यस्मादतिरिच्यमानबाहल्यादर्द्ध गृहीत्वा उपरितनखण्डबाहल्ये संयोज्यते, एवं च कृते बाहल्यतस्तावत्सर्वमप्येतचतुर श्रीकृतन भाखण्डं कियत्यपि प्रदेशे रज्ज्वसङ्ख्येयभागाधिकाः षट् रज्जवो भवन्ति, व्यवहारतस्तु सर्वे सप्तरज्जुबाहल्यमिदमुच्यते, व्यवहारनयो हि किञ्चिन्यूनस सहस्तादिप्रमाणमपि पटादिवस्तु परिपूर्ण सप्तहस्तादिमानं व्यपदिशति, देशतोऽपि च दृष्टं बाहल्यादिधर्म परिपूर्णेऽपि वस्तुन्यध्यवस्यति, स्थूलदृष्टित्वादिति भावः अत एव तन्म| तेनैवात्र सप्तरज्जुबाहल्यता सर्वगता द्रष्टव्या, आयामविष्कम्भाभ्यां तु प्रत्येकं देशोनसप्तरज्जुप्रमाणमिदं जातं, व्यवहारतस्त्वत्रापि प्रत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणता दृश्यते, तदेवं व्यवहारनयमतेनायामविष्कम्भबाहल्यैः १ खद् खपुण् भेदे इति चीरादिपाठेऽपि अनिल्यो णिचुरादीनामिति नात्र पिजागमः For P&Pase City ~359~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥ १७४ ॥ by Mr Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२५७ -२७०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३४] / गाथा ||१०१-१०२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. ३० Jan Ebertor प्रत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणो घनो जातः, एतच वैशाखस्थानस्थित पुरुषाकारं सर्वत्र वृत्तखरूपं च लोकं संस्थाप्य सर्व भावनीयं, सिद्धान्ते च यत्र कचिदविशेषितायाः श्रेण्याः सामान्येन ग्रहणं तत्र सर्वत्रास्य घनीकृतलोकस्य सम्बन्धिनी सप्तरज्जुप्रमाणा सा ग्राह्या, तथा प्रतरोऽप्येतावत्प्रमाण एव बोद्धव्यः, तदियं सप्तर|ज्ज्वायामत्वात् प्रमाणाङ्गुलतोऽसङ्ख्ये प्रयोजन कोटिकोट्यायता एकप्रादेशिकी श्रेणिः, सा च तथैव गुणिता प्रतरः, सोऽपि यथोक्तश्रेण्या गुणितो लोकः, अयमपि सङ्ख्येयेन राशिना गुणितः सङ्ख्येया लोकाः, असङ्|ख्येयेन तु राशिना समाहतोऽसङ्ख्येया लोकाः, अनन्तेश्च लोकैरलोकः नन्वङ्गुलादिभिर्जीवाजीवादिवस्तूनि प्रमीयन्त इति तेषां प्रमाणता युक्ता, अलोकेन तु न किञ्चित्प्रमीयते इति कथं तस्य प्रमाणता ?, उच्यते, यद्यपि बाह्यं वस्त्वनेन न प्रमीयते तथापि स्वस्वरूपं तेन प्रमीयत एव तदभावे तद्विषयबुद्ध्यभावप्रसङ्गात्, तदेवम् ' अंगुलविहस्थिरयणी'त्यादि गाथा व्याख्याता । समाप्तं च क्षेत्रप्रमाणमिति ॥ १३४ ॥ अथ कालप्रमाणमुच्यते से किं तं कालप्पमाणे १, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पएसनिष्कपणे अ विभागनिष्फण्णे अ (सू० १३५) ॥ से किं तं पएसणिकपणे १, २ एगसमयट्टिईए दुसमयदिईए तिसमट्टिईए जाव दससमयट्टिईए असंखिजसमयट्टिईए, से तं पएसनिष्कण्णे ( सू० For P&Pase Cinly ~360~ www.w Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३५-१३७] / गाथा ||१०३|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] गाथा: ||१|| अनुयो० १३६) ॥ से किं तं विभागनिप्फण्णे ?,-समयावलिअमुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा वृत्तिः मलधाय। संवच्छरजुगपलिआ सागरओसप्पिपरिअहा ॥ १॥ (सू० १३७) उपक्रमे रीया प्रमाणद्वारं गतार्थमेव, नवरमिह प्रदेशा:-कालस्य निर्विभागा भागाः, तैर्निष्पन्न प्रदेशनिष्पन्न, तत्रैकसमयस्थितिकः। ॥ १७५॥ परमाणुः स्कन्धो वा एकेन कालप्रदेशेन निष्पन्नो, द्विसमयस्थितिकस्तु द्वाभ्याम् , एवं यावदसङ्ख्येयसमय स्थितिकोऽसख्येयैः कालप्रदेशनिवृत्तः, परतस्त्वेकेन रूपेण पुद्गलानां स्थितिरेव नास्ति, प्रमाणता चेह प्रदे-11 शनिष्पन्नद्रव्यप्रमाणवद्भावनीया, विभागनिष्पन्नं तु समयादि, तथा चाह-समयावलिय'गाहा, एतां च Fगार्धा स्वयमेव विवरीषुः सर्वेषामपि कालभेदानां समयादित्वात् तन्निर्णयार्थ तावदाह से किं तं समए?, समयस्स णं परूवणं करिस्सामि, से जहानामए तुपणागदारए सिआ तरुणे बलवं जुग जुवाणे अप्पातंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणते तलजमलजुयलपरिघणिभवाहू चम्मेट्रगदुहणमुटिअसमाहतनिचितगत्तकाए उरस्सबलसमण्णागए लंघणपवणजइणवायामसमत्थे छेए दक्खे पत्तट्टे कुसले मेहावी निउणे निउणसिप्पोवगए एगं महतीं पडसाडियं (वा) पट्टसाडियं वा गहाय सयराह SCIENDSAX MOSHDSACROSS दीप अनुक्रम [२७१-२७४] ॥१७५।। अथ 'समय' वक्तव्यता आरभ्यते ~361~ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूल [१३८] / गाथा ||१०३...|| पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: ||--|| ASSESSES हत्थमेत्तं ओसारेजा, तत्थ चोअए पण्णवयं एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडिआए वा पट्टसाडिआए वा सयराहं हत्थमेत्ते ओसारिए से समए भवइ ?, नो इण? समढे, कम्हा?, जम्हा संखेजाणं तंतूणं समुदयसमितिसमागमेणं एगा पडसाडिआ निप्फजइ, उवरिल्लंमि तंतुमि अच्छिण्णे हिडिल्ले तंतू न छिज्जइ, अण्णंमि काले उवरिल्ले तंतू छिजइ अण्णमि काले हिटिल्ले तंतू छिज्जइ, तम्हा से समए न भवइ । एवं वयंतं पण्णवयं चोयए एवं वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारएणं तीसे पडसाडिआए वा पट्टसाडिए वा उवरिल्ले तंतू छिपणे से समए भवइ ?, न भवइ, कम्हा?, जम्हा संखेजाणं पम्हाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे तंतू निप्फज्जइ, उवरिल्ले पम्हे अच्छिपणे हेटिल्ले पम्हे न छिज्जइ, अपणंमि काले उवरिल्ले पम्हे छिजइ अण्णंमि काले हेट्टिल्ले पम्हे छिजइ, तम्हा? से समए न भवइ । एवं वयंतं पण्णवयं चोअए एवं• वयासी-जेणं कालेणं तेणं तुण्णागदारपणं दीप अनुक्रम [२७५-२७९] ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३८] / गाथा ||१०३...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: .................. प्रत सूत्रांक [१३८] अनुयो मलधारीया उपकमे गाथा: तस्स तंतुस्स उपरिल्ले पम्हे छिपणे से समए भवइ?, न भवइ, कम्हा?, जम्हा अणं वृत्तिः ताणं संघायाणं समुदयसमितिसमागमेणं एगे पम्हे निप्फज्जइ, उवरिल्ले संघाए अविसंघाइए हेट्रिल्ले संघाए न विसंघाइज्जइ, अण्णंमि काले उवरिल्ले संघाए विसंघाइजइ प्रमाणद्वार अपणमि काले हिटिल्ले संघाए विसंघाइजइ, तम्हा से समए न भवइ । एत्तोऽवि अ णं सुहमतराए समय पण्णत्ते समणाउसो!।। अथ कोऽयं समय इति पृष्टे सत्याह-समयस्य प्ररूपणां-विस्तरवती व्याख्यां करिष्यामि, सूक्ष्मत्वात् संक्षे. पतः कथितोऽपि नासौ सम्यक् प्रतीतिपथमवतरतीति भावः, तदेवाह-'से जहानामए' इत्यादि, स कश्चित् | यथानामको-यत्प्रकारनामा देवदत्तादिनामेत्यर्थः, 'तुषणागदारए' सूचिक इत्यर्थः, 'स्यात् भवेत्, यः किमिकात्याह-तरुणादिविशेषणविशिष्टः पटसाटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा 'सयराह झटिति कृत्वा हस्तमात्रम-19 पसारयेत्-पाटयेदिति सण्टङ्कः, अथवा 'सं इति पूर्ववत् 'यथेत्युपदर्शने नामेति सम्भावनायाम् 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, ततश्च स कश्चिदेव तावत्संभाव्यते तुपणागदारको यस्तरुणादिविशेषणः 'स्यात् कदाचित् पटसाटिका पट्टसाटिकां वा गृहीत्वा झटिति हस्तमात्रमपसारयेत्-पाटयेदिति तथैव सम्बन्धः, तत्र तरुणः- १७६ ॥ प्रवर्द्धमानवयाः, आह-दारकः प्रवर्द्धमानवया एव भवति, किं विशेषणेन?, नैवम्, आसन्नमृत्योः प्रवर्द्धमान दीप अनुक्रम [२७५-२७९] ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२७५ -२७९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १३८] / गाथा || १०३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः वयस्त्वाभावात् तस्य चासन्नमृत्युत्वेन विशिष्टसामर्थ्यानुपपत्तेः, विशिष्टसामर्थ्यप्रतिपादनार्थश्चायमारम्भः अन्ये तु वर्णादिगुणोपचितोऽभिनवस्तरुण इति व्याचक्षते, बलं सामर्थ्यं तदस्यास्तीति बलवान्, युगं सुषमदुष्यमादिकालः सोऽदृष्टो - निरुपद्रवो विशिष्टव लहे तु र्यस्यास्त्यसौ युगवान्, कालोपद्रवोऽपि सामर्थ्यविघ्नहेतुरितीत्थं विशेषणं, 'जुवाणोति युवा-यौवनस्थः प्राप्तवया एष इत्यैवम् अणति व्यपदिशति लोको यमसौ निरुक्तिवशात् युवानः, बाल्यादिकालेऽपि दारकोऽभिधीयते अतो विशिष्ट वयोऽवस्थापरिग्रहार्थमेतद्विशेषणम्, अल्पशब्दोऽभाववचनः, अल्प आतङ्को रोगो यस्य स तथा निरातङ्क इत्यर्थः स्थिरः प्रकृतपदं पाठ्यतोऽकम्पोऽग्रहस्तो- हस्ताग्रं यस्य स तथा दृढं पाणिपादं यस्य पार्श्व पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणते-परिनि ष्ठिततां गते यस्य स तथा, सर्वावयवैरुत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलयमलजुयलपरिघणिभवाहू' तलौ-तालवृक्षौ तयोर्यमल समश्रेणीकं यद युगलं द्वयं परिषश्च-अर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाह यस्य स तथा आगन्तुकोपकरणजं सामर्थ्यमाह - 'चर्मेष्टकाद्रुघणमुष्टिकसमाहतनिचितगात्र काय:' चर्मेष्टकया दुघणेन मुष्टिकेन च समाहतानि प्रतिदिनमभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि - निविडीकृतानि गात्राणि स्कन्धोरुपृष्टादीनि यत्र स तथाविधः कायो- देहो यस्य स तथा चर्मेष्टकादयश्च लोकप्रतीता एव, 'औरस्य यल समन्वागत' आन्तरोत्साहवीर्ययुक्तः, व्यायामवत्तां दर्शयति- 'लङ्घनप्लवनजवनव्यायामसमर्थः ' जवनशब्दः शीधवचनः, छेकः-प्रयोगज्ञः दक्षः शीघ्रकारी प्राप्तार्थः- अधिकृते कर्मणि निष्ठां गतः, प्राज्ञ इत्यन्ये, कुशल:-आ For P&Praise Cly ~364~ entery Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३८] / गाथा ||१०३...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: अनुयोलोचितकारी मेधावी-सकृच्छ्रुतदृष्टकर्मज्ञः निपुण-उपायारम्भकः निपुणशिल्पोपगतः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितः वृत्तिः मलधा एवंविधो ह्यल्पेनैव कालेन साटिकां पाटयतीति बहुविशेषणोपादानं, स इत्यम्भूत एका महती पटसाटिकां | उपक्रम रीया पट्टसाटिका वा पटसाटिकाया इयं श्लक्ष्णतरेति भेदेनोपादानं, गृहीत्वा 'सयराहमिति सकृत् झटिति कृस्वे- प्रमाणद्वारं ॥१७॥ त्यर्थः, हस्तमात्रमपसारयेत्-पाटयेदित्यर्थः, तत्रैवं स्थिते प्रेरकः-शिष्यः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापको-गुरुस्तमेवमवादीत्, किम् ?-येन कालेन तेन तुण्णागदारकेण तस्याः पटसाटिकायाः पसाटिकाया वा सकूद्धस्तमात्रमपसारित-पाटितमसी समयो भवति?, प्रज्ञापक आह-नायमर्थः समर्थ:-नैतदेवमित्युक्तं भवति, कस्मादिति | पृष्ट उपपत्तिमाह-यस्मात् सख्येयानां तन्तूनां समुदयसमितिसमागमेनेति पूर्ववेद, एकार्था वा सर्वेऽप्यमी समुदायवाचकाः, पदसाटिका निष्पद्यते, तत्र च 'उवरिल्लेत्ति उपरितने तन्तौ अच्छिन्ने-अविदारिते 'हेडिहल्ले'त्ति आधस्त्यतन्तुर्न छिद्यते, अतोऽन्यस्मिन् काले उपरितनस्तन्तुः छियते अन्यस्मिन् काले आधस्त्या, तस्मादसी समयो न भवति, एवं वदन्तं प्रज्ञापकं प्रेरक एवमवादीत्-येन कालेन तेन तुन्नागदारकेण तस्या:पटसाटिकाया उपरितनस्तन्तुश्छिन्नः स समयः?, किं भवतीति शेषः, अत्र प्रज्ञापक आह-न भवतीति, क| स्मात् ?, यस्मात्सङ्ख्येयानां 'पक्ष्मणां' लोके प्रतीतस्वरूपाणां समुदायेत्यादि सर्व तथैव यावत्तस्मादसौ समयो न भवति, एवं वदन्तं प्रज्ञापकमित्याशुपरितनपक्ष्मसूत्रमपि तथैव व्याख्येयं, नवरमनन्तानां परमाणूनां वि IA|१७७॥ |शिष्टैकपरिणामापत्तिः सातः, तेषामनन्तानां यः समुदयः-संयोगस्तेषां समुदयानां या अन्योऽन्यानुगति कर CALSACCASCENERALA दीप अनुक्रम [२७५-२७९] ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२७५ -२७९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १३८] / गाथा ||१०३...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः रसौ समितिः, तासां समागमेन-एकवस्तुनिर्वर्तनाय मीलनेन उपरितनपक्ष्मोत्पद्यते, समुदायवाचकत्वेनैकार्था वा समुदयादयः तस्मादसावुपरितनैकपक्ष्मच्छेदनकालः समयो न भवति, कस्तर्हि समय इत्याह- 'एत्तोऽवि अणमित्यादि, एतस्माद् उपरितनैकपक्ष्मच्छेदनकालात् सूक्ष्मतरः समयः प्रज्ञप्तो हे! श्रमणायुष्मन्निति, अत्राहननु यद्यनन्तैः परमाणुसङ्घातैः पक्ष्म निष्पद्यते ते च सङ्घाताः क्रमेण छिद्यन्ते तचैकस्मिन्नपि पक्ष्मणि विदार्यमाणे अनन्ताः समया लगेयुः, एतचागमेन सह विरुध्यते, तत्रासङ्ख्ये या स्वप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु समयासङ्ख्येयकस्यैव प्रतिपादनात्, यत उक्तम्- "असंखेजासु णं भंते! उस्सप्पिणिअवसप्पिणी केवईया स मया पण्णत्ता ?, गोयमा!, असंखेजा, अनंतासु णं भंते! उस्सप्पिणिअवसप्पिणीसु केवइया समया पण्णसा?, गोयमा !, अनंता" तदेतत्कथम्, अत्रोच्यते, अस्त्येतत्, किन्तु पाटनप्रवृत्तपुरुषप्रयत्नस्याचिन्त्यशक्तित्वात् प्रतिसमयमनन्तानां सङ्घातानां छेदः संपद्यते, एवं च सत्येकस्मिन् समये यावन्तः सङ्घातारिछ्यन्ते तैरनन्तैरपि स्थूलतर एक एव सङ्घातो विवश्यते, एवम्भूताः स्थूलतरसङ्गाता एकस्मिन्पक्ष्मणि असङ्ख्येया एव भवन्ति तेषां च क्रमेण छेदने असङ्ख्येयैः समयैः पक्ष्म छिद्यते, अतो न कश्चिद्विरोधः, इत्थं च विशेपतः सूत्रे अनुक्तमप्यवश्यं प्रतिपत्तव्यम्, अन्यथा ग्रन्थान्तरैः सह विरोधप्रसङ्गात् सूत्राणां च सूचामात्र १] असल्यास भदन्त उत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु कियन्तः समयाः प्रज्ञताः ! गौतम असल्येवाः, अनन्तासु भदन्त उत्सर्पिव्यवसर्पिणीषु कियन्तः समयाः प्राप्ताः गौतम! अनन्ताः, For P&Praise Cly ~366~ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३८] / गाथा ||१०३...|| ........... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] ॥१७८॥ गाथा: ||--|| अनुयो त्वादिति, ततोऽसङ्ख्येयैरेव समयैर्यथोक्तपक्ष्मणो विदार्यमाणत्वाच्छद्मस्थानुभवविषयस्य च समयप्रसाधकस्य । वृत्तिः मलधा- विशिष्टक्रियाविशेषस्य कस्यचिद्दर्शयितुमशक्यत्वाद् 'एत्तोऽवि णं सुहुमतराए समए' इति सामान्येनैवो-IN उपक्रमे रीया Jalक्तवानिति, एकस्मादुपरितनपक्षमच्छेदनकालादसङ्ख्याततमोऽशः समय इति स्थितं, युगपदनन्तसङ्घातविदा-प्रमाणद्वार रणहेतुपूर्वोक्तप्रयत्नविशेषसिद्धिश्च नगरादिपस्थितानवरतप्रवृत्तपुरुषादेः प्रयत्नविशेषात् प्रतिक्षणं बहनभ:प्रदेशान् विलयाचिरेणैवेष्टदेशप्राप्तिर्भावनीया, यदि पुनरसौ क्रमेणैकैकं व्योमप्रदेशं लपयेत् तदा असख्येयोत्सर्पिणीअवसर्पिणीभिरेवेष्टदेशं प्रामुयाद् 'अंगुलसेढीमित्ते उस्सप्पिणीउ असंखेजा इत्यादिवचनादिति |भावः, न चातीन्द्रियेष्वर्थेपु एकान्तेन युक्तिनिष्ठ व्यं, सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्, उक्तं च-"आगमचोपप-IN कात्तिश्च, सम्पूर्ण विद्धि लक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां, सद्भावप्रतिपत्तये ॥१॥ आगमश्चाप्तवचनमाप्तं दोष क्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न यात्विसम्भवात् ॥ २॥ उपपत्तिर्भवेयुक्तिः सद्भावप्रसाधिका । &साऽन्वयव्यतिरेकादिलक्षणा सूरिभिः कृता ॥३॥” इति, निदर्शितं चेहोभयमपीत्यलं विस्तरेण । असंखिज्जाणं समयाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा आवलिअत्ति वुच्चइ, संखेजाओ आवलियाओ ऊसासो, संखिज्जाओ आवलिआओ नीसासो,-हस्स अणवग१ प्राप्तिभावनयेति संभाव्यते. २ अहलमात्रश्रेणी उत्सर्पियोऽसदस्येयाः, दीप अनुक्रम [२७५-२७९] ॥१७८॥ ॐ ~367~ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................. मूलं [१३८] / गाथा ||१०४-१०६|| .............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: ||-|| लस्स निरुवकिट्रस्स जंतुणो। एगे उसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥१॥सत्तपाणूणि से थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहत्तरीए, एस मुहुत्ते विआहिए ॥२॥ तिषिण सहस्सा सत्त य सयाई तेहुत्तरिं च ऊसासा । एस मुहत्तो भणिओ सव्वेहिं अणंतनाणीहि ॥३॥ एएणं मुहुत्तपमाणेणं तीसं मुहुत्ता अहोरतं, पण्णरस अहोरत्ता पक्खो, दो पक्खा मासो, दो मासा ऊऊ, तिषिण उऊ अयणं, दो अयणाई संवच्छरे, पंच संवच्छराई जुगे, वीसं जुगाई वाससयं, दस वाससयाई वाससहस्सं, सयं वाससहस्साणं वाससयसहस्सं, चोरासीइं वाससयसहस्साइं से एगे पुव्वंगे, चउरासीइ पुवंगसयसयस्साई से एगे पुवे, चउरासीई पुव्वसयसहस्साइं से एगे तुडिअंगे, चउरासीई तुडिअंगसयसहस्साइं से एगे तुडिए, चउरासीइं तुडिअसयसहस्साई से एगे अडडंगे, चोरासीइं अडडंगसयसहस्साई से एगे अडडे, एवं अववंगे अववे हुहुअंगे हुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे नलिणंगे नलिणे अच्छनिऊरंगे अच्छ दीप अनुक्रम [२७५-२७९] NAGARLS ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३८] / गाथा ||१०४-१०६|| ......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५, चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 454643 [१३८] वृत्तिः अनुयो. मलधारीया ॥१७९|| गाथा: ||--|| निउरे अउअंगे अउए पउअंगे पउए णउअंगे णउए चूलिअंगे चूलिया सीसपहेलियंगे चउरासीई सीसपहेलियंगसयसहस्साइं सा एगा सीसपहेलिआ । एयावया चेव उपक्रमे प्रमाणद्वारं गणिए, एयावया चेव गणिअस्स विसए, एत्तोवरं ओवमिए पवत्तइ (सू० १३८) शेषं गतार्थ, यावत् 'हवस्स' गाहा, हृष्टस्य-तुष्टस्य अनवकल्पस्य-जरसा अपीडितस्य निरुपक्लिष्टस्य-व्याधिना प्राक साम्प्रतं चानभिभूतस्य जन्तोः-मनुष्यादेरेक उच्च्ासयुक्तो नि:श्वासः एष प्राण उच्यते, शोकजरादिभिरवस्थस्य जन्तोरुन्टासनि:श्वासः त्वरितादिस्वरूपतया खभावस्थो न भवस्यतो हष्टादिविशेषणो-18 पादानं । 'सत्त पाणूणी'त्यादि श्लोकः, सप्त प्राणा-यथोक्तखरूपाः स एकः स्तोकः सप्त स्तोकाः स एको लवः लवानां सप्तसप्तत्या यो निष्पद्यते एष मुहतों व्याख्यातः । साम्प्रतं सप्तसप्ततिलवमानतया सामान्येन निरूपितं मुहूर्तमेवोच्छाससङ्ख्यया विशेषतो निरूपयितुमाह-तिणि सहस्सा' गाहा, अस्या भावार्थ:-सप्तभिरुच्वासैरेकः स्तोको निर्दिष्टः, एवंभूताश्च स्तोका एकस्मिल्लवे सप्त प्रोक्ताः, ततः सप्त ससभिरेव गुणिता इत्येकमिंल्लवे एकोनपश्चाशदुच्छासाः सिद्धाः, एकस्मिंश्च मुहर्ते लवाः सप्तसप्ततिनिर्णीताः, अत एकोनपश्चाश-1 सप्तसप्तत्या गुण्यते ततो यथोक्तमुच्छासनिःश्वासमानं भवति, उच्छ्रासशब्दस्योपलक्षणत्वात्, अहोरात्रा-18||१७९ ॥ दयः शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तास्तु कालप्रमाणविशेषाः प्राकालानुपूर्व्यामेव निर्णीतार्थाः, 'एयावया चेव गणिए' MAR दीप अनुक्रम [२७५-२७९] JERHI ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३८] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२७५ -२७९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१३८] / गाथा ||१०४-१०६ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः इत्यादि, एतावत्-शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तमेव तावद्गुणितं एतावतामेव शीर्षप्रहेलिकापर्यन्तानां चतुर्णवत्यधिकश तलक्षणानामेवाङ्कस्थानानां दर्शनादेतावदेव गणितं भवति न परत इति भावः, एतावानेव च शीर्षप्रहेलिकाप्रमितराशिपर्यम्तो गणितस्य विषयों, गणितस्य प्रमेयमित्यर्थः, अतः परं सर्वमौपमिकं ॥ १३८ ॥ तदेव निरूपयितुमाह से किं तं ओमिए १, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पलिओ मे य सागरोवमे य, से किं तं प लिओ मे १, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा- उद्धारपलिओ मे अद्धापलिओवमे खेत्तपलिओवमे अ, से किं तं उद्धारपलिओवमे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ वावहारिए अ, तत्थ णं जे से सहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिआ जोयणं आयामविक्खंभेणं जोअणं उङ्कं उच्चत्तेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पले एगाहिअबेआहिअतेआहिअ जाव उक्कोसेणं सत्तरतरूढाणं संसट्टे संनिचिते भरिए वालग्गकोडीणं ते णं वालग्गा नो अग्गी डहेज्जा नो वाऊ हरेजा नो कुहेजा नो पलिविन्द्धंसिज्जा णो पूइताए हव्वमागच्छेजा, तओ णं समए २ एगमेगं For P&Praise Cly ~ 370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३९] / गाथा ||१०७-११०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] अनुयोग मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥१८ ॥ गाथा: ||--|| वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्रिए भवइ, से तं ववहारिए उद्धारपलिओवमे । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं ववहारिअस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥ एएहिं वावहारिअउद्धारपलि ओवमसागरोवमेहिं किं पओअणं?, एएहिं वावहारिअउद्धारपलिओवमसागरोवमेहि णत्थि किंचिप्पओअणं, केवलं पण्णवणा पण्णविजइ, से तं वावहारिए उद्धारपलिओवमे। से किं तं सुहमे उद्धारपलिओवमे?, २ से जहानामए पल्ले सिआ जोअणं आयामविक्खंभेणं जोअणं उव्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेआहिअतेआहिअ उक्कोसेणं सत्तरत्तपरूढाणं संसटे संनिचिते भरिए वालग्गकोडीणं, तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिज्जाइं खंडाई कजइ, ते णं वालग्गा दिट्टीओगाहणाओ असंखेजइभागमेत्ता सुहमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाउ असंखेज्जगुणा, ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेजा णो वाऊ हरेज्जा णो कुहेजा णो पलिविद्धंसिज्जा णो पूइ दीप अनुक्रम [२८०-२८८] NCE ॥१८ ॥ JaEhtrina ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१३९] / गाथा ||१०७-११०|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: ||--|| ताए हव्वमागच्छेजा, तओ णं समए २ एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएंण कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे णिट्ठिए भवइ, से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिआ। तं सुहमस्स उद्धारसागरोवमस्स एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥ एएहिं सुहुमउद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं किं पओअणं?, एएहिं सुहमउद्धारपलिओवमसागरोवमेहिं दीवसमुदाणं उद्धारो घेप्पइ । केवइआणं भंते ! दीवसमुदा उद्धारेणं पं०१, गो! जावइआणं अड्डाइजाणं उद्धारसा० उद्धारसमया एव इया णं दीवसमुद्दा उद्धारेणं पण्णत्ता, से तं सुहुमे उद्धारपलिओवमे। से तं उद्धा। . उपमया निवृत्तमीपमिकम् , उपमानमन्तरेण यत्कालप्रमाणमनतिशयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदीपमिकमिति भावः, तच द्विधा-पल्योपमं सागरोपमं च, तत्र धान्यपल्यवत् पल्यो वक्ष्यमाणवरूपः तेनोपमा यस्मिन् तत्पल्योपमं, तथा महत्त्वसाम्यात् सागरेणोपमा यत्र तत्सागरोपम, तत्र पल्योपमं विधा, तद्यथा-'उद्धा|रपलिओवमें इत्यादि, तत्र वक्ष्यमाणखरूपवालाग्राणां तत्खण्डानां वा तद्वारेण द्वीपसमुद्राणां वा प्रतिस|मयमुहरणम्-अपोद्धरणमपहरणमुद्धार तद्विषयं तत्पधानं वा पल्पोपममुद्धारपल्योपम, तथा अद्धेति-काला। दीप अनुक्रम [२८०-२८८] अनु. ३१ Jiatical ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८० -२८८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १३९] / गाथा ||१०७-११०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १८१ ॥ स चेह प्रस्तावाद्वक्ष्यमाणवालाग्राणां तत्खण्डानां वा प्रत्येकं वर्षशतलक्षण उद्धारकालो गृह्यते, अथवा यो नारकायायुःकालः प्रकृतपल्योपममेयत्वेन वक्ष्यते स एवोपादीयते, ततस्तत्प्रधानं पत्योपममद्वापल्योपमं तथा क्षेत्रम्-आकाशं तदुद्धारप्रधानं पस्योपमं क्षेत्रपल्योपमम् । तत्रायं निरूपयितुमाह- 'से किं लं उद्धा रपलिओ में इत्यादि, उद्धारपल्योपमं द्विविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-वालाग्राणां सूक्ष्मखण्डकरणात् सूक्ष्मं च तेषामेव सांव्यवहारिकप्रत्यक्षव्यवहारिभिर्गृह्यमाणानामखण्डानां यथावस्थितानां ग्रहणात् प्ररूपणामाऋयवहारोपयोगित्वाद्व्यावहारिकं चेति, तत्र यत् सूक्ष्मं तत् स्थाप्यं तिष्ठतु तावद्, व्यावहारिकप्ररूपणापूर्वकत्वादेतत्मरूपणायाः, पश्चात् प्ररूपयिष्यते इति भावः । तत्र यसद्व्यावहारिकमुद्धारपल्योपमं तदिदमिति शेषः, तदेव विवक्षुराह - 'से जहानामए' इत्यादि, तद्यथानाम धान्यपत्य इव पल्यः स्यात् स च वृत्तत्वादायामविष्कम्भाभ्यां वैर्घ्यविस्तराभ्यां प्रत्येकमुत्सेधाङ्गुलक्रमनिष्पन्नं योजनं ऊर्ध्वमुचत्वेनापि तथोजनं त्रिगुणं सविशेषं 'परिक्वेवेणं' भ्रमितिमङ्गीकृत्येति, सर्वस्यापि वृत्तपरिधेः किञ्चिन्यून षड्भागाधिकत्रिगुणत्वादस्यापि |पल्यस्य किञ्चिश्यूनषड्भागाधिकानि त्रीणि योजनानि परिधिर्भवतीत्यर्थः, स पत्यः 'एगाहियवेयाहियतेआहियति षष्ठीबहुवचन लोपादेकाहिकद्वयाहिकञ्याहिकानामुत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्र मुण्डिते शिरस्येकेनाहा यावत्प्रमाण वालाग्रकोट्य उत्तिष्ठन्ति ता एकाहिक्यः, द्वाभ्यां १ करो प्राधान्याश्रात्रात्मनेपदमिति संम्भावना. For P&Praise Cly ~373~ IC वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १८१ ॥ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३९] / गाथा ||१०७-११०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: ||--|| तु या उत्तिष्ठन्ति ता व्याहिक्यः त्रिभिस्तु याहिक्या, कथंभूत इत्याह-संसृष्ट' आकर्ण पूरितः 'सन्निचितः' प्रचयविशेषानिबिडीकृतः, किंबहुना ?, एवंभूतोऽसौ भृतो येन तानि वालाग्राणि मानिदेहेत् म वायुरपहरेत, अतीव निचितवादग्निपचनावपि न तत्र क्रमेते इत्यर्थः, 'नो कुहेज'त्तिनो कुथ्येयुः प्रचयवि-10 शेषादेव शुषिराभावात् वायोरसम्भवाच नासारतां गच्छेयुः, अत एव च 'नो परिविद्धंसेज'त्ति कतिपय-12 परिशाटनमप्यङ्गीकृत्य न परिविध्वंसेरन्नित्यर्थः, अत एव च 'नो पूइत्ताए हब्बमागच्छेजत्ति न पूतिखेन कदाचिदप्यागच्छेयुः-न कदाचिदुर्गन्धितां प्राप्नुयुरित्यर्थः, 'तओ कति तेभ्यो वालाग्रेभ्यः समये समये एकैकंद वालाग्रमपहत्य कालो मीयते इति शेषः, ततश्च 'जावइएण' मित्यादि, यावता कालेन स पल्यः 'क्षीणों हवालाप्रकर्षणात् क्षयमुपागतः आकृष्टधान्यकोष्ठागारवत्, तथा 'नीरएत्ति निर्गतो रजाकल्पसूक्ष्मवालाग्रो-18 |ऽपकृष्टधान्यरजाकोष्ठागारवत्, तथा 'निल्लेवित्ति अत्यन्तसंश्लेषात् तन्मयतागतवालाग्रलेपापहारानिर्लेपः अपनीतभित्त्यादिगतधान्यलेपकोष्ठागारबदू, एभित्रिभिः प्रकारैर्निष्ठितो-विशुद्ध इत्यर्थः, एकार्थिका वा एते शब्दाः अत्यन्तविशुद्धिप्रतिपादनपराः, वाचनान्तरदृश्यमानं च अन्यदपि पदमुक्तानुसारेण व्याख्येयम्, एता-18 वत्कालखरूपं बादरमुद्धारपल्योपमं भवति, एतच्च पल्यान्तर्गतवालाग्राणां सङ्ख्येयत्वात् सख्येयैः समयैस्तदपहारसम्भवात् सङ्ख्येयसमयमानं द्रष्टव्यम् । 'से तमित्यादि निगमनम् । व्यावहारिक पल्योपमं निरूप्याथ सागरोपममाह-एएसिं पल्लाण' गाहा, 'एतेषाम् अनन्तरोक्तपल्योपमानां दशभिः कोटाकोटिभिरेकं व्या दीप अनुक्रम [२८० -२८८] ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) (४५) ............ मूल [१३९] / गाथा ||१०७-११०|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: ||--|| अनुयोवहारिक सागरोपमं भवतीति तात्पर्य, शिष्यः पृच्छति-एतैर्व्यावहारिकपल्योपमसागरोपमैः किं प्रयोजनं ?- ४ा वृत्तिः मलधा कोऽर्थः साध्यते ?, तत्रोत्तरं-नास्ति किश्चित्प्रयोजनं, निरर्थकस्तर्हि तदुपन्यास इत्याशङ्कयाह-केवलं प्रज्ञापनाला उपक्रमे रीया प्रज्ञाप्यते-ग्ररूपणामानं क्रियत इत्यर्थः, ननु निरर्थकस्य प्ररूपणयाऽपि किं कर्तव्यम् ?, अतो यत्किञ्चिदेतत्, प्रमाणद्वार नैवम् , अभिप्रायापरिज्ञानाद एवं हि मन्यते, बादरे प्ररूपिते सूक्ष्मं सुखावसेयं स्याद् अतो बादरप्ररूपणा सू-14 ॥१८२॥ मोपयोगित्वान्नैकान्ततो नैरर्थक्यमनुभवति, तर्हि नास्ति किञ्चित्प्रयोजनमित्युक्तमसत्यं प्रामोतीति चेत्, नैवम् , एतावतः प्रयोजनस्याल्पखेनाविवक्षितत्वाद्, एवं बादराद्धापल्योपमादावपि वाच्यम् । 'से किं तं सुहमें इत्यादि, गतार्थमेव, 'जाव तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेजाइ मित्यादि, पूर्व वालाग्राणि सहजान्येव गृही. तानि, अत्र त्वेकैकमसङ्ख्येयखण्डीकृतं गृह्यत इति भावः, एवं सत्येकैकखण्डस्य यन्मानं भवति तन्निरूपयितमाह-ते णं वालग्गा दिट्टीओगाहणाओं इत्यादि, 'तानि' खण्डीकृतवालाग्राणि प्रत्येक दृष्ट्यवगाह-12 नातः किम् ?-असख्येयभागमात्राणि, दृष्टिा-चक्षुद्वारोत्पन्नदर्शनरूपा साऽवगाहते परिच्छेदद्वारेण प्रवर्तते |यन्त्र वस्तुनि तदेव वस्तु दृष्ट्यवगाहना प्रोच्यते, ततोऽसङ्ख्येयभागवर्तीनि प्रत्येकं वालाग्रखण्डानि मन्तव्यानि, इदमुक्तं भवति-यत् पुद्गलद्रव्यं विशुद्धचक्षुदर्शनी छद्मस्थः पश्यति तदसङ्ख्ययभागमात्राण्येकैकशस्तानि भवन्ति, द्रव्यतो निरूप्याथ क्षेत्रतस्तन्मानमाह-'सुहमस्से'त्यादि, अयमन भावार्थ:-सूक्ष्मप-13 IM॥१८२॥ नकजीवशरीरं यावति क्षेत्रेऽवगाहते ततोऽसङ्ख्येयगुणानि प्रत्येक तानि भवन्ति, बादरपृथिवीकायिकपर्या-1 AAS5555 दीप अनुक्रम [२८० -२८८] ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१३९] / गाथा ||१०७-११०|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: ||--|| सशरीरतुल्यानीति वृद्धवादः, एषा च वालाग्रस्खण्डानामसङ्ख्येयत्वात् प्रतिसमयमुद्धारे किल सङ्ख्येया | वर्षकोव्योऽतिक्रामन्ति, अतः सङ्ख्येयवर्षकोटिमानमिदमवसेयं, शेषं तूक्तार्थप्रायं यावत् 'जावइया अड्डाइज्जा णं उद्धारसागरोवमाण'मित्यादि, यावन्तो तृतीयसागरोपमेषु 'उद्धारसमया' वालाग्रोद्धारोपलक्षिताः समया उद्धारसमयाः एतावन्तो द्विगुणद्विगुणविष्कम्भा द्वीपसमुद्रा यथोक्तेनोद्धारेण प्रज्ञसाः, असरूयेया इत्यर्थः । उक्तमुद्धारपल्योपमम् , अथाद्धापल्योपमं निरूपयितुमाह से किं तं अद्धा०?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ वावहारिए अ, तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से वाव० से जहा० पल्ले. जोअणं आया. जोअणं उ०तं तिगुणं सबि० परि०, से णं पल्ले एगाहिअबेआहिअतेआहिअ जाव भरिए वालग्गकोडीणं, तेणं वालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव णो पलिविद्धंसिजा नो पूइत्ताए हव्वमागच्छेजा, तओ णं वाससए २ एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निल्लेवे निट्ठिए भवइ, से तं वावहारिए अद्धापलिओवमे । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भविज दसगुणिया। तं ववहारिअस्स अद्धासा० एगस्स भवे परिमाणं ॥१॥एएहिं PRAKASBASE दीप अनुक्रम [२८० -२८८] ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८०-२८८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १३९] / गाथा ||१०७-११०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १८३ ॥ ववहारिएहिं अद्धा० प० सागरो० किं प०१, एएहिं व० अद्धाप० साग० नत्थि किंचिप्पओअणं, केवलं पण्णव, से तं ववहारिए अद्वाप० । से किं तं सुहुने अद्धाप० १,२० पल्ले सिआ जोअणं आया० जोअणं उङ्कं० तं तिगुणं सविसे० परि०, से णं पल्ले एग्राहिअ ० आ० जाव भरिए वालग्गकोडीणं, तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखेजाइं खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा दिट्टीओगाहणाओ असंखेजइभागमेत्ता सुहुमस्स पणग० सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा, ते णं वालग्गा णो अग्गी० जाव नो पलिविन्द्धसिजा नो इत्ताए हव्वमा०, तओ णं वाससए २ एगमेगं वालग्गं अवहाय जावइएणं कालेणं से प० खी० नी० निल्लेवे णिट्टिए भवइ, से तं सुहुने अद्धा० । एएसिं पलाणं कोडा कोडि भवेज दसगुणिया । तं सुहुमस्स अद्धासा० एगस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥ एहिं सुमेहिं अाप सागरोवमेहिं किं पओअणं ?, एएहिं सुहुमेहिं अद्धाप० साग० नेरइअतिरिक्खजोणिअमणुस्सदेवाणं आउअं मविज्जइ ( सू० १३९ ) For P&False Cnly ~377~ वृत्तिः उपक्रम प्रमाणद्वारं ॥ १८३ ॥ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१३९] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८९ -२९२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ (मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १३९] / गाथा ||१०७-११०|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः इदमप्रपत्थोपमवत्सर्वं भावनीयं, नवरमुद्धारकालस्येह वर्षशतमानत्वाद्व्यावहारिकपल्योपमे सङ्ख्येया वर्षकोव्योऽवसेयाः, सूक्ष्मपल्योपमे त्वसङ्ख्येया इति ॥ १३९ ॥ रइयाणं भंते! केवइयं कालं ठिई पं० १, गो० ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्साई उक्कोसे तेत्तीस सागरोवमाई, रयणप्पहापुढविणेरयाणं भंते! केवइयं कालं ठिइ पं० १, गो० ! जहन्नेणं दस वा० उक्कोसेणं एवं सागरोवमं, अपजत्तगरयणप्पहापुढविणेरइयाणं भंते! केवइयं० पं०१, गो० ! जहन्नेणवि अंतोमुहुत्तं उकोसेणवि अंतोमुहुत्तं, पज्जत्तगरयणप्प० नेरइयाणं भंते! केवइ० पं० १, गो० ! जहनेणं दसवा० अंतोमुहुतूणाई उक्कोसेणं एवं सागरोवमं अंतोमुहुत्तोणं, सकरप्पहापुढविनेरइआणं भंते! केवइ० पं० १, गो० ! जहनेणं एगं सागरोवमं उक्कोसेणं तिष्णि सागरोवमाई, एवं सेस पुढवीसु पुच्छा भाणियव्वा, वालुअप्पहापुढविनेरइयाणं जह० तिष्णि सागरोबमाई उक्को० सत्त सागरोवमाई, पंकप्पहापु० जह० सत्त० उको० दस सा०, धूमप्पहा For P&Pase City अस्य सूत्रस्य क्रम: ‘१४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् '१४२' इति क्रम मुद्रितं ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] अनुयो मलधारीया प्रमाणतारें ॥१८४॥ गाथा: ||--|| पु० जह. दस सा० उक्को० सत्तरस सागरोवमाइं, तमप्पहापु० जह० सत्तरस० उक्कोसेणं बावीस०, तमतमापुढविनेरइयाणं भंते! के०?, गो०! जह० बावीसं सा० उक्को सेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं। यदि नारकादीनामायूंष्येतैर्मीयन्ते तर्हि नारकाणां भदन्त ! कियन्तं कालं स्थितिः प्रज्ञप्ता? स्थीयते नारका४ दिभवेष्वनयेति स्थितिः-आयुःकर्मानुभवपरिणतिः, इह यद्यपि कर्मपुद्गलानां बन्धकालादारभ्य निर्जरणकालं यावत्सामान्येनावस्थितिः कर्मशास्त्रेषु स्थितिःप्रतीता(ग्रन्थायं ४०००) तथाऽप्यायुःकर्मपुद्गलानुभवनमेव जीवितं रूढं, शास्त्रकारस्यापि च दशवर्षसहस्रादिकां स्थिति प्रतिपादयतस्तदेवाभिधातुमभिप्रेतम्, अन्यथा बद्धेनाकायुषा प्राग्भवे यावन्तं कालमवतिष्ठते जन्तुस्तेन समधिकैव दशवर्षसहस्रादिका स्थितिरुक्ता स्यात्, न चैवं,12 तस्मान्नारकादिभवप्राप्तानां प्रथमसमयादारभ्यायुषोऽनुभवकाल एवावस्थितिः, सा च नारकाणामौधिकपदे जघन्यतो दश वर्षसहस्राणि, उत्कृष्टतस्तु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि, रत्नप्रभायां जघन्या तथैव उत्कृष्टा तु सागरोपमम् , अपर्याप्तपदे जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तमेव, ततः परमवश्यमेषां पर्याप्तत्त्वसम्भवात्, पर्याप्तपदे चापर्याप्तकालेन हीना औधिक्येव स्थितिद्रष्टव्या, एवमन्यास्वपि पृथिवीषु वाच्यं, नवरमुत्कृष्टा स्थितिः सर्वासु दीप अनुक्रम [२८९ ॥१८४॥ -२९२] 4 अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~379~ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] 56-1564592 गाथा: ||--|| इत्थमवसेया-“सागरमेगं तिय सत्त दस य सत्तरस तह य बावीसा। तेत्तीसं जाव ठिई सत्तसुवि कमेण पुढ-- वीसु ॥१॥" सि जघन्या तु-जा पढमाए जेट्टा सा बीयाए कणिढिया भणिया' इत्यादिक्रमाद्भावनीया. अपर्याप्तकालस्तु सर्वत्रान्तर्मुहर्तमेव, अपर्याप्सकाले चौधिकस्थितेर्विशोधिते सर्वत्र शेषा पर्याप्सस्थितिः, अपयोप्ताश्च नारका देवा असलयेयवर्षायुष्कतिर्यमनुष्याश्च करणत एव द्रष्टव्याः, लन्धितस्तु पर्याप्ता एव, शेषास्तु लब्ध्या पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च सम्भवन्ति । तदेवं पूर्वाभिहितं चतुर्विशतिदण्डकमनुसृत्य नारकाणामायुःस्थितिनिरूपिता, अथासुरकुमाराणां निरूपयितुमाह असुरकुमाराणं भंते! केवइअं कालं ठिई पं०?, गो०! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्को सातिरेगं सागरोवमं, असुरकुमारदेवीणं भंते! केवइ० ५०?, गो०! जहन्नेणं दस० वा. उक्को अद्धपंचमाइं पलिओवमाई, नागकुमाराणं भंते ! केव०५०?, गो० जह. दस वास० उक्कोसेणं देसूणाई दुण्णि पलिओवमाई, नागकुमारीणं भंते! १ सागरोपममेक श्रीगि सप्त मा ५ सप्तदश तथैव द्वाविंशतिः । अरविंशत् यावत् स्थितिः सप्तखपि कमेण पृथ्वीषु ॥1॥२ या प्रथमाया ज्येष्ठा सा दीप अनुक्रम [२८९ -२९२] 94584 द्वितीयायां कनिष्टा भगिता. अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] अनुयो मलधा वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वार रीया गाथा: ||--|| ॥१८५॥ केव० ५०१, गो० ज० दस वास० उक्को०. देसूर्ण पलिओवमं, एवं जहा णाग० देवाणं देवीण य तहा जाव थणियकुमाराणं देवाणं देवीण य भाणियव्वं । पुढवीकाइयाणं भंते! के०?, गो०! जह• अंतोमु० उक्को. बावीसं वाससहस्साई, सुहुमपुढवीकाइयाणं ओहियाणं अपजत्तयाणं पजत्तयाण य तिण्णिवि पुच्छा, गो०! जह० अंतोमुहत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं, बादरपुढविकाइयाणं पुच्छा, गो०! जह० अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई, अपजत्तगबादरपु० पुच्छा, गो०! जहपणेणवि अं० उक्कोसेणवि अंक, पजत्तगवादरपु० पुच्छा, गो०! जह. अंतोमुहुर्त उको बावीसं वा० अंतोमुहत्तृणाई, एवं सेसकाइयाणंपि पुच्छावयणं भाणियव्वं, आउकाइयाणं जह• अंतो० उक्कोसे० सत्त वा०, सुहुमआउकाइ. ओहिआणं अपज्जत्तगाणं पजत्तगाणं तिण्हवि जहण्णेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंक, बादरआउका. जहा ओहिआणं, अपज्जत्तगबादरआ० जहन्नेणवि अंतो. उक्कोसेणवि अं०, पजत्तग दीप अनुक्रम [२८९ -२९२] अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~381~ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] CANDRA गाथा: ||--|| बादरआ० जह. अंतोमुहत्तं उको सत्तवासस० अंतोमुहत्तूणाई। तेउकाइआणं जह अं० उक्को तिण्णि राइंदिआई, सुहमते. ओहिआणं अपज्जत्तगाणं पजत्तगाणं तिण्हवि जहण्णेणवि अंतो. उक्कोसेणवि अंक, बादरतेउकाइयाणं ज० अन्तो. उकोसेणं तिण्णि रा०, अपजत्तबा० ते० जहन्नेणवि अन्तो उक्को० अन्तो० पजत्तगबाद० जह० अंतोमु० उक्को तिण्णि रा० अंतोमुः। वाउका. जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उको तिपिण वाससहस्साई, सुहमवाउ० ओहिआणं अपजत्तगाणं पजत्तगाण यतिण्हवि जहण्णेणऽवि अंतो० उक्कोसे० अंक, बादरवा० ज० अन्तो० उक्को तिषिण वा०, अपज्जत्तगबादरवाउकाइ० जह० अं० उक्कोसेणवि अं०, पजत्तगवादरवाउ० जह• अंतोमुहत्तं उक्को तिण्णि वा० अंतोमु० । वणस्सइकाइआणं जहन्नेणं अं० उक्को० दस वाससहस्साइं, सुहमवणस्सइका. ओहिआणं अपजत्तगाणं पज्जत्तगाण य तिण्हवि जहण्णेणवि अंतोमु० उक्कोसे० अंक, बादरवणस्सइकाइआणं जह. दीप अनुक्रम [२८९ -२९२] Jamiac अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~382~ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४२ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८९ -२९२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ।। १८६ ॥ Ja Econ अंतो० को दस वा०, अपजत्तगबा० जह० अं० उक्कोसे० अंतो०, पज्जत्तगबादरवण० जहन्नेणं अं॰ उक्कोसेणं दस वास० अंतोमुहुतूणाई । वेइंदिआणं भंते! केव० पं० ?, गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्को० बारस संवच्छराणि, अपज्जत्तगबेइंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहनेणवितोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अं०, पज्जत्तगवेई० जह० अं० उक्को० बारससं० अंतोमुत्तूणाई | इंदिआणं पुच्छा, गो० ! जह० अं० उक्को० एगुणपण्णासं राइदिआणं, अपजत्तगतेइंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहणणेणवि अंतो० उक्कोसे अं०, पज्जत्तगतेइं० पुच्छा, गो० ! जह० अंतोमुहुत्तं उक्को० एगुणपण्णासं राईदिआई अंतोमुहुत्तूणाई | चउरिंदिआणं भंते! केवइ० पं० ?, गो० ! जह० अंतो० उक्को० छम्मासा, अपज्जत्तगच उरिंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जतगचउरिंदिआणं पुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अं० उक्को० छम्मासा अंतो० । पंचिंदियतिरिक्खजोणिआणं भंते! केवइ० पं० ?, गो० ! जह० अंतोमुडुतं उक्को० तिपिण पलि अस्य सूत्रस्य क्रम: ‘१४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् '१४२' इति क्रम मुद्रितं ~383~ se City वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १८६ ॥ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४२ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८९ -२९२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. ३२ ओवमाई, जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणिआणं भंते! केवइयं कालं ठिई पं० १, गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी, संमुच्छिमजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जनेणं अंतो० उक्को० पुव्वकोडी, अपज्जत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जहन्नेणवि अंतो॰ उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जत्तयसंमुच्छिमजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा, गन्भवक्कंतियजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जहनेणं अंतोमुहुतं उक्कोसेणं पुण्वकोडी, अपज्जत्तगगब्भवकंतियजलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जहन्नेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जत्तगगब्भवक्कंतियजलयपंचिंदिपुच्छा, गो० ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा, चउप्पयथलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिण्णि पलिओवमाई, संमुच्छिमच उप्पयथलयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासीइं वाससह - स्साई, अपज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जहन्नेणवि अंतो० For P&False Cinly अस्य सूत्रस्य क्रम: ‘१४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् '१४२' इति क्रम मुद्रितं ~ 384~ ww Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४२ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८९ -२९२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२ || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा या ॥ १८७ ॥ Ja Elem उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जत्तयसंमुच्छिमचउप्पयथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० चउरासी वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, गब्भवकंतियचउप्पयथलयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तिपिण पलिओवमाई, अपजत्तगगन्भवकंतियच उप्पयथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जपणेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जतगगग्भवक्कंतियच उप्पयथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जह० अंतो० उक्को तिण्णि पलिओ माई अंतोमुहुत्तूणाई, उरपरिसप्पथलयर पंचिंदियपुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडी, संमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियपुच्छा, गो० ! जह० अंतो० उक्को० तेवन्नं वाससहस्साई, अपज्जत्तयसंमुच्छिम उरपरिसप्पथलय र पंचिंदिय जाव गो० ! जहण्णेणवि अं० उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जत्तयसंमुच्छिमउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० तेवण्णं वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, गब्भवक्कंतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० जह० अंतो० उक्को० पुव्यकोडी, अपज्ज For P&Praise Cinly अस्य सूत्रस्य क्रम: ‘१४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् '१४२' इति क्रम मुद्रितं ~385~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ।। १८७ ॥ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४२ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ २८९ -२९२] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Eber तगगन्भवतियउरपरिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जहन्नेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंतो०, पजत्तयगब्भवकंतियउर परिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडी अंतोमुहुत्तूणा, भुअपरिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जहपण अंतो उक्कोसेणं पुव्वकोडी, संमुच्छिमभुयपरिसप्पथल० गो० ! जह० अं० उक्को० बायालीसं वाससहस्साई, अपज्जत्तयसंमुच्छिमभु अपरिसप्पथलयर पंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० अंतों०, पज्जत्तगसंमुच्छिम भुअपरिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० बायालीसं वाससहस्साइं अंतो०, गब्भवकंतियभुअपरिसप्पथलयर पंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० पुव्वकोडी, अपजत्तयगब्भवक्कंतियभुअपरिसप्पथलयरपंचिंदियजाव गो० ! जहन्नेणवि अंतो० उक्कोसेणवि अंतो०, पज्जत्तयगन्भवतियभु अपरिसप्पथलयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० rato yoवकोडी अंतीमुत्तूणा, खहयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह० अंतो० उक्को० For P&Pealise Cinly अस्य सूत्रस्य क्रम: ‘१४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् '१४२' इति क्रम मुद्रितं ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूल [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] अनुयो मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥१८८॥ गाथा: ||--|| पलिओवमस्स असंखेजइभागो, संमुच्छिमखहयरपंचिंदिय जाव गो० ! जह• अंतो० उक्को० बावत्तरि वाससहस्साई, अपज्जत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचिंदियपुच्छा, गो०! जह० अंतो० उको० अंतो०, पजत्तगसंमुच्छिमखहयरपंचिंदियजाव गो०! जहन्नेणं अंतो० उक्को० बावत्तरि वाससहस्साई अंतोमुहुत्तूणाई, गब्भवक्कंतियखहयर० जाव गो! जह• अंतो० उक्को० पलिओवमस्स असंखेजइभागो, अपज्जत्तगगब्भवक्कंतियखहयर जाव गो० ! जहाणेणवि अंतो० उक्को० अंतो०, पज्जत्तगगखहय० पंचिंदियतिरिक्खजोणिआणं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता, गो०! जह• अंतो० उक्कोपलिओवमस्स असंखिजइभागो अंतोमुहुत्तूणो । एत्थ एएसि णं संगहणिगाहाओ भवंति, तंजहा-समुच्छिमपुत्वकोडी चउरासीइं भवे सहस्साई । तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं ॥ १॥ गन्भमि पुत्वकोडी तिपिण य पलिओवमाइं परमाऊ । उरगभुअपुवकोडी पलिओवमासंखभागो अ॥२॥ मणुस्साणं भंते ! केव --- दीप अनुक्रम - [२८९ १८८॥ -२९२] अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~387~ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] गाथा: ||--|| इयं पण्णत्ता, गो ! जह० अंतो० उक्को तिषिण पलिओवमाइं, संमुच्छिममणुस्साणं जाव गो०! जहण्णेणवि अंतो० उक्कोसे. अंतो०, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं जाव गो०! जह• अंतो० उक्को तिणि पलिओवमाई, अपज्जत्तगगब्भ० मणुस्साणं भंते! केवइ० पण्णत्ता?, गो०! जह• अंतो० उक्को० अंतो०, पज्जत्तगगब्भ० मणुस्साणं भंते! केवइ०, गो०! जह० अंतो० उक्को तिण्णि पलि० अंतोमुहत्तूणाई । वाणमंतराणं देवाणं केवइ० पण्णत्ता ?, गो०! जह० दस वाससहस्साई उक्को० पलि ओवमं, वाणमंतरीणं देवीणं भंते! केव० पण्णता?, गो०! जह० दस वाससहस्साई उक्को अद्धपलिओवमं । जोइसियाणं भंते! देवाणं केवइ०?, गो! जह. सातिरेगं अट्रभागपलिओवमं उक्को० पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहियं, जोइसियदेवीणं भंते ! केवइ०?, गो०! जहन्नेणं अट्रभागपलिओवमं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाए वाससहस्सेहिं अब्भहिअं, चंदविमाणाणं भंते! देवाणं केव०?, गो०! जह दीप अनुक्रम [२८९ -२९२] JaEled अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयोग दृत्तिः [१४२] मलधारीया उपक्रम प्रमाणद्वार ॥१८९॥ गाथा: ||--|| चउभागपलिओवम उक्को० पलिओवमं वाससयसहस्समब्भहि, चंदविमाणाणं भंते ! देवीणं गो०! जह० चउभागपलिओवम उक्को० अद्धपलिओवमं पपणासाए वाससहस्सेहिं अब्भहिअं, सूरविमाणाणं भंते! देवाणं, गो०! जह० चउभागपलिओवम उको पलिओवमं वाससहस्समब्भहिअं, सूरविमाणाणं देवीणं, गो०! जह. चउभागपलिओवम उक्को अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहिअं, गहविमाणाणं देवाणं गो०! जह० चउभागपलिओवम उक्को० पलिओवम, गहविमाणाणं भंते! देवीणं, गो० जह• चउभागपलिओवम उक्को. अद्धपलिओवम, णक्खत्तविमाणाणं भंते! देवाणं, गो! जह० चउभागपलिओवम उक्को अद्धपलिओवम, णक्खत्तविमाणाणं भंते ! देवीणं गो! जह० चउभागपलिओवमं उक्को० सातिरेगं चउभागपलिओवम, ताराविमाणाणं भंते! गो०! जह० साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं उक्को चउभागपलिओवम, ताराविमाणाणं देवीणं भंते! केवइअं० पण्णत्ता?, गो! दीप अनुक्रम CCCCES [२८९ -२९२] ||१८९॥ अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~389~ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक %4564562 [१४२] गाथा: ||--|| जह अट्ठभागपलिओवमं उक्को० साइरेगं अट्ठभागपलिओवमं । वेमाणिआणं भंते! देवाणं केव० पण्णत्ता?, गो०! जह. पलिओवम उक्को तेत्तीसं सागरोवमाइं, वेमाणिआणं भंते! देवीणं केवइ० पण्णता?, गो०! जह० पलिओवम उक्को. पणपण्णं पलिओवमाइं, सोहम्मे णं भंते! कप्पे देवाणं, गो० जह. पलिओवम उक्को. दो सागरोवमाई, सोहम्मे णं भंते! कप्पे परिग्गहिआदेवीणं, गो०! जह० पलिओबमं उक्को० सत्त पलिओवमाई, सोहम्मे णं अपरिग्गहिआदेवीणं भंते ! के०१, गो! जह० पलिओवम उक्को पपणासं पलिओवम, ईसाणे णं भंते ! कप्पे देवाणं, गो! जह साइरेगं पलिओवर्म उक्को साइरेगाइं दो सागरोवमाई,ईसाणे णं भंते! कप्पे परिग्गहिआदेवीणं, गो०! जह• साइरेगं पलिओवम उक्को नव पलिओवमाई, अपरिग्गहिआदेवीणं भंते ! के०?, गो० जह. साइ. पलिओवमं उक्को. पणपपणं पलिओवमाइं, सणंकुमारे णं भंते ! कप्पे देवाणं, गो०! जह० दो सागरोवमाइं उ दीप रककरावर अनुक्रम [२८९ -२९२] अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] अनुयो० मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारी ॥१९ ॥ गाथा: ||--|| 55 कोसेणं सत्त सागरोवमाई, माहिंदे णं भंते! कप्पे देवाणं, गो०! जह. साइरेगाई दो सागरोवमाइं, उक्को साइरेगाइं सत्त सागरोवमाइं, बंभलोए णं भंते! कप्पे देवाणं, गो०! जह सत्त सागरोवमाई उक्को० दस सागरोवमाइं, एवं कप्पे कप्पे केवइ०५०?, गो०! एवं भाणियव्वं-लंतए जह० दस सागरोवमाई उक्को० चउद्दस सागरोवमाई, महासुक्के जह० चउद्दस सागरोवमाइं उक्को० सत्तरस सागरोवमाइं, सहस्सारे जह. सत्तरस सागरोवमाई उक्को० अट्ठारस सागरोवमाई, आणए जह अटारससागरोवमाई उक्को० एगूणवीसं सागरोवमाई, पाणए जह० एगूणवीसं साग० उको० वीसं सागरोवमाई, आरणे जह० वीसं सागरोवमाई उक्को एकवीसं सागरोवमाई, अच्चुए जह० एकवीसं सागरोवमाई उक्को० बावीसं सागरोवमाई, हेट्रिमहेट्रिमगेविजबिमाणेसु णं भंते! देवाणं केवइ० ५०?, गो०! जह० बावीसं सागरोधमाई उको० तेवीसं सागरोवमाई, हेडिममज्झिमगेवेजविमाणेसु णं भंते! देवाणं केव०?, दीप अनुक्रम [२८९ ॥१९॥ -२९२] अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत -% % सूत्रांक [१४२] गाथा: ||--|| 15-5 गो० ! जह० तेवीसं सागरोवमाई उक्को० चउवीसं सागरोवमाइं, हेट्ठिमउवरिमगेवेजविमाणेसु णं भंते! देवाणं, गो०! जह० चउवीसं साग० उक्को० पंचवीसं साग०, मज्झिमहेट्ठिमगेवेजविमाणेसु केव. जह. पणवीसं सागरोवमाई उक्को० छठवीसं सागरोबमाई, मज्झिममज्झिमगेवेजविमाणेसु णं भंते ! गो०! जह० छठवीसं सागरोवमाई उक्को सत्तावीसं सागरोवमाई, मज्झिमउवरिमगेवे०, गो०! जह. सत्तावीसं सा० उको अट्ठावीसं०, उवरिमहेद्विमगेवि० देवाणं, गो०! जह० अट्ठावीसं सा० उक्को एगणतीसं सागरोवमाई, उवरिममज्झिमगेविजविमाणेसु णं भंते ! देवाणं, गो० जह० एगणतीसं सागरोवमाइं उक्को तीसं सागरोवमाई, उवरिमउवरिमगेवेज्जविमाणेसु णं भंते ! देवाणं, गो०! जह तीसं सागरोवमाइं उक्को० एक्कतीसं सागरोबमाई, विजयवेजयंतजयंतअपराजितविमाणेसु णं भंते ! देवाणं केवइ० पण्णता ?, गो०! जहणणेणं एकतीसं सागरोवमाई उक्को० तेत्तीसं सागरोवमाई, सव्वट्ठसिद्धे णं दीप अनुक्रम - [२८९ -२९२] 15 अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१४२] / गाथा ||१११-११२|| ..................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२] अनुयो मलधा रीया ॥ १९१॥ गाथा: ||--|| भंते! महाविमाणे देवाणं केवइ. पण्णता?, गो०! अजहपणमणुक्कोसेणं तेत्तीसं वृत्ति सागरोवमाई । से तं सुहमे अद्धापलिओवमे । से तं अद्धापलिओवमे (सू० १४२) उपक्रमे प्रमाणद्वारं सूत्रसिद्धमेव यावन्मनुष्यसूत्रं, नवरं पृथिव्यादीनामपर्याप्तानां जघन्यत उस्कृष्टतवान्तर्मुहर्तमेव स्थितिः, ततः परमवश्यं पर्याप्तत्वसम्भवात् मरणाद्वेति भावनीयम् । व्यन्तरादिसूत्राण्यपि वैमानिकसूत्रपर्यन्तानि पाठ-15 सिद्धान्येव, नवरमेतेषां पर्याप्तानां जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तमेव स्थितिः, ततः परमवश्यं पर्याप्तत्वसंभवादेव भावनीयं, अवेयकसूत्रे चाधस्तनापोऽधस्तनौवेयकशब्देनोच्यन्ते, मध्यमास्तु वयो मध्यमवेयकशब्देन, उप-| |रितनास्तु श्रय उपरितनवेयकशब्देन, पुनरप्यधस्तनेषु त्रिषु प्रस्तटेषु मध्येऽधस्तनः प्रस्तटोऽधस्तनाधस्तनौवे-| यकशब्देन व्यपदिश्यते, मध्यमस्त्वधस्तनमध्यमशब्देन, उपरितनस्वधस्तनोपरिमशब्देन, एवं मध्यमेष्यपि त्रिषु प्रस्तटेषु मध्येऽधस्तनप्रस्तटो मध्यमाधस्तनौवेयकशब्देनाभिधीयते मध्यमस्तु मध्यममध्यमशब्देन उपरितनस्तु| मध्यमोपरितनशब्देन, एवमुपरितनेष्वपि त्रिषु प्रस्तटेषु क्रमेणोपरिमाधस्तनोपरिममध्यमउपरिमोपरिमशब्दवाच्यता भावनीयेति ॥ १४२॥ से किं तं खेत्तपलिओवमे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुहुमे अ वावहारिए अ, तत्थ णं जे से सुहमे से ठप्पे, तत्थ णं जे से ववहारिए से जहानामए पल्ले सिआ जोअणं दीप अनुक्रम [२८९ -२९२] १९१॥ JaEarmer अस्य सूत्रस्य क्रम: १४०' वर्तते, परन्तु मुद्रण अशुद्धित्वात् १४२' इति क्रम मुद्रितं ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१४३] | गाथा ||११३-११४|| ....... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] गाथा: ||--|| आयामविक्खंभेणं जोअणं उव्वेहेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं, से णं पल्ले एगाहिअबेआहिअतेआहिअ जाव भरिए वालग्गकोडीणं, ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहिं अप्फुन्ना तओ णं समए २ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव निट्रिए भवइ से तं ववहारिए खेत्तपलिओवमे । एएसिं पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दसगुणिया । तं ववहारिअस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥ एएहिं ववहारिएहिं खेतपलिओवमसागरोवमेहिं किं पओअणं?, एएहिं व० नस्थि किंचिप्पओअणं, केवलं पण्णवणा पण्णविजइ, से तं वव० से किं तं सुहुमे खेतपलिओवमे १२ से जहाणामए पल्ले सिआ जोअणं आयाम० जाव परिक्खेवेणं से णं पल्ले एगाहिअबेआहिअतेआहिअ जाव भरिए वालग्गकोडीणं तत्थ णं एगमेगे वालग्गे असंखिजाई खंडाई कजइ, ते णं वालग्गा दिट्ठीओगाहणाओ असंखेजइभा दीप अनुक्रम [२९३-२९७] ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४३] / गाथा ||११३-११४|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वृत्तिः [१४३] अनुयो मलधारीया उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥१९२॥ गाथा: गमेत्ता सुहुमस्स पणगजीवस्स सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा, ते णं वालग्गा णो अग्गी डहेजा जाव णो पूइत्ताए हव्वमागच्छेज्जा, जे णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा तेहिं वालग्गेहिं अप्फुन्ना वा अणाफुपणा वा तओणं समए २ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइएणं कालेणं से पल्ले खीणे जाव णिट्टिए भवइ, से तं सुहमे खेत्तपलिओवमे । तत्थ णं चोअए पण्णवर्ग एवं वयासी-अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहिं अणाफुण्णा?, हंता अस्थि, जहा को दिटुंतो?, से जहाणामए कोटुए सिआ कोहंडाणं भरिए तत्थ णं माउलिंगा पक्खित्ता तेवि माया, तत्थ णं बिल्ला पक्खित्ता तेवि माया, तत्थ णं आमलगा पक्खित्ता तेवि माया, तत्थ णं बयरा प० तेऽवि माया, तत्थ णं चणगा पक्खित्ता तेऽवि माया, तत्थ णं मुग्गा पक्खि०, तत्थ णं सरिसवा प०, तत्थ णं गंगावालुआ पक्खित्ता सावि माया, एवमेव एएणं दिटुंतेणं अस्थि णं तस्स पल्लस्स आगासपएसा जे णं तेहिं वालग्गेहि अणाफुण्णा । एएसिं दीप अनुक्रम [२९३-२९७] 545056-56*%A5% ॥१९२॥ ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१४३] | गाथा ||११३-११४|| ...................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४३] गाथा: ||--|| पल्लाणं कोडाकोडी भवेज दसगुणिया। तं सुहमस्स खेत्तसागरोवमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥ एएहिं सुहमेहिं खेत्तप० सागरोवमेहिं किं पओअणं ?, एएहिं सुहमपलि. साग० दिट्टिवाए दव्वा मविजंति (सू० १४३) उक्तं सप्रयोजनमद्धापल्योपर्म, क्षेत्रपल्योपममप्युक्तानुसारत एवं भावनीयं, नवरं व्यावहारिकपल्योपमे 'जे णं तस्स पल्लस्सेत्यादि, तस्य पल्यस्यान्तर्गता नभाप्रदेशास्तैलायें 'अपकुण्ण'त्ति आस्पृष्टा-व्याप्ता आकान्ता इतियावत्, तेषां सूक्ष्मत्वात् प्रतिसमयमेकैकापहारे असख्येया उत्सर्पिपयवसर्पिण्योतिक्रामन्त्यतोऽसख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीमानं प्रस्तुतपल्योपमं ज्ञातव्यं, सूक्ष्मक्षेत्रपल्योपमे तु सूक्ष्मा-12 लाप्रैः स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते, अतस्तव्यावहारिकादस-ख्येयगुणकालमानं द्रष्टव्यम् । आहयदि स्पृष्टा अस्पृष्टाश्च नभःप्रदेशा गृह्यन्ते तर्हि बालाः किं प्रयोजनं ?, यथोक्तपल्यान्तर्गतनभाप्रदेशा-| पहारमात्रतः सामान्येनैव वक्तुमुचितं स्यात्, सत्यं, किन्तु प्रस्तुतपल्पोपमेन दृष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते, तानि च कानिचिदू यथोक्तवालाग्रस्पृष्टरेव नभःप्रदेशैर्मीयन्ते कानिचिवस्पृष्टरित्यतो दृष्टिवादोक्तद्रव्यमा-14 नोपयोगित्वादालाग्रप्ररूपणाऽत्र प्रयोजनवतीति । 'तत्थ णं चोयए पण्णवग'मित्यादि, तत्र नभाप्रदेशानां स्पृष्टास्पृष्टत्वप्ररूपणे सति जातसन्देहः प्रेरकः प्रज्ञापकम्-आचार्यमेवमवादीत्-भदन्त ! किमस्त्येतद् यदुत । दीप अनुक्रम [२९३-२९७]] अनु. ३३ ~396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४३] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [२९३ -२९७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४३] / गाथा ||११३-११४|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १९३ ॥ तस्य पल्यस्यान्तर्गतास्ते केचिदप्याकाशप्रदेशा विद्यन्ते ये तैर्वालाप्रैरस्पृष्टाः १, पूर्वोक्तप्रकारेण वालाग्राणां तत्र निविडतयाऽवस्थापनाच्छिद्रस्य कचिदप्यसम्भवाद् दुरुपपादमिदं यत्तत्रास्पृष्टा नभःप्रदेशाः सन्तीति प्रच्छकाभिप्रायः, तत्रोत्तरं हन्तास्त्येतत् नात्र सन्देहः कर्तव्यः, इदं च दृष्टान्तमन्तरेण वाङ्मात्रतः प्रतिपतुमशक्तः पुनर्विनेयः पृच्छति यथा कोऽत्र दृष्टान्तः ?, प्रज्ञापक आह- 'से जहानामए' इत्यादि, अयमत्र भावार्थ:- कूष्माण्डानां पुंस्फलानां भृते कोष्टके स्थूलदृष्टीनां तावद् भृतोऽयमिति प्रतीतिर्भवति, अथ कूष्माण्डानां वादरत्वात् परस्परं तानि छिद्राणि संभाव्यन्ते येष्वद्यापि मातुलिङ्गानि - बीजपूरकाणि मान्ति, तत्प्रक्षेपे च पुनर्भूतोऽयमिति प्रतीतावपि मातुलिङ्गच्छिद्रेषु विल्वानि प्रक्षिप्तानि तान्यपि मान्तीत्येवं तावद् यावत्सर्षप च्छिद्रेषु गङ्गावालुका प्रक्षिप्ता साऽपि माता, एवमवगदृष्टयो यद्यपि यथोक्तपत्ये शुषिराभावतोस्पृष्टनभः प्रदेशान्न संभावयन्ति तथापि वालाग्राणां बादरत्वादाकाशप्रदेशानां तु सूक्ष्मत्वात् सन्त्येवासख्याता अस्पृष्टा नभः प्रदेशाः दृश्यते च निविडतया सम्भाव्यमानेऽपि स्तम्भादौ आस्फालितायः कीलकानां बहूनां तदन्तः प्रवेशः न चासौ शुषिरमन्तरेण संभवति, एवमिहापि भावनीयम् ॥ १४३ ॥ कइविहाणं भंते! दव्वा पण्णत्ता ?, गो० ! दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा जीवदव्वा य अजीवदव्वा य । अजीवदव्वा णं भंते! कइविहा पण्णत्ता ?, गो० ! दुविहा प०, तं अथ जीवादि 'द्रव्य प्ररूपणा क्रियते For P&Pase City ~397~ 2 वृत्तिः उपक्र प्रमाणद्वारं ॥ १९३ ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४४] दीप अनुक्रम [२९८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४४] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः जहा - रूवीअजीवदव्वा य अरूवीअजीवदव्वा य । अरूवीअजीवदव्वाणं भंते! कइविहा पण्णत्ता ?, गो० ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-धम्मस्थिकाए धम्मत्थिकायस देसा धम्मत्थिकायस्स पएसा अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकाचस्स देसा अधम्मत्थिकायस्स परसा आगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसा आगास० पएसा, अद्धासमए | रुवीअजीवदव्वाणं भंते! कइविहा पं० ?, गो० ! चउव्विहा पण्णत्ता, तंजहा -खंधा खंधदेसा खंधप्पएसा परमाणुपोग्गला, ते णं भंते! किं संखिज्जा असंखिजा अनंता ?, गो० ! संखेज्जानो असंखेजा अनंता, से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ - नो संखेज्जा नो असंखेज्जा अणंता ?, गो० ! अनंता परमाणुपोग्गला अनंता दुपएसिआ खंधा जाव अनंता अनंतपएसिआ खंधा, से एएणऽट्टेणं गो० ! एवं बुच्चइ-नो संखेज्जा नो अ० अणंसा । जीवदव्वाणं भंते । किं संखिजा असंखिजा अनंता ?, गो०! नो संखिजा नो असंखिजा अनंता, से केणट्टेणं भंते! एवं बुच्चइ-नो संखिजा नो असं For P&Pealise Cinly ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४४] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रमाणदार प्रत सूत्रांक [१४४] दीप अनुयो खिज्जा अणता?, गो०! असंखेजा जेरइया असंखेजा असुरकुमारा जाव असंखेज्जा वृत्तिः मलधाथणियकुमारा असंखिजा पुढवीकाइया जाव असंखिज्जा वाउकाइआ अणंता वणस्स उपकम रीया इकाइआ असंखेजा वेइंदिआ जाव असंखिज्जा चउरिंदिया असंखिज्जा पंचिंदियति॥१९४॥ रिक्खजोणिआ असंखिज्जा मणुस्सा असंखिज्जा वाणमंतरा असंखिजा जोइसिआ असंखेजा बेमाणिआ अणंता सिद्धा, से एएणऽटेणं गो०! एवं वुच्चइ-नो संखिजा नो असंखिज्जा अणंता (सू० १४४) P ययेतैष्टिवादे द्रव्याणि मीयन्ते तहि कतिविधानि भदन्त ! तावद् द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि?, गौतम! द्विवि-12 धानि प्रज्ञप्तानि, तदेवाह-'जीवदब्धा य अजीवदवा ' । तत्राल्पवक्तव्यत्वात् पश्चानिर्दिष्टान्यप्यजीवद्रव्याणि व्याचिख्यासुराह-अजीवदब्बाणं भंते! कइविहे त्यादि सुगमं यावद् 'धम्मत्यिकाएं' इत्यादि, एकोऽपि धर्मास्तिकायो नयमतभेदात्रिधा भिद्यते, तच्च सङ्ग्रहनयाभिप्रायादेक एव धर्मास्तिकाय:-पूर्वोक्तप-10 18| दार्थः, व्यवहारनयाभिप्रायात्तु बुद्धिपरिकल्पितो द्विभागत्रिभागादिकस्तस्यैव देशः, यथा सम्पूर्णी धर्मास्ति-18॥१९४॥ कायो जीवादिगत्युपष्टम्भकं द्रव्यमिष्यते एवं तद्देशा अपि तदुपष्टम्भकानि पृथगेव द्रब्याणीति भावः, काजु अनुक्रम [२९८] ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४४] दीप अनुक्रम [२९८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४४] / गाथा ||११४... || पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः सूत्राभिप्रायतस्तु स्वकीयस्वकीयसामर्थ्येन जीवादिगत्युपष्टम्भे व्याप्रियमाणास्तस्य प्रदेशा बुद्धिपरिकल्पिता निर्विभागा भागाः पृथगेव द्रव्याणि, एवं अधर्माकाशास्तिकाययोरपि प्रत्येकं त्रयस्त्रयो भेदा वाच्याः, 'अद्वासमय' इत्यत्रैकवचनं वर्तमानकालसमयस्यैव एकस्य सत्त्वादतीतानागतयोस्तु निश्चयनयमतेन विनष्टत्वानुत्पन्नत्वाभ्यामसत्त्वाद्, अत एवेह देशप्रदेशचिन्ता न कृता, एकस्मिन् समये निरंशत्वेन तदसम्भवात्, तदेवं दशविधान्यरूप्यजीवद्रव्याणि । रूप्यजीवद्रव्याणि तु स्कन्धादिभेदाचतुर्द्धा तत्र स्कन्धा-द्व्यणुकादयोऽनन्ताणुका वसानाः, देशास्तु तद्विभागविभागादिरूपा अवयवाः, प्रदेशाः पुनस्तदवयवभूता एवं निरंशा भागाः परमाणुपुद्गलाः स्कन्धभावमनापन्नाः एकाकिनः परमाणवः तानि च रूपद्रव्याण्यनन्तानि कथमित्याह- 'अनंता परमाणुपोग्गला' इत्यादि, एते च स्कन्धादयः प्रत्येकमनन्ताः । अथ जीवद्रव्याणि विचारयितुमाह- 'जीवदन्वाणं भंते! किं संखेजा' इत्यादि, यस्मान्नारकादिराशयः प्रत्येकमसङ्ख्याताः वनस्पतयः सिद्धावानन्ता अतो जीवद्रव्याण्यनन्तान्येवेत्यर्थः ॥ १४४ ॥ तत्र नारकादयोऽसङ्ख्येयादिखरूपतः सामान्येन प्रोक्ता विशेषतस्तु तदसङ्ख्येयकं कियत्प्रमाणमिति न ज्ञायते, औदारिकादिशरीरविचारे च तत्परज्ञानं सिद्ध्यति औदारिकादिशरीरखरूपयेोधश्व विनेयानां संपयते इति चेतसि निधाय जीवाजीवद्रव्यविचारप्रस्तावाच्छरीराणां तदुभयरूपत्वात्तानि विचारयितुमुपक्रमते कइविहा णं भंते! सरीरा पं०?, गो० ! पंच सरीरा पण्णत्ता, तंजहा - ओरालिए वेड अथ 'शरीर' प्ररूपणा क्रियते For P&Perase Cinly ~ 400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १९५ ॥ Erie विए आहारए तेअए कम्मए, णेरइआणं भंते! कइ सरीरा पं० १, गो० ! तओ सरीरा पं० तं० वेउव्विए तेअए कम्मए, असुरकुमाराणं भंते! कइ सरीरा पं० १, गो० ! तओ सरीरा पण्णत्ता, तंजहा-वेउ० तेअ० कम्मए, एवं तिष्णि २, एए चैव सरीरा जाव थणियकुमाराणं भाणिअव्वा । पुढवीकाइआणं भंते! कइ सरीरा पण्णत्ता ?, गो० ! तओ सरीरा पण्णत्ता, तंजहा-ओरालिए तेअए कम्मए, एवं आउतेउवणस्सइकाइयाणवि एए चैव तिष्णि सरीरा भाणियव्या, वाउकाइयाणं जाव गो० ! चत्तारि सरीरा पं० तं० उरालिए वेउव्विए तेयए कम्मए । बेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणं जहा पुढवीकाइयाणं, पंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं जहा वाउकाइयाणं । मणुस्ताणं जाव गो० ! पंच सरीरा पं० तं०-ओरालिए वेडव्विए आहारए तेअए कम्मए । वाणमंतराणं जोइसिआणं वेमाणिआणं जहा नेरइयाणं । केवइया णं भंते! उरालिअसरीरा १ इविहानं प्र. For P&Pase City ~ 401 ~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारे ॥ १९५ ॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ........ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] पपणत्ता?, गो! दुविहा पपणत्ता, तंजहा-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखिज्जा असंखिजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लगा ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ अणंता लोगा दव्वओ अभवसिद्धिएहिं अणंतगुणा सिद्धाणं अणंतभागो। 'ओरालिए'त्ति उदारं-तीर्थकरगणधरशरीरापेक्षया शेषशरीरेभ्यः प्रधानं उदारमेवौदारिकम् , अथवा-उदारं-सातिरेकयोजनसहस्रमानवाच्छेषशरीरेभ्यो महाप्रमाणं तदेवीदारिकं, क्रियं तूत्तरवैक्रियावस्थायामेव लक्षयोजनमानं भवति, सहज तु पश्चधनुःशतप्रमाणमेव, ततः सहजशरीरापेक्षया इदमेव महाप्रमाणं, 'वेउदाविए'त्ति विविधा विशिष्टा वा क्रिया विक्रिया तस्यां भवं वैक्रियं, विशिष्टं कुर्वन्ति तदिति वा वैकुर्विकम् , आहारए'सि तथाविधप्रयोजने चतुर्दशपूर्वविदा आहियते-गृह्यत इत्याहारकम् , अथवा आह्रियन्ते-गृह्यन्ते ४ केवलिनः समीपे सूक्ष्मजीवादयः पदार्था अनेनेत्याहारकं, 'तेयए'त्ति रसाद्याहारपाकजननं तेजोनिसर्गलब्धिनिबन्धनं च तेजसो विकारस्तैजसं, 'कम्मएत्ति अष्टविधकर्मसमुदायनिष्पन्नमौदारिकादिशरीरानेषन्धनं च दीप अनुक्रम [२९९] ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ १९६ ॥ भवान्तरानुयायि कर्मणो विकारः कर्मैव वा कार्मणम्, अत्र स्वल्पपुद्गलनिष्पन्नत्वाद्वादरपरिणामत्वाच प्रथममौदारिकस्योपन्यासः, ततो बहुबहुतरबहुतमपुद्गलनिर्वृत्तत्वात् सूक्ष्मसूक्ष्मतरसूक्ष्मतमत्वाच क्रमेण शेषशरीराणामिति । तदेवं सामान्येन शरीराणि निरूप्य चतुर्विंशतिदण्डके तानि चिन्तयितुमाह-'नेरइयाणं भंते! कइ सरीरा' इत्यादि पाठसिद्धमेव, यावत् 'केवइया णं भंते! उरालियसरीरा' इत्यादि कियन्ति-कियत्सङ्ग- 4 स्यान्यौदारिकशरीराणि सर्वाण्यपि भवन्ति, अत्रोत्तरं - 'गोयमा दुविहेत्यादि, औदारिकशरीरसङ्ख्यायां पृष्टायां बद्धमुक्तत्वलक्षणं तद्वैविध्यकथनमप्रस्तुतमिति चेत्, नैवं, बद्धमुक्तयोर्भेदेन सङ्ख्याकथनार्थत्वात्तस्य, | इदं च बद्धमुक्तौदारिकादिप्रमाणं कचिद् द्रव्येण अभव्यादिना वक्ष्यति कचित्तु क्षेत्रेण-श्रेणिप्रतरादिना क चित्तु कालेन समयावलिकादिना, भावेन तु न वक्ष्यति, तस्येह द्रध्यान्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात्, तत्र बद्धानामादारिकशरीराणां कालतः क्षेत्रतश्च मानं निरूपयितुमाह-'तत्थ णं जे ते बद्धेल्या' इत्यादि, इह नारकदेवानामौदारिकशरीराणि यद्धानि तावन्न सम्भवन्त्येव, वैक्रियशरीरत्वात्तेषाम्, अतः पारिशेष्यात् तिर्यानुष्यैस्तथाविधकम्मोदगाद् यानि बद्धानि - गृहीतानीत्यर्थः पृच्छासमये तैः सह यानि सम्बद्धानि तिष्ठन्तीतियावत्, तानि सामान्यतः सर्वाण्यसङ्ख्येयानि, न ज्ञायते तदसङ्ख्येयं कियदपीत्यतो विशिनष्टि- 'असंखेज्जाहि मित्यादि, प्रतिसमयं यद्येकैकं शरीरमपहियते तदा असङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वाण्यपहियन्ते, असङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीषु यावन्तः समयास्तावन्ति तानि बद्धानि प्राप्यन्त इति परमार्थः, तदे For P&Pase Cinly ~403~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥ १९६ ॥ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] तत्कालतो मानमुक्तम् , अब क्षेत्रतस्तदाह-खेत्तओ असंखेजा लोग'त्ति, इवमुक्तं भवति-प्रत्येकमसङ्ख्येयप्रदेशात्मिकायां खकीयखकीयावगाहनायां यद्येकैकं शरीरं व्यवस्थाप्यते तदाऽसख्येया लोकास्तैर्धियन्ते, एकैकस्मिन्नपि नभाप्रदेशे प्रत्येकं तैर्व्यवस्थाप्यमानैरसख्येया लोका भ्रियन्ते एव, केवलं शरीरस्य जघन्यतोऽप्यसङस्येयप्रदेशावगाहित्वादेकस्मिन् प्रदेशेऽवगाहा सिद्धान्ते निषिद्ध इति नेत्वमुच्यते, असत्कल्पनया उच्यतामेवमपि को दोष इति चेत्, को निवारयिता?, केवलं सिद्धान्तसंवादिप्रकारेण प्ररूपणेऽजुष्टे लश्यमाने स एव खीकर्तुं श्रेयानिति, आह-भवत्वेवं, किंवौदारिकशरीरिणां मनुष्यतिरक्षामनन्तत्वात् कथमनन्तानि शरीराणि न भवन्ति येनासख्येयान्येवोक्तानि?, उच्यते, प्रत्येकशरीरिणस्तावदसण्याता एवातस्तेषां शरीराण्यप्यसङ्ख्यातान्येव, साधारणशरीरिणस्तु विद्यन्ते अनन्ताः, किन्त तेषां नैकैकजीवस्यै Mकै शरीरं किन्वनन्तानामनन्तानामेकैकं वपुरित्यत औदारिकशरीरिणामानन्येऽपि शरीराण्यसख्येयान्ये वेति । तत्थ गंजे ते मुकल्लयेत्यादि, भवान्तरसङ्क्रान्ती मोक्षगमनकाले वा जीवैर्यान्यौदारिकाणि मुक्तानित्यक्तानि समुज्झितानि तान्यनन्तानि प्राप्यन्ते, अनन्तकस्थानन्तकत्वान्न ज्ञायते कियदप्यनन्तकमिदं, ततः कालेन विशेषयति-प्रतिसमयमेकैकापहारे अनन्ताभिरुत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिरपहियन्ते, तत्समयराशितुल्यानि काभवन्तीत्यर्थः, अथ क्षेत्रतो विशिनष्टि-खेत्तओ अर्णता लोग'त्ति, क्षेत्रत:-क्षेत्रमाश्रिख्यानन्तानां लोकप्रमाण खण्डानां यः प्रदेशराशिस्तत्तुल्यानि भवन्तीति भावः, द्रव्यतो नियमयति-'अभवसिद्धिएहि'मित्यादि, 25A4%95E555454 ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ............ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो मलधारीया [१४५] ॥१९७॥ दीप अनुक्रम [२९९] अभव्यजीवद्रव्यसख्यातोऽनन्तगुणानि सिद्धजीवद्रव्यसख्यायास्त्वनन्तभागवर्तीनि । आह-ययेवं यः वृत्तिः सम्यक्त्वं लब्ध्वा पुनर्मिथ्यात्वे गमनात् तत्त्यक्तं ते प्रतिपतितसम्यग्दृष्टयोऽप्यभव्येश्योऽनन्तगुणाः सिद्धाना | | उपक्रम मनन्तभागे प्रज्ञापनामहादण्डके पठ्यन्ते, तत्किमेतानि तत्तुल्यानि भवन्ति ?, नैतदेवं, यदि तत्समसङ्ख्यानि | भवेयुस्तदा तथैवेह सूत्रे तानि निर्दिष्टानि स्युः, न चैवं, ततः प्रतिपतितसम्यग्दृष्टिराशेः कदाचिद्धीनानि कदाचितुल्यानि कदाचित्त्वधिकानि इति प्रतिपत्तव्यमिति । पुनरप्याह-ननु जीवैः परित्यक्तशरीराणामानन्त्यमेव तावन्नावगच्छामः, तथाहि-किमेतानि श्मशानादिगतान्यक्षतान्येव यानि तिष्ठन्ति तानि गृह्यन्ते उत खण्डीभूय परमाण्वादिभावेन परिणामान्तरापन्नानि?, यद्यायः पक्षस्तर्हि तेषामनन्तकालावस्थानाभावात्। स्तोकस्वादानन्त्यं नास्त्येव, अथ चापरः पक्षस्तर्हि स कश्चिद् पुगलोऽपि नास्ति योऽतीताद्धायामेकैकजीवेनीदारिकशरीररूपतया अनन्तशः परिणमय्य न मुक्तः, ततः सर्वस्यापि पुद्गलास्तिकायस्य ग्रहणमापनम् , एवं च सत्यभव्येभ्योऽनन्तगुणानि सिद्धानामनन्तभागे इत्येतद्विरुध्यते, सर्वपुद्गलास्तिकायगतपुद्गलानां सर्वजीवेश्योऽप्यनन्तानन्तगुणत्वाद, अत्रोच्यते, नैष दोषो, भवदुपन्यस्तपक्षद्वयस्याप्यनगीकरणात, किन्तु जीवविप्रमुक्ते एकैकमिन्नौदारिकशरीरे यान्यनन्तखण्डानि जायन्ते तानि च यावयापि तं जीवप्रयोगनिवर्तितमौदारिकशरीरपरिणाम परित्यज्य परिणामान्तरं नासादयन्ति तावदौदारिकशरीरावयवत्वादेकदेशदाहेऽपि ग्रामो ॥१९७ ॥ दग्धः पटो दग्ध इत्यादिवदवयवे समुदायोपचारादिह प्रत्येकमौदारिकशरीराणि भण्यन्ते, ततश्चैकैकस्य जीव GACAS ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] C4SACROGRA SASSASSASSEX विषमुक्तौदारिकशरीरस्थानन्तभेदभिन्नत्वात् तेषां च भेदानां प्रत्येकं तदवयवत्वेन प्रस्तुतशरीरोपचाराद। एतेषां च भेदानां प्रकृतशरीरपरिणामत्यागे अन्येषां तत्परिणामवतामुत्पत्तिसम्भवाद् यथोक्तानन्तकसख्यान्यौदारिकशरीराणि लोके न कदाचिद्व्यवच्छिद्यन्त इति स्थितं, तदेवमोघत उक्ता औदारिकशरीरसइण्या, विभागतस्तूपरिष्टात् क्रमप्राप्तामिमां वक्ष्यति । अथौघत एव वैक्रियसण्यामाह केवइआणं भंते! वेउव्विअसरीरा पं०? गो! दुविहा पं०, तं०-बद्धेलया य मुकेल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं असंखिजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तत्थ णं जेते मुक्केल्या ते णं अणंता अणंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ सेसं जहा ओरालिअस्स मुक्केल्लया तहा एएवि भाणिअव्वा । केवइ० आहारगस०? गो०! दुविहा० बढे० मुक्के०, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिअ अस्थि सिअ नत्थि, जइ अस्थि जहण्णेणं एगो वा दो वा तिषिण वा उक्कोसेणं सहस्सपुहतं, मुक्केल्लया जहा ओरा. तहा भाणिअव्वा । केवइया णं भंते! तेअगसरीरा पं०१, गो०! दुविहा ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा || १९४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ।। १९८ ।। Ja Ebe पं० तं०- बद्धेल्या य मुकेल्या य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं अनंता अनंताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ अणंता लोगा दव्वओ सिद्धेहिं अनंतगुणा सव्वजीवाणं अनंतभागूणा, तत्थ णं जे ते मुक्केल्ल्या ते णं अनंता अर्णताहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ अनंता लोगा दव्वओ सव्वजीवेहिं अनंतगुणा सव्वजीववग्गस्स अणंतभागो । केवइ० कम्मगसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धे० मुक्के० जहा तेअगसरीरा तहा कम्मगसरीरावि भाणिअव्वा । तत्र नारदेवानामेतानि सर्वदैव बद्धानि संभवन्ति, मनुष्यतिरश्चां तु वैक्रियलब्धिमतामुत्तरवैक्रियकरणकाले, ततः सामान्येन चतुर्गतिकानामपि जीवानाममूनि बद्धान्यसङ्ख्येयानि लभ्यन्ते तानि च कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि क्षेत्रतस्तु पूर्वोक्तप्रतरासङ्गरूयेय भागवर्त्य सङ्ख्येयश्रेणीनां यः प्रदेशराशिस्तत्सङ्ख्यानि संभवन्ति, मुक्तानि यथौदारिकाणि तथैव २ । अथधत एवाहार काण्याहू'केवइया णं भंते! आहारगेत्यादि, एतानि बद्धानि चतुर्दशपूर्वविदो विहाय नापरस्य संभवन्ति, अन्तरं चैषां For P&Pase Cnly ~ 407~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १९८ ॥ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनु. ३४ शास्त्रान्तरे जघन्यतः समयं उत्कृष्टतस्तु षण्मासान्यावदभिहितम्, अत उक्तं बद्धानि कदाचित् सन्ति केदाचिन्न सन्ति, यदि भवन्ति तदा जघन्यत एकं द्वे त्रीणि वा, उत्कृष्टतस्तु सहस्रपृथक्त्वं द्विप्रभृत्या नवभ्यः | समयप्रसिद्ध्या पृथक्त्वमुच्यते, मुक्तानि यथौदारिकाणि तथैव, नवरमनन्तकस्यानन्तभेदात्तदेवेह लघुतरं द्र|ष्टव्यम् ३ । तथैव तैजसान्याह - 'केवइया णं भंते! तेयगेत्यादि, एतानि बद्धान्यनन्तानि भवन्ति, कालतोऽनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशिसङ्ख्यानि क्षेत्रतोऽनन्तलोकप्रदेशराशिमानानि द्रव्यतः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणानि अनन्तभागन्यून सर्वजीवसङ्ख्याप्रमाणानि, तत्स्वामिनामनन्तत्वात् नन्वौदारिकस्यापि खामिनो विद्यन्तेऽनन्ता न च तान्येतावत्सङ्ख्यान्युक्तानि अत्रोच्यते, औदारिकं मनुष्यतिरश्चामेव भवति, तत्रापि | साधारणशरीरिणामनन्तानामेकैकमेव, इदं चतुर्गतिकानामप्यस्ति, साधारणशरीरिणां च प्रतिजीवमेकैकं प्राप्यते, ततस्तैजसानि सर्वसंसारि जीवसङ्ख्यानि भवन्ति, संसारिणश्च जीवाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः, अत एतान्यपि सिद्धेभ्योऽनन्तगुणान्युक्तानि सर्वजीवसङ्ख्यां तु न प्राप्नुवन्ति, सिद्धजीवानां तदसम्भवात्, सिद्धाश्च | शेषजीवानामनन्तभागे वर्तन्ते, अतः सिद्धजीवलक्षणेनानन्तभागेन हीना ये सर्वजीवास्तत्सङ्ख्यान्यभिहितानि, मुक्तान्यपि अनन्तानि, कालतोऽनन्तोत्सर्पिण्यवसर्पिणीस मयराशितुल्यानि, क्षेत्रतोऽनन्तलोकानां ये प्रदेशास्तत्तुल्यानि द्रव्यतः सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणानि, तर्हि जीवराशिनैव जीवराशिर्गुणितो जीववर्गो भण्यते, एतावत्सङ्ख्यानि तानि भवन्ति ?, नेत्याह - 'जीववग्गस्स अनंतभागोत्ति, सर्वजीवाः सद्भावतोऽनन्ता अपि For P&Pale City ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४ ...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ १९९ ॥ Jan Ehema कल्पनया किल दश सहस्राणि तानि य तैरेव गुणितानि ततोऽसत्कल्पनया दशकोटिसङ्ख्याः, सद्भावतस्त्वनन्तानन्तसङ्ख्यो जीववर्गों भवति, तस्यानन्तगुणकल्पनया शततमे भागे एतानि वर्तन्ते, अतः सद्भावतोऽनन्तान्यपि किल दशलक्षसङ्ख्यानि तानि सिद्धानि, किं कारणं जीववर्गसङ्ख्यान्येव न भवन्ति ?, उच्यते, यानि यानि तैजसानि मुक्तान्यनन्तभेदैर्भिद्यन्ते तानि तान्यसङ्ख्येयकालादूर्ध्वं तं परिणामं परित्यज्य नियमात् परिणामान्तरमासादयन्ति, अतः प्रतिनियतकालावस्थायित्वादुत्कृष्टतोऽपि यथोक्तसङ्ख्यान्येवैतानि समुदितानि प्राप्यन्ते नाधिकानीत्यलमतिविस्तरेण । 'केवइया णं कम्मए' इत्यादि, तैजसकार्मणयोः | समानस्वामिकत्वात्सर्वदेव सहचरितत्वाच्च समानैव वक्तव्यतेति । तदेवमोघतः पञ्चापि शरीराण्युक्तानि, सास्प्रतं तान्येव नारकादिचतुर्विंशतिदण्डके विशेषतो विचारयितुमाह नेरइयाणं भंते! केवइया ओरालिअसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजाबद्धेया य मुक्केल्ल्या य, तत्थ णं जे ते बद्धेछ्या ते णं नत्थि, तत्थ णं जे ते मुकेल्या ते जहा ओहिओ ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, नेरइयाणं भंते! केवइया वेव्विसरीरा पं० ?, गो० ! दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धेल्या य मुक्केया य, तत्थ णं जे ते बद्धेलगा ते णं असंखिजा असंखिजाहिं उस्सप्पिणीओस For P&Praise Cnly ~409~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ १९९ ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूल [१४५] / गाथा ||११४...|| ...................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] प्पिणीहि अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखेज्जाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूईअंगुलपढमवग्गमूलं बिइअवग्गमूलपडुप्पण्णं अहव णं अंगुलबिइअवग्गमूलघणपमाणमेत्ताओ सेढीओ, तत्थ णंजे ते मुक्केल्लया ते णं जहा ओहिआ ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, णेरइयाणं भंते ! केवइया आहारगसरीरा पण्णता ?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धे० मुक्के०, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं नत्थि, तत्थ णं जे ते मुक्केल्लया ते जहा ओहिआ ओरालिआ तहा भाणिअव्वा, तेयगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव वेउव्विअसरीरा तहा भाणिअव्वा । असुरकुमाराणं भंते ! केवइआ ओरालियसरीरा पं०?, गो०! जहा नेरइयाणं ओरालि० तहा भा०, असुरकुमाराणं भंते ! के० वेउव्विअसरीरा पं०?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धेल्या य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखिजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ २०० ॥ Ja Ekem पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स असंखिज्जइभागो, मुकेलया जहा ओहिया ओरालिअसरीरा, असुरकुः केवइआ आहारगसरीरा पं० ?, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धे० मुक्के०, जहा एएसिं चेव ओरा० तहा भा०, तेअगकम्म० जहा एए० वेउ० तहा भाणिअव्वा, जहा असुरकुमाराणं तहा जाव थणिअ० ताव भाणिअव्वं । 'द्विविधानि प्रज्ञप्तानीति यदुच्यते तत्र बद्धानामसद्रूपेणैव नारकेषु सत्त्वमवसेयं, न सद्रूपेण, अत एवोक्तंतत्र पानि बद्धानि तानि न सन्ति तेषां वैक्रियशरीरत्वे नौदारिकबन्धाभावात्, मुक्तानि तु प्राक् तिर्यगादिनानाभवेषु संभवन्ति, तानि चौधिकमुक्तौदारिकवद्वाच्यानि यानि वैक्रियशरीराणि तानि तु बद्धान्येषाम सख्येयानि, प्रतिनारकमेकैक वैक्रियसद्भावात्, नारकाणां चासस्येयत्वात्, तानि च कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यव सर्पिणीसमयराशितुल्यानि, क्षेत्रतस्तु प्रतरासङ्ख्येयभागवर्त्य सङ्ख्येयश्रेणीनां ये प्रदेशास्तत्सङ्ख्यानि भवन्ति, ननु प्रतरासङ्ख्येयभागे असङ्ख्येया योजनको व्योऽपि भवन्ति, तत्किमेतावत्यपि क्षेत्रे या नभःश्रेण्यो भवन्ति ता इह गृह्यन्ते, नेत्याह--'तासि णं सेडीणं विक्खंभसूईत्यादि, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिः- विस्तरश्रे णिज्ञेयेति शेषः कियतीत्याह - 'अंगुली' त्यादि, अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे यः श्रेणिः-राशिस्तत्र किलासरूयेयानि For P&Pase Cnly ~ 411~ * वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ २०० ॥ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] वर्गमूलानि तिष्ठन्त्यता प्रथमवर्गमूलं द्वितीयवर्गमूलेन प्रत्युत्पन्न-गुणितं तथा च सति यावन्स्योऽत्र श्रेण्यो लब्धा एतावत्प्रमाणा श्रेणीनां विष्कम्भसूचिर्भवति, एतावत्यः श्रेण्योऽत्र गृह्यन्त इत्यर्थः, इदमुक्तं भवतिअङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे किलासत्कल्पनया षट्पश्चाशदधिके द्वे शते श्रेणीनां भवतस्तद्यथा २५६, अत्र प्रथमवर्गमूलं षोडश १६ द्वितीयं चत्वारः ४ चतुर्भिः षोडश गुणिता जाताश्चतुःषष्टिः, एषा चतुःषष्टिरपि सद्भावतोऽसण्येयाः श्रेण्यो मन्तव्याः, एतावत्स-ख्या श्रेणीनां विस्तरसूचिरिह ग्राद्या । 'अहव 'मित्यादि, ण| मिति वाक्यालङ्कारे, अथवा-अन्येन प्रकारेण प्रस्तुतोऽर्थ उच्यते इत्यर्थः, 'अहव 'त्ति कचित्पाठः, स चैवं व्याख्यायते-अथवा नैष पूर्वोक्तः प्रकारोऽपि तु प्रकारान्तरेण प्रस्तुतोऽर्थोऽभिधीयते इति भावः, समुदितो वाऽयंशब्दोऽथवाशब्दस्यार्थे वर्तते, तदेव प्रकारान्तरमाह-'अंगुलवीयवगमूलघणे'त्यादि, अङ्गुलप्रमाणपतरक्षेत्रवर्तिश्रेणिराशेर्यद्वितीयवर्गमूलमनन्तरं चतुष्टयरूपं दर्शितं तस्य यो घन:-चतुःषष्टिलक्षणस्तत्प्रमाणा:तत्सङ्ख्याः श्रेण्योऽत्र गृह्यन्त इति, प्ररूपणैव भिद्यते अर्थस्तु स एवेति, तदेवं कल्पनया चतुःषष्टिरूपाणां सद्भावतोऽसख्येयानां श्रेणीनां यः प्रदेशराशिरेतावत्सख्यानि नारकाणां बद्धवैक्रियाणि प्राप्यन्त इति, प्रत्येकशरीरित्वान्नारका अप्येतावन्त एच, एवं च सति पूर्व नारकाः सामान्येनैवासख्येयां उक्ताः, अत्र तु शरीरविचारप्रस्तावातदप्यसलयेयकं प्रतिनियतस्वरूपं सिद्धं भवति, एवमन्यत्रापि प्रत्येकशरीरिणः सर्वे खकीयस्वकीयबद्धशरीरसख्यातुल्या द्रष्टव्याः, मुक्तवैक्रियाणि मुक्तीदारिकवद्वाच्यानि, आहारकाणि बद्धा C ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो. मलधा -456 रीया प्रत सूत्रांक [१४५] ॥२०१॥ दीप अनुक्रम [२९९] AACANK न्येषां न सम्भवन्ति, चतुर्दशपूर्वधरसम्भवित्वात्तद्वन्धस्य, मुक्तानि तु मुक्तौदारिकवद्वाच्यानि, मनुष्यभवे कृतोज्झिताहारकशरीराणां प्रतिपतितचतुर्दशपूर्वविदां नारकेषूत्पत्तिसम्भवादौदारिकोक्तन्यायेनानन्तानां तेषां उपक्रम सम्भव इति भावः, तैजसकार्मणानि तु वद्धानि मुक्तानि च यथैषामेव वैक्रियाणि तथा वक्तव्यानि । उक्तानि प्रमाणद्वार पञ्चापि शरीराणि नारकेपु,अथासुरकुमारेषु तानि वक्तुमाह-'असुरकुमाराणं भंते।' इत्यादि, औदारिकाण्य-1 त्रापि नारकवद्वाच्यानि, वैक्रियाण्यपि तथैव, नवरमसुरकुमाराणां नारकेभ्यः स्तोकस्वात् प्रस्तुतशरीराण्यपि |स्तोकान्यतो विष्कम्भसूच्या विशेषः, सा चेयं-'तासि णं सेढीणं विक्खंभसई'त्यादि, तासाम्-अनन्तरोक्तश्रेणीनां विष्कम्भसचिः-विस्तरश्रेणिरङ्गलप्रथमवर्गमूलस्यासख्येयभागः, इदमुक्तं भवति-पतरस्याङ्गुलप्रमाणे क्षेत्रे यावन्त्यः श्रेणयो भवन्ति तासां यत्प्रथमवर्गमूलं तस्याप्यसङ्ख्येयभागे याः श्रेणयो भवन्ति तत्प्रमाणैव विस्तरसूचिरिह ग्राह्या, सा च नारकोक्तसूचेरसङ्ख्याततमे भागे सिद्धा भवति, ततो नारकाणा-IC मसुरकुमारा असङ्ख्येयभागे वर्तन्त इति प्रतिपादितं भवति, इत्थमेव चैतत्, यतः प्रज्ञापनामहादण्डके केवलरत्नप्रभानारकाणामपि समस्ता अपि भवनपतयोऽसङ्ख्याततमभागवर्तित्वेनोक्ताः किं पुनः समस्तनार-13 काणां केवला(अ)सुरकुमारा इति, आहारकाणि नारकवदेव, तैजसकार्मणान्यत्रैवोक्तवैक्रियवदिति । एवं | समानैव वक्तव्यता यावत्स्तनितकुमाराः। - पुढविकाइयाणं भंते ! केवइया ओरालिअसरीरा पं०१, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तं । २०१॥ ~413~ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४ ...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः जहा - बद्धेल्या य मुक्केलया य, एवं जहा ओहिओ ओरालिअसरीरा तहा भा०, पुढ विका० केवइया वेव्विअसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धेल्या य मुक्केल्ल्या य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं णत्थि, मुक्केल्ल्या जहा ओहिआणं ओरालिअसरीरा तहा भा०, आहारगसरीरावि एवं चैव भाणियव्वा, तेअगकम्मसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, जहा पुढविकाइयाणं एवं आउकाइयाणं तेउकाइयाण य सव्वसरीरा भाणियव्वा । वाउकाइयाणं भंते! केवइया ओरालिअसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धेल्या य मुकेल्या य, जहा पुढविकाइयाणं ओरालियसरीरा तहा भाणिअव्वा, वाउकाइयाणं भंते! केवइया वेउव्विअसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धेल्या य मुक्केल्ल्या य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं असंखिजा समए २ अवहीरमाणा २ खेत्तपलिओ मस्स असंखिज्जइभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरंति नो चेव णं अवहिआ सिआ, मुकेलया वे For P&Praise Cinly ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४ ...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ २०२ ॥ उव्वियसरीरा आहारगसरीरा य जहा पुढविकाइआणं तहा भाणिअव्वा, तेअगकम्मसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणिअव्वा । वणस्सइकाइआणं ओरालिअवेउव्वअआहारगसरीरा जहा पुढविकाइयाणं तहा भाणिअव्वा, वणस्सइकाइयाणं भंते! केवड्या तेअगसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, जहा ओहिआ तेअगकम्मसरीरा तहा वणस्सइकाइयाणवि तेअगकम्मगसरीरा भाणिअव्वा । औदारिकाणि बद्धानि मुक्तानि चात्रौधिकौदारिकवद्वाच्यानि केवलं यदोघिकबद्धानामसङ्ख्येयप्रमाणत्वमुक्तं तदिह लघुतरासङ्ख्येयकेन द्रष्टव्यं तत्राप्कायादिशरीरैः सह सामान्येन चिन्तितत्वाद्, अत्र तु केवलटथ्वीकायमाश्रप्रस्तावादिति भावः, वैक्रियाहारकाणि वद्धानि अमीषां न सन्ति, मुक्तानि तु प्रावदेव मनुष्यादिभवेषु संभवन्ति, तानि तु मुक्तौधिकौदारिकवदभिधानीयानि तेजसकार्मणान्यत्रैवोक्तौदारिकवद्दृश्यानि, एवमप्रकाधिक तेजः कायिकेष्वपि सर्वे वाच्यं वायुषु तु वैक्रियकृतो विशेषः समस्ति, तदभिधानार्थमाह - 'वाउकाइयाणं भंते!' इत्यादि, इहापि सर्व पृथिवीकायिकवद्वाच्यं, नवरं वैक्रियाणि बद्धान्यमीषामसइख्येयानि लभ्यन्ते तानि च प्रतिसमयमपट्टियमाणानि क्षेत्रपल्योपमस्यासङ्ख्येयभागे यावन्तो नभः प्रदेशा भवन्ति तत्सङ्ख्यैः समयैरपट्टियन्ते, क्षेत्रपल्योपमासङ्ख्ये पभागवर्तिप्रदेशराशितुल्यानि भवन्तीत्यर्थः, 'नो For P&Pase Cnly ~415~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ २०२ ॥ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ............................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] चेव णं अवहिया सिय'त्ति परप्रत्यायनार्थ प्ररूपणैवेत्थं क्रियते, न तु तानि कदाचित्केनचिदित्थमपहियन्त इति भावः, ननु वायवः सर्वेऽप्यसङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा उक्ताः, तद्वैक्रियशरीरिणः किमित्थं स्तोका एव पठ्यन्ते?, उच्यते, चतुर्विधा वायवः-सूक्ष्मा अपर्याप्ताः पर्याप्ताश्च बादरा अपर्याप्साः पर्यासाश्च, तत्राद्यराशित्रये प्रत्येकं ते असङ्ख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणा वैक्रियलब्धिशून्याश्च, बादरपर्या सास्तु सर्वेऽपि प्रतरासख्येयभागवर्तिप्रदेशराशिसङ्ख्या एव, तत्रापि वैक्रियलब्धिमन्तस्तदसङ्ख्येयभा& गवर्तिन एव न शेषाः, येषामपि च वैक्रियलन्धिस्तेष्वपि मध्येऽसहयातभागवर्तिन एव बद्धवैक्रिया शरीराः पृच्छासमये प्राप्यन्ते नापरे, अतो यथोक्तप्रमाणान्येवैषां बद्धवैक्रियशरीराणि भवन्ति नाघिकानीति, अत्र केचिन्मन्यन्ते-ये केचन वान्ति वायवस्ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरे वर्तन्ते, तदन्तरेण तेषां चेष्टाया एवाभावात्, तच न घटते, यतः सर्वस्मिन्नपि लोके यन्त्र कचित् शुषिरं तत्र सर्वत्र चला वायवो नियमात् सन्त्येव, यदि च ते सर्वेऽपि वैक्रियशरीरिणः स्युस्तदा बद्धवैक्रियशरीराणि प्रभूतानि प्रामुवन्ति, न तु यथोक्तमानान्येवेति, तस्मादवैक्रियशरीरिणोऽपि वान्ति वायवः, उक्तं च-"अस्थि णं भंते! ईसिं पुरेवाया १ अति (एष भाषः) भदन्त ! यत् ईषत् पूर्ववालाः पश्चाद्वाता मन्दबाता महाबाता यान्ति , हन्त अस्ति, कदा भदन्त ! यावत् बान्ति ?, गौतम ! यदा वायुकायो यथारीति रीयते यदा वायुकाय उत्तरक्रियं रीयते, यदा वायुकुमारा वायुकुमार्यों चात्मनो वा परस्य वा तदुभयोऽर्थाय वायुकायमुदीरयन्ति तदा इषद यावत् बारित. *5-550 दीप अनुक्रम [२९९] ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] अनुयो मलधारीया ॥२०३॥ दीप अनुक्रम [२९९] पच्छावाया मंदावाया महायाया वायंति?, हंता अस्थि, कया णं भंते! जाव वायंति?, गोयमा! जया णं वृत्तिः वाउयाए आहारियं रीयइ, जया णं जाव वाउयाए उत्तरकिरियं रीयई, जया णं वाउकुमारा वाउकुमारीओ उपक्रमे वा अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अढाए वाउयायं उदीरंति, तया णं इसिं जाव वायंति" 'आहारियं| प्रमाणद्वार रीयहत्तिरीतं रीतिः खभाव इत्यर्थः, तस्यानतिक्रमेण यथारीतं रीयते-गच्छति, यदा स्वाभाविकौदारिकशरी-18 रगत्या गच्छतीत्यर्थः, उत्तरकिरियंति-उत्तरा-उत्तरवैक्रियशरीराश्रया गतिलक्षणा क्रिया यत्र गमने तदुत्तरक्रियं तद्यथा भवतीत्येवं यदा रीयते । तदेवमत्र वातानां वाने प्रकारत्रयं प्रतिपादयता स्वाभाविकमपि गमनमुक्तम् , अतो वैक्रियशरीरिण एव ते वान्तीति न नियम इत्यलं विस्तरेण । वनस्पतिसूत्रेऽपि सर्व पृथ्वी कायिकवद्वक्तव्यं, नवरं पृथिवीकायिकानां प्रत्येकशरीरित्वात् स्वस्थानबद्धौदारिकसख्यातुल्यानि तेजसकाकाणान्युक्तानि, अन तु वनस्पतीनां यहूनां साधारणशरीरत्वाच्छरीरिणामानन्त्येऽप्यौदारिकशरीराण्यस-12 इख्यातान्येव, तैजसकार्मणानि तु प्रतिजीवं पृथग्भावादनन्तानि, ततो न स्वस्थानबद्धौदारिककायतुल्यानि वक्तव्यानि, किन्तु यथौधिकतैजसकार्मणान्यभिहितानि तथैवात्रापि भावनीयानि । बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालियसरीरा पं०?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहाबद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखिजाहिं उ ॥२० ॥ ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूल [१४५] / गाथा ||११४...|| ...................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] स्सप्पिणीओसप्पिणीहि अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोअणकोडाकोडीओ असंखिज्जाई सेढिवग्गमूलाई बेइंदियाणं ओरालियबद्धेल्लएहिं पयरं अवहीरइ असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालओ खेतओ अंगुलपयरस्स आवलिआए असंखिजइभागपडिभागेणं, मुक्केल्लया जहा ओहिआ ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, वेउब्विअआहारगसरीरा बद्धेल्लया नत्थि मुक्केल्लया जहा ओहिआ ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, तेअगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, जहा बेइंदिआणं तहा तेइंदियचउरिंदियाणवि भाणिअव्वा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणवि ओरालिअसरीरा एवं चेव भाणिअव्वा, पंचिंदिअतिरिक्खजोणिआणं भंते ! केवइया वेउब्विअसरीरा पण्णता?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं असंखिज्जा असंखि दीप अनुक्रम [२९९] % +5 + JaEcol ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० प्रत मलधारीया सूत्रांक [१४५] ॥२०४॥ दीप अनुक्रम [२९९] जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखिजाओ सेढीओ वृत्तिः पयरस्स असंखिज्जइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स अ उपक्रमे प्रमाणद्वार संखिजइभागो, मुकेल्लया जहा ओहिआ ओरालिआ तहा भा०, आहारयसरीरा जहा बेइंदिआणं तेअगकम्मसरीरा जहा ओरालिया। अत्र बद्धौदारिकाण्यसङ्ख्येयानि कालतोऽसख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्यानि, क्षेत्रतस्तु प्रतरासख्येयभागवयंसख्येयश्रेणीनां यः प्रदेशराशिः तत्तुल्यानि, तासां च प्रतरासख्येयभागवर्तिश्रे-18 णीनां विष्कम्भसूचिरसङ्ख्येययोजनकोटीकोटिप्रमाणाऽत्र ग्राह्या । एतदेव विशेषतरमाह-'असंखेज्जाइं सेदिवग्गमूलाईति, एकस्या नभःश्रेणेयः प्रदेशराशिः स सद्भावतोऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकोऽपि कल्पनया | पश्चषष्टिसहस्राणि पश्च शतानि पत्रिंशदधिकानि ६५५३६, अस्य प्रथम वर्गमूलं २५६, द्वितीयं १६, तु। तीयं ४, चतुर्थं २, एतानि कल्पनया चत्वायपि सद्भावतोऽसङ्ख्येयानि वर्गमूलानि, एतेषां च मीलने कल्पनया अष्टसप्तत्यधिके द्वे शते सद्भावतस्त्वसख्येयाः प्रदेशा जायन्ते, तत एतावत्प्रदेशा प्रस्तुतविष्कम्भसूअचिभेवति, इदानीं प्रस्तुतशरीरमानमेव प्रकारान्तरेणाह-बेइंदियार्ण ओरालियसरीरेहिं बहेडएडि'मित्यादि. द्वीन्द्रियाणां यानि बद्धान्यौदारिकशरीराणि तैः प्रतरः सर्वोऽप्यपहियते, कियता कालेनेत्याह-असङ्ख्येयो ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ............................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: 1 प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] 555%%% त्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः, केन पुनः क्षेत्रप्रविभागेन कालप्रविभागेन च, एतावता कालेनायमपहियत इत्याहअङ्गुलमतरलक्षणस्य क्षेत्रस्य आवलिकालक्षणस्य च कालस्य योऽसख्येयभागरूपः प्रविभाग:-अंशस्तेन, इदमुक्तं भवति-योकैकेन द्वीन्द्रियशरीरेण प्रतरस्यैकैकोऽङ्गुलासख्येयभाग एकैकेनावलिकाऽसख्येयभा|गेन क्रमशोऽपहियते तदाऽसळपेयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वोऽपि प्रतरो निष्ठां याति, एवं प्रतरस्यैकैकस्मिमानङ्गलासख्येयभागे एकैकेनावलिकाऽसङ्येयभागेन प्रत्येक क्रमेण स्थाप्यमानानि द्वीन्द्रियशरीराण्यस-ख्ये-13 योत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्व प्रतरं पूरयन्तीत्यपि द्रष्टव्यं, वस्तुत एकार्थत्वादिति, मुक्तीदारिकवैक्रियाहारकाणि पृथ्वीकायिकवद्वाच्यानि, तेजसकार्मणानि तु यथैषामेवौदारिकाणि । श्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाणामप्येवमेव वाच्यम् । पशेन्द्रियतिरश्चामपीथमेय, नवरमेतेषु केषाश्चिद्वैक्रियलब्धिसम्भवतो बद्धान्यपि वैक्रियशरीराणिx लभ्यन्ते, अतस्तत्सङ्ख्यानिरूपणार्थमाह-पंचिंदियतिरिक्खजोणिआणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा ?' इत्यादि, इह च सामान्येनासख्येयतामानाव्यभिचारतस्त्रीन्द्रियादीनामतिदेशो मन्तव्यो, न पुनः सर्वथा परस्परं सख्यासाम्यमेतेषां, यत उक्तम्-"एऐसि णं भंते! एगिदिययेइंदियतेइंदिपचरिदियपंचिंदियाणं कयरे कपरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा बिसेसाहिया चा?, गोयमा! सव्वथोया पंचिंदिया चाउरि सामान्यातिदेशे विशेषानतिदेव इति भ्यायात् १ एतेषां भदन्त ! एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीवियचतुरिन्द्रियपथेनियाणां कतरे कतरेभ्यः अल्या या बहवो वा तल्या या विशेषाधिका या !, गौतम ! सर्वसतोकाः पवेन्द्रियाः चतुरिन्द्रिया विशेषाधिकार त्रीन्द्रिया विशेषाधिका द्वीन्दिया विशेषाधिका एकेन्द्रिया अनन्तगुणाः, अनु. ३५ ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ २०५ ॥ दिया विसेसाहिया तेइंदिया विसेसाहिआ बेइंदिया विसेसाहिया एगिंदिया अनंतगुणा” तदेवमिह सूत्रे द्वीन्द्रियादीनां कियतोऽपि जीवसङ्ख्यावैचित्र्यस्योक्तत्वा सच्छरीराणामपि तदिह द्रष्टव्यं प्रत्येकशरीराणां जीवसङ्ख्यायाः शरीरसङ्ख्यायाः तुल्यत्वादित्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतमुच्यते तत्र पञ्चेन्द्रियतिरक्षां बद्धानि वैक्रियशरीराण्यसङ्ख्ये यानि सर्वदेव लभ्यन्ते तानि च कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितल्यानि, क्षेत्रतस्तु प्रतरासङ्ख्येय भागवर्त्यसङ्ख्येयश्रेणीनां यः प्रदेशराशिः ततुल्यानि, तासां च श्रेणीनां विष्कम्भ सचिरगुलप्रथमवर्गमूलस्यासङ्ख्येयभागः शेषभावना असुरकुमारवत्कार्या । मस्साणं भंते! केवइया ओरालियसरीरा पं० १, गो० ! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- बद्धेल्या य मुक्केल्ल्या य, तस्थ णं जे ते बद्धेल्या ते णं सिअ संखिजा सिअ असंखिजा जहण्णपए संखेज्जा, संखिज्जाओ कोडाकोडीओ एगुणतीसं ठाणाई तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स हेट्टा, अहव णं छट्टो वग्गो पंचमवग्गपडुप्पण्णो, अहव णं छण्णउइछेअणगदायिरासी, उक्कोसपए असंखिजा, असंखिजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ उक्कोसपए रूवपक्खित्तेहिं मणूस्सेहिं सेटी अवहीरइ कालओ असंखि For P&Praise City ~421~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ २०५ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं खेत्तओ अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडप्पण्णं, मुक्केलया जहा ओहिआ ओरालिआ तहा भाणिअव्वा, मणुस्साणं भंते ! केवइआ वेउव्विअसरीरा पं०?, गो! दुविहा पं० २०-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं संखिजा समए २ अवहीरमाणा २ संखेजेणं कालेणं अवहीरंति, नो चेव णं अवहिआ सिआ, मुक्केल्लया जहा ओहिआ ओरालिआणं मुक्केल्लया तहा भा०, मणुस्साणं भंते! केवइया आहारगसरीरा पं०?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लया ते णं सिअ अस्थि सिअ नस्थि, जइ अस्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिषिण वा उक्कोसेणं सहस्सपुहत्तं, मुक्केल्लया जहा ओ. हिआ, तेअगकम्मगसरीरा जहा एएसिं चेव ओरालिआ तहा भाणिअव्वा । इह मनुष्या द्विविधाः-वान्तपित्तादिजन्मानः सम्मूर्छजाः स्त्रीगर्भोत्पन्ना गर्भजाश्च, तत्राद्याः कदाचिन्न भवन्त्येव, जघन्यतः समयस्योत्कृष्टतस्तु चतुर्विशतिमुहूर्तानां तदन्तरकालस्य प्रतिपादितत्वादू, उत्पन्नानां तु 445 दीप अनुक्रम [२९९] 1-964-56 JanticXH ~422~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [ १४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः जघन्यत उत्कृष्टतश्चान्तर्मुहूर्तस्थितिकत्वेन परतः सर्वेषां निर्लेपत्वसम्भवात् यदा तु भवन्ति तदा जघन्यत एको दी भयो वा उत्कृष्टतस्त्वसङ्ख्याताः इतरे तु सर्वदैव सङ्ख्येया भवन्ति, नासङ्ख्येयाः; तत्र सम्मूछेजा यदा न भवन्ति तदैव जघन्यपदिनो गर्भजा एव गृह्यन्ते, अन्यथा जघन्यपवर्तित्वमेव न स्यात्, ते च स्वभावात् सङ्ख्येया एव, अतस्तच्छरीराण्यपि बद्धानि सङ्ख्येयान्येव, अत उक्तं- 'जहणपए संखेज 'न्ति, ॥ २०६ ॥ सङ्ख्येयकस्य सङ्ख्यात भेदत्वान्न ज्ञायते कियदपि सख्येयकमित्याह-सङ्ख्येयाः कोटी कोटयः, पुनर्विशेषितं तमाह - 'तिजमलपयस्स उवरिं चउजमलपयस्स हेड'ति इदमुक्तं भवति-अष्टानामष्टानामङ्कस्थानानां यमलपदमिति सामयिकी संज्ञा, ततस्त्रयाणां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदं चतुर्विंशत्यङ्कस्थानलक्षणम्, अथवा तृतीयं यमलपदं षोडशानामङ्कस्थानानामुपरितनाङ्काष्टकलक्षणमिति स एवार्थः, तस्य त्रिय| मलपदस्य उपरि प्रस्तुतमनुष्या भवन्ति, चतुर्विंशत्यङ्कस्थानान्यतिक्रम्य जघन्यपदवर्तिनां गर्भजमनुष्याणां सङ्ख्या वर्तत इत्यर्थः तर्हि चतुरादीन्यपि यमलपदानि भवन्ति ? नेत्याह- 'चउजमलपयस्स हेट्ठति चतुर्णी यमलपदानां समाहारश्चतुर्यमलपदं- द्वात्रिंशदङ्कस्थानलक्षणम्, अथवा चतुर्थ यमलपदं चतुर्यमलपदं चतुर्विंशतेरङ्कस्थानानामुपरितनाङ्काष्टकलक्षणमित्येक एवार्थः, तस्य चतुर्यमल पद स्याधस्तादेकोनत्रिंशदङ्कस्थानेष्वनन्तरमेव वक्ष्यमाणखरूपेषु प्रकृतमनुष्य सङ्ख्या वर्तत इति भावः, अथवा द्वौ वर्गावनन्तरमेव वक्ष्यमाणस्वरूपौ ४ ॥ २०६ ॥ यमलपदमिति सामयिक्येव परिभाषा, ततस्त्रयाणां यमलपदानां समाहारस्त्रियमलपदं वर्गषलक्षणं तस्योपरि अनुयो० मलधा रीया For P&Praise City ~423~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] ॐॐॐॐ चतुर्यमलपदस्य-वर्गाष्टकलक्षणस्याधस्तादेतन्मनुष्यसङ्ख्या लभ्यते, षष्ठवर्गस्योपरि सप्तमवर्गस्य वधस्ता प्रस्तुतमनुष्यसङ्ख्या प्राप्यत इति हृदयम्, अत्राप्येतान्येवैकोनत्रिंशदङ्कस्थानानि मन्तव्यानि, अथवा Pाकिमेतरस्फुटैः प्रकारैः, स्फटतरमेव प्रकारमाह-'अहव 'मित्यस्य शब्दस्य पाठान्तरस्य व्याख्या पूर्ववत्, ष-12 वर्गः पञ्चमवर्गेण यदा प्रत्युत्पन्नो-गुणितो भवति तदा प्रस्तुतमनुष्यसङ्ख्या समागच्छतीत्यर्थः, अथ कोऽयं &षष्ठो वर्ग:? कश्च पञ्चमवर्ग इति, अत्रोच्यते, विवक्षितः कश्चिद्राशिस्तेनैव राशिना यत्र गुण्यते स तावदूर्गः, तत्रैकवर्गस्य वर्ग एक एव भवत्यतो वृद्धिरहितवादेष वर्ग एव न गण्यते, द्वयोश्च वर्गश्चत्वारो भवन्तीत्येष प्रथमो वर्गः, चतुर्णी वर्ग: षोडशेति द्वितीयो वर्ग: १६, षोडशानां वर्गों द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके इति तृतीयो वर्ग: २५६, अस्य राशेर्वर्गः पश्चषष्टिसहस्राणि पश्च शतानि षत्रिंशदधिकानीति चतुर्थों वर्गः ६५५३६, अस्य राशेवंर्ग: सार्द्धगाथया प्रोच्यते-'चत्तारि य कोडिसया अउणत्तीसं च हुंति कोडीओ । अउणाचनं लकखा सत्तहि चेव य सहस्सा ॥१॥ दो य सया छन्नज्या पंचमवग्गो इमो विणिछिट्टो त्ति अङ्कतोऽप्येष दर्यते ४२९४९६७२९६, अस्यापि राशेर्गाथात्रयेण वर्गः प्रतिपाद्यते-लक्खं कोडाकोडी चउरासीयं भवे सह-13 |स्साई । चत्तारि अ सत्तट्ठा हुंति सया कोडीकोडीणं ॥१॥चज्याल लक्खाई कोडीणं सत्त- चेव य स-13 |हस्सा । तिन्नि य सया य सत्तरि कोडीणं हंति नायव्वा ॥२॥ पंचाणऊह लक्खा एगावन्नं भवे सहस्साई ।। छस्सोलसोत्तरसया एसो छट्टो हवह बग्गो॥३॥ अङ्कतोऽपि दर्यते १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६, तदयाला JaE ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४५ ] दीप अनुक्रम [२९९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १४५] / गाथा ||११४...|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीवा ॥ २०७ ॥ षष्ठो वर्ग: पूर्वोक्तेन पञ्चमवर्गेण गुण्यते, तथा च सति या सङ्ख्या भवति तस्था जघन्यपदिनो गर्भजमनुष्या वर्तन्ते सा चेयम् ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ अयं च राशिः कोटीकोट्यादिप्रकारेण केनाप्यभिधातुं न शक्यते अतः पर्यन्तादारभ्याङ्कमानसङ्ग्रहार्थ गाथाद्वयम् -'छत्तिन्नि तिन्नि सुन्नं पंचैव य नव यू प्रमाणद्वार तिन्नि चतारि । पंचेव तिष्णि नव पंच सत्त तिन्नेव तिन्नेव ॥ १ ॥ चड छ दो चड एक्को पण दो छक्कगो य अहेव । दो दो नव सत्तेव य अंकद्वाणा पराहृन्ता ॥ २ ॥ तदेवमेतेष्वेकोनत्रिंशदङ्कस्थानेषु जधन्यपदिनो गर्भजमनुष्या वर्तन्ते इति स्थितम् । अमुमेवार्थ प्रकारान्तरेणाह - 'अहव णं छनउईच्छेयणगयाई रासित्ति छेदनकं राशेरद्धकरणं ततः षण्णवतिच्छेदनानि यो राशिददाति पर्यन्ते च परिपूर्णैकरूपपर्यवसितो भवति न तु खण्डितरूपपर्यवसितः स प्रकृतमनुष्यसङ्ख्याखरूपो मन्तव्यः, स चायमेवैकोनत्रिंशदङ्कस्थाननिष्पन्नोऽनन्तरदर्शितो नान्यः, अयं हि पुनः पुनश्छिद्यमानोऽद्धीक्रियमाणः षण्णवतिच्छेदान् क्षमते, पर्यन्ते च परिपूर्णेकरूपपर्यवसितो भवतीति षण्णवतिच्छेदनकदायी प्रोच्यते, कथं पुनः षण्णवतिच्छेदनानि भाव्यन्ते ?, उच्यते, प्रथमो वर्गवतुष्टयरूपो यो दर्शितस्तत्र द्वे छेदने भवतः, तथाहि चतुर्णाम द्वौ तयोरप्यर्द्ध एक इत्येवमुत्तरेष्वपि वर्गेषु भावनीयं, द्वितीये तु वर्गे चत्वारि छेदनानि संपयन्ते, तृतीये अष्टा, चतुर्थे षोडश, पञ्चमे द्वात्रिंशत्, षष्ठे चतुःषष्टिः, पञ्चमस्तु षष्ठेन गुणित आस्ते, अतः पञ्चमसत्कान्यपि छेदनकानि षष्ठे प्रविष्टानि प्राप्यन्त इत्युभयगतान्यपि मील्यन्ते, ततो जातानि प्रस्तुतराशौ षण्णवतिच्छेदनकानि खयमेव वा पुनः पुनश्छेदं कृत्वा For P&False City ~425~ वृत्तिः उपक्रमे ॥२०७॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत KAR सूत्रांक [१४५] ट्र अभियुक्तेन भावनीयानि, तदेवं जघन्यपदमुक्तम् , अथोत्कृष्टपदमभिधित्सुराह-'उक्कोसपए असंखेजति, उत्कृष्टपदे मनुष्यबद्धान्यौदारिकशरीराण्यसख्येयानि कालतोऽसङ्ख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीसमयराशितुल्या-| नि, क्षेत्रतस्त्वेकमिन् मनुष्यशरीररूपे प्रक्षिप्ते तैर्मनुष्यशरीरैरका नभःप्रदेशश्रेणिरपहियते, कियता कालेने-12 त्याह-असख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः, कियता क्षेत्रखण्डापहारेणेत्याह-'अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपटुप्पण्ण'न्ति श्रेणेरजुलप्रमाणे क्षेत्रे यः प्रदेशराशिस्तस्य यत्प्रथमं वर्गमूलं तत्तृतीयवर्गमूलप्रदेशराशिना गुण्यते, गुणिते च यः प्रदेशराशिर्भवति तत्प्रमाणं क्षेत्रखण्डमेकैकं मनुष्यशरीरं क्रमेण प्रतिसमयमपहरति, इदमुक्तं भवति-श्रेणेमध्याद यथोक्तप्रमाण क्षेत्रखण्डं योकैकं मनुष्यशरीरं क्रमेण प्रतिसमयमपहरति[6] तदाऽसख्येयोत्सर्पिण्यवसर्पिणीभिः सर्वाऽपि श्रेणिरपहियते यद्येक मनुष्यशरीरं स्यात्, तन्त्र नास्ति, सर्वोत्कृष्टानामपि समुदितगर्भसंमूर्छजमनुष्याणामेतावतामेव भावादिति । तदेवं मनुष्याणां बद्धान्यौदारिकशरीराण्युक्तानि, मुक्तानि त्वोघबद्भाव्यानि । अध वैक्रियाण्याह-'केवइया वेउब्बिअसरीरा' इत्यादि, वैक्रियाण्यमीषां सङ्ख्येयान्येव बद्धानि प्राप्यन्ते गर्भजेषु, तत्रापि वैक्रियलब्धिमत्सु तत्रापि पृच्छासमये कियत्खेव तेषु तद्वन्धसम्भवादिति, तानि च प्रतिसमयमेकैकशोऽपहियमाणानि असख्येयेन कालेनापहियन्ते, मुक्तान्योघवदाच्यानि । आहारकाणि तु बद्धानि मुक्तानि च यथौधिकानि तथैव, तेजसकार्मणानि तु यथै-18 पामेवौदारिकाणि । दीप अनुक्रम [२९९] ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो मसभा वृत्ति उपक्रमे प्रत र्माणद्वार सूत्रांक रीया [१४५]] ॥२०८॥ दीप अनुक्रम [२९९] वाणमंतराणं ओरालिअसरीरा जहा नेरइआणं, वाणमंतराणं भंते ! केवइआ वेउव्विअसरीरा पं०?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धेल्लया य मुक्केल्लया य, तत्थ णंजे ते बद्धेल्लया ते णं असंखेजा, असंखिज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालओ खेत्तओ असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखिजइभागो तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई संखेजजोअणसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुक्के० जहा ओहिआ ओरालिआ तहा भा०, आहा० दुविहा वि जहा असु० तहा भा०, वाण. भंते ! केवइया तेअगस० पं०१, गो०! जहा एएसिं चेव वेउवि० तहा तेअग०भाणिअव्वा। जोइसियाणं भंते! केव० वे० पं०? गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धे० मुक्के०, तत्थ णं जे ते ब० जाव तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई बेछप्पण्णंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स, मुक्के० जहा ओ० ओरा० तहा भा०, आहारय० जहा नेर० तहा भा०, तेअ० जहा एएसिं चेव वेउ० तहा० । वेमाणियाणं भंते ! केव० ओरा० पं०?, गो०! जहा ने तहा०, वेमा 11२०८॥ ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| ...................... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [२९९] णि केव० वेउ० पं०?, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-बद्धे० मुक्के०, तत्थ णं जे तेव० ते णं असंखिजा असंखेजाहिं उस्स० अवहीरंति कालओ खेत्तओ असं० सेढीओ पयरस्स असंखे० तासिणं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलबीयवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पण्णं अहव णं अंगुलतइयवग्गमूलं घणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ, मुक्केल्लया जहा ओहिआ ओरालियाणं तहा भा०, आहा. जहा नेरइयाणं, तेअग० जहा एएसिं चेव वेउब्धिअसरीरा तहा भाणिअव्वा, से तं सुहमे खेत्तपलिओयमे, से तं खेत्तपलिओवमे, से तं पलिओवमे, से तं विभागणिप्फपणे, से तं कालप्पमाणे (सू० १४५) । व्यन्तराणां सर्व नारकवद्वाच्यं, नवरं नारकेभ्यो व्यन्तराणामसङ्ख्येयगुणत्वेन महादण्डके पठितत्वाद्विष्कम्भसूच्या विशेष इत्याह-'तासि णं सेढीण मित्यादि, तासामसङ्ख्येयानां श्रेणीनां विष्कम्भमूचिः पूर्वो-13 क्तस्य प्रज्ञापनामहादण्डकोक्तस्य चानुसारेण खयमेव दृश्यति वाक्यशेषः, सा च पूर्वोक्तायाः पञ्चेन्द्रियतियेंगविष्कम्भसूचेरसख्येयगुणहीना द्रष्टव्या, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्भ्यो व्यन्तराणामसख्येयगुणहीनत्वेन महादण्डके (पठितखात्, कियता पुनः प्रतिभागेन व्यन्तराः सर्व प्रतरमपहरन्तीत्याह-संखिजजोयणे'त्यादि, सङ्ख्येय JaEETA ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................. मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अनुयो० वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१४५] मलधा रीया ॥२०९॥ योजनशतानां यो वर्गस्तद्रूपो यः प्रतिभागः-अंशः, कस्येत्याह-प्रतरस्य, इदमुक्तं भवति-सङ्ख्येययोजनशतवर्गमूलं प्रतरस्य भागं योकैको व्यन्तरोऽपहरति तदा सर्वोऽपि प्रतरोऽपहियते, यदिवा तावति भागे एकैक- उपक्रमे स्मिन् व्यन्तरेऽवस्थाप्यमाने सर्वोऽपि प्रतरः पूर्यते । ज्योतिष्कसूत्रेऽपि 'तासि णं सेढीणं विक्खभसूई' खयमेव प्रमाणद्वारं दृश्येति वाक्यशेषोऽवसेयः, सा च व्यन्तरविष्कम्भसूचे सख्येषगुणा द्रष्टव्या, व्यन्तरेभ्यो ज्योतिष्काणां सङ्ख्येयगुणवेन महादण्डके पठितत्वाद्, इहापि च प्रतरापहारक्षेत्रस्य तत्क्षेत्रादमीषां सङ्ख्येयगुणहीनन्याभिधानात्, तदाह-'बेछप्पन्नंगुलसयवग्गपलिभागों'त्ति षट्पञ्चाशदधिकाङ्गुलशतद्वयवर्गरूपं प्रतिभाग-12 प्रतरस्यांशं यद्यकैको ज्योतिषकोऽपहरति तदा सर्व प्रतरमपहरन्ति, प्रत्येक स्थाप्यमाना वा तावति प्रतिभागे सर्व प्रतरं पूरयन्ति, व्यन्तरेभ्य एते सख्येयगुणत्वाइहवः, ततो व्यन्तरोक्तप्रतरप्रतिभागक्षेत्रखण्डाद्यधोक्तकरूपतया सख्येयगुणहीनेन खल्पेनापि क्षेत्रखण्डेन प्रतरमेतेऽपहरन्ति पूरयन्ति वा इति भावः । वैमानिक-12 सूत्रेऽपीस्थमेव, नवरं वैमानिकाः प्रज्ञापनायां भवनपतिनारकव्यन्तरज्योतिष्केभ्यः प्रत्येकं सर्वेभ्योऽप्यसख्ये-18 यगुणहीनाः पश्यन्ते, अतो विष्कम्भसूच्या विशेषः, तमाह-तासि णं सेढीण'मित्यादि, तासां श्रेणीनां विष्कम्भसूचिरकुलस्य द्वितीयवर्गमूलं तृतीयवर्गमूलेन गुणितम्, इदमुक्तं भवति-अङ्गुलप्रमाणे प्रतरक्षेत्रे सद्भावतोऽसख्येया अपि कल्पनया द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके श्रेणीमा भवतः २५६, अत्र प्रथमवर्गमूलं १६|| द्वितीयं ४ तृतीयं २, तन्त्र द्वितीय वर्गमूलं चतुष्टयलक्षणं तृतीयेन द्विकलक्षणेन गुणितं, जाता अष्टी, एव SANG दीप अनुक्रम [२९९] ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ................ मूलं [१४५] / गाथा ||११४...|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] मेताः सद्भूततयाऽसङ्ख्येयाः कल्पनया त्वष्टौ श्रेणयो विस्तरसूचिरिह गृह्यते, 'अहव णमित्यादि, अथवा अकुलतृतीयवर्गमूलस्य द्विकलक्षणस्य यो घनः अष्टौ, एतावत्यः श्रेणयोऽत्र विष्कम्भसूच्यां गृह्यन्ते इति स एवार्थः, तदेवं भुवनपत्यादिसूचिरेषाऽसङ्ख्येयगुणहीना मन्तव्या, शेषं सुखोनेयं यावत् से तं खेत्तपलिओवमेत्ति । तदेवं 'समयावलियमुहुत्तेत्यादिगाथानिर्दिष्टास्तदुपलक्षिताश्चान्येऽप्युच्छासादयो व्याख्याताः कालविभागाः, अत आह-से तं विभागणिप्फपणे त्ति, एवं च समर्थितं कालप्रमाणमित्याह-से तं कालप्पमाणे'त्ति ॥ १४५ ॥ अथ भावप्रमाणमभिधित्सुराह से किं तं भावप्पमाणे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-गुणप्पमाणे नयप्पमाणे संखप्पमाणे (सू० १४६) से किं तं गुणप्पमाणे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-जीवगुणप्पमाणे अजीवगुणप्पमाणे अ । से किं तं अजीवगुणप्पमाणे?, २ पंचविहे पपणत्ते, तंजहा-वण्णगुणप्पमाणे गंधगुणप्पमाणे रसगुणप्पमाणे फासगुणप्पमाणे संठाणगुणप्पमाणे, से किं तं वण्णगुणप्पमाणे?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-कालवण्णगुणप्पमाणे १नारकादिसूचिभ्य एषा प्र. दीप अनुक्रम [२९९] ~430~ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो [१४६-१४७] मलधारीया ॥२१ ॥ गाथा: ||--|| जाव सुकिल्लवपणगुणप्पमाणे, से तं वण्णगुणप्पमाणे । से किं तं गंधगुणप्पमाणे ?, वृत्तिः उपक्रमे २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुरभिगंधगुणप्पमाणे दुरभिगंधगुणप्पमाणे, से तं गंधगुण प्रमाणद्वार प्पमाणे। से किं तं रसगुणप्पमाणे?, २ पंचविहे पण्णते, तंजहा-तित्तरसगुणप्पमाणे जाव महररसगुणप्पमाणे, से तं रसगुणप्पमाणे । से किं तं फासगुणप्पमाणे ?, २ अट्रविहे पण्णत्ते, तंजहा-कक्खडफासगुणप्पमाणे जाव लुक्खफासगुणप्पमाणे, से तं फासगुणप्पमाणे । से किं तं संठाणगुणप्पमाणे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-परिमंडलसंठाणगुणप्पमाणे बद्दसं० स० चउरंस. आययसंठाणगुणप्पमाणे, से तं संठाणगुणप्पमाणे, से तं अजीवगुणप्पमाणे । भवनं भावो-वस्तुनः परिणामो ज्ञानादिवर्णादिश्च, प्रमितिः प्रमीयते अनेन प्रमीयते स इति वा प्रमाणं, भाव एवं प्रमाण भावप्रमाण, भावसाधनपक्षे प्रमितिः-वस्तुपरिच्छेदस्तद्धेतुत्वाद्भावस्य प्रमाणताऽवसेया, तच भावप्रमाणं त्रिविधं प्रज्ञप्त, तथधा-गुणप्रमाण'मित्यादि, गुणो-ज्ञानादिः स एव प्रमाणं गुणप्रमाणं, प्रमीयते ॥१०॥ |च गुणैर्द्रव्यं, गुणाश्च गुणरूपतया प्रमीयन्तेऽतः प्रमाणता, तथा नीतयो नया:-अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन ए-k दीप अनुक्रम -३०९]] ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] गाथा: ||--|| कांशपरिच्छित्तयः त एवं प्रमाणं नयप्रमाण, सख्यानं सन्ख्या सैव प्रमाणं सख्याप्रमाणं, नयसङ्ख्ये अपि गुणत्वं न व्यभिचरतः, केवलं गुणप्रमाणात् पृथगभिधाने कारणमुपरिष्टादश्यते, तत्र गुणप्रमाणं द्विधाजीवगुणप्रमाणं च अजीवगुणप्रमाणं च, तत्राल्पवक्तव्यत्वादजीवगुणप्रमाणमेव तावदाह-से किं तं अजीवगुणप्पमाणे इत्यादि, एतत्सर्वमपि पाठसिद्धं, नवरं परिमण्डलसंस्थानं घलयादिवत्, वृत्तमयोगोलकवत्, व्यस्रं त्रिकोणं शृङ्गाटकफलवत्, चतुरस्रं समचतुष्कोणम् , आयतं-दीर्घमिति। से किं तं जीवगुणप्पमाणे?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-णाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरित्तगुणप्पमाणे । से किं तं गाणगुणप्पमाणे?, २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-पच्चक्खे अणुमाणे ओंवम्मे आगमे । से किं तं पञ्चक्खे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-इंदिअपञ्चक्खे अ णोइंदिअपञ्चक्खे असे किं तं इंदिअपच्चक्खे?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-सोइंदिअपच्चक्खे चक्खुरिंदियपच्चक्खे घाणिदिअपच्चक्खे जिभिदिअपञ्चक्खे फासिंदिअपञ्चक्खे, से तं इंदियपच्चक्खे । से किं तं णोइंदियपच्चक्खे ?, दीप अनुक्रम ARRESSES अनु. ३६ -३०९] ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .............. मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो० [१४६-१४७]] मलधा रीया ॥२११॥ गाथा: ||--|| २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-ओहिणाणपञ्चक्खे मणपजवनाणपञ्चक्खे केवलणाणपञ्चक्खे, वृत्तिः से तं णोइंदियपच्चक्खे, से तं पञ्चक्खे । उपक्रमे प्रमाणद्वारं जीवस्य गुणा-ज्ञानादयस्तद्रूपं प्रमाणं जीवगुणप्रमाणं, तच ज्ञानदर्शनचारित्रगुणभेदानिधा, तत्र ज्ञानरूपोटा यो गुणस्तद्रूपं प्रमाणं चतुर्विधं, तद्यथा-प्रत्यक्षमनुमानमुपमानमागमः, तत्र 'अशू व्याप्ता बित्यस्य धातोर-12 इनुते-ज्ञानात्मना अर्थान् व्यामोतीति अक्षो-जीवः 'अश भोजने इत्यस्य वा अनाति-भुङ्गे पालयति वा सवार्थानित्यक्षो-जीव एवं प्रतिगतम्-आश्रितमक्षं प्रत्यक्षमिति, अत्यादयः कान्तायर्थे द्वितीयये (का० रू०४३०)ति समासः, जीवस्यार्थसाक्षात्कारित्वेन यद् ज्ञानं वर्तते तत्प्रत्यक्षमित्यर्थः, अन्ये त्वक्षमक्षं प्रति वर्तत इत्यव्ययीभावसमासं विदधति, तच न युज्यते, अव्ययीभावस्य नपुंसकलिङ्गत्वात् प्रत्यक्षशब्दस्य त्रिलिङ्गता न स्थात्, दृश्यते चेयं, प्रत्यक्षा बुद्धिः प्रत्यक्षो बोधः प्रत्यक्ष ज्ञानमिति दर्शनात्, ततो यथादर्शितस्तत्पुरुष ए-14 वायं, तच्च प्रत्यक्षं द्विविधम्-इन्द्रियप्रत्यक्षं नोइन्द्रियप्रत्यक्षं च, अत्रेन्द्रियं-श्रोत्रादि तन्निमित्त-सहकारिकारणं यस्योत्पित्सोस्तदलिङ्गिक शब्दरूपरसगन्धस्पर्शविषयज्ञानमिन्द्रियप्रत्यक्षम्, इदं चेन्द्रलक्षणजीवात् परं व्यतिरिक्तनिमित्तमाश्रिस्योत्पद्यते इति धूमादग्निज्ञानमिव वस्तुतोऽर्थसाक्षात्कारित्वाभावात् परोक्षमेव, केवलं १तभित्तं प्र. दीप अनुक्रम R॥२११ -३०९] JaEAXI ~433~ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ................ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] गाथा: ||--|| लोकेऽस्य प्रत्यक्षतया रूढखात् संव्यवहारतोत्रापि तथोच्यत इत्यलं विस्तरेण, तदाकाशिणा तु नन्यध्ययनमन्वेषणीयम् । इन्द्रियप्रत्यक्षं तु यन्न भवति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षं, नोशब्दस्य सर्वनिषेधपरत्वात्, यत्रेन्द्रियं सर्वथैव न प्रवर्तते किन्तु जीव एव साक्षादर्थं पश्यति तन्नोइन्द्रियप्रत्यक्षम्-अवधिमनःपर्यायकेवलास्यमिति भावार्थः। से किं तं अणुमाणे ? २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुव्व सेसवं दिटुसाहम्मवं । से किं तं पुव्ववं? २-माया पुत्तं जहा न,, जुवाणं पुणरागयं । काई पञ्चभिजाणेज्जा, पुव्वलिंगेण केणई ॥१॥ तंजहा-खत्तेण वा वण्णेण वा लंछणेण वा मसेण वा तिलपण वा, से तं पुत्ववं । से किं तं सेसवं?, २ पंचविहं पण्णत्तं, तंजहा-कजेणं कारणेणं गुणेणं अवयवेणं आसएणं । से किं तं कजेणं?, २ संखं सद्देणं भेरिं ताडिएणं वसभं ढक्किएणं मोरं किंकाइएणं हयं हेसिएणं गयं गुलगुलाइएणं रहं घणघणाइएणं, से तं कजेणं । से किं तं कारणेणं?, २ तंतवो पडस्स कारणं ण पडो तंतुकारणं वीरणा कडस्स कारणं ण कडो वीरणाकारणं मिप्पिडो घडस्स कारणं ण घडो मिप्पि दीप अनुक्रम -३०९]] ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ -१४७] गाथा: |I--II दीप अनुक्रम [ ३०० -३०९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४६- १४७] / गाथा ||११५-११८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधारीया ॥ २१२ ॥ * % %% Ja intematon कारणं, सेतं कारणं । से किं तं गुणेणं १, २ सुवणं निकसेणं पुष्कं गंधेणं लवणं रसेणं मइरं आसायएणं वत्थं फासेणं, से तं गुणेणं । से किं तं अवयवेणं १, २ महिसं सिंगेणं कुक्कुडं सिहाएणं हरिंथ विसाणेणं वराहं दाढाए मोरं पिच्छेणं आसं खुरेणं वग्धं नणं चमरिं वालग्गेणं वाणरं लंगुलेण दुपयं मणुस्सादि चउपयं गवमादि बहुपर्य गोमिआदि सीहं केसरेणं वसहं कुकुहेणं महिलं वलयवाहाए, गाहा-परिअरबंधेण भडं जाणिजा महिलिअं निवसणेणं । सित्थेण दोणपागं कविं च एक्काए गाहाए ॥ १ ॥ सेतं अवयवेणं । से किं तं आसएणं १, २ अग्गिं धूमेणं सलिलं बलागेणं बुद्धिं अभ विकारेणं कुलपुत्तं सीलसमायारेणं - [इङ्गिता कारितैज्ञेयैः, क्रियाभिर्भाषितेन च । नेत्रवक्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः ॥ १ ॥] से तं आसएणं । से तं सेसवं । अनु-लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणस्य पञ्चान्मीयते परिच्छिद्यते वस्त्वनेनेति अनुमानं तच त्रिविधं पूर्ववत् शे १ विष कोभदन्त योरित्यभिधाननाममा को के दन्तोऽर्थी विषाणस्य. Fir P&Praise Cnly ~ 435~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ) ॥ २१२ ॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] गाथा: ||--|| ४ाषवत् दृष्टसाधर्म्यवचेति । 'से किं तं पुब्वव मित्यादि, विशिष्टं पूर्वोपलब्धं चिह्नमिह पूर्वमुच्यते, तदेव निमित्तरू पतया यस्यानुमानस्यास्ति तत्पूर्ववत्, तद्वारेण गमकमनुमानं पूर्ववदिति भावः। तथा चाह-माता पुत्र'मित्यादि श्लोकः, यथा माता स्वकीयं पुत्रं बाल्यावस्थायां नष्टं युवानं सन्तं कालान्तरेण पुनः कथमप्यागतं काचित्तथाविधस्मृतिपाटयवती, न सर्वाः, पूर्वदृष्टेन लिनेन केनचित् क्षतादिना प्रत्यभिजानीयात्-मत्पुत्रोऽयमिति अनुमिनुयादित्यर्थः, केन पुनर्लिङ्गेनेत्याह-'क्षतेन वेत्यादि, खदेहोद्भवमेव क्षतं, आगन्तुकस्तु श्वदंष्ट्रादिकृतो व्रणा, लाञ्छनमषतिलकास्तु प्रतीताः, तदयमत्र प्रयोगो-मत्पुत्रोऽयम्, अनन्यसाधारणक्षतादिलक्षणविशिष्टलिङ्गोपलब्धेरिति, साधयंवैधर्म्यदृष्टान्तयोः सत्त्वेतराभावादयमहेतुरिति चेत्, नैवं, हेतोः परमार्थेनैकलक्षणत्वात्, तहलेनैव गमकत्वोपलब्धेः, उक्तं च न्यायवादिना पुरुषचन्द्रेण-"अन्यथाऽनुपपन्नत्वमात्र हेतोः खलक्षणम् । सत्त्वासत्त्वे हि तद्धमौं, दृष्टान्तद्वयलक्षणे ॥१॥” तद्धर्माविति-अन्यथानुपपन्नत्वधमौं, कथम्भूते सत्त्वासत्त्वे इत्याह-साधर्म्यवैधर्म्यरूपे दृष्टान्तद्वये लक्ष्यते-निश्चीयते,अथ यदि दृष्टान्तद्वयलक्षणेन च धर्मिसत्तायां धर्माः सर्वेऽपि सर्वदा भवन्त्येव, पटादेः शुक्लत्त्वादिधर्मैयभिचारात्, ततो दृष्टान्तयोः सत्वासत्त्वधर्मों यद्यपि कचिद्धेतौ न दृश्येते तथापि धर्मिखरूपमन्यथानुपपन्नत्वं भविष्यतीति न कश्चिद्विरोध इति भावः । यत्रापि धू४मादौ दृष्टान्तयोः सत्वासत्त्वे हेतोदृश्यते तत्रापि साध्यान्यथानुपपन्नखस्यैव प्राधान्यात्तस्यैवैकस्य हेतुलक्ष णताऽवसेया, तथा चाह- धूमादेयेंद्यपि स्यातां, सत्त्वासत्वे च लक्षणे । अन्यथानुपपन्नवप्राधान्याल्लक्षणेकता दीप अनुक्रम -३०९]] JEic ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .......... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] गाथा: ||--|| अनुयो० ॥१॥" किंच-यदि दृष्टान्ते सत्त्वासत्त्वदर्शनाद्धेतुर्गमक इष्यते तदा लोहलेख्यं वजं पार्थिवत्वात् काष्ठादि- वृत्तिः मलधावदिल्यादेरपि गमकत्वं स्याद्, अभ्यधायि च-"दृष्टान्ते सदसत्त्वाभ्यां, हेतुः सम्यग् यदिष्यते । लोहलेख्यं उपक्रमे रीया भवेद्वजं, पार्थिवत्वाद् दुमादिव ॥१॥" इति । यदि च-पक्षधर्मत्वसपक्षसत्त्वविपक्षासत्त्वलक्षणं हेतोबैरू दि प्रमाणद्वारं ॥२१॥ साप्यमभ्युपगम्यापि यथोक्तदोषभयात् साध्येन सहान्यथानुपपन्नत्वमन्वेषणीयं तहिं तदेवैकं लक्षणतया यक्तु-IN मुचितं, किं रूपत्रयेणेति, आह च-"अन्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? । नान्यथानुपपन्नत्वं, यत्र तत्र त्रयेण किम् ? ॥१॥” इत्यादि, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तुनोच्यते, अन्धगहनताप्रसङ्गात्, अन्यत्र यतेनोक्तत्वाचेति ।। आह-प्रत्यक्षविषयत्वादेवान्नानुमानप्रवृत्तिरयुक्ता, नैवं, पुरुषपिण्डमात्रप्रत्यक्षतायामपि मत्पुत्रो न वेति सन्देहायुक्त एवानुमानोपन्यास इति कृतं प्रसङ्गेन । 'से किं तं सेसमित्यादि, पुरुषार्थोपयोगिनः परिजिज्ञासितात्तुरगादेरादन्यो हेषितादिरर्थः शेष इहोच्यते, स गमकत्वेन यस्यास्ति तच्छेषवदनुमानं, तच्च पञ्चविधं, तद्यथा-कार्येणेत्यादि, तत्र कार्येण कारणानुमानं यथा-हयम्-अश्वं हेपितेन अनुमिनुते इत्यध्याहारः, हेषितस्य तत्कार्यत्वात्, तदाकार्य हयोऽब्रेति या प्रतीतिरुत्पद्यते तदिह कार्येण-कार्यद्वारेणोल्पनं शेषवदनुमा-15 नमुच्यत इति भावः, कचित्तु प्रथमतः शङ्खं शब्देनेत्यादि दृश्यते, तत्रोक्तानुसारतः सर्वोदाहरणेषु भावना कार्यो । 'से किं तं कारणेण'मित्यादि, इह कारणेन कार्यमनुमीयते, यथा विशिष्टमेघोन्नतिदर्शनात् कश्चित् ॥२१॥ वृष्ट्यनुमानं करोति, यदाह-"रोलम्बगवलब्यालतमालमलिनत्विषः । वृष्टिं व्यभिचरन्तीह, नैवंप्रायाः प दीप अनुक्रम -३०९] JEcatarina ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ............... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] योमुचः॥१॥” इति, एवं चन्द्रोदयाजलधेवृद्धिरनुमीयते कुमुदविकाशच, मित्रोदयाजलरुहपयोधी घूकमदमोक्षब, तथाविधवर्षणात्सस्यनिष्पत्तिः कृषीवलमनाप्रमोदश्चेत्यादि, तदेवं कारणमेवेहानुमापर्क साध्यस्य नाकारणं, तत्र कार्यकारणभाव एव केषाश्चिद्विप्रतिपत्ति पश्यस्तमेव तावन्नियतं दर्शयन्नाह-तन्तवः पटस्य कारणं न तु पटस्तन्तूनां कारणं, पूर्वमनुपलब्धस्य तस्यैव तद्भावे उपलम्भाद, इतरेषां तु पटाभावेऽप्युपल म्भादू, अब्राह-ननु यदा कश्चिनिपुणः पटभावेन संयुक्तानपि तन्तून् क्रमेण वियोजयति तदा पटोऽपि त18न्तनां कारणं भवत्येव, नैवं, सत्त्वेनोपयोगाभावात्, यदेव हि लब्धसत्ताकं सत् स्वस्थितिभावेन कार्यमप-15 कुरुते तदेवं तस्य कारणत्वनोपदिश्यते, यथा मृत्पिण्डो घटस्य, ये तु तन्तुवियोगतोऽभावीभवता पटेन तन्तवः समुत्पद्यन्ते तेषां कथं पटः कारणं निर्दिश्यते, न हि ज्वराभावेन भवत आरोगितासुखस्य ज्वरः कारण मिति शक्यते वक्तुं, यद्येवं पटेऽप्युत्पद्यमाने तन्तवोऽभावीभवन्तीति तेऽपि तत्कारणं न स्युरिति चेत, नैवं, टूतन्तुपरिणामरूप एव हि पटो, यदि च तन्तवः सर्वथाऽभावीभवेयुस्तदा मृदावे घटस्यैव पटस्य सर्वथैवोप*लब्धिर्न स्यात् , तस्मात् पटकालेऽपि तन्तवः सन्तीति सत्त्वेनोपयोगात्ते पटस्य कारणमुच्यन्ते, पटवियोजनकाले त्वे कैकतन्ववस्थायां पटो नोपलभ्यते अतस्तत्र सत्त्वेनोपयोगाभावान्नासी तेषां कारणम्, एवं वीरणकटादिष्वपि भावना कार्या, तदेवं यद्यस्य कार्यस्य कारणवेन निश्चितं तत्तस्य यथासम्भवं गमकत्वेन वक्तव्यमिति । 'से कितं गुणेण मित्यादि, निकषः-कषपट्टगता कषितसुवर्णरेखा तेन सुवर्णमनुमीयते, यथा पञ्च गाथा: ******** ||--|| दीप अनुक्रम *** -३०९] Eston ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक अनुयो मलधा [१४६-१४७] रीया BROADCAM ॥२१४॥ गाथा: ||--|| दशादिवर्णकोपेतमिदं सुवर्ण, तथाविधनिकषोपलम्भात्, पूर्वोपलब्धोभयसम्मतसुवर्णवत्, एवं शतपत्रिका-1 वृत्तिः दिपुष्पमत्र, तथाविधगन्धोपलम्भात्, पूर्वोपलब्धवस्तुचत्, एवं लवणमदिरावस्त्रादयोऽनेकभेदसम्भवतो- उपक्रमे नियतखरूपा अपि प्रतिनियततथाविधरसावादस्पर्शादिगुणोपलब्धेः प्रतिनियतखरूपाः साधयितव्याः। ' सेप्रमाणद्वार किं तं अवययेणमित्यादि, अवयवदर्शनेनावयवी अनुमीयते, यथा महिषः, अत्र तदविनाभूतशृङ्गोपलब्धेः, पूर्वोपलब्धोभयसम्मतप्रदेशवत्, अयं च प्रयोगो वृत्तिवरण्डकाद्यन्तरितत्वादप्रत्यक्ष एवावयविनि द्रष्टव्यः तत्प्रत्यक्षतायामध्यक्षत एव तत्सिद्धेरनुमानवैयर्थ्यप्रसङ्गादिति । एवं शेषोदाहरणान्यपि भावनीयानि, नवरं | द्विपदं मनुष्यादीत्यादि, मनुष्योऽयं तदविनाभूतपदद्वयोपलम्भात्, पूर्वदृष्टमनुष्यवद्, एवं चतुष्पदबहुपदेध्वपि 'गोम्हीकण्णशृगाली परियरबंधेण भडमित्यादि गाथा पूर्व व्याख्यातैव, तदनुसारेण भावार्थोऽप्यूह्य इति । 'से किं तं आसएणमित्यादि, आश्रयतीत्याश्रयो-धूमवलाकादिः, तत्र धूमादग्न्यनुमानं बलाकादेस्तु जलानुमानं प्रतीतमेव, आकारेगितादिभिश्च पूर्व ब्याख्यातखरूपैर्देवदत्तायाश्रितस्तदन्तर्गतं मनोऽनुमान सुप्रसिद्धमेव, अत्राह-ननु धूमस्याग्निकार्यत्वात् पूर्वोक्तकार्यानुमान एवं गतत्वात् किमिहोपन्यासः?, सत्यं, |किन्त्वन्याश्रयत्वेनापि लोके तस्य रूढत्वादत्राप्युपन्यास कृत इत्यदोषः, तदेतत् शेषवदनुमानम् । से किं तं दिसाहम्मवं?, २ दुविहं पण्णत्तं, तंजहा-सामन्नदिटुं च विसेसदिटुं च । २१४॥ से किं तं सामण्णदिटुं?, २ जहा एगो पुरिसो तहा बहवे पुरिसा जहा बहवे पुरिसा ARRESS दीप अनुक्रम [३००-३०९]] J EAcatun ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७] गाथा: ||--|| तहा एगो पुरिसो जहा एगो करिसावणो तहा बहवे करिसावणा जहा बहवे करिसावणा तहा एगो करिसावणो, से तं सामण्णदिटुं। से किं तं विसेसदिटुं ?, २ से जहाणामए केई पुरुसे कंचि पुरिसं बहणं पुरिसाणं मज्झे पुवदिटुं पञ्चभिजाणेजा-अयं से पुरिसे, बहुणं करिसावणाणं मज्झे पुवदिटुं करिसावणं पञ्चभिजाणिजा, अयं से करिसावणे । तस्स समासओ तिविहं गहणं भवइ, तंजहा-अतीयकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकालगहणं। से किं तं अतीयकालगहणं ?, २ उत्तणाणि वणाणि निप्पण्णसस्सं वा मेइणि पुण्णाणि अ कुंडसरणइदीहिआतडागाई पासित्ता तेणं साहिजइ जहा-सुवुट्टी आसी, से तं अतीयकालगहणं । से किं तं पडुप्पण्णकालगहणं ?, २ साहुं गोअरग्गगयं विच्छड्डिअपउरभत्तपाणं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा सुभिक्खे वद्दई, से तं पडुप्पण्णकालगहणं । से किं तं अणागयकालगहणं?, २-अब्भस्स निम्मलत्तं कसिणा य गिरी सविज्जुआ मेहा । थणियं वा उब्भा 554555555 दीप अनुक्रम [३००-३०९] ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .............. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक वनिः [१४६-१४७]] अनुयो मलधारीया उपक्रमे प्रमाणद्वार ॥२१५॥ गाथा: CACANCERCOSMOCRACY ||--|| मो संझा रत्ता पणिट्टा (खा) य॥१॥ वारुणं वा महिंदं वा अण्णयरं वा पसत्थं उप्पायं पासित्ता तेणं साहिजइ जहा-सुवुट्टी भविस्सइ, से तं अणागयकालगहणं । एएसिं चेव विवजासे तिविहं गहणं भवइ, तंजहा-अतीयकालगहणं पडुप्पण्णकालगहणं अणागयकालगहणं से किं तं अतीयकालगहणं?, नित्तिणाई वणाई अनिष्फण्णसस्सं वा मेइणी सुक्काणि अ कुंडसरणईदीहिअतडागाई पासित्ता तेणं साहिजइ जहा-कुवुटी आसी, से तं अतीयकालगहणं । से किं तं पडुप्पण्णकालगहणं ?, २ साई गोअरग्गगयं भिक्खं अलभमाणं पासित्ता तेणं साहिज्जइ जहा-दुभिक्खे वइ, से तं पडुपण्णकालगहणं । से किं तं अणागयकालगहणं?, २ धूमायंति दिसाओ संविअमेइणी अपडिबद्धा । वाया नेरइआ खलु कुवुटीमेवं निवेयंति ॥१॥ अग्गेयं वा वायव्वं वा अण्णयरं वा अप्पसत्थं उप्पायं पासित्ता ते णं साहिज्जइ जहा-कुबुटी भविस्सइ, से तं अणागयकालगहणं, से तं विसेसदिटुं, से तं दिटुसाहम्मवं, से तं अणुमाणे । दीप अनुक्रम [३००-३०९] ॥२१५॥ ~441 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ............... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७] AGRORE गाथा: ||--|| दृष्टेन पूर्वोपलब्धेनार्थेन सह साधर्म्य दृष्टसाधये, तद्गमकत्वेन विद्येत यत्र तद् दृष्टसाधर्म्यवत्, पूर्वदृष्ट-| 18 श्वार्थः कश्चित् सामान्यतः कश्चित्तु विशेषतो दृष्टः स्याद्, अतस्तद्भेदादिदं द्विविधं, सामान्यतो दृष्टार्थयो-5 गात्सामान्यदृष्टं, विशेषतो दृष्टार्थयोगाद्विशेषदृष्टं, तत्र सामान्यदृष्टं यथा एकः पुरुषस्तथा बहवः पुरुषा इ-4 त्यादि, इदमुक्तं भवति-नालिकेरद्वीपादायातः कश्चित् तत्प्रथमतया सामान्यत एक कञ्चन पुरुषं दृष्ट्वा अनुमानं करोति यथा अयमेकः परिदृश्यमानः पुरुष एतदाकारविशिष्टस्तथा बहवोऽत्रापरिदृश्यमाना अपि पुरुषा एतदाकारसम्पन्ना एव, पुरुषत्वाविशेषाद् , अन्याकारत्वे पुरुषत्वहानिप्रसङ्गाद्, गवादिवत्, बहुषुतु पुरुषेषु तत्प्रथमतो वीक्षितेष्वेवमनुमिनोति यथाऽमी परिदृश्यमानाः पुरुषा एतदाकारवन्तः तथाऽपरोऽप्येकः कश्चित्पुरुषः एतदाकारवानेव, पुरुषत्वाद् , अपराकारत्वे तद्धानिप्रसङ्गाद् , अश्वादिवदिति, एवं कार्षापणा|दिष्वपि वाच्छ, विशेषतो दृष्टमाह-'से जहानामए'इत्यादि, अत्र पुरुषाः सामान्येन प्रतीता एव, केवलं यदा कश्चित् कचित् कश्चित्पुरुषविशेषं दृष्ट्वा तद्दर्शनाहितसंस्कारोऽसञ्जाततत्प्रमोषः समयान्तरे बहुपुरुषसमाजमध्ये तमेव पुरुषविशेषमासीनमुपलभ्यानुमानयति-यः पूर्व मयोपलब्धः स एवायं पुरुषः, तथैव प्रत्य-18 भिज्ञायमानत्वाद्, उभयाभिमतपुरुषवदिति, एतत्तदा विशेषदृष्टमनुमानमुच्यते, पुरुषविशेषविषयत्वाद्, एवं कार्षापणादिष्वपि वाच्यं । तदेवमनुमानस्य त्रैविध्यमुपदर्य साम्प्रतं तस्यैव कालत्रयविषयतां दर्शयनाह-तस्स समासओ तिविहं गहण'मित्यादि, तस्येति-सामान्येनानुवर्तमानमनुमानमात्रं संबध्यते, तस्या दीप अनुक्रम -३०९] JisEdirational ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ -१४७] गाथा: |I--II दीप अनुक्रम [ ३०० -३०९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४६- १४७] / गाथा ||११५-११८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः अनुयो० मलधा रीया ॥ २१६ ॥ Jan Educat नुमानस्य त्रिविधं ग्रहणं भवति, तद्यथा-अतीतकालविषयं ग्रहणं ग्राह्यस्य वस्तुनः परिच्छेदोऽतीतकालग्र हणं, प्रत्युत्पन्नो वर्तमानः कालस्तद्विषयं ग्रहणं प्रत्युत्पन्नकालग्रहणम्, अनागतो भविष्यत्कालस्तद्विषयं ग्रहणमनागतकालग्रहणं, कालत्रयवर्तिनोऽपि विषयस्यानुमानात्परिच्छेदो भवतीत्यर्थः, तत्र 'उत्तिणाईति उद्गतानि तृणानि येषु वनेषु तानि तथा, अयमत्र प्रयोगः- सुदृष्टिरिहासीद् उन्नृणवननिष्पन्न सस्यपृथ्वीतलजलपरिपूर्णकुण्डादिजलाशयप्रभृतितत्कार्यदर्शनाद्, अभिमतदेशवादित्यतीतस्य वृष्टिलक्षणविषयस्य परिच्छेदः, साधुं च 'गोचराग्रगतं' भिक्षाप्रविष्टं विशेषेण छर्दितानि गृहस्थैर्दत्तानि प्रचुर भक्तपानानि यस्य स तथा तं तादृशं दृष्ट्वा कश्चित्साधयति - सुभिक्षमिह वर्तते, साधूनां तद्धेतुकप्रचुर भक्तपानला भदर्शनात्, पूर्वदृष्टप्रदेशवदिति । 'अब्भस्स निम्मलन्स' गाहा सुगमा, नवरं स्तनितं मेघगर्जितं 'वाउन्भामो'ति तथाविधो वृष्टयव्यभिचारी प्रदक्षिणं दिक्षु भ्रमन् प्रशस्तो वातः 'वारुणं'ति आर्द्रामूलादिनक्षत्रप्रभयं माहेन्द्ररो|हिणीज्येष्ठा दिनक्षत्रसम्भवं अन्यतरमुत्पातम् - उल्कापातदिग्दाहादिकं प्रशस्तं वृष्ट्यव्यभिचारिणं दृष्ट्वाऽनु मीयते, यथा-सुषृष्टिरत्र भविष्यति, तद्व्यभिचारिणामभ्रनिर्मलत्वादीनां समुदितानामन्यतरस्य वा दर्शनात्, यथाऽन्यदेति, विशिष्टा ह्यभ्रनिर्मलत्वादयो वृष्टिं न व्यभिचरन्त्यतः प्रतिपत्रैव तत्र निपुणेन भाव्य| मिति । 'एएसिं चेव विवज्जासे' इत्यादि, एतेषामेवोत्तृणवनादीनामतीतवृष्ट्यादिसाधकत्वेनोपन्यस्तानां हेतूनां व्यत्यासे - व्यत्यये साध्यस्यापि व्यत्ययः साधयितव्यों, यथा-कुदृष्टिरिहासीनिस्तृणवनादिदर्शनादित्यादिव्य For Pale & Personal Use Only ~443~ वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ॥ २१६ ॥ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ -१४७] गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [ ३०० -३०९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४६- १४७] / गाथा ||११५-११८|| पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र [४५], चूलिकासूत्र -[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः अनु. ३७ त्ययः सूत्रसिद्धो नवरमनागतकालग्रहणे माहेन्द्रवारुणपरिहारेणात्रेयवायत्र्योत्पाता उपन्यस्ताः तेषां वृष्टिविघातकत्वादितरेषां सुदृष्टिहेतुत्वादिति । 'से तं विसेसदिहं से तं दिवसाहम्मव मित्येतन्निगमनद्वयं दृष्ट| साधर्म्यलक्षणानुमानगत भेदत्रयस्य समर्थनानन्तरं युज्यते, यदि तु सर्ववाचनास्वत्रैव स्थाने दृश्यते, तदा दृष्टसाधर्म्यवतोऽपि सभेदस्यानुमानविशेषत्वात् कालत्रयविषयता योजनीयैवातस्तामप्यभिधाय ततो निग मनद्वयमिदमकारीति प्रतिपत्तव्यं, तदेतदनुमानमिति । अथोपमानमभिधित्सुराह— से किं तं ओवम्मे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा- साहम्मोवणीए अ वेहम्मोवणीए अ । से किं तं साहम्मोवणीए ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा - किंचिसाहम्भोवणीए पायसाहम्मोवणीए सव्वसाहम्मोवणीए । से किं तं किंचिसाहम्मोवणीए १, २ जहा मंदरो तहा सरिसवो जहा सरिसवो तहा मंदरो जहा समुद्दो तहा गोप्पयं जहा गोप्पयं तहा समुद्दो जहा आइच्चो तहा खज्जोतो जहा खजोतो तहा आइचो जहा चंदो तहा कुमुदो जहा कुमुदो तहा चंदो, से तं किंचिसाहम्मो० । से किं तं पायसाहम्मोवणीए १, २ जहा गो तहा गवओ जहा गवओ तहा गो, से तं पायसाहम्मो० । से For Priva&Peronale Only ~444~ www.bryg Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ................. पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७] अनुयो० मलधा वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं रीया ॥२१७॥ गाथा: ||--|| किं तं सव्वसाहम्मोवणीए?, २ सव्वसाहम्मे ओवम्मे नस्थि, तहावि तेणेष तस्स ओवम्मं कीरइ जहा-अरिहंतेहिं अरिहंतसरिसं कयं चंकवट्टिणा चक्कवट्टिसरिसं कयं, बलदेवेण बलदेवसरिसं कयं वासुदेवेण वासुदेवसरिसं कयं साहुणा साहुसरिसं कयं, से तं सव्वसाहम्मे, से तं साहम्मोवणीए । से किं तं वेहम्मोवणीए ?, २ तिविहे पपणत्ते, तंजहा-किंचिवेहम्मे पायवेहम्मे सव्ववेहम्मे । से किं तं किंचिवेहम्मे ?, २ जहा सामलेरो न तहा बाहुलेरो जहा बाहुलेरो न तहा सामलेरो, से तं किंचिवेहम्मे । से किं तं पायवेहम्मे ?, २ जहा वायसो न तहा पायसो, जहा पायसो न तहा वायसो, से तं पायवेहम्मे । से किं तं सव्ववेहम्मे?, सव्ववेहम्मे ओवम्मे नस्थि, तहावि ते व तस्स ओवम्म कीरइ, जहा णीएणं णीअसरिसं कयं दासेण दाससरिसं कयं काकेण काकसरिसं कयं साणेण साणसरिसं कयं पाणेणं पाणसरिसं कयं, से तं सव्ववेहम्मे । से तं वेहम्मोवणीए । से तं ओवम्मे । दीप अनुक्रम [३००-३०९] PROCEROSASSASS ||२१७॥ ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .......... पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५), चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] गाथा: ||--|| | उपमीयते-सहशतया वस्तु गृयते अनयेत्युपमा सैवीपम्यं, तच द्विविधं-साधम्र्येणोपनीतम्-उपनयो यन्त्र तत्साधम्र्योपनीतं, वैधम्र्पणोपनीतम्-उपनयो यत्र तद्वैधम्योपनीतं, तत्र साधम्र्योपनीतं त्रिविधं-किश्चित्साधा-13 दिभेदात्, किञ्चित्साधर्म्य च मन्दरसर्षपादीनां, तत्र मन्दरसर्षपयोर्द्वयोरपि मूर्तवं सादृश्य, समुद्रगोष्पदयोः सोदकत्वमात्रम् , आदित्यखद्योतयोराकाशगमनोयोतकत्वरूपं, चन्द्रकुमुदयोः शुक्लत्वमिति । 'से किं तं पायसाहम्मे' इत्यादि, खुरककुदविषाणलाङ्गलादेर्द्वयोरपि समानत्वात् , नवरं सकम्बलो गीर्वृत्तकण्ठस्तु गवय इति प्रापःसाधर्म्यता। सर्वसाधर्म्य तु क्षेत्रकालादिभिर्भेदान्न कस्यापि केनचित्साई संभवति, सम्भवे त्वेकताप्रसङ्ग, तर्जुपमानस्य तृतीयभेदोपन्यासोऽनर्थक एवेत्याशक्याह-तथापि तस्य-विवक्षितस्याहंदादेस्तेनैव-अहंदादिना औपम्यं क्रियते, तद्यथा-'अर्हता अर्हत्सदृशं कृतं तत्किमपि सर्वोत्तमं तीर्थप्रवर्तनादि कार्यमर्हता कृतं यदहै। हन्नेव करोति नापरः कश्चिदिति भावः, एवं च स एव तेनोपमीयते, लोकेऽपि हि केनचिदत्यद्भुते कार्य कृते वक्तारो दृश्यन्ते-तत्किमपीदं भवद्भिः कृतं यद्भवन्त एव कुर्वन्ति नान्यः कश्चिदिति, एवं चक्रवर्तिवासुदेवा|दिष्वपि वाच्यम् । 'से किं तं वेहम्मोवणीए' इत्यादि, यथेति-यादृशः शवलाया गोरपत्यं शाबलेयो न तादृशो बहुलाया अपत्यं बाहुलेयो, यथा चायं न तथेतरः, अत्र च शेषधमैस्तुल्यत्वाद्भिन्ननिमित्तजन्मादिमा-1 व्रतस्तु वैलक्षण्यात् किञ्चिद्वैधयं भावनीयम् । 'से किं तं पायवेहम्में इत्यादि, अन बायसपायसयोः सचे-| तनखाचेतनत्वादिभिर्बहुभिधर्मर्षिसंवादात अभिधानगतवर्णद्वयेन सत्त्वादिमात्रतश्च साम्यात्प्रायोवैधर्म्यता दीप अनुक्रम -३०९] ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) .......... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ............... पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५], चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] रीया गाथा: ||--|| अनुयो भावनीया, सर्ववैधम्र्य तु न कस्यचित्केनापि संभवति, सत्वप्रमेयत्वादिभिः सर्वभावानां समानत्वात् , तैर-14 वृत्ति मलधा-Iप्यसमानत्वेऽसत्यप्रसङ्गात्, तथापि तृतीयभेदोपन्यासवैयर्थ्यमाशङ्कयाह-तथापि तस्य तेनैवीपम्यं क्रियते उपक्रमे यथा नीचेन नीचसदृशं कृतं गुरुधातादीत्यादि, आह-नीचेन नीचसदृशं कृतमित्यादि ब्रुवता साधर्म्यमेवोक्तंप्रमाणद्वार स्थान वैधयं, सत्यं, किन्तु नीचोऽपि प्रायो नैवंविधं महापापमाचरति किं पुनरनीचः, ततः सकलजगद्विल-18 ॥२१८॥ क्षणप्रवृत्तत्वविवक्षया वैधर्म्यमिह भावनीयम्, एवं दासागुदाहरणेष्वपि वाच्यम् । 'से तं सव्ववेहम्मे इत्यादि निगमनत्रयम् । से किं तं आगमे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-लोइए अलोउत्तरिए अ । से किं तं लोइए?, २ जण्णं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्टीपहिं सच्छंदबुद्धिमइविगप्पियं, तंजहा-भारहं रामायणं जाव चत्तारि वेआ संगोवंगा, से तं लोइए आगमे। से कि लोउतरिए?.२ जपणं इमं अरिहंतेहिं भगवंतेहिं उप्पण्णणाणदंसणधरेहिं तीयपञ्चप्पण्णमणागयजाणएहिं तिलुक्कवहिअमहिअपूइएहिं सव्वण्णूहिं सव्वदरसीहिं पणीअं दुवालसंगं गणिपिडगं, तंजहा-आयारो जाव दिट्रिवाओ । अहवा आगमे तिविहे प SC ॥ १८॥ दीप अनुक्रम [३००-३०९] अथ 'आगम' शब्दस्य अर्थ एवं भेदस्य कथनं क्रियते ~447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ......... प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] पणते, तंजहा-सुत्तागमे अत्थागमे तदुभयागमे । अहवा-आगमे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-अत्तागमे अणंतरागमे परंपरागमे, तित्थगराणं अस्थस्स अत्तागमे गणहराणं सुत्तस्स अत्तागमे अत्थस्स अणंतरागमे गणहरसीसाणं सुत्तस्स अणंतरागमे अस्थस्स परंपरागमे, तेण परं सुत्तस्सवि अत्थस्सवि णो अत्तागमे णो अणंतरागमे परंपरागमे, से तं लोगुत्तरिए, से तं आगमे, से तं णाणगुणप्पमाणे। गुरुपारम्पर्येणागच्छतीत्यागमः, आ-समन्ताद्गम्यन्ते-ज्ञायन्ते जीवादयः पदार्था अनेनेति वा आगमः, अयं |च द्विधा प्रज्ञप्तः, तद्यथा-'लोहए'त्यादि, इदं चेहैव पूर्व भावश्रुतं विचारयता व्याख्यातं, यावत् से तं लोइए, से किं तं लोगुत्तरिए आगमेत्ति, 'अहवा आगमे तिविहे' इत्यादि, तत्र सूत्रमेव सूत्रागमः, तदभिधेयश्चा) एवाथोंगमा, सूत्रार्थो भयरूपस्तु तदुभयागमः, अथवा अन्येन प्रकारेणागमविविधः प्रजप्तः, तद्यथा-आत्मागम इत्यादि, तत्र गुरूपदेशमन्तरेणात्मन एव आगम आत्मागमो, यथा तीर्थकराणामर्थस्यात्मागमः, खयमव केवलो(लेतो)पलब्धेः, गणधराणां तु सूत्रस्यात्मागमः, खयमेव ग्रथितत्वाद्, अर्थस्थानन्तरागमः, अनन्तरमेव तीर्थंकरादागतवाद, उक्तं च-"अत्थं भासइ अरहा मुत्तं गंधति गणहरा निउण"मित्यादि, गणधरशिष्याणां अर्ध भाषते भईन् सूत्र प्रश्नन्ति गणधरा निपुणम् । गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [३००-३०९] JamElication पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .......... प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारी [१४६-१४७]] ॥२१९॥ अनुयो जम्बूस्वामिप्रभृतीनां सूत्रस्यानन्तरागमः-अव्यवधानेन गणधरादेव श्रुतेः, अर्थस्य परम्परागमः गणधरेणैव मलधा- व्यवधानात् , तत ऊर्व प्रभवादीनां सूत्रस्याथेंस्य च नात्मागमो नानन्तरागमः, तल्लक्षणायोगादू, अपि तु पररीया दम्परागम एव, अनेन चागमस्य तीर्थकरादिनभवस्वभणनेनैकान्तापौरुषेयत्वं निवारयति, पौरुषताल्यादिव्या पारमन्तरेण नभसीय विशिष्टशब्दानुपलब्धेः, ताल्वादिभिरभिव्यज्यत एव शब्दो न तु क्रियते इति चेत्, ननु ययेवं तर्हि सर्ववचसामपौरुषेयत्वप्रसङ्गः, तेषां भाषापुद्गलनिष्पन्नखाद्, भाषापुद्गलानां च लोके सर्वलिदैवावस्थानतोऽपूर्वक्रियमाणताऽयोगेन ताल्वादिभिरभिव्यक्तिमात्रस्यैव निर्वर्तनात्, न च वक्तव्यं वचनस्य पौद्गलिकत्वमसिद्ध, महाध्वनिपटलपूरितश्रवणवाधिर्यकुज्यस्खलनाद्यन्यथानुपपत्तेः, तस्मान्नैकान्तेनापौरुषेय मागमवयः, ताल्वादिव्यापाराभिव्यङ्गयत्वाद, देवदत्तादिवाक्यवत्, इत्याद्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते स्थादानान्तरनिर्णीतस्वादिति । 'से सं लोगुप्तरिए इत्यादि निगमनत्रयम् ॥ उक्तं ज्ञानगुणप्रमाणमथ दर्शनगुणप्रमा गाथा: ||--|| णमाह से किं तं दसणगुणप्पमाणे ?, २ चउविहे पपणत्ते, तंजहा-चक्खुदंसणगुणप्पमाणे अबक्खुदंसणगुणप्पमाणे ओहिदसणगुणप्पमाणे केवलदसणगुणप्पमाणे। चक्खुदंसणं चक्खुदंसणिस्स घडपडकडरहाइपसु दव्वेसु अचक्खुदंसणं अचक्खुदंसणिस्स 4 दीप अनुक्रम [३००-३०९] ॥२१९॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~449~ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४६ -१४७] गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [३०० -३०९] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| आयभावे ओहिदंसणं ओहिदंसणिस्स सव्वरूविदव्वेसु न पुण सव्वपज्जवेसु केव लहंसणं केवलदंसणिस्स सव्वदव्वेसु अ सव्वपज्जवेसु अ, से तं दंसणगुणप्पमाणे । दर्शनावरण कर्मक्षयोपशमादिजं सामान्यमात्रग्रहणं दर्शनमिति, उक्तं च-- "जं सामन्नरगहणं भाषाणं नेय कहुमागारं । अविसेसिऊन अत्थे दंसणमिह बुचए समए ॥ १ ॥” तदेवात्ममो गुणः स एव प्रमाणं दर्शनगुणप्रमाणम् इदं च चक्षुर्दर्शनादिभेदाचतुर्विधं तत्र भावचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् व्रध्येन्द्रियानुपघाताच चक्षुर्दर्शनिन:-चक्षुर्धर्शनलब्धिमतो जीवस्य घटादिषु द्रव्येषु चक्षुषो दर्शनं चक्षुर्दर्शनं भवतीति क्रियाध्याहारः, सामान्यविषयत्वेऽपि चास्य यद् घटादिविशेषाभिधानं तत्सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदभेदादेकान्तेन विशेषेभ्यो व्यतिरिक्तस्य सामान्यस्याग्रहणस्यापनार्थम् उक्तं च- “निर्विशेषं विशेषाणां ग्रहो दर्शनमुच्यते" इत्यादि, चक्षुर्वर्जशेषेन्द्रियचतुष्टयं मनश्चापधुरुच्यते, तस्य दर्शनमचक्षुर्दर्शनं तदपि भावाच क्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमाद् द्रव्येन्द्रियानुपघाताच अचक्षुर्दर्शनिन:- अचक्षुर्दर्शनलब्धिमतो जीवस्यात्मभावे भवति, आत्मनि-जीवे भावः संश्लिष्टतया सम्बन्धो, विषयस्य घटादेरिति गम्यते, तस्मिन् सति इदं मादुर्भवतीत्यर्थः, इदमुक्तं भवति-चक्षुरप्राप्यकारि ततो दूरस्थमपि स्वविषयं परिच्छिनत्तीत्यस्यार्थस्य स्थापनार्थ १ यत्सामान्यमदणं भावानां नैव वाकारम् अविशेषयित्वा अर्थान् दर्शनमित्युच्यते समये ॥ १ ॥ For hate & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ......... प्रत वृत्ति सूत्रांक [१४६-१४७]] अनुयो०/घटादिषु चक्षुर्दर्शनं भवतीति पूर्व विषयस्य भेदेनाभिधानं कृतं,श्रोत्रादीनि तुप्राप्यकारीणि ततो द्रव्येन्द्रियसं-12 मलधा- श्लेषद्वारेण जीवेन सह सम्बद्धमेव विषयं परिच्छिन्दन्तीत्येतद्दर्शनार्थमात्मभावे भवतीत्येवमिह विषयस्याभेदेन उपक रीया प्रतिपादनमकारीति, उक्तं च-"पुढे सुइ सई रूवं पुण पासई अपुढं तु इत्यादि। अवधेर्दर्शनमवधिदर्शनम्, प्रमाणद्वार अवधिदर्शनिन:-अवधिदर्शनावरणक्षयोपशमसमुद्भूतावधिदर्शनलब्धिमतो जीवस्य सर्वेष्वपि रूपिद्रव्येषु ॥२२०॥ भवति,न पुनःसर्वपर्यायेषु, यतोऽवधेरुत्कृष्टतोऽप्येकवस्तुगताः सङ्ख्यया असङ्ख्यया वा पर्याया विषयेत्वेनोक्ता, जघन्यतस्तु द्वौ पर्यायौ द्विगुणिती, रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाश्चत्वारः पर्याया इत्यर्थः, उक्तं च-"दवाओ असोज्जे सोज्जे आचि पजावे लहा। दो पज्जवे दुगुणिए लहइ य एगाउ दब्बाओ ॥१॥” अत्राह-ननु पयोंया| विशेषा उच्यन्ते, न च दर्शनं विशेषविषयं भवितुमर्हति, ज्ञानस्यैव तद्विषयत्वात्, कथमिहावधिदर्शनविषलायत्वेन पर्याया निर्दिष्टाः, साधुक्तं, केवलं पर्यायैरपि घटशरावोदञ्चनादिभिर्मवादि सामान्यमेव तथा तथा विशिष्यते न पुनस्ते तत एकान्तेन व्यतिरिच्यन्ते, अतो मुख्यतः सामान्यं गुणीभूतास्तु विशेषा अप्यस्य |विषयीभवन्तीति ख्यापनार्थोऽत्र तदुपन्यासः, केवलं-सकलदृश्यविषयत्वेन परिपूर्ण दर्शनं केवलदर्शनिनःतदावरणक्षयाविर्भूततल्लब्धिमतो जीवस्य सर्वद्रव्येषु मूर्तामूर्तेषु सर्वपर्यायेषु च भवतीति । मनःपर्यायज्ञानं १ स्पृष्टं गणोति शब्द रूपं पुनः पश्यत्यस्पृष्टमेव. २ द्रव्येषु अरालोयान सोयान् वापि पर्यवान् लभते । ही पर्यायौ द्विगुणिती लभते जैकस्मिन् द्रव्ये ॥१॥ +BHASHASHIKARANA गाथा: ||--|| ॥२२०॥ दीप अनुक्रम [३००-३०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| .......... प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] तु तथाविधक्षयोपशमपाटचात् सर्वदा विशेषानेव गृह्णदुत्पद्यते न सामान्यम् , अतस्तदर्शनं नोक्तमिति, तदेतदर्शनगुणप्रमाणम् । से किं तं चरित्तगुणप्पमाणे ?, २ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-सामाइअचरित्तगुणप्पमाणे छेओवट्ठावणचरित्तगुणप्पमाणे परिहारविसुद्धिअचरित्तगुणप्पमाणे सुहमसंपरायचरितगुणप्पमाणे अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे । सामाइअचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-इत्तरिए अ आवकहिए अ। छेओवट्रावणचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-साइआरे अ निरइआरे अ । परिहारविसुद्धिअचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पपणते, तंजहा-णिव्विसमाणए अ णिव्विटकाइए अ । सुहुमसंपरायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पडिवाई अ अपडिवाई अ । अहक्खायचरित्तगुणप्पमाणे दुविहे पपणत्ते, तंजहा-छउमथिए अ केवलिए य । से तं चरित्तगुणप्पमाणे, से तं जीवगुणप्पमाणे, से तं गुणप्पमाणे (सू० १४७) गाथा: ||--|| दीप अनुक्रम [३००-३०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ........ प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] 45 गाथा: ||--|| अनुयो । चरन्त्यनिन्दितममेनेति चरित्रं, तदेव चारित्रं, चारित्रमेव गुणः २ स एव प्रमाणं २-सावद्ययोगविरतिरूपं, वृत्ति मलधा- रातच पश्चविध सामायिकादि, पञ्चविधमप्येतदविशेषतः सामायिकमेव, छेदादिविशेषैस्तु विशेष्यमाणं पञ्चधा उपक्रमे रीया भियते, सत्राचं विशेषाभावात् सामान्यसंज्ञायामेवावतिष्ठते सामायिकमिति, सामायिक पूर्वोक्तशब्दार्थ. माणद्वार तचेत्त्वरं यावत्कथिकं च, लत्रेवरं भाविव्यपदेशान्तरत्वात् खल्पकालं, तच्चायचरमतीर्थकरकालयोरेव याव॥२२१॥ दद्यापि महानतानि मारोप्यन्ते तापच्छिष्यस्य संभवति, आत्मनः कथां यावदास्ते तद् यावस्कर्थ-यावज्जीवमि arma त्यर्थः, यावल्कथमेव यावत्कथिकम् , एतच भरतैरावतेष्वाद्यचरमवर्जमध्यमतीर्थकरसाधूनां महाचिदेहतीर्थकरयतीनां च संभवति, पूर्वपर्यायस्य छेदेनोपस्थापनं महानतेषु यत्र सच्छेदोपस्थापन, भरतैरावतप्रथमपश्चिमती-12 र्थकरतीर्थ एव, नान्यत्र, तच्च सातिचारं निरतिचारं च, तत्रेवरसामायिकस्य शैक्षकस्य यदारोप्यते तीर्थान्तरं वा सङ्कामतः साधोर्यधा पार्श्वनाथतीर्थान्महाधीरतीर्थ सङ्कामतस्तभिरतिचारं, मूलगुणघातिनस्तु यत् पुनर्ब्रतारोपणं तत्सातिचारं, परिहारः-सपोविशेषस्तेन विशुद्धं, अथवा परिहार:-अनेषणीयादेः परित्यागो विशेषेण शुद्धो यत्र तत्परिहारविशुद्धं तदेव परिहारविशुद्धिकं, तदपि द्विविध-निर्विश्यमान निर्विष्टकायिकं च, तत्र निर्विश्यमानम्-आसेप्यमानम्, अथवा तदनुष्ठातार साधबो निर्विश्यमानकाः, तत्सहयोगात्तदपि निर्विश्वमानकं, |निर्विष्ट-आसेवितः प्रस्तुततपोविशेष: कायो येषां ते निर्विष्टकायाः, त एव निर्विष्टकायिकाः साधवा, तदाश्र-1॥२२१॥ यत्वात् प्रस्तुतचारित्रमपि निर्विष्टकायिकम् , इदमत्र हृदयम्-तीर्थकरचरणमूले येन तीर्थंकरसमीपे अदः। 4560-% % दीप अनुक्रम [३००-३०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ........... प्रत सूत्रांक [१४६-१४७]] प्रतिपन्नपूर्व सदन्तिके वा नषको गणः परिहारविद्युद्धिचारित्रं प्रतिपयते, नान्यस्य समीपे, तत्रैकः कल्पस्थितो| यदन्तिके सर्वा सामाचारी कियते, चत्वारस्तु साधवो वक्ष्यमाणं तपः कुर्वन्ति, ते च परिहारिका इस्युच्यन्ते, अन्ये तु चत्वारो वैयावृत्त्यकर्तृवं प्रतिपद्यन्ते, ते चानुपरिहारिका इति व्यपदिश्यन्ते, तत्र परिहारकाणां तपः प्रिोच्यते-ग्रीष्मे जघन्यतचतुर्थं मध्यमपदे षष्ठं उस्कृष्टतस्त्वष्टम, शिशिरे जघन्यमध्यमोत्कृष्टपदेषु यथासङ्ख्य षष्ठमष्टमं दशमंच, बासु जयन्यादिपवयेऽपि यथाक्रममष्टमं दशमं द्वादशं च, शेषास्तु कल्पस्थितानुपदारिहरिकाः पश्चापि प्रायो नित्यभक्ता नोपवासं कुर्वन्ति, भक्तं च पश्चानामप्याचामाम्लमेव, नान्यत्, ततः परि हारिकाः षण्मासान्यावद्यधोक्तं तपः कृत्वा अनुपरिहारिकता प्रतिपद्यन्ते, अनुपरिहारिकास्तु परिहारिकतां, | तैरपि षण्मासान्यावद्यदा तपः कृतं भवति, तदा कृततपसामष्टानां मध्यादेकः कल्पस्थितो व्यवस्थाप्यते, अ-18 ग्रेतनमासौ षड् मासान्यावयथोक्तं सपः करोति, शेषास्तु सप्तानुचरतामाश्रयन्ति, एवं चाष्टादशभिर्मासैरयं| कल्पः समाप्यते, तत्समाती च भूषस्तमेव कल्पं जिनकल्प वा प्रतिपयरन् गच्छं या प्रत्यागच्छेयुरिति अपी गतिः, अपरं चैतचारित्रं छेदोषस्यापमचरणषतामेव भवति, नान्येषामित्यलमतिप्रसङ्गेम, तदेवमिह यो यस्तपः कृत्या अनुपरिहारिकतां कल्पस्थितला वाऽङ्गीकरोति तत्सम्बन्धि परिहारविशुद्धिकं निर्चिष्टकायिकमुच्यते, ये तु तपः कुर्वन्ति तत्सम्बन्धि मिडिपमानकमिति खितम् । संपरैति-पर्यटति संसारमनेनेति सम्परायःकोषाविकषापा, लोभासमात्रापशेषलया सूक्ष्मा सम्परायो यत्र तत्सूक्ष्मसम्परायम्, इदमपि सलिदयमा गाथा: ||--|| कार . दीप अनुक्रम [३००-३०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१४६-१४७] / गाथा ||११५-११८|| ......... प्रत अनुयो मलधा सूत्रांक रीया [१४६-१४७]] ॥२२२॥ नविशुख्यमानकभेदाद्विधैव, तत्र श्रेणिमारोहतो विशुध्यमानकमुच्यते, ततः प्रच्यवमानस्य सलिश्यमान- वृत्तिः कमिति । 'अहक्खायंति अथशब्दोऽत्र याथातथ्ये आङभिविधौ आ-समन्ताद्याथातथ्येन ख्यातमथाख्यातं उपक्रमे कषायोदयाभावतो निरतिचारत्वात् पारमार्थिकरूपेण ख्यातमथाख्यातमित्यर्थः, एतदपि प्रतिपात्यप्रतिपाति-प्रमाणद्वारं भेदात् द्वेधा, तत्रोपशान्तमोहस्य प्रतिपाति क्षीणमोहस्य त्वप्रतिपाति, अथवा केवलिनश्छद्मस्थस्य चोपशा-14 तमोहक्षीणमोहस्य तद्भवत्यतः खामिभेदाद् द्वैविध्यमिति । तदेतचारित्रगुणप्रमाणं, तदेतज्जीवगुणप्रमाणं, तदेतद्गुणप्रमाणमिति ॥१४७॥ तदेवं जीवाजीवभेदभिन्नं गुणप्रमाणं प्रतिपाद्य क्रमप्राप्त नयप्रमाणं प्रतिपादयन्नाह से किं तं नयप्पमाणे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-पत्थगदिटुंतेणं वसहिदिढतेणं पएसदिटुंतेणं । से किं तं पत्थगदिटुंतेणं?, २ से जहानामए केई पुरिसे परसुं गहाय अडवीसमहुत्तो गच्छेज्जा तं पासित्ता केई वएजा-कहिं भवं गच्छसि ?, अविसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थगस्स गच्छामि, तं च केई छिंदमाणं पासित्ता वएजा-किं भवं छिंदसि ?, विसुद्धो नेगमो भणइ-पत्थयं छिंदामि, तं च केई तच्छमाणं पासित्ता वएजा-किं गाथा: ||--|| ॥२२२॥ दीप अनुक्रम [३००-३०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [३१०] अनु. ३८ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| भवं तच्छसि ?, विसुद्ध तराओ णेगमो भणइ - पत्थयं तच्छामि, तं च केइ उक्कीरमाणं पासित्ता वएज्जा-किं भवं उक्कीरसि ?, विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पत्थयं उक्कीरामि, तं च केइ (वि) लिहमाणं पासित्ता वएजा-किं भवं (वि) लिहसि ?, विसुद्धतराओ गमो भइ - पत्थयं (वि) लिहामि एवं विसुद्धतरस्स णेगमस्स नामाउडिओ पत्थओ, . एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स मिउमेज्जसमारूढो पत्थओ, उज्जुसुयस्स पत्थओ वि पत्थओ मेपि पत्थओ, तिन्हं सहनयाणं पत्थयस्स अत्थाहिगार जाणओ जस्स वा वसेणं पत्थओ निष्फज्जइ, से तं पत्थयदिट्टंतेणं । अनन्तधर्मणो वस्तुन एकांशेन नयनं नयः, स एव प्रमाणं नयप्रमाणं, त्रिविधं प्रज्ञप्तमिति, यद्यपि नैगमसङ्ग्रहादिभेदतो बहवो नयास्तथापि प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण सर्वेषामिह निरूपयितुमिष्टत्वात्रैविध्यमुच्यते, तथा चाह-तद्यथा-प्रस्थकदृष्टान्तेनेत्यादि, प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण हेतुभूतेन त्रिविधं नयप्रमाणं भवतीत्यर्थः, तत्र प्रस्थकदृष्टान्तं दर्शयति तद्यथानामकः कश्चित्पुरुषः परशुं कुठारं गृहीत्वा अटवीमुखो गच्छेदित्यादि, इदमुक्तं भवति-प्रस्थको मागधदेशप्रसिद्धो धान्यमानविशेषस्तद्धेतुभूतकाष्ठ कर्तनाय कुठारव्यग्रहस्तं तक्षादिपुरु For hate & Personal Use Oily पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५] चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............... मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ............... वृत्तिः प्रत सूत्रांक [१४८] ॥२२३॥ अनुयोषमटवीं गच्छन्तं दृष्ट्वा कश्चिदन्यो वदेत्-क भवान् गच्छति?, तत्राविशुद्धनगमो भणति-अविशुद्धनैगमनय-5 मलधा- मतानुसारी सन्नसौ प्रत्युत्तरयतीत्यर्थः, किमित्याह-प्रस्थकस्य गच्छामि, इदमुक्तं भवति-नके गमा-वस्तुपरि- उपक्रमे रीया च्छेदा यस्य अपि तु बहवः स निरुक्तवशात् ककारलोपतो नैगम उच्यते, अतो यद्यप्यत्र प्रस्थककारणभूतकाष्ठ- प्रमाणद्वार निमित्तमेव गमनं, न तु प्रस्थकनिमित्तं, तथाऽप्यनेकप्रकारवस्त्वभ्युपगमपरत्वात्कारणे कार्योपचारात् तथाव्यवहारदर्शनादेवमप्यभिधत्तेऽसौ-प्रस्थकस्य गच्छामीति, तं च कश्चित् छिन्दन्तं, वृक्षमिति गम्यते, पश्येदू, दृष्ट्वा । च वदेत् किं भवाँछिनत्ति?, ततः प्राक्तनात् किञ्चिद्विशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ भणति-प्रस्थकं छि-18 नधि, अनापि कारणे कार्योपचारात्तथाव्यवहतिदर्शनादेव काष्ठेऽपि छिन्यमाने प्रस्थक छिनमीत्युत्तरं, केवलं काष्ठस्य प्रस्थकं प्रति कारणताभावस्यात्र किश्चिदासन्नत्वाद्विशुद्धत्वं, प्राक पुनरतिव्यवहितत्वात् मलीमसकास्वम्, एवं पूर्वपूर्वापेक्षया यथोत्तरस्य विशुद्धता भावनीया, नवरं तक्ष्णुवन्तं तनकुर्वन्तम् उत्किरन्तं-वेधनकेन का मध्याद्विकिरन्तं विलिखन्तं-लेखन्या मृष्टं कुर्वाणम् , एवमनेन प्रकारेण तावन्नेयं यावद्विशुद्धतरनेगमस्य 'ना-15 माउडिङ'त्ति आकुहितनामा प्रस्थकोऽयमित्येवं मामाङ्कितो निष्पन्नः प्रस्थक इति । एवमेव व्यवहारस्यापीति, लोकव्यवहारप्राधान्येनार्य व्यवहारनयः, लोके च पूर्वोक्तावस्थासु सर्वत्र प्रस्थकव्यवहारो दृश्यतेऽतो व्यवहातारनयोऽप्येवमेव प्रतिपयते इति भावः । 'संगहस्से'त्यादि, सामान्यरूपतया सर्व वस्तु संगृह्णाति-क्रोडीकरो-॥२२॥ तीति सङ्ग्रहस्तस्य मतेन चितादिविशेषणैर्विशिष्ट एव प्रस्थो भवति, नान्यः, तत्र चितो-धान्येन व्याप्सः, स! दीप अनुक्रम [३१०] A mbanyang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| .............. 45 प्रत सूत्रांक [१४८] चि देशतोऽपि भवत्यत आह-मितः परितः, अनेनैव प्रकारेण मेयं समारूढं यत्र स आहितादेराकृतिगण-11 स्वान्मेयसमारूढा, अयमन्त्र भावार्थ:-प्राक्तननयन्यस्याविशुद्धत्वात् प्रस्थककारणमपि प्रस्थक उक्ता, अनिष्पन्नः | दाप्रस्थकोऽपि खकार्याकरणकालेऽपि प्रस्थक इष्टः, अस्य तु ततो विशुद्धत्वाद्धान्यमानलक्षणं स्वाथै कुन्नेव प्र स्थका, तस्य तदर्धत्वात्, तदभावे च प्रस्थकव्यपदेशेऽतिप्रसङ्गादिति यथोक्त एव प्रस्थका, सोऽपि प्रस्थकसामान्याव्यतिरेकात् व्यतिरेके चाप्रस्थकत्वप्रसङ्गात् सर्व एक एव प्रस्थक इति प्रस्तुतनयो मन्यते, सामान्य वादित्वादिति । 'उज्जमुपस्से'त्यादि, ऋजुसूत्रः-पूर्वोक्तशब्दार्थः तस्य निष्पन्नखरूपोऽधेक्रियाहेतुः प्रस्थकोPISपि प्रस्थकः, तत्परिच्छिन्नं धान्यादिकमपि वस्तु प्रस्थकः, उभयत्र प्रस्थकोऽयमिति व्यवहारदर्शनात्, तथा-18 प्रतीतेः, अपरं चासौ पूर्वस्माद्विशुद्धत्वाद्वर्तमाने एव मानमेये प्रस्थकत्वेन प्रतिपद्यते, नातीतानागतकाले,8 तयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्वादिति। तिण्हं सहनयाण मित्यादि, शब्दप्रधाना नयाः शब्दनयाः-शब्दसमभिरूहैवंभूताः, शब्देऽन्यथास्थितेऽर्थमन्यथा नेच्छन्त्यमी, किन्तु?, यथैव शब्दो व्यवस्थितस्तथैव शब्देनार्थ गमयन्ती-10 त्यतः शब्दनया उच्यन्ते, आबास्तु यथाकथञ्चिच्छब्दाः प्रवर्तन्तामर्था एवं प्रधानमित्यभ्युपगमपरत्वादर्थनयाः प्रकीर्त्यन्ते, अत एषां त्रयाणां शब्दनयानां 'प्रस्थकार्थाधिकारज्ञः' प्रस्थकस्वरूपपरिज्ञानोपयुक्तः प्रस्थका, भावप्रधाना घेते नया इत्यतो भावप्रस्थकमेवेच्छन्ति, भावश्च प्रस्थकोपयोगोऽतः स प्रस्थक, तदुपयोगवानपि च ततोऽव्यतिरेकात् प्रस्थकः, यो हि यत्रोपयुक्तः सोऽमीषां मते स एव भवति, उपयोगलक्षणो जीवः, उपयो दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............ मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ......... वृत्तिः उपकमे प्रत सूत्रांक [१४८] अनुयोगश्चेत् प्रस्थकादिविषयतया परिणतः किमन्यजीवस्य रूपान्तरमस्ति ? यत्र व्यपदेशान्तरं स्यादिति भावः, 'जस्स चा बसेणे'त्यादि, यस्य वा प्रस्थककर्तृगतस्योपयोगस्य वशेन प्रस्थको निष्पद्यते तत्रोपयोगे वर्तमान रीया कर्ता प्रस्थको, न हि प्रस्थकेऽनुपयुक्ता प्रस्थकं निर्वर्तयितुं का समर्थः, ततस्तदुपयोगानन्यत्वात् स एव प्र-19 स्थका, इमां च तेऽत्र युक्तिमभिदधति-सवें बस्तु खात्मन्येव वर्तते, न त्वात्मव्यतिरिक्त आधारे, वक्ष्यमाण-1 ॥२२४॥ युक्त्या एतन्मतेनान्यस्यान्यन वृत्त्ययोगात्, प्रस्थकश्च निश्चयात्मकं मानमुच्यते, निश्चयश्च ज्ञानं, तत्कथं जडात्मनि काष्ठभाजने वृत्तिमनुभविष्यति?, चेतनाचेतनयोः सामानाधिकरण्याभावात्, तस्मात् प्रस्थकोपप्रयुक्त एवं प्रस्थकः । 'से तमित्यादि निगमनम् ॥ से किं तं वसहिदिटुंतेणं?, २ से जहानामए केई पुरिसे कंचि पुरिसं वएजा-कहिं भवं वससि ?, तं अविसुद्धो णेगमो भणइ-लोगे वसामि, लोगे तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-उडलोए अहोलोए तिरिअलोए, तेसु सव्वेसु भवं वससि?, विसुद्धो णेगमो भणइ-तिरिअलोए वसामि, तिरिअलोए जंबूद्दीवाइआ सयंभूरमणपजवसाणा असंखिज्जा दीवसमुद्दा पण्णत्ता, तेसु सव्वेसु भवं वससि?, विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-जंबूदीवे वसामि, जंबूद्दीवे दस खेत्ता पण्णत्ता, तंजहा-भरहे एरवए हेमवए दीप अनुक्रम [३१०] ३२२४ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~459~ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............ मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ............ प्रत सूत्रांक एरण्णवए हरिवस्से रम्मगवस्से देवकुरू उत्तरकुरू पुव्वविदेहे अवरविदेहे, तेसु सठवेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-भरहे वासे वसामि, भरहे वासे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-दाहिणभरहे उत्तरढभरहे अ, तेसु सव्वेसु (दोसु) भवं वससि?, विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-दाहिणभरहे वसामि, दाहिणड्डभरहे अणेगाइं गामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसपिणवेसाइं, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसुद्धतराओ णेगमो भणइ-पाडलिपुत्ते वसामि, पाडलिपुत्ते अणेगाई गिहाई, तेसु सव्वेसु भवं वससि?, विसु० णेग० भणइ-देवदत्तस्स घरे वसामि, देवदत्तस्स घरे अणेगा कोटगा, तेसु सव्वेसु भवं वससि ?, विसु० जे० भणइ-गब्भघरे बसामि, एवं विसुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स संथारसमारूढो वसइ, उज्जुसुअस्स जेसु आगासपएसेसु ओगाढो तेसु वसइ, तिण्हं सद्दनयाणं आयभावे वसइ । से तं वसहिदिटुंतेणं । । [१४८] दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~460~ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| .............. प्रत सूत्रांक [१४८] अनुयो वसतिः-निवासस्तेन दृष्टान्तेन नयविचार उच्यते, तद्यथानामकः कश्चित्पुरुषः पाटलिपुत्रादी वसन्तं क बमनिवार मलधा-18/चित्पुरुषं वदेत्-क भवान् वसति?, तत्राविशुद्धनगमो. भणति-अविशुद्धनैगमनयमतानुसारी सन्नसौ प्रत्यु-181 उपक्रमे रीया त्तरं प्रयच्छति-लोके बसामि, तन्निवासक्षेत्रस्यापि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकादनान्तरत्वाद्, इत्थमपि च व्य-प्रमाणद्वारं PIवहारदर्शनात्, विशुद्धनैगमस्त्वतिव्याप्तिपरत्वादिदमसङ्गतं मन्यते, ततस्तिर्यलोके वसामीति संक्षिप्योत्तर ॥२२५॥ |ददाति, विशुद्धतरस्त्विदमप्यतिव्याप्तिनिष्ठं मन्यते ततो जम्बूद्वीपे बसामीति संक्षिप्सतरमाह, एवं भारतव-18 हर्षदक्षिणार्द्धभरतपाटलिपुत्रदेवदत्तगृहगर्भगृहेष्वपि भावनीयम, एवं 'विसुद्धस्स णेगमस्स वसमाणो वसई | एवमुत्तरोत्तरभेदापेक्षया विशुद्धतरनैगमस्य वसन्नेव वसति, नान्यथा, इदमुक्तं भवति-पत्र गृहादी सर्वदा निवासित्वेनासौ विवक्षितः तत्र तिष्ठन्नेव एष तत्र वसतीति व्यपदिश्यते, यदि पुनः कारणवशतोऽन्यत्र रथ्यादौ वर्तते तदा तत्र विवक्षिते गृहादी वसतीति न प्रोच्यते, अतिप्रसङ्गादिति भावः । एवमेवेत्यादि. लोकव्यवहारनिष्ठो हि व्यवहारनयो, लोके च नैगमोक्तप्रकाराः सर्वेऽपि दृश्यन्ते इति भावः, अथ चरमनै गमोक्तप्रकारो लोके नेष्यते, कारणतो ग्रामादौ वर्तमानेऽपि देवदत्ते पाटलिपुत्रे एष वसतीति व्यपदेशदर्श-18 है| नादिति चेत्, नैतदेवं, मोषिते देवदत्ते स इह वसति न वेति केनचित्पृष्टे प्रोषितोऽसौ नेह वसतीत्यस्यापि लो-त कव्यवहारस्य दर्शनादिति । 'संगहस्सेत्यादि, प्राक्तनात् विशुद्धखात् सङ्ग्रहनयस्य गृहादौ तिष्ठन्नपि संस्तार- २५॥ कारूढ एव शयनक्रियावान् वसतीत्युच्यते, इदमुक्तं भवति-संस्तारकेऽवस्थानादन्यत्र निवासार्थ एव न घ दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............. मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ............. ENGA प्रत सूत्रांक [१४८] RECTORAGE टते, चलनादिक्रियावत्त्वात्, मार्गादिप्रवृत्तवत्, संस्तारके च बसतो गृहादी वसतीति व्यपदेशायोग एव, अतिप्रसङ्गात, तस्मात् कासौ वसतीति निवासजिज्ञासायां संस्तारके-शय्यामात्रखरूपे बसतीत्येतदेवास्य मतेनोच्यत, नान्यदिति भावः, स च नानादेशादिगतोऽप्येक एव, सङ्घहस्य सामान्यवादित्वादिति । ऋजुमूत्रिस्य तु पूर्वमाद्विशुद्धत्वाद येष्वाकाशप्रदेशेष्ववगाढस्तेष्वेव वसतीत्युच्यते, न संस्तारके, सर्वस्यापि वस्तुवृत्त्या नभस्येवावगाहात्, येषु प्रदेशेषु संस्तारको वर्तते-संस्तारकेणैवाक्रान्ता वर्तन्ते, ततो येष्वेव प्रदेशेषु स्वयमवगाढस्तेष्वेव वसतीत्युच्यते, स च वर्तमानकाल एवास्ति, अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेनैतन्मतेऽसत्यादिति । त्रयाणां शब्दनयानामात्मभावे-खखरूपे सर्वोऽपि वसति, अन्यस्यान्यत्र वृत्त्ययोगात्, तथाहिअन्योऽन्यत्र वर्तमानः किं सर्वात्मना वर्तते देशात्मना वा?, यद्याद्यः पक्षस्तर्हि तस्याधारव्यतिरेकिणा स्वकीयरूपणाप्रतिभासनप्रसङ्गो, यथा हि संस्तारकाधाधारस्य स्वरूपं सर्वात्मना तत्र वृत्तं न तद्व्यतिरेकेणोपलभ्यते एवं देवदत्तादिरपि सर्वात्मना तत्राधीयमानस्तद्ध्यतिरेकेण नोपलभ्येत, अथ द्वितीयो विकल्पः स्वीक्रियते | तर्हि तत्रापि देशे अनेन वर्तितव्यं, ततः पुनरपि विकल्पद्वयं-किं सर्वात्मना वर्तते देशात्मना वेति?, सर्वा8|त्मपक्षे देशिनो देशरूपतापत्तिः,देशात्मपक्षे तु पुनस्तत्रापि देशे देशिना वर्तितव्यं, ततः पुनरपि तदेव वि-10 ट्रकल्पद्वयं, तदेव दूषणमित्यनवस्था, तस्मात्सर्वोऽपि खखभाव एव निवसति, तत्परित्यागेनान्यत्र निवासे तस्य मानि:खभावताप्रसङ्गादित्यलं बहुभाषितया । 'से तमित्यादि निगमनम् । दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [३१०] अनुयो० मलधारीया ॥ २२६ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| Education से किं तं पएसदितेनं १, २ णेगमो भणइ छण्हं पएसो, तंजहा- धम्मपएसो अधम्म एसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो देसपएसो, एवं वयंतं णेगमं संगहो भाइ-जं भणसि छहं पएसो तं न भवइ, कम्हा ?, जम्हा जो देसपएसो सो तसेव दव्वस्स, जहा को दिट्टंतो?, दासेण मे खरो कीओ दासोऽवि में खरोऽवि मे, तं मा भणाहि-छहं पएसो, भणाहि पंचण्हं पएसो, तंजहा-धम्मपएसो अधम्मप एसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंतं संगहं ववहारो भणइ-जं भ सि - पंचण्हं पएसो, तं न भवइ, कम्हा ?, जइ जहा पंचण्हं गोट्टिआणं पुरिसाणं केइ दबजाए सामपणे भवइ, तंजहा-हिरपणे वा सुवण्णे वा धणे वा धपणे वा, ते जुन्तं वसुं तहा पंच परसो, तं मा भणिहि-पंचण्हं पएसो, भणाहि-पंचविहो परसो, तंजा - धम्मपएसो अधम्मपएसो आगासपएसो जीवपएसो खंधपएसो, एवं वयंतं ववहारं उज्जुसुओ भणइ-जं भणसि-पंचविहो पएसो, तं न भवइ, कम्हा?, जइ ते वृत्तिः • ~463~ उपक्रमे प्रमाणद्वार Forte & Personal Use City brary dig पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ॥ २२६ ॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .............. मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ............... प्रत सूत्रांक [१४८] पंचविहो पएसो एवं ते एकेको पएसो पंचविहो एवं ते पणवीसतिविहो पएसो भवइ, तं मा भणाहि-पंचविहो पएसो, भणाहि-भइयव्वो पएसो-सिअ धम्मपएसो सिअ अधम्मपएसो सिअ आगासपएसो सिअ जीवपएसो सिअ खंधपएसो, एवं वयंतं उज्जुसुयं संपइ सदनओ भणइ-जं भणसि भइयव्वो पएसो, तं न भवइ, कम्हा?, जइ भइअव्वो पएसो एवं ते धम्मपएसोऽवि सिअ धम्मपएसो सिअ अधम्मपएसो सिअ आगासपएसो सिअ जीवपएसो सिअ खंधपएसो, अधम्मपएसोऽवि सिअ धम्मपएसो जाव खंधपएसो, जीवपएसोऽवि सिअ धम्मपएसो जाव सिअ खंधपएसो, खंधपएसोऽवि सिअ धम्मपएसो जाव सिअ खंधपएसो, एवं ते अणवत्था भविस्सइ, तं मा भणाहि-भइयव्वो पएसो, भणाहि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे, अहम्मे पएसे से पएसे अहम्मे, आगासे पएसे से पएसे आगासे, जीवे पएसे से पएसे नोजीवे, खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, एवं वयंतं सदनयं समभिरूढो भणइ दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ......... अनुयो. मलधारीया SRDCCCCCESS A प्रमाणद्वार प्रत ॥२२७॥ सूत्रांक [१४८] जं भणसि-धम्मे पएसे से पएसे धम्मे जाव जीवे पएसे से पएसे नोजीवे खंधे पएसे से पएसे नोखंधे, तं न भवइ, कम्हा?, इत्थं खलु दो समासा भवंति, तंजहातप्पुरिसे अ कम्मधारए अ, तं ण णजइ कयरेणं समासेणं भणसि ?, किं तप्पुरिसेणं किं कम्मधारएणं?, जइ तप्पुरिसेणं भणसि तो मा एवं भणाहि, अह कम्मधारएणं भणसि तो विसेसओ भणाहि, धम्मे असे पएसे अ से पएसे धम्मे अहम्मे अ से पपसे अ से पएसे अहम्मे आगासे असे पएसे अ से पएसे आगासे जीवे अ से पएसे अ से पएसे नोजीवे खंधे असे पएसे असे पएसे नोखंधे, एवं वयंतं समभिरूढं संपइ एवंभूओ भणइ-जं जं भणसि तं तं सव्वं कसिणं पडिपुण्णं निरवसेसं एगगहणगहियं देसेऽवि मे अवत्थू पएसेऽवि मे अवत्थू । से तं पएसदिटुंतेणं । से तं नयप्पमाणे (सू० १४८) प्रकृष्टो देशः प्रदेशो-निर्विभागो भाग इत्यर्थः, स एव दृष्टान्तस्तेन नयमतानि चिन्त्यन्ते तत्र नैगमो भ FAC दीप अनुक्रम [३१०] 5॥२२७॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ........... प्रत सूत्रांक [१४८] SASSES पति-पण्णां प्रदेशः, तयधा-'धम्मपएसे' इत्यादि, धर्मशब्देन धर्मास्तिकायो गृह्यते, तस्य प्रदेशो धर्मप्रदेश, एवमधर्माकाशजीवास्तिकायेष्वपि योज्यं, स्कन्धः-पुद्गलद्रव्यनिचयस्तस्य प्रदेश: स्कन्धप्रदेशा, देश:-एषामेव 13 पश्चानां धर्मास्तिकायादिद्रव्याणां प्रदेशद्वयादिनिवृत्तोऽवयवस्तस्य प्रदेशो देशप्रदेशः, अयं च प्रदेशसामा-८ न्याव्यभिचारात् षण्णां प्रदेश इत्युक्तं, विशेषविवक्षायां तु षटू प्रदेशाः। एवं वदन्तं नैगमं ततो निपुणतरः सकहो भणति-पद्धसि षण्णां प्रदेश इति, तन्न भवति-तन्न युज्यते, कस्मात्, यस्माद् यो देशप्रदेश इति षष्ठे स्थाने भवता प्रतिपादितं, तदसङ्गतमेव, यतो धर्मास्तिकायादिद्रव्यस्य सम्बन्धी यो देशस्तस्य यः प्रदेशः स वस्तुवृत्त्या तस्यैव द्रव्यस्य यत्सम्बन्धी देशो विवक्ष्यते, द्रव्याव्यतिरिक्तस्य देशस्य यः प्रदेशः स द्रब्य8 स्यैव भवति, यथा कोऽत्र दृष्टान्त इत्याह-'दासेणे त्यादि, लोकेऽप्येवं व्यवहतिदृश्यते, यथा कश्चिदाह-म-13 दीदीयदासेन खरः क्रीतः, तत्र दासोऽपि मदीयः खरोऽपि मदीया, दासस्य मदीयत्वात् तत्क्रीतः खरोऽपि म दीय इत्यर्थः, एवमिहापि देशस्य द्रव्यसम्बन्धित्वात्तत्प्रदेशोऽपि द्रव्यसम्बन्ध्येवेति भावः, तस्मान्मा भण -षषणां प्रदेशः, अपि त्वेवं भण-पञ्चानां प्रदेश इति, त्वदुक्तषष्ठप्रदेशस्यैवाघटनादित्यर्थः, तदेव दर्शयति-तद्यथा-धर्मप्रदेश इत्यादि, एतानि च पञ्च द्रव्याणि तत्पदेशाश्वेत्येवमप्यविशुद्धसङ्ग्रह एव मन्यते, अवान्तरद्रव्ये सामान्यायभ्युपगमात्, विशुद्धस्तु द्रव्यबाहुल्यं प्रदेशकल्पनां च नेच्छत्येव, सर्वस्यैव वस्तुसामान्यक्रोडीकृतत्वेनैकवादित्यलं प्रसङ्गेन । प्रकृतमुच्यते-एवं वदन्तं सङ्ग्रहं ततोऽपि निपुणो व्यवहारो भणति-यगणसि दीप अनुक्रम [३१०] moryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ........... अनुयो० मलधारीया ॥२२८॥ प्रत सूत्रांक [१४८] पश्चानां प्रदेश इति, तन्न भवति-न युज्यते, कस्माद्?, यदि यथा पश्चानां गोष्ठिकानां किश्चिद् द्रव्यं सामा- वृत्तिः न्यम्-एकं भवति, तद्यथा-हिरण्यं वेत्यादि, एवं यदि प्रदेशोऽपि स्यात्ततो युज्यते वक्तुं-पञ्चानां प्रदेश इति, उपक्रमे इदमुक्तं भवति यथा केषाश्चित्पश्चानां पुरुषाणां साधारणं किश्चिद्धिरण्यादि भवति, एवं पञ्चानामपि धर्मा-प्रमाणद्वार स्तिकायादिद्रव्याणां यद्येकः कश्चित्साधारणः प्रदेशः स्यात्तदेयं वाचोयुक्तिर्घटेत, न चैतदस्ति, प्रतिद्रव्यं प्रदे-14 शभेदात्, तस्मान्मा भण पश्चानां प्रदेशः, अपि तु भण-पञ्चविधः पञ्चप्रकारः प्रदेशः, द्रव्यलक्षणस्याश्रयस्य पञ्चविधत्वादिति भावः, तदेवाह-'धर्मप्रदेश' इत्यादि । एवं वदन्तं व्यवहारमृजुसूत्रो भणति-यणसि पश्चविधः प्रदेशः, तन्न भवति, कस्मादू?, यस्माद्यदि ते पञ्चविधः प्रदेश एवमेकैको धर्मास्तिकायादिप्रदेशः पञ्चविधः प्राप्सः, शब्दादत्र वस्तुव्यवस्था, शब्दाचैवमेव प्रतीतिर्भवति, एवं च सति पञ्चविंशतिविधः प्रदेश प्रामोति, तस्मान्मा भण-पञ्चविधः प्रदेशः, किन्वेवं भण-भाज्यः प्रदेशः, स्थाहर्मस्येत्यादि, इदमुक्तं भवतिभाज्यो-विकल्पनीयो बिभजनीयः प्रदेशः, कियद्भिर्विभागैः?-स्थाद्धर्मप्रदेश इत्यादि पश्चभिः, ततश्च पञ्चभेद एव प्रदेशः सिद्ध्यति, स च यथास्वमात्मीयात्मीय एवास्ति न परकीयः, तस्वार्थक्रियाऽसाधकत्वात् प्रस्तुतनयमतेनासत्त्वादिति । एवं भणन्तमृजुसूत्रं साम्प्रतं शब्दनयो भणति-यद्भणसि-भाज्य: प्रदेशः, तन्न भवति, कुतो?, यतो यदि भाज्यः प्रदेशः, एवं ते धर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि कदाचिदधर्मास्तिकायादि ॥२२८॥ प्रदेशः स्याद्, अधर्मास्तिकायप्रदेशोऽपि कदाचिद्धर्मास्तिकायादिप्रदेश: स्थादू, इत्थमपि भजनाया अ दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~467~ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ................ - -- - - प्रत -- - सूत्रांक [१४८] |निवारितत्वादू, यथा एकोऽपि देवदत्तः कदाचिद्राज्ञो भृत्यः कदाचिदमायादेरिति, एवमाकाशास्तिकायादिप्रदेशेऽपि वाच्यं, तदेवं नैयत्याभावात्तवाप्यनवस्था प्रसज्येतेति, तन्मैवं भण-भाज्य: प्रदेशः, अपि तु इत्थं भण-'धम्मे पएसे [ से पएसे धम्मे ] इत्यादि, इदमुक्तं भवति-धर्मः प्रदेश इति-धर्मात्मकः प्रदेश इत्यर्थः, अत्राह-नन्वर्य प्रदेश: सकलधर्मास्तिकायादव्यतिरिक्तः सन् धर्मात्मक इत्युच्यते आहोवित्तदेकदेशाव्य|तिरिक्तः सन् यथा सकलजीवास्तिकायैकदेशैकजीवद्रव्याव्यतिरिक्तः सँस्तत्प्रदेशो जीवात्मक इति व्यपदिश्यत इत्याह-'से पएसे धम्मति स प्रदेशो धर्म:-सकलधर्मास्तिकायाव्यतिरिक्त इत्यर्थः, जीवास्तिकाये हि परस्परं भिन्नान्येवानन्तानि जीवद्रव्याणि भवन्ति, अतो य एकजीवद्रव्यस्य प्रदेशः स निःशेषजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरेव सन् जीवात्मक इत्युच्यते, अत्र तु धर्मास्तिकाय एकमेव द्रव्यं ततः सकलधर्मास्तिकायाव्यतिरिक्त एव सँस्तत्प्रदेशो धर्मात्मक उच्यत इति भावः । अधर्माकाशास्तिकाययोरप्येकैकद्रव्यत्वादेवमेव भावनीयं । जीवास्तिकाये तु 'जीवे पएसे से पएसे नोजी त्ति, जीवः प्रदेश इति-जीवास्तिकायात्मकः प्र-- देश इत्यर्थः, स च प्रदेशो नोजीयः, नोशब्दस्यह देशवचनत्वात् सकलजीवास्तिकायैकदेशवृत्तिरित्यर्थः, यो| कजीवद्रव्यात्मकः प्रदेशः स कथमनन्तजीवद्रव्यात्मके समस्तजीवास्तिकाये वर्तेत इति भावः, एवं स्कन्धात्मकः प्रदेशो नोस्कन्धा, स्कन्धद्रव्याणामनन्तत्वादेकदेशवर्तिरित्यर्थः । एवं वदन्तं शब्दनयं नानाधेसमभिरोहणात् समभिरूढः स पाह-पगणसि-धर्मः प्रदेशः स प्रदेशो धर्म इत्यादि, तन्न भवति-न युज्यते, कस्मा दीप अनुक्रम [३१०] अनु. ३९ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ............... मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| ............. प्रत सूत्रांक [१४८] अनुयो. दित्याह-इह खलु द्वौ समासौ भवतः, तद्यथा-तत्पुरुषः कर्मधारयश्च, इदमुक्तं भवति-'धम्मे परसे से प-KI वृत्तिः मलधा- एसे धम्म' इत्युक्ते समासद्यारम्भकवाक्यद्वयमत्र संभाव्यते, तथाहि-यदि धर्मशब्दात् सप्तमीयं तदा सप्त- उपक्रम रीया मीतत्पुरुषस्यारम्भकमिदं वाक्यं, यथा बने हस्तीत्यादि, अथ प्रथमा तदा कर्मधारयस्य, यथा नीलमुत्पलमि- प्रमाणद्वारं दत्यादि, ननु यदि वाक्यद्वयमेवात्र संभाव्यते तर्हि कथं द्वौ समासौ भवत इत्युक्तम् ?, उच्यते, समासार॥२२९॥ म्भकवाक्ययोः समासोपचारादू, अथवा अलुक्समासविवक्षया समासावप्येती भवतो, यथा कण्ठेकाल इत्यादीत्यदोषः, यदि नाम द्वौ समासावत्र भवतस्ततः किमित्याह-तन्न ज्ञायते कतरेण समासेन भणसि?, किं| तत्पुरुषेण कर्मधारयेण चा?, यदि तत्पुरुषेण भणसि, तन्मैवं भण, दोषसम्भवादिति शेषः, स चायं दोषो-धर्मे प्रदेश इति भेदापत्तिः, यथा कुण्डे बदराणीति, न च प्रदेशदेशिनौ भेदेनोपलभ्येते, अथ अभेदेऽपि सप्तमी दृश्यते यथा घटे रूपमित्यादि, यद्येवमुभयत्र दर्शनात् संशयलक्षणो दोषः स्यात् , अथ कर्मधारयेण भणसि, ततो विशेषेण भण 'धम्मे असे पएसे य से'त्ति, धर्मश्च स प्रदेशश्च स इति समानाधिकरणः कर्मधारयः, एवं च सप्सम्याशङ्काभावतो न तत्पुरुषसम्भव इति भावः । आह-नन्वयं प्रदेशः समस्तादपि धर्मास्तिकायादव्यतिरिक्तः सन् समानाधिकरणतया निर्दिश्यते ? उत तदेकदेशवृत्तिः सन् ? यथा जीवास्तिकायैकदेशवृत्तिर्जीवप्रदेश इत्याशक्याह-'से पएसे धम्म'त्ति स च प्रदेशः सकलधोस्तिकायादव्यतिरिक्तो न पुन-॥२२९॥ स्तदेकदेशवृत्तिरित्यर्थः, शेषभावना पूर्ववत्, 'से पएसे नोजीचे से पएसे नोखंधे इत्यत्रापि पूर्ववदेवार्थकथ दीप अनुक्रम [३१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [३१०] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [१४८] / गाथा ||११८...|| Education i नम् । एवं वदन्तं समभिरूढं साम्प्रतमेवंभूतो भणति यद्यद्धर्मास्तिकायादिकं वस्तु भणसि तत्तत्सर्वं समस्तं कृत्स्नं देशप्रदेशकल्पनारहितं प्रतिपूर्णमात्मस्वरूपेणाविकलं निरवशेषं तदेवैकत्वान्निरवयवमेक ग्रहणगृहीतमेकाभिधानाभिधेयं न नानाभिधानाभिधेयं, तानि ह्येकस्मिन्नर्थेऽसौ नेच्छति, अभिधानभेदे वस्तुभेदाभ्युपगमात्, तदेवंभूतं तद्धर्मास्तिकायादिकं वस्तु भण, न तु प्रदेशादिरूपतया, यतो देशप्रदेशौ ममावस्तुभूतौ, अखण्डस्यैव वस्तुनः सत्वेनोपयोगात्, तथाहि प्रदेशप्रदेशिनोर्भेदो वा स्यादभेदो वा ?, यदि प्रथमः पक्षस्तर्हि भेदेनोपलब्धिप्रसङ्गो, न च तथोपलब्धिरस्ति, अथाभेदस्तर्हि धर्मप्रदेशशब्दयोः पर्यायतैव प्राप्ता, एकार्थविषयत्वात्, न च पर्यायशब्दयोर्युगपदुच्चारणं युज्यते, एकेनैव तदर्थप्रतिपादने द्वितीयस्य वैयर्थ्यात् तस्मादेकाभिधानाभिधेयं परिपूर्णमेकमेव वस्त्विति । तदेवमेते निजनिजार्थसत्यताप्रतिपादनपरा विप्रतिपद्यन्ते नयाः एते च परस्परं निरपेक्षा दुर्नया:, सौगतादिसमयवत्, परस्परसापेक्षास्तु सुनयाः, तेच परस्परसापेक्षैः समुदितैरेव सम्पूर्ण जिनमतं भवति, नैकैकावस्थायाम्, उक्तं च स्तुतिकारण - “उदधाविव सर्वसिन्धवः, समुदीर्णास्त्वयि | नाथ ! दृष्टयः । न च तासु भवान् प्रदृश्यते, प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधिः ॥ १ ॥” । एते च नया ज्ञानरूपास्ततो जीवगुणत्वेन यद्यपि गुणप्रमाणेऽन्तर्भवन्ति तथापि प्रत्यक्षादिप्रमाणेभ्यो नयरूपतामात्रेण पृथक प्रसि द्धत्वाइहुविचारविषयत्वाज्जिनागमे प्रतिस्थानमुपयोगित्वाच्च जीवगुणप्रमाणात्पृथगुक्ताः । तदेतत्प्रदेशदृष्टान्तेनेति निगमनम् । प्रस्थकादिदृष्टान्तत्रयेण च नयप्रमाणं प्रतिपाद्योपसंहरति-तदेतन्नयप्रमाणमिति । अनेन च For ane & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ..... प्रत अनुयो वृत्तिः उपकमे प्रमाणद्वार सूत्रांक [१५०] ॥२३०॥ गाथा: दृष्टान्तत्रयेण दिग्मात्रदर्शनमेव कृतं, यावता यत्किमपि जीवादि वस्त्वस्ति तत्र सर्वत्र नयविचारः प्रवर्तते मलधा-18| इत्यलं बहुजल्पितेनेति ।। १४८ ॥ इतः क्रमप्राप्त समाप्रमाणं विवरीपुराहरीया से किं तं संखप्पमाणे ?, २ अट्रविहे पण्णत्ते, तंजहा-नामसंखा ठवणसंखा दव्वसंखा ओवम्मसंखा परिमाणसंखा जाणणासंखा गणणासंखा भावसंखा । से किं तं नामसंखा ?, २ जस्स णं जीवस्स वा जाव से तं नामसंखा । से किं तं ठवणसंखा?, २ जपणं कट्रकम्मे वा पोत्थकम्मे वा जाव से तं ठवणसंखा । नामठवणाणं को पइविसेसो?, नाम [पाएणं] आवकहियं ठवणा इत्तरिया वा होज्जा आवकहिया वा होजा। से किं तं व्यसंखा ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-आगमओ य नोआगमओ य, जाव से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ता दव्वसंखा ?, २तिविहा पण्णत्ता, तंजहाएगभविए बद्धाउए अभिमुहणामगोत्ते अ। एगभविए णं भंते! एगभविएत्ति कालओ केवच्चिर होइ ?, जहणणेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी, बद्धाउए णं भंते ! ||--|| दीप अनुक्रम || २३०॥ [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं अथ 'संख्या' विषयक प्ररुपणा क्रियते ~471~ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ......... प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: ||--|| बद्धाउएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ?, जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडीतिभागं, अभिमुहनामगोए णं भंते! अभिमुहनामगोएत्ति कालओ केवञ्चिरं होइ ?, जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं । इयाणी को णओ के संखं इच्छइ-तत्थ णेगमसंगहववहारा तिविहं संख-इच्छंति, तंजहा-एगभविअं बद्धाउअं अभिमुहनामगोतं च, उज्जुसुओ दुविहं संखं इच्छा, तंजहा-बद्धाउअंच अभिमुहनामगोतं च, तिणि सद्दनया अभिमुहणामगोत्तं संखं इच्छंति, से तं जाणयसरीरभविअसरी रवइरित्ता दव्वसंखा । से तं नोआगमओ दव्वसंखा । से तं दव्वसंखा। सयानं सज्ञया संख्यायतेऽनयेति वा सङ्ख्या, सैव प्रमाणं सयाप्रमाणम् , इह च सङ्ख्याशब्देन सङ्ग्याशलयो योरपि ग्रहणं द्रष्टव्यं, प्राकृतमधिकृत्य समानशब्दाभिधेयखात्, गोशन्देन पशुभूम्यादिवत्, उक्तं च 1-"गोशब्दः पशुभूम्यप्सु, वाग्दिगर्थप्रयोगवान् । मन्दप्रयोगे दृष्ट्यम्बुवज्रवर्गाभिधायकः ॥१॥" एवमिहापि संखा इतिप्राकृतोक्तो सङ्ख्या शङ्खाश्च प्रतीयन्ते, ततो द्वयस्यापि ग्रहणम् । एवं च नामस्थापनाद्रव्यादिविचारेऽपि पक्रान्ते सङ्ख्या शङ्खा वा यन्त्र घटन्ते तत्तत्र प्रस्तावज्ञेन स्वयमेव योज्यमिति। 'से किं तं नामसंखे'त्यादि, सबै पूर्वा दीप अनुक्रम [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| प्रत अनुयो सूत्रांक KAROSAROS [१५०] रीया ॥२३१॥ गाथा: ||--|| भिहितनामावश्यकादिविचारानुसारतः स्वयमेव भावनीयं यावत् 'जाणयसरीरभविअसरीरवहरित्ते दब्वसंखे वृत्तिः तिविहे पण्णत्ते' इत्यादि, इह यो जीवो मृत्वाऽनन्तरभवे शब्बेघु उत्पत्स्यते स तेष्ववद्वायुष्कोऽपि जन्मदिना-131 उपक्रम दारभ्य एकभविकः स शङ्ख उच्यते, यन्त्र भवे वर्तते स एवैको भवः शङ्खपूत्पत्तेरन्तरेऽस्तीतिकृत्वा, एवं शङ्खमा-16 प्रमाणद्वारं योग्य बद्धमायुष्कं येन स बदायुष्का, शङ्खभवप्राप्तानां जन्तूनां ये अवश्यमुदयमागच्छतस्ते द्वीन्द्रियजात्या|दिनीचीत्राख्ये अभिमुखे जघन्यतः समयेनोत्कृष्टतोऽन्तर्मुहर्तमात्रेणैव व्यवधानात् उदयाभिमुखप्राप्ते नामगोत्रे कर्मणी यस्य सोऽभिमुखनामगोत्रः, तदेष त्रिविधोऽपि भावशलताकारणत्वात् ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यशङ्ख उच्यते, यद्ययं द्विभविकत्रिभविकचतर्भविकादिरपि कस्मान्नेत्थं व्यपदिश्यत इति चेत, नैवं, तस्यातिव्यवहितत्वेन भावकारणताऽनभ्युपगमात् , तत्कारणस्यैव द्रव्यत्वाद्, इदानीं त्रिविधमपि शङ्ख कालतः क्रमेण निरूपयन्नाह-एगभविए णं भंते ! इत्यादि, एकभविकः शङ्को भदन्त ! एकभविक इति व्यपदेशेन कालतः कियचिरं भवतीति, अनोत्तरं-'जहण्णण' मित्यादि, इदमुक्तं भवति-पृथिव्यायन्यतरभवेऽन्तमुहार जीवित्वा योऽनन्तरं शोपुत्पद्यते सोऽन्तर्मुहूर्तमेकभविकः शङ्खो भवति, यस्तु मत्स्यायन्यतमभवे पूर्वकोटी जीवित्वैतेपुत्पद्यते तस्य पूर्वकोटिरेकभविकत्वे लभ्यते, अन चान्तर्मुहर्तादपि हीनं जन्तूनामायुरेव नास्तीति जघन्यपदेऽन्तर्मुहुर्तग्रहणं, यस्तु पूर्वकोट्यधिकायुष्कः सोऽसङ्ख्यातवर्षायुष्कबाहेवेष्वेवोत्पद्यते न शद्वेष्चि-1॥२३१॥ |त्युत्कृष्टपदे पूर्वकोट्युपादानम् , आयुर्वन्धं च प्राणिनोऽनुभूयमानायुषो जघन्यतोऽप्यन्तर्मुहूर्ते शेष एव कुर्व दीप अनुक्रम [३११ -३१७] meboryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~473~ Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: त्युत्कृष्टतस्तु पूर्वकोटिनिभाग एव न परत इति बद्धायुष्कस्य जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्तमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीत्रिभाग उक्ता, आभिमुख्यं त्वासन्नतायां सत्यामुपपद्यते अतोऽभिमुखनामगोत्रस्य जघन्यतः समय उत्कृटतस्त्वन्तर्मुहूर्त काल उक्तः, यथोक्तकालात् परतत्रयोऽपि भावशङ्खतां पतिपयन्त इति भावः । इदानीं नैगमादिनयानां मध्ये को नयो यथोक्तत्रिविधशङ्खस्य मध्ये कं शङ्खमिच्छतीति विधार्यते-तत्र नैगमसङ्ग्रहव्यवहाराः स्थूलदृष्टित्वात्रिविधमपि शङ्खमिच्छन्ति, दृश्यते हि स्थूलदृशां कारणे कार्योपचारं कृत्वा इत्थं व्यपदेशप्रवृत्तिा, यथा राज्याईकुमारे राजशब्दस्य घृतप्रक्षेपयोग्ये घटे घृतघटशब्दस्येत्यादि, ऋजुसूत्र एभ्यो CIविशद्धखादायस्यातिव्यवहितत्वेनातिप्रसङ्गभयाद्विविधमेवेच्छति, शब्दादयस्तु विशुद्धतरत्वाद् द्वितीयमप्यतिव्यवहितं मन्यन्ते, अतोऽतिप्रसङ्गनिवृत्त्यर्थमेकं चरममेवेच्छन्ति । 'से त' मित्यादि निगमनम् ॥ से किं तं ओवम्मसंखा?, २ चउबिहा पण्णत्ता, तंजहा-अस्थि संतयं संतएणं उवमिजइ, अस्थि संतयं असंतएणं उवमिज्जइ, अस्थि असंतयं संतएणं उवमिज्जइ, अत्थि असंतयं असंतएणं उवमिजइ, तत्थ संतयं संतएणं उवमिज्जइ, जहा संता अरिहंता संतएहिं पुरवरेहिं संतएहि कवाडेहिं संतएहिं वच्छेहि उवमिजइ, तंजहा-पुर ||--|| X-SCk0RANCE दीप अनुक्रम [३११ -३१७] + पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........... बत्तिः प्रत अनुयो मलधारीया सूत्रांक प्रमाण द्वार [१५०] CHECHACK ॥२३२॥ गाथा: वरकवाडवच्छा फलिहभुआ दुंदुहित्थणिअघोसा। सिरिवच्छंकिअवच्छा सव्वेऽवि जिणा चउव्वीसं ॥१॥ संतयं असंतएणं उवमिजइ, जहा संताई नेरइअतिरिक्खजोणिअमणुस्सदेवाणं आउआई असंतएहिं पलिओवमसागरोवमेहिं उवमिजंति, असंतयं संतएणं उ० तं०-परिजूरिअपेरंतं चलंतबिंट पडतनिच्छीरं । पत्तं व वसणपत्तं कालप्पत्तं भणइ गाहं ॥१॥ जह तुब्भे तह अम्हे तुम्हेऽवि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेइ पडतं पंडुअपत्तं किसलयाणं ॥२॥णवि अस्थि णवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खल्लु एस कया भविअजणविबोहणट्राए ॥३॥ असंतयं अ संतपहिं उवमिजइ, जहा खरविसाणं तहा ससविसाणं । से तं ओवम्मसंखा। सङ्ख्यानं सङ्ख्या-परिच्छेदो वस्तुनिर्णय इत्यर्थः, औपम्येन उपमाप्रधाना वा सङ्ख्या औपम्यसया, इयं चोप-15 मानोपमेययोः सत्वासत्त्वाभ्यां चतुर्दा, तद्यथा-'संतयं संतएण'मित्यादि, तत्र प्रथमभङ्गे तीर्थकरादेरुपमे यस्थ कपाटादिना उपमानेन खरूपं संख्यायते-निश्चीयते इत्यौपम्यसङ्ख्यात्वं भावनीयं, यस्य तीर्थकराः खरूकापतो निश्चिता भवन्ति तस्य पुरवरकपाटोपमवक्षसो-नगरपरिघोपमवाहवस्ते भवन्तीत्याग्रुपमया तत्खरूप-10 ||--|| दीप अनुक्रम [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: ||--|| निश्चयस्येहोत्पाद्यमानत्वादिति भावः । द्वितीयभङ्गे पल्योपमसागरोपमाणां योजनप्रमाणपल्यवालाग्रादिक-2 ल्पनामात्रेण प्ररूपितत्त्वादसत्त्वमवसेयम्, उपमानता चैषामेतन्महानारकायायुमहत्त्वसाधनादिति, तृतीयभने 'परिजूरियपेरंत'मित्यादि गाथा, तत्र वसन्तसमये परिजीर्णपर्यन्तं खपरिपाकत एव प्रचलन्तं वृक्षास्पतद्-भ्रश्यत्पत्रं गाथां भणतीति सम्बन्धः, परिणतत्वादेव निक्षीरं वृक्षवियोगादित्वलक्षणव्यसनं प्राप्त कालप्राप्त-विनाशकालमाप्तमिति । तामेव गाथामाह-जह तुम्भे'इत्यादि, वृक्षात्पतता केनचिजीर्णपत्रेण किशलयानाश्रित्योक्तं, किंत?, उच्यते-शृणुत भो उद्गच्छत्कोमलपत्रविशेषरूपाणि किशलयान्यवहितानि भूत्वा, वृक्षात्पतत् मल्लक्षणं पाण्डुपत्रं युष्माकं 'अप्पाहेई' इति कथयति, किं तदित्याह-जह तुन्भे तह अम्हे'त्ति, यथा पुष्पदभिनवस्निग्धकान्तीनि कमनीयकामिनीकरतलस्पर्शलक्ष्मीकानि सकलजनमनोनेत्रानन्ददायीनि साम्प्रतं भवन्ति दृश्यन्ते तथा क्यमपि पूर्वमास्मेति क्रियाध्याहारः, यथा च परिजीर्णपर्यन्तादिस्वरूपाणि साम्प्रतं वयं वर्तेमहि यूयमपि निश्चित कालेन तथा भविष्यथ इति न काचित् स्वसमृद्धी गर्वबुद्धिः परासमृद्धौतु हेलामतिर्विधेया, अनित्यत्वात्सकलसमृद्धिसम्बन्धानामिति भावः । नन्वलौकिकमिदं यत्पत्राणि परस्परं जल्पन्ति,सत्यमित्याह-नवि अत्थि' गाहा सुगमा, नवरं वृक्षपत्रसमृद्धयसमृद्धिश्रवणतोऽनित्यतावगमेन भव्यानां सांसारिकसमृद्धिषु निवेदो यथा स्यादित्यसद्भूतोऽपि पत्राणामिहालाप उक्त इति भावः, तदेवं 'जह तुम्भे तह अम्हें इत्यत्र किशलयपत्रावस्थया पाण्डपत्रावस्था उपमीयते, एवं चोपमानभूतकिशलयपत्रावस्था तत्कालभावि दीप अनुक्रम [३११ -३१७] braryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~476 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| .......... % प्रत 15 सूत्रांक [१५०] गाथा: ||--|| अनुयोदत्वात्सती पाण्डुपत्राणां तूपमेयभूता साऽवस्था भूतपूर्वत्वादसती 'तुम्भेविय होहिहा' इत्यादौ तु पाण्डपत्रा- वृत्तिः मलधा-1वस्थया किशलयपत्रावस्था उपमीयते, तत्राप्युपमानभूता पाण्डुपत्रावस्था तत्कालयोगिस्वात्सती किशल-: उपक्रम रीया 18 यदलानां तूपमेयभूता सा भविष्यत्कालयोगित्वादसती, अतोऽसत्सता उपमीयत इति तृतीयभङ्गविषयता प्रमाणद्वार संगच्छते, सुधिया तु यदि घटते तदाऽन्यथाऽपि सा वाच्येति । चतुर्थभङ्गे 'असंतयं असंतएणे'त्यादि, यथा ॥२३३॥ खरविषाणमभावरूपं प्रतीतं तथा शशविषाणमप्यभावरूपं निश्चेतव्यं, यथा वा शशविषाणमभावरूपं निश्चि8/तमित्यमितरदपि ज्ञातव्यमिति भावः, एवं चोपमानोपमेययोरसत्त्वं स्फुटमेवेति ॥ से किं तं परिमाणसंखा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तं०-कालिअसुयपरिमाणसंखा दिहिवायसुअपरिमाणसंखा य । से किं तं कालिअसुअपरिमाणसंखा?, २ अणेगविहा पपणत्ता, तंजहा-पज्जवसंखा अक्खरसंखा संघायसंखा पयसंखा पायसंखा गाहासंखा सिलोगसंखा वेढसंखा निज्जुत्तिसंखा अणुओगदारसंखा उद्देसगसंखा अज्झयणसंखा सुअखंधसंखा अंगसंखा, से तं कालिअसुअपरिमाणसंखा । से किं तं दिदिवायसुअपरिमाणसंखा ?, २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-पज्जवसंखा जाव अणुओगदारसंखा दीप अनुक्रम SCSCRC [३११ ॥२३३॥ -३१७] Jamedicination पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~477~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५० ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [३११ -३१७] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५० ] / गाथा ||११९-१२२|| पाहुडसंखा पाहुडिआसंखा पाहुडपाहुडिआसंखा वत्थुसंखा, से तं दिट्टिवायसुअपरिमाणसंखा । से तं परिमाणसंखा । से किं तं जाणणासंखा ?, २ जो जं जाणइ तंजहा -सदं सद्दिओ गणियं गणिओ निमित्तं नेमित्तिओ कालं कालणाणी वेज्जयं वेज्जो, से तं जाणणासंखा । संख्यायते अनयेति सङ्ख्या, परिमाणं पर्यवादि तद्रूपा सङ्ख्या परिमाणसङ्ख्या, साध कालिकतदृष्टिवादविषयत्वेन द्विविधा, तत्र कालिकश्रुतपरिमाणसङ्ख्यायां पर्यवसङ्ख्या इत्यादि, पर्यवादिरूपेण परिमाणविशेषेण कालिकश्रुतं संख्यायत इति भावः, तत्र पर्यवाः पर्याया धर्मा इतियावत् तद्रूपा सङ्ख्या पर्यवसङ्ख्या सा च कालिकश्रुते अनन्तपर्यायात्मिका द्रष्टव्या, एकैकस्याप्यकाराद्यक्षरस्य तदभिधेयस्य च जीवादिवस्तुनः प्रत्येकमनन्तपर्यायत्वात् एवमन्यत्रापि भावना कार्या, नवरं सङ्ख्येयान्यकारायक्षराणि, याद्यक्षरसंयोगरूपाः सङ्ख्याः सङ्घाताः, सुप्तिङन्तानि समयप्रसिद्धानि वा सङ्ख्येयानि पदानि, गाधादिचतुर्थांशरूपाः सङ्ख्येयाः पादाः सङ्ख्येया गाथाः, सङ्ख्येयाच श्लोकाः प्रतीताः, एवं छन्दोविशेषरूपाः सङ्ख्येया वेष्टकाः, निक्षेपनिर्युत्युपोद्घातनिर्युक्तिसूत्रस्पर्शकनिर्युक्तिलक्षणा त्रिविधा निर्युक्तिः, व्याख्योपायभूतानि सत्पदप्ररूपणतादीन्युपक्रमादीनि वा सङ्ख्येयान्यनुयोगद्वाराणि, सोया उद्देशाः सङ्ख्येयान्यध्ययनानि सङ्ख्येयाः श्रुतस्कन्धाः, For hate & Personal Use Oily पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ......... प्रत अनुयो मलधारीया सूत्रांक [१५०] ॥२३४॥ गाथा: CASEASE सक्येयान्यङ्गानि एषा कालिकश्रुतपरिमाणसण्या, एवं दृष्टिवादेऽपि भावना कार्या, नवरं प्राभृतादयः पूर्या-II वृत्तिः न्तर्गताः श्रुताधिकारविशेषाः । 'से तमित्यादि निगमनद्वयम् ॥ से किं तं जाणणासंखा' इत्यादि, 'जाणणा' उपक्रमे ज्ञानं संख्यायते-निश्चीयते वस्त्वनयेति सख्या, ज्ञानरूपा सख्या ज्ञानसख्या, का पुनरियम् ?, उच्यते, प्रमाणद्वार यो देवदत्तादिर्यच्छन्दादिकं जानाति स तज्जानाति, तच जानन्नसावभेदोपचारादू ज्ञानसख्येत्युपस्कारः, | शेष पाठसिद्धम् ॥ से किं तं गणणासंखा?, २ एक्को गणणं न उवेइ, दुप्पभिइ संखा, तंजहा-संखेजए असंखेज्जए अणंतए । से किं तं संखेज्जए?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । से कितं असंखेज्जए ?, २तिविहे पण्णते, तंजहा-परितासंखेजए जुत्तासंखेजए असंखेज्जासंखेजए । से किं तं परित्तासंखेजए?, २ तिविहे पण्णते, तंजहा-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्कोसए । से किं तं जुत्तासंखेज्जए?, २तिविहे पण्णते, तंजहा-जहपणए उकोसए अजहपणमणुकोसए । से किं तं असंखेज्जासंखेजए ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-जहपणए उक्कोसए अजहण्णमणुकोसए । ||--|| दीप अनुक्रम ॥२३४॥ [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: से किं तं अणंतए ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-परित्ताणतए जुत्ताणतए अणताणतए । से किं तं परित्ताणतए ?, २ ति०प०, तं-जहण्णए उक्कोसए अजहण्णमणुक्को. सए । से किं तं जुत्ताणतए ?, २ तिविहे पण्णते, तंजहा-जहण्णए उक्कोसए अजहपणमा से किं तं अणंताणतए?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-जहण्णए अजहण्णमणुकोसए । जहण्णयं संखेजयं केवइ होइ?, दोरूवयं, तेणं परं अजहण्णमणुक्कोस याई ठाणाई जाव उक्कोसयं संखेजयं न पावइ। एतावन्त एते इति सख्यानं गणनसङ्ख्या, तत्र 'एगो गणणं न उबेई' एकस्तावद्गणन-सख्यां नोपैति, यत एकस्मिन् घटादी दृष्टे घटादि वस्त्विदं तिष्ठतीत्येवमेव प्रायः प्रतीतिरुत्पद्यते, नैकसङ्ख्याविषयत्वेन, अथवा आदानसमर्पणादिव्यवहारकाले एक वस्तु प्रायो न कश्चिद्गणयत्यतोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद्वा नको | गणनसरूपामवतरति, तस्माद्विमभूतिरेव गणनसङ्ख्या, सा च सख्येयकादिभेवभिन्ना, तयथा-सलयेयकमसङ्ख्येयकमनन्तक, तत्र सङ्ख्येयकं जघन्यादिभेदात् त्रिविधम्, असङ्ख्येयकं तु परीतासङ्ख्येयकं युक्तासख्येयकं असङ्ख्येयासङ्ख्यक, पुनरेकैकं जघन्यादिभेदात्रिविधमिति सर्वमपि नवविधम् , अ 20-04-%ARKARI ||--|| दीप अनुक्रम [३११-३१७] -अनु. Gill पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक अनुयो० मलधा [१५०] रीया ॥२३५॥ गाथा: ||--|| नन्तकमपि परीतानन्तकं युक्तानन्तकं अनन्तानन्तकम् , अत्राद्यानन्तभेदद्वये जघन्यादिभेदात् प्रत्येकं त्रैवि-80 वृत्तिः ध्यम, अनन्तानन्तकं तु जघन्यमजघन्योत्कृष्टमेव संभवतीति, उत्कृष्टानन्तानन्तकस्य काप्यसम्भवादिति उपक्रमे सर्वमपीदमष्टविधं, तदेवं संक्षेपतः सङ्ख्येयकादिभेदप्ररूपणामात्रं कृत्वा विस्तरतः तत्स्वरूपनिरूपणार्थमाह- प्रमाणद्वार 'जहएणयं संखेजयं केवइयमित्यादि, अत्र जघन्यं सहधेयक द्वौ, ततः परं त्रिचतुरादिकं सर्वमप्यजघन्योत्कृष्टं यावदुत्कृष्टं न प्रामोति, उक्कोसयं संखेजयं केवइ होइ ?, उक्कोसयस्स संखेजयस्स परूवणं करिस्सामि-से जहानामए पल्ले सिआ एग जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं तिणि जोयणसयसहस्साई सोलस सहस्साई दोषिण अ सत्तावीसे जोयणसए तिपिण अ कोसे अट्टावीसं च धणुसयं तेरस य अंगुलाई अद्धं अंगुलं च किंचि विसेसाहिअं परिक्खेवेणं पण्णत्ते, से णं पल्ले सिद्धत्थयाणं भरिए, तओ णं तेहिं सिद्धस्थपहिं दीवसमुदाणं उद्धारो घेप्पइ, एगो दीवे एगो समुद्दे एवं पक्खिप्पमाणेणं २ जावइआ दीवसमुद्दा तेहिं सिद्धस्थपहिं अप्फुण्णा एस णं एवइए खेत्ते पल्ले [आइट्टा] पढमा सलागा, एव दीप अनुक्रम [३११-३१७] २३५॥ A maranyang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ...... प्रत सूत्रांक [१५०] RAKES गाथा: इआणं सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिआ तहावि उक्कोसयं संखेजयं न पावइ, जहा को दिटुंतो?, से जहानामए मंचे सिआ आमलगाणं भरिए तत्थ एगे आमलए पक्खित्ते सेऽवि माते अण्णेऽवि पक्खिते सेऽवि माते अन्नेऽवि पक्खित्ते सेऽवि माते एवं पक्खिप्पमाणेणं २ होही सेऽवि आमलए जंसि पक्खित्ते से मंचए भरिजिहिइ जे तत्थ आमलए न माहिइ: तत्र कियत्पुनरुत्कृष्ट सहायकं भवतीति विनेयेन पृष्टे विस्तरेण तस्य प्ररूपयिष्यमाणत्वादित्यमाह-उत्कृष्टस्य सङ्ख्येयकस्य प्ररूपणां करिष्यामि, तदेवाह-तद्यथा नाम कश्चित्पल्यः स्यात्, कियन्मान इत्याह-आयामविष्कम्भाभ्यां योजनशतसहस्रं, परिधिना तु-परिही तिलकख सोलस सहस्स दो य सय सत्तवीसहिया। कोसतिय अट्ठवीसं, धणुसय तेरंगुलद्धहियं ॥१॥ इति गाधाप्रतिपादितमानो, जम्बूद्वीपप्रमाण इति भावः। अयं चाधस्ताद्योजनसहस्रमवगाढो द्रष्टव्यः, रत्नप्रभावृथिव्या रत्नकाण्डं भित्त्वा वज्रकाण्डे प्रतिष्ठित इत्यर्थः, स चैवंप्रमाणः पल्यो जम्बूद्वीपवेदिकात उपरि सपशिखः सिद्धार्थानां सर्षपानां भ्रियते, 'तओ णं तेहिं मित्यादि, इदमुक्तं भवति-ते सर्षपा असत्कल्पनया देवादिना समुत्क्षिप्य एको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं सर्वे १. परिधिनयो लक्षाः षोडश सहस्रा द्वे च शते राप्तविंशत्यधिके । कोशत्रिकमष्टाविंशं धनुशतं प्रयोदशानुलानि अाधिकानि ॥ १ ॥ SSSSS ||--|| दीप अनुक्रम [३११-३१७] - पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ..... (४५) प्रत उपक्रमे सूत्रांक [१५०] गाथा: अनुयोऽपि प्रक्षिप्यन्ते, यत्र च द्वीपे समुद्रे वा ते इत्थं प्रक्षिप्यमाणा निष्ठां यान्ति तत्पर्यवसानो जम्बूद्वीपादिरन वृत्ति मलधा- वस्थितपल्पः कल्प्यते, अत एवाह-एस णं एवइए खेत्ते पल्ले'त्ति, यावन्तो द्वीपसमुद्रास्तैः सर्वपः 'अप्पु-11 पण त्ति व्याप्ता इत्यर्थः, एतदेतावत्प्रमाणं क्षेत्रमनवस्थितपल्या, सपभृतो बुद्ध्या परिकल्प्यत इत्य, ततःप्रमाणहार ॥२३६॥ किमित्याह-'पढमा सलागत्ति ततः शलाकापल्ये प्रथमशलाका-एकः सर्षपः प्रक्षिप्यत इत्यर्थः, 'एवइयाणं ४ सलागाणं असंलप्पा लोगा भरिय'त्ति लोक्यन्ते-केवलिना दृश्यन्त इति लोका-व्याख्यानादिह वक्ष्यमाणाः शलाकापल्यरूपा गृह्यन्ते, ते चैकदशशतसहस्रलक्षकोटिप्रकारेण संलपितुमशक्या असंलप्या, अतिबहव इत्यर्थः, यथोक्तशलाकानामसत्कल्पनया भृता:-पूरितास्तथाप्युत्कृष्टं सख्येयकं न पामोति, आकण्ठपूरिता अपि हि लोकरूड्या भृता उच्यन्ते, न चैतावतैवोत्कृष्टं सङ्ख्येयकं संपद्यते, किन्तु यदा सपशिखतया तथा ते नियन्ते यथा नैकोऽपि सर्षपस्तत्रापले माति तदा तद्भवतीति भावः, ननु सपशिखतया सर्वथा अभृतमपि लोके किं भृतमुच्यते, सत्यं, प्रोच्यत एव, तथा चात्रार्थे दृष्टान्तं विदर्शयिषुराह-यथा कोऽत्र दृष्टान्तः2, इति शिष्येण पृष्टे सत्युत्तरमाह-तद्यथा नाम कश्चिन्मश्चः स्यात्, स चामलकानां भृत इति शिखामन्तरेणापि लोकेन व्यपदिश्यते, अथ च तत्रैकमामलकं प्रक्षिप्तं तन्मातमपरमपि प्रक्षिप्तं तदपि मातमन्यदपि प्रक्षिप्तं तदपि मातमेवमपरापरैः प्रक्षिप्यमाणैः भविष्यति तदामलकं येनासौ मञ्चो भरिष्यति, यच्च तदुत्तरकालं तत्र मचे न मास्यति, इत्थं चात्राप्यपरापरैर्यथोक्तशलाकारूपैः प्रक्षिप्सर्यदा संलपितुमशक्या अतिवहयः सम ||--|| दीप अनुक्रम [३११-३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~483~ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: शिखा पल्या असत्कल्पनया भृता भवन्ति तदोत्कृष्टं सख्येयकं भवतीत्यध्याहारो द्रष्टव्य इति तावदक्षरार्थः । भावार्थस्त्वयं-पूर्वनिदर्शितस्वरूपादनवस्थितपल्यादपरेऽपि जम्बूद्वीपप्रमाणा योजनसहस्रावगाढास्त्रयः पल्या बुद्ध्या कल्प्यन्ते, तत्र प्रथमः शलाकापल्यो द्वितीयः प्रतिशलाकापल्यस्तृतीयो महाशलाकापल्या, तत्रानवस्थितपल्यो भृतः शलाकापल्ये च प्रथमा शलाका प्रक्षिप्तेति पूर्वमादर्शितं, तदनन्तरं पुनरप्यनव|स्थितपल्यसर्षपाः समुत्क्षिप्यैको द्वीपे एकः समुद्रे इत्येवं प्रक्षिप्यन्ते, तैश्च निष्ठितः शलाकापल्ये द्वितीया शलाका प्रक्षिप्यते, सर्षपाश्च प्रक्षिप्यमाना यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहत्तरोऽनवस्थितपल्यः सर्षपभृतः परिकल्प्यते, अत एवायमनवस्थितपल्य उच्यते, अवस्थितरूपाभावात, पुनः सोऽप्युत्क्षिप्यकैकसर्षपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च तृतीया शलाका प्रक्षिप्यते, ते च सर्षपाः मक्षिप्यमाणा यत्र द्वीपे समुद्रे वा निष्ठितास्तत्पर्यवसानः पूर्वेण सह बृहत्तमोऽनवस्थितपल्पः सर्षपभृतः परिकल्प्यते, पुनः सोऽप्युत्क्षिप्य तेनैव क्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च चतुर्थी शलाका प्रक्षिप्यते, एवं यथोत्तरं वृद्धस्थानवस्थितपल्यस्य भरणरिक्तीकरणक्रमेण तावद्वाच्यं यावदेकैकशलाकाप्रक्षेपण शलाकापल्यो भ्रियते, अपरां शलाका न प्रतीच्छति, ततोऽनवस्थितपल्यो भृतोऽपि नोत्क्षिप्यते, किन्तु शलाकापल्प एवोड्रियते, अयमप्यनवस्थितपल्याक्रान्तक्षेत्रात्परत एकैकसर्वपक्रमेण द्वीपसमुद्रेषु प्रक्षिप्यते, यदा च निष्ठितो भवति तदा प्रतिशलाकापल्यलक्षणे तृतीये पल्ये प्रथमा प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थि ||--|| दीप अनुक्रम [३११-३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ....... प्रत सूत्रांक [१५०] रीया गाथा: *-5649 ||--|| अनुयोतपल्यः समुक्षिप्य शलाकापल्ये निष्ठास्थानात्परतस्तेनैव क्रमेण निक्षिप्यते, निष्ठिते च तसिन् शलाकामलधा ४पल्ये शलाका प्रक्षिप्यते, इत्थं पुनरप्यनवस्थितपस्यपूरणरेचनक्रमेण शलाकापल्यः शलाकानां भियते. ततो- उपक्रमे दानवस्थितशलाकापल्पयो तयोः शलाकापल्य एवोत्क्षिप्य पूर्वोक्तक्रमेणैव निक्षिप्यते, प्रतिशलाकापल्पे चप्रमाणद्वार द्वितीया प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्या समुदत्य शलाकापल्यनिष्ठास्थानात्परतस्तेनैव न्यायेन | प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च शलाका प्रक्षिप्यते, एवमनवस्थितपल्यस्योत्क्षेपप्रक्षेपक्रमेण शलाकापल्यः शलाकानां भरणीयः, शलाकापल्यस्य तूरक्षेपप्रक्षेपविधिना प्रतिशलाकापल्यः प्रतिशलाकानां पूरणीयो, यदा च प्रतिशलाकापल्या शलाकापल्योऽनवस्थितपल्यश्च त्रयोऽपि भृता भवन्ति तदा प्रतिशलाकापल्य एवोत्क्षिप्य द्वीपसमुद्रेषु तथैव प्रक्षिप्यते, निष्ठिते च तस्मिन् महाशलाकापल्ये प्रथमा महाशलाका प्रक्षिप्यते, ततः शलाकापल्य उत्क्षिप्य तथैव प्रक्षिप्यतेप्रतिशलाकापल्ये च प्रतिशलाका प्रक्षिप्यते, ततोऽनवस्थितपल्य उत्क्षिप्य तथैव प्रक्षिप्यते, शलाकापल्ये च शलाका प्रक्षिप्यते, एवमनवस्थितपल्योत्क्षेपप्रक्षेपक्रमेण शलाकापल्यो भरणीयः, शलाकापल्योदरणविकिरणविधिना प्रतिशलाकापल्या पूरणीयः, प्रतिशलाकापल्योत्पाटनप्रक्षेपणाभ्यां महाशलाकापल्या पूरयितव्यो, यदा तु चत्वारोऽपि परिपूर्णा भवन्ति तदोत्कृष्टं सङ्ख्येयकं रूपाधिकं भवति । इह यथोक्तेषु चतुर्यु पल्येषु ये सर्षपा ये चानवस्थितपल्यशलाकापल्यप्रतिशलाकापल्यो- २३७॥ तक्षेपप्रक्षेपक्रमेण द्वीपसमुद्रा व्याप्ता एतावत्सल्यमुत्कृष्टसङ्ख्येयकमेकेन सर्षपरूपेण समधिकं संपर्धेत इति दीप अनुक्रम [३११-३१७] P anyang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत SR4 सूत्रांक [१५०] गाथा: CROSAROKAR भावः । एतावद्भिश्च सर्षपैरसंलप्या लोका: शलाकापल्यलक्षणा नियन्त एवेति सूत्रमविरोधेन भावनीयम् । इदं च तावदुत्कृष्टं सन्ख्येयक, जघन्यं तु द्वौ, जघन्योत्कृष्टयोश्चान्तराले यानि सङ्ख्यास्थानानि तत्सर्वमजघन्योत्कृष्टम् , आगमे च यत्र कचिदविशेषितं सङ्ख्येयकग्रहणं करोति तत्र सर्वत्राजघन्योत्कृष्टं द्रष्टव्यम्, इदं चोत्कृष्टं सख्येयकमिस्थमेव प्ररूपयितुं शक्यते, शीर्षप्रहेलिकान्तराशिभ्योऽतिबहूनां समतिक्रान्तस्यात् प्रकारान्तरेणाख्यातुमशक्यत्वादिति । उक्तं त्रिविधं सख्येयकम् , अथ नवविधमसङ्ख्येयकं प्रागुद्दिष्ट । निरूपयितुमाह एवामेव उक्कोसए संखेजए रूवे पक्खित्ते जहएणयं परित्तासंखेजयं भवइ, तेण परं अजहण्णमणुकोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्तासंखेज्जयं न पावइ । उक्कोसयं परित्तासंखेजयं केवइ होइ?, जहाणयं परित्तासंखेजयं जहणणयं परित्तासंखेजमेताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसं परित्तासंखेजयं होइ, अहवा जहन्नयं जुत्तासंखेज्जयं रुखूणं उक्कोसयं परित्तासंखेजयं होइ । जहन्नयं जुत्तासंखेजयं केवइअं होइ?, जहपणयपरित्तासंखेज्जयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुषणो जहन्नयं जुत्तासंखेजय होइ, अहवा उक्कोसए परित्तासंखेजए रूवं पक्खित्तं जहणयं जुत्तासं ||--|| दीप अनुक्रम [३११ -३१७] JanEd.cahanel पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत अनुयोग मलधा वृत्तिः | उपक्रमे प्रमाणद्वारं सूत्रांक ॐॐॐ रीया [१५०] ॥२३८॥ गाथा: खेजयं होइ, आवलिआवि तत्तिआ चेव, तेण परं अजहएणमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं जुत्तासंखिजयं न पावइ । उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं केवइ होइ ?, जहण्णएणं जुत्तासंखेजएणं आवलिआ गुणिआ अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं होइ, अहवा जहन्नयं असंखेज्जासंखेजयं रूवूणं उक्कोसयं जुत्तासंखेजयं होइ । जहाणयं असंखेज्जासंखेजयं केवइअं होइ?, जहन्नएणं जुत्तासंखेजएणं आवलिआ गुणिआ अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहएणयं असंखेजासंखेजय होइ, अहवा उक्कोसए जुत्तासंखेज्जए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं असंखेज्जासंखेजय होइ, तेण परं अजहण्णमणुकोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं असंखेज्जासंखेजयं ण पावइ । उक्कोसयं असंखेजासंखेज्जयं केवइअं होइ ?, जहएणयं असंखेजासंखेजयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं असंखेज्जासंखेजयं होइ, अहवा जहण्णयं परिताणतयं रूवूणं उक्कोसयं असंखेज्जासंखेज्जयं होई। ||--|| दीप अनुक्रम 655 ॥ २३८॥ [३११ -३१७] Mumbayang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~487~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ..... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ...... प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: ||--|| असङ्ख्येयकेऽपि निरूप्यमाणे एवमेवानवस्थितपल्यादिनिरूपणा क्रियत इत्यर्थः, तावद् यावदुत्कृष्टं स-11 येयकमानीतं, तस्मिंश्च यदेकं रूपं पूर्वमधिकं दर्शितं तद् यदा तत्रैव राशी प्रक्षिप्यते तदा जघन्यं परी-2 तासङ्ख्येयकं भवति । तेण पर मित्यादि सूत्र, ततः परं परीतासख्येयकस्यैवाजघन्योत्कृष्टानि स्थानानि भवन्ति, यावदुत्कृष्टं परीतासङ्ख्येयकं न प्रामोति, शिष्यः पृच्छति-कियत्पुनरुत्कृष्टं परीतासन्ख्येयकं भ-2 वति?, अनोत्तरं-जहएणयं परीत्तासंखेज्जय'इत्यादि, जघन्यं परीतासङ्ख्येयकं यावत्प्रमाणं भवतीति शेषः,४ लतावत्यमाणानां जघन्यपरीतासङ्ख्येयकमात्राणां-जघन्यपरीतासङ्ख्येयकगतरूपसङ्ख्यानामित्यर्थः, राशी नामन्योऽन्यमभ्यासः-परस्परं गुणनास्वरूप एकेन रूपेणोनमुत्कृष्टं परीतासडूख्येयकं भवति, इदमत्र हृदयं-12 प्रत्येकं जघन्यपरीतासन्येयक एव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तः पुना व्यवस्थाप्यन्ते, तेच परस्परगुजाणितर्यो राशिर्भवति, स एकेन रूपेण हीन उत्कृष्टं परीतासन्ख्येयकं मन्तव्यम् । अत्र सुखप्रतिपश्यर्थमुदाह-16 रणं दर्यते जघन्यपरीतासङ्ख्येयके किलासत्कल्पनया पश्च रूपाणि संप्रधार्यन्ते, ततः पञ्चैव वाराः पञ्च पञ्च व्यपस्थाप्यन्ते, तथाहि-५५५५५, अत्र पञ्चभिः पञ्च गुणिताः पञ्चविंशतिः, सा च पञ्चभिराहता जातं पश्चविशं शतमित्यादिक्रमेणामीषां राशीनां परस्पराभ्यासे जातानि पञ्चविंशत्यधिकान्येकत्रिंशच्छतानि, एतत्प| कल्पनया एतावन्मानः सद्भावतस्त्वसख्येषरूपों राशिरेकेन रूपेण हीन उत्कृष्टं परीतासङ्ख्येयक संपद्यते, सायदा तु तदप्यधिकं रूपं गण्यते तदा जघन्यं युक्तासस्येयकं जायते, अत एषाह-'अहवा जहषणयं जुत्ता दीप अनुक्रम [३११-३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~488~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| .......... 44 प्रत सूत्रांक अनुयो मलधा [१५०] रीया ॥२३९॥ गाथा: ||--|| संखेजय'मित्यादि, अनन्तरोक्ताद्धि युक्तासङ्ख्येयकादेकस्मिन् रूपे समाकर्षित उत्कृष्टं परीतासङ्ख्येयकं निष्प-15 वृत्तिः यते इति प्रतीयते एवेति । उक्तं जघन्यादिभेदभिन्नं त्रिविधं परीतासङ्ख्येयकम् , अथ ताबद्भेदभिन्नस्यैव यु- उपक्रम कासख्येयकस्य निरूपणार्थमाह-जहण्णयं जुत्तासंखेज्जयं कित्तिय मित्यादि, अनोत्तरं 'जहणयं परित्तासं-प्रमाणद्वार खेजय मित्यादि, व्याख्या पूर्ववदेव, नवरम्-'अन्नमन्नब्भासो पडिपुन्नो'त्ति अन्योऽन्याभ्यस्तः स परिपूर्ण एव राशिरिह गृह्यते, न तु रूपं पात्यत इति भावः, (ग्रं० ५०००) 'अहवा उक्कोसए परित्तासंखेजए इत्यादि, भावितार्थमेव, आवलिया तत्तिया चेव'त्ति यावन्ति जघन्ययुक्तासङ्ख्येयके सर्षपरूपाणि प्राप्यन्ते आवलिकायामपि तावन्तः समया भवन्तीत्यर्थः, ततः सूत्रे यत्रावलिका गृह्यते तत्र जघन्ययुक्तासङ्ख्येयकतुल्यसमयराशिमानासा द्रष्टब्या। तेण पर'मित्यादि ततो जघन्ययुक्तासङ्ख्येयकात् परतः एकोत्तरया वृत्या असङ्ख्येघान्यजघन्योत्कृष्टानि युक्तासस्येयस्थानानि भवन्ति यावदुत्कृष्टं युक्तासङ्ख्येयकं न प्रामोति । अत्र शिष्यः पृ|च्छति-'उक्कोसर्य जुत्तासंखेजय मित्यादि, अत्र प्रतिवचनम्-'जहण्णएणमित्यादि, जघन्येन युक्तासङ्ख्येहै यकेनाबलिकासमपराशिर्गुण्यते, किमुक्तं भवति?-अन्योऽन्यमभ्यासः क्रियते, जघन्ययुक्तासङ्ख्येयकराशि-10 स्तेनैव राशिना गुण्यत इति तात्पर्यम्, एवं च कृते यो राशिभवति स एव एकेन रूपेणोनः उत्कृष्टं युक्तासख्येयकं भवति, यदि पुनस्तदपि रूपं गण्यते तदा जघन्यमसङ्ख्येयासख्येयकं जायते, अत एवाह-अ-18|२३९॥ हवा जहण्णय असंखिजासंखिजयं रूबूण'मित्यादि,गतार्थम् । उक्तं युक्तासङ्ख्येयकं विविधम् , इदानीमसख्ये-- दीप अनुक्रम 45465 [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: यासकरूयेयकं त्रिविधं विभणिषुराह-जहण्णयं असंखिजासंखेजय मित्यादि, इदं तु सूत्रं भावितार्थमेव, नवरं पडिपुण्णोत्ति-परिपूर्णो, रूपं न पात्यत इत्यर्थः, अहवेत्याद्यपि गतार्थम् । तेण पर'मित्यादि, ततः परमसङ्ख्येयासल्येयकस्य असलयेयान्यजघन्योत्कृष्ठस्थानानि भवन्ति, यावत्कृष्टासख्येयासख्येयकं न प्रामोति। अत्र विनेयः प्रश्नयति-'उक्कोसं असंखेजासंखेजकं केत्तिय मित्यादि, अनोत्तरम्-जहपणयं असंज्जासंखेजमित्यादि, जघन्पमस-ख्येयासख्येयकं यावद्भवतीति शेषः, तावत्प्रमाणानां जघन्यासख्येयासङ्ख्येयकमात्राणां जघन्यासङ्ख्येयासंख्येयकरूपसङ्ख्यानामित्यर्थः, राशीनामन्योऽन्यमभ्यासः-परस्परं गुणनास्वरूपः | एकेन रूपेणोनः उत्कृष्टमसङ्ख्येयासस्येयकं भवति, अयमत्र भावार्थ:-प्रत्येकं जघन्यासण्येयासण्येयकरूपा जघन्यासख्येयासङ्ख्येयक एव यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावन्तो राशयो व्यवस्थाप्यन्ते, तैश्च परस्परगुणितैयाँ राशिर्भवति स एकेन रूपेण हीन: उत्कृष्टमसख्येयासडूख्येयकं प्रतिपत्तव्यम्, उदाहरणं चा बाप्युत्कृष्टपरीतासङ्ख्ययकोक्तानुसारेण वाच्यम् , अत्र च यदेकं रूपं पातितं तदप्यत्र यदि गण्यते तदा ४ जघन्यं परीतानन्तकं संपद्यते, अत एवेत्थं निर्दिशत्ति-'अहवा जहएणयं परित्ताणतय'मित्यादि, गतार्थमेव, इत्येकीयाचार्यमतं तावदर्शितम् । अन्ये त्वाचार्या उत्कृष्टमसरूयेयासङ्ख्येयकमन्यथा प्ररूपयन्ति, तथाहिजघन्यासडूनरुपेयासडूख्येयकराशेर्वर्गः क्रियते, तस्यापि वर्गराशेः पुनर्वर्गो विधीयते, तस्यापि वर्गवर्गराशेः | पुनरपि वर्गो निष्पाचते, एवं च वारत्रयं वर्गे कृतेऽन्येऽपि प्रत्येकमसख्येयखरूपा दश राशयस्तत्र प्रक्षिप्यन्ते, ||--|| REBEEXXX SO90 दीप अनुक्रम [३११ -३१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| .... प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: अनुयोतद्यथा-"लोगागासपएसा धम्माधम्मेगजीवदेसा य । व्वडिआ निओआ पत्तेया चेव बोद्धव्वा ॥१॥ वृत्तिः मलधा |ठिइबंधज्झवसाणा अणुभागा जोगच्छेअपलिभागा। दोण्ह य समाण समया असंखपक्खेवया दस उ ॥२॥" उपक्रमे रीया इदमुक्तं भवति-लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तथा धर्मास्तिकायस्य अधर्मास्तिकायस्य एकस्य च जीवस्य माणद्वारं ॥२४॥ यावन्तः प्रदेशाः 'दब्वटिया निओय'त्ति-सूक्ष्माणां बादराणां चानन्तकायिकवनस्पतिजीवानां शरीराणीत्यर्थः, 'पत्तेया चेव'त्ति अनन्तकायिकान् वर्जयित्वा शेषाः पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसाः प्रत्येकशरीरिणः सर्वेऽपि जीवा इत्यर्थः, ते चासख्येया भवन्ति, 'ठिइबंधज्झवसाण त्ति स्थितिबन्धस्य कारणभूतानि अध्यवसायस्थानानि तान्यप्यसङ्ख्येयान्येव, तथाहि-ज्ञानावरणस्य जघन्योऽन्तर्मुहूर्तप्रमाणः स्थितिबन्ध उत्कृष्टस्तु त्रिंश सागरोपमकोटीकोटीप्रमाणः, मध्यमपदे त्वेकद्वित्रिचतुरादिसमयाधिकान्तर्मुहूर्तादिकोऽसख्येयभेदः, एषां च कास्थितिवन्धानां निर्वतकानि अध्यवसायस्थानानि प्रत्येक भिन्नान्येव, एवं च सत्येकस्मिन्नपि ज्ञानावरणेऽसङ्ग ख्येयानि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि लभ्यन्ते, एवं दर्शनावरणादिष्वपि वाच्यमिति । 'अणुभाग'त्ति अ-14 नुभागा:-ज्ञानावरणादिकर्मणां जघन्यमध्यमादिभेदभिन्ना रसविशेषाः, एतेषां चानुभागविशेषाणां निर्वत|कान्यसख्येयलोकाकाशप्रदेशप्रमाणान्यध्यवसायस्थानानि भवन्ति, अतोऽनुभागविशेषा अप्येतावन्त एव द्रष्टव्याः, कारणभेदाश्रितत्वात् कार्यभेदानां, 'जोगच्छेयपलिभाग'त्ति योगो-मनोवाकायविषयं वीर्य तस्या केवलिप्रज्ञाच्छेदेन प्रतिविशिष्टा निर्विभागा भागा योगच्छेदप्रतिभागाः, ते च निगोदादीनां संज्ञिपञ्चेन्द्रियप ||--|| ||२४० दीप अनुक्रम [३११-३१७] 456 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~491~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: यन्तानां जीवानामाश्रिताः जघन्यादिभेदभिन्ना असङ्ख्येया मन्तव्याः 'दुण्ह प समाण समय'त्ति द्वयोश्च समयोः-उत्सर्पिण्यवसर्पिणीकालखरूपयोः समयाः असलयेयखरूपाः, एवमेते प्रत्येकमसङ्ख्येयस्वरूपाः दश प्रक्षेपाः पूर्वोक्ते वारत्रयवर्गिते राशी प्रक्षिप्यन्ते, इत्थं च यो राशिः पिण्डितः संपद्यते स पुनरपि पूर्ववद्वारत्रयं वय॑ते, ततश्च एकस्मिन् रूपे पातिते उत्कृष्टासङ्ख्येयासङ्ख्येयकं भवति । उक्तं नवविधमप्यसयेयकं, साम्प्रतं प्रागुद्दिष्टमष्टविधमनन्तकं निरूपयितुमाह जहण्णयं परित्ताणतयं केवइ होइ?, जहण्णय असंखेजासंखेजयमेवाणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहणणयं परित्ताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए असंखेजासंखेजए रूवं पक्खित्तं जहण्णयं परित्ताणतयं होइ, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाई जाव उक्कोसयं परित्ताणतयं ण पावइ, उक्कोसयं परित्ताणतयं केवइअं होइ ?, जहणणयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अण्णमण्णब्भासो रूखूणो उकोसयं परित्ताणतयं होइ, अहवा जहण्णयं जुत्ताणतयं रूवणं उक्कोसयं परित्ताणतयं होइ, जहण्णय जुत्ताणतयं केवइ होइ?, जहपणयपरित्ताणतयमेत्ताणं रासीणं अपणमण्ण ||--|| दीप अनुक्रम [३११-३१७] अनु.४१ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं अथ 'अष्टविध-अनन्तकम्' प्ररुप्यते ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ....... प्रत वृत्तिः सूत्रांक अनुयोग मलधा उपक्रमे प्रमाणद्वारं [१५०] रीया ॥२४१॥ गाथा: ||--|| ब्भासो पडिपुण्णो जहण्णयं जुत्ताणंतयं होइ, अहवा उक्कोसए परित्ताणंतए रूवं पविखत्तं जहन्नयं जुत्ताणतयं होइ, अभवसिद्धिआवि तत्तिआ होइ, तेण परं अजहण्णमणुक्कोसयाई ठाणाइं जाव उक्कोसयं जुत्ताणतयं ण पावइ । उक्कोसयं जुत्ताणतयं केवइअं होइ ?, जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिआ गुणिया. अण्णमण्णब्भासो रूवूणो उक्कोसयं जुत्ताणतयं होइ, अहवा जहण्णयं अणंताणतयं रूवूणं उक्कोसयं जुताणतयं होइ । जहाणयं अणंताणतयं केवइ होइ?, जहण्णएणं जुत्ताणतएणं अभवसिद्धिआ गुणिआ अण्णमण्णब्भासो पडिपुण्णो जहणणयं अणंताणतयं होइ, अहवा उक्कोसए जुत्ताणतए रूवं पक्खित्तं जहएणयं अणताणतयं होइ, तेण परं अजहण्णमणुकोसयाई ठाणाई । से तं गणणासंखा । से किं तं भावसंखा?, २ जे इमे जीवा संखगइनामगोत्ताई कम्माई वेदेइ(न्ति)। से तं भावसंखा, से तं संखापमाणे, से तं भावपमाणे, से तं पमाणे । पमाणेत्ति पयं समत्तं (सू०१५०) दीप अनुक्रम [३११-३१७] १ ॥२४॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~493~ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५०] / गाथा ||११९-१२२|| ....... प्रत सूत्रांक [१५०] गाथा: 45 भावितामेव, नवरं परिपूर्ण इति रूपं न पात्यते इत्यर्थः । तेण परं' इत्यादि, गतार्थमेष, 'उकोसयं परिताणतय'मित्यादि, जघन्यपरीतानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति तावत्सङ्ख्यानां राशीनां प्रत्येक जघन्यपरीतानन्तकप्रमाणानां पूर्ववदन्योऽन्याभ्यासे रूपोनमुत्कृष्टं परीतानन्तकं भवति, 'अहवा जहण्ण जुत्ताणतय'मित्यादि, स्पष्ट, 'जहएणयं जुत्ताणतयं केत्तियमित्यादि व्याख्यातार्थमेव । 'अहवा उक्कोसयं परित्ताणतए'इत्यादि, सुबोध, जघन्ये च युक्तानन्तके यावन्ति रूपाणि भवन्ति अभवसिद्धिका अपि जीवाः केवलिना तावन्त एव दृष्टाः, 'तेण पर'मित्यादि, कण्ठ्यम्, 'उक्कोसयं जुत्ताणतयं केत्तिय'मित्यादि, जघन्येन युक्तानन्तकेनाभव्यराशिगुणितो रूपोन: सन्नुत्कृष्टं युक्तानन्तकं भवति, तेन तु रूपेण सह जघन्यमनन्तानन्तक संपद्यते, अत एवाह-'अहवा जहएणयं अणंताणतयमित्यादि, गतार्थ, 'जहषणयं अणंताणतयं केलिय'मित्यादि, भावितार्थमेव, 'अहवा उक्कोसए जुत्ताणतए'इत्यादि, प्रतीतमेव, 'तेण परं अजहण्णुकोसयाई इत्यादि, जघन्यादनन्तानन्तकात् परतः सर्वाण्यपि अजघन्योत्कृष्टान्येवानन्तकानन्तकस्य स्थानानि भवन्ति, उत्कृष्टं स्वनन्तानन्तकं नास्त्येवेत्यभिप्रायः। अन्ये त्वाचार्याः प्रतिपादयन्ति-जघन्यमनन्तानन्तकं वारत्रयं पूर्ववत् वयेते, ततश्चैते षडनन्तकप्रक्षेपाः प्रक्षिप्यन्ते, तद्यथा-"सिद्धा निगोयजीवा वणस्सई काल पुग्गला चेव । सव्वमलोगागासं छप्पेतेऽणतपक्खेवा ॥१॥" अयमर्थः-सर्वे सिद्धाः सर्वे सूक्ष्मवादरनिगोदजीवाः प्रत्येकानन्ताः 8 सर्वे वनस्पतिजन्तवः सर्वोऽप्यतीतानागतवर्तमानकालसमयराशिः सर्वपुद्गलद्रव्यसमूहः सर्वोऽलोकाकाशप ||--|| दीप अनुक्रम [३११ -३१७] Jamaicahan IN पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं ~494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५० ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [३११ -३१७] अनुयो० मलधारीया ॥ २४२ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५०] / गाथा ||११९-१२२|| देशराशिः एते च प्रत्येकमनन्तस्वरूपाः षट् प्रक्षेपाः, एतैश्च प्रक्षिसैय राशिर्जायते स पुनरपि वारत्रयं पूर्ववद्वर्ग्यते, तथाऽप्युत्कृष्टमनन्तानन्तकं न भवति, ततश्च केवलज्ञानकेवलदर्शनपर्यायाः प्रक्षिप्यन्ते, एवं च सत्युत्कृष्टमनन्तानन्तकं संपद्यते, सर्वस्यैव वस्तुजातस्य सङ्गृहीतत्वात्, अतः परं वस्तुसत्त्वस्यैव सङ्ख्याविषयस्याभावादिति भावः, सूत्राभिप्रायस्त्वित्थमप्यनन्तानन्तकमुत्कृष्टं न प्राप्यते, अजघन्योत्कृष्टस्थानानामेव तत्र प्रतिपादितत्वादिति, तस्यं तु केवलिनो विदन्तीति भावः । सूत्रे च यत्र कुत्रापि अनन्तानन्तकं गृह्यते तत्र सर्वत्राजघन्योत्कृष्टं द्रष्टव्यम् । तदेवं प्ररूपितमनन्तानन्तकं, तत्प्ररूपणे च समाप्ता गणनसङ्ख्या ॥ अथ भावसङ्ख्यानिरूपणार्थमाह- 'से किं तं भावसंखा' इत्यादि, इह सङ्ख्या (खा) शब्देन प्रागुक्तयुक्त्या शङ्खाः परिगृह्यन्ते, अत एव नामस्थापनादिबहुविचारविषयत्वात् सङ्ख्याप्रमाणात् गुणप्रमाणं पृथगुक्तम्, अन्यथा सङ्ख्याया अपि गुणत्वाद् गुणप्रमाणे एवान्तर्भावः स्यादिति । तत्र भावशङ्खस्वरूपं दर्शयितुमाह-- 'जे इमे' इत्यादि, ये इमे प्रज्ञापकप्रत्यक्षा लोकप्रसिद्धा वा जीवाः' आयुःप्राणादिमन्तः 'शङ्खगतिनामगोत्राणि' इति शङ्खगतिनामगोत्रशब्देनेह शङ्खप्रायोग्यं तिर्यग्गतिनाम गृह्यते, तस्य चोपलक्षणार्थत्वाद् द्वीन्द्रि यजात्यादारिकशरीराङ्गोपाङ्गादीन्यपि गृह्यन्ते, ततख शङ्खप्रायोग्यं तिर्यग्गत्यादिनामकर्म नीचैर्गोत्रलक्षणं गोत्रकर्म च विपाकतो वेदयन्ति ये जीवास्त एते भावशङ्खाः प्रोच्यन्ते, तदेवं समाप्तं सङ्ख्याप्रमाणम्, अतो निगमयति--' से तं संखष्पमाणेति तत्समाप्ती चावसितं भावप्रमाणमित्याह - 'से तं भावप्पमाणे'ति, वृत्तिः उपक्रमे प्रमाणद्वारं ~ 495~ | ॥ २४२ ॥ For ne&Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः अत्र मुद्रणदोषात् सूत्रक्रमांक १४९ स्थाने सूत्रक्रमांक १५०' इति मुद्रितं Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३१८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १५१] / गाथा || १२२... || एतदवसाने च निःशेषितं प्रमाणद्वारमित्युपसंहरति- 'से तं पमाणे 'ति । प्रमाणद्वारं समासम् ॥ १५० ॥ अथ क्रमप्राप्सं वक्तव्यताद्वारं निरूपयितुमाह अथ 'वक्तव्यता' व्याख्यायते से किं तं वत्तव्वया ?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा ससमयवत्तव्वया परसमयवत्तव्वया ससमयपर समयवत्तव्वया । से किं तं ससमयवत्तव्वया १, २ जत्थ णं ससमए आघविजइ पण्णविज्जइ परूविजइ दंसिज्जइ निदंसिजइ उवदंसिजइ, से तं ससमयवतव्वया । से किं तं परसमयवत्तव्वया १, २ जत्थ णं परसमए आघविजइ जाव उवदंसिजइ, से तं परसमयवत्तव्वया से किं तं ससमयपरसमयवतव्वया ?, २ जत्थ णं ससमए परसमए आघविजइ जाव उवदंसिजइ, से तं ससमयपरसमयवन्तव्वया । इआणीं को णओ कं वत्तव्वयं इच्छइ ?; तत्थ णेगमसंगहववहारा तिविहं वत्तव्वयं इच्छंति, तंजहा- ससमयवत्तव्वयं परसमयवत्तव्वयं ससमयप रसमयवत्तव्वयं, उज्जुसुओ दुविहं वत्तव्वयं इच्छइ, तंजहा ससमयवत्तव्वयं परस For e&Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र - [४५], चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~ 496~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३१८] अनुयो० मलधारीया ॥ २४३ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १५१] / गाथा || १२२... || मयवत्तव्वयं, तत्थ णं जा सा ससमयवत्तव्वया सा ससमयं पविट्ठा, जा सा परसमयवत्तव्वा सा परसमयं पविट्ठा, तम्हा दुविहा वक्तव्वया, नत्थि तिविहा वत्तव्वया, तिष्णि सणया एवं ससमयवत्तव्वयं इच्छंति, नत्थि परसमयवत्तव्वया, कम्हा ?, जम्हा परसमए अणट्टे अहेऊ असम्भावे अकिरिए उम्मग्गे अणुवएसे मिच्छादंसणमिति - कट्टु, तम्हा सव्वा ससमयवन्त्तव्वया णत्थि परसमयवत्तव्वया णत्थि ससमयपरसमयवक्तव्वया । से तं वत्तव्वया ( सू० १५१ ) वृत्तिः उपक्रमे वक्तव्य ० तत्राध्ययनादिषु प्रत्यवयवं यथासम्भवं प्रतिनियतार्थकथनं वक्तव्यता, इयं च त्रिविधा- स्वसमयादिभेदातू, तत्र यस्यां णमिति वाक्यालङ्कारे खसमय:- स्वसिद्धान्तः आख्यायते यथा - पञ्च अस्तिकायाः, तद्यथा-धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्रज्ञाप्यते यथा-गतिलक्षणो धर्मास्तिकाय इत्यादि, तथा प्ररूप्यते यथा स एवासइङ्ख्यातप्रदेशांत्मकादिखरूपः, तथा दर्श्यते दृष्टान्तद्वारेण यथा मत्स्यानां गत्युपष्टम्भकं जलमित्यादि, तथा निर्दिश्यते उपनयद्वारेण यथा तथैवैषोऽपि जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भक इत्यादि, तदेवं दिग्मात्रप्रदर्शनेन ॥ २४३ ॥ व्याख्यातमिदं सूत्राविरोधतोऽन्यथाऽपि व्याख्येयमिति । सेयं स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता तु For ane & Personal Use Oily पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~ 497~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५१] / गाथा ||१२२...|| ............ प्रत सूत्रांक [१५१] यस्यां परसमय आख्यायत इत्यादि, यथा सूत्रकृदङ्गमथमाध्ययने “संति पश्च महन्भूया, इहमेगेसि आहिया। पुढवी आऊ तेऊ (य), वाऊ आगासपंचमा ॥१॥ एए पंच महन्भुया, तेन्भो एगोति आहिया। अह तेसिं विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥२॥” इत्यादि, अस्य च श्लोकदयस्य सूत्रकृवृत्तिकारलिखित एवार्य भावार्थ:-'एकेषां नास्तिकानां खकीयासेन 'आहितानि' आख्यातानि 'इह लोके 'सन्ति' विद्यन्ते पञ्च समस्त लोके व्यापकत्वान्महाभूतानि, तान्येवाह-पृथिवीत्यादि, पञ्चभूतव्यतिरिक्तजीवनिषेधार्थमाह-एए पंचेसत्यादि 'एतानि' अनन्तरोक्तानि पृथिव्यादीनि यानि पञ्च महाभूतानि 'तेभ्य' इति तेभ्य:-कायाकारप-13 |रिणतेभ्यः 'एक' कश्चिचिद्रूपो भूताव्यतिरिक्तः आत्मा भवति, न तु भूतव्यतिरिक्तः परलोकयायीत्येवं ते *'आहिय'त्ति आख्यातवन्तः, अथ तेषां भूतानां विनाशेन देहिनो-जीवस्य विनाशो भवति, तदन्यतिरिक्त-18 स्वादेवेत्येवं लोकायतमतप्रतिपादनपस्त्वात् परसमयवक्तव्यतेयमुच्यते, आख्यायते इत्यादिपदानां तु विभागः पूर्वोक्तानुसारेण खवुज्या कार्यः। सेयं परसमयवक्तव्यता । खसमयपरसमयवक्तव्यता पुनर्यत्र खसमयः परसमया आरुयायते, यथा-'आगारमावसंता वा, आरपणा वावि पन्वया । इमं दरिसणमावन्ना, सव्वदुक्खा विमुचई ॥१॥"त्यादि, व्याख्या-'आगारं गृहं तत्रावसन्तो गृहस्था इत्यर्थः 'आरण्या वा तापसादयः। 'पब्वइय'त्ति प्रवजिताश्च शाक्यादयः, 'इदम् अस्मदीयं मतमापन्ना-आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्त इत्येवं १ विद्यादगारमागारमिति द्विरूपकोशात. दीप अनुक्रम [३१८] JawE IPL पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३१८] अनुयो० मलधारीया ॥ २४४ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १५१] / गाथा || १२२... || यदा साङ्ख्यादयः प्रतिपादयन्ति तदेवं (पं) परसमयवक्तव्यता, यदा तु जैनास्तदा खसमयवक्तव्यता, ततञ्चासी स्वसमय पर समयवक्तव्यतोच्यते । अथ वक्तव्यतामेव नयैर्विचारयन्नाह — 'इआणि को नओ इत्यादि, अत्र नैगमव्यवहारौ त्रिविधामपि वक्तव्यतामिच्छतः, नैगमस्यानेकगमत्वाद्व्यवहार [पर]स्य तु लोकव्यवहारपरत्वात्, लोके व सर्वप्रकाराणां रूढत्वादिति भावः, ऋजुसूत्रस्तु विशुद्धतरत्वादायामेव द्विविधां वक्तव्यतामिच्छति, स्वपरसमयवक्तव्यतानभ्युपगमे युक्तिमाह- 'तत्थ णं जा सा इत्यादि, तृतीयवक्तव्यताभेदे याऽसौ खसमयवक्तव्यता गीयते सा खसमयं प्रविष्टा, कोऽर्थः ? - प्रथमे वक्तव्यताभेदे अन्तर्भूता इत्यर्थः, या तु परसमयवक्तव्यता सा परसमयं प्रविष्टा, द्वितीये वक्तव्यताभेदे अन्तर्भाविता इत्यर्थः, ततश्चोभयरूपवक्तव्यतायाः प्रस्तुतनयमतेऽसत्त्वात् द्विविधैव वक्तव्यता न त्रिविधेति भावः । सङ्ग्रहस्तु सामान्यवादिनैगमान्तर्गतत्वेन विवक्षितत्वात् सूत्रगतिवैचित्र्याद्वा न पृथगुक्त इति । त्रयः शब्दनयाः - शब्दसमभिरूढैवंभूताः शुद्धतमत्वादेकां स्वसमवक्तव्यतामिच्छन्ति, नास्ति परसमयवक्तव्यता इति मन्यन्ते, कस्मादित्याह यस्मात् परसमयोऽनर्थः, इत्यादि, इत्थं चेह योजना कार्या नास्ति परसमयवक्तव्यता, परसमयस्यानर्थत्वादित्यादि, अनर्थत्वं परसमयस्य नास्त्येवात्मेत्यनर्थप्रतिपादकत्वाद्, आत्मनो नास्तित्वस्य चानर्थत्वमात्माभावे तत्प्रतिषेधानुपपत्तेः उक्तं च - "जो चिंतेइ सरीरे नत्थि अहं स एव होइ जीवोत्ति। न हु जीवंमि असंते संसयउपायओ अण्णो १ यश्चिन्तयति शरीरे नास्म्यहं स एव भवति जीव इति। नैव जीवेऽसति संशयोत्पादकोऽन्यः ॥ १ वृत्तिः उपक्रमे वक्तव्य० ~499~ ॥ २४४ For te&Personal Use Oily पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[ ४५], चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५१] दीप अनुक्रम [३१८] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं+वृत्तिः) मूलं [ १५१] / गाथा || १२२... || ॥ १ ॥ इत्याद्यन्यदप्यभ्युधम् । अहेतुत्वं च परसमयस्य हेत्वाभासवलेन प्रवृत्तेः, यथा नास्त्येवात्मा अत्यन्तानुपलब्धेः हेत्वाभासचार्य, ज्ञानादेस्तद्गुणस्योपलब्धेः उक्तं च- “नाणाईण गुणाणं अणुभवओ होइ जंतुणो सत्ता । जह रुवाइगुणाणं उवलंभाओ घडाईण ॥ १ ॥ मित्यादि प्रागेवोक्तमिति, असद्भावत्वं चैकान्तक्षणभङ्गासद्भूतार्थाभिधायकत्वाद्, एकान्तक्षणभङ्गादेशासद्भूतत्वं युक्तिविरोधात्, तथाहि - “धम्माघम्मुवएसो कयाकर्यं परभवाइगमणं च । सब्वावि हु लोपठिई न घड एतखिणयम्मी ॥ १ ॥ "त्यादि, अक्रियात्वं चैकान्तशून्यताप्रतिपादनात् सर्वशून्यतायां च क्रियावतोऽभावेन क्रियाया असम्भवादू, उक्तं च - "सव्यं सुनंति जयं पडिवनं जेहि तेऽवि वक्तव्या । सुन्नाभिहाण किरिया कचुरभावेण कह घडई ॥ १ ॥ - त्यादि, उन्मार्गत्वं परस्परविरोधस्थाण्वाद्याकुलत्वात्, तथाहि - "न हिंस्यात् सर्वभूतानि, स्थावराणि चराणि च। आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स धार्मिकः ॥ १ ॥ इत्याद्यभिधाय पुनरपि "पटू सहस्राणि युज्यन्ते, पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनाश्यूनानि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १ ॥" इत्यादि प्रतिपादयन्तीति, अनुप|देशित्वं चैकान्तक्षणभङ्गादिवादिनामहितेऽपि प्रवर्तकत्वात्, तदुक्तम् - "सर्व क्षणिकमित्येतद्, ज्ञात्वा को न प्रवर्तते । विषयादौ विपाको मे, न भावीति विनिश्चयाद् ॥ १ ॥" इत्यादि, यतश्चैवं ततो मिथ्यादर्शनं, ततयथा रूपादिगुणानामुपलम्भाद् घटादीनाम् ॥ २ ॥ २ धर्माधर्मोपदेशः कृताकृतं परभपगमनादिकं च ३ सर्व शून्यं जगदिति प्रतिपत्रं यैस्तेऽपि वक्तव्याः । शून्याभिधानकिया कर्तुरभावे कथं घटते ! ॥ १ ॥ १] ज्ञानादीनां गुणानामनुभवाज्जन्तोः सत्ता सर्वोऽपि लोकस्थितिर्न पटत एकान्तक्षणिके ॥ १ ॥ For Pane&Personal Use Oily पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५२] / गाथा ||१२३-|| ........... उपक्रमे प्रत सूत्रांक [१५१] अनुयो : अमिथ्यादर्शनमितिकृत्वा नास्ति परसमयवक्तव्यतेति वर्तते, एवं सायादिसमयानामप्यनर्धवादियोजना वृत्तिः मलधा- खबुद्ध्या कार्येति । तस्मात् सर्वा खसमयवक्तव्यतैव, लोके प्रसिद्वानपि परसमयान् स्यात्पदलाञ्छननिरपेरीया क्षतया दुर्नयस्वादसत्त्वेनैते नयाः प्रतिपद्यन्त इति भावः, स्यात्पदलाञ्छनसापेक्षतायां तु खसमयवक्तव्य-III अर्थाधि० ताऽन्तर्भाव एव, प्रोक्तं च महामतिना-"नयास्तव स्यात्पदलान्छिता ईमे, रसोपदिग्धा इव लोहधातवः। भवन्त्यभिप्रेतगुणा यतस्ततो, भवन्तमार्याः प्रणता हितैषिणः॥१॥” इत्यादि, सेयं वक्तव्यतेति निगमनं ॥ वक्तव्यता समासा ॥ १५१॥ साम्प्रतमाधिकारावसर: से किं तं अस्थाहिगारे?, २ जो जस्स अज्झयणस्स अत्थाहिगारो, तंजहा-सावज्जजोगविरई उकित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निंदणा वणतिगिच्छ गुणधा रणा चेव ॥१॥से तं अस्थाहिगारे (सू०१५२) | तत्र यो यस्य सामायिकायध्ययनस्थात्मीयोऽर्थस्तदुत्कीर्तनमाधिकारस्य विषयः, तच्च 'सावज्जजोगविरई-13 दित्यादिगाथावसरे प्रागेव कृतमिति न पुनः प्रतन्यत इति । वक्तव्यतार्थाधिकारयोस्त्वयं भेदः-अर्थाधिकारोड-द ध्ययने आदिपदादारभ्य सर्वपदेष्वनुवर्तते, पुद्गलास्तिकाये प्रतिपरमाणु मूर्तववत्, वक्तब्यता तु देशादिनि-1 यतेति ॥ १५२ ।। अथ समवतारं निरूपयितुमाह ॥२४५॥ १ विभो प्र. ३ विद्धा पा०. दीप अनुक्रम [३१८] M inabraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~501~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५३ ] गाथा |||| दीप अनुक्रम [३२२ -३२४] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५३ ] / गाथा ||९२४- || से किं तं समोआरे १, २ छव्त्रिहे पण्णत्ते, तंजहा-णामसमोआरे ठवणासमोआरे दव्वसमोआरे खेत्तसमोआरे कालसमोआरे भावसमोआरे । नामठवणाओ पुव्वं व पिणआओ जाव से तं भविअसरीरदव्वसमोआरे । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसमोआरे ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा - आयसमोआरे परसमोआरे तदुभयसमोआरे, सव्वदव्वावि णं आयसमोआरेणं आयभावे समोअरंति, परसमोआरेणं जहा कुंडे बदराणि, तदुभयसमोआरेणं जहा घरे खंभो आयभावे अ, जहा घडे गीवा आयभावे अ, अहवा जाणयसरीरभवियसरीरवइरित्ते दव्वसमोआरे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा - आयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ । चउसट्टिआ आयसमो - आरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं बत्तीसिआए समोअरइ आयभावे अ, बत्तीसिआ आयसमोआरेणं आयभावे समोयरइ तदुभयसमोयारेणं सोलसियाए समोयरइ आयभावे अ, सोलसिआ आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभय For re&Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~502~ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| ............ प्रत अनुयो सूत्रांक ककककक [१५३] ॥२४६॥ गाथा ||१|| समोआरेणं अट्ठभाइआए समोअरइ आयभावे अ, अटुभाइआ आयसमोआरेणं वृत्तिः मलधाआयभावे समोअरइ तदुभयसमोआरेणं चउभाइआए समोअरइ आयभावे अ, उपक्रमे रीया समवता० चउभाइया आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं अद्धमाणीए समोअरइ आयभावे अ, अद्धमाणी आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं माणीए समोअरइ आयभावे अ, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसमोआरे । से तं नोआगमओ दव्वसमोआरे । से तं दव्वसमोआरे । समवतरणं-यस्तनां खपरोभयेष्वन्तर्भावचिन्तनं समवतारः, स च नामादिभेदात् पोढा, तत्र नामस्था-1 पिने सुचर्चिते, एवं द्रव्यसमवतारोऽपि द्रव्यावश्यकादिवदभ्यूध वक्तव्या, यावद् ज्ञशरीरभव्यशरीरब्य तिरिक्तो द्रव्यसमवतारस्त्रिविधः प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आत्मसमवतार इत्यादि, तत्र सर्वद्रव्याण्यप्यात्मसमवतारेण अचिन्त्यमानान्यात्मभावे-खकीयस्वरूपे समवतरन्ति-वर्तन्ते, तदव्यतिरिक्तत्वातेषां, व्यवहारतस्तु परसमय-12 दातारेण परभावे समवतरन्ति, यथा कुण्डे बदराणि, निश्चयतः सर्वाण्यपि वस्तूनि प्रागुक्तयुक्त्या खात्मन्येव XI ॥२४६॥ वर्तन्ते, व्यवहारतस्तु खात्मनि आधारे च कुण्डादिके वर्तन्त इति भावः, तदुभयसमवतारेण तदुभये वस्तूनि । KAS5+ दीप + अनुक्रम [३२२-३२४] N abraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~503~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| ......... प्रत सूत्रांक [१५३] गाथा वर्तन्ते, यथा कटकुड्यदेहलीपट्टादिसमुदायात्मके गृहे स्तम्भो वर्तते आत्मभावे च, तथैव दर्शनादिति, एवं वुमोदरकपालात्मके घटे ग्रीवा वर्तते आत्मभावे चेति, आह-यद्येवमशुद्धं तदा परसमवतारो नास्त्येव, कुण्डादौ वृत्तानामपि बदरादीनां स्वात्मनि वृत्तेर्विद्यमानत्वात, सत्यं, किन्तु तत्र स्वात्मनि वृत्तिविवक्षामकृत्वैव तथोपन्यासः कृतो, घस्तुवृत्या तु द्विविध एव समवतारः, अत एवाह-अथवा ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो| द्रव्यसमवतारो द्विविधा प्राप्तः, तद्यथा-आत्मसमवतारस्तदुभयसमवतारच, अशुद्धस्य परसमवतारस्य काप्यसम्भवात, न हि खात्मन्यवर्तमानस्य वान्ध्येयस्येव परस्मिन् समवतारो युज्यत इति भावः, पूर्व चात्म-II वृत्तिविवक्षामात्रेणैव वैविध्यमुक्तमित्यभिहितं । 'चउसहिआ आयसमोआरेण मित्यादि सुयोधमेव, नवरं चतुःषष्टिका चतुष्पलमाना पूर्व निर्णीता, ततश्चैषा लघुप्रमाणवादष्टपलमानत्वेन बृहत्प्रमाणायां द्वात्रिंशति-10 कायां समवतरतीति प्रतीतमेव, एवं द्वात्रिंशतिकाऽपि षोडशपलमानायां षोडशिकायां षोडशिकाऽपि द्वात्रि-8 शत्पलमानायामष्टभागिकायाम् अष्टभागिकाऽपि चतुःषष्टिफ्लमानायां चतुर्भागिकायां चतुर्भागिकाऽप्यष्टाविंशत्यधिकशतपलमानायामर्द्धमाणिकायां एषाऽपि षट्पञ्चाशदधिकपलशतद्वयमानायां माणिकायां समवतरति, आत्मसमवतारस्तु सर्वत्र प्रतीत एव । समासो द्रव्यसमवतार:, अथ क्षेत्रसमवतारं विभणिषुराह-से किं । खेत्तसमोआरे'इत्यादि, इह भरतादीनां लोकपर्यन्तानां क्षेत्रविभागानां यथापूर्व लघुप्रमाणस्य यथोत्तरं बृहक्षेत्रे समवतारो भावनीयः, RA-REAKRA ||१|| दीप अनुक्रम [३२२-३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~504~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............. मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| .............. प्रत सूत्रांक अनुयो. मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे समवता० [१५३] ॥२४७॥ गाथा से किं तं खेत्तसमोआरे?, २ दुविहे पं०, तं०-आयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ, भरहे बासे आयस० आयभावे स०, तदुभयसमोआरेणं जंबूद्दीवे समो० आयभावे अ, जंबूद्दीवे आयसमो० आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं तिरियलोए समोयरइ आयभावे अ, तिरियलोए आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ, तदुभयसमोआरेणं लोए समोअरइ आयभावे अ, से तं खेत्तसमोआरे । से किं तं कालसमोआरे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आयसमोआरे अ तदुभयसमोआरे अ, समए आयसमोआरेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोआरेणं आवलिआए समोयरइ आयभावे अ, एवमाणापाणू थोवे लवे मुहत्ते अहोरते पक्खे मासे ऊऊ अयणे संवच्छरे जुगे वाससए वाससहस्से वाससयसहस्से पुव्वंगे पुवे तुडिअंगे तुडिए अडडंगे अडडे अववंगे अबवे हुहुअंगे हुहुए उप्पलंगे उप्पले पउमंगे पउमे णलिणंगे णलिणे ||१|| दीप ॥२४७॥ अनुक्रम [३२२-३२४] १इतः बढोए गागरामोआरेण आयभाचे समोयरह, तदुभयसमोआरेणं अलोए समोयरइ मायभाये अत्यधिक प्र. JamElication पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~505~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ..... मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| .... प्रत सूत्रांक [१५३] गाथा अच्छनिउरंगे अच्छनिउरे अउअंगे अउए नउअंगे नए पउअंगे पउए चूलिअंगे चूलिआ सीसपहेलिअंगे सीसपहेलिआ पलिओवमे सागरोवमे आयसमोआरेणं आयभावे स० तदुभयसमोआरेणं ओसप्पिणीउस्सप्पिणीसु समोयरइ आयभावे अ, ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ आयसमोआरेणं आयभावे०, तदुभयस० पोग्गलपरिअट्टे समो० आयभावे अ, पोग्गलपरिअहे आयसमोआरेणं आयभावे समोयरइ तदुभयस. तीतद्धाअणागतद्धासु समोयरइ आय०, तीतद्धाअणागतद्धाउ आयस. आयभावे. तदुभयसमोआरेणं सव्वद्धाए समोयरइ आयभावे अ । से तं कालसमोआरे। से किं तं भावसमोआरे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तं-आय० तदुभयस०, कोहे आय. आयभावे स०, तदु० माणे समो० आयभावे अ, एवं माणे माया लोभे रागे मोहणिजे अट्ट कम्मपयडीओ आयसमोआरेणं आयभावे समोअरइ तदुभयसमोआरेणं छविहे भावे समोपरइ आयभावे अ, एवं छविहे भावे, जीवे जीवत्थिकाए आय CASSA ||१|| दीप अनुक्रम [३२२-३२४] R ambraryanvi पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| ..... (४५) प्रत सूत्रांक [१५३] गाथा अनुयो समोआरेणं आयभावे समोयरइ तदुभयसमोआरेणं सव्वदब्वेसु समोअरई आयभावे वृत्तिः मलधाअ । एत्थ संगहणीगाहा-कोहे माणे माया लोभे रागे य मोहणिजे अ । पगडी उपकमे रीया भावे जीवे जीवत्थिकाय दव्वा य ॥१॥ से तं भावसमोआरे । से तं समोआरे । से समवता० ॥२४८॥ तं उबक्कमे । उवक्कम इति पढमं दारं (सू० १५३) एवं कालसमवतारेऽपि समयादेः कालविभागस्य लघुत्वादावलिकादौ बृहति कालविभागे समवतारः सुबोध एव, आत्मसमवतारस्तु सर्वत्र स्पष्ट एव, अथ भावसमवतारं विचक्षुराह-से किं तं भावसमोआरेत्यादि, इहौदायिकभावरूपत्वात् क्रोधादयो भावसमवतारेऽधिकृताः, तत्राहकारमन्तरेण कोपासम्भवान्मानवानेच किल कुप्यतीति कोपस्य माने समवतार उक्तः, क्षपणकाले च मानदलिकं मायायां प्र-17 |क्षिप्य क्षपयतीति मानस्य मायायां समवतारः, मायादलिकमपि क्षपणकाले लोभे प्रक्षिप्य क्षपयतीति माघाया लोभे समवतारः, पथमन्यदपि कारणं परस्परान्तर्भावेऽभ्यूह्य सुधिया वाच्यं, लोभात्मकत्वात्तु रागस्य लोभो [3] रागे समवतरति, रागोऽपि मोहभेदत्वान्मोहे, मोहोऽपि कर्मप्रकारत्वादष्टसु कर्मप्रकृतिषु, कर्मप्रकृतयोऽप्यौदयि18 कौपशमिकादिभाववृत्तित्वात् षट्सु भावेषु, भावा अपि जीवाश्रितत्वाज्जीवे, जीवोऽपि जीवास्तिकायभेदत्वात् ॥२४८॥ jजीवास्तिकाये, जीवास्तिकायोऽपि द्रव्यभेदत्वात्समस्तद्रव्यसमुदाये समवतरतीति, तदेष भावसमवतारो निरू ||१|| दीप अनुक्रम [३२२-३२४] D inabraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~507~ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| ............ प्रत सूत्रांक [१५३] 24-24 ॐॐॐॐ गाथा पितः॥ अन च प्रस्तुते आवश्यके विचार्यमाणे सामायिकाद्यध्ययनमपि क्षायोपशमिकभावरूपत्वात् पूर्वोक्तेस्वानुपूादिभेदेषु क समयतरतीति निरूपणीयमेव, शास्त्रकारप्रवृत्तरन्यन्त्र तथैव दर्शनात्, तच सुखावसेयत्वादिकारणात् सूत्रे न निरूपित, सोपयोगत्वात् स्थानाशून्यत्वार्थ किञ्चिद्वयमेव निरूपयामः-तत्र सामायिकं चतुर्विंशतिस्तव इत्यागुत्कीर्तनविषयत्वात्सामायिकाध्ययनमुत्कीर्तनानुपूी समवतरति, तथा गणनानुपूया च, तथाहि पूानुपूा गण्यमानमिदं प्रथम, पश्चानुपूर्ध्या तु षष्ठम्, अनानुपूयों तु द्वयादिस्थानवृत्तित्वादनियतमिति प्रागेवोक्तं, नानि च औदयिकादिभावभेदात्षण्णामपि प्रागुक्तम्, तत्र सामायिकाध्ययनं श्रुतज्ञानरूपत्वेन क्षायोपशमिकभाववृत्तित्त्वात् क्षायोपशमिकभावनानि समवतरति, आह च भाष्यकार:-"छब्बिहनामे भावे खओवसमिए सुयं समोयरइ । जं सुयनाणावरणकखओवसमयं तयं सव्वं ॥१॥ प्रमाणे च द्रव्यादिभेदैः प्राग्निीते जीवभावरूपत्वाद् भावप्रमाणे इदं समवतरतीति, उक्तं च-"देब्वाइचउन्भेयं पमीयए जेण तं पमाणंति । इणमझयणं भावोत्ति भाव[प]माणे समोयरइ॥१॥" भावप्रमाणं च गुणनयसङ्ख्याभेदतनिधा प्रोक्तं, तत्रास्य गुणसङ्ख्याप्रमाणयोरेवावतारो, नयप्रमाणे तु यद्यपि-आसज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' इत्यादिवचनात् कचिन्नयसमवतार उक्तः, तथापि साम्प्रतं तथाविधनयविचारा १पनिधनानि भाव क्षायोपशमिके भुरी समयतरति । यस्मात् श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशम तकत्सनम् ॥1॥१व्यादिचतुर्द प्रमीयते येन तत्प्रभाष|मिति । इपमध्ययनं भाव इति भावप्रमाणे रामवत्तरति ॥ २ ॥ ३ आसाय तु श्रोतारं नयान नयविशारयो नूयात. ||१|| 4-555 दीप अनुक्रम [३२२-३२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~508~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१५३] / गाथा ||१२४-|| ............ प्रत सूत्रांक [१५३] गाथा ||१|| वृत्तिः अनुयो भावाद्वस्तुवृत्त्याऽनवतार एव, यत इदमप्युक्तम्-"मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोयरंति इह"मित्यादि, उपक्रमे महामतिनाऽप्युक्तम्-"मूढनयं तु न संपई नयप्पमाणावआरो से"त्ति, गुणप्रमाणमपि जीवाजीवगुणभेदतो रीया समवता० | द्विधा प्रोक्तं, तत्रास्य जीवोपयोगरूपत्वाज्जीवगुणप्रमाणे समवतारः, तस्मिन्नपि ज्ञानदर्शनचारित्रभेदतख्या॥२४९॥ स्मके अस्य ज्ञानरूपतया ज्ञानप्रमाणेऽवतारः, तत्रापि प्रत्यक्षानुमानोपमानागमभेदाच्चतुर्विधे प्रकृताध्ययनस्या सोपदेशरूपतया आगमेऽन्तर्भावः, तस्मिन्नपि लौकिकलोकोत्तरभेदभिन्ने परमगुरुपणीतत्वेन लोकोत्तरिके तत्रापि आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदतस्त्रिविधेऽप्यस्य समवतार, सयाप्रमाणेऽपि नामादिभेदभिन्ने| प्रागुक्ते परिमाणसङ्ख्यायामस्यावतारः, वक्तव्यतायामपि खसमयवक्तव्यतायामिदमवतरति, यत्रापि परोभयसमयवर्णनं क्रियते तत्रापि निश्चयतः स्वसमयवक्तव्यतैच, परोभयसमययोरपि सम्यग्दृष्टिपरिगृहीतत्वेन खसमयत्वात् , सम्यन्दृष्टिहि परसमयमपि विषयविभागेन योजयति नत्वेकान्तपक्षनिक्षेपेणेत्यतः सर्वोऽपि तत्परिगृहीतः खसमय एव, अत एव परमार्थतः सर्वाध्ययनानामपि खसमयवक्तव्यतायामेवावतार, तदुक्तम्है| "पैरसमओ उभयं वा सम्मद्दिहिस्स ससमओ जेणं । तो सब्बज्झयणाई ससमयवत्तव्वनिययाई॥१॥" ॥२४९॥ १ मूतनयिक भुतं कालिकं तुम भवाः समबतरन्तीह. २ मूवनयं तु न सम्प्रति नय प्रमाणावताररूस्य. ३ परसमय उभयं या सम्यगष्टेः खरामयो थेन ।। ततः सर्वाज्यध्ययनानि खसमयवतव्यतानियतानि ॥१॥ Jan 18 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: SCREENA दीप अनुक्रम [३२२-३२४] ~509~ Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ........... प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| RECENGACASSROCCCCC एवं चतुर्विशतिस्तवादिष्वपि वाच्यमित्यलमतिविस्तरेणेति समाप्तः समवतारः, तत्समर्थने च समाप्तं प्रथममुपक्रमद्वारम् ।। १५३ ॥ अथ निक्षेपदारं निरूपयितुमाह से किं तं निक्खेवे?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-ओहनिप्फपणे नामनिष्फण्णे सुत्तालावगनिष्फपणे । से किं तं ओहनिप्फण्णे ?, २ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-अज्झयणे अज्झीणे आए खवणा । से किं तं अज्झयणे ?, २ चउव्विहे पण्णत्ते, तंजहा-णामज्झयणे ठवणज्झयणे दवज्झयणे भावज्झयणे, णामट्रवणाओ पुव्वं वपिणआओ, से किं तं दव्यज्झयणे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ णोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दव्यज्झयणे?, २ जस्स णं अज्झयणत्ति पयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव एवं जावइआ अणुवउत्ता आगमओ तावइआई दव्वज्झयणाई, एवमेव ववहारस्सवि, संगहस्स णं एगो वा अणेगो वा जाव, से तं आगमओ दव्यज्झयणे । से किं तं णोआगमओ दव्वज्झयणे?, २ तिविहे पण्णत्ते, दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ ३२५ -३३६] अनुयो० मलधा रीया ।। २५० ।। [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५४] / गाथा || १२५-१३२|| तंजहा - जाणयसरीरदव्वज्झयणे भविअसरीरदव्वज्झयणे जाणयसरीरभविअसरीरवइरिचे द० । से किं तं जाणग० १, २ अज्झयणपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरं ववगयचुअचाविअचत्तदेहं जीवविप्पजढं जाव अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिणं भावेणं अज्झयणेत्तिपयं आघवियं जाव उवदंसियं, जहा को दितो ? - अयं घयकुंभे आसी अयं महुकुंभे आसी, से तं जाणयसरीरदव्वज्झयणे । से किं तं भविअसरीरदव्वज्झयणे १, २ जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदतणं सरीरसमुस्सएणं जिणदिट्टेणं भावेणं अज्झयणेत्तिपयं सेअकाले सिक्खिस्सइ न ताव सिक्खड़, जहा को दिट्टंतो ? - अयं महुकुंभे भविस्सइ अयं घयकुंभे भविस्सइ, सेतं भविअसरीरव्वज्झयणे । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरिने दव्वज्झय?, २ पत्तयपोत्थयलि हियं, से तं जाणयसरीरभविअसरीरखइरित्ते दव्वज्झयणे । से तं णोआगमओ दव्वज्झयणे । से तं दव्वज्झयणे से । किं तं भावज्झयणे १, २ दुविहे वृत्तिः उपक्रमे निक्षेपानु० ~511~ ।। २५० ।। For ane & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५४] CROCHAKAASCACACCCCC गाथा: ||--|| पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ णोआगमओ अ । से किं तं आगमओ भावज्झयणे ?, २ जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावज्झयणे । से किं तं नोआगमओ भावज्झयणे?, २-अज्झप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उवचिआणं । अणुवचओ अ नवाणं तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥१॥से तं णोआगमओ भावज्झयणे । से तं भावज्झयणे, से तं अज्झयणे। का निक्षेप:-पूर्वोक्तशब्दार्थस्त्रिविधःप्रज्ञप्तः, तद्यथा-ओघनिष्पन्न इत्यादि, तत्रौधः-सामान्यमध्ययनादिकं श्रुता-12 लाभिधानं तेन निष्पन्नः ओघनिष्पन्नः, नाम-श्रुतस्यैव सामायिकादिविशेषाभिधानं तेन निष्पन्नो नामनिष्पन्नः.लि सूत्रालापका:--'करेमि भंते! सामाइमित्यादिकास्तनिष्पन्नः सूत्रालापकनिष्पन्नः । एतदेव भेदत्रयं विवरीपुराह-से किं तं ओहनिप्फण्णे इत्यादि, ओघनिष्पन्नश्चतुर्विधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अध्ययनम् अक्षीणम् आयः, क्षपणा, एतानि चत्वार्यपि सामायिकचतुर्विशतिस्तवादिश्रुतविशेषाणां सामान्यनामानि, यथा (यदेव)हिसामायिकमध्ययनमुच्यते तदेवाक्षीणं निगद्यते इदमेवाऽऽयः प्रतिपाद्यते एतदेव क्षपणाऽभिधीयते, एवं चतुर्विंशतिस्तवादिष्वप्यभिधानीयं । साम्प्रतमेतेषां चतुर्णामपि निक्षेपं प्रत्येकमभिधित्सुराह-से किं तं अज्झयणे दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ........ (४५) प्रत अनुयोग सूत्रांक मलधा [१५४] रीया ॥२५ ॥ % -0- गाथा: ||--|| ४ा इत्यादि, नामस्थापनाद्रव्यभावभेदाच्चतुर्विधोऽध्ययनशब्दस्य निक्षेपः, तत्र नामादिविचारः सर्वोऽपि पूर्वोक्त-131 वृत्तिः दाद्रव्यावश्यकानुसारेण वाच्यो यावन्नोआगमतो भावाध्ययने 'अज्झप्पस्साणयणमित्यादि गाथाव्याख्या, 'अ-16 उपक्रमे झप्पस्स आणयणं' इह निरुक्तविधिना प्राकृतखाभाब्याच पकारस्सकारआकारणकारलक्षणमध्यगतवर्णचतुष्ट-निक्षेपानु० हायलोपे अज्झयणमिति भवति, अध्यात्म-चेतस्तस्यानयनमध्ययनमुच्यते इति भावः, आनीयते च सामा|यिकाद्यध्ययने शोभनं चेतः, अस्मिन् सत्यशुभकर्मप्रवन्धविघटनात्, अत एवाह-कर्मणामुपचिताना-प्रागुपनिबद्वानां यतोऽपचयो-हासोऽस्मिन् सति संपद्यते, नवानांचानुपचयः-अवन्धो यतस्तस्मादिदं यथोक्तशब्दार्थ प्रतिपत्तेः अज्झयणं प्राकृतभाषायामिच्छन्ति सूरयः, संस्कृते विदमध्ययनमुच्यत इति, सामाधिकादिकं चादाध्ययनं ज्ञानक्रियासमुदायात्मकं, ततश्चागमस्यैकदेशवृत्तित्वानोशब्दस्य च देशवचनत्वात् नोआगमतो अध्यगायनमिदमुक्तमिति गाथार्थः ।। 'से तमित्यादि निगमनत्रयम् ॥ उक्तमध्ययनम्, अथाक्षीणनिक्षेपं विवक्षुराह से किं तं अज्झीणे ?, २ चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-णामझीणे ठवणज्झीणे दव्वज्झीणे भावज्झीणे । नामठवणाओ पुव्वं वण्णिआओ, से किं तं दव्यज्झीणे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दव्व का॥२५१॥ जझीणे?, २ जस्स णं अज्झीणेत्तिपयं सिक्खियं जियं मियं परिजियं जाव से तं आ -0-9 - दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~513~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| .... प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| गमओ दव्वज्झीणे । से किं तं नोआगमओ दव्यज्झीणे?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा -जाणयसरीरदव्वज्झीणे भविअसरीरदव्वज्झीणे जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्यज्झीणे । से किं तं जाणयसरीरदव्वज्झीणे?, २ अज्झीणपयत्थाहिगारजाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुयचाविअचत्तदेहं जहा दव्यज्झयणे तहा भाणिअव्वं, जाव से तं जाणयसरीरदव्यज्झीणे । से किं तं भविअसरीरदब्वज्झीणे?, २ जे जीवे जोणिजम्मणनिक्खंते जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं भविअसरीरदव्यज्झीणे । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे?, २ सव्वागाससेढी, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वज्झीणे । से तं नोआगमओ दव्वज्झीणे, से तं दव्वज्झीणे । से किं तं भावज्झीणे ?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ भावज्झीणे?, २ जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावज्झीणे । से किं तं नोआगमओ भावज्झीणे? २-जह दीवा दीवसयं पइप्पए दिप्पए अ सो दीप अनुक्रम [३२५-३३६] nabraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~514 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ..... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| .... प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| अनुयो दीवो । दीवसमा आयरिया दिप्पंति परं च दीवति ॥१॥ से तं नोआगमओ भा वृत्तिः मलधा-1 वज्झीणे । से तं भावज्झीणे, से तं अज्झीणे । उपक्रमे रीया निक्षेपानु० ॥२५२॥ अत्रापि तथैव विचारो यावत् 'सब्वागाससेदित्ति सर्वाकाश-लोकालोकनभःस्वरूपं तस्य सम्बन्धिनी | |श्रेणिः प्रदेशापहारतोऽपहियमाणाऽपि न कदाचित् क्षीयते अतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तद्रव्याक्षीणतया |प्रोच्यते, द्रव्यता चास्याऽऽकाशद्रव्यान्तर्गतत्वादिति । 'से किं तं आगमओ भावज्झीणे?, २ जाणए उपउत्ते' अत्र वृद्धा व्याचक्षते-यस्माचतुर्दशपूर्वविदः आगमोपयुक्तस्यान्तर्मुहूर्तमात्रोपयोगकाले येर्थोपलम्भोपयोगपर्या-12 | यास्ते प्रतिसमयमेकैकापहारेणानन्ताभिरप्युत्सर्पिण्यवसर्पिणीभि पहियन्ते अतो भावाक्षीणतेहावसेया. नो-1 आगमतस्तु भावाक्षीणता शिष्येभ्यः सामायिकादिश्रुतप्रदानेऽपि स्वात्मन्यनाशादिति, एतदेवाह-जह दीवागाहा, व्याख्या-यथा दीपाद् अवधिभूताहीपशतं प्रदीप्यते प्रवर्तते, स च मूलभूतो दीपः तथापि दीप्यते-तेनैव रूपेण प्रवर्तते, न तु स्वयं क्षयमुपयाति, प्रकृते सम्बन्धयन्नाह एवं दीपसमा आचार्या दीप्यन्ते-स्वयं विवक्षि तश्रुतयुक्तखेन तथैवावतिष्ठन्ते, परं च-शिष्यवर्ग दीपयन्ति-श्रुतसम्पदं लम्भयन्ति, अत्र च नोआगमतो| ट्राभावाक्षीणता श्रुतदायकाचार्योपयोगस्यागमत्वाद्वाकाययोगयोश्चानागमत्त्वानोशब्दस्य मिश्रवचनस्वाद्भावनी येति वृद्धा व्याचक्षते इति गाथार्थः ॥ अथाऽऽयनिक्षेपं कर्तुमाह 0-9- -- - दीप अनुक्रम [३२५-३३६] ॥२५२॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [३२५ -३३६] अनु. ४३ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५४] / गाथा || १२५-१३२ || से किं तं आए ?, २ चउव्विहे पं० तं०-नामाए ठवणाए दव्वाए भावाए, नामटवणाओ पुव्वं भणिआओ, से किं तं दव्वाए ?, २ दुविहे पं० तं०-आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दवाए १, २ जस्स णं आयत्तिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजियं जाव कम्हा ?, अणुवओगो दव्वमितिकट्टु, नेगमस्स णं जावइआ अणुवउत्ता आगमओ तावइआ ते दव्वाया, जाव से तं आगमओ दव्वाए । से किं तं नोआगमओ दव्वाए ?, २ तिविहे पं०, तं० - जाणयसरीरदव्वाए भविअसरीरदव्वाए जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वाए। से किं तं जाणयसरीरदव्वाए ?, २ आयपयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुअचाविअचत्तदेहं जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं जाणयसरीरदव्वाए । से किं तं भविअसरीरदव्वाए ?, २ जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खते जहा दव्वज्झयणे जाव से तं भविअसरीरदव्वाए । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वाए ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-लोइए कुप्पा For ane & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~516~ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ ३२५ -३३६] अनुयो० मलघारीया ॥ २५३ ॥ Education *9*964-56+ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५४] / गाथा || १२५-१३२|| वयणिए लोगुत्तरिए । से किं तं लोइए ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा - सचिते अचित्ते मी असे किं तं सचित्ते ?, २ तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-दुपयाणं चउप्पयाणं अपयाणं, दुपयाणं दासाणं दासीणं चउप्पयाणं आसाणं हत्थीणं अपयाणं अंबाणं अंबाडगाणं आए, से तं सचित्ते । से किं तं अचित्ते ?, २ सुवण्णरययमणिमोत्तिअसंखसिलप्पवालरत्तरयणाणं (संतसावएजस्स) आए, से तं अचित्ते । से किं तं मीसए?, २ दासाणं दासीणं आसाणं हत्थीणं समाभरिआउज्जालंकियाणं आए, से तं मीसए, सेतं लोइए । से किं तं कुप्पावयणिए ?, २ तिविहे पण्णते, तंजहा- सचित्ते अचित्ते मीसए अ, तिणिवि जहा लोइए, जाव से तं मीसए, से तं कुप्पावयणिए । से किं तं लोगुत्तरिए ?, २ तिविहे पं० तं०- सचित्ते अचित्ते मीसए अ । से किं तं सचित्ते ?, २ सीसाणं सिस्सणिआणं, से तं सचित्ते । से किं तं अचित्ते?, २ पडिग्गहाणं वत्थाणं कंबलानं पाय पुंखणाणं आए, से तं अचित्ते । से किं तं मीसए १, २ सिस्साणं सिस्स वृत्तिः उपक्रमे ओषनि० Forte & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 517 ~ ॥ २५३ ॥ ibrary dig Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| णिआणं सभंडोवगरणाणं आए, से तं मीसए, से तं लोगुत्तरिए, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दवाए, से तं नोआगमओ दवाए, से तं दवाए। से किं तं भावाए?, दुविहे पं०, तं०-आगमओ अ नोआगमओ अ। से किं तं आगमओ भावाए?, २ जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावाए । से किं तं नोआगमओ भावाए?, २ दुविहे पं०, तं-पसत्थे अ अपसत्थे अ। से किं तं पसत्थे ?, २ तिविहे पं० तं.-णाणाए दंसणाए चरित्ताए, से तं पसत्थे । से किं तं अपसत्थे ?, २ चउठिवहे पं० त०-कोहाए माणाए मायाए लोहाए, से तं अपसत्थे । से तं णोआगमओ भावाए, से तं भावाए, से तं आए। आयः प्राप्सिर्लाभ इत्यनर्थान्तरम् , अस्यापि नामादिभेदभिन्नस्य विचारः सूत्रसिद्ध एव, यावत् 'से किं तं अचित्ते?, २ सुवण्णे त्यादि, लौकिकोऽचित्तस्य सुवर्णादेरायो मन्तव्यः, तत्र सुवर्णादीनि प्रतीतानि 'सिलत्ति है शिला मुक्ताशैलराजपट्टादीनां, रक्तरत्नानि-पद्मरागरत्नानि 'संतसावएजस्सति सद्-विद्यमानं खापतेयं दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~518~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ ३२५ -३३६] अनुयो० मलधा रीया ॥ २५४ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५४] / गाथा || १२५-१३२ || Education द्रव्यं तस्याऽऽयः, 'समाभरियाज्ज्जालंकियाणं 'ति आ (समा) भरितानां सुवर्णसङ्कलिकादिभूषितानां आतोये| झल्लरीप्रमुखैरलङ्कृतानाम् || अथ क्षपणानिक्षेपं चित्रक्षुराह से किं तं झवणा १, २ चडव्विहा पण्णत्ता, तंजहा - नामज्झवणा ठवणज्झवणा दव्वझवणा भावज्झवणा । नामठवणाओ पुव्वं भणिआओ। से किं तं दव्वज्झवणा ?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा- आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ दव्वज्झवणा ?, २ जस्स णं झवणेतिपयं सिक्खियं ठियं जियं मियं परिजिअं जाव से तं आगमओ दव्वज्झवणा । से किं तं नोआगमओ दव्वज्झवणा १, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - जाणयसरीरदव्वज्झवणा भविअसरीरव्वज्झवणा जाणयसरीरभविअसंरीवइरित्ता दव्वज्झवणा । से किं तं जाणय० १, २ झवणापयत्थाहिगार जाणयस्स जं सरीरयं ववगयचुअ० सेसं जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं जाणय० । से किं तं भवि० दव्व० १, २ जे जीवे जोणिजम्मणणिक्खते सेसं जहा दव्वज्झयणे, जाव से तं भवि वृत्तिः उपकमे ओघनि० For one & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~519~ ॥ २५४ ॥ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ....... प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| असरीरदव्वज्झवणा । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ता दव्वज्झवणा?, २ जहा जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दवाए तहा भाणिअव्वा, जाव से तं मीसिआ, से तं लोगुत्तरिआ, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ता दव्वज्झवणा, से तं नोआगमओ दव्यज्झवणा, से तं दव्वझवणा । से किं तं भावज्झवणा?, २ दुविहा पपणत्ता, तंजहा-आगमओ अ णोआगमओ असे किं तं आगमओ भावज्झवणा?, २ जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावज्झवणा । से किं तं णोआगमओ भावज्झवणा?, २ दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पसत्था य अपसत्था य । से किं तं पसस्था ?, २ तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-नाणज्झवणा दंसणज्झवणा चरित्तज्झवणा, से तं पसत्था । से किं तं अपसत्था?, २ चउव्विहा पपणत्ता, तंजहा-कोहज्झवणा माणज्झवणा मायज्झवणा लोहज्झवणा, से तं अपसत्था । से तं नोआगमओ भावज्झवणा, से तं भावझवणा, से तं झवणा, से तं ओहनिष्फपणे। दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~520~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........ मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ....... प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमे [१५४] नामनि ॥२५५॥ गाथा: ||--|| अनुयोग क्षपणा अपचयो निर्जरा इति पर्यायाः, शेष सूत्रसिद्धमेव, यावदोघनिष्पन्नो निक्षेपः समाप्तः । सर्वत्र चेह हि भावे विचार्येऽध्ययनमेवायोजनीयम् ॥ अथ नामनिष्पन्ननिक्षेपमाहरीया से किं तं नामनिप्फण्णे?, २ सामाइए, से समासओ चउविहे पं०, तं०–णामसामाइए ठवणासामाइए दव्वसामाइए भावसामाइए । णामठवणाओ पुव्वं भणिआओ । दव्वसामाइएवि तहेव, जाव से तं भविअसरीरदव्वसामाइए । से किं तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए ?, २ पत्तयपोत्थयलिहियं, से तं जाणयसरीरभविअसरीरवइरित्ते दव्वसामाइए, से तं णोआगमओ दव्वसामाइए, से तं दव्वसामाइए । से किं तं भावसामाइए?, २ दुविहे पं०, तं०-आगमओ अ नोआगमओ अ । से किं तं आगमओ भावसामाइए?, २ जाणए उवउत्ते, से तं आगमओ भावसामाइए । से किं तं नोआगमओ भावसामाइए?, २-जस्स सामाणिओ अप्पा, संजमे णिअमे तवे । तस्स सामाइअं होइ, इइ केवलिभासि ॥१॥ जो समो स EACCESSAREER दीप अनुक्रम [३२५-३३६] ॥२५५॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~521 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५४ ] गाथा: II--II दीप अनुक्रम [ ३२५ -३३६] [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [१५४] / गाथा || १२५-१३२|| व्वभूएसु, तसेसु थावरेसु अ । तस्स सामाइयं होइ, इइ केवलिभासिअं ॥ २ ॥ जह मम ण पिअं दुक्खं जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ अ सममणइ तेण सो समणो ॥ ३ ॥ णत्थि य से कोइ वेसो पिओ अ सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ॥ ४ ॥ उरंगगिरिजलणसागरनहतलतरुंगसमो अ जो होइ । भमरमियधरणिजलरुहरविपवणसमो अ सो समणो ॥ ५ ॥ तो समणो जइ सुमणो भावेण य जइ ण होइ पावमणो । सयणे अ जणे अ समो समो अमाणावमाणे ॥ ६ ॥ से तं नोआगमो भावसामाइए, से तं भावसामाइए, से तं सामाइए, से तं नामनिष्फण्णे । इहाध्ययनाक्षीणाद्यपेक्षया सामायिकमिति वैशेषिकं नाम, इदं चोपलक्षणं चतुर्विंशतिस्तवादीनाम्, अस्यापि पूर्वोक्तशब्दार्थस्य सामायिकस्य नामस्थापनाद्रव्य भावभेदाचतुर्विधो निक्षेपः, अत एवाह-'से समा सओ चउब्बिहे' इत्यादि, सूत्रसिद्धमेव, यावत् 'जस्स सामाणिओ अप्पा' इत्यादि, यस्य-सत्त्वस्य सामानिक: For ane & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~ 522~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ......... प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| अनुयोसन्निहित आत्मा सर्वकालं व्यापारात् क?-संयमे-मूलगुणरूपे नियमे-उत्तरगुणसमूहात्मके तपसि-अनशमलधा- नादौ तस्येत्थंभूतस्य सामायिक भवतीत्येतत्केवलिभाषितमिति श्लोकार्थः ॥ 'जो समो' इत्यादि, यः समः उपक्रमे रीया सर्वत्र मैत्रीभावाचल्या 'सर्वभूतेषु सर्वजीवेषु बसेषु स्थावरेषु च तस्य सामायिकं भवतीत्येतदपि केवलि- नामनि० साभाषितं, जीवेषु च समत्वं संयमसान्निध्यप्रतिपादनात्पूर्वश्लोकेऽपि लभ्यते, किन्तु जीवदयामूलवाद्धर्मस्य । ॥२५६॥ तत्प्राधान्यख्यापनाय पृथगुपादानमिति । यत एव हि सर्वभूतेषु समोऽत एव साधुः समणो भण्यते इति भावं | दर्शयन्नाह-जह मम' गाहा, व्याख्या-यथा 'मम' स्वात्मनि हननादिजनितं दुःखं न प्रियं एवमेव सर्वजीवानां तन्नाभीष्टमिति 'ज्ञात्वा' चेतसि भावयित्वा समस्तानपि जीवान्न हन्ति स्वयं, नाप्यन्यैर्घातयति, चशब्दात् प्रतश्चान्यान्न समनुजानीत इत्यनेन प्रकारेण सममणतित्ति-सर्वजीवेषु तुल्यं वर्तते यतस्तेनासी समण इति गालाथार्थः॥ तदेवं सर्वजीवेषु समत्वेन सममणतीति समण इत्येकः पर्यायो दर्शितः, एवं समं मनोऽस्येति समना | इत्यन्योऽपि पर्यायो भवत्येवेति दर्शयन्नाह–णस्थि य से गाहा, व्याख्या-नास्ति च 'सें तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा, सर्वेष्वपि जीवेषु सममनस्त्वाद् , अनेन भवति समं मनोऽस्येति निरुक्तविधिना समना इत्येषोऽ-12 ट्रन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः॥ तदेवं पूर्वोक्तप्रकारेण सामायिकवतः साधोः स्वरूपं निरूप्य प्रकारान्तरेणाऽपि तन्निरूपणार्थमाह-उरग'गाहा, स श्रमणो भवतीति सर्वत्र संबध्यते, यः कथंभूतो भवतीत्याह-उरग: म ॥२५६॥ सर्पस्तत्समः परकूताश्रयनिवासादिति, एवं समशब्दोऽपि सर्वत्र योज्यते, तधा गिरिसमा परीषहोपसर्ग-18 दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~523~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ........ प्रत सूत्रांक [१५४] गाथा: ||--|| निष्पकम्पत्वात् , ज्वलनसमा तपस्तेजोमयत्वात् , तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः, सागरसमो गम्भीरत्वाद् ज्ञानादिरत्नाकरत्वात् खमर्यादानतिक्रमाच, नभस्तलसमः सर्वत्र निरालम्बनत्वात्, तरुगणसमः सुखदुःखयोरदर्शितविकारत्वात्, भ्रमरसमोऽनियतवृत्तित्वात्, मृगसमः संसारभयोद्विग्नत्वात् , धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात् , जलरुहसमः कामभोगोद्भवत्वेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तव॑वृत्तेः, रविसमा धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्याविशेषेण प्रकाशकत्वात्, पवनसमश्च सर्वत्राप्रतिवद्धत्वात् , स एवंभूतः श्रमणो भवतीति गाधार्थः । यथोक्तगुणविशिष्टश्च श्रमणस्तदा भवति यदा शोभनं मनो भवेदिति दर्शयति-तो समणों'गाहा, व्याख्या-ततः श्रमणो यदि द्रव्यमन आश्रित्य सुमना भवेत्, "भावन च' भावमनश्चाश्रित्य यदि न भवति पापमनाः, सुमनस्त्वचिहान्येव श्रमणगुणत्वेन दर्शयति-खजने च-पुत्रादिके जने च-सामान्ये समो-निर्विशेषः। मानापमानयोश्च सम इति गाथार्थः ॥ इह च ज्ञानक्रियारूपं सामायिकाध्ययनं नोआगमतो भावसामायिकं भवत्येव, ज्ञानक्रियासमुदाये आगमस्यैकदेशवृत्तित्वात्, नोशब्दस्य च देशवचनवाद्, एवं च सति सामायिकवतः साधोरपीह नोआगमतो भावसामायिकत्वेनोपन्यासो न विरुध्यते, सामायिकतद्बतोरभेदो। पचारादिति भावः ॥ नामनिरूपन्नो निक्षेपः समाप्तः ॥ अथ सूत्रालापकनिष्पन्नं निक्षेपं निर्दिदिक्षुराह मास्त्रीदं प्र. २ गुणरत्मपरिपूर्णत्वाद् ज्ञानादिगुणैरगायत्वादा स.प्र.३ संसार प्रति नियोद्विमत्वात् प्र. ४ सर्वसहत्वात् प्र.५ निष्पकत्वात् पङ्कजलस्थानीयमाकामभोगोपरिश्तेरियर्थः प्र.६ तमोविघातकत्वात् प्र. दीप अनुक्रम [३२५-३३६] RAKESARE* पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~524~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ...... मूलं [१५४] / गाथा ||१२५-१३२|| ....... प्रत सूत्रांक अनुयो. मलधा [१५४] रीया ॥ २५७॥ गाथा: ||--|| से किं तं सुत्तालावगनिप्फपणे ?, २ इआणि सुत्तालावयनिष्फण्णं निक्खेवं इच्छावेइ से दृत्तिः अ पत्तलक्खणेऽविण णिक्खिप्पइ, कम्हा?, लाघवत्थं, अस्थि इओ तइए अणुओगदारे उपक्रमे सूत्राला अणुगमेत्ति, तत्थ णिक्खित्ते इह णिक्खित्ते भवइ, इह वा णिक्खित्ते तत्थ णिक्खित्ते भवइ, तम्हा इह ण णिक्खिप्पइ तहिं चेव निक्खिप्पइ, से तं निक्खेवे (सू०१५४) अथ कोऽयं सूत्रालापकनिष्पन्नो निक्षेपः?, 'करोमि भदन्त ! सामायिक' इत्यादीनां सूत्रालापकानां नामस्थापनादिभेदभिन्नो यो न्यासः स सूत्रालापकनिष्पन्नो निक्षेप इति शेषः, 'इयाणिमित्यादि, स चेदानीं सूत्रालापकनिष्पन्नो निक्षेप एष इत्यवसरमाप्तत्वादिस्थमात्मानं प्रतिपादयितुं वाञ्छामुत्पादयति, स च प्राप्तलक्षणोऽपि-प्राप्ततत्स्वरूपाभिधानसमयोऽपि न निक्षिप्यते-न सूत्रालापकनिक्षेपद्वारेणाभिधीयते, कस्मादित्याह--लाघवार्थ, तदेव लाघवं दर्शयति-अस्ति अतोऽग्रे तृतीयमनुयोगद्वारमनुगम इति, तत्र च निक्षिप्तः। सूत्रालापकसमूह इह निक्षिप्तो भवति, इह वा निक्षिप्तस्तत्र निक्षिप्तो भवति, तस्मादिह न निक्षिप्यते, तत्रैव निक्षेप्स्यत इति, आह-यद्येवमत्रैव निक्षिप्यते न पुनस्तत्रेत्यपि कस्मान्नोच्यते ?, नैवं, यतः सूत्रानुगमे एव | सूत्रमुचारयिष्यते, नात्र, न च सूत्रोचारणमन्तरेण तदालापकानां निक्षेपो युक्तः, ततो युक्तमुक्तं-तस्मा-15२५७॥ दिह न निक्षिप्यते इत्यादि । पुनरप्याह-ययेवं किमर्थ सूत्रालापकनिक्षेपस्य अनोपन्यासः?, उच्यते, निक्षेप दीप अनुक्रम [३२५-३३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~525 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः) ...... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३४|| ..... प्रत सूत्रांक [१५५] साम्यमात्रादित्यलं विस्तरेण । निक्षेपलक्षणं द्वितीयमनुयोगद्वारं समाप्तम् ॥ १५४ ॥ अथ तृतीयमनुयोगद्वारं निरूपयितुमाह से किं तं अणुगमे?, २ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुत्ताणुगमे अ निजुत्तिअणुगमे । से किं तं निज्जुत्तिअणुगमे १, २तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे सुत्तप्फासिअनिज्जुत्तिअणुगमे । से किं तं निक्खेवनिज्जुत्तिअणुगमे ?, २ अणुगए, से तं निक्लेवनिज्जुत्तिअणुगमे । से किं तं उवग्घायनिज्जुत्तिअणुगमे ?, २ इमाहिं दोहिं मूलगाहाहिं अणुगंतव्वो, तंजहा-उद्देसे १ निदेसे अ२ निग्गमे ३ खेत्त ४ काल ५ पुरिसे य ६ । कारण ७ पच्चय ८ लक्खण ९ नए १० समोआरणाणुमए ११॥ १॥ किं १२ कइविहं १३ कस्स १४ कहिं १५ केसु २६ कह १७ किच्चिरं हवइ कालं १८? । कइ १९ संतर २० मविरहियं २१ भवा २२ गरिस २३फासण २४ निरुत्ती २५॥२॥ से तं उवग्यायनिजुत्तिअणुगमे । गाथा: ||१-२|| CROSSSSSCRIGANGRESS दीप अनुक्रम [३३७-३४० JanEducatarina पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~5264 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३४|| ........ प्रत वृत्ति अनुयो मलधा सूत्रांक रीया अनुगमा [१५५] गाथा: ||१-२|| HEART अनुगमः-पूर्वोक्तशब्दार्थः, स च द्विधा-सूत्रानुगम:-सूत्रव्याख्यानमित्यर्थः, 'निर्युक्त्यनुगमश्च नितरां युक्ताःला -सूत्रेण सह लोलीभावेन सम्बद्धा निर्युक्ता-अर्थास्तेषां युक्तिः-स्फुटरूपतापादनम् एकस्य युक्तशब्दस्य । उपक्रमे लोपानियुक्ति-नामस्थापनादिप्रकार: सूत्रविभजनेत्यर्थः, तद्रूपोऽनुगमस्तस्था वा अनुगमो-व्याख्यानं नियुक्त्यनुगमः, स च विविधो-निक्षेपो-जामस्थापनादिभेदभिन्नः तस्य तद्विषया वा नियुक्ति:-पूर्वोक्तशब्दार्था निक्षेपनियुक्ति, तद्रूपस्तस्या वाऽनुगमो निक्षेपनियुक्त्यनुगमः । तथा उपोदूधननं-व्याख्येयस्य सूत्रस्य व्याख्यामाविधिसमीपीकरणमुपोद्घातस्तस्य तद्विषया वा नियुक्तिस्तद्रूपस्तस्या वा अनुगमः उपोद्घातनियुक्त्यनुगमः, तथा सूत्रं स्पृशतीति सूत्रस्पर्शिका सा चासी नियुक्तिश्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः। सूत्रनिक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतो वक्ष्यते च, इदमुक्तं भवति-अत्रैव प्रागावश्यकसामायिकादिपदानां नामस्थापनादिनिक्षेपद्वारेण पद्व्याख्यानं | कृतं तेन निक्षेपनियुक्त्यनुगमोऽनुगतः-प्रोक्तो द्रष्टव्यः, सूत्रालापकानां नामादिनिक्षेपप्रस्तावे पुनर्वक्ष्यते च । उपोदूधातनिर्युक्त्यनुगमस्त्वाभ्यां द्वाभ्यां द्वारगाथाभ्यामनुगन्तव्यः, तद्यथा-'उद्देसे'गाहा 'किं कहविहंगाहा, व्याख्या-उद्देशनमुद्देशः-सामान्याभिधानरूपो, यथा अध्ययनमिति, वक्तव्य इति सर्वत्र क्रिया द्रष्टव्या, तथा निर्देशनं निर्देशो-विशेषाभिधानं, यथा सामायिकमिति, अब्राह-ननु सामान्यविशेषाभिधानद्वयं निक्षेपद्वारे पोक्तमेव, तस्किमितीह पुनरुच्यते?, नैतदेवं, यतोऽत्र सिद्धस्यैव तत्र तस्य निक्षेपमात्राभिधानं कृत- २५॥ मित्यदोषः । तथा निर्गमनं-निर्गमः, कुतः सामायिक निर्गतमित्येवरूपो वक्तव्या, तथा क्षेत्रकालीच ययोः दीप अनुक्रम [३३७-३४० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~527~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३४|| ......... प्रत सूत्रांक [१५५] 1 गाथा: ||१-२|| सामायिकमुत्पन्नं तो वक्तव्यौ, यद्वक्ष्यत्यावश्यके-"वइसाहसुद्धएफारसीऍ पुब्वण्हदेसकालंमि । महसेणवमाणुजाणे अर्णतर परंपरं सेसं ॥१॥"ति तथा कुतः पुरुषात्तन्निर्गतमिति वक्तव्यं, तथा केन कारणेन गौतमादयः। सामायिक भगवतः समीपे शृण्वन्तीत्येवंरूपं कारणं वाच्यं, यदभिधास्यति-"गोर्यमाई सामाइयं तु किं कारणं निसामितीत्यादि, तथा प्रत्याययतीति प्रत्ययः, केन प्रत्ययेन भगवतेदमुपदिष्टं ?, केन वा प्रत्ययेन गणधरास्तेनोपदिष्टं तच्छृण्वन्तीत्येतद्वक्तव्यमित्यर्थः, तथा च वक्ष्यति- केवल नाणित्ति अहं अरिहा सामाइयं परिकहेई । तेसिपि पचओ खलु सव्वन्नू तो निसामिति ॥१॥"त्ति, तथा सम्यक्त्वसामायिकस्य तत्त्वश्रद्धानं लक्षणं, श्रुतसामायिकस्य जीवादिपरिज्ञानं, चारित्रसामायिकस्य सावधविरतिः, देशविरतिसामायिकस्य तु विरस्यविरतिखरूप मिश्रं लक्षणं, निर्देष्यति च-"सद्दहण जाणणा खलु विरई मीसं च लक्षणं कहए'इ. त्यादि, एवं नैगमादयो नया वाच्या, तेषां च नयानां समवतरणं समवतारो यन्त्र संभवति तत्र दर्शनीयो, यतो निवेदयिष्यति-"मूढनइयं सुयं कालियं तु न नया समोअरति इहं । अपुहुत्ते समोयारो नत्थि पुहुत्ते समोयारो॥१॥” इत्यादि, तथा कस्य व्यवहारादेः किं सामायिकमनुमतमित्यभिधानीयं, भणिष्यति च १ वैशाखाकादश्यां पूल हदेशकाले । महासेनानीबाने अनन्तरं परम्परं शेषमिति ॥१॥ १मीतमादयः सामायिक कारणं निशाम्यन्ति. 1३ केवलज्ञानीखहमईन् सामायिक परिकथयति । तेषामपि प्रत्ययः खल सबैशः ततो निशाम्यन्ति ॥१॥ ४ श्रद्धानं ज्ञानं बळ विरतिमि च लक्षणं कथयति. IPL५मूढनयिकं श्रुतं कालिकं तु न नयाः समयतरन्तीह । अष्टवक्त्वे समवतारो नास्ति पृथक्त्वे समवतारः ॥१॥ भयु. ४४ % दीप अनुक्रम [३३७-३४० braryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~528~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा: ॥१-२|| दीप अनुक्रम [3369 -३४०] अनुयो० मलधा रीया ॥ २५९ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५५] / गाथा ||१९३३-१३४ || "तेवसंजमो अणुमओ निग्गंधं पवयणं च ववहारो । सहुज्जुसुयाणं पुण निव्वाणं संजमो चेव ॥ १ ॥ "ति, किं सामायिकमित्यत्र प्रत्युत्तरयिष्यति - "जीवो गुणपडिवण्णो णयस्स दव्वद्वियस्स सामइय" मित्यादि, कतिविधं तदित्यत्र निर्वचनविष्यति - "सामाइयं च तिविहं समत्त सुयं तहा चरितं चेत्यादि, कस्य सामा| विकमित्यत्राभिधास्यति - "जैस्स सामाणिओ अप्पा' इत्यादि, क सामायिकमित्येतदपि – “खेत्तदिसकालगइभवियस णिउस्सासदिट्टिमाहारे इत्यादिना द्वारकपालेन निरूपयिष्यति, केषु सामायिकमित्यत्रोत्तरं सर्वद्रव्येषु, तथाहि "सर्व्वगयं सम्मत्तं सुए चरिते न पज्जवा सव्वे । देसविरहं पहुंचा दुण्हवि पडिसेहणं कुजा ||२१||" इति दर्शयिष्यति, कथं सामायिकमवाप्यत इत्यत्र - "माणुस्स खेत जाई कुलख्वारोग आउयं बुद्धीत्यादि प्रतिपादयिष्यति, कियचिरं कालं तद्भवतीति चिन्तायामभिधास्यति – “सम्मत्तस्स सुपरस य छावहि सागरोवमाइ ठिइ । सेसाण पुष्वकोडी देसूणा होइ उक्कोसा ॥ १ ॥” 'कइति कियन्तः सामायिकस्य युगपत् प्रतिपद्यमानकाः पूर्वप्रतिपन्ना वा लभ्यन्ते इति वक्तव्यं, भणिष्यति च – “सम्मत्तदेसविरया पलियस्स असंख वृत्तिः उपक्रमे अनुगमे० १ तपःसंयमोऽनुमतो नैर्ग्रन्थं प्रवचनं च व्यवहारः शब्दसुत्राणां पुनर्निर्वाणं संगमचैव ॥ १ ॥ २ जीयो गुणप्रतियो नयस्य द्रव्यार्थिकस्य सामायिकम् ३ सामायिकं च त्रिविधं सम्यक्त्वं श्रुतं तथा चारित्रं च ४ यस्य सामानिकः (सत्रिहित) आत्मा ५ क्षेत्र विकालगतिभव्यसंयुच्छ्रासह ६ सर्वगतं सम्यक्त्वं ते चारित्रे न पर्यवाः सर्वे देशविरतिं प्रतीत्य द्वयोरपि प्रतिषेधनं कुर्यात् ॥ १ ॥ ७ मानुष्यं क्षेत्र जातिः कुलं रूपमारोग्यमायुर्बुद्धिः ८ सम्यक्त्वस्य ४ ॥ २५९ ॥ श्रुतस्य च षट्षष्टिः सागरोपमाणि स्थितिः शेषयोः पूर्वकोटी देशोना भवत्युत्कृष्टा ॥१॥ ९ सम्यक्त्व देश विरती पस्यास सयभागमात्रास्तु. For & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः ~ 529~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ..... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३४|| ...... 6. *- *- प्रत सूत्रांक [१५५] *- गाथा: ||१-२|| भागमेत्ता उ"इत्यादि, सहान्तरेण वर्तत इति सान्तरमिति विचारणायां निर्णेष्यति-"कालमर्णतं च सुए अद्धापरियओ य देसूणो। आसायणबहुलाणं उकोसं अंतरं होई ॥१॥"त्ति, अविरहितं-निरन्तरं कियन्तं कालं सामायिकपतिपत्तारो लभ्यन्त इत्यत्रावेदयिष्यति-"सम्मसुयअगारीणं आवलियअसंखभागमेत्ता उ। अडसमया चरित्ते सब्वेसु जहण्णओ समओ ॥१॥" इत्यादि, कियन्तो भवान् उत्कृष्टतस्तद्वाप्यत इत्यत्र प्रतिवचनं दास्यति-"सम्मत्सदेसविरया पलियस्स असंखभागमेत्ता उ । अट्ठभवा उ चरिते अणंतकालं च सुपसमए ॥१॥” आकर्षणमाकर्ष:-एकस्मिन्नानाभवेषु वा पुनः पुनः सामायिकस्य ग्रहणानि प्रतिपत्तय इति वाच्यं, तच वक्ष्यति-"तिमहं सहसपुहुतं सयप्पुहुतं च होइ विरईए । एगभवे आगरिसा एवइया होंति नायब्बा ॥१॥ तिण्ह सहस्समसंखा सहसपुहुतं च होह विरईए । नाणाभवे आगरिसा एवइया हुंति नायब्बा ॥२॥” इति, 'फासण'त्ति कियत् क्षेत्रं सामायिकवन्तः स्पृशन्तीत्यभिधानीयं, तचैवम्-"सम्मत्तचरणसहिया सव्वं लोगं फुसे निरवसेसं । सत्त य चउदसभाए पंच प सुयदेसविरईए ॥१॥” इत्यादि, कालोऽनन्तब श्रुते अर्धपरावर्तव देशोनः । आशातनाबहुलानामुत्कटमन्तरं भवति ॥१॥ २ सम्पकत्व तागारिणामावलिकासख्यभागमात्रास्तु । असमयावारिने सर्वेषु जघन्यतः समयः ॥॥ ३ सम्यक्त्वदेश मिरवाः पल्यस्यासत्यभागमानास्तु । अष्टभवाश्चारित्रेऽनन्तकालय श्रुतसमये ॥१॥ ४ प्रयाणां सहपृथक्त्वं वातपृथक् च भवति विरती एकस्मिन् भवे आकषर्षा एतावन्तो भवन्ति ज्ञातव्याः॥१॥ त्रयाणां सहसमसदस्याः सहस्पृथक्त्वं च भवति पिरती । नानाभवेषाकर्षा एतावन्तो भवन्ति शतव्याः ॥२॥ ५ सभ्यक्रवचरणसहिताः सर्वे लोक स्पृशेभिरवशेषम् । सप्त च चतुर्दशभागान पञ्च च श्रुतदेशपिरलोः ॥1॥ दीप अनुक्रम [३३७-३४० JEScitam पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~530~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५५ ] गाथा: ॥१-२॥ दीप अनुक्रम [३३७ -३४०] अनुयो० मलधा रीया ॥ २६० ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५५] / गाथा || १३३-१३५ || निश्चिता उक्तिर्निरुक्तिर्वक्तव्या, तत्र च - " संमदिट्ठि अमोहो सोही सम्भाव दंसणं वोही । अविवज्रओ सुदिद्वित्ति एवमाई निरुत्ताइ ॥ १ ॥” मित्यादि वक्ष्यति, एवं तावद्गाथाद्वयसंक्षेपार्थः, विस्तरार्थस्त्वावश्यकनियुक्तिटीकाभ्यामवसेय इति । तदेवमेतद्गाथाद्वयव्याख्याने उपोद्घातनिर्युक्तिः समर्थिता भवति, अस्यां च प्रस्तुताध्ययनस्याशेषविशेषेषु विचारितेषु सत्सु सूत्रं व्याख्यानयोग्यतामानीतं भवति, ततः प्रत्यवयवं सूत्रव्याख्यानरूपाया: सूत्रस्पर्शक निर्युक्तेरवसरः संपद्यते, सूत्रं च सूत्रानुगमे सत्येव भवति, सोऽध्यवसर प्राप्त एव, ततस्तमभिधित्सुराह— से किं तं सुत्तफासिनिज्जुत्तिअणुगमे १, २ सुतं उच्चारेअव्वं अक्खलिअं अमिलिअं अवच्चामेलिअं पडिपुण्णं पडिपुण्णघोसं कंठोट्टविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं, तओ तत्थ णजिहिति ससमयपयं वा परसमयपयं वा बंधपयं वा मोक्खपयं वा सामाइअपयं वा णोसामाइअपयं वा, तओ तम्मि उच्चारिए समाणे केसिं च णं भगवंताणं केइ अथाहिगारा अहिगया भवन्ति, केइ अत्थाहिगारा अणहिगया भवन्ति, ततो तेसिं १] सम्यग्दृष्टिरमोहः शोधिः सद्भायो दर्शनं योधिः । अविपर्ययः सुरष्टिरिति एवमादीनि निरुतानि ॥ १ ॥ वृत्तिः उपक्रमे अनुगमे० ~531~ ॥ २६० ॥ For late & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ............ मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| कि प्रत सूत्रांक [१५५] -%A5 गाथा: ||१-३|| अणहिगयाणं अहिगमणहाए पयं पएणं वन्नइस्सामि,-संहिया य पदं चेव, पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी अ, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥१॥ से तं सुत्तप्फासियनिज्जुतिअणुगमे, से तं निज्जुत्तिअणुगमे, से तं अणुगमे (सू० १५५) आह-ननु यदि यथोक्तनीत्या सूत्रानुगमे सत्येव सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रयोजनं, तर्हि किमित्यसावुपोद्घातनियुक्त्यनन्तरमुपन्यस्ता?, यावता सूत्रानुगर्म निर्दिश्य पश्चात्किमिति नोच्यते?, सत्यं, किन्तु नियुक्तिसाम्यासत्प्रस्ताव एव निर्दिष्टेत्यदोषः । प्रकृतमुच्यते-तत्रास्खलितादिपदानां व्याख्या यहैव प्रान्द्रध्यावश्यक-1|| विचारे कृता तथैव द्रष्टव्या, अयं च सूत्रदोषपरिहारः शेषसूत्रलक्षणस्योपलक्षणं, तचेदम्-"अप्परगंथमहत्य बत्तीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं, अहि य गुणेहि उववेयं ॥ १॥” अस्था व्याख्या-अल्पग्रन्थं च तत् महाध चेति समाहारद्वन्द्वः 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सदि'त्यादिवत्सूत्रमल्पग्रन्थं महाथै च भवतीत्यर्थः, यच्च द्वात्रिंशद्दोषविरहितं तत्सूत्रं भवति, के पुनस्ते द्वात्रिंशद्दोषाः ये सूत्रे वर्जनीयाः?, उच्यते, “अलियमबघायजणयं निरत्ययमत्थयं छलं दुहिल । निस्सारमहियमूणं पुणरुतं वाहयमजुत्तं ॥१॥ कर्मभिनवयणभिन्न विभत्तिभिन्नं च लिंगभिन्नं च। अणभिहियमपयमेव य सहावहीणं ववहियं च ॥ २॥ कालजतिच्छविदोसो समयविरुद्धं च वयणमित्तं च। अस्थावत्तीदोसो नेओ असमासदोसो य॥३॥ उव % दीप अनुक्रम [३३७-३४२] kambraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~532~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| .......... प्रत सूत्रांक वृत्तिः उपक्रमे अनुगमे० [१५५] रीया गाथा: ||१-३|| अनुयोमारूषगवोसो निदेसर्पयस्यसचिवोसो य । एए अ सुत्तदोसा बत्तीसा हुंति नायब्वा ॥४॥” तत्रावृतमभूमलधा- तोडावनं भूतनिवार्थ, यथा ईश्वरकर्तृकं जगदित्याचभूतोद्भावनं, नास्त्यात्मेत्यादिकस्तु भूतनिहवः १, उप-| घातः सत्त्वघातादिः, संजनकं यथा वेदविहिता हिंसा धर्मायेत्यादि २, निरर्थकं यत्र वर्णानां क्रमनिर्देशमा॥२६॥ मुपलभ्यते न त्वर्थों, यथा अआइईत्यादि डित्यादिवद्वा ३, असम्बद्धार्थकमपार्थकं यथा दश दाडिमानि । षडप्पाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्डस्त्वर कीटिके दिशमुदीचीमित्यादि ४, यत्रानिष्टस्यार्थान्तरस्थ सम्भवतो विवक्षितार्थीपघात: कर्तुं शक्यते तच्छलं यथा-नवकम्बलो देवदत्त इत्यादि ५, जन्तूनामहितोपदेशकत्वेन पापच्यापारपोषकं दुहिलं यथा 'एतावानेव लोकोऽयं, यावानिन्द्रियगोचरः। भद्रे! वृकपदं पठ्य, यद्बदन्त्यपहुंश्रुताः॥१॥ पिय खाद च चारुलोचने !, यदतीतं वरगात्रि! तन्न ते । न हि भीरु! गतं निवर्तते, समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥२॥ इत्यादि ६, वेदवचनादिवत् तथाविधयुक्तिरहितं परिफल्गु निःसारं ७, अक्षरपदादिभिरतिमात्रमधिकं ८, तैरेव हीनमूनम्, अथवा हेतोदृष्टान्तस्य वाऽऽधिक्ये सत्यधिकं, यथा-अनित्यः | शब्द: कृतकस्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वाभ्यां घटपटवदित्यादि, एकस्मिन् साध्ये एक एव हेतुर्दृष्टान्ता वक्तव्यः । अत्र च प्रत्येकं पाभिधानादाधिक्यमिति भावः, हेतुदृष्टान्ताभ्यामेव हीनमूनं, यथा अनित्यः शब्दो घटवदिति, | यथा अनित्यः शब्दः कृतकवादित्यादि ९, पुनरुक्तं द्विधा-शब्दतोऽर्थतश्च, तथाऽर्थादापन्नस्य पुनर्वचनं पुनरुक्तं, | तत्र शब्दतः पुनरुक्तं यथा घटो घट इत्यादि, अर्थतः पुनरुक्तं यथा घटः कुटः कुम्भ इत्यादि, अर्थादापन्नस्य R दीप अनुक्रम [३३७-३४२] ECRece २६१॥ पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~533~ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| ........ प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा: ||१-३|| पुनर्वचनं यथा पीनो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते इत्युक्ते अर्थादापन्नं रात्रौ भुङ्ग इति, तत्रार्थापनमपि य एतमात्साक्षाद् यात्तस्य पुनरुक्तता १०, व्याहतं यत्र पूर्वेण परं विहन्यते यथा-'कर्म चास्ति फलं चास्ति. कर्ता न त्वस्ति कर्मणा'मित्यादि ११, अयुक्तमनुपपत्तिक्षम यथा-तेषां कटतटभ्रष्टैगजानां मदबिन्दुभिरित्यादि १२,12 क्रमभिन्नं यत्र क्रमो नाराध्यते यथा-स्पर्श नरसनघ्राणचक्षुश्रोत्राणामर्थाः स्पर्शरसगन्धरूपशब्दा इति वक्तव्ये स्पर्शरूपशब्दगन्धरसा इति ब्रूयात् इत्यादि १३, वचनभिन्नं यत्र वचनव्यत्ययो यथा वृक्षाः ऋती पुष्पितः त्यादि १४, विभक्तिभिन्नं यत्र विभक्तिव्यत्ययो यथा वृक्षं पश्य इति वक्तव्ये वृक्षः पश्य इति ब्रूयादित्यादि| १५, लिङ्गभिन्नं यत्रलिङ्गव्यत्ययो यथा अयं स्त्रीत्यादि १६, अनभिहितं-स्खसिद्धान्तानुपदिष्टं यथा सप्तमः पदार्थों वैशेषिकस्य,प्रकृतिपुरुषाध्यधिक सालयस्य, दुःखसमुदायमार्गनिरोधलक्षणचतरार्यसत्यातिरिक्तं वा बौद्धस्येत्यादि| १७, यत्रान्यच्छन्दोऽधिकारेऽन्यच्छन्दोऽभिधानं तदपदं, यथाऽऽयोपदेऽभिधातव्ये वैतालीयपदमभिध्यादित्यादि १८, यन्त्र वस्तुखभावोऽन्यथास्थितोऽन्यथाऽभिधीयते तत्स्वभावहीनं, यथा शीतो बहिः मूर्तिमदाका शमित्यादि १०, यत्र प्रकृतं मुक्त्वाऽप्रकृतं व्यासतोऽभिधाय पुनः प्रकृतमुच्यते तद्व्यवहितं २०, कालदोषो ४ यत्रातीतादिकालव्यत्ययो यथा रामो वनं प्रविवेशेति वक्तव्ये रामो वनं प्रविशतीत्याह २१, यतिदोषोऽस्थानविरतिः सर्वथाऽविरतिर्वा २२, छविरलङ्कारविशेषस्तेन शून्यं छविदोषः २३, समयविरुद्ध खसिद्धान्तविरुद्धं 8 यथा सायस्यासत् कारणे कार्य, वैशेषिकस्य वा सदिति २४, वचनमात्र निर्हेतुकं, यथा कश्चिद्यथेच्छया कञ्चि दीप अनुक्रम [३३७-३४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~534~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा: ||१-३|| दीप अनुक्रम [३३७ -३४२] अनुयो० मला रीया ।। २६२ ।। [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [ १५५] / गाथा || १३३-१३५|| त्मदेशं लोकमध्यतया जनेभ्यः प्ररूपयति २५, यत्रार्थापत्त्याऽनिष्टमापतति तत्रार्थापत्तिदोषो, यथा गृहकुक्कुटो न हन्तव्य इत्युक्तेऽर्थापत्त्या शेषघातोऽदृष्ट इत्यापतति २६, यत्र समासविधिप्राप्तौ समासं न करोति व्यत्यॐ येन वा करोति तत्रासमासदोषः २७, उपमादोषो यत्र हीनोपमा क्रियते, यथा मेरुः सर्षपोपमः, अघिकोपमा वा क्रियते यथा सर्षपो मेरुसन्निभः, अनुपमा यथा मेरुः समुद्रोपम इत्यादि २८, रूपकदोषः खरूपभूतानामवयवानां व्यत्ययो यथा पर्वते निरूपयितव्ये शिखरादस्तदवयवान्निरूपयति, अन्यस्य वा समुद्रादेः सम्बन्धिनोऽवयवस्तत्र निरूपयतीति २९, निर्देशदोषस्तत्र यत्र निर्दिष्टपदानामेकवाक्यता न क्रियते, यथेह देवदत्तः स्थाल्यामोदनं पचतीत्यभिधातव्ये पचतिशब्दं नाभिधत्ते ३०, पदार्थदोषो यत्र वस्तुनि पर्यायोऽपि सन् पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते यथा सतो भावः सत्तेतिकृत्वा वस्तुपर्याय एव सत्ता, सा च वैशेषिकैः षट्सु | पदार्थेषु मध्ये पदार्थान्तरत्वेन कल्प्यते तच्चायुक्तं, वस्तूनामनन्तपर्यायत्वेन पदार्थानन्त्यप्रसङ्गादिति ३१, यत्र सन्धिमासौ तं न करोति दुष्टं वा करोति तत्र सन्धिदोषः ३२, एते द्वात्रिंशत्सूत्रदोषाः, एतैर्विरहितं यत्तल्लक्षणयुक्तं सूत्रं । अष्टाभिश्च गुणैरुपपेतं यत्तल्लक्षणयुक्तमिति वर्तते । ते चेमे गुणाः- “निद्दोसं सारवतं च, हेउजुत्तमलंकियं । उवणीयं सोवयारं च, मियं महुरमेव य ॥ १॥ तत्र निर्दोषं सर्वदोषविप्रमुक्तं १, सारवगोशब्द बहुपर्यायं २, हेतवः - अन्वयव्यतिरेकलक्षणास्तैर्युक्तम् ३, उपमोत्प्रेक्षालङ्कारैरलङ्कतम् ४, उपनयोपसंहृतमुपनीतं ५, ग्राम्यभणितिरहितं सोपचारं ६, वर्णादिनियतपरिमाणं मितं ७, श्रवणमनोहरं मधुरम् ८ । अन्यैश्च कैश्चिदू षड् वृति: उपक्रमे अनुगमे० ~535~ ॥ २६२ ॥ For Tate & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ... आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि - रचिता वृत्तिः Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| ........ प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा: ||१-३|| गुणाः सूत्रस्य पश्यन्ते, तद्यथा-"अप्पक्खरमसंदिदं, सारवं विस्सओमुहं । अस्थोभमणवजं च, सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥१॥ यत्राल्पाक्षरं-मिताक्षरं यथा सामायिकसूत्रम्, असन्दिग्धं-सैन्धवशब्दवद्यल्लवणवसनतुरगाद्यनेकार्थसंशयकारि न भवति, सारवत्त्वं च पूर्ववत्, विश्वतोमुखं प्रतिसूत्रं चरणानुयोगाद्यनुयोगचतुष्टयव्याख्याक्षम, यथा-'धम्मो मंगलमुकिमित्यादिश्लोके चत्वारोऽप्यनुयोगा व्याख्यायन्ते, अथवा अनन्तार्थत्वाद् यतो विश्वतोमुखं ततः सारवदित्येवं सारवत्त्वस्यैव हेतुभावेनेदं योज्यते, अस्मिंश्च व्याख्याने पञ्चैवैते गुणा भवन्ति, स्तोभका:-चकारवाशब्दादयो निपातास्तैर्वियुक्तमस्तोभकम्, अनवयं कामादिपापच्यापाराप्ररूपकं, एवंभूतं सूत्रं सर्वज्ञभाषितमिति । यैस्तु पूर्वे अष्ट सूत्रगुणाः प्रोक्तास्तेऽनन्तरश्लोकोक्तगुणास्तेज्वेवाष्टसु गुणेष्वन्तर्भावयन्ति, ये त्वनन्तरश्लोकोक्तानेव सूत्रगुणानिच्छन्ति ते अमीभिरेव पूर्वोक्तानामष्टानामपि सङ्ग्रहं प्रतिपादयन्ति । एवं सूत्रानुगमे समस्तदोषविप्रमुक्ते लक्षणयुक्ते सूत्रे उचारिते ततो ज्ञास्यते यदु-पाल तैतत्वसमयगतजीवाद्यर्थप्रतिपादकं पदं खसमयपदं, परसमयगतप्रधानेश्वराद्यर्थप्रतिपादकं पदं परसमयपदं, अनयोरेव मध्ये परसमयपदं देहिनां कुवासनाहेतुखाइन्धपदमितरतु सद्बोधकारणत्वान्मोक्षपदमिति तावदेके, अन्ये तु व्याचक्षते-प्रकृतिस्थित्यनुभावप्रदेशलक्षणभेदभिन्नस्य बन्धस्य प्रतिपादकं पदं बन्धपदम् , सद्बोधकारकोणत्वात् कृत्लकर्मक्षयलक्षणस्य मोक्षस्य प्रतिपादकं पदं मोक्षपदमिति । आह-नन्वत्र व्याख्याने वन्धमोक्षप्रतिपा दकं पदद्वयं खसमयपदानातिरिच्यते तत्किमिति भेदेनोपन्यासः?, सत्यं, किन्तु स्वसमयपदस्थाप्यभिधेयवै दीप अनुक्रम [३३७-३४२] 355 Pra nabraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~536~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ........... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| प्रत सूत्रांक [१५५] ACCOct गाथा: ||१-३|| चित्र्यदर्शनार्थो भेदेनोपन्यासः, अत एव सामायिकप्रतिपादक पदं सामायिकपदमित्यादावपि भेदेनोपादानं वृत्ति मलधा- सार्थकमिति, सामायिकव्यतिरिक्तानां नारकतिर्यगाद्यर्थानां प्रतिपादकं पदं नोसामायिकपदमित्येतच सूत्रोचा- उपक्रमे रीया रणस्य फलं दर्शितम् , इदमुक्तं भवति-यतः सूत्रे समुच्चारिते खसमयपदादिपरिज्ञानं भवति ततस्तदुच्चारणीय-16 | अनुगमे० ॥२६॥द मेव, ततस्तस्मिन् सूत्रे उच्चारितमात्र एव सति केषाश्चिद्भगवतां साधूनां यथोक्तनीया केचिदर्थाधिकारा अ-15 अधिगता:-परिज्ञाता भवन्ति, केचित्तु क्षयोपशमवैचित्र्यादनधिगता भवन्ति, ततस्तेषामनधिगतानामर्धाधिकाराणामधिगमार्थं पदेन पदं वर्णयिष्यामि, एकैकं पदं व्याख्यास्यामीत्यर्थः । तत्र व्याख्यालक्षणमेव तावदाह -'संहिया ये'त्यादि, तत्रास्वलितपदोचारण संहिता, यथा 'करोमि भयान्त! सामायिक मित्यादि, पदं तु करोमीस्येक पदं भयान्त इति द्वितीयं सामायिकमिति तृतीयम् इत्यादि, पदार्थस्तु करोमीयभ्युपगमो भयान्त इति गुमश्रणं समस्यायः सामायिकमित्यादिका, पदविग्रहः समासः, स चानेकपदानामेकत्वापादानविषयो यथा भयस्यान्तो भयान्त इत्यादि, सूत्रस्यार्थस्य वा अनुपपत्त्युद्भावनं चालना, तस्यैवानेकोपपत्तिभिस्तथैव स्थापनं प्रसिद्धिः, एते च चालनाप्रसिद्धी आवश्यके सामायिकव्याख्यावसरे खस्थान एव विस्तरबत्यो द्र8ष्टव्ये, एवं षड्विधं विद्धि'जानीहि लक्षणं व्याख्याया इति प्रक्रमागम्यते इति श्लोकार्थः । अत्राह-नन्वस्याः| दापधिव्याख्याया मध्ये किया सूत्रानुगमस्य विषयः? को वा सूत्रालापकनिक्षेपस्य? कश्च सूत्रस्पर्शिकनि-3॥२६३।। आयुक्तेः? किं वा नयैर्विषयीक्रियते?, उच्यते, सूत्रं सपदच्छेदं तावदभिधाय सूत्रानुगमः कृतप्रयोजनो भवति, A दीप अनुक्रम [३३७-३४२] ambraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~537~ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ....... मूलं [१५५] / गाथा ||१३३-१३५|| ........... प्रत सूत्रांक [१५५] गाथा: ||१-३|| सूत्रानुगमेन च सूत्रे समुचारिते पदच्छेदे च कृते सूत्रालापकानामेव नामस्थापनादिनिक्षेपमात्रमभिधाय मूबालापकनिक्षेपः कृतार्थों भवति, शेषस्तु पदार्थपदविग्रहादिनियोगः सर्वोऽपि सूत्रस्पर्शिकनियुक्ते, वक्ष्यमाणनेगमादिनयानामपि प्रायः स एव पदार्थादिविचारो विषयः, ततो वस्तुवृत्त्या सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्यन्त चिन एवं नया:, आह च भाष्यकार:-"होई कयत्थो वोत्तुं सपयच्छेयं सुर्य सुयाणुगमो । सुत्तालावगनासो ना-1 माइन्नासविणिओगं ॥१॥ सुत्तफासियनिज्जुत्तिविणिओगो सेसओ पयत्थाइ । पार्य सो चिय नेगमनयाइमयगोयरो होइ ॥२॥" अनेन च विधिना सूत्रे व्याख्यायमाने सूत्रं सूत्रानुगमादयश्च युगपत्समाप्यन्ते, यत आह भाष्यसुधाम्भोनिधिः-"सुत्तं सुत्ताणुगमो सुत्तालाषयकओ य निक्खेयो । सुत्तफासिपनिज्जुत्ती नया य समगं तु वचंति ॥१॥” इत्यलं विस्तरेण । 'से तं अणुगमो'त्ति अनुगमः समाप्तः ॥१५५ ॥ अथ नयद्वारमभिधित्सुराह सें किं तं णए ?, सत्त मूलणया पण्णत्ता, तंजहा-णेगमे संगहे ववहारे उज्जुसुए सदे समभिरूढे एवंभूए, तत्थ-णेगेहिं माणेहिं मिणइत्ति णेगमस्स य निरुत्ती । सेसाणंपि १ भवति कृतार्थ उक्त्वा सपदच्छेद सूत्र सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥१॥ सूत्रस्पर्शकनिथुकिविनियोगः शेषकः पदार्थादिः । प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २॥ २सूर्य सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पकिनियुक्तिनयाय समकं तु मणन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [३३७-३४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: अथ 'नय' प्ररुपणा आरभ्यते ~538~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| .... वृत्तिः प्रत अनुयो मलधारीया उपक्रमे सूत्रांक नयाणं लक्खणमिणमो सुणह वोच्छं ॥ १ ॥ संगहिअपिंडिअत्थं संगहवयणं समासओ बिति । वच्चइ विणिच्छिअत्थं ववहारो सव्वदब्वेसुं॥२॥ पञ्चप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेअव्वो । इच्छइ विसेसियतरं पञ्चुप्पण्णं णओ सदो ॥३॥ वत्थूओ संकमणं होइ अवत्थू नए समभिरूढे । वंजणअत्थतदुभयं एवंभूओ विसे नयाधि० [१५६] ॥२६४॥ गाथा: ||१-६|| अथ कोऽयं पूर्वोक्तशब्दार्थो नयः?, तत्रोत्तरभेदापेक्षया ससैव मूलभूता नया मूलनयाः, तयथा-नैगम इत्यादि, तत्र नैगम व्याचिख्यासुराह-णेगेहिमित्यादि गाथा, व्याख्या-न एकं नैकं प्रभूतानीत्यर्थः, नैकर्मानमहासत्तासामान्यविशेषादिज्ञानर्मिमीते मिनोति वा वस्तूनि परिच्छिनत्तीति नैगमः इतीयं नैगमस्य नि-2 रुक्तिः-व्युत्पत्तिः, अथवा निगमा-लोके वसामि तिर्यग्लोके वसामीत्यादयः पूर्वोक्ता एव बहवः परिच्छेदास्तेषु भवो नैगमः, शेषाणामपि नयानां सङ्ग्रहादीनां लक्षणमिदं शृणुत वक्ष्येऽहमिति गाथार्थः ॥ यथाप्रतिज्ञातमेवाह-संगहिगाहा, व्याख्या-सम्यग् गृहीत-उपात्तः सङ्गृहीतः पिण्डित एकजातिमापन्नोऽर्थों विषयो यस्य सङ्ग्रहवचनस्य तत्सङ्गृहीतपिण्डिताथै सङ्ग्रहस्य वचनं सङ्ग्रहवचनं 'समासतः' संक्षेपतो ब्रुवते तीर्थकरगणधराः, अयं हि सामान्यमेवेच्छति न विशेषान्, ततोऽस्य वचनं सगृहीतसामान्यार्थमेव भवति, ॥२६॥ दीप अनुक्रम [३४३-३५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~539~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ....... प्रत सूत्रांक [१५६] अत एव सङ्कगृह्णाति सामान्यरूपतया सर्व वस्तु क्रोडीकरोतीति सङ्घहोऽयमुच्यते, युक्तिश्चात्र लेशतः प्रा-12 ग्दर्शितैव, 'बच्चईत्यादि, निराधिक्ये चयनं चया-पिण्डीभवनं अधिकश्चयो निश्चयः-सामान्यं विगतो निॐश्चयो चिनिश्चयो-सामान्याभावः तदर्थ-तन्निमित्तं व्रजति-प्रवर्तते, सामान्याभावायैव सर्वदा यतते व्यव हारो नय इत्यर्थः, क?-'सर्वद्रव्येषु सर्वद्रव्यविषये, लोके हि घटस्तम्भाम्भोरुहादयो विशेषा एवं प्रायो जलाहरणादिक्रियासूपयुज्यमाना दृश्यन्ते न पुनस्तदतिरिक्तं सामान्यम्, अतो लोकव्यवहारानङ्गत्वात्सामान्यमसौ नेच्छत्तीति भावः, अत एव लोकव्यवहारप्रधानो नयो व्यवहारनयोऽसावुच्यते, युक्तिश्चात्रापि लेशतः मागुक्तव, अथवा विशेषेण निश्चयो विनिश्चय:-आगोपालाद्यङ्गनाद्यवयोधो न कतिपयविद्वत्सम्बद्धः तदर्थ व्रजति व्यवहारनयः सर्वद्रव्येषु, इदमुक्तं भवति-यद्यपि निश्चयेन घटादिवस्तूनि सर्वाण्यपि प्रत्येकं पञ्चवपनि द्विगन्धानि पञ्चरसान्यष्टस्पर्शानि तथापि गोपालाङ्गनादीनां यत्रैव कचिदेकस्मिन् स्थले कालनीलव दी विनिश्चयो भवति तमेवासौ सत्त्वेन प्रतिपद्यते न शेषान, लोकव्यवहारपरत्वादेवेति गाथार्थः ॥ 'पञ्चुसप्पन्न गाहा, साम्प्रतमुत्पन्नं प्रत्युत्पन्नमुच्यते, वर्तमानकालभावीत्यर्थः, तदू ग्रहीतुं शीलमस्येति प्रत्युत्पन्नग्राही ऋजुसूत्रो नयविधिMणितव्या, तत्रातीतानागताभ्युपगमकुटिलतापरिहारेण ऋजु-अकुटिलं वर्तमानकालसाभावि वस्तु सूत्रपतीति फाजुसूत्रा, अतीतानागतयोर्विनाशानुत्पत्तिभ्यामसत्त्वादू, असदभ्युपगमा कुटिल इति भावः, अथवा ऋजु-अवक्रं श्रुतमस्येति ऋजुश्रुतः, शेषज्ञानमुख्यतया तथाविधपरोपकारासाधनात् श्रुतज्ञा %A4545453 गाथा: ||१-६|| दीप अनुक्रम [३४३-३५०] अनु. ५ nabraryana पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~540~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ........ प्रत अनुयो० सूत्रांक मलधा रीया [१५६] ॥२६५॥ गाथा: ||१-६|| CCCCCCX नमेवैकमिच्छत्तीत्यर्थः, उक्तं च-"सुयनाणे अनिउत्त, केवले तयणंतरं । अप्पणो य परेसिं च, जम्हा तं परि-8 वृत्तिः भावगं ॥१॥"ति, अयं च नयो वर्तमानमपीच्छन् खकीयमेवेच्छति, परकीयस्य वाभिमतकार्यासाधकत्वेन वस्तुतोऽसत्त्वादिति, अपरं च-भिन्नलिङ्गैर्मिन्नवचनैश्च शब्दैरेकमपि वस्त्वभिधीयत इति प्रतिजानीते, यथा | नयाधि० तटः तटी तटमित्यादि, तथा गुरुर्गुरव इत्यादि, तथा इन्द्रादेर्नामस्थापनादिभेदान प्रतिपद्यते, वक्ष्यमाणनयस्त्वतिविशुद्धत्वाल्लिङ्गवचनभेदावस्तुभेदं प्रतिपत्स्यते नामस्थापनाद्रव्याणि च नाभ्युपगमिष्यतीति भावः, इत्युक्त ऋजुसूत्रः, अथ शब्द उच्यते-तत्र 'शप आक्रोशे' शप्यते-अभिधीयते वस्त्वनेनेति शब्दः, तमेव गुणीभूतार्थ मुख्यतया यो मन्यते स नयोऽप्युपचाराच्छब्दः, अयं च प्रत्युत्पन्न-वर्तमानं तदपि ऋजुसूत्राभ्युपगमापेक्षया विशेषिततरमिच्छति, तथाहि-तटस्तटी तटमित्यादिशब्दानां भिन्नान्येवाभिधेयानि, भिन्नलिङ्गत्तित्वात्, स्त्रीपुरुषनपुंसकशब्दवदित्यसौ प्रतिपद्यते, तथा गुरुर्गुरव इत्यत्राप्यभिधेयभेद एव, भिन्नवचन-1 त्तित्वात्पुरुषः पुरुषा इत्यादिवदिति, नामस्थापनाद्रव्यरूपाश्च नेन्द्राः, तत्कार्याकरणात् , खपुष्पवदिति, प्राक्तनाद्विशुद्धत्वाद्विशेषिततरोऽस्याभ्युपगमा, समानलिङ्गवचनानां तु बहूनामपि शब्दानामेकमभिधेयमसौ मन्यते, यथेन्द्रः शक्रः पुरन्दर इत्यादि, इति गाथार्थः ॥ 'वत्थूओं'इत्यादि, वस्तुनः-इन्द्रादेः सङ्कमणमन्यत्र शक्रादाविति दृश्यं, भवति अवस्त्वसंभवतीत्यर्थः, केत्याह-नये समभिरूढे, समभिरूढनयमतेनेत्यर्थः, तत्र १ धुतज्ञाने च नियुक्तं, (नियोक्तुं योग्य ) केवले तदनन्तरम् । आत्मनश्च परेषां च यस्मात्तत् परिभानकम् ॥ १॥ CAMCEOCCASEACHERS दीप अनुक्रम [३४३-३५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~541~ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ........ प्रत सूत्रांक [१५६] गाथा: ||१-६|| वाचकभेदेनापरापरान् वाच्यविशेषान् समभिरोहति-समभिगच्छति प्रतिपद्यत इति समभिरूढा, अपमत्र भावार्थ:-इन्द्रशक्रपुरन्दरादिशब्दान् अनन्तरं शन्दनयेन एकाभिषेयत्वेनेष्टानसी विशुद्धतरत्वात् प्रत्येकं|8/ दाभिन्नाभिधेयान् प्रतिपद्यते, भिन्नप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , सुरमनुजादिशब्दवत्, तथाहि-इन्दतीति इन्द्रः शक्रो-| तीति शक्रः पुरं दारयतीति पुरन्दरः, इह परमैश्वर्यादीनि भिन्नान्येवात्र प्रवृत्तिनिमित्तानि, एवमप्येकार्थत्वे | 31 अतिप्रसङ्गो, घटपटादिशब्दानामप्येकार्थताऽऽपत्तेः, एवं च सति यथा इन्द्रशब्दः शक्रशब्देन सहकार्थ उच्यते तदा वस्तुनः परमैश्वर्यस्य शकनलक्षणे वस्त्वन्तरे सङ्कमणं कृतं भवति, तयोरेकत्वमापादितं भवतीत्यर्थः, तिचासम्भविवादवस्तु, न हि य एव परमैश्वर्यपर्यायः स एव शकनपर्यायो भवितुमर्हति, सर्वपर्यायसाङ्कर्या पत्तितोऽतिमसङ्गादित्यलं विस्तरेण, उक्तः समभिरूढः । 'वंजणअत्थे' त्यादि, यत्क्रियाविशिष्टं शब्देनोच्यते तामेव क्रियां कुर्वद्वस्त्वेवंभूतमुच्यते, एवं-या शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः प्रकारस्तमेवं भूतं-प्राप्समितिकृत्वा, सतश्चैवंभूतवस्तुप्रतिपादको नयोऽप्युपचारादेवंभूतः, अथवा एवं-यः शब्देनोच्यते चेष्टाक्रियादिकः प्रकार-17 स्तद्विशिष्टस्यैव वस्तुनोऽभ्युपगमात्तमेवं भूत:-प्राप्त एवंभूत इत्युपचारमन्तरेणापि व्याख्यायते, स एवंभूतो, दिनयः किमित्याह-व्यज्यतेऽर्थोऽनेनेति व्यञ्जनं-शब्दः अर्थस्तु-तदभिधेयवस्तुरूपः, व्यञ्जनं चार्थश्च व्यञ्जनार्थी तीच ती तदुभयं चेति समासः, व्यञ्जनार्थशब्दयोर्व्यस्तनिर्देशः प्राकृतत्वात् तद्व्यञ्जनार्थतदुभयं विशेषयति-17 ४ नैयत्येन स्थापयति, इदमत्र हृदयम्-शब्दमर्थनार्थं च शब्देन विशेषयति, यथा 'घट चेष्टायां घटते योषिन्म-18 AAAAAAAS दीप अनुक्रम [३४३-३५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~542~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ...... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ........... प्रत अनुयो सूत्रांक मलधारीया [१५६] ॥२६६॥ गाथा: ||१-६|| स्तकाद्यारुढश्चेष्टत इति घट इति, अत्र तदैवासी घटो यदा योषिन्मस्तकाद्यारूढतया जलाहरणचेष्टावान्ना-2 वृत्तिः न्यदा, घटध्वनिरपि चेष्टां कुर्वत एव तस्य वाचको नान्यदेत्येवं चेष्टावस्थातोऽन्यत्र घटस्य घटत्वं घटशब्देन है। उपक्रमे निवर्त्यते, घटध्वनेरपि तदवस्थातोऽन्यत्र घटेन खवाचकत्वं निवर्त्यत इति भावः, इति गाथार्थः ॥ उक्ता नयाधिक मूलनया, एषां चोत्तरोत्तरभेदप्रभेदा आवश्यकादिभ्योऽवसेयाः। एते च सावधारणाः सन्तो दुर्नया:, अवधारणविरहितास्तु सुनयाः, सर्चश्व सुनौमीलितैः स्याद्वाद इत्यलं बहुभाषितया ॥ अत्राह कश्चित्-ननूक्ता एते नयाः, केवलं प्रस्तुते किमेतैः प्रयोजनमिति नावगच्छामः, उच्यते, उपक्रमेणोपक्रान्तस्य निक्षेपेण च यथासम्भवं निक्षिप्तस्यानुगमेनानुगतस्य च प्रक्रान्तसामायिकाध्ययनस्य विचारणाऽमीषां प्रयोजनं । पुनरप्याहनन्वेषा नयैर्विचारणा किं प्रतिसूत्रमभिप्रेता सर्वाध्ययनस्य वा?, यद्याद्या पक्षः स न युक्तः, प्रतिसूत्रं नयविचारस्य 'न नया समोयरंति इहमित्यनेन निषिद्धत्वादू, अथापरः पक्षः सोऽपि न युक्तः, समस्ताध्ययन-IA विषयस्य नयविचारस्य प्रागुपोद्घातनियुक्ती 'नए समोयारणाणुमए' इत्यत्रोपन्यस्तत्वात्, न च सूत्रव्यतिरिक्तमध्ययनमस्ति यन्नयैर्विचार्यते, अनोच्यते, यस्तावत्प्रतिसूत्रं नयविचारनिषेधः प्रेर्यते, तत्राविप्रतिपत्तिरेव, किंच-'आसज्ज उ सोयारं नए नयविसारओ बूया' इत्यनेनापवादिकः सोऽनुज्ञात एव, यदप्युच्यते-स-1 मस्ताध्ययनविषयस्य नयविचारस्य प्रागुपोद्घाते'त्यादि, तत्समयानभिज्ञस्यैव वचनं, यस्मादिदमेव चतुर्थानु-18॥१६॥ आसाथ तु श्रोतारं नवान् नाविशारदो ब्रूयात् । दीप अनुक्रम [३४३-३५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~543~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार”- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्ति:) ......... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ........ प्रत --5 सूत्रांक [१५६] गाथा: ||१-६|| योगद्वारं नयवक्तव्यताया मूलस्थानम्, अत्र सिद्धानामेव तेषां तत्रोपन्यासः, यदप्युक्तम् 'न च सूत्रव्यतिरितमध्ययन'मित्यादि, तदप्यसारं, समुदायसमुदायिनो कार्यादिभेदतः कश्चिद्भेदसिद्धेः, तथाहि-प्रत्येकावस्थायामनुपलब्धमप्युद्वहमसामर्थ्यलक्षणं कार्य शिविकावाहकपुरुषसमुदाये उपलभ्यते, एवं च प्रत्येकसमुलादितावस्थयोः कार्यभेदः शिविकावाहनादिषु सामासामर्थ्यलक्षणो विरुद्धधर्माध्यासश्च दृश्यते, यदि चायमपि न भेदकस्तहि सर्व विश्वमेकं स्यात, ततश्च सहोत्पत्त्यादिप्रसङ्गाः, तस्मात्कार्यभेदाद्विरुद्धधर्माध्यासाच समु-10 सादापसमुदायिनोर्मेंदः प्रतिपत्तव्यः, एवं सङ्ख्यासंज्ञादिभ्योऽपि तद्भेदो भावनीपा, तस्मात्कश्चित्कचित्सूत्रवि-13 लाषयः समस्ताध्ययनविषयश्च नयविचारो न तुष्यति, भवत्वेवं तथाऽष्यध्ययनं नयैर्विचार्यमाणं किं सर्वैरेव वि-16 चायेंते? आहोखिदू कियद्भिरेष?, यदि सर्वरिति पक्षः स न युक्तः, तेषामसहयेयत्वेन तैर्विचारस्य कर्तुमश-12 क्यत्वात्, तथाहि-यावन्तो वचनमार्गास्तावन्त एव नयाः, यथोक्तम्-"जावइया वयणपहा तावइया चेव होति नयवाया । जावइया नयवाया तावड्या चेव परसमया ॥१॥" न च निजनिजाभिप्रायविरचितानां वचनमार्गाणां सङ्ख्या समस्ति, प्रतिप्राणि प्रायो भिन्नत्वादभिप्रायाणां, नापि कियद्भिरिति वक्तुं शक्यम्, अनवस्थाप्रसङ्गात्, सङ्ख्यातीतेषु हि तेषु यावदेभिर्विचारणा क्रियते तावदेभिरपि किं नेत्यनवस्थाप्रेरणापां न नयत्यावस्थापकं हेतुमुत्पश्यामः, अथापि स्थावसंख्येयवेऽप्येषां सकलनयसङ्घाहिभिनयैर्विचारो विधीयते, १ यावन्तो वचनपवासामन्तवैव भवन्ति नववादाः । यावन्तो नयवादावावन्तर परसमयाः ॥ १॥ दीप अनुक्रम [३४३-३५०] 36- 05 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~544~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ........ प्रत सूत्रांक [१५६]] गाथा: ||१-६|| अनुयो. ननु तेषामपि सङ्क्राहिनयानामनेकविधत्वात् पुनरनवस्थैव, तथाहि-पूर्वविद्भिः सकलनयसङ्ग्राहीणि सप्त नय- वृत्तिः मलधा-18|शतान्युक्तानि, यत्प्रतिपादकं सप्तशतारं नयचक्राध्ययनमासीद्, उक्तं च-"एकेको य सपविहो सत्तनय-151 उपक्रमे रीया दसया हवंति एमेवेत्यादि, सप्तानां च नयशतानां सङ्ग्राहकाः पुनरपि विध्यादयो द्वादश नयाः, यत्प्ररूपकमि-IX नयाधि० दानीमपि द्वादशारं नयचक्रमस्ति, एतत्सङ्ग्राहिणोऽपि सप्त नैगमादिनयाः, तत्सङ्घाहिणी पुनरपि द्रव्यपर्या॥२६७॥ यास्तिकी नयी ज्ञानक्रियानयो वा निश्चयव्यवहारौ वा शब्दार्थनयी वेत्यादि, इति साहकनयानामप्यनेकविधवात्सैवानवस्था, अहो अतिनिपुणमुक्तं, किन्तु प्रक्रान्ताध्ययने सामायिक विचार्यते, तब मुक्तिफलं, ततो यदेवास्य मुक्तिप्राप्तिनिवन्धनं रूपं तदेव विचारणीयं, तच ज्ञानक्रियात्मकमेव, ततो ज्ञानक्रियानयाभ्याX| मेवास्य विचारो युक्ततरो नान्यैः, तन्त्र ज्ञाननयो ज्ञानमेव मुक्तिनापकतया प्रतिजानीते, ततस्तन्मताविष्करहोणार्थमाह णायंमि गिव्हिअव्वे अगिहिअव्वमि चेव अत्थंमि । जइअव्वमेव इइ जो उवएसो सो नओ नाम ॥५॥ सव्वेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणडिओ साहू ॥६॥ से तं नए । अणुओगद्दारा सम्मत्ता (सू०१५६) १ एकैक शतविधः सप्तशतानि नया भवन्ति एवमेष. RER दीप अनुक्रम [३४३-३५०] २६७॥ T umbraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~545 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) .... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ....... प्रत सूत्रांक [१५६] गाथा: ||१-६|| सोलससयाणि चउरुत्तराणि होति उ इमंमि गाहाणं । दुसहस्समणुटुभछंदवित्तप्पमाणओ भणिओ ॥१॥णयरमहादारा इव उवक्कमदाराणुओगवरदारा। अक्खरबिंदुगमत्ता लिहिया दुक्खक्खयटाए ॥२॥ गाहा १६०४ अनुष्टुप् ग्रंथा ॥२०८५॥ अणुओ गदारंसुत्तं समत्तं ॥ व्याख्या-'ज्ञात'सम्यग् अवगते 'गिहियव्वें' ग्रहीतव्ये उपादेय इत्यर्थः, 'अग्रहीतव्ये अनुपादेये. सच हेय उपेक्षणीपा, द्वयोरप्यग्रहणाविशेषात, चशब्द उक्तसमुच्चये, अथवा अग्रहीतव्यशब्देन हेय एवैको ग-1 खते, उपेक्षणीयं स्वनुक्तमप्ययमेव चकार: समुचिनोति, एवो गाथालङ्कारमात्रे, 'अत्थंमिति 'अर्थे ऐहिकाम|मिके, तब ऐहिको ग्रहीतव्यः सकचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो हिविषकण्टकादिरूपेक्षणीयस्तृणादिः, आमटिमको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनचारित्रादिः अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरूपेक्षणीयस्तु खर्गविभूत्यादिः, एवंभूतेऽर्थे । यतितव्यमेवेति, अत्रैवकारोऽवधारणे, तस्य च व्यवहितः प्रयोगः, तद्यथा-ज्ञात एवेति, तदयमर्थो-ग्राघाग्रायो|पेक्षणीयेऽर्थे ज्ञात एव तत्प्राप्तिपरिहारोपेक्षार्थिना यतितव्यं, प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इति, 'इति' एवंभूतः सर्वव्यवहाराणां ज्ञाननिवन्धनत्वप्रतिपादनपरो य उपदेशः, स किमित्याह-'नय' इति प्रस्तावाज्ज्ञाननयो 'नामेति शिष्यामश्रणे इत्यक्षरघटना । भावार्थस्त्वयम्-इह ज्ञाननयो ज्ञानप्राधान्यख्यापनार्थ प्रतिपाद दीप अनुक्रम [३४३-३५०] 4%-26 पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~5464 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ......... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ......... (४५) प्रत सूत्रांक अनुयोग मलधारीया CASSESCASE [१५६] ॥२६८॥ गाथा: ||१-६|| यति-नन्वैहिकामुष्मिकफलार्थिना तावत्सम्यग्विज्ञात एवार्थे प्रवर्तितव्यम् , अन्यथाप्रवृत्ती फलविसंवाददर्श- वृत्तिः नाद, आगमेऽपि च प्रोक्तम्-'पढमं नाणं तओ दए त्यादि 'जं अन्नाणी कम्मं खवेई'त्यादि, तथा अपरमप्यु-४ उपक्रमे क्तम्-"पावाओ विणियत्ती पवत्तणा तह य कुसलपक्खंमि । विणयस्स य पडिवत्ती तिन्निवि नाणे सम- नयाधिक पंति ॥१॥" तथा अन्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनादू ॥१॥” इति, इतच ज्ञानस्यैव प्राधान्यं, यतस्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारोऽपि निषिद्धः, तथा च तद्वचनम्-"गीयत्थो य विहारो बीओ गीयत्थमीसिओ भणिओ। इसो तइयविहारो नाणुनाओ जिणवरेहिं ॥१॥"न यस्मादन्धनान्धः समाकृष्यमाण: सम्यक् पन्धानं प्रतिपद्यत इति भावः, एवं तावत् क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षा प्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते | यावदखिलजीवादिवस्तुस्तोमसाक्षात्करणदक्षं केवलज्ञानं नोत्पन्नं, तस्माज्ज्ञानमेव पुरुषार्थसिद्धेर्निवन्धनं, प्रयोगश्चात्र-यद् येन विना न भवति तत्तन्निबन्धनमेव, यथा बीजाचविनाभावी तन्निबन्धन एवाङ्कुरो, ज्ञाना-14 विनाभाविनी च सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति, ततश्चायं नयश्चतुर्विधे सामायिके सम्यक्त्वसामायिकश्रुतसामा पाषाद्विनिवृत्तिः प्रवर्तना तथा च कुशलपक्षे । विनयस्य च प्रतिपत्तिस्त्रीप्यपि ज्ञानात्समाप्यन्ते ॥ १॥ २ गीतार्थव बिहारो द्वितीयो गीतार्थ मिश्रितो भ-18॥२६॥ समितः । एताभ्यां तृतीयो बिहारो नानुज्ञातो जिनवरैः ॥१॥ दीप अनुक्रम [३४३-३५०] yebruaryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~547~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ................ मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ....... २ प्रत - सूत्रांक [१५६] गाथा: ||१-६|| यिके एवाभ्युपगच्छति, ज्ञानात्मकत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात्, देशविरतिसर्वविरतिसामायिके तु नेच्छति, ज्ञानकार्यत्वेन गौणत्वात् तयोरिति गाथार्थः॥ विचारितं ज्ञाननयमतेन सामायिकम्, अथ क्रियानयमतेन2| तद्विचार्यते-तत्रासौ क्रियैव सकलपुरुषार्थसिद्धः प्रधान कारणमिति मन्यमानो ज्ञाननयमतव्याख्यातामेव गाधामाह-नायम्मी'त्यादि, इयं च क्रियानयमतेनेत्थं व्याख्यायते-इह ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैवार्थे सर्वामपि पुरुषार्थसिद्धिमभिलषता यतितव्यमेव-प्रवृत्यादिलक्षणा क्रियैव कर्तव्येति, एवमन्त्र व्याख्याने एवकारर खस्थान एव योज्यते, एवं च सति ज्ञातेऽप्यर्थे क्रियैव साध्या, ततो ज्ञानं क्रियोपकरणवाद्गौणमित्यतः सकलस्थापि पुरुषार्थस्य क्रियैव प्रधान कारणमित्येवं य उपदेशः स नयः प्रस्तावात् क्रियानयः, शेष पूर्ववद् । अयमपि खपक्षसिद्धये युक्तीरुद्भावपति-ननु क्रियैव प्रधानं पुरुषार्थसिद्धिकारणं, यत आगमेपि तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानं निष्फलमेव उक्तं, 'सुबहंपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पमुक्कस्स? अंधस्स जह पलित्ता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥ नाणं सबिसयनिययं न नाणमित्रोण कजनिष्फत्ती । मग्गष्णू दिढतो होई सचिट्ठो अचिट्ठो य ॥२॥ जाणतोऽविय तरि काइयजोगं न जुजह जो उ । सो बुझाइ सोएणं एवं नाणी चरणहीणो ॥३॥ जहा खरो चंदणभारवाही"त्यादि तथा अन्यैरप्युक्तम्-"क्रिपेव फलदा पुंसां, न सुबहपि धुतमधीतं कि करिष्यति चरणविनमुक्तासन्धस्य यथा प्रदीप्ता दीपशतसहसफोग्यपि ॥१मान खविषयनियर्तनमानमात्रेण कायनिष्पतिः । मार्गको रटान्तो भवति सचेशोऽशष ॥२॥ जाममपि सरीतं काबिकयोचन यनक्ति बस्तु । स उद्यते धोवता एवं ज्ञानी धरणहीनः ॥२॥ यथा खरचन्दनभारवाही दीप अनुक्रम [३४३-३५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~548~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| प्रत सूत्रांक अनुयो मलधारीया उपक्रमे [१५६] ॥२६९॥ गाथा: ||१-६|| ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेद् ॥१॥” इति, एवं तावत् क्षायोपशमिकी वृत्तिः दाचरणक्रियामङ्गीकृत्य प्राधान्यमुक्तम्, अथ क्षापिकीमप्याश्रित्य तस्या एष प्राधान्यमवसेयं, यस्मादर्हतोऽपि भगवतः समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावद् मुक्त्यवाप्तिः संपद्यते यावदखिलकर्मेन्धनानलज्वालाकलापरू- नयाधिक पायां शैलेश्यवस्थायां सर्वसंवररूपां चारित्रक्रियां न प्रामोति, तस्माद् क्रियैव प्रधाना सर्वपुरुषार्थसिद्धिकारणं, प्रयोगश्चात्र-यद्यत्समनन्तरभावि तत्तत्कारणं, यथा अन्त्यावस्थाप्राप्तपृथिव्यादिसामग्यनन्तरभावी तस्कारणोऽङ्करः, क्रियाऽनन्तरभाविनी च सकलपुरुषार्थसिद्धिरिति, ततश्वैष चतुर्विधे सामायिके देशविरतिसर्वविर|तिसामायिके एव मन्यते, क्रियारूपत्वेन प्रधानमुक्तिकारणत्वात्, सम्यक्त्वश्रुतसामायिके तु तदुपकारिखमात्रतो गौणत्वानेच्छतीति गाथार्थः । ननु पक्षद्वयेऽपि युक्तिदर्शनात्किमिह तत्वमिति न जानीम इति शिप्यजनसम्मोहमाशक्य ज्ञानक्रियानयमतप्रदर्शनानन्तरं स्थितपक्षं दर्शयन्नाह| 'सब्वेसिपि'गाहा, न केवलमनन्तरोक्तनयद्वयस्थ, किं तर्हि ?-'सर्वेषामपि खतनसामान्यविशेषवादिनां है नामस्थापनादिवादिनां वा नयानां वक्तव्यतां परस्परविरोधिनी प्रोक्तिं 'निशम्य'श्रुत्वा तदिह 'सर्वनयविशुद्ध सर्वनयसम्मतं तत्त्वरूपतया ग्राखं, यत् किमित्याह-'यचरणगुणस्थितः साधुः चरणं-चारित्रक्रिया गुणोऽत्र ज्ञानं तयोस्तिष्ठतीति चरणगुणस्थः, ज्ञानक्रियाभ्यां द्वाभ्यामपि युक्त एव साधुः मुक्तिसाधको न पुनरेकेन 8॥२९॥ है केनचिदिति भावः, तथाहि-यत्सावज्ज्ञानवादिना प्रोक्तं-ययेन विना न भवति तत्तन्निवन्धनमेवेत्यादि, तत्र NAस दीप अनुक्रम [३४३-३५०] CAROKAR JanElicatatli पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~549 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ....... मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ............. प्रत सूत्रांक [१५६] तदविनाभाविवलक्षणो हेतुरसिद्ध एव, ज्ञानमात्राविनाभाविन्याः पुरुषार्थसिद्धेः काप्यदर्शनात्, न हि दाहपाकाद्यर्थिनां दहनपरिज्ञानमात्रादेव तत्सिद्धिर्भवति, किन्तु तदानयनसन्धुक्षणज्वालनादिक्रियानुष्ठानादपि, न च तीर्थकरोऽपि केवल ज्ञानमावान्मुक्तिं साधयति, किन्तु यथाख्यातचारित्रक्रियातोऽपि, तस्मात्सर्वत्र ज्ञानक्रियाऽविनाभाविन्येव पुरुषार्थसिद्धिः, ततस्तदविनाभाविवलक्षणो हेतुर्यथा पुरुषार्थसिद्धेनिनिवन्धनवं साधयत्ति तथा क्रियानिवन्धनत्वमपि, तामप्यन्तरेण तदसिद्धेरित्यनैकान्तिकोऽप्यसाविति, एवं क्रियावादि-15 नाऽपि यद्यत्समनन्तरभावि तत्तत्कारणमित्यादि प्रयोगे यस्तदनन्तरभाविवलक्षणो हेतुरुक्ता, सोऽप्यसिद्धोPIनैकान्तिकश्च, तथाहि-त्रीभक्ष्यभोगादिक्रियाकालेऽपि ज्ञानमस्ति, तदन्तरेण तत्र प्रवृत्तेरेवायोगादू, एवं | ४ शैलेश्यवस्थायां सर्वसंघररूपक्रियाकालेऽपि केवलज्ञानमस्ति, तदन्तरेण तस्था एवाप्राप्तः, तस्मात्केवलक्रियानदन्तरभावित्वेन पुरुषार्थस्य काप्यसिद्धरसिद्धो हेतुः, यथा च तदनन्तरभावित्वलक्षणो हेतुः क्रियाकारणत्वं मु त्यादिपुरुषार्थस्य साधयति तथा ज्ञानकारणत्वमपि, तदप्यन्तरेण तस्य कदाचिदप्यभावादित्यनैका|न्तिकताऽप्यस्येति, तस्माद् ज्ञानक्रियोभयसाध्यैव मुक्त्यादिसिद्धिः, उक्तं च-"हयं नाणं कियाहीणं, हया 8. अन्नाणओ किया । पासंतो पंगुलो दहो, धावमाणो य अंधओ॥१॥ संयोगसिद्धीअ फलं वयंति, न हु एग हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता अज्ञानतः क्रिया । पश्यन् पार्दग्धो धाश्चान्धः ॥ १॥ संयोगसिद्धया फलं बदन्ति नैबैकचफेण स्थः प्रशाति । अन्धश्च पक्षच बने संमेल ती सम्प्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥ २ ॥ AAAAAALANCE गाथा: ||१-६|| दीप अनुक्रम [३४३-३५०] anmbraryang पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~550~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] "अनुयोगद्वार"-चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः ) ........ मूलं [१५६] / गाथा ||१३६-१४१|| ...... प्रत सूत्रांक अनुयो. मलधारीया वृत्तिः उपक्रमे नयाधिक [१५६] ॥२७०॥ गाथा: ||१-६|| चक्केण रहो पयाइ । अंघो य पंगू य वणे समेचा, ते संपउत्ता नयरं पविट्ठा ॥२॥” इत्यादि, अत्राह-नन्वेवं ज्ञानक्रिययोर्मुक्त्यवापिका शक्तिः प्रत्येकमसती समुदायेऽपि कथं स्यात् ?, न हि ययेषु प्रत्येकं नास्ति तत्तेषु समुदितेष्वपि भवति, यथा प्रत्येकमसत्समुदितेष्वपि सिकताकणेषु तैलं, प्रत्येकमसती च ज्ञानक्रिययोर्मुक्त्यवा- पिका शक्तिः, उक्तं च-"पत्तेयमभावाओ निव्वाणं समुदियासुवि न जुतं । नाणकिरियासु वोत्तुं सिकतासमुदायतेल्लं व ॥१॥", उच्यते, स्यादेतद्, यदि सर्वथा प्रत्येकं तयोर्मुक्त्यनुपकारिताऽभिधीयेत, यदा तु तयोः प्रत्येकं देशोपकारिता समुदाये तु सम्पूर्णा हेतुता तदा न कश्चिद्दोषः, आह च-“वीसुं न सब्बहच्चिय सिकतातेल्लं व साहणाभावो । देसोवगारिया जा सा समवायंमि संपुण्णा ॥१॥" अतः स्थितमिदं-ज्ञानक्रिये समुदिते एव मुक्तिकारणं, न प्रत्येकमिति तत्त्वं, तथा च पूज्या:-"नाणाहीणं सव्वं नाणनओ भणइ किंच किरियाए ? । किरियाए चरणनओ तदुभयगाहो य सम्मत्तं ॥१॥" तस्माद्भावसाधुः सर्वैरपि नवैरिष्यत एव, स च ज्ञानक्रियायुक्त एवेत्यतो व्यवस्थितमिदं-तत्सर्वनयविशुद्धं यच्चरणगुणव्यवस्थितः साधुरिति । तदेवं समर्थित नयद्वारं, तत्समर्थने च समर्थितानि चत्वार्यप्युपक्रमादीनि द्वाराणि, तत्समर्थने चानुयोगद्वारशास्त्रं समाप्तम् ॥ प्रायोऽन्यशास्त्रदृष्टः सर्वोऽप्यर्थो मयाऽत्र सङ्कलितः। न पुनः खमनीषिकया तथाऽपि यत्किञ्चिदिह वितधम् प्रत्येकमभावानिर्वाणं समुदितयोरपि न युक्तम् । ज्ञानकिवयोवक्तुं सिकतासमुदाये तैलमित्र ॥ १ ॥ २ विष्वक् न सर्वथैव सिकतालवत् साधनाभावः। देशोपकारिता या सा समवाये सम्पूर्णा ॥१॥३जानाधीनं सर्व ज्ञाननयो भणति किं च किया है । क्रियाया (अधीनं) परणनपस्तदुभयग्राहश्च सम्यक्त्वम् ॥१॥ SSS 355555 दीप अनुक्रम [३४३-३५०] 30॥२७० पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~551~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) [भाग-३९] “अनुयोगद्वार"- चूलिकासूत्र-२ (मूलं+वृत्तिः) ......... मूलं [-] / गाथा ||-||| ......... प्रत सत्राक गाथा: ||-II ॥१॥ सूत्रमतिलध्य लिखितं तच्छोध्यं मय्यनुग्रहं कृत्वा । परकीयदोषगुणयोस्त्यागोपादानविधिकुशलैः ॥२॥ छद्मस्थस्य हि बुद्धिः स्खलति न कस्येह कर्मवशगस्य । सद्बुद्धिविरहितानां विशेषतो मद्विधासुमताम् R॥३॥ कृत्वा यदुवृत्तिमिमां पुण्यं समुपार्जितं मया तेन । मुक्तिमचिरेण लभतां क्षपितरजाः सर्वभब्यजनाः ॥४॥ श्रीप्रश्नवाहनकुलाम्बुनिधिप्रसूतः, क्षोणीतलप्रथितकीर्तिरुदीर्णशाखः। विश्वप्रसाधितविकल्पितवस्तुरुच्चैइछायाशतप्रचुरनिर्वृतभव्यजन्तुः॥५॥ ज्ञानादिकुसुमनिचितः फलितः श्रीमन्मुनीन्द्रफलवृन्दैः । कल्पद्रुम इव | गच्छः श्रीहर्षपुरीयनामास्ति ॥ ६॥ युग्मम् । एतस्मिन् गुणरत्नरोहणगिरिर्गाम्भीर्यपाथोनिधिस्तुणत्वानुकृतक्षमाधरपतिः सौम्यत्वतारापतिः। सम्पगज्ञानविशुद्धसंयमतपःखाचारचर्यानिधिः, शान्तः श्रीजयसिंहसूरिरभवनिःसङ्गचूडामणिः ॥७॥ रखाकरादिवैतस्माच्छिष्यरत्नं बभूव तत्।स वागीशोऽपि नो मन्ये, यद्गुणग्रहणे प्रभुः ॥८॥ श्रीवीरदेवविबुधैः सन्मन्त्राधतिशयमवरतोयैः । द्रुम इव यः संसिक्तः कस्तद्गुणवर्णने विबुधः ॥९॥ तथाहि-आज्ञा यस्य नरेश्वरैरपि शिरस्यारोप्यते सादरं, यं दृष्ट्राऽपि मुदं ब्रजन्ति परमां प्रायोऽतिदुष्टा अपि यद्बकाम्बुधिनिर्यदुजवलवचापीयूषपानोद्यतैर्गीर्वाणैरिव दुग्धसिन्धुमथने तृप्तिने लेभे जनैः॥१०॥ कृत्वा येन तितपः सुदुष्करतरं विश्वं प्रबोध्य प्रभोस्तीर्थ सर्वविदः प्रभावितमिदं तैस्तैः खकीयैर्गुणैः । शुक्लीकुर्वदशेषविश्व कुहरं भव्यैर्निबद्धस्पृहं, यस्याऽऽशास्वनिवारितं विचरति श्वेतांशुगौरं यशः॥११॥ यमुनाप्रवाहविमलश्रीम ४|न्मुनिचन्द्रमरिसम्पर्कात् । अमरसरितेव सकलं पवित्रितं येन भुवनतलम् ॥ १२ ॥ विस्फुजेत्कलिकालदुस्तरअनु. ४६ दीप अनुक्रम पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र-[४५] चूलिकासूत्र-[२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति: ~552~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (४५) प्रत सूत्रांक [-] गाथा: 11-11 दीप अनुक्रम [-] अनुयो० मलधा रीया ॥ २७१ ॥ [भाग-३९] “अनुयोगद्वार " - चूलिकासूत्र - २ ( मूलं + वृत्ति:) मूलं [--] / गाथा ||--||| तमःसन्तान लुप्तस्थितिः, सूर्येणेव विवेकभूधर शिरस्यासाय येनोदयम् । सम्यगज्ञानकरैश्चिरन्तनमुनिक्षुण्णः समुद्योतितो, मार्गः सोऽभयदेवसूरिरभवत्तेभ्यः प्रसिद्धो भुवि ॥ १३ ॥ तच्छिष्यलयप्रायैरवगीतार्थाऽपि शिष्ट2 जनतुष्टयै । श्रीहेमचन्द्रसूरिभिरियमनुरचिता प्रकृतवृत्तिः ॥ १४ ॥ अनुयोगद्वाराणि समाप्तानि ॥ अत्र प्रत्यक्षरगणनया ग्रन्थाग्रम् ५९०० शिवमस्तु ॥ AAAAAANNNYEZ इति श्रीमन्मलधारोपाधिधार कहर्षपुरीय गच्छ गगनभोमणिहेमचन्द्रसूरिसंदब्धवृत्तियुतमनुयोगद्वारमध्ययनं समाप्तिमगात् श्रेयसे चास्तु. इति श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई - जैनपुस्तकोद्वारे ग्रन्थाङ्क: ३७. वृत्तिः उपक्रमे नयाधि० ॥ २७१ ॥ For ane & Personal Use City पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...आगमसूत्र -[४५] चूलिकासूत्र - [२] अनुयोगद्वार मूलं एवं हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 553~ भाग [आगम-४५ ] 'अनुयोगद्वार' - चूलिकासूत्र [१] मूलं एवं मलयगिरिजी रचिता टीका परिसमाप्ताः मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब 39 किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुनः संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१० ~554~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ कल्पवतप्सिका पुष्पिकालिगाया 27 ३३० ४६६ ४४२ सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ | आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ४२६ ४७२ ३७६ ५९० ५२२ ४८२ ४६६ 38 | ५२८ ५६० ३९४ ~555~ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: भाग-३९1 आगम 45 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च 1)सूत्र" [मूलं + हेमचन्द्रसूरि-रचिता वृत्ति:] (किंचित वैशिष्ठयं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलितं | - “अनुयोगद्वार” मूलं एवं वृत्ति: नामेण परिसमाप्तं > "सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-39 ~556~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਤਰਨ ਤਕ ਬਲਸ ਕਿ ਉਸ ਦੀ ਪਤਨੀ ਮ it ਗੁਗਸ ਰਿਵਾਧਕ ਰਸ ਨੂੰ ਗਾਹਕ ਸਰਲ ਜਾਤ R ਨੂੰ S ਨੂੰ ਭਾਰ ਗਰ आगम वाचना शताब्दी वर्ष ਦੀ ਸਖ਼ਤ ਲ ਗ ਹਿਲ ਗਈ ~ 557 ~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आजम अकाम आगम आजम आजम नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि मूल संशोधक TISTAT आजम पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज मालाम *** SETT आजम अभिनव संकलनकर्ता ~558~ आजम आगम आगम. भार आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] राजम आज्या प्रत- प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर HA पालिताणा HEOSHO ~559~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आणम् आगम् आगमन आग आजमा मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम आगम आगम आगर आगम 45 "अनुयोगद्वार” मूलं एवं वृत्तिः आज अभिनव-संकलनकर्ता आजमा आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आजम आजम आजम आगमन ~560~