Book Title: Pattavali Parag Sangraha
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: K V Shastra Sangrah Samiti Jalor
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 F or Private & Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पट्टावली - परागसंग्रह लेखक और सम्पादक : पं० कल्याण वि ज य गणि - शा. कुन्दनमलजी, छगनराजजी, भमरलालजी, मिश्रीमलजी. तला श्री मांडवला वालों की आर्थिक सहायता से प्रकाशक : श्री क० वि० शास्त्रसंग्रहसमिति के व्यवस्थापकशा० मुनिलालजी थान मल जी श्री जालोर (राजस्थान) 2010_05 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर सं० २४६२. वि० सं० २०२३. ई० सन् १९६६० मूल्य ६ रुपया मुद्रक : श्री चिम्मनसिंह लोढ़ा के प्रबन्ध सेश्री महावीर प्रिंटिंग प्रेस, लोहिया बाजार, ब्यावर. 2010_05 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक दो शब्द पट्टावलीपराग ग्रन्थ में दो पट्टावलियां सूत्रोक्त हैं, पहली पर्युषणाकल्प सूत्रोक्त और दूसरी नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में लिखी हुई अनुयोगधरों की परम्परा । इन सूत्रोक्त पट्टावलियों के आगे दिगम्बर सम्प्रदाय की कतिपय पट्टावलियों की चर्चा करके प्रथम परिच्छेद की समाप्ति की है। द्वितीय परिच्छेद में मुख्य रूप से तपागच्छ की धर्मसागर उपाध्यायकृत पट्टावली दी है और उसके बाद तपागच्छ की अनेक शाखा-पट्टावलियां और अन्यान्य प्रकीर्णक गच्छों की पट्टावलियां देकर दूसरा परिच्छेद पूरा किया है । तीसरे परिच्छेद में केवल खरतरगच्छ की १२ पट्टावलि-गुर्वावलियां देकर इसे भी पूरा किया है। चतुर्थ परिच्छेद में लौंकागच्छ, बाईस सम्प्रदाय और कडवामत की पट्टावलियां दी हैं। ___ ग्रन्थ का नाम हमने "पट्टावलीपराग" दिया है, क्योंकि प्रत्येक पट्टावली अक्षरशः न लेकर उसका मुख्य सारभाग लिया है। पट्टावलियों में जहां-जहां समालोचना की आवश्यकता प्रतीत हुई वहां सर्वत्र समालोचना गभित उसके गुण-दोषों की चर्चा भी करनी पड़ी है, हमारा उद्देश्य किसी भी पट्टावली के खण्डन-मण्डन का नहीं था, फिर भी जहां-जहां जिनमें [ तीन ___ 2010_05 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका टिप्पण करने की आवश्यकता प्रतीत हुई वहां उन पर टीका-टिप्पणी भी की है, यह बात पाठकगरण को पढ़ने पर स्वयं ज्ञात होगी । कई पट्टावलि लेखकों ने अपनी पट्टावलियों में अपने प्राचायों और उनके कर्त्तव्यों के निरूपण में वास्तविकता से शताधिक अतिशयोक्तियां कर मर्यादा का उल्लंघन किया है । ऐसे स्थलों पर आलोचना करना जरूरी समझ कर हमने वहीं सत्य बातें लिख दी हैं । हमारा अभिप्राय किसी गच्छ की पट्टावली का महत्त्व घटाने का नहीं पर वास्तविक स्थिति बताने का था । इसलिए ऐसे स्थलों को पढ़कर पाठक महोदय अपने दिल में दुःख अथवा रागद्वेष की भावना न लायें । पट्टावली पराग की विशेषता : पट्टावलियां तो अनेक छपी हैं और छपेंगी, पर एक ही पुस्तक में छोटी-बड़ी ६४ पट्टावलियां आज तक नहीं छात्रों । सौत्र-पट्टावलियों के अतिरिक्त "पराग संग्रह " में १ बृहद्गच्छोय, २ तपागच्छीय, ३ खरतरगच्छीय, ४ पौर्णमिक-गच्छीय, ५ साधु पौर्णमिक-गच्छीय, ६ अंचल-गच्छीय, ७ श्रागमिक-गच्छीय, ८ लघु पौषध शालिक, εबृहत् पौषध शालिक, १० पल्लिवाल - गच्छीय, ११ ऊकेशगच्छीय, १२ लौकागच्छीय, १३ कटुक. मतीय, १४ पार्श्व चन्द्रगच्छीय, १५ बाईस सम्प्रदाय की और तेरा पंथ प्रादि की मिलकर ६४ पट्टावलियां 'पट्टावली- पराग' में संगृहीत हैं । अन्य पट्टावलियों के पढ़ने से प्रायः गच्छों की गुरु-परम्पराओं और उनके समय का ही पता लगता है पर पट्टावली- पराग" के पढ़ने से उक्त बातों की जानकारी के उपरान्त किन-किन गच्छों की उत्पत्ति में कौन-कौन साधु श्रावक श्राविका प्रादि निमित्त बने थे इस बात का भी ज्ञान हो जाता है । दृष्टान्त के तौर पर श्री राधनपुर में तपागच्छ में "विजय" और "सागर" नाम के गृहस्थों की दो पार्टियां किस गृहस्थ के प्रपंच से कब हुई ? श्री विजयसेन सूरिजी के पट्ट पर श्री राजविजय सूरिजी और विजयहीर सूरिजी दो प्राचार्य किन के प्रपंच से बैठे ? और ब्रह्मऋषि ने किसके प्रपंच से अपना "ब्रह्म-मत" निकाला इत्यादि अश्रुतपूर्व और रसपूर्ण बातों के खुलासे "पट्टावली- पराग" से पाठकों को प्रामाणिक रूप में मिल सकेंगे । चार ] 2010_05 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंखों की कमजोरी और प्रत्येक फार्म का प्रूफ अपने पास मंगवाने पर ग्रन्थ के मुद्रण में समय बहुत लग जायेगा इस विचार से प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रूफ सुधारने का कार्य ब्यावर के एक जैन विद्वान् को सौंपा था और प्रारम्भ में प्रूफ संशोधन ठीक ही हुआ है पर नियुक्त पंडितजी के दूसरे व्यक्ति को प्रूफ देखने का कार्य सौंप कर मास भर तक अन्यत्र चले जाने के बाद में नये प्रूफ रीडर के संशोधन में अशुद्धियां अधिक रह गई हैं, कुछ श्रशुद्धियां घिसे हुए रद्दी टाइपों के इस्तेमाल करने से भी बढ़ी हैं यह पाठकगरण को स्वयं ज्ञात हो जायगा । हमने प्रूफ रीडिंग की और टूटे घिसे टाइपों के कारण से हुई प्रशुद्धियां भी शुद्धिपत्रक में ले ली हैं, पाठक महाशय जहां कहीं अक्षर सम्बन्ध स्थल शंकित जान पड़े वहां शुद्धिपत्रक देख लिया करें । 2010_05 [ पांच Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विष या नुक्रम प्रथमपरिच्छेद [सौत्रपट्टालियां] पृष्ठ १ से १४ ३१ ३२ ३३ मंगलाचरण कल्प-स्थविरावली ( उपोद्घात ) कुल गण और शाखाएँ मूल कल्प-स्थविरावली स'नुवाद श्रोदेवद्धिगणि की गुरु-परम्परा कल्प-स्थविरावली की प्राचीनता की कसोटी गण शाखा कुलों में परिमार्जन स्थविरावली की प्राचीनता नंदी स्थविरावली सानुवाद माथुरी वाचनानुगत स्थविर क्रम वालभी वाचनानुगत स्थविर क्रम श्रीदेवद्धिगरिण क्षमाश्रमण को गुर्वावलो श्वेताम्बर जैनों के आगम निह्नवों का निरूपण प्राचीन स्थविर-कल्पी जैनश्रमणों का माचार श्वेताम्बर सम्प्रदाय को प्राचीनता कषायप्राभृतकार गुणधर प्राचार्य श्वेताम्बर थे यापनोय शिवभूति के वंशज थे शिवभूति से दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव 2010_05 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द के गुरु पृष्ठ ६८ से १६ प्राचार्य कुन्दकुन्द का सत्तासमय १०० १०७ भट्टारक जिनसेनसूरि का शकसंवत् कलचूरी संवत् है १०८ १०६ आधुनिक दिगम्बर समाज के संघटक प्राचार्य कुन्दकुन्द - और भट्टारक वीरसेन ११० ११४ दिगम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियां ११५ १२४ नन्दीसंघ द्रमिलगण अरुङ्गलान्वय की पट्टावलियां १२४ १२४ देशीयगण के प्राचार्यो को परम्परा १२४ १२५ लेखनं० ५४ में निद्दिष्ट आचार्यपरम्परा १२५ १२६ मूलसंघ के देश यगण की पट्टावली १२७ मूलसंघ के नन्दीगण की पट्टावली १२७ १२६ उपसंहार १२८ १२६ द्वितीय परिच्छेद [ तपागच्छीय पट्टाबलियो] श्री तपागच्छ-पट्टावलीसूत्र १३३ १५५ तपा गरमपति-गुण पद्धति १५६ १६२ तपागच्छ पट्टावली सूत्रवृत्ति अनुसंधितपूर्ति दूसरी १६३ १६६ पट्टावलीसारोद्धार १६७ १६८ श्रो बृहत् पौषधशालिक पट्टावली १६६ १७३ बृहत् पौषधशालीय आचार्यों को पट्ट-परम्परा १७४ १८१ लघु पौषधशालिक पट्टावली १८२ १८६ तपागच्छ कमल-कलश शाखा की पट्टावली राजविजयसूरि गच्छ की पट्टावली १८८ श्री रत्नविजयसूरिजो और इनकी परम्परा विजयदेवसूरि के सामने नया प्राचार्य क्यों बनाया ? विजयानन्दसूरि गच्छ की परम्परा (१) विजयानन्दसूरि शाखा की पट्टावली (२) विजय आनन्दसूरि शाखा की पट्टावली (३) विजपानन्दसूरि शाख वलो (४) م १८७ م م . .. له لے لے سمسم ..... 2010_05 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ सागर शाखा-पट्टावली (१) पृष्ठ २१२ से सागरगच्छीय पट्ठावली (२) २१३ २१४ सागरगच्छ के प्रारम्भिक प्राचार्यों का नामक्रम (३) २१५ परिशिष्ठ (१) तपागच्छ की लघु अपूर्ण पट्टावलियां २१६ २१८ तपगच्छ पाट-परम्परा स्वाध्याय २१६ श्री तपगच्छीय पट्टावली सज्झाय २१६ २२२ विजयरत्नसूरि के चातुर्मास्यों के गांवों की सूची २२२ २२३ प्राचार्य विजयक्षमासूरि के चातुर्मायों की सूची २२३ २२४ विजय संविग्नशाखा की गुरु-परम्परा २२५ सागर संविग्न शाखा की गुरु-परम्परा विमल संविग्न शाखा की गुरु-परम्परा २२७ श्री पार्श्वचन्द्र गच्छ की पट्टावली (१) २२८ श्री पार्वचन्द्र गच्छ नाम पड़ने के बाद की प्राचार्य-परम्परा २२६ पावचन्द्र गच्छ की लघु-पट्टावली (२) २३० बृहद्-गच्छ गुर्वावली २३१ २३३ श्री ऊकेश-गच्छीया पट्टावली २३४ २३८ पौर्णमिक गच्छ की गुरुवावली २३६ अंचलगच्छ की पट्टावली २४० २४३ पल्लिवाल-गच्छीय पट्टावली २४४ २५२ २२६ तृतीय परिच्छेद [ खरतरगच्छ की पट्टावलियां] खरतरगच्छ पट्टावली-संग्रह २५५ २५७ खरतरगच्छ वृहद्-गुरुवावली २५८ २७८ वर्द्धमानसूरि से जिनपद्मसूरि तक के प्राचार्यों की वृहद्-गुर्वावलि २७६ ३४३ राजामों का मोह ३४३ ३४५ हस्तलिखित खरतरगच्छीय पट्टावलिया ३४६ ३४८ सोलंकी राजाओं की वंशावली मौर खरतर विरुद . ३४८ ३५३ (२) पट्टावली नवम्बर २३२७ ६५ ३५६ पाठ ] 2010_05 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद [ सौत्र - पट्टा व लि याँ ] ___ 2010_05 Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचर सा वर्धमानं जिनं नत्वा, वर्धमानगुणोदधिम् । पट्टावली-परागस्य, संग्रहोऽयं विधीयते ॥१॥ दशाश्रुताऽष्टमाध्याये, कल्पाध्ययननामनि । स्थविरावलिका दृब्धा, प्राच्यः सा प्रथमा मता ॥२॥ नन्दीमङ्गलमध्यस्था, वाचकानामथावलिः । एषा वाचकवंशस्य, द्वितीया स्थविरावली ॥३॥ स्थविरावलिकायुग्मं, सौतमेतत्प्रकीर्तितम् । अत्र दिगम्बराम्नाय-संक्षेपोपि प्रदर्शितः ॥४॥ चन्द्रकुलोद्भवादने, सूरिपट्टपरम्परा । । कचिद् भिन्ना क्वाप्यभिन्ना, "तपागच्छ” मताऽऽहता ॥५॥ अनेकगच्छसंबद्धाः पट्टावल्यः प्रकीर्णकाः । सम्पूर्णाः खण्डिता वापि, यथालब्धास्तथाऽऽहताः ॥ ६ ॥ आचार्यवर्धमानाद्धि, खरभाषिमताः स्मृताः । गुर्वावल्य प्रबन्धादि-पट्टावल्यो ह्यनेकधा ॥७॥ लक्ष--लेखक-कड्वादि--गृहस्थमतविस्तृतम् । पट्टावलीद्वयं प्रान्ते, विस्तरेण विवेचितम् ॥८॥ अर्थ : बढ़ते हुए गुणों के समुद्र ऐसे श्रीवर्धमान जिनको नमन करके पट्टावलियों के सार का यह संग्रह किया जाता है। दशाश्रुतस्कन्ध के अष्टमाध्ययन में, जिसका नाम “पर्युषणा कल्पाध्ययन" है, पूर्वाचार्यों ने स्थविरावली बनाकर उसके अन्तर्गत की, उसको हम "प्रथम स्थविरावली" मानते हैं । नन्दी सूत्र के मंगलाचरण में अनुयोगधरों की जिस वाचकपरम्परा 2010_05 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग को वन्दन किया है उस वाचकपरम्परा को अर्थात् अनुयोगधरों की पट्टावली को हम "द्वितीय स्थविरावली" मानते हैं । उक्त दोनों स्थविरावलियां सूत्रोक्त होने से हम इन्हें "सौत्र स्थविरावलियाँ" कहते हैं । सौ त्रस्थविरावलियों का निरूपण करने के अनन्तर बीच में दिगम्बर संप्रदाय के संक्षिप्त स्वरूप का भी दिग्दर्शन कराया है। "चन्द्रकुल" की उत्पत्ति के बाद जो प्राचार्यपरम्परा चली है उसमें, कहीं कहीं मतभेद भी दृष्टिगोचर होते हैं, फिर भी उसकी मौलिकता में वास्तविक अन्तर नहीं पड़ता। इसी परम्परा को "तपागच्छ" ने अपनी मूल परम्परा माना है और यह मान्यता ठीक भी है। तपागच्छीय पट्टावलियों के अन्त में "प्रकीर्णक पट्टावलियां" दी हैं, जिनमें अधिकांश "तपागच्छ की शाखा-पट्टावलियां" हैं, और कुछ स्वतंत्र गच्छों की पूर्ण, भपूर्ण पट्टावलियां भी हैं जो जिस हालत में मिली उसे उसो हालत में ले लिया है। "खरतरगच्छ' के अधिकांश लेखक "श्रीवर्द्धमानसूरि" से अपनी पट्टावलियां शुरु करते हैं । कई लेखकों ने प्रारंभ से अर्थात् सुधर्मा से भी पट्टावलियां लिखी हैं, परन्तु उसमें वे सफल नहीं हुए। अनेक छोटी बड़ी गुर्वावलियों और प्रबन्धों में अपनी परम्पराएँ लिखी हैं, परन्तु उनमें मौलिकता की मात्रा कम है। ग्रन्थ के अन्त में दो ऐसे गच्छों की पट्टावलियां दी हैं जो गच्छ गृहस्थ व्यक्तियों से प्रचलित हुए थे। इन दो गच्छों में, पहला है "लौंका गच्छ'' जो "लक्खा" नामक पुस्तक-लेखक से चला था, जो आजकल "लौकागच्छ" के नाम से प्रसिद्ध है । दूसरा "गृहस्थगच्छ' "कडुपा-मत गच्छ” इस नाम से प्रसिद्ध है, इस गच्छ का नेता गृहस्थ होता है और "शाहजी" कहलाता है। इस के खंडहर "थराद" में आज भी विद्यमान हैं। 2010_05 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फैल्प - स्थविरावली उपोद्घात : "कल्प" शब्द से यहाँ दशाश्रुतस्कन्वान्तर्गत "पर्युषणा कल्प" समझना चाहिए । यद्यपि पर्युषणाकल्प दशाश्रुतस्कन्धका एक अध्याय है, तथापि जैन सम्प्रदाय में प्रस्तुत कल्प का प्रचार अधिक होने के कारण दशाश्रुत-स्कन्ध की स्थविरावली न लिखकर हमने इसे "कल्पस्थविरावली" लिखना ठोक समझा है । "कल्पस्थविरावली" प्रार्य यशोभद्र तक एक ही है, परन्तु आर्य यशोभद्र के आगे इसकी दो धाराएँ हो गई हैं। एक संक्षिप्त और दूसरी विस्तृत । संक्षिप्त स्थविरावली में मूल परम्परा के स्थविरों का मुख्यतया निर्देश किया गया है। तब विस्तृत स्थविरावली में पट्टधर स्थविरों के अतिरिक्त उनके गुरुभ्राता स्थविरों की नामावलियों, उनसे निकलने वाले गरण पोर गरणों के कुल तथा शाखाओं का भी निरूपण किया है। ____संक्षिप्त स्थविरावली में आर्य वज्र के शिष्य चार बताए हैं। उनके नाम "आर्य नागिल, आर्य पद्मिल, प्रार्य जयंत और प्रार्य तापस" लिखे हैं। तब विस्तृत स्थविरावली में प्रार्य वज्र के शिष्य तीन लिखे हैं, जिनके नाम "आर्य वज्रसेन, आर्य पद्म और प्रार्य रथ" हैं । इन दो स्थविरावलियों के बीच जो मत-भेद सूचित होता है, उसके सम्बन्ध में हम यथास्थान विवरण देंगे । "कल्प-स्थविरावली" भी प्रारंभ से अंत तक एक ही समय में लिखी हुई नहीं है, जिस प्रकार आगम तीन बार व्यवस्थित किये गये थे, उसी प्रकार स्थविरावली भी तीन विभागों में व्यवस्थित की हुई प्रतीत होती है । आगमों 2010_05 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली पराग की प्रथम वाचना पाटलिपुत्र में हुई, उस समय तक संभवतः यशोभद्रस्थविर स्वर्गवासी हो चुके थे, और आर्य संभूतविजयजी भी या तो परलोकवासो हो चुके हों अथवा वार्द्धक्य के कारण कहीं पर वृद्धावास के रूप में ठहरे हुए हों । क्योंकि पाटलिपुत्र के श्रमणसंघ ने दृष्टिवाद पढ़ाने के लिए दो बार भद्रबाहु के पास 'श्रमण संघाटक' भेजकर उन्हें दृष्टिवाद पढ़ाने की विज्ञप्ति की । यदि उस समय स्थविर सम्भूतविजयजी जीवित होते और दृष्टिवाद पढ़ाने की स्थिति में होते तो पाटलीपुत्र का संघ दूसरा संधाटक भद्रबाहु के पास कभी नहीं भेजता, क्योंकि भद्रबाहु ने प्रथम संघाटक के सामने ही अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी कि "मैं महाप्राण ध्यान की साधना में लगा हुआ हूं । अतः पाटलिपुत्र पा नहीं सकता", इस पर भी पाटलिपुत्र का श्रमणसंघ दूसरी बार भद्रबाहु के पास संघाटक भेजकर दबाव डालता है। इसका तात्पर्य यही हो सकता है कि उस समय भद्रबाहु को छोड़कर अन्य कोई भी दृष्टिवाद का अनुयोगधर विद्यमान नहीं होना चाहिए। आर्य संभूतविजयजी के शिष्य आर्य स्थूलभद्र राजा नन्द के प्रधान मंत्री शकटाल के बड़े पुत्र थे। इन्होंने अपने पिता के मरण के बाद तुरंत आर्य संभूतविजयजी के पास श्रमणमार्ग स्वीकार किया था और चौदह पूर्व का अध्ययन प्रार्य श्रीभद्रबाहुस्वामी के पास किया था। इससे भी यही सूचित होता है कि स्थूलभद्र की दीक्षा होने के बाद थोड़े ही वर्षों में आर्य संभूतविजयजी स्वर्गवासी हो गये थे। यहाँ प्रार्य श्रीभद्रबाहु स्वामी के स्वर्गवाससमय के संबंध में हमें कुछ स्पष्टीकरण करना पड़ेगा। प्रसिद्ध आचार्य श्रीहेमचन्द्र सूरिजोने श्रीभद्रबाहुस्वामी का स्वर्गवास परिशिष्ट पर्व में "जिननिर्वाण से १७० वें वर्ष में होना लिखा है और इसी कथन का आधार लेकर डॉ० चापेण्टियर,हन जेकोबि और इनके पीछे चलने वाले विद्वानों ने भगवान् महावीर के निर्वाणसमय में से ६० वर्ष कम करके जिननिर्वाण का समय सूचित किया है । परन्तु इसको ठोक मानने पर जैन परम्परा में जिस कालगणना के अनुसार निर्वाण संवत् और युगप्रधान स्थविरावलियों का मेल मिलाया गया है, वह सब एक दूसरे से असंगत ____ 2010_05 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम- परिच्छेद ] [ हो जाता है, इसलिए प्रस्तुत कल्पस्यविरावली की परम्परा लिखने के पहले जैनकालगणना पर चार शब्द लिख देना उचित समझते हैं । हम जैन कालगणना पद्धति दो परम्परानों पर चलती है । एक तो युगप्रधानों के युगप्रधानत्व पर्याय काल के आधार पर और दूसरी राजाओं के राजत्वकाल की कड़ियों के आधार पर । निर्वारण के बाद की दो मूल परम्परात्रों में जो अनुयोगधरों की परम्परा चली है उसके वर्षों की गणना कर जिननिर्वाण का समय निश्चित किया जाता था । परन्तु जैन श्रमण स्थायी एक स्थान पर तो रहते नहीं थे, पूर्व, उत्तर, दक्षिण और पश्चिम भारत के सभी प्रदेश उनके विहारक्षेत्र थे । कई बार अनेक कारणों से श्रमणगरण एक दूसरे से बहुत दूर चले जाते थे और वर्षों तक उनका मिलना असंभव बन जाता था, ऐसी परिस्थितियों में जुदे पड़े हुए श्रमरणगरण अपने अनुयोग धर-युग प्रधानों का समय याद रखने में असमर्थ हो जाते थे, इसलिए युगप्रधानत्वकाल शृंखला के साथ भिन्न भिन्न स्थानों के प्रसिद्ध राजानों के राजत्वकाल की श्रृंखला भी अपने स्मरण में रखते थे । इतनी सतर्कता रखते हुए भी कभी कभी सुदूरवर्ती दो श्रमण संघों के बीच कालगणनासम्बन्धी कुछ गड़बड़ी हो ही जाती थी । भगवान् महावीर के समय में उनका श्रमण-संघ भारत के उत्तर तथा पूर्व के प्रदेशों में अधिकतया विचरता था । प्रार्य भद्रबाहु स्वामी के समय तक जैन श्रमणों का विहारक्षेत्र यही था, परन्तु मौर्यकालीन भयंकर दुष्कालों के कारण श्रमण संघ पूर्व से पश्चिम की तरफ मुड़ा और मध्य भारत के प्रदेशों तक फैल गया, इसी प्रकार सैकड़ों वर्षों के बाद भारत के उत्तर-पश्चिमीय भागों में दुष्काल ने दीर्घकाल तक अपना अड्डा जमाए रक्खा | परिणाम स्वरूप जैन श्रमणसंघ की दो टुकड़ियां बन गई । एक टुकड़ो सुदूर दक्षिण की तरफ पहुँची और वहीं विचरने लगी, तब दूसरी टुकड़ी जो अधिक वृद्ध श्रुतधरों की बनी हुई थी, भारत के मध्य प्रदेश में रहकर विषम समय व्यतीत करती रही । विषम समय व्यतीत होने के बाद मध्यभारत तथा उत्तर भारत के भागों में विचरते हुए श्रमण ' मथुरा' में सम्मिलित हुए। थोड़े वर्षों के बाद दाक्षिणात्य प्रदेश में घूमने वाले श्रमण भी पश्चिम भारत की तरफ मुड़े और 2010_05 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग - 'सौराष्ट्र के केन्द्र नगर "वलभी" में एकत्र हुए। 'मथुरा' तथा 'वलभी' में सम्मिलित होने वाली टुकड़ियों के नेता क्रमशः "स्कन्दिलाचार्य" मोर "नागार्जुन वाचक' थे। दुष्काल के प्रभाव से श्रमणों का पठन-पाठन तो बन्द हो ही गया था, परन्तु पूर्व पठित श्रुत भी धीरे धीरे विस्मृत हो चला था । सधों के नेता दोनों श्रुतधरों ने कुछ समय तक ठहर कर विस्मृतप्रायः आगमों को लिपिबद्ध करवाया। किसी को कोई प्रध्ययनादि याद था, तो किसी को कोई, उन सब को पूछ पूछ कर और श्रुतधरों की अपनी स्मृतियों के आधार से पागम लिखवाए गए और उनके प्राधार से श्रमणों का पठन-पाठन फिर प्रारंभ हुमा । यह समय लगभग विक्रम की चतुर्थ शताब्दी में पड़ता था। मथुरा में जो पागम लिखवाये और पढ़ाए गए उसका नाम 'माधुरीवाचना" और वलभी में जो लिखाए पढ़ाए गए उसका नाम "वालभी. वाचना" प्रसिद्ध हुआ, इस प्रकार की दोनों वाचनाओं के अनुयायो देश में विहार-चर्या के क्रम से विचरते हुए लगभग दो सौ वर्षों के भीतर फिर "वलभी नगरी" में सम्मिलित हुए। इस समय "माथुरी वाचना" के अनुयायी श्रमण संघ के नेता "श्रीदेवद्धिगणि" और "वालमी वाचना" के श्रमणसंघ के प्रधान “कालकाचार्य" थे, दूरवर्ती स्थानों में स्मृतियों के प्राधार पर लिखे गये प्रागमों में कई स्थानों पर पाठान्तर और विषयान्तर के पाठ थे। उन सबका समन्वय करने में पर्याप्त समय लगा। इस पर भी कोई स्थल ऐसे थे कि जिनकी सच्चाई पर दोनों संघ निश्शंक थे, ऐसे विषयों पर समझौता होना कठिन जानकर दोनों ने एक दूसरे के पाठों को वैसा का वैसा स्वीकार किया। इसके परिणाम स्वरूप कल्पान्तर्गत श्रमण भगवान् महावीर के जीवन-चरित के अन्त में तत्कालीन समय का निर्देश दो प्रकार से हुआ है । 'माधुरी वाचना" के अनुयायियों का कथन था कि वर्तमान वर्ष ६५० वा है। तब वालभ्य संघ की गणना से वही वर्ष ६६३ वां माता था, इन १३ वर्षों के अन्तर का मुख्य कारण एक दूसरे से दूरवर्तित्व था। उत्तरीय संघ ने जिन युगप्रधानों का समय गिनकर ६८० वां वर्ष निश्चित किया था उसमें दाक्षिणात्य संघ ने एक युगप्रधान १५ वर्ष के 2010_05 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम- परिच्छेद ] [ S पर्यायवाला अधिक माना और एक युगप्रधान के युगप्रधानत्व के ४१ वर्षो के स्थान पर ३६ वर्ष हो माने। इस प्रकार उन्होंने अपनी गणना में १३ वर्ष बढ़ा दिये थे जिसका माधुरी वाचना के अनुयायियों को पता तक नहीं था, दाक्षिणात्य संघ दूर निकलने के बाद केवल युगप्रधानत्व काल की ही गणना करता रहा, तब उत्तरीय संघ युगप्रधानत्व के साथ राजत्वकाल का भी परिगरणन करता रहा । इस कारण वह अपनी गणना को प्रामाणिक मनवाने का प्राग्रही था, परन्तु दूसरी पार्टी ने अपनी गणना को गलत मानने से साफ इन्कार कर दिया । फलस्वरूप कालनिर्देश विषयक दोनों की मान्यता के सूचन मूल सूत्र में करने पड़े । माथुरी वाचना को प्रथम से ही मुख्यता दे दी थी । इसलिए प्रथम "माथुरी वाचना" का मन्तव्य सूचित किया गया और बाद में वालभी वाचना का | कल्प- स्थविरावली में प्रार्य यशोभद्र तक की स्थविरावली पाटलीपुत्र में होने वाली वाचना के पहले की है, तब उसके बाद की संक्षिप्त तथा विस्तृत दोनों स्थविरावलियां, जिनकी समाप्ति क्रमशः " श्रार्यं तापस" श्रीर " आर्य फल्गुमित्र" तक जाकर होती है, ये दोनों स्थविरावलियां दूसरी वाचना के समय यशोभद्रसूरि पर्यन्त की मूलस्थविरावली के साथ जोड़ी गईं थी, और आर्य तापस तथा श्रार्य फल्गुमित्र के बाद की स्थविरों की नामावली प्राचार्य श्री देवद्विगरि क्षमाश्रमण के समय में होने वाले भागमले खन के समय पूर्वोक्त सन्धित पट्टावली के अन्त में जोड़ दी गई हैं । पहली वाचना हुई तब भूतकालीन स्थविरों की नामावली सूत्र के साथ जोड़ी गई । दूसरी वाचना के प्रसंग पर उसके पूर्ववर्ती स्थविरों की नामावली पूर्व के साथ मनुसन्धित कर दी गई, और देवद्विगरिण क्षमाश्रमण के समय में द्वितीय वाचना के परवर्ती स्थविरों की नामावली यथाक्रम व्यवस्थित करके श्रन्तिम वाचना के समय पूर्वतन स्थविरावली के साथ जोड़ दी गई है । 22 2010_05 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुल गा और शाखाएं कल्प-स्थविरावली में कुल, गण और शाखाएं निकलने का वर्णन प्राया करता है, परन्तु इन नामों का पारिभाषिक अर्थ क्या है और इन नामों के प्रचलित होने के कारण क्या होंगे, इन बातों को समझने वाले पाठक बहुत कम होंगे। भगवान् महावीर के समय में भी नव गण थे, परन्तु उन गणों के साथ कुल तथा शाखाओं की चर्चा नहीं थी। भगवान् महावीर का निर्वाण होने के बाद भी लगभग २०० वर्षों तक सैकड़ों की संख्या में जैन श्रमण विचरते थे और उनका अनुशासन करने वाले प्राचार्य भी थे तथापि उस समय कुल, गण आदि की चर्चा क्यों नहीं, यह शंका होना विचारवान् के लिए स्वाभाविक है । इसलिए स्थविरावली का प्रारंभ करने के पहले ही हम इन सब बातों का स्पष्टीकरण करना आवश्यक समझते हैं। ___ भगवान महावीर के समय में 'गण' थे, इसीलिए उनके व्यवस्थापक मुख्य शिष्य "गणधर" कहलाते थे। “गण का अर्थ यहां एक साथ बैठकर अध्ययन करने वाले श्रमरणों का समुदाय" होता है। महावीर के गणघर ११ थे परन्तु गण ६ ही माने गये हैं, क्योंकि अन्तिम चार गणघरों के पास श्रमणसमुदाय कम होने के कारण दो दो "गणधरों" के छात्र-समुदायों को सम्मिलित करके शास्त्राध्ययन कराया जाता था । मतः गणधर दो दो होने पर भी उनका समुदाय एक एक ही माना जाता था। अब रही "कुलों" की बात; सो तीर्थंकरों के गणधरों में से एक एक के पास जितने भी श्रमण होते थे वे सब गणधर के शिष्य माने जाते थे। इस लिए गणधरों के समय में कुल नहीं थे। भगवान महावीर के जितने भी गणधर थे वे सब अपने शिष्यों को निर्वाण के समय में दीर्घजीवी गणधर 2010_05 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] सुधर्मा को सौंप जाते थे, और बाद में वे सब सुधर्मा के शिष्य माने जाते थे। गरणधरों के सम्बन्ध में ही नहीं, यह परिपाटी लगभग भद्रबाहु स्वामी के समय तक चलती रही। किसी के भी उपदेश से प्रतिबोध पाकर दीक्षा लो, पर उसे शिष्य तो मुख्य पट्टधर प्राचार्य का हो होना पड़ता था। प्राचार्य भद्रबाहु के शिष्य स्थविर 'गोदास' से सर्वप्रथम उनके नाम से 'गोदास गण' निकला। इसका कारण यह था कि तब तक जैन श्रमणों को सख्या पर्याप्त बढ़ चुकी थी पौर सब श्रमणों को वे सम्हाल नहीं सकते थे। इसलिए अपने समुदाय के प्रमुक साधुनों की वे स्वयं व्यवस्था करते थे, तब उनसे अतिरिक्त जो सैकड़ों साधु थे उनकी देखभाल तथा पठन-पाठन की व्यवस्था भद्रबाहु के अन्य तीन स्थविर करते थे जिनके नाम अग्निदत्त, यज्ञदत्त मौर सोमदत्त थे । ये सभी स्थविर काश्यप गोत्रीय थे। जो समुदाय 'स्थविर गोदास' की देखभाल में था उसका नाम "गोदास गण" हो गया, उसकी चार शाखाएँ थी, ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्डवर्धनीया और दासीकर्पटिका । शाखाओं के नाम बहुधा श्रमणों के अधिक विहार प्रथवा अधिक निवास के कारण नगर अथवा गांवों के नामों से प्रचलित हो जाते थे, जैसे ताम्रलिप्ति नगरी से ताम्रलिप्तिका, पुण्ड्यर्धन नगर से पौण्डवर्धनिका, कोटिवर्ष नगर से कोटिवर्षीया, दासीकर्पट नामक स्थान से दासीकर्पटिका। भार्य गोदास के समय में श्रमणों की संख्यावृद्धि के कारण गण पृथक् निकला, शाखाएँ प्रसिद्ध हुईं । परन्तु कुल उत्पन्न नहीं हुमा, क्योंकि तब तक मुख्य प्राचार्य के अतिरिक्त किसी भी स्थविर ने अपने नाम से शिष्य बनाने का प्रारंभ नहीं किया था, परन्तु मौर्यकाल में श्रमणों की अत्यधिक वृद्धि और दूर दूर प्रदेशों में विहार प्रचलित हो चुका था, परिणाम यह हुआ कि पट्टधर के अतिरिक्त अन्य योग्य स्थविर भी अपने नाम से पुरुषों को दीक्षा देकर उनके समुदाय को अपने "कुल" के नाम से प्रसिद्ध करने लगे और उसकी व्याख्या निश्चित हुई, कि "कुलं एकाचार्यसन्ततिः" जब तक साधुसंख्या अत्यधिक बढ़ी नहीं थी, तब तक प्राचार्य की आज्ञा में रहने वाले साधुसमुदाय गण के नाम से ही पहिचाने जाते थे। परन्तु प्राचार्य के गुरु ___ 2010_05 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] [ पट्टावली-पराग भाई अथवा तो उनके शिष्यों ने अपने अपने नाम से शिष्य बनाकर अपने नाम से 'कुल" प्रसिद्ध किये तब आचार्यों को 'कुल' तथा 'गणों के सम्बन्ध में नये नियम निर्माण करने पड़े । "एत्थ कुलं विण्णेयं, एयायरियरस संतती जाउ । तिण्ह कुलारामिहो पुरण, साविक्खाणं गणो होइ ॥" अर्थात् : एक प्राचार्य का शिष्यपरिवार 'कुल' कहलाता है, ऐसे परस्पर सापेक्ष याने-एक दूसरे से सभी प्रकार के साम्भोगिक व्यवहार रखने वाले तीन कुलों का समुदाय "गण" कहलाता है। ऊपर की गाथा में "कुल" तथा "गण" की सूचना की है। शास्त्रों में कुल की परिभाषा यह बांधी गयी है कि “आठ साधुओं के ऊपर नवमां उनका गुरु स्थविर हो, तभी उसका नाम "कुल' कहलाता था, आठ में एक भी संख्या कम होने पर वह कुल कहलाने का अधिकारी नहीं होता था। यह कुल की कम से कम संख्या मानी गयी। उससे अधिक कितनी भी हो सकती थी, परन्तु इस प्रकार के कम से कम तीन 'कुल' सम्मिलित होते, तभी अपने संघटन को 'गण' कह सकते थे। जिस प्रकार एक कुल में ६ श्रमणों का होना आवश्यक माना गया था, उसी प्रकार एक गण में "अट्ठाईस २८ साधु सम्मिलित होते," तीन कुलों के २७ और २८ वां "गणस्थविर" तभी वह संघटन : गण" नाम से अपना व्यवहार कर सकता था, और गण को जो जो अधिकार प्राप्त थे वे उसको मिलते थे । इस प्रकार "कुल" तथा "गण" की व्याख्या शास्त्रकारों ने बाँधी है, जब तक 'युगप्रधान शासनपद्धति" चलती रही तब तक इसी प्रकार की 'कुल' तथा 'गण" को परिभाषा थो, संघ स्थविर-शासन पद्धति विच्छेद होने के बाद कुल, गण की परिभाषाएँ भी धीरे धीरे भुलायी जाने लगों और परिणामस्वरूप 'गण' शब्द का स्थान 'गच्छ' ने ग्रहण किया। वास्तव में गच्छ शब्द प्राचीन काल में 'राशि' के अर्थ में प्रयुक्त होता था। दो साधुओं की सम्मिलित संख्या 'संघाटक' कहलाती थी, तब तीन, चार, पांच आदि से लेकर हजारों तक की सम्मिलित संख्या 'गच्छ' नाम से व्यवहृत होती थी। 'गच्छ' शब्द का ____ 2010_05 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] व्यावहारिक अर्थ हम 'टुकड़ो' कर सकते हैं, "बृहत्कल्पभाष्य" में तोन से लेकर ३२ हजार तक को श्रमणसंख्या को 'गच्छ' के नाम से निर्दिष्ट किया है। धीरे धीरे 'गरण' शब्द व्यवहार में से हटता गया और उसका स्थान 'गच्छ' शब्द ने ग्रहण किया, परन्तु वास्तव में 'गण' का प्रतिनिधि गच्छ' नहीं है । गण में जो आचार्य, उपाध्याय, गणी, स्थविर, प्रवर्तक और गणावच्छेदक प्रमुख अधिकारी माने गये हैं, वे गच्छ में नहीं माने, क्योंकि गच्छ शब्द का अर्थ ही साधुओं को टुकड़ी माना गया है और सूत्रकाल में तो गच्छ के स्थान पर “गुच्छ” शब्द ही प्रयुक्त होता था। परन्तु भाष्यकारों ने "गुच्छ” को 'गच्छ' बना दिया, स्थविर-शासन-पद्धति उठ जाने के बाद "कुल" 'गण' शब्द बेकार बने और "गच्छ" शब्द ने 'गण' शब्द के स्थान में अपनी सत्ता जमा ली। यही कारण है कि पिछले सूत्र-टीकाकारों को "गच्छानां समूहः कुलं" यह व्याख्या करनी पड़ी। स्थविर-शासन-पद्धति बंद पड़ने के बाद 'कुल' तथा 'गणों' के 'प्राभवद् व्यवहार' 'प्रायश्चित्त व्यवहार' आदि सभी प्रकार के व्यवहार अनियमित हो गये थे, सभी समुदायों के पास अपने अपने कुल, गण; के नाम रह गए थे, उनका उपयोग प्रव्रज्या के समय अथवा तो महापरिठावणिया के समय में ' दिशावरण' में होता था और होता है। आर हम लिल पाये हैं कि 'सापेक्ष तीन कुलों का एक गण बनता था।' इसका तात्पर्य यह है, कुल में साधु संख्या कितनी भी अधिक कयों न हो, तीन कुलों से कम दो अथवा एक कुल 'गण' का नाम नहीं पा सकता था। तीन अथवा उससे कितने भी अधिक कुल एक गरण में हो सकते थे, परन्तु तीन से कम कुल गण में नहीं होते थे । 'एत्थ कुलं विण्णेय' यह उपयुक्त गाथा कल्पसूत्र की अनेक टीकाओं में उद्धृत की हुई दृष्टिगोचर होती है । 'कल्पसुबोधिका' में भी जब वह पहले छपी थी उपर्युक्त गाथा शुद्ध रूप में छपी थी, परन्तु बाद को प्रावृत्तियों में संपादकों की अनभिज्ञता से अथवा एक दूसरे के अनुकरण से यह गाथा अशुद्ध हो गयी है । 'तिण्ह कुलाण मिहो पुण' इस चरण में "तिण्ह" के स्थान में “दुह" हो गया है जो अशुद्ध है, सर्वप्रथम "कल्पकिरणावली" में "दुग्रह कुलाण नहोपुण" यह प्रशुद्ध पाठ ____ 2010_05 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ पट्टावली-पराग छपा, कल किरणावली के बाद छपने वाली अनेक कल्पटीकानों में "दुण्ह कुला मिहो" यह प्रशुद्ध रूप छपा है जो परिमार्जनीय है । १. मूल कल्पस्थविरावली सानुवाद : "तेरणं कारणं तेरणं समएवं समरस्स भगवम्रो महावीरस्स नव गरगा इक्कारस गरगहरा होत्या ॥ २०१ ॥ " अर्थ : उस काल और उस समय में श्रमण भगवन्त महावीर के गरण और ११ गणधर हुए । "से के रगट्ट गं भंते ! एवं बुच्चई - समरगस्स भगवन महावीरस्स नव गरणा इकारस गरगहण होत्या ? समरणस्स भगवन महावीरस्स जेट्ठ े इंदभूई अरणगारे गोयमे गोत्तेगं पंचसमरणसयाइं वातेइ, मज्झिमे अरणगारे प्रग्भूिई नामेरगं गोयमे गोत्तेगं पंचसमरणसयाई वाएइ, करणीयसे श्ररणगारे नामेगं वाउभूई गोयमे गोत्तेगं पंचसमरणसयाई वाएइ, थेरे प्रज्जवियत्ते भारदाये गोत्तेरणं पंचसमरणसयाई वाएइ, थेरे प्रज्जसुहम्मे श्रग्गिवेसायरणे गोरगं पंचसमरसयाई बाएइ, थेरे मंडियपुत्ते वासि गोत्तेगं श्रधुट्ठाई समसया वाएइ, थेरे मोरियपुत्ते कासवे गोत्तेगं प्रधुट्ठाई समरणसयाई वाएs, थेरे अकंपिए गोयमे गोत्ते, थेरे प्रयलभाया हारियायणे गोत्ते एते दुन्नि थेश तिन्नि तिन्नि समसयाई वाई ति, थेरे मेयज्जे थेरे अज्जपभासे एए दोनिवि थेरा कोडिन्ना गोत्तेगं तिनि तिन्नि समरणसयाइ वाएंति, से एते भट्ट प्रज्जो एवं वुच्चइ- समरणस्स भगवओो महावीरस्स मव गरणा, एक्कारस गरगहरा होत्या ॥ २०२॥ " 'भगवान् महावीर के ε गरण और ११ गरणधर होने की बात सुनकर शिष्य गुरु से पूछता है : 'भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि भगवान् महावीर के नव गरण थे और ग्यारह गरणत्रर ? प्रश्न का उत्तर देते हुए प्राचार्य कहते हैं : भगवान् महावीर के शिष्य जिनका नाम इन्द्रभूति था और जो तीन भाइयों में बड़े थे तथा गोत्र से गौतम थे, ५०० श्रमणों को सूत्रवाचना देते थे । अग्निभूति नामक अनगार जो गोत्र 2010_05 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १५ से गौतम और मझोले थे, ५०० श्रमणों को प्रागम पढ़ाते थे। कनिष्ठ वायुभूति नामक गोत्र मे गौतम थे जो ५०० साधुनों को वाचना देते थे। स्थविर-पार्यब्यक्त जो गोत्र से भारद्वाज थे और ५०० श्रमणों को वाचना देते थे, स्थविर आर्य सुधर्मा जो गोत्र से अग्निवेश्यायन थे और ५०० श्रमणों को बाबना देते थे, स्थविर मंडिकपुत्र जो गोत्र से वासिष्ठ थे और साढ़े तीन सौ श्रमणों को वाचना देते थे, स्थविर मौर्यपुत्र जो गोत्र से काश्यप थे साढ़े तीन सौ श्रमणों को वाचना देते थे, स्थविर अकम्पित गोत्र से गौतम, स्थविर अचल भ्राता गोत्र से हारितायन, ये दोनों स्थविर तीन-तीन सौ श्रमणों को सम्मिलित रूप से वाचना देते थे। स्थविर मेदार्य और स्थविर प्रभास ये दोनों स्थविर गोत्र से कौण्डिन्य थे, और अपने तीनतोन सौ श्रमणों को एकत्र वाचना देते थे। इस कारण से हे प्रार्य ! यह कहा जाता है कि श्रमण भगवन्त महावीर के ६ गण और ११ गणधर थे । स्पष्टीकरण : अाठ तथा नवमें गणधरों के तीन-तीन सौ शिष्य थे परन्तु उनकी वाचना एक ही साथ होती थी। अतः एक गण कहलाता था, इसी प्रकार दसवें तथा ग्यारहवें गणधरों के भो तीन-तीन सौ श्रमण शिष्य थे, परन्तु वे ६००-६०० श्रमण सम्मिलित वाचना लेते थे, इसलिये “एकवाचनिको गणः" इस नियमानुसार पिछले ४ गणधरों के २ ही गण माने गए हैं । परिणामस्वरूप ६ गए और ११ गणधर बताए हैं। - "जे इमे अज्जत्ताते समरणा नि.गंथा विहरति एए रणं सत्वे अज्ज. सुहम्मस्स अरणगारस्स पाहावञ्चिज्जा, अवसेसा गरगहरा निरवच्या वोच्छिन्ना ॥२०४॥" "सव्वे एए समरणस्स भगवनो महावीरस्स एकारस वि गणहरा दुवालसंगिरणो चोद्दसपुविवरणो समत्तारणपिडगधरा रायगिहे नगरे मासएरणं भत्तेणं अपालएणं कालगया जाव सम्दुक्खप्पहीणा । थेरे इंदभूई, थेरे अज्जसुहम्मे, सिद्धि गए महावीरे पच्छा दोनिवि परिनिया ॥२०॥ 2010_05 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] [ पट्टावली-पराग 'ये सर्व श्रमण भगवन्त महावीर के ग्यारह ही गणधर द्वादशांगधारी चतुर्दश पूर्वी सम्पूर्ण गरिणपिटक के धारक राजगृह नगर के परिसर में मासिक भोजन - पानी का त्याग कर निर्वाणप्राप्त हुए, सर्वदुःख रहित हुए । इनमें स्थविर इन्द्रभूति और स्थविर प्रार्यसुधर्मा ये दो स्थविर महावीर के निर्वाण के बाद निर्वाण प्राप्त हुए थे।' प्रर्थात् शेष नो गणधर महावीर की विद्यमानता में ही मोक्ष प्राप्त हो चुके थे । २०३ । ' 'जो ये आजकल श्रमरण निर्ग्रन्थ विचर रहे हैं वे सभी प्रायं सुत्रर्मा के सन्तानीय कहलाते हैं, श्रवशेष गरणधरों की परम्परा विच्छिन्न हो चुको है २०४ । ' "समणे भगवं महावोरे कासबे गोत्तेणं । समरगस्स गं भगवम्रो महावीरस्स कासवगोत्तस्स धज्जसुहम्मे थेरे अंतेवासी अग्निवेसायसगोते । थेरस्सरणं श्रज्ज सुहम्मस्स श्रग्गिवेसायरसोत्तरस श्रज्ज जंबू नामे थेरे अंतेवासी कासवगोत्ते । थेरस्स गं प्रज्जजंबुनामस्स कासवगोत्तस्स श्रज्जपभवे थेरे अंतेवासी कच्चा सगोते | थेरस्स गं प्रज्जप्पभरस्स कच्चा यरणसगोत्तस्स प्रज्जसेज्जंभवे थेरे प्रवासी मरणगपिया वच्छगोत्ते । थेरस्स रणं श्रज्ज सेज्जंभवस्स मरणगपिउरणो वच्छसगोत्तस्स प्रज्जजसभद्दे थेरे अंतेवासी तुंगी वायरणसगोते ॥२०५॥” 'श्रमरण भगवान् महावीर काश्यप गोत्रीय थे, काश्यप गोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर के शिष्य श्रग्निवेश्यायन सगोत्र श्रार्य-सुधर्मा हुए, अग्निवेश्यायन सगोत्र श्रार्य - सुधर्मा स्थविर के शिष्य काश्यप गोत्रीय आर्य जम्बू हुए, काश्यप गोत्रीय स्थविर श्रार्य जम्बू के शिष्य कात्यायन सगोत्र श्रार्य प्रभव हुए, कात्यायन गोत्रीय स्थविर प्रार्य प्रभव के शिष्य वत्स - सगोत्रीय स्थविर आर्य शय्यम्भव हुए, जो मनक मुनि के पिता थे, वत्ससगोत्र और 2010_05 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] __ [ १७ मनक पिता स्थविर प्रार्य शय्यम्भव के शिष्य तुंगियायनसगोत्र आर्य यशोभद्र हुए ।२०५' 'इसके आगे स्थविरावली दो प्रकार की देखने में पाती है : एक संक्षिप्त और दूसरी विस्तृत, पहले संक्षिप्त स्थविरावली दी जा रही है : "संखित्तवायरणाए प्रज्जजसभद्दामो अग्गो एवं थेरावली भणिया तं जहा-थेरस्स णं अज्जजसभहस्स तुंगियायरणसगोतस्स अंतेवासी दुवे थेराथेरे प्रज्जसंभूयविजए माढरसगोते, थेरे अन्जभहवाहू पाईरणसगोत्ते, थेरस्स णं प्रज्जसंभूयविजयस्स माढरसगोत्तस्स अंतेवासी प्रज्जथूलभद्दे थेरे गोयमसगोत्ते, थेरस्स रणं अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी-दुवे थेरा-थेरे प्रज्जमहागिरी, एलावच्छसगोत्ते, थेरे अज्जसुहत्यी वासिट्ठसगोत्ते, थेरस्स रणं प्रज्जसुहत्थिस्स वासिट्टसगोत्तस्स अंतेवासी दुवे थेरा-सुट्टिय-सुपडिबुद्धा कोडियकाकंदगा-वाघावच्चसगोता। थेरारणं सुट्टिय-सुपडिबुद्धाणं कोडिय-काकदगाणं वग्घावच्चसगोत्तारणं अंतेवासी थेरे अज्जईददिने कोसियगोते ॥" _ 'संक्षिप्त वाचना से प्रार्य यशोभद्र के प्रागे की स्थविरावली इस प्रकार कहो है : यथा तुंगियायणसगोत्र स्थविर यशोभद्र के दो स्थविर शिष्य थे : माठरसगोत्रीय स्थविर संभूत विजय और प्राचीन-सगोत्र स्थविर भद्रबाहु, स्थविर प्रार्य संभूतविजय के स्थविर शिष्य गोलम सगोत्र प्रार्य स्थूलभद्र हुए, स्थविर स्थूलभद्र के स्थविर शिष्य दो हुए, स्थविर एलावत्मसगोत्रीय आर्य महागिरि और वासिष्टसगोत्र आर्य सुहस्ती। स्थविर सुहस्ती के स्थविर शिष्य दो हुए : स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध, गृहस्थाश्रम में सुस्थित स्थविर कोटिवर्ष नगर के निवासी होने से कोटिक कहलाते थे और सुप्रतिबुद्ध गृहस्थाश्रम में काकन्दीनगरी निवासी होने से काकन्दक नाम से प्रसिद्ध हुए थे। ये दोनों स्थविर व्याघ्रापत्यसगोत्र थे, इन दोनों स्थविरों के स्थविर शिष्य कौशिकगोत्रीय ‘इन्द्रदिन्न' थे ।' "थेरस्स रणं प्रज्जइंददिन्नस्स कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे प्रज्जदिन्न गोयमसगोत्ते, थेरस्स णं अज्जदिन्नस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी थेरे प्रज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते, थेरस्स रणं अज्जसिंहगिरिस्स जातिसरस्स 2010_05 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ पट्टावली-पराग कोसियगोत्तस्स अंतेवासी थेरे अज्जवइरे गोयमसगोत्ते । थेरस्स रणं प्रज्जवइरस्स गोयमसगोत्तस्स अंतेवासी चत्तारि थेग-थेरे अज्जनाइले, धेरे प्रज्जपोमिले, थेरे प्रज्जजयंते, थेरे अज्जतावसे। थेरामो अज्जनाइलामो अज्जनाइला साहा निग्गया, थेरानो अज्ज पोमिलानो अज्जपोमिला साहा निग्गया, थेरानो प्रज्जजयतामो अज्जजयंती साहा निग्गया, थेरानो अन्जतावसम्मा प्रज्जतावसी साहा निग्गया इति ॥२०६॥" 'कौशिक गोत्रीय स्थविर आर्य इन्द्रदिन्न के शिष्य स्थविर गौतम सगोत्र प्रार्य दिन्न हुए, प्रायं दिन के स्थविर शिष्य आर्य सिंह गरि कौशिक गोत्रीय हुए, जिनको जाति-स्मरण ज्ञान था। स्थावर प्रार्य सिंहगिरि के स्थविर शिष्य आर्य वज्र गोतमगोत्रीय हुए, स्थविर आर्य वज्र के स्थविर शिष्य चार थे : स्थविर आर्य नागिल, स्थविर आर्य पद्मिल, स्थविर आर्य जयन्त और स्थविर मार्य तापस । स्थविर आर्य नागिल से आर्यनागिला शाखा निकली, स्थविर प्रार्य पछिल से प्रार्यपद्मिला शाखा निकली, स्थविर आर्य जयन्त से प्रार्यजयन्ती शाखा निकली और स्थविर आर्य तापस से प्रार्यतापसी शाखा निकली । २०६' “वित्थरबायरगाए पुरण अज्जजसभद्दामो परमो थेरावली एवं पलोइज्जइ, तंजहा-थेरस्स रणं प्रज्जजसभहस्स इमे दो थेरा अंतेवासी प्रहावच्चा अभिनाया होत्या तंजहा-धेरे अज्जभद्दबाहू पाईरणसगोत्ते, थेरे अज्जसंभूयविजये माढरसगोत्ते । थेरस्स णं प्रज्जभद्दबाहुस्स पाईणसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी प्रहावच्चा अभिण्णाया होत्था, तं० थेरे गोदासे, थेरे अग्गिदत्ते, थेरे जण्णवत्ते, थेरे सोमदत्ते कासवेगोत्तेणं। थेरेहितो रणं गोदासेहितो कासवगोत्तेहितो एत्य रणं गोदासगरणे नामं गरणे निग्गए, तस्स रणं इमामो चत्तार साहामो एवमाहिज्जति, तं० तामलित्तिया, कोडीवरिसिया, पोंडवद्धणिया, दासीखन्बडिया ॥२०७॥" 'सविस्तर वाचना के अनुसार आर्य यशोभद्र के मागे स्थविरावली इस प्रकार देखी जाती है, जसे : आर्य यशोभद्र स्थविर के ये दो स्थविर अपत्यसमान और प्रख्यात शिष्य हुए, स्थविर मार्य भद्रबाहु प्राचीन ___ 2010_05 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] गोत्रीय और संभूतविजय स्थविर माठर गोत्रीय, स्थविर आर्य भद्रबाहु के ये चार स्थविर शिष्य हुए, जो निजसन्तान तुल्य पौर प्रख्यात थे। उनके नाम स्थविर गोदास, स्थविर अग्निदत्त, स्थविर यज्ञदत्त और स्थविर सोमदत्त थे. ये सभी काश्यप गोत्रीय थे, स्थविर गोदास से यहां गोदास नामक गण निकला। उसकी ये चार शाखाएँ इस प्रकार कही जाती हैं, जैसे : - ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्डवर्धनिका और दासीकर्पटिका । ॥२०७॥ __ “थेरम्स रणं अज्जसंभूयविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमे दुवालसरा अंतेवासी प्रहावच्चा अभिष्णाया होत्था, तंजहा । नंदणभद्रुवनंदणभद्द तह तीसभद्द जसभद्दे । थेरे य सुमणभद्दे, मरिणभद्दे पुग्नभद्दे य ॥१॥ थेरे य थूलभद्दे, उज्जुमती जंबुनामधेज्जे य । थेरे य दोहभद्दे, थेरे तह पंडुभद्दे य ॥२॥" थेरस्स रणं प्रज्जसंभूइविजयस्स माढरसगोत्तस्स इमानो सत्त अंतेवासिणीमो अहावच्चानो अभिन्नातानो होत्या, तंजहा : जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह होइ भूयदिन्ना य । सेरणा, वेरणा, रेरणा, भगिरणीयो थूलभद्दस्स ॥१॥२०॥ * इनमें पहली शाखा "ताम्रलिप्तिका" की उत्पत्ति वंग देश की उस समय की राजधानी ताम्रलिप्ति वा ताम्रलिप्तिका से थी जो दक्षिण बंगाल का एक प्रसिद्ध बन्दरगाह था। आजकल यह स्थान "तमलुक" जिला मेदिनोपुर बंगाल में है। दूसरी शाखा "कोटिवर्षीया" की उत्पत्ति कोटिवर्ष नगर से थी, यह नगर 'राठ' देश (प्राजकल का मुर्शिदाबाद जिला पश्चिमी बंगाल) की राजधानी थी। तीसरी शाखा "पौण्डवर्धनिका" थी जो पुण्ड्वर्धन (उत्तरो बंगाल की राजधानी गंगा के उतरी तट स्थित पौण्ड वर्धन नगर) से उत्पन्न हुई थी। पृण्डवर्धन को आजकल पाण्डुमा" कहते हैं (फिरोजाबाद) मात्दा से ६ मील उत्तर की ओर था। इसमें राजशाही, दीनाजपुर, रंगपुर, नदिया, वीरभूम, मिदनापुर, जंगलमहल, पचेत और चुनार सामिल थे। और चौथी शाखा पूर्व बंगाल के समुद्र समीपवर्ती "दासीकर्पट" नामक स्थान से प्रसिद्ध हुई थी। ____ 2010_05 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] | पट्टावली-पराग स्थविर प्रार्य संभूतविजयजी के ये १२ स्थविर शिष्य हुए, जो सन्तान तुल्य प्रसिद्धिप्राप्त थे। उनके नाम ये हैं : नन्दनभद्र, उपनन्दनभद्र, तिष्यभद्र, यशोभद्र, स्थविर सुमनोभद्र, मणिभद्र, पूर्णभद्र, स्थविर स्थूलभद्र, ऋजुमति, जम्बूनामा, स्थावर दीर्घ भद्र तथा स्थविर पाण्डुभद्र ||२|| स्थविर प्रार्थं संभूतविजयजी की ये सात शिष्याएँ हुईं, जो प्रपत्यसमान प्रसिद्धिप्राप्त थीं, उनके नाम ये हैं : यक्षा, यक्षदत्ता, भूता, भूतदत्ता, सेना, वेना और रेगा ये प्रार्य स्थूलभद्र की बहनें थीं ॥ २०८ ॥ "थेरस्स र अज्जथूलभद्दस्स गोयमसगोत्तस्स इमे दो थेरा ग्रहावच्चा प्रभिन्नाया होत्या, तंजहा-थेरे श्रज्जमहागिरी एलावच्छसगोते, थेरे सुहत्थो वासिसगोत्ते । थेरस्स गं प्रज्जमहागिरिस्स एलावच्छसगोतस्स इमे घट्ट थेरा प्रवासी अहावच्चा प्रभिन्नाया होत्या । तंजहा : थेरे उत्तरे, थेरे बलिस, थेरे धड्डू, थेरे सिरिड्ड े, थेरे कोडिन्ने, थेरे नागे, थेरे नागमित्ते, थेरे छडलए रोहगुत्ते कोसिए गोत्रणं । येंरेहितो गं छडलए हितो रोहगुत्तेहितो- को सियगोत्तहितो तत्थ गं तेरासिया निग्गया । थेरेहितो गं उत्तरबलिसहितो तत्थ र उत्तरबहिस्सद्गणे नामं गणे निग्गए, तस्स रगं इमा चारि साहाओ एवमाहिज्जंति, तंजहा : कोलंबिया, सोत्तिवत्तिया, कोडंबारगी, चंदनागरी ॥ २०६॥" ' स्थविर प्रार्य स्थूलभद्र के ये दो स्थविर शिष्य थे, जो यथापत्य अभिज्ञात थे। इनके नाम स्थविर श्रार्यं महागिरि एलावत्सगोत्रीय और स्थविर प्रार्य सुहस्ती वासिष्टगोत्रीय, स्थविर आर्य महागिरि के ये आठ स्थविर शिष्य थे, जो यथापत्य और अभिज्ञात थे । उनके नाम ये हैं : स्थविर उत्तर, स्थविर बलिस्सह, स्थविर धनाढ्य, स्थविर श्रीश्राढ्य, स्थविर कौडिन्य स्थविर नाग, स्थविर नागमित्र, स्थविर षडुलूक रोहगुप्त कौशिक गोत्रीय | स्थविर षडुलूक राहगुप्त से त्रैराशिक निकले, स्थविर उत्तर और बलिस्सह से उत्तरबलिस्मह नामक गरण निकला । उसकी ये शाखाएँ चार इस प्रकार कही जाती हैं जैसे: कौशाम्बिका, शुक्तिमतीया, कौडम्बारणी, चन्द्रनागरी | २० | ' , * कौशाम्बी नगरी से प्रसिद्ध होने वाली शाखा कौशाम्बिका कहलाई । कौशांबी 2010_05 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ २१ "थेरस्स रणं अज्जसुहस्थिस्स वासिद्धसगोत्तस्स इमे दुवालस थेरा अंतेवासी प्रहावच्या अभिन्नाया होत्या, तंजहा । थेरेत्थ अज्जरोहण-भद्दजसे मेहगणी य कामिड्डी । सुडियसुप्रडिबुद्धे, रक्खिय तह रोहगुत्ते य ॥१॥ इसिगुत्ते सिरियुत्ते, गरणी य बंभे गणी य तह सोमे । दस दो य गरगहरा खलु, एए सोसा सुहत्यिस्स ॥२॥२१०॥" 'स्थविर आर्य सुहस्ती के ये १२ स्थविर शिष्य हुए, जो यथापत्य अभिज्ञात थे। उनके नाम ये हैं : स्थविर आर्यरोहण, स्थविर भद्र यशा, आर्य मेघगणि, स्थविर कामद्धि, स्थविर सुस्थित, सुप्रतिबुद्ध, प्रार्य रक्षित और स्थविर रोहगुप्त ।१। ऋषि गुप्त, श्रीगुप्त, ब्रह्मगरिण तथा सोनगणि, ये १२ गणधर आर्यसुहस्ती के शिष्य हुए ॥२॥२१०॥ "थेरेहितो णं अज्जरोहणेहितो कासवगुत्तेहितो तत्थ रणं उद्देहगरणे नामं गणे निग्गए। तस्सिमायो चत्तारि साहाओ निग्गयाो छच्चकुलाई एवमाहिज्जंति । से कि तं साहायो ? साहाओ एवमाहिज्जति उदुंबरिजिया, मासपुरिया, माहुरिज्जिया, पुन्नपत्तिया, से तं साहाम्रो । से किं तं कुलाइं ? कुलाई एवमाहिज्जति, तंजहा : इस साय "कौसम" इस नाम से अधिक प्रसिद्ध है जहानपुर से दक्षिण १२ मील, इलाहाबाद से दक्षिण-पश्चिम ३१ मील है। पभोसा नामक पहाड़ी पर एक स्तम्भ और एक मन्दिर है जो कौसम में तीन मील पश्चिम में है। शुक्तिमती दक्षिण मालवा की एक प्रसिद्ध नगरी थी, उससे प्रसिद्ध होने वाली शाखा शौक्तिगतीया कहलाई। कोडम्बारण स्थान कहां था इसका पता नहीं लगा, संभव है यह स्थान युक्तप्रदेश में कही होना चाहिये। चन्द्रनगर सेवड़ाफुली जंक्शन से ७ मील (हावड़ा सौ २१ मील) उत्तर चन्द्रनगर का रेल्वे स्टेशन है। फ्रांसीसियों के भूतपूर्व राज्य में २२/५१/४० उत्तर अक्षांश पर और ८८/२४/५० पूर्व देशान्तर में हुगली नदो के दाहिने किनारे पर चन्द्रनगर एक छोटा सुन्दर शहर है, हुगली के रेल्वे स्टेशन से ३ मील दक्षिण में चन्द्रनगर रेल्वे स्टेशन है। ___ 2010_05 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] [ पट्टावली-पराग पढमं च नागभूयं, बीयं पुष सोमभूइयं होई। अह उल्लगच्छ तइयं, चउत्थयं हथिलिज्ज तु ॥१॥ पंचमगं नंदिज्ज, छट्ठ पुरण पारिहासियं होई । उद्देहगणस्सेते, छच्च कुला होंति नायया ॥२॥२१॥" 'स्थविर आर्यरोहण काश्यपगोत्रीय से सद्दे हगण नामक गण निकला, उसकी ये चार शाखाएँ और छः कुल निकले जो ये हैं : प्रथम शाखाओं के नाम लिखे जाने हैं : उदुम्बरीया', मासपुरिया , माथुरीया; पूर्णपत्रिका, ये शाखाए हैं। अब कुल क्या हैं सो कहते हैं : १ नागभूत, २ सोमभूतिक, ३ पाकच्छ, ४ हस्तलेह्य ।।१॥ ५ नन्दीय, ६ पारिहासिक, उद्दे हगण के उक्त छ: कुल जानने चाहिए ।।२।।२११।। "थेरेहितो र सिरिगुत्तेहितो एत्थ वं चारणगणे नामं गरणे निग्गए। तस्स णं इमानो चत्तारि साहानो सत्त य कुलाई एवमाहिज्जति । से कि तं साहातो? साहातो एवमाहिज्जति तंजहा : हारियमालागारी, संकासिया, गवेधूया, वज्जनागरी, से तं साहायो। से किं तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति तंजहा: पढमेत्थ वच्छलिज्ज, बीयं पुरण पोइधम्मयं होइ । तइयं पुरण हालिज्जं चउत्थगं पूसमित्तिज्जं ॥१॥ १ उदुरीया आजकल का डोमरिया गञ्ज समझना चाहिए, यह स्थान रापती नदी के दाहिने किनारे तहसील का सदर मुकाम है। इसके पूर्व में करीब १६-१७ मील पर बांसी, पश्चिमोत्तर में उतने ही फासले पर उत्तगेली तहसील का सदर मुकाम है । इसके पश्चिम में करीब ४८ मील पर जिले का सदर मुकाम गोडा है। अक्षांश २७:१२ रेखांश ८२/३४/३६ पर डोमरिया गंज अवस्थित है। २ 'मासपुरीया' वर्त देश की राजधानी "मासपुर' थी जिससे "मासपुरिया'' शाला निकली। ३ 'माथुरीया' यह शाखा मथुरा नगरी से प्रसिद्ध हुई है, आगरा से मथुरा ३१ मील पश्चिमोत्तर में अक्षांश २७.३० रेखांश ७७/४१ पर अवस्थित है। ____ 2010_05 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ २३ पंचमगं मालिज्ज, छ8 पुरण प्रज्जचेडयं होई । सत्तमगं कण्हसह, सत्तकुला चाररणगरणस्स ॥२॥२१२॥" स्थविर श्रीगुप्त हारितगोत्रीय से यहां चारणगण नामक गण निकला, उसकी ये चार शाखाएँ और सात कुल इस प्रकार कहे जाते हैं : प्रथम : १. वत्सलीय, २. प्रोतिधर्मक, ३. हालीय, ४. पुष्यमित्रीय, ५. मालीय, आर्य चेटक और ७. सातवां कृष्णसख ये चारण गण के ७ कुलों के नाम हैं । २१२।' ___"थेरेहितो भद्दजसेहितो भारहायसगोत्तेहितो एत्थ रणं उड्डवाडियगरणे निग्गए। तस्स रग इमानो चत्तारि साहायो, तिन्नि कुलाई एवमाहिज्जति । से कि तं साहायो ? साहायो एवमाहिज्जति तं० : चंपिज्जिया, भद्दिज्जिया, काकं दिया, मेहिलिज्जिया, से तं साहायो। से कि तं कुलाई ? कुलाई एवमाहिज्जति : भद्दजसियं तह भद्द-गुत्तियं-सइयं च होइ जसभई । एयाई उडुवाडियकगणस्स तिन्नेव य कुलाइ ॥१॥२१३॥" 'स्थविर भद्रयशा भारद्वाज गोत्रीय से यहां ऋतुवाटिकट नामक गण निकला, जिसकी ये चार शाखाएँ और तीन कुल इस प्रकार कहे जाते हैं : शाखाएँ : चंपीया, भद्दीया, काकन्दिका और मैथिलीया इस नाम से हुईं और कुल : भद्रयशीय, भद्रगुप्तीय, यशोभद्रीय ये ऋतुवाटिका गण के ३ कुल हैं । २१३ ।' ___ "थेरेहितो णं कामिट्टिहितो कुंडिल (कोडिल) सगोत्तेहितो एत्थ रणं वेसवाडियगणे नामं गणे निग्गए। तस्स रणं इमानो चत्तारि साहायो, * उड्डवाडिय' (ऋतुवाटिक) नामक स्थान आजकल का उलबडिया है। कलकना से १५ मील दक्षिण भागीरथी गंगा के बायें किनारे पर हावड़ा जिले के सबडिविजन का सदर स्थान 'उलबडिया' एक छोटा कस्बा है। स्टीमर हर रोज कलकत्ते के प्रारमेनियन घाट से खुलकर उलडिया से नहर द्वारा मेदनीपुर जाती है। उलबडिया से एक अच्छी सड़क मेदनीपुर बालासोर और कटक होकर जगन्नाथपुरी तक पहुंची है. उलपडिया सो आगे दामोदर नदी के मुहाने के सामने फुल्य नामक एक बड़ी बस्ती है। ____ 2010_05 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ] [ पट्टावली-पराग - anema चत्तारि कुलाइएवमाहिज्जति । से किं तं साहायो ? साहाम्रो एव० सावत्थिया, रज्जपालिया, अन्तरञ्जिया, खोमिलिज्जिया, से तं साहायो। से कि तं कुलाई ? कुलाइ एवमाहिज्जति तंजहा : गरिणयं मेहिय कामड्डियं च तह होइ इंदपुरगं च । एयाइ बेसवाडिय-गणस्स चत्तारि उ कुलाइ ॥१॥२१४॥" 'स्थविर कामद्धि कोडालगोत्रीय से यह वैशवाटक नामक गण निकला, इसकी चार शाखाएँ तथा ४ कुल कहे जाते हैं। शाखाएं : श्रावस्तिका, राज्यपालिता, अन्तरंजिया, क्षौमिलीया ये शाखाओं के नाम हैं और गणिक, मेधिक, कामद्धिक और इन्द्रपुरक ये वैशवाटिक गण के ४ कुल हैं । २१४ ।' "थेरेहितो रणं इसिगुत्तेहितो णं काकंदरहितो वासिद्धसगोत्तेहितो एत्थ रणं मारणवगरणे नामं गणे निग्गए। तस्स रणं इमाओ चत्तारि साहायो तिणि य कुलाइएव० । से कि तं साहायो ? साहायो एवमाहिज्जति : कासविज्जिया, गोयमिज्जिया, वासिटिया, सोरडिया, से तं साहायो। से किं तं कुलाई ? कुलाइ एवमाहिज्जति तंजहा : इसिगुत्तियऽत्थ पढम, बिइयं इसिदत्तियं मुणेयध्वं । तइयं च अभिजयंतं, तिन्नि कुला मारणवगरणस्स ॥१॥२१५॥" 'काकन्दक स्थविर ऋषिगुप्त वासिष्ठगोत्रीय से यहां मानव नामक गण निकला, उसकी ये चार शाखाएं और तीन कुल इस प्रकार कहे जाते हैं, शाखाएँ : काश्यपीया, गौतमीया, वासिष्ठीया, सौरट्ठीया ये शाखाओं के नाम हैं। १. ऋषिगुप्तिक, २. ऋषिदत्तिक और तीसरा अभिजयंत ये मानवगण के कुल हैं । २१५ ।' "थेरेहितो रणं सुद्विय-सुपडिबुद्धोहितो कोडिय-काकन्दरहितो वग्यावच्चसगोत्तेहितो एत्थ रणं कोडियगरणे नामं गणे निग्गए। तस्स रणं इमानो चत्तारि साहारो चत्तारि कुलाइएक० । से कि तं साहायो ? साहाम्रो एवमाहिज्जति तंजहा : ___ 2010_05 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ २५ उच्चानागरी विज्जा-हरी य वइरी य मज्झिमिल्ला य । कोडियगरणस्स एया, हवंति चत्तारि साहाम्रो ॥१॥ से किं तं कुलाइ ? कुलाइ एवमाहिज्जति संजहा : मढमेत्य बंभलिज्ज (बभदासिय) तियं नामेण वच्छलिज्जं तु । ततियं पुरण ठाणिज्जं चउत्थयं पन्नवाहरणयं ॥१॥ २१६ ॥" 'स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबुद्ध जो कि गृहस्थाश्रम में क्रमशः कोटिवर्ष और काकन्दी नगरी के रहने वाले और व्याघ्रापत्य गोत्रीय थे। उनसे यहां "कोटिक गण" नामक एक गण निकला, उसकी ये चार शाखाएं तथा चार कुल हैं, जैसे शाखाएँ : उच्चानागरी, विद्याधरी, वाज्री और मध्यमा तथा पहला ब्रह्मलीय, २ वस्त्रलीय, ३ वाणिज्य, ४ प्रश्नवाहन नामक कुल हुए । २१६ ।' ___ "थेराणं सुट्टिय-सुपडिबुद्धारणं कोडिय काकंवयाणं वग्यावच्चसगोत्तारणं इमे पंच थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था, तंजहा : थेरे अज्जइंददिन्ने, थेरे पियगंधे, थेरे विज्जाहर गोवाले कासवे गोत्तेणं, थेरे इसिदत्ते थेरे अरहदत्ते । थेरेहितो णं पियगंथेहितो एत्थ रणं "मज्झिमा" साहा निग्गया। थेरेहितो णं विज्जाहर गोवालेहितो कासवगुत्तेहितो एत्थ रणं विज्जाहरी साहा निग्गया ॥२१७॥" ___स्थविर सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के ये पांच स्थविर शिष्य हुए, जो अपत्य तुल्य और अभिज्ञात थे। उनके नाम : स्थविर आर्य इन्द्रदत्त, स्थविर प्रिय-ग्रन्थ, स्थविर विद्याधर गोपाल काश्यपगोत्रीय, स्थविर ऋषि दत्त और स्थविर महहत्त । स्थविर प्रिय-ग्रन्थ से यहाँ 'मध्यमा शाखा" निकली और स्थविर विद्याधर गोपाल से "विद्याधरी शाखा" निकली । २१७ ।' 'थेरस्स रण अज्जइंददिन्नस्स कासवगोत्तस्स अज्जदिन्ने थेरे अंतेवासी गोयमसगोत्ते । थेरस्स णं अज्जइंददिनस्स कासवगोत्तस्स इमे दो थेरा अंतेवासो महावच्चा अभिन्नाया होत्था, त० थेरेप्रज्जसंतिसेरिगए माढरसगोत्ते, थेरे अज्जसीहगिरी जाइस्सरे कोसियगोत्ते। थेरेहितो रणं अज्जसंति 2010_05 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग सेरिणएहितो रणं माढरसगोहितो एत्य उच्चानागरी साहा निग्गया ॥ २१८॥" ___ स्थविर आर्य इन्द्रदत्त काश्यप गोत्रीय के प्रार्यदरा स्थविर गोतम गोत्रीय शिष्य हुए, स्थविर मार्यदत्त के ये दो स्थविर शिष्य हुए जो यथापत्य और अभिज्ञात थे, पहले स्थविर प्रार्य शान्तिश्रेणिक माठर गोत्रीय और दूसरे स्थविर सिंह गिरि जातिस्मरण वाले कौशिक गोत्रीय, स्थविर आर्य शान्तिश्रेणिक से यहां उच्चानागरी शाखा निकली । २१८ ।' थेरस्स रणं प्रज्जसंतिसेरिणयस्स माढरसगोत्तस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नाया होत्था तं० : थेरे अज्जसेरिगए, थेरे अज्जतावसे, थेरे अज्जकुबेरे, धेरै अज्जइसिपालिते। थेरेहितो एं प्रज्जसेरिगएहितो एस्थ रणं अज्ज सेणिया साहा निग्गया। थेरेहितो रणं अज्जताबसेहितो एत्य रणं अज्जतावसी साहा निग्गया। थेरेहितो रणं अज्ज कुबेरेहितो एत्थ रणं प्रज्जकुबेरा साहा निग्गया। थेरेहितो रणं प्रज्जइसिपालिएहितो एत्थ रणं अज्जइसिपालिया साहा निग्गया ॥२१॥" - 'स्थविर शान्तिश्रेणिक के ये चार स्थविर शिष्य हुए जो यथापत्य और अभिज्ञात थे, इनके नाम ये हैं : स्थविर आयं श्रेरिणक, स्थविर आर्य तापस, स्थविर प्रार्य कुबेर और स्थविर प्रार्य ऋषिपालित । स्थविर आर्य श्रेणिक से यहां आर्य श्रेणिका शाखा निकली, स्थविर प्रार्य कुबेर से यहाँ आर्य कुबेरा शाखा निकली पौर स्थविर आर्य ऋषिपालित से यहां आर्य ऋषिपालिता शाखा निकली । २१६ ।' ___ “थेरस्स णं अज्जसीहगिरिस्स जातिसरस्स कोसियगोत्सस्स इमे चत्तारि थेरा अंतेवासी अहावच्चा अभिण्णाया होत्या तं० : थेरे घणगिरी, थेरे प्रज्जवइरे, थेरे अज्जसमिए, थेरे परहविः । पेरेहितो णं प्रज्जसमिएहितो गोयमसगोत्तेहितो एत्य णं बंभदीविया साहा निग्गया। थेरेहितो वं प्रज्जवइरेहितो गोयमसगोत्तेहितो एत्व रणं अज्जवइरा साहा निग्गवा ॥ २२०॥" ____ 2010_05 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ २७ ___ 'स्थविर मार्य सिंहगिरि के ये चार स्थविर शिष्य यथापत्य तथा आभिजात्य हुए, जिनके नाम : स्थविर धनगिरि, स्थविर मार्य वन, स्थविर आर्य समित, आर्य महद्दत्त, स्थविर मार्य समित से यहां ब्रह्मद्वीपिका शाखा निकली, स्थविर आर्य वज्र गौतम गोत्रीय से यहां आर्य वाजी शाखा निकली । २२० ।' "थेरस्स रणं अज्जवइरस्स गोतमसगोत्तस्स इमे तिन्नि थेरा अंतेवासो अहावच्चा अभिन्नाया होत्या, तं० : थेरे अज्जवइरसेणे, थेरे अज्जपउमे, थेरे अज्जरहे। थेरेहितो णं अज्जवइरसेरोहितो एत्थ रणं अज्जनाइलो साहा निग्गया। थेरेहितो णं अज्जपउमेहितो एत्थ णं अज्ज पउमा साहा निग्गया । थेरेहितो णं प्रज्जरहेहितो एत्थ रणं अज्ज जयंती साहा निग्गया ॥२२१॥" स्थविर प्रार्य वज्र गौतम गोत्रीय के ये तीन स्थविर शिष्य हुए जो यथापत्य अभिज्ञात थे। उनके नाम : मार्य वज्रसेन, पायं पद्म और मार्य रथ थे। स्थविर प्रार्य वज्रसेन से यहां प्रार्थनागिली शाखा निकली, स्थविर मार्य पद्म से प्रार्य पद्मा और स्थविर प्रार्य रथ से यहां आर्य जयन्ती शाखा निकली । २२१ ।' "थेरस्स णं प्रज्जरहस्स वच्छसगोत्तस्स अज्जपूसगिरी थेरे अंतेवासी कोसियगोत्ते। थेरस्स णं अज्जपूसगिरिस्स कोसियगोत्तस्स अज्जफग्गुमिसे थैरे मंतेवासी गोयमसगुत्ते ॥२२२॥" 'स्थविर आर्य रथ वत्सगोत्रीय के कौशिक गोत्रीय शिष्य आर्य पुष्यगिरि हुए स्थविर मार्य पुष्यगिरि के शिष्य आर्य फल्गुमित्र गौतम गोत्रीय हुए ॥२२२॥ "थेरस्स रणं अज्जफग्गुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जधरणगिरी थेरे अंतेवासी वासिटुसगोत्ते ॥३॥ थेरस्स णं प्रज्जघरणगिरिस्स वासिटुसगोत्तस्स प्रज्जसिवभूई थेरे अंतेवासी कुच्छसगोत्ते ॥४॥ थेरस्स रणं प्रज्जसिवभूइस्स कच्छसगोत्तस्स प्रज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ॥५॥ थेरस्स रण अज्ज ___ 2010_05 Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] | पट्टावलो-पराग भद्दस्स कासवगुत्तस्स अज्जनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ॥६॥ थेरस्स णं अज्जनक्खत्तस्स कासवगुत्तस्स अज्जरक्खे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ॥७॥ थेरस्त रणं अज्जरक्खस्स कासवगुत्तस्स अज्जनागे थेरे अंतेवासो गोयमसगोत्ते ॥६॥ थेस रणं अज्जनागस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जजेहिले थेरे अंतेवासो वासिद्धसगुत्ते ॥६॥ थेरस्स रणं अज्जजेहिलस्स वासिद्धसगुत्तस्स अज्ज विण्हू थेरे प्रतेवाती माढरसगोते ॥१०॥ थेरस्स रणं अज्जविण्हुस्स माढरसगुत्तस्स अज्जकालए थेरे अतेवासो गोयमसगोत्ते ॥११॥" 'स्थविर आर्य फल्गुमित्र के स्थविर शिष्य मार्य धनगिरि वासिष्ठ गोत्रीय हुए । स्थविर आर्य धनगिरि के आर्य शिवभूति स्थविर कौत्स गोत्रीय हुए : स्थविर शिवभूति के स्थविर शिष्य मार्य भद्र काश्यप गोत्रीय हुए, स्थविर आर्यभद्र के स्थविर शिष्य मार्य नक्षत्र काश्यप गोत्रीय हुए। स्थविर आर्य नक्षत्र के स्थविर शिष्य प्रार्यरक्ष काश्यप गोत्रीय हुए। स्थविर प्रार्यरक्ष के स्थविर शिष्य आर्य नाग गौतम गोत्रीय हुए, स्थविर आर्य नाग के स्थविर शिष्य प्रार्य जेहिल वासिष्ठ गोत्रीय हुए, स्थविर आर्य जेहिल के स्थविर शिष्य प्रार्य विष्णु माठर गोत्रीय हुए, स्थविर मार्य विष्णु के स्थविर शिष्य पार्यकालक गौतम गोत्रीय हुए। ११ ।' ___"थेरस्स रणं प्रज्जकालगस्स गोयमसगुत्तस्स इमे दुवे थेरा अतेवासी गोयमसगुत्ता : थेरे अज्जसंपलिए, थेरे अज्जभद्दे ॥१२॥ एएसि दुण्हवि थेराग गोयमसगुत्तारण अज्जवुड्डे धेरै प्रतेवासी गोयमसगुत्ते ॥१३॥ थेरस्स रण अज्ज वुड्डस्स गोयमसगोत्तस्स अज्ज संघपालिए थेरे अतेवासी गोयमसगोत्ते ॥१४॥ थेरस्स ग अज्ज संघपालियस्स गोयमसगोत्तस्स अज्जहत्थो थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ॥१५॥ थेरस्स णं अज्जहत्थिस्स कासवगुत्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासो सुव्वयगोत्ते ॥१६॥ थेरस्स रणं अज्जधम्मस्स सुव्वयगोत्तस्स प्रज्जसीहे थेरे अंतेवासी रासवगुत्ते ॥१७॥ थेरस्स रणं अज्जसोहस्स कासवगुत्तस्स अज्जधम्मे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते ॥१॥ रस्स एं अज्जधम्मस्स कासवगुत्तस्स अज्ज संडिल्ले थेरे अंतेवासी ॥१९॥" 'स्थविर आर्य कालक के ये दो स्थविर शिष्य गौतम गोत्रीय हुए, स्थविर आय सम्पलित और स्थविर आर्यभद्र, इन दो स्थविरों के स्थविर ____ 2010_05 Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ २९ शिष्य आर्यवृद्ध गौतम गोत्रीय हुए, स्थविर आर्य वृद्ध के प्रार्य संघपालित गौतम गोत्रीय शिष्य हुए, स्थविर आर्यसंघपालित के प्रार्य हस्ती स्थविर शिष्य काश्यप गोत्रीय हुए, स्थविर आर्य हस्ती के अयं धर्मस्थविर शिष्य सुव्रत गोत्रीय हुए, स्थविर आर्यधर्म के प्रायसिंह स्थविर शिष्य काश्यप गोत्रीय हुए, स्थविर आयसिंह के आर्यधर्म काश्यप गोत्रीय रि.ष्य हुए, स्थविर आर्यधर्म के आर्य शाण्डिल्य स्थविर शिष्य हुए । १६ ।' "वंदामि फगुमित्तं च, गोयमं धरणगिरि च वासिट्ट। कोच्छं सिवभूई पिय, कोसियदोज्जितकण्हे य ॥१॥ ते वंदिऊरण सिरसा, भदं वदामि कासवस गोत्तं । रणक्खं कासवगोत्तं, रक्खं पि य कासवं वंदे ॥२॥ वंदामि अज्जनागं च, गोयम जेहिलं च वासिट्ठ। विण्डं माढरगोतं, कालगवि गोयमं वंदे ॥३॥ गोयमगोत्तकुमारं, संपलियं तह य भयं वंदे । थेरं च अज्ज चुड्डू गोयमगुत्तं नमसामि ॥ ४ ॥ तं वंदिऊरण सिरसा, थिरसत्तचरित्तनाणसंपन्न । थेरं च संघवालिय, गोयमगुत्त परिणवयामि ॥ ५॥ वंदामि प्रज्जहत्थि च, कासवं खंतिसागरं घोरं । गिम्हाण पढममासे, कालगयं चेव सुद्धस्स ॥ ६ ॥ वंदामि अज्जधम्मं च, सुव्वयं सोलल द्धिसंपन्न । जस्स निक्खमणे देवो, छत्तं वरमुत्तमं वहइ ॥७॥ हत्थि कासवगुत्तं, धम्मं सिवसाहगं परिणवयामि । सोहं कासवगुत्तं, धम्म पि य कासवं वंदे ॥८॥ तं वंदिऊस सिरसा, थिरसत्तवरित्तनारणसंपन्न । थेरं च अज्जजंबु, गोयमगुत्तं नमसामि ॥६॥ मिउमद्दवसंपन्न, उवउत्तं नारण-दंसरण-चरित्ते । थेरं च नंदियं पि य, कासवगुत्तं परिणवयामि ॥१०॥ ___ 2010_05 Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पट्टावली-पराग तत्तय थिरचरितं, उत्तमसम्मत्तसत्तसंजुत्तं । देसिरिण खमासमरणं, माढरगुत्तं नमसामि ॥११॥ तत्तो प्रणुप्रोगधरं, धीरं मइसागरं महासत्तं । थिरगुत्तखमासमणं, वच्छसगुत्तं परिणवयामि ॥ १२ ॥ तत्तो य नाण-दसरण-चरित्त-तव सुट्टियं गुणमहंत । थेरं कुमारयम्म, वंदामि गरिंग गुणोवेयं ॥ १३ ॥ सुत्तत्थरयणभरिए, खमदममद्दवगुरणेहि संपन्ने । देविडिखमासमणे, कासवगुत्ते परिणवयामि ॥१४॥" 'गौतमगोत्रीय फल्गुमित्र, वासिष्ठगोत्रीय धनगिरि, कुत्सगोत्रीय शिवभूति और कौशिकगोत्रीय दुर्ज पन्तकृष्ण को वन्दन करता हूं। उनको मस्तक से वन्दन कर काश्यपगात्राय भद्र, नक्षत्र और रक्ष को नमस्कार करता हूँ। गौतमगोत्रीय आर्य नाग, वासिष्ठगोत्रीय आर्य जेष्ठिल, माठरगोत्रीय विष्णु और गौतमगोत्रीय कालक स्थविर को वन्दन करता हूँ। गोन गोत्रोध कुमारधर्म, संपलित और आर्यभद्र को वन्दन करता हूँ, उनको मस्तक रो वन्दन कर स्थिरसत्त्ववान् तथा चारित्र, ज्ञान से सम्पन्न गौतमगोत्रीय संघालित स्थविर को प्रणिपात करता हूँ। काश्यपगोत्रीय मार्यहस्तो को नन्दन करता हूँ, जो क्षमा के सागर और धीर पुरुष थे और जो चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में कालधर्म प्राप्त हुए थे। शोललब्धि से सम्पन्न, सुबनगोत्रीय आर्यधर्म को नमस्कार करता हूँ, कि जिनको दीक्षा के समय में देव ने उनके ऊपर छत्र धारण किया था, काश्यपगोत्रीय हस्ती और शिवसाधक धर्म को प्रणिपात करता हूँ तथा काश्यपगोत्रीय सिंह तथा काश्यपगोत्रीय धर्म को भी वन्दन करता हूँ। उनको नमन करने के उपरान्त स्थिर सत्त्ववान् और चारित्र-ज्ञान से सम्पन्न गौतमगोत्रीय स्थविर आर्य जम्बू को नमस्कार करता हूँ। कोमलप्रकृति, मार्दवसम्पन्न, ज्ञान, दर्शन, चारित्र में उपयोगवान् ऐसे काश्यपगोत्रीय स्थविर नन्दित को भी प्रणिपात करता हूँ। इनके बाद स्थिरचारित्र, उत्तम सम्यक्त्व तथा सत्त्वसंयुक्त माठरगोत्रीय देसिगणि क्षमाश्रमण को नमन करता हूँ, तदनन्तर ___ 2010_05 Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] | ३१ अनुयोगधारक, धीर, मतिसागर और महासत्त्ववन्त वत्सगोत्रीय स्थिरगुप्त क्षमाश्रमरण को प्रणिपात करता हूँ, फिर ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप से सुस्थित गुरणों से महान् श्रोर गुणोपेत स्थविर कुमारधर्मं गरिए को वन्दन करता हूँ । सूत्र तथा अर्थ रूप रत्नों से भरे क्षमा, दम, मार्दवगुणों से सम्पन्न ऐसे काश्यपगोत्रीय देवद्धि क्षमाश्रमण को प्रणिपात करता हूँ । 2010_05 क Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री देवद्धिंगसि की मुस-परम्परा कल्प-स्थविरावली वास्तव में स्थविर देवद्धि की गुरु-परम्परा है। कल्प-स्थविरावली में आर्यवज्र का नम्बर १३वां आता है और इनके तृतीय शिष्य आर्य रथ से परम्परा आगे चलती है : १३-प्रार्य वज्र, १४-प्रार्य रत्र, १५-प्रार्य पुष्यगिरि, १६-आर्य फल्गुमित्र, १७-प्रार्य धनगिरि, १८-आर्य शिवभूति, १६-आर्य भद्र, २०-आर्य नक्षत्र, ३१-आर्य रक्ष, २२-प्रार्य नाग, २३-प्रार्य जेष्ठिल, २४-प्रार्य विष्णु, २५-प्रार्य कालक, २६-प्रार्य संपलित, २७-मार्य वृद्ध, २८-प्रार्य संघपालित, २६-पार्य हस्ती, ३०-आर्यधर्म, ३१-पार्यसिंह, ३२-प्रार्यधर्म, ३३-प्रार्य शाण्डिल्य । इस प्रकार गद्य कल्पस्थविरावली में सुधर्मा से लेकर शाण्डिल्य तक ३३ पट्टधर प्रार्य सुहस्ती की परम्पर। में होते हैं । श्री देवद्धिगरिण ने इसमें अपना नाम नहीं लिखा- क्योंकि वे स्वयं स्थविरावली के संकलनकार हैं। वास्तव में देवद्धिगरिण इस पट्टावली के ३४३ पट्टधर हैं, इसमें कोई विवाद नहीं है । स्थविरावली के गद्यसूत्र में शाण्डिल्य के आगे किसी भी स्थविर का नाम नहीं मिलता। फल्गुमित्र से लेकर पार्यसिंह तक के सभी स्थविरों के नाम पद्यों में निबद्ध कर वन्दन किया है, परन्तु अन्तिम दो सूत्रों में निर्दिष्ट अार्यधर्म और शाण्डिल्य के नाम नहीं मिलते, तब पद्यों में शिवभूति के बाद दुर्जयन्त कृष्ण का नाम अधिक उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रायसिंह के आगे प्रार्यजम्बू और प्रार्यधर्म के आगे आर्यनन्दित को स्तुति की गई है। इसके उपरान्त देसिगणि, स्थिरगुप्त क्षमाश्रमण कुमारधर्म गणि और देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण की नामावली पद्यों में दी है। इससे प्रमाणित होता है कि स्थविरावली के उपर्युक्त गद्य-सूत्र देवद्धिगणि के पुस्तक-लेखन के पहले ही निर्मित हो चुके थे। कल्प के टीकाकार लिखते 2010_05 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] हैं कि गद्य में लिखा हुआ अर्थ पद्यों में दिया गया है। यह कथन अधिकांश में ठीक है, परन्तु कतिपय स्थविरों के नाम गद्य में न होते हुए भी पद्यों में दिये गये हैं, जैसे : दुर्जयन्त कृष्ण, धर्म के बाद मार्यहस्ती, आर्यधर्म, सिंह के बाद आर्यजम्बू और आर्यनन्दित नाम के स्थविर पट्टधर न होते हुए भी अपने समय में अनुयोगधर होने से प्रसंगवश उनका स्मरण किया गया है और देसिगणि, स्थिरगुप्त, क्षमाश्रमण; कुमारधर्मगणि और देवद्धिगणि क्षमाश्रमण इन चार स्थविरों की स्तुति देवद्धि क्षमाश्रमण के पुस्तकलेखन के बाद परवर्ती किसी विद्वान् ने बना कर गाथाओं के साथ जोड़ दो मालूम होती है। ___ 2010_05 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प-स्थविराक्ली की प्राचीनता की कसौटी __ कल्प-स्थविरावली में प्रार्यसुधर्मा गणधर से लेकर अन्तिम श्रुतधर देवद्धिगणि क्षमाश्रमण तक के स्थविरों के नाम पाते हैं । इससे कतिपय अदीर्घदर्शी विद्वान् श्वेताम्बरमान्य जैनसिद्धान्त देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के समय में लिपिबद्ध किये मानते हैं, तब दिगम्बरीय ‘कषाय-पाहुड" तथा "षट्खण्डागम" जैसे अर्वाचीन दिगम्बर जैन-मान्य निबन्धों को ईसा के पूर्व चतुर्थ शती में लिखे गए मानते हैं, जो प्राचीनसाहित्यविहीन अपने सार्मिक दिगम्बर भाइयों को झूठा आश्वासन देने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह चर्चा बड़ी गम्भीर है, अतः अन्य प्रसंग के लिए छोड़ कर आज हम प्रस्तुत "कल्प-स्थविरावली" की प्राचीनता प्रमाणित करने के लिए कुछ विवरण देंगे। प्रकृत-स्थविरावली में कोई पाठ नये गण उत्पन्न होने की सूचना मिलती है। इनमें सर्वप्रथम भद्रबाहु के शिष्य स्थविर गोदास की तरफ से 'गोदास गण' का प्रादुर्भाव और इसकी ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पुण्ड्रवर्धनिका प्रौर दासीकर्पटिका नामक ४ शाखाओं से बंगाल के सुदूरवर्ती पूर्व उत्तर तथा दक्षिण प्रदेशों में उसका विकास हो रहा था। श्रद्धालु दिगम्बर विद्वानों की मान्यतानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी अपने शिष्यों के साथ दक्षिण भारत में चले गए होते तो 'गोदास गण' और उसको उक्त चार शाखाएँ गंगा नदी के तट पर तथा पूर्वी समुद्र के समीप भद्रबाहु के शिष्यों द्वारा प्रचलित और दृढ़मूल नहीं होती। इसी प्रकार प्रार्यसुहस्ती के बड़े गुरुभ्राता आर्यमहागिरि के शिष्य उत्तर और बलिस्सह स्थविरों से प्रसिद्धि प्राप्त 'उत्तर-बलिस्सह गण' और 2010_05 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम- परिच्छेद ] [ ३५ उसकी चार शाखाएँ प्रसिद्ध हुईं थीं जिनके नाम कौशाम्बीया ९, शुक्तिमतिका २, कोडम्बारणी ३ और चन्द्रनागरी ४ थे । इन शाखानों से ज्ञात होता है कि श्री भद्रबाहु स्वामी की दो पीढ़ी के बाद भी जैन श्रमणों का विहार मध्यभारत में कौशाम्बी तथा शुक्तिमती नगरी तक जो मध्यभारत के दक्षिण विभाग में विन्ध्याचल की घटियों की तराई में थो- पहुंच चुका था और पूर्व में कौडम्बारण नगर और उसके भागे चन्द्रनगर तक हो रहा था । यदि भद्रबाहु स्वामी १२००० श्रमणों के साथ दक्षिण में पहुँच गये होते तो भारत के मध्यप्रदेश में तथा पूर्व देशों में जैन श्रमणों की शाखाएँ कैसे प्रचलित होतीं, यह बात मध्यस्थबुद्धि से विद्वानों को विचारने योग्य है । आर्यसुहस्ती के शिष्य प्रर्यरोहण से "उद्दे हगरण" नामक श्रमणों का एक गण प्रसिद्ध हुआ था, जिसकी चार शाखाएँ और छः कुल थे । शाखानों के नाम : उदुम्बरीया, मासपुरीया, माहुरिज्जीया, पोणपत्तीया थे। इनमें उदुम्बरीया, प्राचीन श्रावस्ती के निकट प्रदेश से निकली थी, मासपुरीया वर्त देश की राजधानी मासपुर से निकली थी, माहुरिज्जीयामाथुरीया - मथुरा से प्रसिद्ध हुई थी, पौर्णपत्रीया शाखा का पता नहीं लगा, फिर भी "प्रारम्भ की तीन शाखाओं" से इतना तो निश्चित रूप से जाना जा सकता है कि भद्रबाहु और उनके परम्परा - शिष्यों के समय से ही निर्ग्रन्थ श्रमरणसंघ धीरे-धीरे पूर्व से मध्यभारत और उससे भी पश्चिम की तरफ आ रहा था । प्रार्य महागिरि तथा प्रार्य सुहस्ती के समय में अवन्ती नगरी में सम्प्रति का राज्य था, इसी कारण से उस समय में जैन श्रमरण मध्यभारत में अधिक फैले थे । आर्य सुहस्ती के शिष्य श्रीगुप्त स्थविर से चारण गण नामक एक श्रमणों का गण प्रसिद्धि में प्राया था, जिसकी चार शाखाएँ और तीन कुल थे । शाखाएँ : हारियमालाकारी, सांकाश्यिका, गवेधुका औौर वज्रनागरी नामों से प्रसिद्ध थीं । इन शाखाओं के नामों से ज्ञात होता है कि चारण गरण के श्रमरण भी कान्यकुब्ज के समीपवर्ती प्रदेशों में अधिक विचरते थे । 2010_05 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग - स्थविर भद्रयशा नामक प्रार्य सुहस्ती के एक शिष्य से ऋतुवाटिक नामक एक गण प्रसिद्ध हुआ था, जिसकी चार शाखाएँ और तीन कुल थे। शाखाएं' : चम्पोया, भद्रीया, काकन्दीया और मैथिलीया नामक थीं जो क्रमशः अंग देश की राजधानी चम्पा, मलय देश की राजधानी भद्रिका, विदेह स्थित काकन्दी और विदेह की राजधानी मिथिला से प्रसिद्ध हुई थीं। इससे यह बात भी स्पष्ट होती है कि भद्रबाहु ही नहीं किन्तु उनके परवर्ती आर्य सुहस्ती के शिष्य भी अंग, मगध, विदेह आदि देशों में विचरते हुए जैन-धर्म का प्रचार कर रहे थे। आर्य सुहस्ती के शिष्य काद्धि स्थविर से वैशवाटिक नामक गण प्रसिद्ध हुअा था, जिसकी चार शाखाएँ और चार कुल थे। शाखामों के नाम : श्रावस्तीया, राज्यपालिता, अन्तर जिया और क्षौमिलीया थे। आर्य काद्धि के वेशवाटिक गण की प्रथम तथा तृतीय शाखामों के नामों पर से ज्ञात होता है कि उनके शिष्य बस्ती तथा गोरखपुर जिलों में अधिक विचरे थे । वेशवाटिक गण को द्वितीय शाखा का पता नहीं लगा, परन्तु चौथी शाखा पूर्व बंगाल के "क्षौमिल नगर" से निकली थी जो स्थान प्राजकल "कोमिला' के नाम से प्रसिद्ध है। आर्य सुहस्तो सूरिजी के शिष्य ऋषि गुप्त स्थविर से भी 'मानवगण' नामक एक गण निकला था, जिसकी शाखाएँ ४ और कुल ३ प्रसिद्ध थे। मानवगण की प्रथम द्वितीय और तृतीय शाखा काश्यप, गौतम और वासिष्ठ इन गोत्रों से प्रसिद्ध होमे वाले स्थविरों के नामों से प्रसिद्ध हुई थीं, तब चौथी शाखा 'सोरट्टिया' यह एक स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुई जो सोरठ नगर' कहलाता था । यह स्थान मधुवनी से उत्तर-पश्चिम आठ मील पर "सौरठ" इस नाम से प्रख्यात है । स्थविर आर्य सुहस्ती के शिष्यों से निकलने वाले गणों में अन्तिम "कोटिक गण" है, इसकी उत्पत्ति सुस्थित सुप्रतिबुद्ध नामक दो स्थविरों से हुई थी। उक्त दोनों स्थविर गृहस्थाश्रम में क्रमशः 'कोटिवर्ष नगर' और 'काकन्दी नगरी' के रहने वाले होने से “कोटिक' तथा “काकन्दक" ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] इन उपनामों से विख्यात हुए थे और इनसे निकलने वाला श्रमणगण भी "कोटिक" नाम से ही प्रसिद्ध हुआ। कोटिक गण की भी चार शाखाएँ और चार कूल थे। शाखामों के नाम : उच्चानागरी, विद्याधरी, वइरी और मध्यमिका थे। उच्चानागरी शाखा प्राचीन "उच्चानगरी" से प्रसिद्ध हई थी। उच्चानगरी को आजकल "बुलन्द शहर" कहते हैं, माध्यमिका शाखा "मध्यमिका नगरी" से प्रसिद्ध हुई थी जो चित्तौड़ के समीपवर्ती प्रदेश में थी। विद्याधरी और वइरी शाखाओं के नामों का प्रवृत्तिनिमित्त जानने में नहीं आया। यद्यपि विद्याधर गोपाल से विद्याधरी और आर्य वज्र से आर्य वजी शाखा निकलने का कारण स्थविरावली में आगे लिखा है, परन्तु वे 'शाखाएँ" स्वतन्त्र हैं, गच्छप्रतिबद्ध नहीं। तब प्रस्तुत 'विद्याधरी और 'वैरी' शाखा कोटिक गण से प्रतिबद्ध हैं। वेशवाटिक गण' की क्षोमिलीया और मानवगण की सौरदीया शाखामों से ज्ञात होता है, कामद्धि और ऋषिगुप्त प्राचार्यों के कुछ शिष्य बंगाल की तरफ विचरते थे, तब "कोटिक गण" को "उच्चानागरी" और "माध्यमिका" शाखाओं से निश्चित होता है कि "सुस्थित सुप्रतिबुद्ध" के शिष्य "मध्य-भारत" और "पश्चिम-भारत" के प्रदेशों तक पहुँच चुके थे। उपर्युक्त गण तथा शाखाओं से जो फलितार्थ निकलता है उसका सारांश यह है कि प्रार्य भद्रबाहु स्वामी, जिनका युगप्रधानत्व समय जिननिर्वाण से २०८ से २२२ तक माना गया है। भद्रबाहु के शिष्य गोदास स्थविर ने अपने नाम से जो गण प्रसिद्ध किया, उसका समय भी निर्वाण से २२२ से २३० का होना चाहिए, जो विक्रमपूर्व की तीसरी शताब्दी में पड़ता है। गोदास गण की तथा प्राचार्य महागिरि के शिष्य "उत्तर" तथा "बलिस्सह" से निकलने वाले “उत्तर-बलिस्सह गण" की शाखाएँ हैं, परन्तु कुल नहीं। इसका कारण यही है कि तब तक दीक्षित होने वाले सभी साधु पट्टधर प्राचार्य के ही शिष्य माने जाते थे। श्रमणसमुदाय अधिक होने से भिन्न २ स्थानों को अपना केन्द्र बना कर उसके आसपास धर्म का प्रचार करते थे। उन्हीं केन्द्रों के नाम से उनकी शाखाओं के नाम पडते थे। आर्य महागिरि का समय जिननिर्वाण से २६८-२६८ तक था। ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ ] । पट्टावलो-पराग इस दशा में इनके शिष्य उत्तर और बलिस्सह का समय भी यही अथवा इससे कुछ परवर्ती विक्रमपूर्व द्वितीय शताब्दी में आएगा। स्थविरावलीसूचित आठ गणों में से “गोदासगण" और "उत्तरबलिस्सहगण" के अतिरिक्त "उद्दे हगण, चारणगण, ऋतुवाटिकगण, वैशवाटिकगण, मानवगण" और "काटिकगरण' ये छः गण प्रार्य सुहस्ती सूरि के भिन्न भिन्न शिष्यों से प्रसिद्ध हुए हैं। आर्य सुहस्तीजी का युगप्रधानत्व समय 'जिननिर्वाण' २६८ से ३४३ तक का माना है। इससे इनके शिष्यों का समय भो यही अथवा कुछ परवर्ती विक्रमपूर्व के द्वितीय शतक में पड़ता है। यह समय मौर्य राजा सम्प्रति के राजत्वकाल के साथ ठोक मिल जाता है। प्रार्य सुहस्ती के शिष्यों से छः गणों, २४ शाखाओं और २७ कुलों का प्रादुर्भाव होना यह बताता है कि उस समय में जैन श्रमणों की संख्या पर्याप्त बढ़ी हुई थी और धर्म प्रचार के केन्द्र पूर्व में पूर्व बंगाल, दक्षिण में विन्ध्याचल को घाटियों, पश्चिम में पूर्व-पंजाब और उत्तर में गोरखपुर और श्रावस्तो के प्रदेश तक स्थापित हुए थे और अपने अपने केन्द्रों से निग्रन्थ श्रमण जैनधर्म का प्रचार कर रहे थे। यद्यपि राजा सम्प्रति की प्रेरणा से प्रार्य सुहस्ती ने अपने श्रमणों को दक्षिण भारत में भी विहार करवाया था, परन्तु उस प्रदेश में उस समय में व्यवस्थित केन्द्र नियत नहीं हुए थे। अब हम कल्प-स्थ विरावलीगत परण, शाखा और कुलों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करेंगे कि इन गण आदि का प्राचीनत्व साधक स्थविरावली के अतिरिक्त भी कोई प्रमाण है या नहीं ? स्थविररावली के गण आदि के प्राचीनत्व का विच र करते हो हमें मथुरा का देवनिर्मित स्तूप याद आ जाता है। यों तो जैनों के अनेक प्राचीन तीर्थस्थान हैं जिनमें देवनिर्मित स्तूप भी एक प्राचीन तीर्थ है, परन्तु अन्य जैन प्राचीन तीर्थ धर्म-चक्र, गजानपद, अहिच्छत्रा नगरी प्रादि प्राचीन स्थानों की अब तक शोध-खोज नहीं हुई है, जितनी कि मथुरा समीपवर्तीदेवनिर्मित स्तूप की, जो आजकल "ककालो टोला' के नाम से प्रसिद्ध है, ____ 2010_05 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] [ ३६ अंग्रेजों के शासनकाल में हुई है ! देवनिर्मित स्तूपं विक्रम की १४वीं शती तक जैनती के रूप में प्रसिद्ध था, परन्तु विदेशियों के आक्रमण से और खास करके इस देश में मुसलमानों की राज्यसत्ता स्थापित होने के बाद यः स्थान धीरे-धोरे भूला जाने लगा था । जैनमियों का उत्तर भारत से सामूहिक रूप से दक्षिण की तरफ प्रयारण हो गया और उत्तरीय जैन-तीर्थ धीरे-धीरे स्मृतिपट से उतर गर । अंग्रजों के शासन में प्राचीन स्मारकों की जांच करते हुए कंकाली टोला भी खोदा गया और भीतर से जैन स्तूप के अतिरिक्त अनेक जैन-मूर्तियां, पूजापाट, अन्यान्य स्मारक, प्राचीन लेखों के साथ हाथ लगे और उन प्राचीन लेखों से ज्ञात हुमा कि यह एक अरिप्राचीन जैन स्तूप है, जो कुप रावशीय राजा कनिष्क आदि के समय में उत्तर भारत का एक प्रति प्रसिद्ध जैनतीर्थ था। कंकाली टोला में से प्रकट हुए जो प्राचीन लेख मिले थे, वे डा० कनिंघहीम के आचिनो लॉजिकल रिपोर्ट के ३ वॉल्यूम में छपे थे और वहाँ से उद्धत कर अन्यान्य गोधकों ने उन पर प्रकाश डाल कर अपनी तरफ से छपाये थे। यहां हम "श्री माणिकचन्द्र जैन-ग्रन्थ-माला" के ४५वें ग्रन्थ के रूप में छपे हुए "जैन शिलालेख-संग्रह" के द्वितीय भाग में प्रकाशित उक्त स्तूप के शिलालेखों के आधार से कल्प-स्थविरावलीगत गणों, शाखामों ओर कुलों को प्राचीनता के सम्बन्ध में ऊोह करके प्रमाणित करेंगे कि "कल्प-स्थविरावल." मार्य देवद्धिक्षमाश्रमण के समय का सन्दर्भ नहीं है, अपितु भगवान् महावीर के निर्वाण की तीसरी शती में लिखी हुई एक प्राचीन पट्टावली है । मथुरा के स्तूप से निकले हुए कुषाणकालीन लगभग ८३ लेखों में 'जैनधर्म सम्बन्धी विवरण है उनमें से ४८ लेखों में गण, कुल, शाखामों के उल्लेख हैं, स्थविरावलीगत पाठ गणों में से इन लेखों में ३ गणों के उल्लेख हुए हैं, कोटिकगण के २० बार, चारणगण के १२ बार और उद्दहगरण के २ बार। स्थविरावलीगत ४४ स्थविर शाखामों में से ८ शाखाओं का २५ लेखों में उल्लेख हुआ है और स्थविरावलीगत २७ कूलों में से १३ कुलों का ३२ लेखों में उल्लेख मिलता है । 2010_05 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [पट्टावली-पराग इन लेखों में जिन आठ शाखामों के उल्लेख हुए हैं, वे उल्लेख संख्या के साथ नीचे दिये जाते हैं : ३ वज्रनागरी, २ आर्यवज्री, ७ वइरी, ६ उच्चानागरी, १ पूर्णपत्रिका, १ मध्यमा, १ सांकाश्यिका, १ हारितमालाकारी। शिलालेखों में १३ कुलों के ३२ लेखों में जो उल्लेख हुए हैं, वे इस प्रकार से हैं : ६ ब्रह्मदासिक, ४ पार्यहटीय, १० स्थानीय, २ प्रीतिधर्मक, १ मेधिक, १ पुष्यमित्रीय, १ आर्यचेटक, १ आर्यमित्र, १ वात्सलिक, १ प्रश्नवाहन, १ पारिहासिक, १ कृष्णसख, १ नाड़िक । ___ 2010_05 Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गरा-शाखा- कुलों में परिमार्जन मथुरा के शिलालेखों में 'चारणगण' का आदि अक्षर "चा' सर्वत्र "वा" पढ़ा गया है; जो यथार्थ नहीं है। क्योंकि "वारण" शब्द की गरण के साथ कोई अर्थ-संगति नहीं बैठती, जब कि "चारण" शब्द गण के साथ बिल्कुल संगत हो जाता है : जैन सूत्रों में "विद्याचारण, जंघाचारण, जलचारण" प्रादि अनेक प्रकार के प्रात्म-शक्ति-सम्पन्न श्रमणों के नाम मिलते हैं। उन्हीं में से किसी प्रकार की चारणलब्धि से सम्पन्न गरणप्रवर्तक श्रीगुप्त स्थविर होंगे, जिससे उनके "गण' का नाम "चारण गण" पड़ गया है। शाखाओं में उच्चानागरी शाखा का उल्लेख अधिकांश स्थानों में "उच्चे नागरी" के रूप में किया गया है। सम्भव है उच्चानागरी शाखा के वाचकों को "उच्चै गर वा वक' नाम से सम्बोधित किया जाता था, उसी के अनुकरणों में लेखकों ने "उच्चा" के स्थान पर "उच्चे' कर दिया हैं। हमने स्थविरावलीगत "उच्चानागरी" नाम ही कायम रखा है । कोटिक गण को "वइरी" शाखा "वइरी" अथवा "वइरा" इस प्रकार से शिलालेखों में उत्कीर्ण मिलती है। परन्तु दो लेखों में “कोटिक गण" के साथ इसका प्रार्य वज्री के रूप में उल्लेख हुआ है। कतिपय स्थविरावलीगत कुल-नामों के साथ शिलोत्कीर्ण नाम अधिक जुदा पड़ जाते हैं । "कोटिक गण" के "बंभलिज्जिय" नाम के स्थान में लेखों में कोई सात जगह "ब्रह्मदासिका" नाम मिलता है, इधर पट्टावलीगत "बंभलिज्जिय" शब्द से भी कोई विशिष्ट अर्थ नहीं निकलता। संभव है "कोटिक गण" के जन्मदाता "सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के गुरुभ्राता "ब्रह्मगणी" का पूरा नाम "ब्रह्मदास गणि" हो और उन्हीं के नाम से "ब्रह्मदासिक कुल' प्रसिद्ध 2010_05 Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] [ पट्टावली-पराग हुआ हो, परन्तु स्थविरावलो की प्रति में लेखक की भूल से "बंभलिज्जिय'' हो गया हो। कुछ भी हो, हमारी राय में "ब्रह्मदासीय" नाम ही शुद्ध प्रतीत होता है। मुद्रित स्थविरावलियों में अधिकांश में ‘वच्छलीज्ज' के स्थान में "वत्थलिज्ज" नाम दृष्टिगोचर होता है : कुल का सही नाम 'वत्सलीय" है, जिसका प्राकृत रूप "बच्छलिज्ज" है न कि "वत्थलिज्ज" । कोटिक गण के “वाणिज्ज" कुल के स्थान पर शिलालेखों में कोई ५ स्थानों पर "ठारिणयातो" और पांच ही स्थानों पर “स्थानिकातो कुलातो" उत्कीर्ण मिलता है। जहां तक स्मरण है किसी प्राचीन ग्रन्थ की प्रशस्ति में भी "स्थानीय" नाम “कुल" के अर्थ में पढ़ा है। इससे हम "वाणिज्य" अथवा "वरिणदि" कुल के स्थान पर "स्थानीय” कुल विशेष ठीक समझते हैं, "चारण गण" के "प्रीतिधर्मक" कुल के स्थान पर पाठान्तर "विचिधम्मयं" और शिलालेखों में "प्रीतिधामिके' आदि अशुद्ध नाम मिलते हैं। वास्तव में इस कुल का खरा नाम "प्रीतिधर्मक' ही है। चारण गण के एक कुल का नाम मुद्रित स्थविरावलियों में "हालिज्ज" पाता है, तब शिलालेखों में कहीं 'अर्यहाट्टकीय", कहीं "हट्टियातो", कहीं "आर्यहट्टिकीय" और कहीं "मयहट्ठीये' इत्यादि खुदे हुए मिलते हैं। नाम की आदि में 'अय्य' अथवा 'आर्य' शब्द होने से हमारा अनुमान है कि यह नाम किसी प्राचार्य का है, जो शुद्ध रूप में "प्रार्यहस्ती" यह नाम हो तो इसका खरा रूप 'आर्यहस्तीय-कुल" होना चाहिए। स्थविरावली में "प्रार्य" शब्द न होने के कारण मूल नाम बिगड़ कर कुछ का कुछ हो गया है। वास्तव में इसका प्राकृत रूप "प्रज्जहत्थिय" होना चाहिए। चारण गण के एक कुल का नाम स्थविरावली की पुस्तकों में "प्रनवेडयं" और "प्रज्जचेडयं" इन दो रूपों में उपलब्ध होता है। मथुरा के एक शिलालेख में इस कुल का नाम "शायं-चेटके-कुले” इस प्रकार उल्लिखित हुआ है। इससे निश्चित हैं कि स्थविरावली का खरा पाठ "मज्जचेडयं" है। 2010_05 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ४३ __ मथुर के देवनिगित स्तूप के शिलालेखों में "वाचक" शब्द और "गणि" शब्द अधिक प्रयुक्त हुए हैं, और उनके उपदेश से जो कार्य हुए हैं। उनके अन्त में "निर्वर्तन" अथवा निर्वर्तना" शब्दों का प्रयोग किया गया है। कहीं कहीं “दान" तथा "धर्म" शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। लेखों की भाष, तथा शैली का कुछ प्राभ.स देने वाले कतिपय वाक्य-खण्ड उद्धृत करके प्रस्तुत प्रकरण को पूरा कर देंगे। "अय्य जेष्ठ हस्तिस्य वाचक X, ज्येष्ठ हस्ती शिष्य x, गणिस्य, अ> वुट्टसिरिस्य ॥ वाचकस्य अयं संघसिंघस्व X, वाचकस्य अर्य्य मातदिनस्य X, वाचकस्य हरिनन्दिसीसो नागसेनस्य निवर्तनम् ॥ वाचकस्य मोहनंदिस्य सीसस्य सेनस्य निर्वर्तना॥" इत्यादि लेखों में “वा वक" और "गणि' शब्द सब से अधिक प्रयुक्त हुए हैं । वाचक श्री देवद्धिगणि ने अपनी नन्दी स्थविरावली में वाचक वंश का जो वर्णन किया है, उसका मथुरा के इन शिलालेखों से समर्थन होता है। मथुरा के देवनिर्मित स्तूप के शिलालेख राजा कनिष्क, हुविष्क और वासुदेव के समय के लिखे हुए हैं और उन सभी में कुषाण राजामों के संवत्सर का प्रयोग किया गया है। कुषाण राजा कनिष्क का राज्य संवत्सर ई० सं० ५८ से प्रारम्भ होता है, जो टाईम विक्रम के संवत्सर का प्रारम्भ है। मथुरा के प्राचीन सभी कुषाणकालीन लेख विक्रम को प्रथम शताब्दो के हैं और बे "मूर्तियों, पायागपट्टों" तथा अन्यान्य धार्मिक कार्यों के साथ सम्बन्ध रखने वाले हैं। कई विद्वान् भारत में मूर्तिपूजा के प्रचारक जैनों को मानते हैं, वह मान्यता मथुरा स्तूप के लेखों से किसी अंश में सत्य प्रतीत होती है। जैन होते हुए भो कतिपय जैन-सम्प्रदाय प्रतिमापूजा से विमुख बने बैठे हैं उनको प्रस्तुत मथुर। के स्तूप की हकीकत से बोधपाठ लेना चाहिए और जो नग्नता में ही परमधर्म मानने वाले दिगम्बर विद्वान् आर्य स्थूलभद्र से श्वेताम्बर सम्प्रदाय का उद्भव मानते हैं, वे कल्प-स्थविरावली के गणों, कुलों पौर शाखाओं का मथुरा के लेखों से मिलान करके देखें कि ये सब गण, कुलादि श्वेताम्बर निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के ____ 2010_05 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग - हैं या दिगम्बर सम्प्रदाय के ? 'षट्खण्डागम, कषाय-पाहुड" अथवा इनकी टीकाओं में इन बातों का कहीं भी सूचन तक न होने पर भी अतिश्रद्धावान् भक्त दिगम्बरों के आगमों को ईसा के पूर्व चतुर्थ शती में लिपिबद्ध होने और श्वेताम्बर सम्मत आगमों का पुस्तकों पर लेखन देद्धगणि क्षमाश्रमण का कहने वाले अपनी मान्यता पर विचार करेंगे, तो उनको अपनी खरी स्थिति का ज्ञान होगा। ___ मथुरा के स्तूप में से निकली हुई जैन-प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का कथन है कि वे दिगम्बर मूर्तियां हैं, कह कथन यथार्थ नहीं। क्योंकि भाज से २००० वर्ष पहले मूर्तियां इस प्रकार से बनाई जाती थीं कि गद्दी पर बैठी हुईं तो क्या खड़ी मूर्तियाँ भी खुले रूप में नग्न नहीं दिखती थीं। उनके वामस्कन्ध से देवदूष्य वस्त्र का अंचल दक्षिण जानु तक इस खूबो से नीचे उतारा जाता था कि आगे तथा पीछे का गुह्य अंग-भाग उससे पावृत हो जाता था और वस्त्र भी इतनी सूक्ष्म रेखाओं से दिखाया जाता था कि ध्यान से देखने से ही उसका पता लग सकता था। विक्रम की छठवीं तथा सातवीं शती की खड़ी जिनमूर्तियां इसी प्रकार से बनी हुईं अाज तक दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु उसके परवर्ती समय में ज्यों-ज्यों दिगम्बर सम्प्रदाय व्यवस्थित होता गया त्यों-त्यों उसने अपनी जिनमूर्तियों का अस्तित्व पृथक् दिखाने के लिए जिनमूर्तियों में भी प्रकट रूप से नग्नता दिखलाना प्रारम्भ कर दिया। गुप्तकाल से बीसवीं शतो तक की जितनी भी जिनमूर्तियां दिगम्बर-सम्प्रदाय द्वारा बनवाई गई हैं वे सभी नग्न हैं। मथुरा के स्तूप में से भी गुप्तकाल में बनी हुई इस प्रकार की नग्न मूर्तियों के कतिपय नमूने मिले हैं, परन्तु वे सभी विक्रम की आठवीं शती के बाद की हैं, कुषाणकाल की नहीं। मथुरा के स्तूप में से निकले हुए कई आयागपट्ट तथा प्राचीन जिनप्रतिमाओं के छायाचित्र हमने देखे हैं, उनमें नग्नता का कहीं भी प्राभास नहीं मिलता और यह भी सत्य है कि उन मूर्तियों के "कच्छ” तथा “अंचलि" आदि भी नहीं होते थे, क्योंकि श्वेताम्बर मूर्तियों की यह पद्धति विक्रम की ग्यारहवीं शती के बाद की है। ____ 2010_05 Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ४५ - इसके अतिरिक्त मथुरा के स्तूप में से एक जैन श्रमण की मूर्ति मिली है, जिस पर “कण्ह" नाम खुदा हुआ मिलता है । ये "कण्ह" प्राचार्य दिगम्बर सम्प्रदाय प्रवर्तक शिवभूति मुनि के गुरु "कृष्ण" हों तो पाश्चर्य नहीं, क्योंकि वह मूर्ति अर्धनग्न होते हुए भी उसके कटिभाग में प्राचीन निर्ग्रन्थ श्रमणों द्वारा नग्नता ढाँकने के निमित्त रक्खे जाते "अग्रावतार" नामक वस्त्र-खण्ड की निशानी देखी जाती है। यह "अग्रावतार" प्रसिद्ध स्थविर प्रार्य रक्षित के समय तक श्रमणों में व्यवहत होता था। बाद में धीरे-धीरे छोटा कटिवस्त्र जिसे "चुल्लपट्टक" (छोटा पट्टक) कहते थे, श्रमण कमर में बांधने लगे तब से प्राचीन "अग्रावतार वस्त्रखण्ड' व्यवहार में से निकल गया। ___ 2010_05 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविरावली की प्राचीनता उपर्युक्त कल्प-स्थविरावली में स्थविरों के सत्ता-समय के सम्बन्ध में कुछ भी सूचन नहीं मिलता, अपितृ भिन्न गाथाओं में इनका समय निरूपण किया हुअा है। युगप्रधानों की पट्टावलियां भी दो प्रकार की मिलती हैं, एक माथुरीवाचनानुयायिनी और दूसरी वालभोवाचनानुयायिनी। माथुरी वाचनानुयायिनी पट्टावली में युगप्रधानों के नाम मात्र दिये हुए हैं, उनका समयक्रम नहीं लिखा, तब वालभीवाचनानुयायिनो पट्टावली में स्थविरों के नामों के साथ उनके युगप्रधानत्व पर्याय का समय भी दिया हुआ है। इन गाथानों में गोविन्द वाचक का नाम भी सम्मिलित किया है और आर्य सुहस्ती का नाम कम करके आर्य महागिरि के बाद बलिस्सह से प्रारम्भ कर देवद्धि गरिण तक २७ नामों की सूची दी है। इस सूची में आर्य सुहस्ती को छोड़ देना और गोविन्द-वाचक को ग्रहण करना ये दोनों बातें अयथार्थ हैं। यह पट्टावली गुरुपरम्परा नहीं किन्तू वाचक स्थविर-परम्परा है। प्रार्य महागिरि के बाद आर्य सुहस्ती वाचक रहे हुए हैं, जब कि गोविन्द वाचक का नाम नन्दि-स्थविरावली में प्रक्षिप्त गाथा में पाया है, मूल में नहीं। इसलि९ हमने इस माथुरी वाचना के अनुयायी स्थविरों के नामों में आयं सुहस्ती का नाम कायम रक्खा है और "गोविन्द वाचक" नाम हटा दिया है। इस प्रकार “बलिस्सह को ११वां वाचक मानने से देवद्धि क्षमाश्रमरण तक के वाचकों की संख्या २७ हो जाती है। पहले हम माथुरीवाचनानुयायिनी स्थविरावली के नाम बताने वाली शाखाओं को उद्धृत करेगे, आर्य महागिरि के परवर्ती स्थविर वाचकों के नाम निम्न प्रकार से हैं : "सूरि बलिस्सह साई, सामज्जो संडिलो य जीयधरो। अज्जसमुद्दो मंगू, नंदिल्लो नागहत्थी य ॥ ___ 2010_05 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ४७ रेवसिंहो खंदिल - हिमवं नागज्जुरणा य तेवीसं । सिरिभूई-दिन-लोहिच्च-दूसगरिणणो य देवड्डी ॥" अर्थात् : 'प्राचार्य बलिस्सह ११, स्वाति १२, श्यामाचार्य १३, जीतधर शाण्डिल्य १४, आर्य समुद्र १५, आर्य मंगू १६, नंदिल्ल १७, नागहस्ती १८, रेवतिनक्षत्र १६, ब्रह्मद्वीपिकसिंह २०. स्कन्दिल २१, हिमवान् २२, नागार्जुनवाचक २३, श्रो भूतिदिन्न २४, थी लौहित्य २५, श्री दुष्यगणि २६ और श्री देवद्धिारण २७, गे २७ स्थविर माथुरीवाचना के अनुसार युगप्रधान वाचक हुए । अब हम वालभीवाचनानुयायिनी स्थविर परम्परा का निरूपण करते हैं : "सिरि वीराउ सुहम्मो, वीसं चउचत्त वास जंबुस्स । पभवेगारस सिज्ज, -भवस्स तेवीस वासारिण ॥१॥ पन्नास जसोभद्दे, संभूयसटि भद्दबाहुस्स । चउदस य थूलभद्दे, पणयालेवं दुसगसट्ठी ॥२॥ अज्ज महागिरि तीसं, प्रज्जसुहत्थीरण वरिस छायाला । इगचालीसं जारणसु, निगोयवक्खाय सामज्जे ॥३॥ रेवइमित्ते वासा, होति छत्तीस उदहि नामम्मि । वासारिण नवमंशू - थेरंमि वीसव साणि ॥४॥ चउयाल अज्जधम्मे, एगुणचालीस भद्दगुत्ते । सिरिगुत्ति पनर वइरे, छत्तीसं हुंति वासारिण ॥५॥ तेरस वासा सिरिअज्ज, -रक्खिए बोस पूसमित्तस्स । सिरि वज्जसेणि तिणि य गुरगसत्तरि नागहत्थिस्स ॥६॥" अर्थात् : 'वोरनिर्वाण से २० वर्ष व्यतीत होने पर सुधर्मा का निर्वाण हुमा, सुधर्मा से ४४ वर्ष के बाद जम्बू का निर्वाण हुमा, जम्बू से ११ वर्ष के बाद प्रभव का और प्रभव से २३ वर्ष के बाद शय्यम्भव का स्वर्गवास हमा। शय्यम्भव से ५० वर्ष बाद यशोभद्र का तथा यशोभद्र से ___ 2010_05 Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] [ पट्टावली-पराग ६० वर्ष के बाद सम्भूतविजय का स्वर्गवास हुमा। सम्भूतविजय से १४ वर्ष के बाद भद्रबाहु और उनमें ४५ वर्ष के बाद स्थूलभद्र स्वर्ग प्राप्त हुए, इस प्रकार स्थूलभद्र के स्वर्गवास तक २६७ वर्ष महावीर-निर्वाण को हुए। स्थूलभद्र से प्रार्य महागिरि ३० और महागिरि से आर्य सुहस्ती ४६ वर्ष तक युगप्रधान रहे और मार्य सुहस्ती के बाद ४१ वर्ष तक निगोद व्याख्याता श्यामार्य का युगप्रधानत्व रहा । श्यामार्य के स्वर्गवासानन्तर रेवतिमित्र ३६ वर्ष, रेवतिमित्र के बाद ६ वर्ष प्रार्य समुद्र और प्रार्य समुद्र से २० वर्ष तक प्रार्य मंगू युगप्रधान रहे, आर्य मंगू के बाद ४४ आर्यधर्म के, ३६ वर्ष भद्रगुप्त के, भद्रगुप्त के बाद १५ वर्ष श्री गुप्त के, श्री गुप्त के अनन्तर ३६ वर्ष आर्यवज्र के, १३ वर्ष श्री आर्यरक्षित के, २० वर्ष पुष्यमित्र के, ३ वर्ष श्री वज्रसेन के, ६९ नागहस्ती के, ५६ रेवतिमित्र के; ७८ सिंहसूरि के और ७८ वर्ष नागार्जुन वाचक के। "रेवइमित्से गुरगसट्टि, सिंहसूरिम्मि अट्ठहत्तरी य । नागज्जुणि अडहत्तरि, भूयदिन्ने य इगुणयासी ॥७॥ एगारस कालगज्जे, सिद्धतुद्धारुकारि बलहीए । एवं नवसय तिरणउइ, वासा वालग्भ संघस्स ॥८॥" और ७६ भूतदिन्न प्राचार्य के मिलकर वीरनिर्वाण से ६२ वर्ष हुए, इनमें वलभी में सिद्धान्त का उद्धार करने वाले प्राचार्य कालक के ११ वर्ष मिलाने पर वालभ्य संघ की मान्यतानुसार ६६३ वर्ष होते हैं, परन्तु माथुरी गणना में ९८० वर्ष पाते हैं। वलभी में किये गये पुस्तक लेखन के समय दो गणनाओं में जो १३ वर्ष का अन्तर पड़ा, उसका कारण यह है कि माधुरी वाचनानुयायी संघ ने अपनी गणना में श्रीगुप्त स्थविर को स्थान नहीं दिया और मार्य मंगू के युगप्रधानत्व पर्याय के ४१ वर्ष माने हैं जिससे गणना का अंक ९८० का होता है। दूसरी तरफ वलभीवाचनानुयायियों ने प्रार्य मंगू का युगप्रधानत्व पर्याय ३६ वर्ष का माना मोर श्रीगुप्त को अपनी गणना में स्थान देकर उनके १५ वर्ष माने, फलस्वरूप दोनों वाचनानुयायियों में १३ वर्ष का अन्तर अमिट हो गया। नानुयायियों में स्थान देकारत्व पर्याय अलरी तरफ वल 2010_05 Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ४६ वलभी के पुस्तक लेखन में माथुरी वाचना को मुख्य माना था, अतः समय के निर्देश में : "समरणस्स भगवनो महावीरस्स जाव सव्वदुक्खप्पहीरणस्स नव वाससयाई विइक्कताई दसमस्स य वाससयस्स अयं असीइमे संवच्छरे काले गच्छई" इस प्रकार माथुरी-वाचना की कालविषयक मान्यता का प्रथम निर्देश किया, परन्तु वालभ्य वाचना वाले अपनी मान्यता को गलत मानकर उक्त मान्यता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए, परिणामस्वरूप : "वायरणंतरे पुरण अयं तेरणउए संवच्छरे काले गच्छइ इइ वीसइ ।" यह सूत्रान्तर लिख कर वालभ्य संघ की मान्यता का भी उल्लेख करना पड़ा। ऊपर जिन गाथानों द्वारा हमने दोनों स्थविरावलियों की कालविषयक मान्यता का प्रतिपादन किया है, वे गाथाएं प्राचीन होने पर भी उनमें कई स्थानों में संशोधन करना पड़ा है। राजकाल गणना सम्बन्धी "तित्थिोगालीपयन्ना" की गाथामों में एक दो स्थानों पर परिमार्जन करना पड़ा है। नन्दों की वर्षगणना में ५ वर्ष कम किये हैं, "पणपन्नसयं" के स्थान में "पुरण पण्णसयं", "अट्ठसयं मुरियाणं" के स्थान में "सट्ठिसयं मुरियाणं", "तीसा पुण पूसमित स्स" के स्थान में "पणतीसा पूसमित्तस्स" करके पुस्तकलेखकों द्वारा प्रविष्ट अशुद्धियों का परिमार्जन किया है। गाथा के अशुद्ध पाठानुसार नन्दों का काल १५५ प्रौर मौर्यों का काल १०८ वर्ष परिमित माना जाता था, जो ठीक नहीं था। गणनाविषयक इस गड़बड़ो के कारण से ही प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजी ने "परिशिष्ट पर्व" में चन्द्रगुप्त मौर्य को वीरनिर्वाण से १५५ में मगध के साम्राज्य पर आसीन होने का लिखा है जो प्रसंगत है, क्योंकि जिननिर्वाण ___ 2010_05 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] [ पट्टावलो-पराग - से ६० वर्ष व्यतीत होने के बाद नन्द को पाटलीपुत्र के राज्य पर बैठकर १५५ में चन्द्रगुप्त को उस गादी पर बैठाने का अर्थ तो यही हो सकता है, कि नन्द ने पाटलीपुत्र पर केवल ७४ वर्ष ही राज्य किया था, परन्तु पौराणिक तथा जैन गणनामों के अनुसार यह मान्यता असंगत प्रमाणित होती है। पुराणों में 'बिम्बसार-श्रेणिक के उत्तराधिकारी अजातशत्रु' का राज्यकाल ३७, वंशक का २४, उदायिन् का ३३, नन्दिवर्द्धन का ४२, महानन्दिन का ४३ और नव नन्दों का १०० वर्ष का माना है। श्रमरणभगवन्त महावीर अजातशत्रु के राज्य के २२वें वर्ष में निर्वाण प्राप्त हुए थे, अतः उसके राजत्वकाल में से २२ वर्ष कम करने पर भी भगवान् महावीर के निर्वाण से २५७ वर्ष में मौर्य राज्य का प्रारम्भ पाता है, जब कि प्राचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजो नन्दों का राज्य समाप्त कर १५५ में ही चन्द्रगुप्त को मगध की गद्दी पर बैठाते हैं। संशोधित जैनकाल गणना के अनुसार नन्दों के राज्य की समाप्ति २१० वर्ष में होती है और मौर्य चन्द्रगुप्त मगध का राजा बनता है। बौद्धों की गणनानुसार मौर्य राज्य का समय जल्दी आता है, परन्तु इस विषय को बौद्ध काल-गणना सर्वथा अविश्वसनीय है, क्योंकि सुदूर लंका में बैठे हुए बौद्ध स्थविरों ने जो कुछ सुना उसी को लेखबद्ध कर दिया, औचित्य अथवा संगति का कुछ भी विचार नहीं किया। उदाहरणस्वरूप हम नवनन्दों के राजत्वकाल के सम्बन्ध में ही दो शब्द कहते हैं । बौद्धों ने नवनन्दों का राज्यकाल केवल २२ वर्ष लिखा है, जो किसी प्रकार से ग्राह्य नहीं हो सकता। जिस प्रकार राजाओं के राजत्वकाल के सम्बन्ध में लेखकों की पसावधानी से समय विषयक अनेक अशुद्धियां होने पाई हैं, उसी प्रकार स्थविरों की काल-गणना में भी लेखकों के प्रमाद से अशुद्धियां घुस गई हैं जिनके कारण से कई बातों में विसंवाद उपस्थित होते हैं। ऊपर हमने स्थविरों के काल सम्बन्धी जो गाथाएँ लिखी हैं उनमें आर्य सम्भूतविजयजी के पुगप्रधानत्व समय में लेखकों ने बड़ा घोटाला कर ____ 2010_05 Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ५१ दिया है : “सम्भूयसट्ठी' इस शुद्ध पाठ को बिगाड़ कर किसी लेखक ने "सम्भूयस्स?" बना दिया, जिसका अर्थ किया गया सम्भूत के ८ पाठ वर्ष, बस एक इकार के प्रकार के रूप में परिवर्तन होने से ६० के ८ बन गये । मजा तो यह है कि यह भूल पाज की नहीं, कोई ८०० सौ वर्षों से भी पहले की है। इसी भूल के परिणामस्वरूप प्राचार्य श्री हेमचन्द्रजी ने भद्रबाहु स्वामी को जिननिर्वाण से १७० वर्ष में स्वर्गवासी होना लिखा है और इसी भूल के कारण से पिछले पट्टावली-लेखकों ने आर्य स्थूलभद्रजी को निर्वाण से २१५ में स्वर्गवासी हाना लिखा है, इस भूल का परिणाम बहुत ही व्यापक बना है, इस सम्बन्ध में हम एक दो ही उदाहरण देकर इस प्रसंग को समाप्त कर देंगे। सभी पट्टावलोकारों ने प्रार्य स्थूलभद्रजी का स्वर्गवास वीरनिर्वाण २१५ में माना है । स्वर्गवास की मान्यता के अनुसार इनकी दीक्षा १४६ में आती है, क्योंकि उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी और ६१ वर्ष तक ये जीवित रहे थे, इस प्रकार १४६ में दीक्षित स्थूलभद्र मुनि अपने गुरु सम्भूतविजयजी के पास अनेक वर्षों तक रह कर पूर्वश्रुत का अध्ययन कर सकते थे परन्तु पठन-पाठन के सम्बन्ध में सर्वत्र भद्रबाहु स्थूलभद्र का ही गुरु-शिष्य भाव दृष्टिगोचर होता है, इससे ज्ञात होता है कि स्थूलभद्र की दीक्षा का समय पट्टावलीकारों के माने हुए समय से बहुत परवर्ती है। शायद सम्भूतविजयजो के अन्तिम वर्ष में ही स्थूलभद्र दीक्षित हुए होंगे। आर्य सुहस्ती स्थूलभद्रजी के हस्तदीक्षित शिष्य थे। उन्होंने ३० वर्ष की अवस्था में स्थूलभद्रजी के पास दीक्षा लो थी और १०० वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २९१ के वर्ष में उनका स्वर्गवास हुआ था, ऐसा पट्टावलीकार लिखते हैं। पट्टावलीकारों के उक्त लेखानुसार प्रार्य सुहस्ती की दीक्षा और स्थूलभद्र के पास इनके शिष्य मार्य महागिरि तथा मार्य सुहस्ती का १० पूर्व पढ़ना असम्भव हो जाता है। इससे मानना होगा कि स्थूलभद्र का स्वर्गवास २१५ में नहीं पर २२१ के बहुत पीछे हुमा है। स्थूलभद्र जी ने प्रार्य सुहस्ती को जुदा गण दिया था, ऐसा निशीथ विशेष 2010_05 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ ] [ पट्टावली-पराम - - चूणि आदि में लेख है। इससे भी ज्ञात होता है कि स्थूलभद्र के स्वर्गवास के समय में आर्य सुहस्ती कम से कम १०-११ वर्ष के पर्यायवान् गीतार्थ होंगे। इन सब बातों के पर्यालोचन से यही सिद्ध होता है कि स्थूलभद्र का स्वर्गवास का समय माने हुए समय से बहुत पीछे का है । संप्रति के जीव द्रमक को 'कोशम्बाहार' में प्रार्य सुहस्ती नै दीक्षा दी; उस समय आर्य महागिरिजी जीवित थे मौर उस समय में मगध की राजगद्दी पर मौर्य अशोक था, क्योंकि दमक साधु उसी रात को मर कर राजकुमार कुणाल की रानी की कोख में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ माना गया है। प्रचलित पट्टावलियों में प्रार्य महागिरि का स्वर्गवास निर्वाण से २४५ में माना गया है। यदि यह समय ठोक होता तो दमक के दीक्षाप्रसंग पर उनकी विद्यमानता के उल्लेख नहीं मिलते, क्योंकि २४५ में चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार का पाटलिपुत्र में राज्य था, अशोक का नहीं । शास्त्र में अशोक के राज्यकाल में द्रमक को दीक्षा देने का लिखा है। उपर्युक्त असंगतियां तो उदाहरण के रूप में लिखो हैं। इस प्रकार को और इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण असंगतियां प्रचलित माथुरी तथा वालभी पट्टावलियों में दृष्टिगोचर होती है, जो आर्य संभूतविजयजी के ६० वर्षों के स्थान पर ८ वर्ष मान लेने का परिणाम है। इसलिए हमने प्राचीन गाथा में “सम्भूयसद्धि" इस प्रकार का पाठ स्वीकार कर उक्त प्रकार की असंगतियों को दूर किया है। हमने गाथानों में से प्रार्य सुहख्ती के बाद के स्थविर "गुणसुन्दर" और निगोदव्याख्याता श्यामार्य के बाद के "स्कन्दिल" के नाम कम किये हैं, क्योंकि ये दोनों नाम "प्राचीन वालभी वाचना" की थेरावली में नहीं हैं। प्राचार्य मेरुतुंग कहते हैं, "मूल स्थविरावली में न होते हुए भी सम्प्रदाय से ये दोनों नाम लिए गए हैं" । वालभी स्थविरावली में मार्य समुद्र का नाम हमने दाखिल किया है, क्योंकि सूत्रों की चूणियों में प्रार्य समुद्र तथा आर्य मंगू के नाम युगप्रधान के रूप में लिखे मिलते हैं। 2010_05 Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ५३ ____ "प्रचलित पट्टावली की गाथाओं में प्रार्य मंगू के वर्ष २० और आर्य धर्म के २४ लिखे हुए हैं। कहीं-कहीं आर्य धर्म का युगप्रधानत्व समय ४४ वर्ष का भी लिखा है। मार्य धर्म के ४४ वर्ष मानने वाले मार्य मंगू को उड़ाकर २० वर्ष कम कर देते हैं, परन्तु हमने प्रार्य मंगू को भी कायम रक्खा है, और आर्य धर्म के भी ४४ वर्ष माने हैं । “गुणसुन्दर" तथा "स्कन्दि ” को कम करने के बाद इस मान्यता के अनुसार ऐतिहासिक संगति ठीक मिल जाती है।" वालभी याचना के अनुयायियों तथा लेखकों ने भी प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण को २७वां पुरुष माना है। हमारी संशोधित वालभी पट्टावली में कालकाचार्य का नाम २७वां आता है और नन्दी-स्थविरावली की माथुरी गणना के अनुसार भी देवद्धि क्षमाश्रमण का नाम २७वां ही प्राता है। देवद्धिगणि युगप्रधान के रूप में २७वें हैं, परन्तु गुरु-शिष्य क्रम के अनुसार ३४वें पुरुष हैं। नन्दीसूत्रकार द्वारा अंगीकृत २७ स्थविरों के नामों में से वालभी वाचनानुयायिनी स्थविरावली में ६ नाम भिन्न प्रकार के हैं। मार्य सुहस्ती तक के ११ नामों में कोई फरक नहीं है, परन्तु इसके बाद के वालभी के नामों में १५ से २१ तक के स्थविर धर्म, भद्रगुप्त, श्रीगुप्त, वज्र, रक्षित, पुष्यमित्र और वज्रसेन के नाम वालभी में जुदे पड़ते हैं। ये सात नाम वास्तव में युगप्रधान-स्तोत्र में से वालभी स्थविरावली में जोड़ दिये हैं। अन्तिम नाम कालकाचार्य का भी माथुरी से जुदा पड़ता है। वालभी में १२वां नाम रेवतिमित्र का है, जब कि माथुरी में "स्वाति" का। इस प्रकार माथुरी के २७ नामों में से वालभी के ६ नाम जुदे पड़ते हैं, इसका कारण तत्कालीन जैन श्रमणसंघ के दो विभाग हैं, प्रथम दुष्काल के समय श्रमणों की छोटी-छोटी टुकड़ियां समुद्रतट तथा नदी मातृक देशों में पहुंची थी और दुष्काल के अन्त में फिर सम्मिलित हो गई थीं, परन्तु सम्प्रति मौर्य के समय में सुदूर दक्षिण में पहुंचे हुए श्रमण तथा प्रार्य वज के समय के दुर्भिक्ष में दक्षिण, मध्यभारत तथा पश्चिम भारत में पहुंचे हुए श्रमण उत्तर-भारतीय श्रमणगणों से बहुत दूर विचर रहे थे, इस कारण 2010_05 Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] [ पट्टावली-पराग से तत्कालीन जैन - श्रमणों में चलतो हुई "संघ स्थविर शासन पद्धति" के अनुसार उत्तरीय श्रमणगणों के "संघस्थविर' के स्थान में अपना नया संघस्थविर नियुक्त करके संघ स्थविर-पद्धति को निभाते थे । प्रार्य धर्म से लेकर आर्य वज्रसेन तक के ७ ही स्थविर बहुधा भारत के मध्य तथा दक्षिण प्रदेश में विन्ध्याचल के आसपास विचरने वाले थे, इसलिए उधर के श्रमणगरणों ने इन स्थविर प्राचार्यों को अपनी वाचक परम्परा में मान लिया था । स्थविर वज्रसेन के बाद दाक्षिणात्य श्रमरणसंघ पश्चिमोत्तर की तरफ मुड़कर जब विदर्भ में होता हुआ सौराष्ट्र की तरफ पहुँचा तब उत्तरीय श्रमणसघ भी पश्चिम की तरफ विचरता हुआ मथुरा के आसपान के प्रदेशों में पहुँच चुका था, फलस्वरूप फिर दोनों संघों का एक दूसरे से सम्पर्क हुआ और स्थविर शासन पद्धति फिर एक हो गई। आर्य वज्रसेन के बाद के उत्तरीय संघ के मार्य नागहस्ती, आर्य रेवतिनक्षत्र, ब्रह्मदीपिकसिंहसूर, नागार्जुन वाचक और भूतदिन इन पांच संघस्थविरों को अपनी स्वरावली में स्थान देकर श्रमरणसंघ का अखण्डत्त्व कायम किया । इस प्रकार दाक्षिणात्य श्रमरणसंघ ने १७० वर्ष तक अपनी संघस्थविर शासन पद्धति को स्वतन्त्र रूप से निभा कर विक्रम को दूसरी शताब्दी के मध्य में फिर वे उत्तराय संघ में सम्मिलित हुए और ३६० से अधिक वर्षों तक सघ स्थविर-पद्धति अखण्डित रही । इस समय के दर्मियान दुभिक्षादि विषमकाल के वश जैन श्रमणों का श्रागमाध्ययन अव्यवस्थित बन गया था, अत: उत्तरीय संघ के नेता भार्य स्कन्दिल और दाक्षिणात्य संघ के नायक नागार्जुन वाचक ने क्रमशः मथुरा तथा वलभी में अपने श्रमणगरणों को इकट्ठा कर नागमों को व्यवस्थित करके ताडपत्रों पर लिखवाया। कालान्तर में उत्तरीय तथा दाक्षिणात्य संघ फिर वलभी में सम्मिलित हुए और दोनों वाचनाओं के अनुगत श्रागमों का समन्वय किया, इस समन्वयकारक सम्मेलन में माधुरी वाचनानुयायी श्रमणसंघ के प्रमुख स्थविर 'देवरि वाचक' थे, तब वालभी वाचनानुयायी श्रमणसंघ के नेता श्रार्य "कालक", यह समय वीरनिर्वाण से दशम शतक का अन्तिम चरण था । 2010_05 Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण - निरूपित : २. नन्दी-स्थविरावली : सानुवाद नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में सूत्रकार ने अपनी परम्परा के अनुयोगधरों का सविस्तर वर्णनपूर्वक वन्दन किया है। ये स्थविर अनुयोगधर वाचक थे, न कि गुरु-शिष्य के क्रम से पाए हुए पट्टधर, किसी अनुयोगधर के बाद उनका शिष्य ही अनुयोगधर बना है तो अनेक अनुयोगधरों के बाद अन्य श्रुतधर वाचक पद प्राप्त कर वाचकों को परम्परा में पाए हैं। यह परम्परा अनुयोगधरों की है, यह बात देवद्धिगणिजी ने स्वयं अन्तिम गाथा ४३वीं में सूचित की है। नन्दी-स्थविरावली की मूल गाथाएँ नीचे दी जाती हैं। माथाओं का अंक सूत्रोक्त ही दिया गया है : "सुहम्मं अग्गिवेसाणं, जंबूनामं च कासवं । पभवं कच्चायणं वंदे, वच्छ सिज्जंभवं तहा ॥२३॥ जसभई तुंगियं वंदे, संभूयं चेव माढरं । भद्दबाहुं च पाइन्न, थूलभदं च गोयमं ॥२४॥ एलावच्चसगोत्त, वंदामि महागिरि सुहत्यि च । तत्तो कोसिअगोतं, बहुलस्स सरिव्वयं वंदे ॥२५॥" मर्थ : 'अग्निवैश्यायनगोत्रीय सुधर्मा, काश्यपगोत्रीय जम्बू, कात्यायनगोत्रीय प्रभव तथा वत्सगोत्रीय शय्यम्भव को वन्दन करता हूँ। तुंगियायनगोत्रीय यशोभद्र, माठरगोत्रीय सम्भूत, प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु ____ 2010_05 Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ ] [ पट्टावली-पराग और गौतम गोत्रीय स्थूलभद्र को वन्दन करता हूं । ऐलापत्यगोत्रीय महागिरि ( वासिष्ठ गोत्रीय ) सुहस्ती और कौशिकगोत्रीय बहुल के समवयस्क बलिस्सह को वन्दन करता हूं | २३ २४ २५॥ "हारियगुत्तं साइं च बंदे कोसियगोत्तं बंदिमो हारियं च सामज्जं । संडिल्लं श्रज्जजीयधरं ॥२६॥ तिसमुद्दखाकिति, दीवस मुद्देसु गहियपेयालं । वंदे प्रज्जस मुद्दे, प्रक्खुभिय-समुद्द-गंभीरं ॥२७॥ भरणगं करगं भरगं, पभावगं गारण- दंसरण- गुरणारणं । बंदामि श्रज्जमंगुं सुयसागरपारगं घीरं ॥२८॥" ' हारितगोत्रीय स्वाति और श्यामार्य को वन्दन करते हैं। कौशिकगोत्रीय भार्यं जीसधर शाण्डिल्य को वन्दन करता हूं। तीन समुद्रपर्यन्त जिनकी कीर्ति प्रसिद्ध है और द्वीप समुद्र सम्बन्धी ज्ञान में जो गहरे उतरे हुए हैं ऐसे प्रक्षुब्ध समुद्र के जैसे गम्भीर प्रार्य समुद्र को वन्दन करता हूँ । प्रतीच्छकों को सूत्रों का पाठ देने वाले, शास्त्रोक्त क्रियामार्ग में प्रवृत्तिमान् ज्ञान-दर्शन के गुणों को शोभाने वाले और श्रुत-समुद्र के पारंगत धीर पुरुष श्रार्य मंगू को वन्दन करता हूँ । २६ । २७|२८|' "नारणम्मि दंसम्मिश्र, तव विरणए रिगच्चकाल मुज्जुतं । अज्जं नन्दिलखमरणं, सिरसा वन्दे, पसन्नमरणं ॥२६॥ बडुउ वायगवंसो, जसवंसो अज्जनागहत्थीगं । वागररणकरण - भांगिय कम्मपयडीपहारणारणं ॥ ३० ॥ जच्चंजरणघाउ - सम-प्पहारण वडूज अर्थ : 'ज्ञान, दर्शन तथा तप विनय में नित्यकाल उद्यमवन्त और प्रसन्नचित्त आर्य नन्दिल क्षपक को सिर नवां कर वन्दन करता हूँ । व्याकरण, चरण-करण, भंगिकसूत्र भौर कर्मप्रकृति में प्रधान ऐसे आर्य नागहस्ती का यशस्वी वाचक वंश वृद्धिंगत हो, जात्य भंजनधातु के समान मुद्दियकुवलय निहाणं 1 वायगवंसो, रेवनक्खत्तनामारणं ॥ ३१ ॥ " 2010_05 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेव ] तेजस्वी और द्राक्षा तथा नीलकमल के समान कान्ति काले ऐसे रेवतिनक्षत्र अर्थात् रेवतिमित्र नामक प्राचार्य का वाचकवंश वृद्धि को प्राप्त हो। ।२६३०॥३१॥ "प्रयलपुरा रिपक्वते, कालियसुयप्राणुप्रोगिए धोर। बंभद्दोषगसोहे, वायगपयमुत्तमं पत्ते ॥ ३२॥ जेसि इमो प्रमुअोगो, पयरइ अज्जावि अङ्कभरहम्मि। बहनयरनिग्गयजसे, ते वंदे खंदिलायरिए ॥ ३३ ॥ ततो हिमवन्तमहन्त-विक्कमे घिइपरक्कममरणंते । सम्झाय मगंतबरे, हिमक्ते वंदिमो सिरसा ॥३४॥" अर्थ: 'प्रचलपुर से निकल कर प्रवजित होने वाले, कालिक श्रुत के अनुयोगधर, धीर और उत्तम वाचक पद को प्राप्त ब्रह्मद्वीपिकसिंह स्थविर को धन्दन करता हूँ। जिनका यह अनुयोग आज भी इस प्रर्द्ध भरतक्षेत्र में प्रचलित है पौर अनेक नगरों में जिनका यश फैल रहा है, उन श्री स्कन्दिल चार्य को वन्दन करता हूँ। स्कन्दिल के बाद हिमवन्त के समान महाविक्रमशाली अमर्यादित-धृतिपराक्रम वाले पौर अपरिमित स्वाध्याय के धारक प्राचार्य हिमवन्त को सिर नवां कर वन्दन करते हैं। 1३२॥३३॥३४॥ "कालियसुयअणुप्रोगस्स, धारए धारए य पुवारणं । हिमवंसखमासमणे, बंदे गागज्जुणायरिए ॥ ३५॥ मिउमट्यसंपन्न, पशुपुलिंब धायगत्तणं पत्ते । मोहसुयसमायारे, नागज्जुरणवायए पं ॥ ३६॥" अर्थ : 'कालिक श्रुतानुयोग के और पूर्वो के धारक हिमवन्तः क्षमाश्रमण को वन्दन करता हूँ। जो मृदुमार्दव से सम्पन्न, उत्सर्गश्रुतानुसार चलने वाले तथा अनुक्रम से वाचक-पद. पाने वाले हैं, उन नागार्जुन वाचक को वन्दन करता हूँ।३।३६॥ ____ 2010_05 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ [ पट्टावली-पराग - - "वरकरणग तविय चंपग-विमलयर कमलगम्भसरिवन्ने । भविप्रजरपहिययदइए, दयागुण विसारए धीरे ॥ ३७॥ अड्डभरहप्पहारणे, बहुविह सज्झाय सुमुरिणय पहाणे । अणुभोगियवरवसभे, नाइलकुलवंशनंदिकरे ॥ ३८ ॥ भूयहिनप्पगम्भे, धंदेऽहं भूयविनमायरिए । भवभयवुच्छेयकरे, सोसे नागज्जुगरिसोरणं ॥ ३९ ॥" अर्थ : 'अग्नितप्त श्रेष्ठ सुवर्णतुल्य, चम्पकपुष्पसदृश, कमलपुष्प के गर्भसदृश वर्ण वाले, भाविक जनों के हृदयप्रिय, दयागुण में विशारद, धैर्यवन्त, दक्षिणार्धभरत में प्रधान, अनेकविध स्वाध्याय से यथार्थज्ञाततत्त्व, पुरुषों में प्रधान, अनुयोगधर पुरुषों में श्रेष्ठ, नागिल कुल की परम्परा के वृद्धिकारक, प्राणियों का हित करने में दक्ष, संसार के भय का नाश करने घाले ऐसे नागार्जुन ऋषि के शिष्य प्राचार्य भूतदिन को वन्दन करता है। ।३७।३८३६॥ "सुमुरिणयनिच्चाऽनिच्चं, सुमुरिणयसुत्तस्थधारयं वंदे । सम्भावुझ्भावरणया - तत्थं लोहिच्चरणामाणं ॥४०॥ प्रत्थमहत्थक्खारिण, सुसमरणवक्खारण-कहणनिव्वारिंण । पयईइ महुरधारिण, पयत्रो पणमामि दूसरण ॥४१॥ सुकुमालकोमलतले, सेसि परणमामि लक्खरणपसत्थे । पाए पावयणीणं, पडिच्छ (ग) सहि परिणवइए ॥४२॥" प्रथं । 'जिन्होंने पदार्थों की नित्यानित्य अवस्था को अच्छी तरह जाना है, जो यथार्थसूत्र अर्थ के धारक हैं और जो सद्भावों के प्रकाशन मैं यथार्थ हैं, ऐसे "लोहित्य" नामक अनुयोगधर को वन्दन करता हूँ। पदार्थों के पर्थविस्तार की जो खान हैं, उत्तम श्रमणों को सूत्रों की ध्याख्या द्वारा निर्वृतिदायक हैं और प्रकृति से मधुरभाषी हैं, ऐसे दुष्यगरिण को प्रयत्नपूर्वक नमन करता हूँ। जिन प्रावचनिक दूष्यगरिण के चरण सुकुमाल भोर कोमल तल बाले तथा शुभ लक्षणों से प्रशस्त हैं और जो ____ 2010_05 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ५६ सैकड़ों प्रतीच्छकों से वन्दित हैं, उन दूष्य गरिण के चरणों में नमन करता हूँ ॥४०॥४१॥४२॥' "जे अन्न भगवन्ते, कालिप्रसुयप्राणुरोगिए धीरे । ते परणमिऊरण सिरसा, नारणस्स परूवरणं वोच्छं ॥४३॥" अर्थ : 'उक्त अनुयोगधरों के अतिरिक्त जो कालिक श्रुत के अनु. योगधारी धीर पुरुष हैं, उन सब भगवन्तों को सिर से प्रणाम कर ज्ञान का प्ररूपण करूंगा ।४३।' कला-स्थविरावली का वर्णन शाण्डिल्य तक सर्वप्रथम दिया है । उसके बाद माथुरी वाचनानुयायी स्थविरावलीगत अनुयोगधरों की नामावली बताने वाली मौलिक गाथाएँ लिखकर उनकी चर्चा की है। माथुरी के बाद वालभी वाचनानुगत स्थविरों का निरूपण करने वाली गाथाएं समयप्रतिपादन के साथ लिखी हैं। इन सब बातों को कोष्टकों के रूप में लिख कर अन्त में स्थविर देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण की गुर्वावली का कोष्टक देकर इस लेख को पूरा करेंगे। माथुरो-वाचनाबुगत स्थविर-क्रम १ सुधर्मा २ जम्बू ३ प्रभव ४ शय्यम्भव ५ यशोभद्र ६ सम्भूतविजय ७ भद्रबाहु ८ स्थूलभद्र ६ महागिरि १० सुहस्ती ११ बलिस्सह १२ स्वाति १३ श्यामार्य १४ शाण्डिल्य १५ समुद्र १६ मंगू १७ नन्दिल १८ नागहस्ती १६ रेवतिनक्षत्र २० ब्रह्मद्वीपिकसिंह २१ स्कन्दिलाचार्य २२ हिमवन्त २३ नागार्जुन वाचक २४ भूतदिन २५ लोहित्य २६ दूष्यगणि २७ देवद्धिगणि 2010_05 Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० 1 वाली - वाचनानुमत- स्थविर- क्रम श्री महावीरनिर्वाण विक्रम पूर्व ४७० ई० स० पू० ५२७ । वि० ༠ ༢༠ ४७०-४५० ४५० -४०६ ४०६-३६५ ३६५-३७२ ३७२-३२२ ३२२-२६२ २६२-२४८ क्रमांक नाम नि. से नि. १ सुधर्मा २० २ जम्बू २०-६४ ३ प्रभ्रव ६४-७५ ७५-६८ ६८-१४८ १४८ - २०८ २०८ - २२२ २२२-२६७ २६७-२६७ ४ शय्यम्भव ५ यशोभद्र ६ सम्भूतविजय ७ भद्रबाहु स्थूलभद्र ६ महागिरि १० सुहस्ती ११ कालकाचार्य १२ रेवतिमित्र १३ श्रार्य समुद्र १४ आर्य मंगू १५ आर्य धर्म १६ भद्रगुप्त १७ श्री गुप्त १८ श्रार्य वज्र १६ आयं रक्षित २० पुष्यमित्र २१ वज्रसेन तक २४८-२०३ २०३-१७३ १७३-१२७ १२७-८६ ८६-५० ५०-४१ ४१-२१ ४४९-४ε३२१ से वि. सं. २३ २३-६२ ६२ - ७७ ७७-११३ ११३-१२६ १२६-१४६ १४६ - १४६ २६७-३४३ ३४३-३८४ ३८४-४२० ४२०-४२६ ४२६-४४६ ४६३-५३२ ५३२-५४७ ५४७-५८३ ५८३-५६६ ५६६-६१६ ६१६-६१६ २२ नागहस्ती ६१६-६८८ २३ रेवतिमित्र ६८८-७४७ २४ ब्रह्मद्वीपिक सिंहसूर ७४७- ८२५ २५ नागार्जुन ८.२५-१०३ 2010_05 १४८-२१८ २१८-२७७ २७७-३५५ ३५५-४३३ [ पट्टावली-पराय ई० स० पू० ५२७-५०७ ५०७-४६३ ४६३-४५२ 1.1 ४५२-४२६ ४२६-३७६ ३७९-३१६ ३१६-३०५ ३०५-२५६ २५६-२२६ २२६-१८४ १८४ - १४३ १४३ - १०७ १०७-६८ ६८-७८ ७८-३४ ३४ ई. स. ५ ५-२० २०-५६ ५६–६ε ६६-६६ दर्द- ८.२ २-१६१ १६१ - २२० २२०-२६८ २६८ - ३७६ तक 3:3 12 " 19 11 19 13 11 17 11 " 15 12 11 = 36 11 " "" " 19 39 19 " Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] क्रमांक नाम नि. से तक २६ भूतदिन ८०३-६८२ २७ कालकाचार्य ९८२-८६३ वि० स० ४३३-५१२ ५१२-५२३ ई० स० ३७६-४५५ ४५५-४६६ तक ॥ * श्री देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की गुवोवली १ सुधर्मा ११ आर्य दिन्न २ जम्बू १२ आर्य सिंहगिरि ३ प्रभव १३ आर्य वज्र ४ शय्यम्भव १४ आर्य रथ ५ यशोभद्र १५ प्राय पुष्यगिरि ६ संभूतविजय १६ फल्गुमित्र भद्रबाहु १७ आर्य धनगिरि ७ स्थूलभद्र १८ आर्य शिवभूति ८ महागिरि तथा १६ आर्यभद्र सुहस्ती २० आर्य नक्षत्र ६ सुस्थित-सु प्रतिबुद्ध २१ प्रार्य रक्ष १० आर्य इन्द्रदिन्न २२ प्रार्य नाग २३ जेष्ठिल २४ आर्य विष्णु २५ ार्य कालक २६ संपलित तथा आर्यभद्र २७ आर्य वृद्ध २८ आर्य संघपालित २६ आर्य हस्ती ३० प्रार्य धर्म ३१ आर्य सिंह ३२ आर्य धर्म ३३ प्रार्य शाण्डिल्य ३४ देवद्धिगणि * १५ वें आर्य धर्म से विक्रमपूर्व का समय समाप्त होकर विक्रम के पश्चात् का समय प्रारम्भ होता है और १६ वें समुद्रगुप्त से ई० पू० का काल समाप्त होकर बाद का प्राएभ होता है। 2010_05 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर जैनों के आगम दिगम्बर जैन-लेखक कहा करते हैं कि श्वेताम्बर मतप्रवर्तक जिन चन्द्र ने अपने प्राचरण के अनुसार नये यास्त्र बनाये और उनमें स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति और महावीर का गर्भापहार आदि नई बातें लिखो। इस प्राक्षेप के आर हम शास्त्र र्थ करना नहीं चाहते, क्योंकि "केवलि भुक्ति' का निषेध पहले-पहल दिगम्बराचार्य देवनन्दी ने किया है. जो विक्रम की छठी सदी के विद्वान् ग्रन्थकार माने जाते हैं। "स्त्रोमुक्ति" का निषेध दशवीं शती के दिगम्बर ग्रन्थकारों ने किया है। इनके पहले के किसी भी दिगम्बर जैन ग्रन्थकार ने उक्त दो बातों का निषेध नहीं किया था, इसलिए इन बातों की प्रामाणिकता स्वयं सिद्ध है। श्वेताम्बर जैन-संघमान्य वर्तमान आगमों की प्रामाणिकता और मौलिकता के विषय में हम यहां कुछ भी नहीं लिखेंगे, क्योंकि हमारे पहले हो जैन आगमों के प्रगाढ़ अभ्यासी डॉक्टर हर्मन जेकोबि जैसे मध्यस्थ यूरोपियन स्कॉलरों ने ही इन आगमों को वास्तविक "जैन-श्रुत" मान लिया है और इन्हीं के आधार से जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करने में वे सफल हुए हैं। इस बात को बाबू कामताप्रसाद जैन जैसे दिगम्बर सम्प्रदायी विद्वान् भी स्वीकार करते हैं। वे "भगवान महावीर" नामक अपनी पुस्तक में लिखते हैं : “जर्मनी के डॉक्टर जैकोबिसदृश विद्वानों ने जैनशास्त्रों को प्राप्त किया और उनका अध्ययन करके उनको सभ्य संसार के समक्ष प्रकट भी किया कि "ये श्वेताम्बराम्नाय के अंगग्रन्थ हैं। और डॉ० जैकोबि इन्हीं को वास्तविक जैन श्रुतशास्त्र समझते हैं।" हम यह दावा भी नहीं करते कि जैनसूत्र जिस रूप में महावीर के मुख्य शिष्य गणधरों के मुख से निकले थे, उसी रूप में आज भी हैं और, ___ 2010_05 Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] - व हमारे पूर्वाचार्यों ने ही यह दावा किया हैं, बल्कि उन्होंने तो भिन्न-भिन्न समयों में अंगसूत्र किस प्रकार व्यवस्थित किये और लिखे गये, यह भी स्पष्ट लिख दिया है। ___गुरु-शिष्य क्रम से आये हुए सूत्रों की भाषा और शंली में हजार पाठ सौ वर्षों में कुछ भी परिवर्तन न हो यह सम्भव भी नहीं है। यद्यपि सूत्रों में प्रयुक्त प्राकृत भाषा उस समय की सीधोसादी लोकभाषा थी, परन्तु समय के प्रवाह के साथ ही उसकी सुगमता प्रोझल हो गई और समझने के लिए व्याकरणों की आवश्यकता हुई। प्रारम्भ में व्याकरण तत्कालीन भाषानुगामो बने, परन्तु पिछले समय में ज्यों-ज्यों प्राकृत का स्वरूप अधिक मात्रा में बदलता गया त्यों-त्यों व्यःकरणों ने भी उसका अनुगमन किया। फल यह हुआ कि हमारी “सौत्र-प्राकृत" पर भी उसका असर पड़े बिना नहीं रहा। यही कारण है कि कुछ सूत्रों को भाषा नयी-सी प्रतीत होती है। प्राचीन सूत्रों में एक ही पालापक, सूत्र और वाक्य को बार-बार लिखकर पुनरुक्ति करने का एक साधारण नियम-सा था। यह उस समय की सर्वमान्य शैली थी। वैदिक, बौद्ध और जैन उस समय के सभी ग्रन्थ इसी शैली में लिखे हुए हैं, परन्तु जैन आगमों के पुस्तकारूढ़ होने के समय यह शैली कुछ अंशों में बदलकर सूत्र संक्षिप्त कर दिये गये और जिस विषय की चर्चा एक स्थल में व्यवस्थित रूप से हो चुको होती, उसे अन्य स्थल में संक्षिप्त कर दिया जाता था और जिज्ञासुमों के लिए उसी स्थल में सूचना कर दी जाती थी कि “यह विषय अमुक सूत्र अथवा अमुक स्थल में देख लेना" । इसके अतिरिक्त कुछ ऐसी भी बातें, जो उस समय शास्त्रीय मानी जाने लगी थी, उचित स्थान में यादी के तौर पर लिख दी गई जो आज तक उसी रूप में दृष्टिगोचर होती हैं और अपने स्वरूप से ही वे नयी प्रतीत होती हैं। दिगम्बर सम्प्रदाय भी पहले उन्हीं पागमों को प्रमाण मानता था, जिन्हें आज तक श्वेताम्बर जैन मानते आए हैं। परन्तु छठी शताब्दी से जब कि दिगम्बर सम्प्रदाय बहुत-सी बातों में श्वेताम्बर सम्प्रदाय से जुदा 2010_05 Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] [ पट्टावली -पराग पड़ गया था, खासकर केवलिभुक्ति और स्त्रीमुक्ति श्रादि बातों के एकान्त निषेध की प्ररूपणा प्रारम्भ कर दी, तब से इन्होंने इन आगमों को अप्रामाणिक कह कर छोड़ दिया और नई रचनाओं से अपनी परम्परा को समृद्ध करने लगे थे । दिगम्बर विद्वान महावीर के गर्भापहार की बात को अर्वाचीन मानते हैं; परन्तु यह मान्यता दा हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन है, ऐसा कथन डॉ० हर्मन जैकोब आदि विद्वानों का है । यह कथन अटकल मात्र नहीं, ठोस सत्य है । इस विषय में जिनको शंका हो, वे मथुरा के कंकाली टीला में से निकले हुए "गर्भापहार का शिलापट्ट" देख लें, जो प्राजकल लखनऊ के म्युजियम में सुरक्षित हैं। प्राचीन लिखित कल्पसूत्रों की पुस्तकों में जैमा इस विषय का चित्र मिलता है, ठीक उसी प्रकार का दृश्य उक्त शिलापट्ट पर खुदा हुआ है । माता त्रिसला और पंखा भलने वाली दामी को भवस्वापिनी निद्रा में सोते हुए प्रोर हिरन जैसे मुख वाले हरिनैगमेषी का प्रपने हस्त- संपुट में महावीर को लेकर ऊर्ध्वमुख जाता हुआ बताया है । इस दृश्य के दर्शनार्थी लखनऊ के म्युजियम में नं० जे ६२६ वाली शिला की तलाश करें । इसी प्रकार भगवान् महावीर की " ग्रामलकीक्रीडा" सम्बन्धी वृत्तान्तदर्शक तीन- शिलापट्ट कंकाली टोला में से निकले हैं मोर इस समय मथुरा के म्युजियम में सुरक्षित हैं । इन पर नम्बर १०४६ F ३७ तथा १११५ हैं, उपर्युक्त दोनों प्रसंगों से सम्बन्ध रखने वाले शिलालेख भी वहां मिलते हैं । पाठकगण को ज्ञात होगा कि महावीर की वर्णन भी जैन श्वेताम्बर शास्त्रों में ही मिलता है, इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है । उपर्युक्त दो प्रसंगों के प्राचीन लेखों और चित्रपटों से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि श्वेताम्बर जैन भागमों में वरिणत गर्भापहार नौर श्रामलकी क्रीडा का वृत्तान्त दो हजार वर्षों से भी अधिक प्राचीन है । 2010_05 "श्रामलकीकीडा" का दिगम्बरों के ग्रन्थों में Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] इस प्रकार श्वेताम्बर जैन-शास्त्रोक्त वृत्तान्तों के प्रामाणिक सिद्ध होने से उनके शास्त्रों की प्राचीनता और प्रामाणिकता स्वयं सिद्ध हो जाती है । श्वेताम्बर जैन संघ के मान्य कल्पसूत्रों में पुस्तक लिखने के समय की स्मृति में लिखे हुए, वीर निर्वारण सं० ६८० और ६६३ के उल्लेखं मिलते हैं । और इस सूत्र की थेरावली में भगवान् देवद्धिगरिण तक को गुरु-परम्परा का भी वर्णन है। इन दो बातों के आधार पर दिगम्बर विद्व न कह बैठते हैं कि कल्पसूत्र देवद्धिगरिण की रचना है। पर वे यह जानकर पाश्चय करेंगे कि इसी सूत्र की थेरावली में वरिणत कतिपय गण, शाखा और कुलों के निर्देश राजा कनिष्क के समय में लिखे गए मथुरा के शिलालेखों में भी मिलते हैं । जिज्ञासु पाठक इसके लिए हमारी सम्पादित 'कल्प. स्थविरावली" पढ़ें। ऊपर हमने मथुरा के जिन लेखों और चित्रपटों का उल्लेख किया हैं, वे सब मथुरा के कंकाली टीला के नीचे दबे हुए एक जैन-स्तूप में से सरकारी शोधखाता वालों को उपलब्ध हुए हैं। श्वेताम्बर परम्परा के आगम ग्रन्थ "माचारांग" की नियुक्ति में तथा "निशीथ" "बृहत्कल्प" और "ब्यवहार' सूत्रों के भाष्यों और चूणियों में इस स्तूप का वर्णन मिलता है। इन ग्रन्थों के रचनाकाल में यह स्तूप जैनों का अत्यन्त प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता था। चूर्णिकारों के समय में यह "देवनिर्मित स्तूप" के नाम से प्रसिद्ध हो चुका था, “व्यवहारचूर्णि" में इसकी उत्पत्ति-कथा भी लिखी मिलती है। इस स्तूप में से उक्त लेखों से भी सैकड़ों वर्षों के पुराने अन्य अनेक लेख तीर्थङ्करों की मूर्तियां, पूजापट्टक, प्राचीन पद्धति की अग्रावतार वस्त्र वाली जैन-श्रमण की मूर्ति प्रादि भनेक स्मारक मिले हैं जो सभी श्वेताम्बर जैन परम्पर, के हैं और लखनऊ तथा मथुरा के अजायबघरों में संरक्षित हैं। इन प्रतिप्राचीन स्मारकों में दिगम्बर जैन सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखने वाला कोई स्मारक अथवा उनके चतुर्दश पूर्वधर, दश पूर्वधर, एकादशांगधर, अंगधर या उनके बाद के किसी प्राचीन प्राचार्य का नाम या उनके गण, गच्छ, या संघ का कहीं नामोल्लेख 2010_05 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पट्टावली-पराग तक नहीं है। गुप्तकालीन कुछ नग्न जिनप्रतिमाएँ भी वहां से हाथ लगी हैं, उसका कारण यह है कि मिहिरगुल हूण राजा के उपद्रवों के समय उत्तर तथा पश्चिम भारत के श्वेताम्बर सम्प्रदाय राजस्थान, मेवाड़ और मालवा की तरफ मा गये थे, उस समय दिगम्बरों ने कहीं-कहीं अपने सम्प्रदाय की नग्न मूर्तियां मथुरा के स्तूप में बैठा दी थीं, जो गुप्तकालीन, विक्रम की सप्तम तथा अष्टम शती में बनी हुई हैं, इससे प्राचीन नहीं। श्वेताम्बर जैन परम्परा कितनी प्राचीन है और उसके वर्तमान मागम कैसे प्रामाणिक हैं इसके निर्णय के लिए हमारा उपर्युक्त थोड़ा सा विवेचन ही पर्याप्त होगा। 2010_05 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निडवों का निरूपा भगवान् महावीर के समय में जैन-संघ अविभक्त था। पर माज जैन-धर्म का अनुयायी वर्ग दो विभागों में बंटा हुआ है ! १. श्वेताम्बर सम्प्रदाय में और २. दिगम्बर सम्प्रदाय में। महावीर के केवलज्ञान प्राप्त कर अपना तीर्थ स्थापित करने के पूर्व जैन धर्म का अनुयायी वर्ग साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ का अनुयायी था। _ विक्रम संवत् के पूर्व ५०० (ई० ५५७) में जब भगवान् महावीर ने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया और वैशाख शुक्ला ११ को पावामध्यमा के महासेन उद्यान में चतुर्विध संघ की स्थापना की, तब से जैन-संघ पर भगवान् महावीर का धर्मशासन प्रारम्भ हुआ था। पार्श्वनाथ के कतिपय श्रमणगण जो तत्काल महावीर के शासन के नीचे नहीं पाये थे, वे धीरेधीरे संशय दूर करके महावीर के उपदेशानुसार चलने लगे थे और भगवान् महावीर का धर्मशासन व्यवस्थित रूप से चलता था। . भगवान महावीर के जीवनकाल में दो साधु ऐसे मिकले जिन्होंने भगवान् के वचन में संदेह किया और अपना नया मत प्रचलित किया। इन दो में पहले का नाम "जमालि और दूसरे का नाम "तिष्यगुप्त" था। इन दो के अतिरिक्त ५ व्यक्तियों ने महावीर के निर्वाण के बाद भिन्न-भिन्न विषयों में महावीर के कथन से अपना मतभेद व्यक्त किया था। वे सात ही मतवादी “निह्नव" कहे गये हैं, इनका कालक्रम से विशेष विवरण नीचे दिया जाता है: ___ 2010_05 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ । [ पट्टावली-पराग (१) वहुसमयवादी जमालि भगवान् महावीर के धर्मशासन के १४ वर्ष के अन्त में सर्वप्रथम जमालि नामक एक शिष्य ने भगवान् के एक आदेश का उल्लंघन किया। जमालि क्षत्रियकुण्डपुर का रहने वाला क्षत्रियपुत्र था। वह महावीर का जामाता लगता था, पांच सौ क्षत्रियपुत्रों के साथ महावीर के पास निग्रन्थ श्रमणधर्म को स्वीकार किया था और एकादशांगश्रुत पढ़ा था। एक बार जमालि ने अपने सहप्रवजित पांच सौ साधुओं के साथ पृथक् विहार करने की महावीर से आज्ञा मांगी, पर महावीर ने उसे कोई उत्तर नहीं दिया। दूसरी, तीसरी बार पूछने पर भी भगवान की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिला, तब जमालि ५०० श्रमणों को साथ ले महावीर से पृथक् हो विचरने लगा। . एक बार वह श्रावस्ती नगरो के "तिन्दुकोद्यान के कोष्टक चैत्य" में ठहरा हा था। वहां तप और रूक्ष आहारादि के कारण इसका स्वास्थ्य बिगडा और उबर पाने लगा। शाम का प्रतिक्रमणादि नित्यकर्म करने के बाद उसने सोने को इच्छा व्यक्त की। वैयावृत्त्यकर साधु उसके लिए संस्तारक बिछाने लगा, आतुरतावश जमालि ने पूछा : 'संस्तारक हो गया ?' वैयावृत्त्यकर ने कहा : 'हो गया' जमालि उठा, पर खड़े होने के बाद मालूम हुआ कि संस्तारक बिछ रहा है। जमालि ने कहा : सस्तारक हो रहा था तब कैसे कह दिया कि हो गया ? गीतार्थ स्थविरों ने उत्तर दिया कि 'यह नयसापेक्ष वचन है, ऋजुसूत्रनय के मत से इस प्रकार के वचन सत्य माने गये हैं।' भगवान महावीर ने इसी नय को अपेक्षा से “करेमाणे कडे, डज्झमाणे डड्ड, गम्ममाणे गए, पिज्जरिज्जमाणे निज्जिणे" (क्रियमाणं कृतं, दह्यमानं दग्धं, गम्यमानं गतं, निर्जीर्यमाणं निर्जीणं; इत्यादि वव प्रियोग किये हैं और इसी नय के अनुसार “संथरिजजमारणं संथरिय" अर्थात् "संस्तारक करना शुरु किया था, इसे किया कहा, यह वचन निश्चय नय के मत से सत्य है। निश्चय नय के मत से 2010_05 Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ६६ जो क्रिया जिस कार्य के लिए प्रवृत्त होती है वह अपने पीछे कुछ कार्य करके ही विराम पाती है, क्योंकि निश्चय नय क्रिया-काल और निष्ठाकाल को अभिन्न मानता है, परन्तु रुग्ण जमालि के दिमाग में यह नयवाद नहीं उतरा और कहने लगा : जब तक कोई भी कार्य पर्थ-साधक नहीं बनना, तब तक उसे "हा" नहीं कहना चाहिए। संस्तारक हो रहा था, उसे हुआ कहा पर वह “शयाक्रियोपयुक्त" नहीं हुमा, फिर “हुआ" कहने से क्या मतलब निकला ? सत्य बात तो यह है कि "पूर्ण हुए को ही 'हुप्रा' कहना चाहिए जो ऐसा नहीं कहते वे असत्यभाषी हैं।" कार्य एक समय में नहीं बहुतेरे समयों के अन्त में निष्पन्न होता है।। जमालि का उक्त अभिनिवेश देख कर अधिकांश श्रमण उसे छोड़ कर महाबोर के पास चले गये। फिर भी जमालि पाप जीवनपर्यन्त अपने दुराग्रह के कारण अकेला ही "बहुरत" वाद का प्रतिपादन करता हुमा निह्नव के नाम से प्रसिद्ध हुप्रा और महावीर के वचन का विरोध करता रहा। प्रियदर्शना साध्वी, जो गृहस्थाश्रम में महावीर की पुत्री और जमालि की भार्ण थी, एक हजार स्त्रीपरिवार के साथ दीक्षित होकर महावीर के श्रमतीसंघ में दाखिल हुई थी। वह भी जमालि के राग से उसके मत को खरा मानती थी और अपनी हजार श्रमणियों के परिवार से परिवृत हुई प्रियदर्शना श्रावस्ती में ढंक नामक महावीर के कुंभकार श्रमणोपासक की भाण्डशाला में ठहरी हुई थी। वह जमालि के बहुसामयिक सिद्धान्त का उपदेश कर रही थी। कुंभकार ढंक ने अपने प्रापाक-स्थान (निवाहे) से एक प्राग की चिनगारी साध्वी की संघाटी पर फेंकी, संघाटी के सुलगते ही प्रियदर्शना ने कहा : श्रावक ! यह क्या किया ? मेरी संघाटी (चद्दर) जला दी ! ढंक ने कहा : यह क्या कहती हो, संघाटो जलाई ? अभी तो संघाटी जलने लगी है, जली कहां ? यहां साध्वी समझ गई, बोली : अच्छा उपदेश दिया ढंक ! प्रच्छा उपदेश दिया। वह अपनी हजार साध्वियों के साथ जाकर महावीर के श्रमणो-संघ में मिल गई, फिर भी जमालि ने अपने नूतन सिद्धान्त का त्याग नहीं किया। 2010_05 Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० [ पट्टावली-पराग (२) जीवप्रदेशवादी तिष्यगुप्त भगवान् महावीर को केवलज्ञान उत्पन्न हुए १६ वर्ष हुए तब ऋषभपुर अर्थात् राजगृह में जीवप्रदेशवादी दर्शन उत्पन्न हुग्रा । इसका विशेष विवरण इस प्रकार है : - एक समय चतुर्दश पूर्वधर वसु नामक प्राचार्य राजगृह नगर के गुणशिलक-चैत्य में ठहरे हुए थे। वसु के तिष्यगुप्त नामक शिष्य था, जो प्रात्मप्रवाद पूर्वगत यह पालापक शिष्यों को पढ़ा रहा था, जैसे : "एगे भंते ! जोवपएसे जोवेत्ति वत्तव्वं सिया ? नो इणम? सम?, एवं दो जीवपएसा-तिण्णि-संखेज्जा-असंखेज्जा वा, जाव एगेरणावि पदेसेण ऊरणो णो जीवोत्ति वत्तव्वं सिया, जम्हा कसिणे-पडिपुण्णे-लोगागासपदेसतुल्लपएसे जीवेत्ति वत्तव्वं ।" अर्थात् 'हे भगवन् ! एक प्रात्मप्रदेश को जीव कह सकते हैं ?, इस प्रश्न का उत्तर मिला, यह बात नहीं हो सकतो। इसो प्रकार दो जीवप्रदेश, तीन जीवप्रदेश, संख्येय जीवप्रदेश, असंख्येय जीवप्रदेश भी जीव नाम को प्राप्त नहीं कर सकते। यावत् प्रात्म-प्रदेशों के पिण्ड में से एक भी प्रदेश कम हो, तब तक उसको जोव नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सम्पूर्ण और प्रतिपूर्ण लोकाकाश-प्रदेशतुल्य प्रदेश वाला जीव ही “जोव" इस नाम से व्यवहृत होता है।' जीव सम्बन्धी उक्त व्याख्या पर चिन्तन करते हुए, तिष्यगुप्त के मन में यह विचार आया-जब कि एक आदि प्रदेशहीन 'जीव', 'जीव' नहीं है। यावत् एक प्रदेशहीन प्रात्मप्रदेशपिण्ड भी 'जीव' नाम को नहीं पाता, किन्तु अन्तिम प्रदेशयुक्त ही जोव नाम प्राप्त करते हैं, तो वह एक अन्तिम प्रदेश ही जीव है, यह क्यों न मान लिया जाय ? क्योंकि वही प्रदेश जीवभाव से भावित है। इस प्रकार का प्रतिपादन करते हुए तिष्यगुप्त को गुरु ने कहा : यह बात ऐसी नहीं है जैसी तुम समझ रहे हो। ऐसा मानने पर जीव का ही प्रभाव मानना पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे अभिमत "अन्त्य जीव ___ 2010_05 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ७१ प्रदेश को भी अजीव ही मानना पड़ेगा। क्योंकि अन्य प्रदेशों से इसका कोई भेद नहीं है अथवा प्रथमादि प्रत्येक प्रदेश को जोव मानना पड़ेगा, इत्यादि अनेक युक्तियों से प्राचार्य ने तिष्यगुप्त को समझाया, फिर भी उसने अपने दुराग्रह को नहीं छोड़ा। तब गुरु ने उसे अपने समुदाय से पृथक कर दिया, फिर भी वह अनेक प्रकार की प्रसत्कल्पनाओं से अपने अभिनिवेश को पुष्ट करता और लोगों को ब्युद्ग्राहित करता हुआ कालान्तर में 'पामलकल्पा' नगगे गया। वहां अम्बशाल वन में ठहरा। आमलकल्पा में “मित्रश्री" नामक एक श्रमणोपासक रहता था। वह जानता था कि "तिष्यगुप्त" प्रदेशवादी है, उसने तिष्यगुप्त को निमन्त्रण दिया कि माप स्वयं मेरे घर पधारियेगा। तिष्यगुप्त कुछ साघुत्रों के साथ गया। मित्रश्री ने उसे आसन पर बिठाया और बैठने पर अनेक प्रकार के खाद्य पकवान वहां लाये । प्रत्येक पदार्थ में से थोड़ा-थोड़ा टुकड़ा पात्र में रखा, भात में से चावल का एक दाना, दाल शाक में से एक-एक बूंद । इसी प्रकार बस्त्र का मन्तिम धागा उसको देकर पैरों में सिर नवाया और अपने मनुष्यों को कहा : प्रायो, वादन करो, साधु महाराज को दान दिया है। माज में पुण्यवान् तथा भाग्यशाली हुमा जो माप स्वयं मेरे घर पाए । तब साधु बोले : हे महानुभाव ! क्या तुम आज हमारा ठट्ठा कर रहे हो ? श्रावक ने कहा : मैंने मापके सिद्धान्तानुसार मापको दान दिया है, यदि पाप कहें तो वधमान स्वामी के सिद्धान्त से दान हूँ? यहां पर "तिष्यगुप्त" समझा और बोला : आर्य, तुमने बहुत अच्छी प्रेरणा की, बाद में श्रावक ने विधिपूर्वक अन्नवस्त्रादि का दान दिया भोर अन्त में मिथ्यादुष्कृत दिया। उक्त रीति से तिष्यगुप्त' और उनके शिष्य ठिकाने पाये शोर अपनी भूल का प्रायश्चित्त कर विचरने लगे। ऊपर लिखे बहुरत जमालि और प्रदेशवादी तिष्यगुप्त इन दोनों ने भगवान् महावीर की नीवित अवस्था में ही उनके सिद्धान्त से अमुक विषयों में अपना नया मत प्रचलित किया था। इनमें से तिष्यगुप्त और उनके शिष्य कालान्तर में अपना मत छोड़कर महावीर के सिद्धान्त से अनुकूल हो 2010_05 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ पट्टावली-पराग गये थे, पर जमालि मन्त तक अपने मत को पकड़े रहा था और महावीर के श्रमणों की दृष्टि में वह बिलकुल गिर गया था। महावीर के केलिजीवन के ३० वर्षों में गोशालक के साथ जो खटपट हुई थी, उसका परिणाम महावीर को भोगना पड़ा था। फिर भी उस प्रकरण की समाप्ति छः महीनों के प्रति में हो गई थी, पर जमालि के विरोध की समाप्ति जमालि की जीवित अवस्था में नहीं हुई थी। उक्त तीन प्रसंगों के अतिरिक्त महावीर की जिनावस्था में कोई भी अनिष्ट प्रसंग नहीं बना था। (३) अव्यक्तवादी आषाढाचार्य शिष्य भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त हुए दो सौ चौदह वर्ष बीतने पर भाषाढाचार्य के शिष्यों ने श्वेतविका नगरी में महावीर के शासन में अव्यक्तवादी दर्शन की उत्पत्ति की । इस घटना का विवरण इस प्रकार है : श्वेतविका नगरी के पोलासोद्यान में प्रार्य प्राषाढ नामक प्राचार्य माए हुए थे। वहां पर उनके अनेक शिष्यों ने आगाढ योग में प्रवेश किया था। आषाढाचार्य ही उन योगवाहियों के वाचनाचार्य थे, एक रात्रि में हृदयशूल से प्राषाढाचार्य मरकर सौधर्म देवलोक में "नलिनीगुल्म" नामक विमान में देव हुए । उत्पन्न होते ही अवधिज्ञान से उपयोग लगाया तो अपने पूर्वभविक शरीर को देखा, मागाढ़ योगवाही साधुनों को तब तक पता नहीं है कि प्राचार्य काल कर गए हैं। तब प्राचार्य के जीव देव ने "नलिनिगुल्म" से पाकर पपने उस शरीर में प्रवेश कर योगवाही साधुओं को उठाया और वैरात्रिक काल लिवाया। इस प्रकार देव ने अपने दिव्य प्रभाव से निर्विघ्नतापूर्वक योगवाही साधुओं का कार्य पूरा करवाया। बाद में उसने कहा : "खमिएगा भगवन्त ! आज तक मैंने असंयत होते हुए भी मापसे वन्दन करवाया। मैं अमुक दिन की रात्रि में कालधर्म प्राप्त हुआ था और तुम्हारे ऊपर दया लाकर पाया था। इस प्रकार वह अपनी सर्व हकीकत व्यक्त करके साधुओं से क्षमा मांग कर चला गया। साधु भी 2010_05 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] प्राचार्य के शरीर का विसर्जन कर सोचने लगे : "इतने समय तक हमने असंयत को वन्दन किया। वे अव्यक्तभाव की प्ररूपणा करते हुए बोले : कौन जानता है कि यह साधु है या देव ? इसलिए किसी को वन्दन नहीं करना चाहिए, क्योंकि निश्चय विना असंयत को नमन करना अथवा अमुक असंयत को संयत कहना मृषावाद है। इस पर स्थविरों ने उनको समझाया : यदि संयत के विषय में देव होने की शंका होती है तो देव के विषय में साधु की शंका क्यों नहीं होती ? अथवा तो देव के विषय में प्रदेव की शंका क्यों नहीं होतो ? देव ने अपना रूप बता कर कहा कि मैं देव हूँ, तो साधु साधु के रूप में रहा हुआ कहे कि मैं साधु हूँ, तो इसमें शंका क्यों की जाती है ? क्या देव का वचन ही सच हैं ? और साधुरूपधारी का नहीं ? जो जानते हुए भी परस्पर वन्दना नहीं करते हो, इत्यादि अनेक प्रकार से स्थविरों ने योगवाही साधुओं को समझाया परन्तु उन्होंने अपना 'अव्यक्तवाद' नहीं छोड़ा । तब अपने गच्छ से उन्हें पृथक कर दिया। विचरते हुए वे राजगृह नगर गए। वहां मौर्यवंशीय बलभद्र नामक राजा श्रमणोपासक था। उसने जाना कि अव्यक्तवादी साधु यहां पाए हुए हैं, तब उसने अपने नौकरों को प्राज्ञा दी कि जामो गुणशिलक चैत्य से साधुनों को बुला लामो। राजसेवक साधुओं को राजा के पास ले आये । राजा ने अपने पुरुषों को प्राज्ञा दी : जल्दी इन्हें सैन्य से मरवा डालो । राजा की प्राज्ञा होते ही वहां हाथी आदि सैन्यदल पाया देख कर अव्यक्तवादी बोले : हम जानते हैं कि तुम श्रावक हो, फिर हम साधुनों को कैसे मरवाते हो ? राजा ने कहा : तुम चोर हो, चारिक हो अथवा अभिमर हो, कौन जानता है ? अव्यक्तवादी बोले : हम साधु हैं । राजा ने कहा : तुम कैसे साधु हो, जो अव्यक्तवाद को पकड़े हुए परस्पर वन्दन तक नहीं करते । तुम श्रमण हो या चारिक, यह कौन कह सकता है ? मैं भी श्रावक हूँ या नहीं, यह निश्चय से कौन कह सकता है ? यहां अव्यक्तवादी समझे । लज्जित हुए और अव्यक्तवाद को छोड़ कर निश्शंकित हुए। तब राजा ने कठोर मोर कोमल वचनों से उपालम्भ देते हुए कहा : तुमको समझाने के लिए यह सब प्रवृत्ति की है, माफ करना, यह कह कर उन्हें मुक्त किया। ___ 2010_05 Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराम (४) सामुच्छेदिक - अश्वमित्र भगवान् महावीर को सिद्धि प्राप्त हुए ३२० वर्ष के बाद मिथिलापुरी में "सामुच्छेदिक दर्शन" उत्पन्न हुमा। उपर्युक्त दर्शन के सम्बन्ध में "प्रावश्यक भाष्यकार" ने निम्नलिखित विशेष विवरण दिया है : मिथिला नगरी के लक्ष्मोधर चैत्य में महागिरि प्राचार्य के शिष्य कौडिन्य नामक ठहरे हुए थे। कौडिन्य का शिष्य अश्वमित्र था, वह प्रात्मप्रवाद पूर्व का नैपुणिक वस्तु पढ़ रहा था। वहां छिन्नछेद नय की वक्तव्यता का मालापक माया, जैसे : "पडघन्नसमयनेरइया वोच्छिज्जिस्संति, एवं जाव वेमारिणयत्ति, एवं बिइयादिसमएसु वत्तव्यं, एस्थ तस्स वितिगिच्छा जाया।" प्रर्थात् वर्तमान समय के नारकीय जीव समयान्तर में व्युच्छिन्न हो जावेगे एवं असुरादि यावत् वैमानिक समझना। इसी प्रकार द्वितीय, तृतीयादि समयों में उत्पन्न होने वालों का व्युच्छेद कहना। यहां अश्वमित्र को शंका उत्पन्न हुई, जैसे : “सर्व वर्तमान समय में उत्पन्न होने वालों का व्युच्छेद हो जायगा, तब सुकृत-दुष्कृत कर्मों के अणुओं का वेदन कसे होगा, क्योंकि उत्पाद के मनन्तर तो सब का विनाश ही हो जायगा।' इस प्रकार की प्ररूपणा करते हुए "प्रश्वमित्र' को प्राचार्य कौडिन्न ने कहा : यह सूत्र एक नयमताश्रित है। इसको सिद्धान्त समझ कर शेष नयों से निरपेक्ष होकर मिथ्यात्व का समर्थक न बन । हृदय से विचार कर, कालपर्याय के नारा में किसी का सर्वथा विनाश नहीं होता, वस्तु मनन्तधर्मात्मक होती है। वह अनेक स्वपर पर्यायों से युक्त होती है। सूत्र में ऐसा लिखा है कि इस बात पर भी निर्भर न बन, क्योंकि सूत्र में हो. उन्हीं द्रव्यों को शाश्वत भी कहा है। जो भी वस्तु द्रव्य रूप से शाश्वत है, वही पर्यव रूप से प्रशाश्वत भी है। उसमें भी समयादि का विशेषण ____ 2010_05 Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ७५ होने से सर्वनाश नहीं समझना चाहिए, अन्यथा सर्वनाश में रामयादि के विशेषण का उपन्यास निरर्थक होता, इत्यादि अनेक युक्तियों से समझाने पर भी अपना हठाग्रह नहीं छोड़ा, तब उसे समुदाय में से निकाल दिया। वह समुच्छेदवाद का प्रचार करता हुआ, काम्पिल्यपुर गया। काम्पिल्यपुर में "खण्डरक्ष" नामक श्रावक रहते थे। वे शुल्कपाल भी थे। उन्होंने वहां पाए हुए सामुच्छेदिकों को पकड़वाया और मरवाना शुरु किया। भयभीत होकर वे बोले : हमने तो सुना था कि तुम श्रावक हो, फिर भी इस प्रकार साधुओं को मरवाते हो ? 'खण्डरक्षक' ने कहा : जो साधु थे वे उसी समय व्युच्छिन्न हो गए। तुम्हारा ही तो यह सिद्धान्त है, इसलिए तुम दूसरे कोई चोर हो। उन्होंने कहा : मत मरवानो, हम वे ही साधु हैं जो पहले थे। इस प्रकार उन्होंने सामुच्छेदिकता का त्याग कर सिद्धान्त मार्ग को स्वीकार किया। (५) द्विक्रियावादी आर्य गंग भगवान् महावीर को सिद्धि प्राप्त होने के बाद ३२८ वर्ष व्यतीत होने पर उल्लुकातीर नगर में "द्विक्रियावादियों का दर्शन" उत्पन्न हुमा। इसका विशेष विवरण भाष्यकार निम्न प्रकार से देते हैं : उल्लुका नाम की नदी थी। उसके प्रासपास का प्रदेश भी उल्लुका जनपद के नाम से पहिचाना जाता था। नदी के दोनों तटों पर दो नगर बसे हुए थे, एक का नाम 'खेट" दूसरे का नाम "उल्लुका तीर" नगर था। वहां पर महागिरि के शिष्य "धनगुप्त" नामक प्राचार्य रहे हुए थे, धनगुप्त के शिष्य प्राचार्य गंग थे। वह नदी के पूर्वी तट पर थे, तब उनके गुरु प्राचार्य धनगुप्त पश्चिम तट स्थित नगर में। शरत्काल में प्राचार्य "गंग" अपने गुरु को वन्दन करने के लिए चले । वे सिर में गंजे थे। उल्लुकानदी को उतरते हुए उनका गंजा सिर धूप से जलता था, तब नीचे पगों में शीतल पानी से शैत्य का अनुभव होता था। गंग सोचने लगे : सूत्रों में कहा है : एक समय में एक ही क्रिया का ज्ञान होता है, शीत 2010_05 Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग स्पर्श अथवा उष्ण-स्पर्श का। परन्तु मैं तो दो क्रियाओं का अनुभव कर रहा हूँ, इसलिये एक समय में एक नहीं, दो क्रियाओं का अनुवेदन होता है। प्राचार्य गंग की बात सुनकर आचार्य धन गुप्त ने कहा : “पार्य, ऐसी प्रज्ञापना न कर, एक समय में दो क्रियाओं का वेदन नहीं होता। क्योंकि समय और मन बहुत सूक्ष्म होते हैं, वे भिन्न-भिन्न होते हुए भी स्थूलबुद्ध मनुष्य को एकसमयात्मक प्रतीत होते हैं, उत्पलपत्रशतवेधकी तरह। इत्यादि प्रकार से गंग को समझाने पर भी जब उसने अपना हठवाद न छोड़ा तब उसे श्रमणसंघ से पृथक् कर दिया। वह चलता हुआ राजगृह पहुंचा। वहां पर “महातपोतीर प्रभव' नामक एक बड़ा पानी का झरना हैं, उसके निकट "मणिनाग" नामक नागजाति के देव का चैत्य है । प्राचार्य गंग "मणिनाग चैत्य' के निकट ठहरे और एक समय में दो क्रियानों के अनुभव को बात कहने लगे, तब मणिनाग ने उस परिषद् के मध्य में कहा : "अरे दुष्ट शिष्य ! अप्रज्ञापनीय का प्रज्ञापन कैसे करता है ? इसी स्थान में ठहरे हुए भगवान् वर्धमान स्वामी ने कहा है : एक समय में एक ही क्रिया का वेदन होता है, क्या तू उनसे भी बढ़कर हो गया ? छोड़ दे इस वाद को। तेरे इस दोष से मुझे शिक्षा करनी न पड़े इसलिए कहता हूँ। मणिनाग की धमकी और उपपत्ति से समझ कर गंग बोला : हम चाहते हैं कि गुरु के पास जाकर अपनी इस विरुद्ध प्ररूपणा की क्षमा मांग लें। . (६) त्रैराशिक - रोहगुप्त महावीर को सिद्धि प्राप्त हुए ५४४ वर्ष व्यतीत होने पर "अन्तरंजिका नगरी" में त्रैराशिक दर्शन उत्पन्न हुआ, इस दर्शन की उत्पत्ति का विशेष वर्णन इस प्रकार है: अन्तरंजिका नगरी के बाहर “भूतगुहां'' नामक चैत्य था, जहां पर श्रीगुप्त नामक प्राचार्य ठहरे हुए थे। उस नगर के तत्कालीन राजा का नाम था "बलश्रो"। "स्थविर श्रीगुप्त'' का "रोहगुप्त' नामक शिष्य था। वह अन्य गांव में ठहरा हुआ था। एक समय अपने अध्यापक श्रीगुप्त को ___ 2010_05 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ७७ वन्दन करने “अन्तरंजिका" को जा रहा था, उस समय एक परिव्राजक अपने पेट पर लोह का पट्टा बांधकर जामुन की टहनी हाथ में लिये चल रहा था। पूछने पर वह कहता था, ज्ञान से पेट फट न जाय इसलिए पेट पर लोहे का पट्टा बांधा है । जम्बू की टहनी के सम्बन्ध में कहा : जंबूद्वीप में मेरा कोई प्रतिवादी नहीं है। उसने नगर में ढिंढोरा पिटवाया कि परप्रवाद सभी शून्य हैं, लोगों ने उसकी इस स्थिति को देख "पोट्टसाल" नाम रख दिया। गुरु के पास जाते रोहगुप्त ने ढिण्ढोरे को रोका और कहा : मैं याद करूंगा, बाद में वह अपने प्राचार्य के पास गया और कहा : मैंने परिव्राजक का ढिण्ढोरा रुकवाया है। प्राचार्य ने कहा : बुरा किया, क्योंकि वह विद्याबली है, बाद में पराजित हो जायगा तो भी विद्यामों से सामना करेगा। प्राचार्य ने रोहगुप्त को परिव्राजक को विद्याओं का पराजय करने वालो प्रतिविद्याओं को देकर अपना रजोहरण दिया और कहा : विद्यानों के अतिरिक्त कोई उपद्रव खड़ा हो जाय, तो इसको घुमाना, अजेय हो जायगा। विद्याओं को लेकर रोहगुप्त राजसभा में गया और बोला, यह क्या जानता है ? भले ही यह अपना पूर्वपक्ष खड़ा करे। परिव्राजक ने सोचा, ये लोग चतुर होते हैं। अतः इन्हीं का सिद्धान्त ग्रहण कर वाद करूं । उसने कहा : संसार में "जीव" मोर "अजीव" ये दो राशियां होती हैं। रोहगुप्त ने विचार किया, इसने हमारा ही सिद्धान्त स्वीकार किया है तो इसकी बुद्धि को चक्कर में डालने के लिए मैं तीन राशियों की स्थापना करूं, यह सोचकर वह बोला : राशि दो नहीं पर तीन हैं-जीव, अजीव, नोजीव । इनमें शरीरधारी मनुष्य, पशु आदि संमारी जीवों का समावेश जीव राशि में होता है। घर, वस्त्रादि प्राणहोन सभी पदार्थ "मजीव राशि" में आते हैं और तत्काल मूल शरीर से जुदा पड़ी हुई छिपकली की पूछ आदि "नोजीव" में जानना चाहिये। जिस प्रकार दण्ड का आदि, मध्य, अन्त भाग होता है उसी प्रकार सर्व पदार्थ तीन राशियों में बंटे हुए हैं-जीवों में, अजीवों में और नोजीवों में। इस प्रकार रोहगुप्त द्वारा तकीवाद में निरुत्तर हो जाने से परिव्राजक ने रुष्ट होकर अपनी विद्याएँ रोहगुप्त पर छोड़ी, रोहगुप्त ने भी उन पर प्रतिपक्ष-विद्याएँ छोड़ी। जब परिवाजक का कोई वश नहीं चला तब उसने अपनी संरक्षित गर्दभी विद्या 2010_05 Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ ] [ पट्टावली-पराग छोड़ी। रोहगुप्त ने उसको अपने रजोहरण से परास्त किया। सभा में रोहगुप्त की जीत पौर परिव्राजक पोट्टशाल की हार उद्घोषित हुई। परिव्राजक को पराजित करके रोहगुप्त अपने प्राचार्य के पास गया और अपनी युक्ति-प्रयुक्तियों का वर्णन किया। प्राचार्य ने कहा : सभा से उठते हुए तुझे स्पष्टीकरण करना चाहिये था कि हमारे सिद्धान्त में तीन राशियां नहीं हैं, मैंने जो यहां तीन राशियों की प्ररूपणा की है, वह वादो की बुद्धि को पराभूत करने के लिए। आचार्य ने कहा : अब भी राजसभा में जाकर खरी स्थिति का स्पष्टीकरण कर दे । पर रोहगुप्त जाने के लिए तैयार नहीं हमा। भाचार्य के बार-बार कहने पर वह बोला : अगर तीन राशियां कहीं तो इसमें कौनसा दोष लग गया, क्योंकि तीन राशियां तो हैं ही । प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा, प्रार्य! तू जो बात कह रहा है वह असद्भावविषयक है, इससे तीर्थङ्करों को प्राशातना होती है । फिर भी उसने प्राचार्य का वचन स्वीकार नहीं किया और उनके साथ वाद करने लगा, तब प्राचार्य राजकुल में गए मोर कहा : मेरे उस शिष्य ने आपकी सभा में जो तीन राशियों की प्ररूपणा की है वह अपसिद्धान्त है। हमारे सिद्धान्त में दो ही राशि मानी गई हैं, परन्तु इस समय हमारा वह शिष्य हमसे भी विरुद्ध हो गया है। अतः आप हमारे बीच होने वाले वाद को सुनें। राजा ने स्वीकार किया और उन दोनों गुरु-शिष्यों का वाद राजसभा में प्रारम्भ हुआ। एक-एक दिन करते छः मास निकल गए। राजा ने कहा : मेरे राज्यकार्य बिगड़ते हैं, प्राचार्य ने कहा : इतने दिन मैंने अपनी इच्छा से विलम्ब किया, अब आप देखिए ! कल हो इसको निगृहीत कर दूंगा। दूसरे दिन प्राचार्य ने राजा से कहा : कुत्रिकापण में संसार भर के सब द्रव्य रहते हैं, आप वहां से जीव, अजीव और नोजीव, इन तीनों द्रव्यों को मंगवाइये । राजपुरुष कुत्रिकापण को भेजे गए और उन्होंने उक्त तीनों पदार्थों को वहां मांगा। कुत्रिकापण की अधिष्ठायिका देवता ने "जीव" मांगने पर :'सजीव पदार्थ" दिया, "मजीव" के मांगने पर "निर्जीव पदार्थ" दिया, पर नोजोव के मांगने पर कुछ नहीं दिया। इस ऊपर से "राजसभा में रोहगुप्त का सिद्धान्त अपसिद्धान्त माना गया।" 2010_05 Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयम-परिच्छेद ] [ ७ - भाचार्य श्रीगुप्त ने अपना खेलमात्रक रोहगुप्त के सिर पर फोड़ा और उसे निकाल दिया। राजा ने नगर में उद्घोषणा करवाई कि "बर्द्धमान जिन का शासन जयवन्त है" और पराजित रोहगुप्त को राजा ने अपने राज्य की हद छोड़कर चले जाने को प्राज्ञा दी। रोहगुप्त ने "मूल छः पदार्थों को पकड़ा, जैसे : द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय" । द्रव्य उसने नौ माने, "पृथ्वी, पानी, अग्नि, पवन, आकाश, काल, दिशा, प्रात्मा और मन ।" गुण उसने १७ माने हैं, जैसे : “रूप, रस, गन्ध, सर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न।" कर्म पांच प्रकार का माना है : उत्क्षेपण, अवक्षेपण, प्राकुंचन, प्रसारण मौर गमन । सामान्य दो प्रकार का, “महासामान्य-सत्तासामान्य और सामान्यविशेष ।” विशेष अनेक प्रकार के माने हैं, 'इह' इस प्रकार के प्रत्यय का हेतु समवाय है। रोहगुप्त ने वैशेषिक दर्शन का प्रणयन किया, दूसरों ने आगे से आगे प्रसिद्ध किया। इसको मोलुक्य दर्शन भी कहते हैं, क्योंकि रोहगुप्त गोत्र से प्रौलुक्य थे। (७) भवद्धिक - गोष्ठामाहिल __ महावीर को सिद्धि प्राप्त हुए ५८४ वर्ष बीते तब दशपुर नगर में "प्रबद्धिक दर्शन" उत्पन्न हुआ, इसका विवरण नीचे लिखे अनुसार है : . दशपुर नगर में इक्षुघर में आर्यरक्षित के तीन पुष्यमित्र नामक साधु पोर गोष्ठामाहल आदि टहरे हुए थे। विन्ध्य नामक साधु पाठवें "कर्मप्रवादपूर्व" में लिखे अनुसार कर्म का स्वरूपवर्णन करता था, जैसे : "कुछ कर्म जीवप्रदेशों से बद्ध मात्र होता है, कालान्तर में वह जीवप्रदेशों से जुदा पड़ जाता है। कुछ कर्म बद्ध और स्पष्ट होता है, वह कुछ विशेष कालान्तर के बाद जुदा पड़ता है। कुछ कर्म बद्ध-स्पष्ट भोर निकाचित होता है जो जीव के साथ एकत्वप्राप्त होकर कालान्तर में अपना फल बताता है। विन्ध्य की यह व्याख्या सुनकर गोष्ठामाहिल बोला : कर्मबन्ध की ____ 2010_05 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पट्टावला-पराग व्याख्या इस प्रकार से करोगे तब तो कर्म से जीत्र वियुक्त होगा ही नहीं, अन्योन्य अविभक्त होने से जीवप्रदेशों की तरह । इस सूत्र की व्याख्या इस प्रकार करो, जैसे : कंचुकी-पुरुष का कंचुक स्पृष्ट होकर रहता है, बद्ध होकर नहीं। इसी प्रकार कर्म भी जीव से बद्ध न होकर स्पृष्ट होकर उसके साथ रहता है। इस प्रकार गोष्ठामाहिल की व्याख्या सुनकर विन्ध्य ने कहा : गुरु ने तो हम लोगों को इसी प्रकार का व्याख्यान सिखाया है। गोष्ठामाहिल ने कहा : वह इस विषय को नहीं जानता, व्याख्यान क्या करेगा। इस पर विन्ध्य शंकित होकर पूछने को गया, इसलिए कि शायद मेरे समझने में गलती हुई हो। उसने जाकर दुर्बलिका पुष्यमित्र को पूछा, तब उन्होंने कहा : जैसा मैंने कहा था वैसा ही तुमने समझा है. इस पर गोष्ठामाहिल का वृत्तान्त कहा, तब गुरु ने कहा : गोष्ठामाहिल का कथन मिथ्या है। यहां पर उसकी प्रतिज्ञा ही प्रत्यक्ष विरोधिनी है, क्योंकि मायुष्यकर्म-वियोगात्मक मरण प्रत्यक्षसिद्ध है, उसका हेतु भी अनैकान्तिक है, क्योंकि अन्योन्य अविभक्त पदार्थ भी उपाय से वियुक्त होते हैं, जैसे : दूध से पानी, दृष्टान्त भी साधनधर्मानुगत नहीं है। स्वप्रदेश का युक्तत्व मसिद्ध होने से अपने स्वरूप से अनादि काल से कर्म जीव से भिन्न है । अपने अनुयोगधर के पास कमबंध सम्बन्धी बिवरण सुनने के बाद विन्ध्य ने गोष्ठामाहिल को कहा : प्राचार्य इस प्रकार कहते हैं, इस पर वह मौन हो गया। मन में वह सोचता था, अभी इसको पूरा होने दो, बाद में मैं इकी गलतियां निकालूगा। एक दिन नवम पूर्व में साधुओं के प्रत्याख्यान का वर्णन चलता था, जैसे : "प्राणातिपात का त्याग करता हूं, यावज्जीवनपर्यन्त" गोष्ठामाहिल ने कहा : इस प्रकार प्रत्याख्यान की सीमा बांधना अच्छा नहीं है, किन्तु प्रत्याख्यान के कालपरिमाण की सीमा न बांध कर प्रत्याख्यान कालपरि. माणहीन करना ही श्रेयस्कर है। जिनका परिमाण किया जाता है, वे प्रत्याख्यान दुष्ट हैं, क्योंकि उनमें प्राशंसा दोष होता है। इस प्रकार प्रज्ञापन करते हुए गोष्ठामाहिल को विन्ध्य ने कहा : जो तुमने कहा वह यथार्थ नहीं है। इतने में नवम पूर्व का जो अवशेष भाग था वह समाप्त 2010_05 Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ८१ हो गया, तब वह अभिनिवेश पूर्वक पुष्यमित्र के पास जाकर कहने लगा : प्राचार्य ने अन्यथा पढ़ाया है और तुम इसकी अन्यथा प्ररूपरणा करते हो । इस पर आचार्य पुष्यमित्र ने गोष्ठामा हिल को अनेक प्रकार से समझाया और उसकी मान्यता का खण्डन किया, फिर भी प्राचार्य का कथन उसने मान्य नहीं किया, इस पर अन्यगच्छोय बहुश्रुत स्थविरों को पूछा गया, तो उन्होंने भी पुष्यमित्र की बात का समर्थन किया। गोष्ठमाहिल ने कहा : तुम क्या जानते हो, तीर्थङ्करों ने वैसा ही कहा है. जैसा मैं कहता हूं। स्थविरों ने कहा : तुम पूरा जानते नहीं और तीर्थङ्करों का नाम लेकर उनकी प्राशातना करते हो। जब गोष्ठामाहिल अपने दुराग्रह से पीछे नहीं हटा, तब संघसमवाय किया गया। सर्व संघ ने देवता को लक्ष्य कर कायोत्सर्ग किया। जो भद्रिक देवता थी वह भाई और बोली : आदेश दीजिये क्या कार्य है ? तब उसे कहा गया : तीर्थङ्कर के पास जाकर उन्हें पूछो कि गोष्ठामा हिल का कहना सत्य है अथवा दुर्बलिका पुष्यमित्र प्रमुख संघ का। देवता ने कहा : मुझे बल देने के लिए कायोत्सर्ग करें, जिससे मेरे गमन का प्रतिघात न हो। संघ ने कायोत्सर्ग किया । देवता तीर्थङ्कर भगवन्त को पूछ कर आई और कहा : संघ सम्यक्वादी है और गोष्ठामाहिल मिथ्यावादी, यह सप्तम निह्नव है। इस पर गोष्ठामाहिल ने कहा : यह बेचारी अल्पद्धि देवता है। इसकी क्या शक्ति जो वहां जाकर पा सके। यह सब होने पर भी गोष्ठामाहिल ने संघ के कथन पर विश्वास नहीं किया, तब संघ ने उसे संघ से बहिष्कृत उद्घोषित कर दिया। गोष्ठामाहिल अपनी विरुद्ध प्ररूपणा की आलोचना प्रतिक्रमण किये बिना ही कालधर्म के वश हुना। उपर्युक्त जमालि से गोष्ठामाहिल तक के सात मतप्रवर्तकों को पूर्वाचार्यों ने "निह्नव" कहा है और इनकी नामावलि "स्थानांग" और "प्रौपपातिक" उपांग में लिखी मिलती है, संभव है कि आगमों की युगप्रधान स्कन्दिलाचार्य द्वारा की गई वाचना के समय में निह्नवों के नाम आगमों में लिखे गये होंगे। 2010_05 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचीन स्थविरकल्पी जैन श्रमों का आचार वीर निर्वाण से ६०६ वर्ष के बाद रथवीर नामक नगर में आचार्य कृष्ण के शिष्य शिवभूति ने सर्वथा नग्न रहने के सिद्धान्त को पुनरुज्जीवित किया। उसके पूर्वकाल में जैन श्रमणों में सर्वथा नग्न रहने का व्यवहार बन्द सा हो गया था, जो कि "प्राचारांग" सूत्र में श्रमणों को तीन, दो, एक वस्त्रों से निर्वाह करने का आदेश था और सर्वथा वस्त्रत्याग की शक्ति होती वह एक वस्त्र भी नहीं रखता था, परन्तु ये वस्त्र सर्दी में प्रोढ़ने के काम में लिये जाते थे, परन्तु इस प्रकार का कठिन भाचार महावीर निर्वाण को प्रथम शती में ही व्यवच्छिन्न हो चुका था। अन्तिम केवली जम्बू के निर्वाण तक "वस्त्रधारी निर्गन्थ स्थविर कल्पी" और "सर्वथा वस्त्रत्यागी निग्रन्थ जिनकल्पी" कहलाते थे। दोनों प्रकार के श्रमण महावीर के निर्ग्रन्थ श्रमण-संघ में विद्यमान थे, परन्तु जम्बू के निर्वाणानन्तर संहनन, देश, काल मादि की हानि होती देखकर सर्वथा नग्न रहने का सिद्धान्त स्थविरों ने बन्द कर दिया था। दिगम्बर परम्परा को मौलिक मानने वाले विद्वानों की मान्यता है कि "महावीर के तमाम श्रमण निर्ग्रन्थ महावीर के समय में और उसके बाद भी श्रुतधर श्री भद्रबाहु स्वामी के समय तक नग्न ही रहते थे, परन्तु मौर्यकाल में होने वाले १२ वार्षिक दुर्भिक्ष के समय में जो जैन श्रमण दक्षिण में न जाकर मध्यभारत के प्रदेशों में रहे, उन्होंने परिस्थितिवश वस्त्र धारण किये और तब से "श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति हुई।" दिगम्बर विद्वानों का उपर्युक्त कथन केवल निराधार है, क्योंकि महावीर के समय में भी अधिकांश निग्रन्थ साधु "स्थविर-कल्प" का ही 2010_05 Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] [ ८३ पालन करते थे। यद्यपि वर्तमान काल में श्वेताम्बर जैन साधु जितना वस्त्र, पात्र आदि का परिग्रह रखते हैं, उतना उस समय नहीं रखते थे। तत्कालीन स्थविर-कलली एक-एक पात्र, एक-एक नग्नता ढांकने का पत्र. खण्ड और शरदी को मौसम में दो सूतो और एक ऊर्णामय वस्त्र रखते थे। रजोहरण और मुखवस्त्र तो उनका मुख्य उपकरण था ही, परन्तु इनके अतिरिक्त अपने पास अधिक उपकरण नहीं रखते थे। लज्जावरण का वस्त्रखण्ड नाभि से चार अंगुल नीचे से घुटनों से ४ अंगुल ऊपर तक लटकता रहता था। बौद्धपाली त्रिपिटकों में इस वस्त्र को "शाटक" नाम दिया है और इस वस्त्र को धारण करने वाले जैन निर्ग्रन्थों को "एकशाटक' के नाम से सम्बोधित किया है। स्थविरकल्पियों की परम्परा इस वस्त्र को “अनावतार' के नाम से व्यवहार करती थी। विक्रम की दूसरी शती के मध्यभाग तक 'अग्रावतार'' का स्थविरकल्लियों में व्यवहार होता रहा, ऐसा मथुरा के देवनिर्मित स्तूप में से निकली हुई "जैन आचार्य कृष्ण" को प्रस्तर मूर्ति से ज्ञात होता है। जैन निग्रन्थों का बौद्ध पिटकों में "एकशाटक" के नाम से अनेक स्थानों में उल्लेख मिलता है। दिगम्बरों की मान्यतानुसार महावीर के सर्व साधु "नग्न" ही रहते होते तो बौद्ध ग्रन्थकार उनको "एकशाटक" न कहकर ' दिगम्बर" अथवा "नग्न' ही कहते, परन्तु यह बात नहीं थी। इससे सिद्ध है कि महावीर के समय में निग्रन्थ श्रमणगरण वस्त्रधारी रहते थे, नग्न नहीं। यह बात ठीक है कि उस समय का वस्त्रधारित्व नाम मात्र का होता था। इस समय के बाद स्थविरकल्पियों के उपकरणों की संख्या फिर से निश्चित की गई। विक्रम की दूसरी शती के प्रथम चरण में युगप्रधान प्राचार्य श्री आर्यरक्षितजी ने जैन भागमों में चार अनुयोगों का पृथक्करण किया। इतना ही नहीं देशकाल का विचार करके प्राचार्य ने श्रमणों के उपकरणों की संख्या तक निश्चित की। स्थविरकल्पियों के लिए कूल चौदह उपकरण निश्चित किए : पात्र १, पात्रबन्धन २, पात्रस्थापनक ३, पात्रप्रमार्जनिका ४, पात्रपटलक ५, पात्ररजस्त्राण ६, गोच्छक ७ ये सात प्रकार के उपकरण "पात्रनिर्योग" के नाम से निश्चित ____ 2010_05 Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ । [ पट्टावली-पराग - किये गये और १ रजोहरण, २ मुखव स्त्रका, ३-४-५ कल्पत्रिक (२ सूती वस्त्र, १ ऊर्णामय), ६ चोलपट्टक, ७ मात्रक (छोटा पात्र विशेष) ये सात प्रकार के उपकरण व्यवहार में लेने के लिए रक्खे गए। इनके अतिरिक्त 'दण्ड" और "उत्तरपट्टकादि' कतिपय "ग्रौपग्रहिक' उपकरणों के रखने को आज्ञा दी। उपर्युक्त उपधि का परिमारण विक्रम की द्वितीय शती तक निश्चित हो चुका था। "दण्डाऊछन अादि "प्रौपग्रहिक' उपकरण उसके बाद में भी श्रमणों की उपधि में प्रविष्ट हुए हैं। इस नयी व्यवस्था से प्राचीन व्यवस्था में बहुत कुछ परिवर्तन भी हुआ जो निम्नलिखित गाथा से ज्ञात होगा: "कप्पारणं पावरणं, भग्गीयरञ्चायो झोलियाभिकहा। प्रोवग्गहिकडाय - तुंबर मुंहदागदोराई ॥" अर्थ : १ "कल्प” अर्थात् वस्त्रत्रय जो पहले शीत ऋतु में प्रोढा जाता और शेषकाल में पड़ा रहता था उसका मालिक श्रमण कहीं बाहर जाता तब अन्य किसी साधु को संभलाकर जाता अथवा तो अपने कन्धे पर रखकर जाता, परन्तु प्रोढ़ता नहीं था। जब से नये उपकरणों की व्यवस्था प्रचार में आयी तब से वस्त्रों का प्रोढना भी शुरु हुआ। २ 'अग्रावतार वस्त्र' जो सदाकाल लज्जा-निवारणार्थ कमर पर लटका करता था, उसका चोलपट्टक के स्वीकार करने के बाद त्याग कर दिया गया। ३ पहले साधु भिक्षा-पात्र हाथ में रखकर उस पर पटलक ढांकते थे और पटलक का दूसरा अांचल दाहिने कन्धे के पिछलो तरफ लटकता रहता था। जब से भिक्षा-पात्र झोली में रखकर भिक्षा लाने का प्रचार हुआ, तब से षटलक बाम हस्त में भराई हुई झोली के ऊपर ढांकने का चालू हुआ और पडले का एक छोर कन्धे पर रखना बन्द हुमा। ४ दण्डाऊँछण (दण्डासन) प्रादि प्रौपग्रहिक उपकरणों का उपयोग किया जाने लगा। ५ पहले साधु दिन में एक बार हो भोजन करते थे, परन्तु जब श्रमणसंख्या बढ़ी और उसमें बाल, वृद्ध, ग्लान आदि के लिए दूसरो बार खाद्य, पेय, 2010_05 Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ८५ औषधादि वस्तु को आवश्यकता प्रतीत हुई तब मध्याह्न का लाया हुआ खाद्य पेय पदार्थ रखने के लिए शिक्यक (सिक्का) रखने लगे। ६ तुंबे के मुंह पर लगाने का दोरा रखने मादि की गीतार्थ पूर्वाचार्यों ने प्राचरणा की। शिवभूति गुरु को छोड़ कर जाने के बाद कुछ समय उत्तर-भारत में विचर कर दक्षिण की तरफ विचरे, क्योंकि दक्षिण में पहले से ही "ग्राजीविक" सम्प्रदाय के भिक्षु विचर रहे थे। वहां के लोग नग्नता का प्रादर करते थे। शिवभूति के दक्षिण में जाने के बाद कौन-कौन शिष्य हुए, इसका कहीं भी श्वेताम्बर या दिगम्बर जैन साहित्य में उल्लेख नहीं मिलता। श्वेताम्बर साहित्य में सर्वप्रथम आवश्यक मूल-भाष्य में प्रार्य शिवभूति तथा इसके उत्तराधिकारियों के सम्बन्ध में विस्तृत वर्णन दिया है, जो कि शिवभूत के नग्नता धारण करने के बाद श्वेताम्बर सम्प्रदाय में भाष्य प्रादि अनेक शिष्ट ग्रन्थ बने हैं, परन्तु किसी ने भी इस विषय में कुछ नहीं लिखा, क्योंकि एक तो शिवभूति ने किसी मूल सिद्धान्त के विरुद्ध कोई प्ररूपणा नहीं की थी, दूसरा इनके दक्षिणापथ में दूर चले जाने के कारण स्थविरकल्पियों को शिवभूति तथा उनके अनुयायियों के साथ संघर्ष होने का प्रसंग ही नहीं था। शिवभूति ने दक्षिणापथ में कहां-कहां विहार किया, कितने शिष्य किये इत्यादि बातों का प्राचीन जैन साहित्य से पता नहीं चलता। शिवभूति के परम्परा शिष्य कोण्डकुन्द अपने परम्परागुरु शिवभूति से कितने समय के बाद हुए, इसके सम्बन्ध में ऊहापोह किये विता दिगम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियां देना अशक्य है। 2010_05 Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता अब हम देखेंगे कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता को सिद्ध करने वाले कुछ प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं या नहीं ? बौद्धों के प्राचीन पाली ग्रन्थों में अाजीविक मत के नेता गोशालक के कुछ सिद्धान्तों का वर्णन मिलता है, जिसमें मनुष्यों की कृष्ण, नील, लोहित, हारिद्र, शुक्ल और परमशुक्ल ये छः अभिजातियां बताई हैं। इनमें से दूसरी नीलाभिजाति में बौद्ध भिक्षुषों और तीसरी लोहिताभिजाति में निर्ग्रन्थों का समावेश किया है। उस स्थल में निर्ग्रन्थों के लिए प्रयुक्त बौद्ध सूत्र के शब्द इस प्रकार के हैं : "लौहिताभिजाति नाम निग्गन्था एकसाटकातिवदति" अ०) अर्थात् "एक चिथड़े वाले निर्ग्रन्थों को गोशालक "लोहिताभिजाति" कहता है।" (अ० नि० भा० ३ पृ० ३८३) इस प्रकार गोशालक ने निर्ग्रन्थों के लिए जहां "एक चिथड़े वाले" यह विशेषण प्रयुक्त किया है और इसी प्रकार दूसरे स्थलों में भी अतिप्राचीन बौद्ध लेखकों ने जैन निर्ग्रन्थों के लिए "एकशाटक" विशेषण लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि बुद्ध के समय में भी महावीर के साधु एक वस्त्र प्रवश्य रखते थे, तभी अन्य दार्शनिकों ने उनको उक्त विशेषण दिया है। __"एकशाटक" विशेषण उदासीन जैन श्रावकों के लिए प्रयुक्त होने को सम्भावना करना भी बेकार है, क्योंकि बौद्ध त्रिपिटकों में "निग्गन्थ" शब्द केवल जैन साधुओं के लिए प्रयुक्त हुअा है, श्रावकों के लिए नहीं। 2010_05 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] जहां कहीं जैन श्रावकों का प्रसंग माया है वहां सर्वत्र "निगण्ठस्स नाथपुत्तस्स सावका" अथवा "निगण्ठ-सावका" इस प्रकार श्रावक शब्द का ही उल्लेख हुआ है, केवल निग्गन्य शब्द का नहीं। इस दशा में "निगण्ठ" शब्द का श्रावक अर्थ करना कोरी हठधर्मी है । बौद्ध सूत्र "मज्झिम-निकाय' में निर्ग्रन्थ संघ के साधु "सच्चक" के मुख से बुद्ध के समक्ष गोशाल मंखलिपुत्त तथा उसके मित्र नन्दवच्छ पौर किस्ससंकिच्च के अनुयायियों में पाले जाने वाले प्राचारों का वर्णन कराया है। सच्चक कहता है : "ये सर्व वस्त्रों का त्याग करते हैं (अचेलका) सर्व शिष्टाचारों से दूर रहते हैं (मुक्ताचारा), प्राहार अपने हाथों में ही चाटते हैं (हस्तापलेखणा)" इत्यादि। सोचने की बात है कि यदि निर्ग्रन्थ जैन श्रमण सच्चक स्वयं अचेलक और हाथ में भोजन करने वाला होता, तो वह आजीविक भिक्षुओं का (हाथ चाटने वाले) आदि कह कर उपहास कभी नहीं करता। इससे भी जाना जाता है कि महावीर के साधु वस्त्र पात्र अवश्य रखते थे। 2010_05 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कषायप्रामतकार गुराधर आचार्य श्वेताम्बर थे श्रुतावतार कथाकार इन्द्रनन्दी का कथन बिल्कुल ठीक है कि उसके पास "गुणधर" और "धरसेन" की वंश-परम्परा जानने का कोई साधन नहीं था, क्योंकि उक्त दोनों प्राचार्य श्वेताम्बर परम्परा के अनुयायी श्रुतधर थे। गुणधर निवृति परम्परा के प्राचार्य थे, जो विक्रम की सप्तम शती के प्रारम्भ में होने वाले "कर्मप्राभूत" के जानने वाले विद्वान् थे और "कर्मप्राभूत" के आधार से ही आपने गाथानों में "कषायपाहुड" बनाया था। इन्हीं को परम्परा में होने वाले "गर्षि" आदि प्राचार्यों ने विक्रम की नवमी और दशमी शती के मध्यभाग में कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाला "पंचसंग्रह" नामक मौलिक ग्रन्थ बनाया था, जिसके आधार से ग्यारहवीं शती तथा इसके परवर्ती समय में अमितगति, नेमिचन्द्र, पद्मनन्दी आदि विद्वानों ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषाओं में "पंच-संग्रहों" की रचनाएँ की हैं। इसी प्रकार प्राचार्य धरसेन भी श्वेताम्बर परम्परा के स्थविर थे। इनका विहार बहुधा सौराष्ट्र भूमि में होता था। आप "योनि-प्राभृत" के पूर्ण ज्ञाता थे और “योनि-प्राभूत" नामक श्रुतज्ञान का ग्रन्थ आप ही ने बनाया था, जो आज भी पूना के एक पुस्तकालय में खण्डित अवस्था में उपलब्ध होता है। अधिक संभव है कि प्राचार्य वृद्धवादी, सिद्धसेन दिवाकर मादि प्रखर विद्वान् इन्हीं धरसेन की परम्पराखनि के मूल्यवान रत्न थे, क्योंकि आचार्य "सिद्धसेन दिवाकर" के पास भी "योनिप्राभूत" का विषय पूर्णरूपेण विद्यमान था, ऐसा "निशीथ" चूरिंग के आधार से जाना जाता ___ 2010_05 Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] है। प्राचार्य धरसेन का सत्तासमय विक्रम की तीसरी शताब्दी का अन्तभाग और चौथी का प्रारम्भ भाग था। श्रुतावतार के लेखानुसार “वीरनिर्वाण से ६८३ के बाद श्रीदत्त, शिवदत्त, अर्हद्दत्त, अर्हद्वलि मौर माघनन्दो मुनि का क्रमिक समय व्यतीत होने के बाद कर्मप्राभूत के जानकार धरसेन प्राचार्य का अस्तित्व लिखा है। इस क्रम से धरसेन का सत्ता-समय निर्वाण की पाठवीं शती तक पहुँचता है। धरसेन से भूतबलि पुष्पदन्त कर्म-प्राभूत पढ़े थे और उन्होंने उसके माधार से 'षट्खण्डागम" का निर्माण किया है, इस क्रम से भूत बलि, पुष्पदन्त का समय जिन-निरिण की नवम शती तक अर्थात् विक्रम की पंचमी शती के अन्त तक गुणधर प्राचार्य का समय पहुँचता है और पल्लीवाल गच्छीय प्राकृत-पट्टावली के आधार से भी गुणधर प्राचार्य का समय विक्रम की छठी शती में ही पड़ता है। ___"कषाय-प्राभूत" ऊपर के चूणिसूत्र भी वास्तव में किसी श्वेताम्बर प्राचार्य निर्मित प्राकृत चूरिंग है, जो बाद में शौरसेनी भाषा के संस्कार से दिगम्बरीय चूरिण-सूत्र बना दिए गए हैं । “यतिवृषभ" और "उच्चारणाचार्य" ये दो नाम भट्टारक वीरसेन के कल्पित नाम हैं। "जदिवसह" इत्यादि गाथाएँ भट्टारक श्री वीरसेन ने चूर्षिण के प्रारम्भ में लिखकर "यतिवृषभ" को कर्ता के रूप में खड़ा किया है। वास्तव में चूणिकर्ताओं की चूरिणयों के प्रारम्भ में इस प्रकार का मङ्गलाचरण करने की पद्धति ही नहीं है । इसी प्रकार सैद्धान्तिक श्रीमाधनादी और बालचन्द्र ने "तिलोयपण्णत्ति" नामक एक संग्रह ग्रन्थ का सन्दर्भ बनाकर उसे “यतिवृषभ' के नाम चढ़ा दिया है जो वास्तव में १३वीं शती की कृति है और दिगम्बर ग्रन्थों का ही नहीं, विशेषकर श्वेताम्बर ग्रन्थों में से सैकड़ों विषयों का संग्रह करके दिगम्बर जैन साहित्य में एक कृति की वृद्धि की है। इसमें जैन श्वेताम्बर मान्य "आवश्यक नियुक्ति" "बृहत्संग्रहणी" और "प्रवचनसारोद्धार" प्रादि ग्रन्थों को संगृहीत करके इसका कलेवर बढ़ाया गया है। इसमें लिखे गये २४ तीर्थङ्करों के चिह्न (लांछन) "प्रवचनसारोद्धार" के ____ 2010_05 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ पट्टावली-पराग ऊपर से लिये गए हैं । २४ तीर्थङ्करों के यक्ष-यक्षिणियों की नामावलि पादलिप्तसूरि की "निर्वाण कलिका " से ली गई है। तीर्थङ्करों की दीक्षा भूमि, निर्वाण भूमि, जन्म-नक्षत्र यादि सैकड़ों बातों का श्वेताम्बरों की "श्रावश्यक निर्युक्ति" से संग्रह किया गया है। यह पद्धति दिगम्बरों में एक सांकेतिक परम्परा सी हो गई है, कि कोई भी अच्छा जैन दिगम्बर विद्वान् कुछ अपनी रचनाएँ अपने पूर्वाचार्यों के नाम से अंकित करके अपने भंडारों में रख दे । " कषाय - पाहुड" की चूरिंग का कर्त्ता कौन था, यह कहना तो कठिन है, परन्तु इस चूरिंग में "स्त्रीवेद" वाला जीव सयोगी केवली पर्यन्त के गुणस्थानों का स्पर्श करने की जो बात कही है, वह श्वेताम्बर मान्य है, इससे इतना तो निश्चित है कि इस चूरिंग का निर्माता श्वेताम्बराचार्य अथवा तो यापनीय सम्प्रदाय को मानने वाला कोई विद्वान् साधु होना चाहिए । यही कारण है कि भट्टारक वीरसेन ने रिंग के कई मन्तव्यों पर अपनी असम्मति प्रकट की है । "श्वेताम्बर" तथा "यापनीय' संघ के अनुयायी सदा से स्त्रीनिर्वाण को मानते आये हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायियों ने विक्रम की दशवीं शती से स्त्रीनिर्वाण का विरोध प्रारम्भ किया था, क्योंकि इसके पूर्वकालीन किसी भी ग्रन्थ में दिगम्बर जैन विद्वान् ने स्त्री- निर्वाण का खण्डन नहीं किया । " तत्वार्थ सूत्र" की " सर्वार्थ सिद्धि " टीका में प्राचार्य देवनन्दी ने "केवली को कवलाहार मानने वालों को सांशयिक मिथ्यात्वी कहा है", परन्तु स्त्री- निर्वाण के विरोध में कुछ भी नहीं लिखा। इसी प्रकार विक्रम की अष्टम शती के प्राचार्य अकलंकदेव ने अपने "सिद्धिविनिश्चय" "न्यायविनिश्चय" आदि ग्रन्थों में छोटी-छोटी बातों की चर्चा की है, परन्तु स्त्रीनिर्वारण के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा । दशवीं शती के यापनीय श्राचार्य की कृति " केवलिभुक्ति स्त्रीमुक्ति" नामक ग्रन्थ में केवली के कवला - हार और स्त्री के निर्वारण का समर्थन किया है और इस समय के बाद के बने हुए दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रत्येक न्याय के ग्रन्थ में स्त्री - निर्वाण का खण्डन किया गया है । इससे प्रमाणित होता है कि मानने वालों में अग्रगामी दशवीं - ग्यारहवीं शती के दिगम्बर स्त्री - निर्वाण न आचार्य थे | 2010_05 Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यापनीय शिवभति के वंशन थे हम पहले ही कह पाये हैं कि प्रार्य शिवभूति जिन्होंने कि विक्रम सं० १३८ में नग्नता के व्यवहार को मथुरा के समीपवर्ती "रथवीरपुर" नामक स्थान में फिर प्रचलित किया था और कालान्तर में वे दक्षिणापथ में चले गये थे। दक्षिणापथ-प्रदेश में जाने पर उनकी कदर हुई और कुछ शिष्य भी हुए होंगे, परन्तु व्यवस्थित उनकी परम्परा बताना कठिन है। शिवभूति अथवा तो उनके शिष्यों की उस प्रदेश में “यापनीय" नाम से प्रख्याति हुई थी। कोई-कोई विद्वान् “यापनीय' शब्द का अर्थ निर्वाह करना बताते हैं, जो यथार्थ नहीं है । यापनीय नाम पड़ने का खास कारण उनके गुरुवन्दन में आने वाला "जावणिज्जाए" शब्द है। निर्ग्रन्थ श्रमण अपने बड़ेरों को वन्दन करते समय निम्नलिखित पाठ प्रथम बोलते हैं । __ "इच्छामि खमासमरणो ! वंविउं जावरिणज्जाए निसीहिमाए, अणुजागह मे मिउग्गहं निसीहि ।" अर्थात् 'मैं चाहता हूं, हे पूज्य ! वन्दन करने को, शरीर की शक्ति के अनुसार । इस समय मैं दूसरे कार्यों की तरफ का ध्यान रोकता हूँ। मुझे माज्ञा दीजिए, परिमित स्थान में पाने की।" उपर्युक्त वन्दनक सूत्र में आने वाले "यापनीय" शब्द के बारम्बार उच्चारण करने के कारण लोगों में उनकी “यापनीय" नाम से प्रख्याति हो गई। लोगों को पूरे सूत्र पाठ की तो आवश्यकता थी नहीं। उसमें जो विशिष्ट शब्द बारम्बार सुना उसी को पकड़ कर श्रमणों का वही नाम रख दिया, ऐसा होना अशक्य भी नहीं है। मारवाड़ के यतियों का इसी ___ 2010_05 Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] [पट्टावली-पराग प्रकार "मत्थेण" यह नामकरण हुआ है। जब वे एक दूसरे से मिलते हैं अथवा जुदे पड़ते हैं तब “मत्थएण वंदामि" यह शब्द संक्षिप्त वन्दन के रूप में बोला जाता है। इसको बार-बार सुनकर बोलने वालों का नाम ही लोगों ने "मत्थेरण'' रख दिया। यही बात “यापनीय" नामकरण में समझ लेना चाहिए। शिवभूति के अनुयायियों ने यापनीयों के नाम से प्रसिद्ध होने के बाद भी सैकड़ों वर्षों तक श्वेताम्बर मान्य "पागम" सूत्रों को माना । श्वेताम्बरों में और यायनीयों में मुख्य भेद नग्नता और पाणिपात्रत्त्व में था। दूसरी मामूली बातों का भी साम्प्रदायिक भेद रहा होगा, परन्तु सिद्धान्त भेद नाम मात्र का था। जिस प्रकार श्वेताम्बर संघ में वार्षिक पर्व पर "पर्युषणाकल्प" पढ़ा जाता है, वैसे यापनीयों में भी पढ़ा जाता था। श्वेताम्बर- केवली का कब लाहार और स्त्री का निर्वाण मानते थे, उसी प्रकार मापनीय भो मानते थे। आजकल श्वेताम्बर-दिगम्बरों के बीच जितनो मतभेदों की खाई गहरी हुई है, इसका एक शतांश भी उस समय नहीं थी। मानवस्वभावानुसार संयम मार्ग में धीरे-धीरे शिथिलता अवश्य प्रविष्ट होने लगी थी। -श्वेताम्बरों के इस प्रदेश में चैत्यवास की तरह दक्षिण में श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय श्रमणों में भी उसी प्रकार की शिथिलता घुम गई थी। उद्यत विहार के स्थान मठपति बनकर एक स्थान में अधिक रहना, राजा आदि को उपदेश देकर मठ मन्दिरों के लिए भूमिदान आदि ग्रहण करना और आय-व्यय का हिसाब ठीक रखना, रखवाना.इस प्रकार की प्रवृत्तियां दक्षिण में भी होने लगी थीं। यह बात उस प्रदेश से प्राप्त होने वाले शिलालेखों तथा शासनपत्रों से जानी जा सकती है। उधर के लेखों में निर्ग्रन्य, श्वेताम्बर, यापनीयों के सम्बन्ध में कुछ विवेचन की अावश्यकता नहीं, परन्तु निम्रन्थ कूर्चकों के सम्बन्ध में दो शब्द लिखने प्रावश्यक हैं। जहां केवल निर्ग्रन्थ शब्द का ही उपादाम है, वहाँ "श्वेताम्बर" और "यापतीय मान्य" सिद्धान्तों को न मानने वाले दिगम्बरों को समझना चाहिए, तब "क्लर्चक'' सम्प्रदाय से उन निर्ग्रन्थ श्रमणों को समझना चाहिए जो वर्ष भर में एक ही बार सांवत्सरिक ____ 2010_05 Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] तिथि को अपने केशों का लुंचन करते थे। श्वेताम्बरों के "पर्युषणाकल्पसूत्र" में पाण्मासिक और सांवत्सरिक केश खंचन करने का विधान है। इसके अनुसार जो श्रमण वर्ष में एक ही बार लुंचन करते थे, उनकी दाढ़ी-मूंछों के बाल लम्बे बढ़ जाने के कारण से लोग उन्हें "कूर्चक" इस नाम से पुकारते थे। ___ 2010_05 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवभूति से दिगम्बर सम्प्रदाय का प्रादुर्भावि आवश्यक मूल भाष्यकारादि श्वेताम्बर जैन ग्रन्थकार दिगम्बरों की उत्पत्ति का वर्णन नीचे लिखे अनुसार करते हैं : 'भगवान् महावीर को निर्वाण प्राप्त किये छः सौ नो वर्ष व्यतीत हुए तब रथवीरपुर में बोटिकों का दर्शन उत्पन्न हुआ ।' 'रथवीरपुर नगर के बाहर दीपक नामक उद्यान था। वहां पर कृष्ण नामक प्राचार्य ठहरे हुए थे । अार्यकृष्ण के एक शिष्य का नाम था "सहस्रमल शिवभूत" । शिवभूति गृहस्थावस्था में वहां के राजा का कृपापात्र सेवक था । दोक्षा लेने के बाद जब वह गुरु के साथ विहार करता हुआ रथवीरपुर श्राया, तब वहां के राजा ने उसको कम्बलरत्न का दान दिया । आचार्य आर्यकृष्ण को जब इस बात का पता लगा, तो उन्होंने उपालम्भ के साथ कहा : "साधुओं को ऐस कीमती वस्त्र लेना वर्जित है, तुमने क्यों लिया ?" यह कह कर आचार्य ने उस कम्बल को फाड़ कर उसकी निषद्यायें (बैठने के प्रासन) बनाकर साधुओं को दे दी । शिवभूति को गुस्सा तो आया, पर कुछ बोला नहीं । एक दिन सूत्रानुयोग में जिनकल्प का वर्णन चला, जैसे : ! " जिनकल्पिक दो प्रकार के होते हैं, करपात्री और पात्रधारी । वे दोनों दो प्रकार के होते हैं : वस्त्रधारी और वस्त्र न रखने वाले । वस्त्र न रखने वाले जिनकल्पिकों की उपधि आठ प्रकार की होती है : दो प्रकार की, तीन 2010_05 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ६५ प्रकार की, चार प्रकार की, नव प्रकार की, दस प्रकार की, ग्यारह प्रकार की और बारह प्रकार की, जिनकल्पिक उपधि के ये प्राठ विकल्प होते हैं । कोई रजोहरण मुखवस्त्रिका रूप दो प्रकार की ही उपधि रखते हैं, तब कोई इन दो उपकरणों के उपरान्त एक चद्दर भी श्रोढने के लिए रख कर त्रिविध उपधिधारी होते हैं, कोई उपर्युक्त एक वस्त्र के स्थान में दो रखते हैं, तब चतुविध उपधि होती है और तीन वस्त्र रखने वालों की पंचविध उपधि होती है । ये चार उपधि के प्रकार करपात्री जिनकल्पी के होते हैं । जो पात्रधारी होते हैं, उनके नवविध, दशविध एकादशविध और द्वादशविध उपधि होती है, जैसे : पात्र, पात्रबन्धन, पात्रस्थापनक, पात्रप्रमार्जनिका, पटलक, रजस्त्राण और गोच्छक, ये सप्तविध पात्रनिर्योग और रजोहरण तथा मुखवस्त्रिका मिलकर पात्रभोजी की नवविध उपधि होती है । इसमें एक वस्त्र बढ़ाने से दशविध, दो वस्त्र बढ़ाने से एकादशविध प्रौर तीन वस्त्र रखने वालों की उपधि १२ प्रकार की होती है ।" , यहाँ शिवभूति ने पूछा : " इस समय उपधि अधिक क्यों रखी जाती है ? जिनकल्प क्यों नहीं किया जाता ?" गुरु ने कहा : जिनकल्प करना आज शक्य नहीं है, वह विच्छिन्न हो गया है । शिवभूति ने कहा : विच्छेद कैसे हो सकता है ? मैं करता हूँ । परलोकहितार्थी को जिनकल्प ही करना चाहिए | इतना उपधि का परिग्रह क्यों रखना चाहिये ? परिग्रह के सद्भाव में कषाय, मूर्छा, भय आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । शास्त्र में अपरिग्रहत्व ही हितकारी बताया है। जिनेश्वर भगवन्त भी अचेलक हो शरीर रहते थे । अतः अचेलक रहना ही अच्छा है। गुरु ने कहा : देख, के सद्भाव में भी किसी को मूर्छा आदि दोष होते हैं, तो क्या शरीर का भी त्याग कर देना ? सूत्र में अपरिग्रहत्व कहा है, उसका अर्थ इतना ही है कि धर्मोपकरणों में भी मूर्छा नहीं करनी चाहिये, जिन- भगवान् भी एकान्त अचेलक नहीं थे । दीक्षा के समय सभी तीर्थङ्कर एक वस्त्र के साथ निकलते हैं, इत्यादि स्थविरों ने उसको बहुत समझाया, फिर भी वह वस्त्रों का त्याग कर चला गया । उसकी "उत्तरा" नामक बहन साध्वी उद्यान में ठहरे हुए शिवभूति को वन्दनार्थ गई। उनकी यह स्थिति देखकर उत्तरा ने 2010_05 Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ] [पट्टावली-पराग - - उन्हें अपने लिए पूछा। शिवभूति ने कहा : संघाटी तेरे पास रहने दे। शिवभूति ने कोडिन्य-कोट्टवीर नामक दो शिष्य किये और वहां से आगे शिष्य-परम्परा चली, भाष्यकार कहते हैं : "बोडियसिवभूईओ, बोडियलिंगस्स होई अप्पत्तो। कोडिण्ण-कोट्टवीरा, परंपराफासमुष्पण्णा ॥१४॥" (मू. भा.) अर्थात्-'बोटिक-शिवभूति से बोटिक-लिंग की उत्पत्ति हुई और उनको परम्परा को स्पर्श करने वाले कोण्डकुन्द, वीर नामक शिष्य हुए।' टीकाकारों ने "कोडिन्य" और "कोट्टवीर'' इस प्रकार पदों का विश्लेष किया है। हमारे विचारानुसार "कौडिन्यकोट्ट" यह कोण्डकुण्ड का अपभ्रंश है और "वीर" ये भी इनके परम्परा-शिष्य हैं । निह्नव वक्तव्यता का निगमन करते हुए भाष्यकार कहते हैं : वर्तमान अवसर्पिणी काल में महावीर के धर्मशासन में होने वाले सात निह्नवों का वर्णन किया है : महावीर को छोड़कर किसी तीर्थङ्कर के शासन में निलब नहीं हुए। उक्त निर्ग्रन्थ रूपधारी निह्नवों के दर्शन संसार का मूल और जन्म-जरा-मरण गर्भावास के दुःखों का कारण है। प्रवचन-निह्नवों के लिए कराये हुए आहार आदि के ग्रहण में निर्ग्रन्थों के लिए भजना है, अर्थात् वे उक्त आहार आदि ले सकते हैं और नहीं भी ले सकते। दिगम्बर सम्प्रदायप्रवर्तक शिवभूति का नाम निह्नवों की नामावलि में नहीं मिलता। आवश्यक-भाष्यकार और उसके टीकाकार कहते हैं : "बोटिक सर्वविसंवादी होने के कारण अन्य निह्नवों के साथ इनका नाम नहीं लिखा।" कुछ भी हो, पर इस सम्प्रदाय के उत्पन्न होने के समय में इसको कहीं भी "निह्नवसंप्रदाय नहीं लिखा, न शिवभूति को प्राचार्य कृष्ण द्वारा अपने गण या संघ से बहिष्कृत करने का उल्लेख मिलता है", बल्कि "एवंपि पण्णविनो कम्मोदएण चीवरारिण छड्डत्ता गो" अर्थात् स्थविर प्राचार्यों ने उसको बहुत समझाया तो भी कर्मोदयवश होकर शिवभूति अपने वस्त्रों का त्याग कर चला गया। इससे भी ज्ञात होता है कि 2010_05 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ६७ शिवभूति को उसके गुरु तथा संघ ने अन्य निह्नवों की तरह संघ से बहिष्कृत नहीं किया था, बल्कि वह स्वयं नग्न होकर चला गया था। यही कारण है कि सूत्रोक्त निह्नवों की नामावलि में इनका नाम सम्मिलित नहीं किया । भाष्यकार तथा टीकाकारों ने इन्हें निह्नव ही नहीं "मिथ्यादृष्टि" तक लिख डाला है। इसका कारण यह है कि तब तक दोनों परम्परामों के बीच पर्याप्त मात्रा में कटुता बढ़ चुकी थी। दिगम्बर प्राचार्य "देवनन्दी" ने केवली को कवलाहारी मानने वालों को "सांशयिक मिथ्यात्वी" ठहराया, तब जिनभद्र आदि श्वेताम्बर प्राचार्यों ने "देवनन्दी" के अनुयायियों को भी मिथ्या दृष्टि करार दिया था। यह आपसी तनातनी छठवीं शती से प्रारम्भ होकर तेरहवीं शती तक अन्तिम कोटि को पहुँच चुकी थी। ___ 2010_05 Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुन्दकुन्द के गुरु प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द के दीक्षा- गुरु श्रथवा श्रुतपाठक- गुरु कौन थे, इस विषय में भी विद्वान् एकमत नहीं हैं | श्रवणबेलगोला के ४०वें लेख के दो पद्यों में कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों के नाम दिये हैं, जो इस प्रकार हैं : "मूल संघ में नन्दी संघ था और नन्दी संघ में बलात्कार गण उस गरण में पूर्वपदों का अंश जानने वाले श्री माघनन्दी हुए । माघनन्दी के पद पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए और जिनचन्द्र के पद पर पंचनामधारी श्री पद्मनन्दी मुनि हुए।" इस लेखांश से इतना ज्ञात होता है कि 'कुन्दकुन्द के गुरु माधनन्दी और गुरु जिनचन्द्रसूरि थे। इसके विपरीत पट्टावली में माघनन्दी के अंतेवासी का नाम गुणचन्द्र लिखा है और उसके शिष्य अथवा उत्तराधिकारी के रूप में कुन्दकुन्द का वर्णन किया है । कुन्दकुन्द कृत “पंचास्तिकाय प्राभृत" के व्याख्यान में श्री जयसेनाचार्य ने पद्मनन्दी जिनका नामान्तर है ऐसे कुन्दकुन्द को कुमारनन्दी सैद्धान्तिक देव का शिष्य बताया है । श्रुतावतार कथा में प्रबलि के बाद माघनन्दी का श्रौर उनके बाद धरसेन आदि प्राचार्यों का वर्णन किया है, माघनन्दी का नहीं, न माघनन्दी के बाद गुणचन्द्र और कुमारनन्दी के नामोल्लेख हैं । श्रवणबेलगोला के लेखों में कुन्दकुन्द के गुरु का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता, किन्तु राजा चन्द्रगुप्त के वर्णन के बाद सीधा कुन्दकुन्द का वर्णन किया है । परम्परा का वर्णन भी कुन्दकुन्द से ही प्रारम्भ किया है, अर्थात् नन्दी संघ के प्रधान 2010_05 Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ce आरातीय मुनि श्री कुन्दकुन्द ही माने गए हैं । यह किसी ने सोचा ही नहीं कि कुन्दकुन्द के गुरु कौन थे । अपने ग्रन्थों में कुन्दकुन्द ने भी अपने गुरु का नामोल्लेख नहीं किया । इस परिस्थिति में कुन्दकुन्द के गुरु, प्रगुरु आदि का निर्णय करना असम्भव है और पिछली पट्टावली और शिलालेखों में भले हो कुन्दकुन्द के गुरु का नाम कुछ भी लिखा हो, परन्तु वह निर्विवाद माननीय नहीं हो सकता । नन्दी संघ की पट्टावली में जो प्राचार्य परम्परा लिखी हैं, वह भी उपर्युक्त कुन्दकुन्द के गुरु आदि के नामों के साथ सहमत नहीं होती । नन्दी संघ की पट्टावली का क्रम यह है : उमास्वाति, लोहाचार्य, यशः कीर्ति, यशोनन्दी, देवनन्दी, गुणनन्दी इत्यादि । पट्टावली - लेखक के मत से लोहाचार्य के बाद होने वाले श्रद्वलि, माघनन्दी, भूतबलि, पुष्पदन्त ये आचार्य भी श्रंग-ज्ञान के जानने वाले थे, परन्तु पट्टावली - लेखक का उक्त कथन प्रामाणिक मालूम नहीं होता । इस परिस्थिति में प्राचार्य कुन्दकुन्द के गुरु कौन थे, यह प्रश्न अनिर्णीत ही रहता है । 2010_05 क Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य कुन्दकुन्द का सत्ता-समय श्राचार्य कुन्दकुन्द के सत्ता समय के सम्बन्ध में दिगम्बर जैन विद्वान् भी एकमत नहीं हैं । कोई उनको विक्रम की प्रथम शती में हुआ मानते हैं, कोई दूसरी शती में, तब कोई विद्वान् दूसरी शती से भी परवर्ती समय के कुन्दकुन्दाचार्य होने चाहिए ऐसे विचार वाले हैं। परन्तु हमने दिगम्बर जैन साहित्य का परिशीलन कर इस विषय में जो निर्णय किया है, वह उक्त सभी विचारकों से जुदा पड़ता है। जितने भी कुन्दकुन्द के नाम से प्रसिद्धि पाए हुए " प्राभृत" आदि ग्रन्थ पढ़े हैं, उन सभी से ही प्रमाणित हुआ है कि कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम को षष्ठी शती के पूर्व के व्यक्ति नहीं हैं । हमारी इस मान्यता के साधक प्रमाण निम्नोद्धृत हैं: (१) कुन्दकुन्दाचार्य-कृत “पंचास्तिकाय" की टीका में "जयसेनाचार्य लिखते हैं कि यह ग्रन्थ कुन्दकुन्दाचार्य ने शिवकुमार महाराज के प्रतिबोध के लिए रचा था। डा० पाठक के विचार से वह "शिवकुमार " ही कदम्बवंशी " शिवमृगेश" थे जो सम्भवतः विक्रम की छठी शताब्दी के व्यक्ति थे । प्रतएव इनके समकालीन कुन्दकुन्द भी छठी सदी के व्यक्ति हो सकते हैं । (२) "समय - प्राभृत" की गाथा ३५० तथा ३५१ में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं : "लोगों के विचार में देव, नारक, तियंच और मनुष्य प्राणियों को विष्णु बनाता है, तथा श्रमणों (जैन साधुयों) के मत से षट्ििनकाय के जीवों का कर्त्ता आत्मा है । ! " इस प्रकार लोक और श्रमणों के सिद्धान्त में कोई विशेष भेद नहीं है । लोगों के मत में कर्ता विष्णु है और श्रमणों के मत में "आत्मा" । 2010_05 Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] [ १०१ - कहने की जरूरत नहीं है कि "विष्णु" को कर्ता पुरुष मानने वाले "वैष्णव सम्प्रदाय की उत्पत्ति विष्णु स्वामी से ई० स० की तीसरी शताब्दी में हुई थो। उनके सिद्धान्त ने खासा समय बीतने के बाद ही लोक-सिद्धान्त का रूप धारण किया होगा, यह निश्चित है। इससे कहना पड़ेगा कि कुन्दकुन्द विक्रम की चौथी सदी के पहले के नहीं हो सकते । (३) "रयणसार" की १८वीं गाथा में सात क्षेत्र में दान करने का उपदेश है, श्वेताम्बर जैन साहित्य में सात क्षेत्रों में दान देने का उपदेश प्राचीन से प्राचीन ग्रन्थ 'उपदेशपद' में है, जो ग्रन्थ विक्रम की अष्टमी शती की प्राचीन कृति है। दिगम्बर गृन्थों में भी इसके पूर्ववर्ती किसी भी ग्रन्थ में सात क्षेत्रों में दान देने का उपदेश हमने नहीं पढ़ा। उपरान्त उसी प्रकरण की गाथा २८वीं में कुन्दकुन्द कहते हैं : "पंचम काल में इस भारतवर्ष में यंत्र, मंत्र, तंत्र, परिचर्या (सेवा या खुशामद), पक्षपात और मीठे वचनों के ही कारण से दान दिया जाता है; मोक्ष के हेतु नहीं।" इससे यह साबित होता है कि कुन्दकुन्द उस समय के व्यक्ति थे, जब कि इस देश में तांत्रिक मत का खूब प्रचार हो गया था और मोक्ष को भावना की अपेक्षा से सांसारिक स्वार्थ और पक्षापक्षी का बाजार गर्म हो रहा था। पुरातत्त्ववेत्ताओं को कहने की शायद ही जरूरत होगी कि भारतवर्ष की उक्त स्थिति विक्रम की पांचवीं सदी के बाद में हुई थी। (४) "रयणसार" की गाथा ३२वीं में जीर्णोद्धार, प्रतिष्ठा, जिनपूजा और तीर्थवन्दन विषयक द्रव्य भक्षण करने वालों को नरक-दुःख का भोगी बता कर कुन्दकुन्द कहते हैं : "पूजा दानादि का द्रव्य हरने वाला, पुत्रकलत्रहीन, दरिद्र, पंगु, गूंगा, बहरा और अन्धा होता है और चाण्डालादि कुल में जन्म लेता है। इसी प्रकार अगली ३३-३६ वीं गाथामों में पूजा और दानादि द्रव्य भक्षण करने वालों को विविध दुर्गतियों के दुःख-भोगी होना बतलाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि कुन्दकुन्द के समय में देवद्रव्य और दान दिये हुए द्रव्यों की दुर्व्यवस्था होना एक सामान्य बात हो गई थी। मन्दिरों की व्यवस्था में साधुओं का पूरा दखल हो चुका था और वे अपना 2010_05 Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ ] [ पट्टावली-पराग आचार-मार्ग छोड़ कर गृहस्थोचित चैत्य कार्यों में लग चुके थे । जैन इतिहास से यह बात सिद्ध है कि विक्रम की छठी सातवीं सदी से साधु चैत्यों में रह कर उनकी व्यवस्था करने लग गए थे और छठी से दसवीं सदी तक उनका पूर्ण साम्राज्य रहा था । वे अपने-अपने गच्छ सम्बन्धी चैत्यों की व्यवस्था में सर्वाधिकारी के ढंग से काम करते थे । उस समय के सुविहित प्राचार्य इस प्रवृत्ति का विरोध भी करते थे, परन्तु उन पर उसका कोई असर नहीं होता था । इस समय को श्वेताम्बर ग्रंथकारों ने "स्वास प्रवृत्ति समय के नाम से उद्घोषित किया है। दिगम्बर सम्प्रदाय में विक्रम की ग्यारहवीं शती से "भट्टारकोय समय" की प्रसिद्धि हुई है । आचार्य कुन्दकुन्द का अस्तित्व उक्त समय के बाद का हैं, इसी से तत्कालीन प्रवृत्तियों का खण्डन किया है, इससे यह सिद्ध होता है कि वे छठी सदी के पूर्व के व्यक्ति नहीं थे । "1 ( ५ ) " रयणसार" को १०५ तथा १०८ से १११ वीं तक की गाथानों में कुन्दकुन्द ने साधुत्रों की अनेक शिथिल प्रवृत्तियों का खण्डन किया है, जिनमें "राजसेवा, ज्योतिष विद्या, मन्त्रों से प्राजीविका, धनधान्य का परिग्रह, मकान, प्रतिमा, उपकरण आदि का मोह, गच्छ का आग्रह, वस्त्र और पुस्तक की ममता " आदि बातों का खण्डन लक्ष्य देने योग्य है । कहने की शायद ही जरूरत होगी कि उक्त खराबियां साधु समाज में छठी और सातवीं सदी में पूर्ण रूप से प्रविष्ट हो चुकी थी। पांचवीं सदी में इनमें से बहुत कम प्रवृत्तियां साधु-समाज में प्रविष्ट होने पायी थीं और विक्रम की तीसरी चौथी शताब्दी तक तो ऐसी कोई भी बात जैन निर्ग्रन्थों में नहीं पायी जाती थी । इससे यह निस्संदेह सिद्ध होता है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की छठी शताब्दी के बाद के ग्रन्थकार हैं । यदि ऐसा न होता और दिगम्बर जैन पट्टावलियों के लेखानुसार वे विक्रम की प्रथम श्रथवा दूसरी शती के ग्रन्थकार होते तो छठी शती की प्रवृत्तियों का उनके ग्रन्थों में खण्डन नहीं होता । (६) कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर " गच्छ" शब्द का प्रयोग किया है, जो विक्रम की पांचवीं सदी के बाद का पारिभाषिक 2010_05 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम- परिच्छेद ] [ १०३ I शब्द है । श्वेताम्बरों के प्राचीन भाष्यों तक में " गच्छ" शब्द प्रयुक्त नहीं हुप्रा है । हाँ, छठी सातवीं शताब्दी के बाद के भाष्यों, चूणियों श्रीर प्रकीर्णकों में "गच्छ" शब्द का व्यवहार अवश्य हुआ है । यही बात दिगम्बर सम्प्रदाय में भी है। जहां तक हमें ज्ञात है उनके तीसरी-चौथी शताब्दी के साहित्य में तो क्या आठवीं सदी तक के साहित्य में भी "गच्छ" शब्द प्रयुक्त नहीं हुआ । (७) विक्रम की नवीं सदी के पहले के किसी भी शिलालेख, ताम्रपत्र या ग्रन्थ में कुन्दकुन्दाचार्य का नामोल्लेख न होना भी सिद्ध करता है कि वे उतने प्राचीन व्यक्ति न थे, जितना कि आधुनिक दिगम्बर विद्वान् समझते हैं । यद्यपि मर्करा के एक ताम्रपत्र में; जो शक संवत् ३८८ का लिखा हुआ माना जाता है, कुन्दकुन्द का नामोल्लेख है, तथापि हमारी उक्त मान्यता में इससे कुछ भी विरोध नहीं आ सकता, क्योंकि उस ताम्रपत्र में उल्लिखित तमाम प्राचार्यों के नामों के पहले " भटार" (भट्टारक ) शब्द लिखा गया है, जो विक्रम की सातवीं सदी के बाद शुरु होता है । इस दशा में ताम्रपत्र वाला संवत् कोई अर्वाचीन संवत् होना चाहिये अथवा तो यह ताम्रपत्र ही जाली होना चाहिए । 3 श्रमण भगवान् महावीर के "जिनकल्प और स्थविरकल्प' नामक एक परिशिष्ट में मर्करा का ताम्रपत्र जाली होने की हमने संभावना को थी । उस पर "कषायप्राभृत' के प्रथम भाग के सम्पादक महोदय ने हमारी उस सम्भावना पर नाराजगी प्रकट करते हुए लिखा था कि ताम्रपत्र को जाली कहना कल्याणविजयजी का साहस है ।" उस समय तक ताम्रपत्र प्रकाशित नहीं हुआ था, परन्तु प्रन्यान्य प्रमाणों से कुन्दकुन्दाचार्य की अर्वाचीनता निश्चित होती थी और मुझे उन प्रमाणों पर पूरा विश्वास था । जब "जैन शिलालेख संग्रह " का द्वितीय भाग मेरे पास आया, तब उसमें मुद्रित मर्करा का ताम्रपत्रीय लेख पढ़ने को मिला। मैंने उसको ध्यान से पढ़ा और विश्वास हो गया कि वास्तव में यह ताम्रपत्र जाली ही है, क्योंकि उसमें माघ सुदि पंचमी को पूर्वाभाद्रपद उत्तराभाद्रपद अथवा 2010_05 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ] [ पट्टावली -पराग रेवती इन तीनों में से कोई भी एक नक्षत्र हो सकता है, परन्तु स्वाति तो किसी हालत में नहीं आ सकता । माघ सुदी पंचमी के दिन सोमबार होने की बात ताम्रपत्र में लिखी थी, परन्तु शक संवत् ३८८ के समय में वार शब्द का भारतवर्ष में प्रयोग हो नहीं होता था । भारतीय साहित्य में विक्रम की नवमी शती के बाद में "वार" शब्द का प्रयोग होने लगा है इन बातों के आधार पर हमने ताम्रपत्र को जाली होने की सम्भावना की थी, वह सत्य प्रमाणित हुई । कुछ समय के बाद "जैन शिलालेख संग्रह" का तृतीय भाग मिला श्रौर डा० श्री गुलाबचन्द्र चौधरी एम. ए. पी. एच. डी., आचार्य की प्रस्तावना पढ़ी तो मर्करा - ताम्रपत्र के सम्बन्ध में उनका निम्नलिखित अभिप्राय पाया । उसमें चौधरी महोदय लिखते हैं : "कुछ विद्वान् मर्करा के ताम्रपत्रों ६५ को प्राचीन ( सन् ४६६ ई० ) मानकर देशीयगण कोण्डकुन्दान्वय का अस्तित्व एवं उल्लेख बहुत प्राचीन मानते हैं, पर परीक्षण करने पर उक्त लेख बनावटी सिद्ध होता है तथा देशीयगरण की जो परम्परा वहां दी गई है, वह लेख नं० १५० के बाद की मालूम होती है ।" श्रीयुत् चौधरी ने अपने कथन के समर्थन में स्वर्गीय बी. एल. राइस महोदय द्वारा सं० १८७२ में " इण्डियन एण्टिक्वेरी" ( भाग १ पृ० ३६३ - ३६५ ) में मूल तथा अनुवाद के साथ प्रकाशित करवाये गए इन ताम्रपत्रों के सम्बन्ध में व्यक्त किये गए अभिप्राय को टिप्पण में उद्धृत किया है जिसका सारांश मात्र यहां देते हैं : बर्जेस महाशय का कथन है कि ( मेकेन्जी कलेक्शन) के आधार पर "लेख का संवत् विल्सन सा० के शक संवत् है, पर ज्योतिष शास्त्र के आधार पर उक्त संवत् के दिन "सोमवार और नक्षत्र स्वाति" लिखा है, वह ठीक नहीं । "वार बुध और नक्षत्र उत्तराभाद्रपद" होना चाहिए था । 2010_05 Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १.५ इन्हीं ताम्रपत्रों के सम्बन्ध में चौवरी महोदय का निम्नलिखित तर्क भी ध्यान देने योग्य है : "यदि किन्हीं कारणों से मर्करा के ताम्रपत्रों को प्राचीन भी मान लिया जाय तो उस लेख के सन् ४६६ के बाद और लेख नं० १५० के सन् ९३१ के पहले चार-पांच सौ वर्षों तक बीच के समय में कोण्डकुन्दान्वय मोर देशीयगण का एक साथ लेखगत कोई प्रयोग न मिलना आश्चर्य की बात है और इतने पहले उस लेख में उक्त दोनों का एकाकी प्रयोग मर्करा के ताम्रपत्रों की स्थिति को अजीब सी बना देता है।" मर्करा के ताम्रपत्रों में 'कौण्डकुन्दान्वय" शब्द प्रयोग से कुन्दकुन्दावायं के सत्ता-समय को विक्रम की दूसरी शतो तक खींच ले जाने वाले विद्वानों को प्राचार्य चौधरी महोदय के कथन पर विचार करना चाहिए। इस सम्बन्ध में "जैन शिलालेख पंग्रह" के तृतीय भाग के प्राक्कथन में प्रो० हीरालालजी जैन डायरेक्टर प्राकृत जैन विद्यापीठ मुजप्फरपुर (विहार) को निम्नलिखित सूचनायें भी इतिहाससंशोधकों को अवश्य विचारणीय है : (१) "मर्करा के जिस ताम्रपत्र लेख के आधार पर कोण्डकुन्दान्वय का अस्तित्व पांचवीं शती में माना जाता है, वह लेख परीक्षण करने पर बनावटी सिद्ध होता है तथा देशीयगण को जो परम्परा उस लेख में दी गई है, वही लेख नं० १५० (सन् ६३१) के बाद की मालुम होती है। (२) कोण्डकुन्दाग्वय का स्वतन्त्र प्रयोग पाठवीं-नौवीं शती के लेख में देखा गया है तथा मूल संघ कोण्डकुन्दान्वय का एक साथ सर्वप्रथम प्रयोग ले० नं० १८० (लगभग १०४४ ई०) में हुप्रा पाया जाता है। (३) डॉ० चौधरी की प्रस्तावना में प्रकट होने वाले तथ्य हमारी भनेक सांस्कृतिक मोर ऐतिहासिक मान्यतामों को चुनौती देने वाले हैं। मतएव इनके ऊपर गम्भीर विचार करने तथा उनसे फलित होने वाली ____ 2010_05 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [ पट्टावली-पराग बातों को अपने इतिहास में यथोचित रूप से समाविष्ट करने की प्राव. श्यकता है।" प्राचार्य कुन्दकुन्द के सम्बन्ध में उपर्युक्त विद्वानों का निर्णय लिखने के बाद इसी समय एक अन्य जैन विद्वान् का कुन्दकुन्दाचार्य का सत्ता-समय विक्रम की षष्ठी शती में होने का निर्णय दृष्टिगोचर हुप्रा, जो नीचे उद्धृत किया जाता है : कुन्दकुन्दाचार्य विरचित सटीक "समय प्राभृत' का प्रथम संस्करण जो ईसवी सन् १९१४ में प्रकाशित हुअा था, उपको प्रस्तावना में उसके सम्पादक न्यायशास्त्री पं० श्री गजाधरलालजी जैन लिखते हैं : "श्रीशिवकुमार-महाराज-प्रतिबोधनार्थ विलिलेख भगवान् कुंदकंदः स्वोयं ग्रंथमिति, समाविर्भावितं च पंचास्तिकायस्य क्रमशः कार्णाटिक. संस्कृत-टोकाकारः श्रीबालचन्द्र-जयसेनाचार्यः ततो युक्त्यानयापि भगवत्कंदकुंदसमयः तस्य शिवमृगेशवर्मसमानकानीनत्व त् ४५० तमशकसंवत्सर एव सिद्धयति, स्वीकारे चास्मिन् क्षतिरपि नास्ति कापीति ॥" (पृ०८) अर्थात् 'धी शिवकुमार महाराज को प्रतिबोध देने के लिए भगवान् कंदकुंद ने अपने इस ग्रन्थ को रचा था, ऐसा “पंचास्तिकाय सार" के क्रमशः कार्णाटिक-संस्कृत टीकाकार श्री बालचन्द्र, जयसेनाचार्य ने प्रकट किया है, इस युक्ति से भी भगवान् कुंदकुंद का समय शिवमृगेशवर्म के समकालीन होने से ४५० वां शक संवत्सर सिद्ध होता है और इसके स्वीकार में कुछ बाधक भी नहीं है।' पं० गजाधरलालजी के उपर्युक्त विचार के अनुसार भी कुंदकुंदाचार्य का सत्ता-समय शक संवत् ४५० में सिद्ध होता है, जो हमारे मत से ठीक मिल जाता है। . श्रवणबेलगोल तथा उसके आसपास के जैन शिलालेखों में शक की पाठवीं शती के पहले के किसी भी लेख में कुंदकंद का नाम निर्देश न मिलना ___ 2010_05 Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १०७ भी यही प्रमाणित करता है कि प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य श्री कुदकु द विक्रम की षष्ठी शती के उत्तरार्ध के विद्वान् थे । कुंदकुंद ने “समयसार-प्राभृत" आदि में जो दार्शनिक चर्चा की है, उससे भी वे हमारे अनुमानित समय से पूर्वबतिकाल भावी नहीं हैं। कुन्दकुन्दाचार्य ने अपने समय-प्राभृत की ३८३ आदि गाथाओं में श्वेतमृत्तिका के दृष्टान्त से अद्वैतवाद का जो खण्डन किया है, वह अद्वैतवाद वास्तव में बौद्धों का विज्ञानवाद समझना चाहिए। प्रसिद्ध बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति ने अपने "प्रमाणवातिक" ग्रन्थ में बौद्ध-विज्ञानवाद का जो प्रतिपादन किया है उसी का "जहसेटियादु" इत्यादि गाथाओं में कुन्दकुन्द ने निरसन किया है, धर्मकीर्ति का कथन था कि ज्ञान और ज्ञान का विषय भिन्न नहीं है। जो नोल पीत प्रादि पदार्थों से नीलाभास पीताभास वाला पदार्थ दृष्टिगोचर होता है, वह विज्ञान-मात्र है। इसके उत्तर में प्राचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं : जिस प्रकार श्वेतमृत्तिका से मकान पोता जाता है मौर सारा मकान श्वेतमृत्तिका के रूप में देखा जाता है, फिर भी मकान मृत्तिकामय नहीं बन जाता। मकान मकान ही रहता है और उस पर पोती हुई श्वेतमृत्तिका उससे भिन्न मृत्तिका ही रहती है। इन गाथाओं की व्याख्या में टीकाकारों ने अपनी व्याख्यानों में "ब्रह्माद्वैतवाद" का खण्डन बताया है, जो यथार्थ नहीं है, क्योंकि शंकराचार्य का "ब्रह्माद्वैतवाद'' कुन्दकुन्दाचार्य के परवर्ती समय का है न कि पूर्ववर्ती समय का। प्रतः "जहसेटियादि! गाथाओं की व्याख्या विज्ञानवाद-खण्डनपरक समझना चाहिए। समयगर के इस निरूपण से भी विक्रम की षष्ठी शती के पूर्वार्धवर्ती बौद्धाचार्य धर्मकीर्ति के विज्ञानवाद का खण्डन करने से कुन्दकुन्दाचार्य का सत्ता-समय निर्विवाद रूप से विक्रम की षष्ठी शती का उत्तरार्ध प्रमाणित होता है । ___ 2010_05 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भट्टारक जिनसेनसूरि का शक संवत् कलचूरी संवत् है (शक ८३६ ) था । जो धरणीवराह के जिनसेन के शक को भट्टारक वीरसेनसूरि ने हरिवंश पुराणकार आचार्य जिनसेनसूरि का, जो कि पुंनाट वृक्षगण के प्राचार्य थे, अपने ग्रन्थ में स्मरण किया है । जिनसेन ने शक ७०५ में हरिवंश पुराण समाप्त किया है । उसमें वर्धमान नगर के राजा धरणीवराह का उल्लेख किया है। धरणीवराह चापवंशी राजा था और उसका सत्तासमय विक्रम सं० ६७१ हरिवंश का शक ७०५ विक्रम संवत् ८४० होता है समय के साथ संगत नहीं होता । इस परिस्थिति में शालिवाहन शक के अर्थ में न लेकर केवल और इस संवत् को विक्रम, वलभी वा गुप्त संवत् मानना चाहिए । पुन्नागरणीय जिनसेन उसी प्रदेश से आये हुए थे, जहाँ "कलचूरी संवत्" चलता था। इसलिए जिनसेन की कलचूरी संवत् की पसंदगी स्वाभाविक थी । कलचूरी संवत् ईसा से २४६ और विक्रम से ३०६ वर्षों के बाद प्रचलित हुआ था । इस प्रकार जिनसेन के हरिवंशपुराण को समाप्ति के ७०५ संवत् में कलचूरी के ३०६ वर्ष मिलाने पर ७०५+३०६=१०११ विक्रम वर्षं बनेंगे, इससे धरणीवराह के भौर जिनसेन के समय की संगति भी हो जायगी । संवत् के अर्थ में लेना चाहिए संवत् न मान कर "कलचूरी" 6 इसी प्रकार धवला की समाप्ति का समय शक संवत् ७०३ माना जाता । इसमें कलचूरी के ३०६ वर्ष मिला कर ७०३+३०६ = १००१ बना लिये जायें तो वीरसेन का जिनसेन से परवर्तित्व सिद्ध हो सकता है । 2010_05 Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १०६ - धनंजय, प्रभाचन्द्र और जिनसेन के नामोल्लेख भी संगत हो जाते हैं, मात्र वीरसेन स्वामी को विक्रम की ग्यारहवीं शती के ग्रन्थकार मानने पड़ेंगे। दिगम्बर ग्रन्थकारों में से अनेक लेखकों ने अपने ग्रन्थों में समयनिर्देश में संवत् के अर्थ में शक विक्रम-नृप' प्रादि शब्द प्रयुक्त किये हैं, उदाहरणस्वरूप भट्टारक श्री देवसेनसूरि ने "दर्शनसार" में श्वेताम्बर मत आदि को उत्पत्ति को सूचना "विक्रम नृप" शब्द से की है। पहले दिगम्बर विद्वान् इस समय-निर्देश को "विक्रम संवत्" मानते थे, पर वर्तमान में डॉ. ज्योतिप्रसाद आदि ने इसे शक संवत् मान कर भट्टारक देवसेन का समय विक्रम संवत् १०२५ का निश्चित किया है, इसी प्रकार सर्वत्र विशाल दृष्टि रख कर विद्वानों को वास्तविकता समझ कर मतभेदों का समन्वय करना चाहिए। ___ 2010_05 Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक दिगम्बर समान के संघटक आचार्य कुन्दकुन्द और महारक वीरसेन हम ऊपर देख आये हैं कि दिगम्बर शिवभूति ने जो सम्प्रदाय चलाया था, यद्यपि कर्नाटक देशों में इसका पर्याप्त मान और प्रचार था, तथापि विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग इसके साधु, राजा वगैरह की तरफ से भूमिदान वगैरह लेने लगे थे। कुन्दकुन्द जैसे त्यागियों को यह शिथिलता प्रच्छी नहीं लगी। उन्होंने केवल स्थूल-परिग्रह का ही नहीं बल्कि अब तक इस सम्प्रदाय में जो पापवादिक उपधि" के नाम से वस्त्र, पात्र की छूट पी उसका भी विरोध किया और तब तक प्रमाण माने जाते श्वेताम्बर पागम ग्रन्थों को भी उद्धारकों ने अप्रामाणित ठहरायः और उन्हीं प्रागमों के आधार पर अपनी तात्कालिक मान्यता के अनुसार नये धार्मिक ग्रन्थों का निर्माण शुरु किया। कुन्दकुन्द वगैरह जो प्राकृत के विद्वान् थे, उन्होंने प्राकृत में और देवनन्दी आदि संस्कृत के विद्वानों ने संस्कृत में ग्रन्थ निर्माण कर अपनी परम्परा को परापेक्षता से मुक्त करने का उद्योग किया। यद्यपि शुरु-शुरु में उन्हें पूरी सफलता प्राप्त नहीं हुई। यापनीय संघ का अधिक भाग इनके क्रियोद्धार में शामिल नहीं हुआ और शामिल होने वालों में से भी बहुत सा भाग इनकी सैद्धान्तिक क्रान्ति के कारण विरुद्ध हो गया था, तथापि इनका उद्योग निष्फल नहीं हुआ। इनके प्रन्थ और विचार धीरे-धीरे विद्वानों के हृदय में घर करते जाते थे। विक्रम की पाठवीं, नवीं और दशवीं सदी के प्रकलंकदेव, विद्यानन्दो आदि दिग्गज दिगम्बर विद्वानों के द्वारा त.किक पद्धति से परिमार्जित होने के उपरान्त 2010_05 Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम परिच्छेद ] [ १११ वे और भी आकर्षक हो गये । फलस्वरूप प्राचीन सिद्धान्तों के आधार से बने नये ग्रन्थों और सिद्धान्तों का सार्वत्रिक प्रसार हो गया । इस प्रकार प्राधुनिक दिगम्बर सम्प्रदाय और इसके श्वेताम्बर विरोधी सिद्धान्तों की नींव विक्रम की छठी शताब्दी के अन्त में कुन्दकुन्द ने और ग्यारहवीं शती में भट्टारक वीरसेन ने डाली। हमारे उक्त विचारों का विशेष समर्थन नीचे की बातों से होगा : (१) परम्परागत श्वेताम्बर जैन आगम जो विक्रम की चौथी शती में मथुरा और वलभी में और छठो सदी के प्रथम चरण में माथुर और वालभ्य संघ को सम्मिलित सभा में वलभी में व्यवस्थित किये और लिखे गए थे, उनमें से स्थानांग में प्रोपपातिक उपांग सूत्र में और प्रावश्यकनियुक्ति में सात निह्नवों के नामों और उनके नगरों के भी उल्लेख किये गये हैं। ये ७ निह्नव मात्र साधारण विरुद्ध मान्यता के कारण श्रमणसंघ से बाहर किये गये थे, उनमें अन्तिम निह्नव गोष्ठामाहिल था; जो वीर संवत् ५८४, विक्रम संवत् ११४ में संघ से बहिष्कृत हुआ था। यदि विक्रम को चतुर्थ शताब्दी तक भी दिगम्बर परम्परा में केवलिकबलाहार का और स्त्रो तथा सवस्त्र की मुक्ति का निषेध प्रचलित हो गया होता तो उनको निह्नवों को श्रेरिण में परिगणित न करने का कोई कारण नहीं था, परन्तु ऐसा नहीं हुआ, इससे जान पड़ता है कि विक्रम की पांचवीं शताब्दी तक श्वेताम्बर विरोधी सिद्धान्त प्रतिपादक वर्तमान दिगम्बर परम्परा का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था। (२) विक्रम की सातवीं सदी के पहले के किसी भी लेन-पत्र में वर्तमान दिगम्बर-परम्परा सम्मत श्रुतकेवलि, अंगपाठी, प्राचार्यों, गणों; गच्छों और संघों का नामोल्लेख नहीं मिलता। (३) दिगम्बर परम्परा के पास एक भी प्राचीन पट्टावली नहीं है। इस समय जो पट्टावलियां उसके पास विद्यमान बताई जाती हैं, वे सभी बारहवीं सदी के पीछे की हैं और उनमें दिया हुअा प्राचीन गुरुक्रम बिल्कुल ____ 2010_05 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ । [ पट्टावली-पराग - अविश्वसनीय है, बल्कि यह कहना चाहिए कि महावीर-निर्वाण से एक हजार वर्ष तक का इन पट्टावलियों में जो प्राचार्यक्रम दिया हुआ है, वह केवल कल्पित है। पांच चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, एकादशांगधर, एकांगपाठी, अंगैकदेशपाठी प्रादि प्राचार्यों का जो नाम, समय और क्रम लिखा है उसका मूल्य दन्तकथा से अधिक नहीं है। इनके विषय में पट्टावलियां एक मत भी नहीं हैं। श्रुतकेवली, दशपूर्वधर, एकादशांगधर, अंगपाठी और उनके बाद के बहुत समय तक के प्राचार्यों का नाम-क्रम और समयकम बिलकुल अव्यवस्थित है। कहीं कुछ नाम लिखे हैं और कहीं कुछ, समय भी कहीं कुछ लिखा है और कहीं कुछ । कहीं भी व्यवस्थित समय या नामावली तक नहीं मिलती।। इन बातों पर विचार करने से यह निश्चय हो जाता है कि दिगम्बर पट्टावली-लेखकों ने विक्रम की पांचवीं-छठी सदी से पहले के प्राचीन प्राचार्यों की जो पट्टावलियां दी हैं, वे केवल दन्तकथायें हैं और अपनी परम्परा की जड़ को महावोर तक ले जाने की चिंता से अर्वाचीन प्राचार्यो ने इधर-उपर के नामों को भागे-पीछे करके अपनी परम्परा के साथ जोड़ दिया है। प्रसिद्ध जैन दिगम्बर विद्वान् पं० नाथूरामजी प्रेमी भगवती पाराधना की प्रस्तावना में लिखते हैं : "दिगम्बर सम्प्रदाय में अंगधारियों के बाद की जितनो परम्पराएं उपलब्ध हैं वे सब अपूर्ण हैं और उस समय संग्रह की गई हैं जब मूल संघ प्रादि भेद हो चुके थे और विच्छिन्न परम्परामों को जानने का कोई साधन न रह गया था।" परन्तु वस्तुस्थिति तो यह कहती है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में महावीर के बाद एक हजार वर्ष पर्यन्त की जो परम्परा उपलब्ध मानी जाती है वह भी उस समय संग्रह की गई थी जब मूल संघ आदि भेद हो चुके थे, क्योंकि पट्टावली संग्रहकर्तामों के पास जब अपने निकटवर्ती प्राचार्यों को परम्परा जानने के भी साधन नहीं थे, तो उनके भी पूर्ववर्ती अंगपाठी मोर पूर्वधरों की परम्परा का जानना तो इससे भी कठिन था यह निश्चित है। (४) श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में जाने के सम्बन्ध में बो कथा दिगम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, वह विक्रम की ग्यारहवीं सदी के पीछे 2010_05 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ११३ -- - की है। दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु विक्रम की कई शताब्दियों के बाद के प्राचार्य थे। यह बात श्रवणबेलगोला की पार्श्वनाथवसति के शक संवत् ५२२ के आसपास के लिखे हुए एक शिलालेख से और दिगम्बर सम्प्रदाय के "दर्शनसार", "भावसंग्रह" आदि ग्रन्थों से सिद्ध हो चुकी है, अतएव श्रुतकेवली भद्रबाहु के नाते दिगम्बर सम्प्रदाय की प्राचीनता विषयक विद्वानों के अभिप्राय निर्मूल हो जाते हैं और निश्चित होता है कि श्रुतकेवली भद्रबाहु के वृत्तान्त से दिगम्बर सम्प्रदाय का कुछ भी सम्बन्ध नहीं था। दिगम्बर विद्वानों ने जो-जो बातें उनके नाम पर चढ़ाई हैं, वास्तव में उन सब का सम्बन्ध द्वितीय ज्योतिषी भद्रबाहु के साथ है और ज्योतिषी भद्रबाहु का सत्तासमय विक्रम की छठी शती था। वे सप्तमी शतो के प्रारम्भ में परलोकवासी हुए थे। (५) बौद्धों के प्राचीन शास्त्रों में नग्न जैन साधुओं का कहीं उल्लेख नहीं है और विशाखावत्थु, धम्मपद, अट्ठकथा, दिव्यवावदान आदि में जहां नग्न निर्ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं, वे ग्रन्थ उस समय के हैं जब कि यापनीय संघ मोर माधुनिक दिगम्बर सम्प्रदाय तक प्रकट हो चुके थे। "डायोलोग्स् ऑफ बुद्ध'' नामक पुस्तक के ऊपर से बौद्ध ग्रन्थों में वर्णित कुछ प्राचार (भगवान महावीर और महात्मा बुद्ध) नामक पुस्तक में (पृष्ठ ६१-६५) दिए गए हैं जिनमें नग्न रहने और हाथ में खाने का भी उल्लेख है। पुस्तक के लेखक बाबू कामताप्रसादजी की दृष्टि में ये प्राचार प्राचीन जैन साधुनों के हैं, परन्तु वास्तव में यह बात नहीं है। "मज्झिमनिकाय" में साफ-साफ लिखा गया है कि ये प्राचार प्राजीविक संघ के नायक गोशालक तथा उनके मित्र नन्दवच्छ मौर किस्स-संकिच्च के हैं जिनका बुद्ध के समक्ष निग्गंथ श्रमण "सच्चक" ने वर्णन किया था। (६) दिगम्बरों के पास प्राचीन साहित्य नहीं है। इनका प्राचीन से प्राचीन साहित्य षट्खण्डागमसूत्र, कषायप्राभृत, भगवती माराधना मोर कतिपयप्राभृत, जो कुन्दकुन्दाचार्यकृत माने जाते हैं, परन्तु उक्त कृतियों में विक्रम की षष्ठ शती से पहिले को शायद ही कोई कृति हो । 2010_05 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ पट्टावली-पराग उपर्युक्त एक-एक बात ऐसी है जो वर्तमान दिगम्बर सम्प्रदाय को अर्वाचीनता की तरफ लाती हुई विक्रम की छठो सदी तक पहुँचा देती है । ___इनके अतिरिक्त स्त्री तथा शूद्रों को मुक्ति के लिए प्रयोग्य मानना, जैनों के सिवाय दूसरों के घर जैन साधुनों को आहार लेने का निषेध, प्राहवनीयादि अग्नियों की पूजा, सन्ध्यातर्पण, प्राचमन और परिग्रह मात्र का त्याग करने का प्राग्रह करते हुए भी कमण्डलु प्रमुख शौचोपधि का स्वीकार करना आदि ऐसी बातें हैं जो दिगम्बर सम्प्रदाय के पौराणिक कालीन होने का साक्ष्य देती हैं। श्वेताम्बर जैन मागमों में जब कि पुस्तकों को उपधि में नहीं गिना और उनके रखने में प्रायश्चित्त-विधान किया गया है, तब नाम मात्र भी परिग्रह न रखने के हिमायती दिगम्बर ग्रन्थकार साधु को पुस्तकोपधि रखने की आज्ञा देते हैं, इससे यह सिद्ध होता है कि साघुत्रों में पुस्तक रखने का प्रचार होने के बाद यह सम्प्रदाय व्यवस्थित हुप्रा है। ___ 2010_05 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियाँ दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की पट्टावलियों का आधार कुछ प्राचीन शिलालेख र कतिपय इनके ग्रन्थ, जिनके नाम "तिलोयपण्णत्ति", "वेदनाखण्ड की धवला टीका", "जयघवला टीका", " श्रादिपुराण" श्री "श्रुतावतार कथा" हैं, इन सभी में दी हुई प्राचार्य परम्पराएँ केवली, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, एकादशांगधर, प्राचारांगधर प्रोर उसका एक भ्रंश जानने वाले श्राचार्यो तक की हैं । ले० नं० १ (प्रनुमित ७ शती) १ गोतम २ लोहाचार्य ३ जम्बू १ विष्णुदेव २ अपराजित ३ गोवर्धन ४ भद्रबहु ले ० नं० १०५ ० सं० १३२० १ इन्द्रभूति २ सुधर्मा ३ जम्बू १ विष्णु २ अपराजित ३ नन्दिमित्र ४ गोवर्धन ५ भद्रबाहु 2010_05 १ गोतम २ सुधर्मा ३ जम्बू हरिवंश पुराण ० ७०५ शक सं० १ विष्णु २ नन्दिमित्र ३ अपराजित ४ गोवर्धन ५ भद्रबाहु केवली ३ श्रुतकेवली ५ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] १ विशाख १ क्षत्रिय २ प्रोष्ठिल २ प्रोष्ठिल ३ कृत्तिकार्य (क्षत्रिकार्य ) ३ गंगदेव ४ जय ५ नाम (नाग) ६ सिद्धार्थ ७ धृतिषेण ८ बुद्धिलादि ४ जय ५ सुधर्म ६ विजय ७ विशाख ८ बुद्धिल ६ धृतिषेण १० नागसेन ११ सिद्धार्थ ले. नं. १०५, श. १३२० १ नक्षत्र २ पाण्डु ३ जयपाल ४ कंसाचार्य ५ द्रुमसेन ( धृतिसेन ) १ विशाख २ प्रौष्ठिल ३ क्षत्रिय ४ जय 2010_05 ५ नाग ६ सिद्धार्थ ७ धृतिषेरण ८ विजय ६ बुद्धिल १० गंगदेव ११ धर्मसेन उक्त लेखों में इन प्राचार्यों का समय नहीं बतलाया तथापि इन्द्रनन्दी कृत "श्रुतावतार" से जाना जाता है कि महावीर स्वामी के बाद ३ केवली ६२ वर्षों में, ५ श्रुतकेवली १०० वर्षों में, ११ दशपूर्वी १८३ वर्षों में, पांच एकादशांगधर २२० वर्षों में और चार श्राचारांगधर ११८ वर्षों में हुए हैं, इस प्रकार महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद लोहाचार्य तक ६८३ वर्ष व्यतीत हुए थे 1 हरिवंश पु० १ नक्षत्र २ यशः पाल ३ पाण्डु ४ ध्रुवसेन ५ कंसाचार्य [ पट्टावली-पराग า ११ दशपूर्वी एकादशांगवर ५ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ११७ १ सुभद्र १ लोह २ सुभद्र ३ जयभद्र ४ यशोबाहु २ यशोभद्र ३ यशोबाहु ४ लोहाचार्य प्राचारांगधर ४ tra बहुत से लेखों में उपर्युक्त प्राचार्यों की परम्परा के बाद कुन्दकुन्दा. चार्य की परम्परा लिखी गई है। किसी भी लेख में उपर्युक्त श्रुतज्ञानियों और कुन्दकुन्दाचार्य के बीच की पूरी गुरु-परम्परा नहीं पायी जाती, केवल उपर्युक्त लेख नं० १०५ में ही इनके बीच के प्राचार्यों के कुछ नाम पाए जाते हैं, वे इस प्रकार हैं : २ विनीत (अविनीत?) ३ हलधर ४ वसुदेव ५ अचल ६ मेरुधीर ७ सर्वज्ञ ८ सर्वगुप्त ६ महीधर घनपाल ११ महावीर १२ वीर १३ कोण्डकुन्द नन्दी संघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य को गुरु-परम्परा इस प्रकार पायी जाती है। भद्रबाहु गुप्तिगुप्त १० 2010_05 Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ ] [ पट्टावली-पराग माघनन्दी जिनचन्द्र कुन्दकुन्द इन्द्रनन्दी-कृत श्र तावतार के अनुसार कुन्दकुन्द उन आचार्यों में हुए हैं जिन्होंने अंगज्ञान के लोप होने के पश्चात् आगम को पुस्तकारूढ़ किया था। कुन्दकुन्द प्राचीन और नवीन परम्परा के बीच को एक कड़ी हैं, इनसे पहले जो भद्रबाहु प्रादि श्रुतज्ञानी हो गए हैं, उनके नाम मात्र के सिवाय उनके कोई ग्रन्थ आदि अब तक प्राप्त नहीं हुए हैं। कुन्दकुन्दाचार्य से कुछ प्रथम जिन पुष्पदन्त भूतबलि आदि प्राचार्यों ने प्रागम को पुस्तकारूढ़ किया था, उनके भो ग्रन्थों का अब तक कुछ पता नहीं चलता। परन्तु कुन्दकुन्दाचार्य के अनेक ग्रन्थ हमें प्राप्त हैं। आगे के प्राय: सभी प्राचार्यों ने इनका स्मरण किया है और अपने को कुन्दकुन्दान्वयी कह कर प्रसिद्ध किया है। अनुमित शक सं० १०२२ के शिलालेख न० ५५ मं कुन्दकुन्द को मूल संघ का आदि प्राचार्य लिखा है। लेख नं० १०५ की कुन्दकुन्दाचार्य की गुरु-परम्परा ऊपर दी जा चुकी है। आगे हम इसी लेख की कुन्दकुन्द के शिष्यों की परम्परा देते हैं, वह इस प्रकार है : कुन्दकुन्द के शिष्यों की परम्परा उमास्वाति (गृध्रपिच्छ) बलाकपिच्छ समन्तभद्र शिवकोटि देवनन्दी भट्टाकला ___ 2010_05 Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ ११६ जिनसेन गुणभद्र अहंद्वलि पुष्पदन्त भूतबलि नेमिचन्द्र माघनन्दी ( उनके वंश में) सिद्धर वसति के शक सं० १३२० के लेख नं० १०५ में भट्टाकलंक जिनसेन और गुणभद्रसूरि पर्यन्त पट्टावलि देने के बाद लेखक संघ-विभाजन की हकीकत लिखते हैं : "यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्या-ख्येनापि शिष्य द्वितयेन रेजे । फलप्रदानाय जगज्जनानां, प्राप्तोऽकुराम्यामिव कल्पभूजः ॥२५॥ अहलिस्संघ चतुविधं स, श्रीकोण्डकुन्दान्वय मूलसंघं । फालस्वभावादिह जायमान-द्वेषेतराल्पीकरणाय चक्रे ॥२६॥ सिताम्बरादो विपरीतरूपेऽखिले विसंधे वितनोतु भेदं । सत्सेन-नन्वि-त्रिदिवेश-सिंह-संघेषु यस्तं मनुते कुदृक्सः ॥२५॥ अर्थात्-'लक्षण, व्यंजन, स्वर, प्रान्तरिक्ष, शारीरिक, छिन्नांग, भौम, शाकुन, अंगविद्या, मादि निमित्तों से त्रिकालवर्ती सुख, दुःख, जय, पराजय मादि समस्त बातों को जानने वाले प्राचार्य महलि शिष्यद्वय से नवांकुर कल्पवृक्ष तुल्य पृथ्वी पर शोभित थे। ऐसे प्राचार्य अर्ह नलि ने कालस्वभाव से होने वाले रागद्वेष को कम करने के लिए श्री कौण्डकुन्दान्वय मूल संघ को सेन, नन्दी, देव और सिंह इन चार विभागों में विभक्त किया, इन चारों में जो भेद मानता है वह कुदृष्टि है । उपर्युक्त लेख में महदलि द्वारा मूल संघ को चार विभागों में बांटने की बात कही गई है। यह बात कहां तक सत्य हो सकती है, इसका ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ पट्टावली-पराग निर्णय मैं विद्वान् पाठकों पर छोड़ता हूँ। क्योंकि एतरफ तो दिगम्बर ग्रन्थकार भूतबलि और पुष्यदन्त को प्राचार्य "धरसेन" के पास पढ़ने की बात कहते हैं और दूसरी तरफ पट्टावली और प्रशस्तिलेखक उनके गुरु पहलि द्वारा चार संघों का विभाजन करवाते हैं। इन बातों में काल का समन्वय किसी ने नहीं किया। क्या प्राचार्य "धरसेन" और "अहंद्वलि" समकालीन थे? यदि यह बात नहीं है तो "महदलि" के समय में जिनका विभाजन किया गया है उन "सेन", "नन्दो", "देव' और 'सिंह' नामक चार संघों का उत्पत्ति-समय क्या है ?, यह कोई बता सकता है ? यदि सचमुच ही अर्हदलि के समय में चार संघ विभक्त हुए हैं, तो अर्हद्वलि का समय विक्रमीय अष्टम शती के पहले का नहीं हो सकता और इस स्थिति में "भूतबलि" और "पुष्पदन्त" ने "धरसेन" से कर्म सिद्धान्त का ज्ञान प्राप्त किया, इस कथन का मूल्य दन्तकथा से अधिक नहीं हो सकता। एक विचारणीय प्रश्न यह भी है कि जिन धरसेन, अहंद्वलि, पुष्पदन्त, भूतबलि, गुणधर, प्रायं मंखू, नागहस्ती प्रादि प्राचार्यो का कर्म-सिद्धान्त "कषायप्रभृत" "षट्खण्डागम" आदि के साथ सम्बन्ध जोड़ा जाता है, इनका प्राचीन शिलालेखों में कहीं भी नाम-निर्देश तक नहीं मिलता, इसका कारण क्या हो सकता है ? क्योंकि इतने बड़े भारी लेखसंग्रहों में अहंबलि, भूतबलि और पुष्पदन्त का नाम निर्देश केवल एक शिलालेख में उपलब्ध होता है और जिस लेख में नाम मिलते हैं वह लेख भी शक सं० १३२० में लिखा हुआ है, अर्थात् विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में आता है। इस परिस्थिति को देखते हुए पूर्वोक्त प्राचार्यों के सम्बन्ध में जो सिद्धान्त लिखने की बातें प्रचलित हुई हैं उनका प्राधार मात्र भट्टारक इन्द्रनन्दी की "श्रुतावतार-कथा" है। इसके पहले के किसी भी श्वेताम्बर अथवा दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ में उक्त बातों का उल्लेख नहीं मिलता और इन्द्रनन्दी ने "श्रुतावतार" के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा है, उसका मूल्य दन्तकथामों से अधिक नहीं आंकना चाहिए। जिस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में "मथुरा" और "वलभी" में पागमों के लिखने सम्बन्धी प्रसंग बने थे, उसी प्रकार शायद उन्हीं प्रसंगों ___ 2010_05 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद । [ १२१ को ध्यान में लेकर इन्द्रनन्दी ने पुण्ड्रवर्धन नगर में दिगम्बर साधुनों द्वारा पुस्तक लिखने सम्बन्धी प्रचलित दन्तकया को "श्रुतावनार" कथा के नाम से प्रसिद्ध किया है । इतना होने पर भी इस कथा को हम बिलकुल निराधार नहीं मान सकते। इसमें प्रांशिक सत्यता अवश्य होनी चाहिए। मोनो परिव्राजक हुवेनत्सांग भारत भ्रमण करता हुअा, जब "पुण्ड्रवर्धन' में गया था, तो उसने वहां पर “नग्न साधु'' सबसे अधिक देखे थे। इससे अनुमान होता है कि उस समय अथवा तो उसके कुछ पहले वहां दिगम्बर जैन संघ का सम्मेलन हुआ होगा, कतिपय दिगम्बर जैन विद्वान् उक्त सम्मेलन को कुन्दकुन्दाचार्य के पहले हुअा बताते हैं । कुछ भी हो दिगम्बरीय पट्टावलियों में कुन्दकुन्द से लोहाचार्य पर्यन्त के सात आचार्यों का पट्टकाल निम्नलिखित क्रम से लिखा मिलता है : (१) कुन्दकुन्दाचार्य ५१५-५१६ (२) अहिबल्याचार्य ५२०-५६५ (३) माघनन्याचार्य ५६६-५६३ (४) धरसेनाचार्य ५६४-६१४ (५) पुष्पदन्ताचार्य (६) भूतबल्याचार्य ६३४-६६३ (७) लोहाचार्य ६६४-६८७ पट्टावलीकार उक्त वर्षों को वोरनिर्वाण सम्बन्धी समझते हैं। परन्तु वास्तव में ये वर्ष विक्रमीय होने चाहिएं, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में विक्रम की १२वीं शती तक बहुधा शक पौर विक्रम संवत् लिखने का ही प्रचार था। प्राचीन ‘दिगम्बराचार्यों ने कहीं भी प्राची . घटनामों का उल्लेख "वीर संवत्" के साथ किया हो यह हमारे देखने में नहीं पाया, तो फिर यह कैसे मान लिया जाय कि उक्त प्राचार्यों का समय लिखने में उन्होंने "वीर संवत्" का उपयोग किया होमा ? जान पड़ता है कि सामान्य रूप में लिखे हुए विक्रम वर्षों को पिछले पट्टावलीलेखकों ने निर्वाणाब्द मान कर धोखा खाया है और इस भ्रमपूर्ण मान्यता को यथार्थ मान कर पिछले इतिहासविचारक भी वास्तविक इतिहास को बिगाड़ बैठे हैं। ___ 2010_05 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] [ पट्टावलो-पराग - "श्रुतावतार" के लेखानुसार प्रारातीय मुनियों के बाद "ग्रहदलि" प्राचार्य हुए थे। पारातीय मुनि वीर निर्वाण से ६८३ (विक्रम संवत् २१३) तक विद्यमान थे, इसके बाद क्रमशः अर्हद्वलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त, भूतबलि नामक प्राचार्य हुए। पुष्पदन्त और भूतबलि ने षट्खण्डागम सूत्र को रचना की। उधर गुणधर मुनि ने नागहस्ती और प्रार्य मा को “कषाप्राभृत" का संक्षेप पढ़ाया। उनसे “यतिवृषभ" और 'यतिवृषभ” से “उच्चारणाचार्य" ने "कषायप्राभृत" सीखा और गुरुपरम्परा से दोनों प्रकार का सिद्धान्त पद्मनन्दि (कुन्दकुन्द) तक पहुंचा। . श्रुतावतार कथा के अनुसार प्रारातीय मुनि वीर निर्वाण सं० ६८३ तक विद्यमान थे। इनके वाद अहंद्वलि, माघनन्दी, धरसेन, पुष्पदन्त और भूतबलि प्राचार्य हुए हों तो इन पांच प्राचार्यों में कम से कम १२५ वर्ष और बढ़ जाते हैं और वीर निर्वाण सं० ८०८ तक समय पहुँचता है। दोनों प्रकार के सिद्धान्त कुन्दकुन्दाचार्य तक पहुँचाने वाली गुरु-परम्परा में भी पांच-छः प्राचार्य तो रहे ही होंगे और इस प्रकार निर्वाण के बाद की समय-शृङ्खला लगभग दशवीं शती तक पहुँचती है और इस प्रकार भी प्राचार्य कुन्दकुन्द का समय विक्रम की छठी शती के उत्तरार्ध तक पहुंच जाता है। इसके बाद लगभग १०० वर्षों के उपरान्त दिगम्बर जैन परम्परा के ग्रन्थ पुस्तकों पर लिखे गये हों तो यह घटना विक्रम की सातवीं शती के मध्यभाग में पहुँचेगी। यहां तक हमने जो ऊहापोह किया है, वह दिगम्बरीय पट्टावलियों और दन्तकथाओं के आधार पर, यह ऊहापोह अन्तिम सिद्धान्त ही है यह दावा तो नहीं कर सकते, क्योंकि दिगम्बर पट्रावलियां तथा दन्तकथायें इतनी अव्यवस्थित और छिन्नमूलक हैं कि उनके आधार पर कोई भी सिद्धान्त निश्चित हो ही नहीं सकता। जितने भी दिगम्बरीय सम्प्रदाय के शिलालेख तथा ग्रन्थप्रशस्तियां प्रकाशित हुई हैं, वे सभी विक्रम की नवमी शती और उसके बाद की हैं। इन शिलालेखों, ग्रन्थप्रशस्तियों के आधार से दिगम्बरों की अविच्छिन्न परम्परा-सूचक पदावलियों का तैयार होना असम्भव है। निर्वाण से ६८३ वर्षों के अन्दर होने वाले फेवलियों, श्र तकेवलियों, दशपूर्वधरों, एकादशांगधरों और एकांगधरों की ____ 2010_05 Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १२३ दी गई यादियां कहां तक ठीक हैं, यह कहना विचारणीय है। क्योंकि एक तो इनके सम्प्रदाय में मौलिक साहित्य नहीं, दूसरा ऐसी कोई पट्टावली नहीं कि जिसका विश्वास किया जाय । उपर्युक्त केवलियों, श्रुतकेवलियों आदि के व्यक्तिगत सत्ता-समय के पृथक्-पृथक वर्ष न देकर सीन, पांच, ग्यारह आदि के वर्षों का समुदित पिण्ड बताना यह सूचित करता है कि ये सभी नाम इस परम्परा ने सैकड़ों वर्षों के बाद लिखे हैं। "मूलगच्छ" की जो "प्राकृत पट्टावलो" बताई जाती है, वह भी वास्तव में भट्टारक-कालीन कृत्रिम पट्टावली है, मौलिक नहीं। यही कारण है कि कुन्दकुन्द के पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती श्रमणों की परम्परा क्रमिक शृङ्खला की कड़ियों की तरह नहीं मिलती। हम पहले ही दो शिलालेखों और हरिवंशपुराण के आधार से कुन्दकु क्षाचार्य की परम्परा का विवरण दे पाये हैं जो व्यवस्थित नहीं है। उक्त लेखों पौर पुराण के अतिरिक्त "तिलोयपण्णत्ति", षट्खण्डागम के वेदना खण्ड की "धवला टीका" 'कषायपाहुड' की "जयधवला टोका" जिनसेन के "मादिपुरुण" और इन्द्रनन्दी के "श्रु तावतार" में भी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय की पट्टावलियां दी गई हैं, परन्तु वे सभी अन्तिम आचारांगधारी "लोहाचार्य" तक जाकर समाप्त हो जाती हैं । "तिलोय-पण्णत्ति" विक्रम की १३ वीं शती का एक संगृहीत संदर्भ है, यह बात पहले ही कह पाये हैं। "श्रु तावतार कथा" भी विक्रम की १३वीं शती से पहले की प्रतीत नहीं होती, क्योंकि इसमें "पुस्तक के लिए साधु को थोड़ा द्रव्य संग्रह करने की छूट दी है" | साधुनों की यह स्थिति १३ वीं शती के पहले नहीं थी। अब रही धवलादि तीन ग्रन्थों की बात, इसमें धवला की समाप्ति भट्टारक वीरसेन ने शक सं० ७०२ में की थी यह माना जा रहा है । “जयधवला" भी उनके शिष्य जिनसेन ने पूर्ण की है और प्रादिपुराण जिनसेन का ही है। इस परिस्थिति में उक्त छः ग्रन्थों की प्रशस्तियों में सब से प्राचीन "धवला" को प्रशस्ति है, शेष ग्रन्थकारों ने प्रायः इसी प्रशस्ति का अनुसरण किया है। इस दशा में केवली जम्बू के उपरान्त के भद्रबाहु को छोड़ कर शेष श्रुतकेवलियों, एकादशपूर्वधरों, पांच एकादशांगधरों और 2010_05 Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ ] [ पट्टावली-पराम बार एकांगधरों के नाम भट्टारक श्री वीरसेन स्वामी ने ईजाद किये हों तो प्राश्चर्य नहीं है, क्योंकि ऐसे कामों में श्राप सिद्धहस्त थे। चूरिंकार को प्राप ही ने "यतिवृषभ' के नाम से प्रसिद्ध किया है । दिगम्बर परम्परा में व्यवस्थित और अविच्छिन्न परम्परा सूचक पट्टावली नहीं है । श्रतः प्रव दो चार अपूर्ण पट्टावलियां देकर इस अधिकार को पूरा कर देंगे । नन्दिसंघ, द्रमिलगण, मरुङ्गलान्वय की पट्टावलियाँ महावीर स्वामी गौतम गणधर समन्तभद्र स्वामी एकसन्धि सुमति भट्टारक अकलंकदेव वादीभसिंह चकग्रीवाचार्य श्रीrerati सिंहनन्द्याचा श्रीपाल भट्टारक कनकसेन वादिराज देव श्री विजयशान्तिदेव पुष्पसेन सिद्धान्तदेव वांविराज शांन्तिषेण देव कुमारसेन सिद्धान्तिक मलिषेण मलधारी श्रीपाल त्रैविद्यदेव (शक सं० २०४७ में विष्णुवर्द्धन चरेश ने शल्य ग्राम का दान दिया !) समय के आचार्यो की परम्परा काय योगीश देवेन्द्रमुनि (सिद्धान्तमद्वार) 2010_05 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद 1 [ १२५ - चन्द्रायणद भट्टार गुणचन्द्र अभयदि शीलभद्र भटार जयणन्दि गुणनन्दि चन्द्रगन्दि शक संवत् १०५० के लेख नं० ५४ में निर्दिष्ट प्राचार्यपरम्परा वर्द्धमानजिन गौतम गणधर भद्रबाहु चन्द्रगुप्त कुन्दकुन्द समन्तभद्र – वाद में धूर्जटि को जिह्वा को भी स्थगित करने वाले सिंहनन्दि वक्रग्रीव - छः मास तक "अथ" शब्द का अर्थ करने वाले बननन्दि (नव स्तोत्र के कर्ता) पात्रकेसरिगुरु ( विलक्षण सिद्धान्त के खण्डनकर्ता ) सुमतिदेव (सुमति-सप्तक के कर्ता ) कुमारसेन मुनि चिन्तामणि (चिन्तामणि कर्ता) श्री वर्द्धदेव (चूडामणि काव्य के कर्ता दण्डी द्वारा स्तुत्य ) महेश्वर ( ब्रह्मराक्षसों द्वारा पूजित ) अकलंक (बौद्धों के विजेता साहसतुंग नरेश के सन्मुख हिमशीतल नरेश की सभा में) पुष्पसेन (अकलंक के सधर्मा ) विमलचन्द्र मुनि - इन्होंने शैव पाशुषतादि कादियों के लिए "शत्रुभयंकर" नाम से भवन द्वारपर नोटिस लगा दिया था। ___ 2010_05 Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [ पट्टावली-पराग इन्द्रनन्दि परवादिनल ( कृष्णराज के समक्ष ) आर्य्यदेव चन्द्रकीर्ति (श्रुतविन्दु के कर्ता ) कर्मप्रकृति – भट्टारक श्रीपालदेव | वादिराज-कृत पार्श्वनाथ चरित (शक ६४७ से विदित होता है कि वादिराज के गुरु मतिसागर थे और मतिसागर के गुरु मतिसागर श्रीपाल । हेमसेन विद्याधनञ्जय महामुनि । (रूपसिद्धि के कर्ता मतिसागर के शिष्य) वादिराज दयापाल मुनि (दयापाल के सब्रह्मचारी चालुक्य चक्रेश्वर जयसिंह के कटक में कीर्ति प्राप्त की ।) श्रीविजय (वादिराज द्वारा स्तुत्य हेमसेन गुरु के समान) कमलभद्रमुनि दयापाल पण्डित महासूरि 1 (विनयादित्य होयसल नरेश द्वारा पूज्य) चतुर्मुखदेव (पाण्ड्य शान्तिदेव नरेश द्वारा स्वामी की उपाधि और पाहवमल्ल नरेश द्वारा Jचतुर्मुखदेव की उपाधि प्राप्त थी) गुणसेन (मुल्लूर के ) अजितसेन - वादौसिंह शान्तिनाथ कविताकान्त पद्मनाभ वादिकोलाहल कुमारसेन. मल्लिषेण मलधारि (अजितसेन पण्डित देव के शिष्य, स्वर्गवास शक सं० १०५०) 2010_05 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १२७ मूल संघ के देशीय गण की पट्टावली : कुन्दकुन्दाचार्य (पद्मनन्दि) उमास्वाति (गृध्द्रपिच्छ) बलाकपिच्छ गुरगनन्दि देवेन्द्र सैद्धान्तिक चतुर्मुखदेव (वृषभनन्दी) माधनन्दि मेघचन्द्र मूल संघ के नन्दिगण की पट्टावली : कुन्दकुन्दाचार्य उमास्वाति (गृध्द्रपिच्छ) बलाकपिच्छ गुणनन्दि देवेन्द्र सैद्धान्तिक कलधौतनन्दि मुनि महेन्द्रकीर्ति वीरनन्दि गोल्लाचार्य त्रैकाल्य योगी अभयनन्दि सकलचन्द्र मेघचन्द्र वीरनन्दि अनन्तकीर्ति मल० रामचन्द्र शुभचन्द्र पद्मनन्दि ___ 2010_05 Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ । [ पट्टाबली-पराग उपसंहार : दिगम्बर परम्परा की पट्टावलियों से हमको सन्तोष नहीं हुआ। एक भी सम्पूर्ण पट्टावली मिल गई होती तो हम इस प्रकरण को सफल हुमा मानते, अस्तु । दिगम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध में लिखते हुए, हमको अनेक स्थानों पर खण्डनात्मक शैली का प्राश्रय लेना पड़ा है, इसका कारण दिगम्बर विद्वानों के श्वेताम्बर-परम्परा-विरुद्ध किये गये आक्षेपों के प्रत्याघात मात्र हैं। दिगम्बर समाज में प्राज सैकड़ों पण्डित हैं और वे साहित्य सेवा में लगे हुए हैं, परन्तु इस पण्डितसमाज में शायद ही दो-चार विद्वान् ऐसे होंगे, जो सत्य बात को सत्य और असत्य को प्रसत्य मानते हों। कुछ पण्डित तो ऐसे हैं, जो श्वेताम्बर जैन परम्परा के मन्तव्यों का खण्डन करके प्रात्मसन्तोष मानते हैं । पण्डित नाथूरामजी प्रेमी, जुगलकिशोरजी मुख्तार, डॉ. हीरालालजी जैन और ए० एन० उपाध्याय आदि कतिपय स्थितप्रज्ञ विद्वान् भी हैं जो सत्य वस्तु को स्वीकार कर लेते हैं, शेष पण्डितमण्डली के विद्वानों में ऐसी उदारता दृष्टिगोचर नहीं होती। इनमें से कतिपय तो ऐसे भी ज्ञात हुए हैं, जो अपनी प्रशक्ति को न जानते हुए, धुरन्धर श्वेताम्बर जैनाचार्यों पर प्राक्षेप करते भी विचार नहीं करते। कुछ समय पहले की बात है, एक पण्डितजी का 'ज्ञानार्णव" ग्रन्य पर लिखा हुमा वक्तव्य पढ़ा और बड़ा पाश्वर्य हुआ। आपने लिखा था कि प्राचार्य हेमचन्द्र ने अपने "योगशास्त्र" में "ज्ञानार्णव'' के कई श्लोक ज्यों के त्यों उद्धृत किये हैं", उस समय हमारे पास मुद्रित "ज्ञानार्णव" नहीं था। ग्रन्थसंग्रह में से हस्तलिखित "ज्ञानार्णव" को मंगवाकर पढ़ा तो हमारे माश्चर्य का पार नहीं रहा। पण्डितजी ने जो कुछ लिखा था वह असत्य ही नहीं बिल्कुल विपरीत था। "ज्ञानार्णव" के कर्ता भट्टारक शुभचन्द्राचार्य ने "हेमचन्द्रसूरि के योगशास्त्र" के कई श्लोक अपने ग्रन्थ में ज्यों के त्यों ले लिए देखे गए। ___ 2010_05 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम-परिच्छेद ] [ १२६ आचार्य हेमचन्द्र का समय विक्रम की बारहवीं और तेरहवीं शती का मध्यभाग था, तब भट्टारक शुभचन्द्र सोलहवीं-सत्रहवीं शती के मध्यवर्ती ग्रन्थकार थे। कृति का मिलान करने से ही ज्ञात होता था कि यह श्लोक भट्टारकजी के हैं और अमुक श्लोक पूर्वाचार्य कृत । भट्टारकजी की कृति बिल्कुल साधारण कोटि की है, तब हेमचन्द्र आदि विद्वानों की कृति प्रोजस्वी होने से छिपी नहीं रहती। पण्डितजो की उक्त विचारणा से मुझे बड़ी ग्लानि हुई, क्योंकि ऐसे लेखकों से ही सम्प्रदायों के बीच कटुता बढ़ती और बनी रहती है। मैं आशा करता हूँ कि मेरे इस लेख के अन्तर्गत किसी कथन से किसी को दुःख नहीं लाना चाहिए, क्योंकि मेरा अभिप्राय अपने सम्प्रदाय की सत्यता प्रतिपादन करने का है, न कि दिगम्बर सम्प्रदाय के खण्डन का । ___ 2010_05 Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद [ तपागच्छीय पट्टावलियाँ ] ___ 2010_05 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तपागाछ - पहावली- सूत्र कर्ता : उपाध्याय धर्मसागर गणी "सिरिमंतो सुहहेऊ, गुरु-परिवाडीइ आगो संतो। पज्जोसवरणाकप्पो, बाइज्जइ तेण तं वुच्छ ॥१॥" 'पट्टावली सूत्रकार उपाध्याय श्री धर्मसागरजी महाराज पट्टावली सूत्र लिखने के पहले अपनी इस प्रवृत्ति का कारण बताते हुए कहते हैं, श्रीमान् “पर्युषणाकल्प" जो सुख का हेतु है और गुरु परम्परा से हम तक पाया है, इसलिए मैं गुरु-परिपाटो का निरूपण करूंगा ।१।' "गुरुपरिवाडीमूलं, तित्थयरी बद्धमारणमारणं । सप्पट्टोदय-पढमो, सुहम्मनामेण १ गरणसामी ॥२॥ बोसो जंबू २ तइयो, पभवो ३ सिज्जभवो चउत्यो प्र। पंचमनो जसभद्दो ५, छट्टो संभूय-भद्दगुरू ६ ॥३॥" ... 'गुरुपरिपाटी का मूल तीर्थकर महावीर हैं, जिनके पट्ट पर सुधर्मनामा प्रथम गणधर हुए। सुधर्मों के पट्ट पर जंबूस्वामी, अंबूस्वामी के पट्ट पर तीसरे पट्टधर प्रभव, प्रभव के पट्टधर शय्यम्भव, शय्यम्भव के उत्तराधिकारी पांचवें यशोभद्र और यशोभद्र के पट्टधारी छठवें संभूतविजय और भद्रबाहु हुए । २ । ३।' गणधर सुधर्मा ने पचास वर्ष की अवस्था में महावीर के पास प्रव्रज्या ली थी। ३० वर्ष तक श्रीमहावीर की सेवा में रहे, वीरनिर्वाण के बद १२ वर्ष तक छद्मस्थपर्याय में विचरे और अन्त में आठ वर्ष तक ___ 2010_05 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [ पट्टावली-पराग केवलीपर्याय भोगा। इस प्रकार १०० वर्ष का आयुष्य भोगकर जिननिर्वाण से २० वर्ष के अन्त में सुधर्मा गणधर सिद्धि को प्राप्त हुए । सुधर्मा के पट्टधर श्री जम्बूस्वामो, जो राजगृह नगर के श्रेष्ठिपुत्र थे, गणधर सुधर्मा के पास १६ वर्ष की वय में दीक्षा लेकर २० वर्ष तक अपने गुरु सुधर्मा की सेवा में रहे और सुधर्मा के बाद ४४ वर्ष तक युगप्रधान रहकर ८० वर्ष की अवस्था में वीरनिर्वाण से ६४ वर्ष व्यतीत होने पर निर्वाण-प्राप्त हुए थे। ___ जम्बू के पट्टधर प्राचार्य श्री प्रभव ३० वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेकर ४४ वर्ष तक व्रतपर्याय में रहे और जम्बू का निर्वाण होने के बाद ११ वर्ष युग प्रधान रह कर ८५ वर्ष की उम्र में वीरनिर्वाण से ७५ वर्ष के बाद स्वर्गवासो हुए। ___ प्राचार्य प्रभव के उत्तराधिकारी श्री शय्यम्भवसूरि २८ वर्ष की उम्र में दीक्षा लेकर ११ वर्ष सामान्य व्रत-पर्याय में और २३ वर्ष तक युगप्रधान पर्याय में रहकर वीरनिर्वाण के १८ वर्ष के अन्त में स्वर्गवासी हुए थे। प्राचार्य श्री शय्यम्भव स्वामी के पट्टधर श्री यशोभद्रसूरि हुए - २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी और १४ वर्ष तक सामान्य व्रती की अवस्था में रहकर ५० वर्ष तक युगप्रधान रहे और ८६ वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण के बाद १४८ वर्ष व्यतीत होने पर स्वर्गवासी हुए । प्राचार्य यशोभद्रसूरिजी के पट्टधर दो समर्थ आचार्य हुए। पहले श्री सम्भूतविजयजी और दूसरे श्री भद्रबाहु स्वामी । संभूतविजयजी २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षित हुए थे और ८ बर्ष तक सामान्यव्रती-पर्याय भोगकर युगप्रधान बने और ६० वर्ष तक युगप्रधान रहकर ६० वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २०८ वर्ष के अन्त में स्वर्गवासी१ हुए। (१) आचार्य संभूतविजयजी के युगप्रधान पर्याय के वर्ष सर्व पट्टावलियों में ८ लिखे मिलते हैं, परन्तु हमने यहां ६० लिखे हैं, क्योंकि पुस्तक लेखक के प्रमाद से "सट्ठि" के स्थान पर “स?" बन जाने से ६० को आठ (८) मान लिया गया, यह भूल 2010_05 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १३५ - प्राचार्य भद्रबाहु ने ४५ वर्ष की अवस्था में दोक्षा लेकर, १७ वर्ष तक सामान्य व्रतीपर्याय में रहे और १४ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा । ७६ वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २२२ वर्ष में प्रापश्री ने स्वर्ग प्राप्त किया। "सिरिथूलभद्दसत्तम७, अट्टमगा महगिरी सुहत्थी ८ अ । सुट्टिय सुप्पडिबुद्धा, कोडिय-काकंगदा नवमा ६ ॥४॥" 'प्राचार्य संभूतविजय और भद्रबाहु के पट्ट पर सातवें पट्टधर स्थूलभद्रजी हुए और स्थूलभद्र जी के पट्ट पर प्रार्यमहागिरि तथा आर्य सुहस्ती नामक दो प्राचार्य हुए और प्रार्य सुहस्ती के पट्ट पर कोटिक काकन्दक नाम से प्रसिद्ध सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध नामक दो आचार्य हुए :' प्राचार्य स्थूलभद्र ३० वर्ष तक गृहस्थाश्रम में रहकर प्रार्य संभूतविजयजी के हाथ से प्रवृजित हुए थे और २४ वर्ष तक व्रत-पाय में रहकर भद्रबाहु के बाद युगप्रधान बने और ४५ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा, पौर जिननिर्वाण से २६७ वर्ष के अन्त में ६६ वर्ष की आयु में स्वर्गवासी हुए। श्री स्थूलभद्रजी के पट्टधर प्रार्य महागिरि और सुहस्ती दो गुरु-भाई थे। इनमें प्रार्यमहागिरिजी ६० वर्ष की उम्र में प्रव्रज्या लेकर ४० वर्ष तक सामान्य श्रमण रहे और ३० वर्ष तक युगप्रधान पद भोगकर १०० वर्ष की अवस्था में जिननिर्वाण से २९७ के अन्त में स्वर्गवासी हुए। स्थूलभद्र के द्वितीय पट्टधर प्रार्य सुहस्तीजी ३० वर्ष की वय में दीक्षित होकर २४ वर्ष तक सामान्य व्रती रहे। अनन्तर ४६ वर्ष तक युगप्रधान पद भोगा, और १०० वर्ष का आयुष्य पूरा करके आर्य सुहस्ती जिननिर्वाण से ३४३ वर्ष में स्वर्गवासी हुए । प्राधुनिक नहीं बल्कि १०००-८०० वर्षों की पुरानी है और इसी भूल के परिणामस्वरूप हमारी पट्टावलियों में अनेक विषयों में विसंवाद उपस्थित होते थे, परन्तु इस परिमार्जन के बाद सभी विसंगतियां मिट जाती हैं, इतना ही नहीं, परन्तु "तित्थोगाली पइन्नय” में लिखी हुई, "राजत्त्वकाल गणना" के साथ भी परिमार्जित स्थविर कालगणना ठीक बैठ जाती है। ____ 2010_05 Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग आर्य सुहस्ती के पट्टधर श्री सुस्थित और सुत्रतिबुद्ध जो कोटिक और काकन्दक कहलाते थे, करोड़ों बार सूरिमन्त्र का जाप करने से अथवा कोट्यश सूरिमन्त्रधारक होने से उनका गण कोटिक कहलाता था। कोटिक नाम के सम्बन्ध में प्राचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरिजो महाराज कहते हैं : मार्य वज्रस्वामी तक सूरिमन्त्र करोड़ों वार तक जपा जाता था, इसीलिये सुस्थितसुप्रतिबुद्ध के गण का नाम “कोटिक” प्रसिद्ध हुपा था। तब प्राचार्य श्री गुणरत्नसूरि अपने गुरुपर्व-क्रम के वर्णन में लिखते हैं - "उस समय सूरिमन्त्र का ध्यान करने वाला श्रमण "चार ज्ञानवान्" बनकर सर्वज्ञ दृष्ट द्रव्यों में से एक कोट्य श लगभग द्रव्य देखता था, इस कारण से लोक में सुस्थित सुप्रतिबुद्ध और उनका "गरण" "कोटिक" नाम से प्रसिद्ध हुए। प्राचार्य जिनप्रभसूरि ने अपनी “सन्देहविषौषधि' नामक "कल्पटोका" में कोट्यंश शब्द का प्रयोग किया था और उन्हीं के अनुकरण में पिछले लेखकों ने "कोटीश" "कोट्यश" प्रादि शब्द सूरिमन्त्र के साथ जोड़ कर, अपनो-अपनी समझ के अनुसार "कोटिक" शब्द की व्याख्या की है। इस सम्बन्ध में हमारी राय में "कोटिक' शब्द "कोटिवर्षीय" शब्द का संक्षिप्त रूप है। प्राचार्य सुस्थित कोटिवर्ष नगर के रहने वाले थे, इसीलिये "कोटिक" कहलाते थे और उनसे प्रचलित होने वाला गण भी "कोटिक" नाम से प्रसिद्ध हुआ था। सूरिमन्त्र प्रादि जाप की कल्पनाएं कल्पना मात्र हैं। सिरिइंरदिन्न सूरी, दसमो १० इक्कारसो म विनगुरू ११ । बारसमो सोहगिरी १२, तेरसमो वयरसामी गुरू १३ ॥१५॥ - 'माचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर दसवें इन्द्रदिन्नसूरि, इन्द्रदिन्नसूरि के पट्ट पर ग्यारहवें आर्य दिन्नगुरु, आर्य दिन के पट्ट पर बारहवें सिंहगिरि और सिंहगिरि के पट्टधारी तेरहवें प्राचार्य श्री वज्रस्वामी हुए। मार्य सुस्थित१ सुप्रतिबुद्ध, इन्द्रदिन्न, दिन्न और सिंहगिरि के समय के सम्बन्ध में पट्टावलियों में कोई भी उल्लेख नहीं मिलता। प्रार्य वज्रस्वामी (१)-अचल गच्छ की बृहत् पट्टावली में प्राचार्य सुस्थित सुप्रतिबुद्ध का स्वर्ग 2010_05 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १३७ - के समय विषयक प्राचीन गाथाओं के आधार से पट्टावली-लेखकों ने ऊह पोह अवश्य किया है, परन्तु आवश्यक नियुक्ति के साथ आर्य बन का समय भी ठोक नहीं मिलता । प्रावश्यक-निर्य क्ति में गोष्ठामाहिलनिह्नव का समय वीरनिर्वाण से ५८४ में बताया है । आर्य रक्षितसूरि दशपुर नगर में चातुमास्य ठहरे हुए थे, तब गोष्ठामाहिल वर्षाचातुर्मास्य में मथुरा में थे, आर्य रक्षितजी उसी चातुर्मास्य में स्वर्गवासी हुए थे, तब गोष्ठामाहिल ने चातुर्मास्य के बाद मथुरा से दशपुर पाकर ५८४ में “अबद्धिक मत" को प्ररूपणा की थी। वीरनिर्वाण का संवत्सर कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा को बैठता है। इससे पाया गया कि प्रार्य रक्षितजी का स्वर्गवास ५८३ में हुआ था और मार्यरक्षित, आर्य वज्रस्वामी के अनन्तर १३ वर्ष तक युगप्रधान रहे थे । इस परिस्थिति में निश्चित हो जाता है कि आर्य वज्रस्वामी का स्वर्गवास ५८४ में नहीं किन्तु ५७० में हुआ था और उसके १३ वर्ष के बाद दशपुर में आर्य रक्षित ने जिननिर्वाण से ५१३ में स्वर्गवास प्राप्त किया था। हमारी गणना के अनुसार प्रार्य वज्रका जन्म वीर-निर्वाण से ४८२ में हुआ। इनकी दीक्षा ४६० में हुई, ५३४ में युगप्रधान पद प्राप्त हुआ । और स्वर्गवास ५७० में हुआ। इस प्रसंग पर उपाध्यायजी श्री धर्मसागरजी महाराज एक शंका उपस्थित करते हैं और उसका समाधान न होने से प्रश्न बहुश्रुतों के ऊपर छोड़ते हैं । सागरजी की वह शंका निम्नोद्धृत है : "तत्र श्रीवीरात् त्रयस्त्रिंशदधिकपंचशत ५३३ वर्षे श्री प्रार्यरक्षितसूरिया श्री भद्रगुप्ताचार्यों निर्यामितः स्वर्गभागिति पट्टावल्यां दृश्यते। परं समय वीर निवारण से ३२७ में लिखा है । इनमें हमारे परिशोधित आर्य संभूत के ६० वर्ष के अनुसार ५२ वर्ष मिलाने से सुस्थित सुप्रतिबुद्ध का समय ३७६ आता है जो संगत ठहरता है । हमारी एक हस्तलिखित पट्टावली में जो कि १८ वीं शती के अन्तिम भाग में लिखी हुई भाषा पट्टावली है, उसमें स्थविर सुस्थित सुप्रतिबुद्ध का समय वीर निर्वाण से ३७२ वर्ष का लिखा है। इसी पट्टावली में आर्य इन्द्रदिन्न का स्वर्ग समय ३७८, आर्य दिन्न सूरि का समय ४५८ और सिंहगिरि का ५२३ वर्ष लिखा है, इन वर्षों में आर्य संभूतसूरि के परिगणित ५२ वर्षों को मिलाने से क्रमशः ४३०,५१०, और ५७५ निर्वाण के वर्ष पाते हैं। 2010_05 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] [ पट्टावली-पराग - दुष्षमासंघस्तवयंत्रकानुसारेण चतुश्चत्वारिंशदधिक पंचशत ५४४ वर्षातिकमे श्रीमार्यरक्षितसूरीणां दीक्षा विज्ञायते तथा चोक्तसंवत्सरे निर्यामरणं न संभवतीत्येतद्वहुश्रुतगम्यम् ॥" सागरजी का प्रश्न वास्तविक है, परन्तु इसका समाधान प्रशुद्धिपूर्ण यन्त्रकों के आधार से नहीं हो सकता। हमारी गणना के अनुसार आर्यरक्षितजी का स्वर्गवास जिननिर्वाण से ५८३ में आता है । प्रायंरक्षितजी के सर्वायुष्य का अंक ७५ वर्ष और कुछ महोनों का था। उन्होंने २२ वर्ष की उम्र में “तोलिपुत्राचार्य" के पास दीक्षा ली थी। ५८३ वर्ष में से ७५ वर्ष बाद करने पर आर्य रक्षितजी का जन्म समय ५०८ का पाता है, उसमें २२ वर्ष गृहस्थाश्रम के जोड़ने पर ५३० में दीक्षा का समय प्राता है। दीक्षा लेकर दो-ढाई वर्ष तक अपने गुरु के पास पढ़कर विशेष अध्ययन के लिये वज्रस्वामी के पास जा रहे थे, जबकि उज्जैनो में स्थविर भद्रगुप्त की निर्यामणा करने का अवसर मिला था और भद्रगुप्त के स्वर्गवास के बाद वज्रस्वामी के पास पहुँचे थे। इस प्रकार से उपाध्यायजी की शंका का समाधान ठीक ढंग से हो जाता है । इसी प्रकार मार्यरक्षितसूरि के स्वर्गवास समय के बारे में भी उपाध्यायजी महाराज ने अपने पट्टावली-सूत्र की टीका में एक शंका उपस्थित की है जो निम्न शब्दों में है :___श्रीमदायरक्षितसूरिः सप्तनवत्यधिकपंचशत ५६७ वर्षान्ते स्वर्गभागिति पट्टावल्यादौ दृश्यते, परमावश्यकवृत्त्यादौ श्रीमवार्यरक्षितसूरीणा स्वर्गगमनानन्तरं चतुरशीत्यधिकपंचशत ५८४ वर्षान्ते सप्तमनिह्नवोत्पत्तिरुक्तास्ति तेनैतद् बहुश्रुतगम्यमिति ।" उपाध्याय की यह शंका भी वास्तविक है और इसका समाधान भो यही है कि प्रार्यवज्र तथा प्रार्यरक्षितसूरि के स्वर्गवास के समय में जो १४-१४ वर्ष अधिक पाए हैं, उनको हटा दिया जाय, क्योंकि इस प्रकार की अशुद्धियां प्रकीर्णक प्रशुद्ध गाथानों के ऊपर से पट्टावलियों में घुस गई हैं, जिनका परिमार्जन करना आवश्यक है। ____ 2010_05 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १३९ "सिरिवज्जसे एसूरी १४, चउदसमो चंवसूरि पंचदसो १५ । सामन्तभद्दसरी, सोलसमो १६ रण्णवासरइ १६ ॥६॥" 'प्राचार्य वज्रस्वामी के प्रथम पट्टधर श्री वज्रसेनसूरि, जो पट्टक्रम से चौदहवें होते थे । वज्रसेनसूरि के पट्टवर श्री चन्द्रसूरि पन्द्रहवें पट्टधर प्राचार्य हुए और चन्द्रसूरि के पट्टधारी सोलहवें प्राचार्य श्रीसमन्तभद्रसूरि हुए जो वसति के बाहर रहने के कारण वनवासी कहलाते थे ॥६॥ प्राचार्य वनस्वामी के मुख्य शिष्य श्री वज्रसेनमूरि दुर्भिक्ष के समय में वज्रस्वामी के वचन से सोपारक नगर की तरफ गए थे। सोपारक में वज्रसेन ने जिनदत्त श्रेष्ठी के पुत्र नागेन्द्र, चन्द्र, निर्वृति, विद्याधर को उनके कुटुम्ब के साथ दीक्षा दो थी और उन चारों के नामों से चार कुलों को उत्पत्ति हुई थी। प्राचार्य वज्रसेन दीर्घजीवी थे। आर्य वज्रसेन का जन्म जिननिर्वाण से ४७७ में, दीक्षा ४८६ वर्ष में, सामान्य श्रमणपर्याय ११६ वर्ष, अर्थात् ६०२ तक, युगप्रधानपर्याय में वर्ष ३ रहकर ६०५ के उपरान्त स्वर्गवासी हुए। प्राचार्य वज्रसेन के पट्टधर श्री चन्द्रसूरि हुए, इन्हीं चन्द्रसूरि से "चन्द्रकुल"१ की उत्पत्ति हुई, जो आज तक यह कुल इसी नाम से श्रमरणों के दीक्षादि प्रसंगों में व्यवहृत होता है। प्राचार्य चन्द्रसूरि के प्रायुष्य अथवा सत्ता समय के सम्बन्ध में पट्टावलियों में कुछ भी उल्लेख नहीं है, फिर भी वज्रसेन के शिष्य होने के कारण से इनका सत्ता-समय वज्रसेन के जीवन का ही उत्तरार्द्ध अर्थात् विक्रम की दूसरी शती का मध्यभाग मान लेना वास्तविक होगा। पट्टावली सूत्र की प्रस्तुत गाथा में श्री चन्द्रसूरि के पट्टधर का नाम "सामन्त भद्र" लिखा है। वह छन्दोनुरोध से समझना चाहिये, वास्तव में १ अञ्चलगच्छ की बृहत्पट्टावली में श्री चन्द्रसूरिजी का स्वर्गवास विक्रम संवत् १७० वर्ष के बाद होना लिखा है। 2010_05 Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग इन तपस्वी प्राचार्य का नाम "समन्तभद्र" था। इनके सत्ता-समय के सम्बन्ध में पट्टावलियों में वर्णन नहीं मिलता। वास्तव में वज्रसेनसूरि के बाद के श्री चन्द्रसूरि से लेकर विमलचन्द्रसूरि तक के २० प्राचार्यों का सत्ता समय अन्धकारावृत है। बिचला यह समय चैत्यवासियों के साम्राज्य का समय था। उग्रवहारिक संविज्ञ श्रमणों की संख्या परिमित थी, तब शिथिलाचारी तथा चैत्यवासियों के अड्डे सर्वत्र लगे हुए थे, इस परिस्थिति में वैहारिक श्रमणों के हाथ में कालगणना. पद्धति नहीं रही। इसी कारण से वज्रसेन के बाद और उद्योतनसूरि के पहले के पट्टधरों का समय व्यवस्थित नहीं है, दमियान कतिपय प्राचार्यों का समय गुर्वावलीकारों ने दिया भी है तो वह संगत नहीं होता, जैसे-तपागच्छगुर्वावलोकार प्राचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरजी ने आचार्य श्री वज्रसेन सूरि का स्वर्गवास समय जिन निर्वाण से ६२० में लिखा है, जो विक्रम वर्षों की गणनानुसार १५० में पड़ता है । तब वज्रसेन से चतुर्थ पुरुष श्री वृद्धदेवसूरिजी द्वारा विक्रम संवत् १२५ में कोरण्ट नगर में प्रतिष्ठा होना बताया है, इसी प्रकार १८ ३ पट्टधर प्रद्योवनसूरि के बाद श्री मानदेवसूरि को पट्टधर बताया है। मानदेव के बाद श्री मानतुगसूरि जो बाण और मयूर के समकालीन थे, उनको २० वां पट्टपर माना है, मयूर का प्राश्रम दांता कन्नौज का राजा श्रीहर्ष था, जिसका समय विऋम की सातवीं शती का उत्तरार्द्ध था, यह समय श्रीमान तुगसूरि के पट्टगुरु मानदेवसूरि के और मानतुंगसूरि के पट्टवर वीरसूरि के साथ संगत नहीं होता, क्योंकि मानतुंगसूरि के बाद के पट्टधर श्री वीरसूरि का समय गुर्वावलीकार श्री मुनिसुन्दरजी ने निम्नोद्धत श्लोक में प्रकट किया है : "जने चैत्ये प्रतिष्ठा कृन्नमेनागिपुरे नृपात् । त्रिभिर्वर्षशतैः ३०० किंचिदषिके वीर सूरिराट् ॥३७॥" प्राचार्य मानतुंग कवि बाण मयूर का समकालीन मानना और मानतुग के उतराधिकारी वीरसूरि का समय विक्रम वर्ष ३०० से कुछ अधिक वर्ष मानना युक्ति संगत नहीं है, वीरसूरि के बाद के प्राचार्य जयदेव, 2010_05 Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४१ देवानन्द विक्रम और नरसिंह इन चार प्राचार्यों के समय की चर्चा गुर्वावल तथा पट्टीवली में नहीं मिलती। गुर्वावलीकार द्वारा लिखित प्राचार्यों के सत्तासमय की विसंगति क समन्वय ऊपर हमने गुर्वावली सूचित पट्टधरों के समय में जो विसंगतियां दिखाई हैं उनका समन्वय निम्न प्रकार से किया जा सकता है : यद्यपि मुनिसुदरसूरिजी ने श्री वज्रसेन सूरि का समय वीरनिर्वाण ६२० में माना है, परन्तु हमारी गणना से वज्रसेन का समय जिननिर्वाण से ६०५ तक पहुँचता है, उसके बाद चन्द्रसूरि, समन्तभद्रसूरि और वृद्धदेव. सूरि का समय विक्रम से १२५ तक सूचित किया है, परन्तु हमारा अनुमान है कि गुर्वावलीकार को जो १२५ का अंक मिला है; वह विक्रम संवत् का न होकर शक संवत् का होना चाहिए। गुर्वावलीकार के लेखानुसार विक्रम संवत् १५० में वज्रसेन का स्वर्गवास हुअा है, तब उनके बाद के तीन प्राचार्यों के समय के १२५ वर्ष वज्रसेन के समय सहित नहीं लिखते, पर लिखा है इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि वज्र के बाद के वज्रसेन चन्द्र समन्तभद्र और वृद्धदेवसूरि की प्रतिष्ठा तक के १२५ बर्ष की संख्या सूचित को है, प्रतिष्ठा के बाद भी वे पूर्ण वृद्धावस्था तक जीवित रहे थे, इस दशा में १० वर्ष अधिक जोवित रहे ऐसा मान लेने पर वृद्धदेवसूरि का स्वर्ग-समय विक्रम संवत् ३७५ तक पहुँच सकता है और इनके बाद प्रद्योतनसूरि, मानदेवसूरि, मानतुगसूरि और वीरसूरि इन चार प्राचार्यों का सत्ता-समय ३०० वर्ष के लगभग मान लिया जाय तो एकत्रित समयांक ६७५ तक पहुँचेगा और इस प्रकार से मानतुगसूरि बाण, मयूर और राजा श्रीहर्ष के समय में विद्यमान हो सकते हैं । बीरसूरि के अनन्तर जयदेवसूरि, देवानन्दसूरि, विक्रमसूरि, नरसिंहसूरि और समुद्रसूरि इन ५ प्राचार्यों के सम्मिलित १०० वर्ष मान लेने पर खोमारण राजा के कुलज समुद्रसूरि का समय वि० सं० ७७५ में पा सकता है, और हरिभद्र के मित्र द्वितीय मानदेवसूरि का समय भी 2010_05 Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ] [ पट्टावली-पसग नाम ७८० के लगभग रह सकता है । इसके बाद विबुधप्रभ जयानन्द, रविप्रभ, यशोदेवसूरि, प्रद्युम्नपूरि, उपधान-प्रकरणकार मानदेवसूरि इन ६ प्राचार्यो के सत्तासमय के सम्मिलित १७५ वर्ष मान लेने पर पट्टधरों का सत्तासमय ६५५ तक पहुंचेगा। इस प्रकार उपधानप्रकरणकार मानदेवसूरि का भी अन्तिम समय ६५५ में पहुंचता है, जो संगत है। इनके बाद प्राचार्य विमलचन्द्र, उनके पट्टधर प्राचार्य श्री उद्योलनसूरि और इनके पट्टधर सर्वदेवसूरि का समय विक्रम की ११वों शती के प्रथम चरण तक पहुँचता है, क्योंकि ६५६ से विमलचन्द्रसूरि का समय प्रारम्भ हो जाता है और ६९४वें में उनके शिष्य उद्योतनसूरि, सर्वदेवसूर को पट्ट पर स्थापित करते हैं, तब विक्रम सं० १०१० में सर्वदेवसूरि रामसन्यपुर में चन्द्रप्रभ जिन की प्रतिष्ठा ऊपर लिखे अनुसार मुनिसुन्दरसूरि की गुर्वावली में दिये हुए समय में संशोधन करने से सत्तासमय का समन्वय दोकर पारस्परिक विरोध मिट सकता है। "सत्तरस बुड्ढदेको १७, सूरी पज्जोमरणो अठारसमो १८ । छगूणवीसइमो, सूरी सिरिमाणवेवगुरू १९ ॥७॥ सिरिमारणतुंगसूरि २०, वीसइमो एगवीस सिरिवीरो २१ । बावीसो जयदेवो २२, देवारणको य तेवीसो २३ ॥८॥ चउवीसो सिरिविक्कम २४, नरसिंहो पंचवीस २५ छन्वीसो। सूरीसमुद्द २६ सत्तावीसो सिरिमारणदेव गुरू २७ ॥६॥" 'प्राचार्य समन्तभद्र के पट्टवर १७वें श्री वृद्धदेवसूरि, वृद्धदेवरि के पट्ट पर १८वें प्रद्योतनसूरि, प्रद्योतन के पट्ट पर श्री मानदेवसूरि, म.नदेवसूरि के पट्ट पर श्री मानतुगसूरि, मानतुगसूरि के पट्ट पर श्री वीरसूरि, वीरसूरि के पट्ट पर श्री जयदेवसूरि, जयदेवसूरि के पट्ट पर श्री देवानन्दसूरि, देवानन्दसूरि के पट्ट पर श्री विक्रमसूरि, विक्रमसूरि के पट्ट पर श्री नरसिंहसूरि नरसिंहसूरि के पट्ट पर श्री समुद्रसूरि, समुद्रसूरि के पट्ट पर श्री मानदेवसूरि २७वें पट्टधर हुए । ___ 2010_05 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४३ समुद्रसूरि को गुर्वावलीकार खोमाण राजा का कुलज बताते हैं । मेवाड राणानों में खोमारण नामक तीन राणे हुए हैं, "बापा रावल" नामक मेवाड़ के रागानों में प्रथम था, जो खोमाण भी कहलाता था। यदि हम समुद्रसूरि को खीमारण कुलज मान लें, तो भी समुद्रमूरिजी का समय विक्रम की सप्तम शती के बाद में प्राता है। इनके उत्तराधिकारी द्वितीय मानदेव. सूरि को प्रसिद्ध श्रुतधर श्री हरिभद्रसूरि जी का मित्र बताते हैं और हरिभद्र - सूरिजी का समय विक्रम की अष्टम शती का उत्तराद्धं निश्चित हो चुका है, इस दशा में द्वितीय मानदेवसूरि से चतुर्थ पीढ़ी पर पाने वाले श्री रविप्रभाचर्य का सत्ता-समय विक्रम को सप्तम शतो बताना संगत नहीं होता। "अट्ठावीसो विबुहो २८, एगुणतीसो गुरू जयाणंदो २६ । तीसो रविपदो ३०, इगतीसो जसोवसूरिवरो ३१ ॥१०॥ बत्तीसो पज्जुण्णो ३२, तेतीसो माणदेव जुगफ्वरो ३३ । पउतीस विमलवंदो ३४, पणतीसूज्जोमरणो सूरी ३५ ॥११॥" 'मानदेवसूरि के पट्टवर श्री विबुधप्रभसूरि, विबुधप्रभसूरि के पट्टधर श्री जयानन्दसूर, जयानन्दसूरि के पट्ट पर श्री रविप्रभसूरि, रविप्रभसूर के पट्ट पर श्री यशोदे सरि, यशोदेक्स रि के पट्टे पर श्री प्रद्युम्न सूरि, प्रद्युम्नहरि के पट्ट पर श्री मानदेवसूर, मानदेवसूरि के पट्ट पर श्री विमलचन्द्रसूरि और विमलचन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री उद्योतनसूरि ३५३ हुए ।१०।११।।' विमलचन्द्रसूरि के सत्त -समय की गुर्वावली आदि में चर्चा नहीं है। परन्तु प्रभावकचरित्रान्तर्गत वीरमूरि के प्रबन्ध में विमलचन्द्र सूरि के हस्तदीक्षित वौरसूर का स्वर्गवास विक्रम संत् ६६१ में होना लिखा हैं, इससे प्रतीत होता है कि वीरसूरि के दीक्षा-गुरु श्री विमलव द्र का समय विक में की दशवीं शती का मध्यभाग हो सकता है । आचार्य श्री उद्योतनसूरि का समय विक्रम की देशवीं शती का उत्तरभाग गुर्वावलीकार ने बताया है, लिखा है कि विक्रम संवत. में प्राचार्य उद्योतनसूरि ने बाबू के निकट एक क्ट के नीचे बैठे हुए सर्वदेव प्रमुख अपने 2010_05 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] [ पट्टावली-पराग पाठ शिष्यों को सर्वश्रेष्ठ लग्न में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया था। कितनेक आचार्य केवल सर्वदेवसूरि को ही वट के नोचे सूरि पद देने की बात कहते हैं। प्रारम्भ में सर्वदेवसरि के श्रमण गण को लोगों ने “वट गच्छ' इस नाम से प्रसिद्ध किया और धीरे-धीरे गुणी श्रमणों की वृद्धि होने से “वटगच्छ” का हो नामान्तर "बृहद्गच्छ” प्रसिद्ध हुआ। "सिरिस देवसूरी, छत्तीसो ३६ देवसूरि सगतीसो ३७ । अडतीसइमो सूरी, पुरणोवि सिरिसव्वदेव गुरू ३८ ॥१२॥ एगुणचालीसइमो, जसभद्दो नेमिचंद गुरुबंधू ३६ । चालीसो मुरिगचंदो ४०, एगुमालीसो अजिप्रदेवो ४१ ॥१३॥" 'श्री उद्योतनसूरि के पट्ट पर श्री सर्वदेवसूरि, सर्वदेवसरि के पट्ट पर श्री देवसूरि, देवसूरि के पट्ट पर फिर श्री सर्वदेवसूरि, द्वितीय सर्वदेवसूरि के पट्ट पर श्री यशोभद्रसूरि तथा नेमिचन्द्र ये दो आचार्य हुए और इस प्राचार्य युगल के पट्ट पर श्री मुनिचन्द्रसूरि और मुनिचन्द्रसूरि के पट्ट हर ४१वें श्री अजितदेवसूरि हुए । १२ । १३॥' - आचार्य श्री सर्वदेवसूरि से महावीर की मूल परम्परा का नाम 'वट गच्छ' हुआ, तब से इस गच्छ में विद्वान् प्राचार्यो और श्रमणों की संख्या प्रतिदिन बढ़तो ही गई। परिणामस्वरूप चन्द्रकुल वट की तरह अनेक शाखामों में विस्तृत हुआ और इसके मुकाबिले में इसके सहजात 'नागिल' 'निर्वृत्ति' और 'विद्याधर' यै तीन कुल इसके विस्त र के नीचे ढंक से गए। __बड़े शिष्य सर्वदेवसूरि लब्धिधारी थे। इन्होंने विक्रम संवत् १०१० में रामसंन्य नगर में चन्द्रप्रभजिन की प्रतिष्ठा की थी, इतना ही नहीं बल्कि चन्द्रावती नरेश के नेत्र-तुल्य उच्च ऋद्धिमान् "कुंकण मन्त्री" को प्रतिबोध देकर अपना श्रमण शिष्य बनाना था। सर्वदेवसूरि के पट्ट पर जो देवसूरि हुए उनको अंचलगच्छ पट्टावलीकार ने “पद्मदेवसूरि" लिखा है। देवसूरि के पट्टधारी द्वितीय सर्वदेवमूरि ने यशोभद्र आदि आठ साधुओं को प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठित किया था; 2010_05 Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - - द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४५ जिनमें यशोभद्र और नेमिचन्द्रसूरि ये दोनों गुरु-भाई थे और द्वितीय सर्वदेवसूरि के पट्ट पर प्रतिष्ठित थे। श्री यशोभद्र सूरि और नेमिचन्द्र सूरि के पट्ट पर चालीसवें प्राचार्य श्री मुनिचन्द्रसूरि थे, जो विद्वान् होने के उपरान्त बड़े त्यागी थे । मुनिचन्द्रसूरि का स्वर्गवास ११७८ के वर्ष में हुआ था। मुनिचन्द्र सूरि के अनेक विद्वान् शिष्य थे। श्री अजितदेवसूरि के अतिरिक्त वादी श्री देवसूरि जैसे प्रखर विद्वान् पाप ही के शिष्य थे। वादी देवसूरि के नाम से २४ शाखाएं प्रसिद्ध हुई थी, जो 'बादि देवसूरि-पक्ष' के नाम से प्रख्यात थीं। वादिदेवसूरि का जन्म ११३४ में, दीक्षा ११५२ में, आचार्य-पद ११७४ में और स्वर्गवास १२२६ के वर्ष में हुआ था। मुनिचन्द्र सूरि के पट्ट पर ४१वें श्री अजितदेवसूरि हुए, जिनके समय में १२०४ में "खरतर", १२१३ में "पांचलिक", १२३६ में “सार्द्धपौर्णमियक" और १२५० में "प्रागमिक' मतों की उत्सत्ति हुई। "बायालु विजयसिंहो ४२, तेनाला हुंति एगगुरुभाया। सोमप्पह-मणिरयणा ४३, चउपालीसो अ जगचंदो ४४ ॥१४॥ देविदो पणयालो ४५, छायालीसो अधम्मघोसगुरू ४६ । सोमप्पह सगचत्तो, ४७, अड़चत्तो सोमतिलग गुरू ४८ ॥१५॥" 'अजितदेवसूरि के पट्ट पर विजयसिंहसूरि, विजयसिंहसू रि के पट्ट पर सोमप्रभसूरि तथा मणिरत्नप्रभसूरि नामक दोनों गुरु-भाई ४३वें पट्टधर हुए और उनके पट्टधर श्री जगच्चन्द्रसूरि हुए, जगच्चन्द्र के पट्ट पर श्री देवेन्द्रसूरि, देवेन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री धर्मघोषसूरि, धर्मघोषसूरि के पट्ट पर श्री सोमप्रभसूरि और सोमप्रभसूरि के पट्ट पर ४८वें सोमतिलकसरि हुए । १४ । १५॥ ___ जगच्चन्द्रसूरि के समय में साधुनों में शिथिलाचार की वृद्धि हो रही थी, यह देखकर जगच्चन्द्रस रि को दुःख हुआ और चैत्रगच्छीय उपाध्याय ___ 2010_05 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पट्टावली-पराग - - - देवभद्र गणि की सहायता से क्रियोद्धार करके उग्रविहार करने लगे। जगच्चन्द्रसूरि बड़े तपस्वी थे। जीवनपर्यन्त प्राचाम्ल तप का भिग्रह धारण करके विहार कर रहे थे, आपको आचाम्ल करते १२ वर्ष व्यतीत हो चुके थे। आपकी इस उग्र तपस्या और विद्वत्ता की बातें सु कर पापको प्राधाटपुर (मेव ड़) के राणाजी ने ' महातपा" के नाम से सम्बोधित किया। "महातपा" में से 'महा' शब्द निकल कर आपका “तपा" यह विरुद रह गया। यह घटना वि० सं० १२८५ में घंटी थो, सब तक महावीर की शिष्य-परम्परा में ६ नाम रूढ़ हो गए थे। प्रार्य सुहस्ती तक महावीर की शिष्य सन्तति "निर्ग्रन्थ' नाम से प्रसिद्ध थी, सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध के समय में वह "कोटिक गण" के नाम से पहिचानी जाने लगी। वज्रसेन के शिष्य श्री चन्द्रसूरि के समय में श्रमण गण का मुख्य भाग “चन्द्रकुल" के नाम से प्रख्यात हुआ। श्री समन्तभद्र के समय में वह “वनवासी गण" के नाम से सम्बोधित होने लगा, श्री सर्वदेवसूरि के समय में उसका नाम "कटगच्छ” पड़ा, श्री जगच्चन्द्रसूरि के समय से वही श्रमण-समुदाय "तपागण" अथवा "तपागच्छ” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जगच्चन्द्रसूरि के पट्ट पर ४५वें प्राचार्य श्री देवेन्द्रसूरि हुए। देवेन्द्रसूरि विद्वान् होने के उपरान्त बड़े त्यागी साधु थे, इनका विहार बहुधा गुजरात और मालवा की तरफ होता था। आपने उज्जैन के जिनभद्र१ सेठ के पुत्र बीरधवल को विवाहोत्सव दर्मियान प्रतिबोध देकर विक्रम संवत् १३०२ में दक्षा दी थी और उसका नाम "विद्यानन्द' रखा था। कुछ समय के ब.द उसके भाई को भी श्रमणधर्म में दीक्षित किया था और उसका नाम "धर्मकीति" रक्खा था। लम्बे काल तक मालवे में विचर कर देवेन्द्रसूरिजी गुजरात में स्तम्भतीर्थ पधारे। देवेन्द्रसूरिजी ने जब खम्भातः से मालवा की तरफ विहार किया था, उस समय उनके छोटे गुरु-भाई श्री विजयचन्द्र रि खंभात में ये पौर १२ वर्ष से अधिक समय तक मालवा में विचर कर वापस गुजरात पाकर खम्भात पहुंचे तो विजयचन्द्रसूरि उस समय तक खम्भात में ही रहे हुए थे, इतना ही नहीं उन्होंने धीरे-धीरे साधुओं के प्राचार में अनेक १. धवल के पिता श्रेष्ठी का नाम मुनिसुन्दर-गुर्वावली में जगच्चन्द्र लिखा है। 2010_05 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४७ शिथिलताएं कर दी थी, जैसे प्रत्येक गंता को अपनी निश्रा में वस्त्र की गठरी रखने की प्राज्ञा, नित्य विकृति ग्रहण की आजा, हर एक सावु को वस्त्र धोने को आज्ञा, फल-शाक ग्रहण करने को आज्ञ , साधु-साध्वो को मोवी के प्रत्याख्यान में निर्विकृतिक ग्रहण करने की छूट, नित्य दुविहाहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करना, गृहस्थों को आकृष्ट करने के लिए प्रतिक्रमण कराने की आज्ञा, संविभाग के दिन श्रावक के घर गीतार्थ को जाना चाहिये, साध्वी का लाया हुमा पाहार लेना ऐसी प्ररूपणा, लेप की सन्निधि न मानना, तत्काल उतारा हम्रा गर्म जल लेने को आज्ञा, इत्यादि अनेक बातें जो क्रियामागं में शिथिल साधुओं के लिए अनुकूल हों ऐसी प्ररूपणाएं करके उन्हें अपने अनुकूल किया। श्री जगच्च द्ररिजी ने देवद्रव्यादि दूषित जिस पौषधशाला में उतरना निषिद्ध किया था, उसी वृद्ध पौषधशाला में १२ वर्ष तक विजयचन्द्रसूरि ठहरे रहे। जिन प्रव्रज्यादि कृत्यों के करने में गुरु की प्रज्ञा ली जाती थी, उन कार्यों को भी गुरु-प्राज्ञा के विना करने लगे थे। इन सब बातों का देवेन्द्रसूरिजी को पता लग चुका था, इसलिये वे विजयचन्द्रसूरि वाली पौषधशाला में न जाकर एक दूसरो शाला में ठहरे, जो विजय चन्द्रसूरि वाली शाला से अपेक्षाकृत छोटी थी। इस प्रकार देवेन्द्रसूरि तथा विजयचन्द्रसूरि भिन्न भिन्न शाला में उतरे, तब से उन दोनों गुरु-भाइयों का साधु परिवार लघु पोषधशालिक और वृद्ध पौषधशालिक के नाम से प्रसिद्ध हुमा। एक समय पालनपुर के श्रावक-संघ ने श्री देवेद्रसूरि को आग्रह पूर्वक विज्ञप्ति कर पालनपुर पधारने और पदस्थापनादि-शासनोन्नति के कार्यों द्वारा पालनपुर के संघ को कृतार्थ करने की प्रार्थना की, प्राचार्य श्री ने पालनपुर के संघ की बोनती स्वीकृत की और पालनपुर जाकर संवत् १३२३ के वर्ष में "श्रीविद्यानन्द' को प्राचार्य पद दिया और उनके छोटे १. गुर्वावली तथा पट्टावली सूत्र की टीका में विद्यानन्द का आचार्य पद मतान्तर से १३०४ में होना सूचित किया है, एक तो विद्यानन्द का दीक्षापर्याय उस समय केवल २ वर्ग का था, इतने अल्प पर्याय में आचार्य पद देने की पद्धति तब तक तपागच्छ में प्रचलित नहीं हुई थी, दूसरा कारण यह भी है कि, 'खरतर बृहद् गुर्वावली' में संवत् १३ ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ] [ पट्टावली-पराग भाई "धर्मकीर्ति" को उपाध्याय पद प्रदान किया, शासन की बडी उन्नति हुई, श्राचार्य श्री विद्यानन्दसूरि ने "विद्यानन्द" नामक एक व्याकरण बनाया जो स्वल्पसूत्र वह्नर्थ युक्त होने से विद्वानों में पसन्दगी पाया । आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी ने गुजरात से फिर मालवे की तरफ विहार किया और विक्रम संवत् १३२७ के वर्ष में श्राप वहीं स्वर्गवासी हुए। दैवयोग से श्रीविद्यानन्दसूरि भी केवल १३ दिन के बाद बीजापुर में स्वर्गवासी हो गए; इसलिये छ: महीने के बाद "विद्यानन्द" के समान गोत्रीय किसी श्राचार्य ने "श्री धर्मकीर्ति" उपाध्याय को आचार्य पद दिया और "श्री धर्मघोषसूरि" यह नाम रखा । प्राचार्य देवेन्द्रसरिजी ने "श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति" "नव्य पांच कर्म ग्रन्थ " सवृत्ति, “सिद्धपंचाशिका" सवृत्ति, "धर्मरत्न प्रकरण" बृहद्वृत्ति, "सुदर्शनाचरित्र" "चैत्यवन्दनादि तीन भाष्य" "वन्दारु वृत्ति" आदि अनेक संस्कृत प्राकृत ग्रन्थों की रचना की है । * श्री देवेन्द्रसूरिजी के पट्ट पर ४६ वें धर्मघोषसूरिजी हुए। धर्मघोष सूरि भी बड़े विद्वान् और प्रभावक प्राचार्य थे । धर्मघोषसूरि ने भी " संघाचार भाष्य" "कायस्थितिस्तव" "भवस्थितिस्तव" चतुर्विंशतिजिनस्तव संग्रह " " स्तुतिचतुर्विंशति" यमकमय इत्यादि अनेक छोटे बड़े ग्रन्थों की रचना की थी। संवत् १३५७ के वर्ष में धर्मघोषसूरिजी स्वर्गवासी हुए । " 'धर्मघोषसूरि के पट्टधर श्री सोमप्रभसूरि भी विद्वान् श्राचार्य हो गए हैं, प्रापने "नमिऊरणं भणइ" इत्यादि आराधना प्रकरण की रचना की थी, वि. 2010_05 १६ के वर्ष में खरतर उपाध्याय श्रभयतिलक के साथ विद्यानन्द की उज्जैन में श्रमणयोग्य जल के सम्बन्ध में चर्चा होना लिखा है, और उस स्थल में " तपोमतीयं पंडित विद्यानन्द" इस प्रकार का शब्दप्रयोग किया गया है, यदि उस समय विद्यानन्द आचार्य होते तो गुर्वावलीकार विद्यानन्द के लिये “पं०" शब्द का प्रयोग न करें प्राचार्य अथवा सूरि प्रादि शब्द का प्रयोग करते, इससे प्रमाणित होता है कि १३२३ में ही श्रीविद्यानन्द आचार्य बने थे और १३२७ में उनका देहान्त हो गया था । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १४९ सं. १३१० में प्रापका जन्म, १३२१ में दीक्षा, १३३२ में प्राचार्य पद प्राप्त हुमा । प्राचार्य सोमप्रभसूरि ने अप्काय की विराधना के भय से जलप्रचुर कुकुणदेश में और शुद्ध जल की दुर्लभता से मारवाड़ में अपने साधुओं का विहार निषिद्ध किया था। वि० संवत् १३३४ के वर्षा चातुमस्यि में शास्त्र की मर्यादानुसार द्वितीय कार्तिक की पूर्णिमा को चातुमस्यि पूरा होता था, परन्तु उसके पहले ही भाविनगर-भंग को जानकर सोमप्रभसूरजी प्रथम कार्तिक की चतुर्दशी को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण करके दूसरे दिन वहां से विहार कर गए थे, अन्य गच्छीय प्राचार्य जो वहां चातुर्मास्य में ठहरे हुए थे, उन्होंने प्रथम कार्तिक की चतुर्दशी को चातुर्मास्य पूरा नहीं किया था, परिणामतः उनके वहां रहते-रहते नगरभंग हुआ और विहार न करने वाले प्राचार्यों को मुसीबत में उतरना था। सोमप्रभसूरि के गुरु धर्मघोषसूरि १३५७ में स्वर्गवासी हुए थे, उसी वर्ष सोमप्रभसूरि ने अपने मुख्य शिष्य विमलप्रभ को प्राचार्य पद दिया था। सोमप्रभसूरि के विमलप्रभ के अतिरिक्त तीन शिष्य और प्राचार्य थे, जिनके नाम - श्री परमानन्दसूरि, श्री पद्मतिलकसूरि और श्री सोमतिलक सूरि थे। सोमप्रभसूरि के प्रथम शिष्य अल्पजीवो थे, इसलिये उन्होंने अपना जीवन अल्प समझ कर १३७३ में श्री परमानन्द और सोमतिलक को सरि-पद दिये पौर आपने तीन महीनों के बाद उसी वर्ष स्वर्गवास प्राप्त किया। श्री परमानन्दसूरि भी प्राचार्य-पद प्राप्त करने के बाद ४ वर्ष तक जो वित रहे थे, इस लिये सोमप्रभ के पट्ट को श्री सोमतिलक सूरिजी ने सम्हाला, सोमतिलकसूरिजी सं० १३५५ में जन्मे, १३६६ में दीक्षित हुए, १३७३ में सूरि बने और १४२४ में स्वर्गवासी हुए। "बृहद् नव्य क्षेत्र समास", "सत्तरिसयठाणे" आदि अनेक ग्रन्थ और स्तुति स्तोत्रादि की रचना की थी, तथा श्री पद्मतिलक, श्रीचन्द्रशेखरसूरि, श्री जयानन्दसूरि और श्री देवसुन्दरसूरि को प्राचार्य पद दिए थे। 2010_05 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] [ पट्टावली-पराग "एगुणवण्णो सिग्देिव सुन्दरो ४६ सोमसुन्दरो पण्णो ५० । मुनिसुन्दरेगवण्णो ५१, बावण्णो रयणसेहरो ५२ ॥१६॥" 'सोमतिलक सूरि के पट्ट पर ४६ वें श्री देवसुन्दरसूरि हुए और देवसुन्दरसूरि के पट्ट पर श्री सोमसुन्दरसूरि, सोमसुन्दर के पट्ट पर श्री मुनिसु-दरसूरि और मुनिसुन्दरसूरि के पट्ट पर श्री रत्नशेखरसूरि ५२ वें पट्टधर हुए ॥१६॥ प्राचार्य देवसुन्दरसूरि का जन्म १३९६ में, दीक्षा १४०४ में, प्राचार्यपद १४२० में अणहिल पाटन में हुप्रा। आचार्य देवसुन्दरसूरिजी के ५ शिष्य थे जिनके नाम श्री ज्ञानसागरसूरि, श्री कुलमण्डनसूरि, श्री गुणरत्नसूरि, श्री सोमसुन्दरसूरि और श्री साधुरत्नसूरि थे। ज्ञानसागरसूरि का जन्म १४०५ में, दीक्षा १४१७ में, प्राचार्यपद १४४१ में और स्वर्गवास १४६० में हुआ था। ज्ञानसागरसूरि ने आवश्यक और प्रोपनियुक्ति पर प्रवचूणियां लिखी थी और अनेक तीर्थङ्करों के स्तव स्तोत्रादि बनाये थे। ___श्री कुलमण्डन सूरि का जन्म १४०६ में, दीक्षा १४१७ में, सूरिपद १४४२ में और १४५५ में स्वर्गवास हुआ था। श्री कुलमण्डनसूरि ने "सिद्धान्तालापकोद्धार" और अनेक "चित्रकाव्य स्तवों" की रचना की थी। प्राचार्य श्री गुणरत्नसूरि ने "क्रियारत्नसमुच्चय" "षड्दर्शनसमुच्चयबृहवृत्ति" आदि ग्रन्थ रचे थे और साधु रत्नसूरि ने “यतिजीतकल्पवृत्ति" आदि का निर्माण किया था। प्राचार्य श्री सोमसुन्दरसूरिजी का जन्म १४३० में, दीक्षा १४३७ में। वाचकपद १४५० में और सूरिपद १४५७ में हुआ था। सोमसुन्दरसूरि बड़े भाग्यशाली और क्रियापरायण थे। इनकी निश्रा में १८०० क्रियापात्र साधु विचरते थे। श्री सोमसुन्दरसूरिजी ने "योगशास्त्र" "उपदेशमाला" ___ 2010_05 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १५१ - "षडावश्यक" "नवतत्त्वादि" ग्रंथों पर बालावबोध भाष्य लिखे थे, कई ग्रन्थों पर अवचूणियां लिखी थीं और "कल्याणस्तोत्रादि'' अनेक "जिनस्तोत्र" बनाए थे। श्री सोमसुन्दरसूरिजी के चार शिष्य आचार्यपद पर स्थित थे, श्री मुनिसुन्दरसूरि १, श्री जयसुन्दरसूरि २, श्री भुवनसुन्दरसूरि ३ और जिनसुन्दरसूरि ४ । प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरिजी ने अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया था । प्राचार्य श्री भुवनसुन्दर सूरि ने “महाविद्याविडम्बन" का टिप्पन लिखा था। श्री जिनसुन्दरसूरि ने "दीपावली कल्प'' बनाया था । अपने इन विद्वान शिष्यों के परिवार से परिवृत श्री सोमसुन्दरसूरिजी ने राणकपुर के श्रीधरण चतुर्मुख विहार में संवत् १४६५ में ऋषभादि अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की थी और १४६६ में आप स्वर्गवासी हुए थे। प्राचार्य श्री मुनिसुन्दरसूरि का १४३६ में जन्म, १४४३ में दीक्षा, १४६६ में वाचक पद और १४७८ में सूरि पद हुआ था। प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरि प्रखर जैन विद्वानों में से एक थे, आपने सैकड़ों चित्र-स्तोत्रों की रचना की थी जिनकी संख्या ही नहीं है, आपने 'त्रिदशतरंगिणी" नामक १८ एक सौ आठ इस्तपरिमित विज्ञनिलेखन अपने गुरु पर भेजा था, ' उपदेशरत्नाकर" "चावे अवैशारद्यनिधि" : विजयचन्द्रकेवलिचरित्र" आदि अनेक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थों को रचना की थी, आपका स्वर्गवास १५०३ के कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन हुअा था। श्री मुनिसुन्दरसूरि के पट्टधर श्री रत्नशेखरसूरि का जन्म १४५७ में और मतान्तर से १४५२ में हुआ, १४६३ में व्रतग्रहण, १४८३ में पण्डित पद, १४९३ में वाचक पद, १५०२ में सूरिपद और १५१७ में आपका स्वर्गवास हुअा था। 2010_05 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] [ पट्टावली-पराग ___ रत्नशेखरसूरि के "श्राद्धप्रतिक्रमण सूत्रवृत्ति" "श्राविधिसूत्रवृत्ति" "प्राचारप्रदीप" नामक तीन ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं । प्राचार्य रत्नशेखरसूरि के समय में १५०८ में जिनप्रतिमा का विरोधी "लुंकामत" प्रवृत्त हुआ और लुकामत में १५३३ में 'भाणा" नामक प्रथम "साधुवेशधारी" हुआ। "तेवण्णो पुरण लच्छोसायरसूरोसरो मुणेयव्यो ५३ । पउवष्णु सुमइसाहू, ५४ परगवण्णो हेमविमल गुरू ५५ ॥ १७ ॥ __'रत्नशेखरसरि के पट्ट पर ५३ वें लक्ष्मीसागरसरि, लक्ष्मीसागरसरि के पट्ट पर ५४ वें सुमतिसाधुसरि और सुमतिसाधु के पट्ट पर ५५ वें हेमविमलसरि हुए । १७॥ श्री लक्ष्मीसागरसूरि का १४६४ में जन्म, १४७७ में दीक्षा, १४६६ में पंन्यासपद, १५०१ में वाचकपद, १५०८ में सूरिपद और १५१७ में गच्छनायक पद हुआ था। श्री लक्ष्मीसागरसूरि के पट्टधर श्री सुमतिसाधुसूरिजी ने "दशवकालिक" पर "लघुटीका" बनाई थी, जो छप कर प्रसिद्ध हो गई है। श्री सुमतिसाधु के पट्टवर श्री हेमविमलसूरि के समय में साधु-समुदाय में पर्याप्त शिथिलता फैल गई थी, फिर भी हेमविमलसूरि की निश्रा में रहने वाले साधु ब्रह्मचर्य तथा निष्परिग्रहपन में सर्वप्रसिद्ध थे। क्षमाश्रमण प्रादि विधि से श्रावक के घर से लाया हुआ आहार हेमविमलसूरि नहीं लेते थे और अपने समुदाय में कोई द्रव्यधारी यति ज्ञात होता तो उसे गच्छ से निकाल देते थे, आपकी इस निस्पृहवृत्ति को देखकर लंकागच्छ के ऋषि हाना. ऋषि श्रीपति, ऋ० गणपति प्रमुख अनेक प्रात्मार्थी वेशधारी लुंकामत का त्याग कर श्री हेमविमलसूरि की शरण में पाए थे और समयानुसार चारित्र पालकर प्रात्महित करते थे। . प्राचार्य हेमविमल के समय में 'माजकल शास्त्रोक्त साधु दृष्टिगोचर नहीं होते" इस प्रकार की प्ररूपणा करने वाले कटुक नामक त्रिस्तुतिक 2010_05 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १५३ गृहस्थ से १५६२ में "कटुक" (कडुपा) मत की उत्पत्ति हुई। १५७० में लुंकामत से निकल कर विजय ऋषि ने “वीजा मत" प्रचलित किया और संवत् १५७२ में नागपुरीय तपागच्छ से निकल कर उपाध्याय पावचन्द्र ने अपने नाम से मत निकाला जो माजकल "पाय चंदगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध है। "सुविहिय मुरिणचूडामणि,-कुमयतमोमहणमिहिरसममहिमो। पाणंदविमलसूरी-सरो प्र छावण्णपट्टयरो ॥१८॥" श्री हेमविमलसूरि के पट्टधर सुविहित-मुनिचूडामणि और कुमतरूपी अंधकार को मथन करने में सूर्य समान महिमा वाले श्री मानन्दविमलसूरि हुए। प्राचार्य प्रानन्दविमलसूरि का १५४८ में इडरगढ़ में जन्म, १५५२ में दीक्षा और १५७० में सूरिपद हुआ था। प्रानन्दविमलसूरि के समय में साधुनों में शिथिलता अधिक बढ़ गई थी, उधर प्रतिमा-विरोधी तथा साधु-विरोधी लुंपक तथा कटुक मत के अनुयायियों का प्रचार प्रतिदिन बढ़ रहा था। इस परिस्थिति को देखकर पानन्दविमलसूरिजी ने अपने पट्टगुरु प्राचार्य की आज्ञा से शिथिलाचार का परित्याग रूप क्रियोद्धार किया। आपके इस क्रियोद्धार में कतिपय संविग्न साधुनों ने साथ दिया, यह क्रिया-उद्धार आपने १५८२ के वर्ष में किया । प्रापकी इस त्यागवृत्ति से प्रभावित होकर अनेक गृहस्थों ने "लंकामत" तथा "कडुग्रामत" का त्याग किया और कई कुटुम्ब धनादि का मोह छोड़ कर दीक्षित भी हुए। तपागच्छ के प्राचार्य श्री सोमप्रभसूरिजी ने जेसलमेरु प्रादि मरुभूमि में जल-दौर्लभ्य के कारण साधुनों का विहार निषिद्ध किया था, उसको श्री आनन्दविमलसूरिजी ने चालू किया, क्योंकि ऐसा न करने से उस प्रदेश में कुमत का प्रचार होने का भय था। प्रतिषिद्ध क्षेत्र में भी प्रथम विद्यासागर गणि का विहार करवाया, क्योंकि कम उम्र से ही वे छद्र-छट्र की पारणा आचाम्ल से करने वाले तपस्वी थे। उन्होंने जेसलमेरु आदि स्थली 2010_05 Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [ पट्टावली-पराग में खरतरों, मेवात देश में वीजामतियों और सौराष्ट्र में मोरबी आदि स्थानों में लुंका आदि मतों के अनुयायी गृहस्थों को प्रतिबोध देकर उनमें सम्यक्त्व के बीज बोये, वीरमगांव में उपाध्याय पार्श्वचन्द्र को वाद में निरुत्तर करके बहुत से लोगों को जैन-धर्म में स्थिर किया। इसी प्रकार मालव देश में भी विहार कर उज्जैनी आदि नगरों में यथार्थ उपदेश से गृहस्थों को धर्म में स्थिर किया था। __ क्रियोद्धार करने के बाद श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने १४ वर्ष तक कम से कम षष्ठ तप करने का अभिग्रह रक्खा, पाप ने उपवास तथा छ? से २० स्थानक तप का पाराधन किया, इसके अतिरिक्त अनेक विकृष्ट तप करके अन्त में १५९६ में चैत्रसुदि में आलोचनापूर्वक अनशन करके नत्र उपवास के अन्त में अहमदाबाद नगर में स्वर्गवासी हुए। "सिरि विजयदारणसूरि-पट्टे, सगवण्णए अ ५७ अडवण्णे । सिरि हीरविजयसूरी, ५८ संपइ तवगणदिरिणदसमा ॥१९॥" श्री प्रानन्दविमलसूरि के पट्ट पर श्री विजयदानसू रिजी और विजयदानसरि के पट्टधर श्री हीरविजयसू रि तपागच्छ में सूर्य समान विचर रहे हैं ॥१६॥ श्री आनन्दविमलसूरि के पट्टधर श्री विजयदानसूरिजी ने खंभात, अहमदाबाद, पाटन, महेशाना, गन्धार बन्दर आदि अनेक स्थानों में सैकड़ों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठाएं की थीं, श्री विजयदानसूरिजी के उपदेश से ही बादशाह मुहम्मद के मान्य मंत्री गुलराज ने जो "मालिक श्री नगदल" कहलाता था, छः महीने तक शत्रुञ्जय पर का टेक्स माफ करवाया और सर्वत्र पत्रिका भेजकर नगर, ग्राम प्रादि के संघसमुदाय के साथ श्री शत्रुजय की यात्रा की थी। श्री विजयदानसूरि का वि. सं. १५५३ में जामला स्थान में जन्म, १५६२ में दीक्षा, १५८७ में सूरिपद और १६२२ में वडावली में भाराधनापूर्वक स्वर्गवास हुअा था। 2010_05 Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेव ] [ १५५ विजयदानसूरि के पटघर श्री होरसूरिजी का पालनपुर में १५८३ में जन्म, १५६६ में पाटन में दीक्षा, १६०७ में नाड़लाई में पण्डित पद, १६०८ में नाडलाई में बाचक पद श्रोर १६१० में सिरोही में प्राचार्य पद हुप्रा था । श्राचार्य श्री हीरसूरि ने सिरोही, नाड़लाई, श्रहमदाबाद, पाटन श्रादि नगरों में हजारों जिनबिम्बों की प्रतिष्ठायें की । श्रहमदाबाद नगर में लुकामत के प्राचार्य श्री मेघजी ने अपने २५ मुनियों के साथ श्री हीरसूरिजी के पास दीक्षा ली । प्राचार्य श्री हीरसूरिजी के उपदेश से बादशाह श्री अकबर ने गुजरात, मालवा, विहार, अयोध्या, प्रयाग, फतेहपुर, दिल्ली, लाहौर, मुलतान, काबुल, अजमेर और बंगाल नामक १२ सूबों में षाण्मासिक प्रमारिप्रवर्तन किया, "जजीया" टेक्स नामक कर बंद कर दिया । ! " सिर विजयसेर सूरि-प्पमुहेहि रोगसाहुवग्गेहि । परिकलिया पुहविले, विहरन्ता दितु में भद्दं ॥२०॥" श्री विजय हीरसूरि के पट्ट पर श्री विजयसेनसूरि हुए, श्री विजयसेनसूरि प्रमुख श्रनेक श्रमणवर्ग के साथ परिवृत पृथ्वीतल पर विचरते हुए, श्री विजयहीरसूरि मेरे लिये कल्याणकारक हों । इस प्रकार महोपाध्याय धर्मसागर गरिण विरचिता तपागच्छपट्टावली सूत्र - वृत्तिसहिता समाप्ता । यह पट्टावली श्री विजयही रसूरीश्वरजी के प्रादेश से उपाध्याय श्री विमलहर्षगणी, उपाध्याय श्री कल्याणविजयगरणी, उपा० श्री सोमविजयगणी, पं. लब्धिसागरगणी, प्रमुख गीतार्थो ने इकट्ठा होकर सं. १६४८ के मंत्र बदि ६ शुक्रवार को अहमदाबाद नगर में श्री मुनिसुन्दर कृतगुर्वावली, जीयां पट्टावली दुष्षमा संघ स्तोत्रयंत्रक आदि के प्राधार से सुधारी है, फिर भी इसमें जो कुछ शोधन योग्य हो उसको मध्यस्थ गीतार्थों को सुधार लेना चाहिये । पट्टावली संशोधन होने के पहले इसकी अनेक प्रतियां लिखी जा चुकी हैं. इसलिये उनको संशोधित पट्टावली के अनुसार शुद्ध करके फिर पढ़ना चाहिये, ऐसी श्री विजयही रसूरीश्वरजी महाराज की आज्ञा है । 2010_05 Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तपा-गापति - गुणा- पद्धति - कर्ता : उपाध्याय गुणविजय गणी "सिरि विजयसेरणसूरि-पट्ट गुणसढिमे 'अ'सटिअमे। सिरि विजयदेवसूरो, तवइ, तवगणे तरणितुल्लो ॥२१॥ सिरि विजयसोहसूरिपमुहेहिं रणेगसाहुवग्गेहि । परिकलिया पुहविनले, विहरता दितु मे भदं ॥२२॥" श्री विजयहीरसूरि के पट्ट पर ५६ वें श्री विजयसेनसूरि और विजयसेनसरि के पट्ट पर ६० वें श्री विजयदेवसूरि तपागच्छ में सायं समान तप रहे हैं ॥२१॥ विजयसिंहस रि प्रमुख अनेक साधुवर्गों से परिवत श्री विजयदेवस रि पृथ्वीतल पर विचरते हुए कल्याणकारी हों ॥२२॥ श्री हीरसरिजी के पट्ट पर श्री विजयसेनसरिजी हुए, आपका जन्म सं० १६०४ में नाडुलाई में हुआ था और सं० १६१३ में माता-पिता के साथ श्री विजयदानस रि के हाथ से दीक्षा हुई थी, श्री विजयहोरस रिजी ने इनको पढ़ाया और संवत् १६२८ में फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन अहमदाबाद में इनको सरि पद दिया गया था। एक समय श्री हीरविजयस रिजी श्री विजयसेनस रि के साथ राधनपुर में वर्षा चातुर्मास्य ठहरे हुए थे, उस समय लाहौर में रहे हुए श्री अकबर बादशाह ने विजयसेनस रि के गुणों का वर्णन सुना और उनको अपने पास बुलाने के लिये फरमान भेजा। तब अपने गुरु की आज्ञा सिर पर चढ़ाकर ____ 2010_05 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद ] [ १५७ पाटन प्रादि अनेक नगरों गांवों को पवित्र करते हुए आप पाबु पहुँचे । माबु को यात्रा कर सिरोही गए, सिरोहो के राजा श्री सुरनान ने अपका बड़ा सम्मान किया, वहां से क्रमशः श्री राणकपुर, वरकाणा पाश्वनाथ की यात्रा करते हुए अपनी जन्मभूमि नाडलाई होते हुए, मेड़ता, डोड़वारणा, वराट, महिम नगरादि में होते हुए लुधियाना पहुंचे । वहां पर रहे हुए शेख अबुल फजल के : तीजे फैजी नामक ने स रि को वंदन किया, श्रावकों की तरफ से प्राचार्य का होता हुअा सत्कार देखकर फैजो बहुत खुश हुप्रा और जल्दी से लाहौर पहुँच कर बादशाह का सर्व वृत्तान्त निवेदन किया, जिसे सुनकर बादशाह भी मिलने के लिये विशेष उत्कण्ठित हुना। क्रमशः विजयसेनसरिजी ने बादशाह की तरफ से दिए गए वादित्रादि ठाट के साथ लाहौर में प्रवेश किया और उसी दिन श्री शेखजी, रामदास प्रमुख पुरुषों द्वारा "काश्मीरी महल' नामक महल में बादशाह से मिले ' बादशाह भी प्राचार्यश्री को देखकर परम सन्तुष्ट हुअा और श्री हीरविजयस रिजी के वृत्तान्त के साथ मार्ग का कुशल वृत्त पूछा । प्राचार्य ने भो श्री हीरस रिजी की तरह से धर्मशीर्वाद देने का कहा, बादशाह खुश हुमा और विजयसेनस रिजी से आठ प्रवधान सुनने की इच्छा व्यक्त की · गुरु की आज्ञा से गुरु के शिष्य श्री (नन्दि) नन्दविजय पंडित ने बादशाह के सामने पाठ प्रवधान किये, जिन्हें देखकर बादशाह बहुत ही चमत्कृत हुप्रा । ... एक जैन प्राचार्य के सामने बादशाह का इतना झुकाव और सत्कार देखकर किसी भट्ट ने बादशाह के सामने जैन साधुत्रों की निन्दा की। उसने कहा- जैन लोग ईश्वर को नहीं मानते, सर्य को नहीं मानते इसलिए ऐसे साधुओं के दर्शन भी राजा को नहीं करने चाहिये । इत्यादि मुनकर बादशाह को मानसिक कोप तो हुप्रा परन्तु ऊपर से कुछ भी विकृति नहीं दिखाई, अन्य दिवस प्राचार्य के वहां जाने पर बादशाह ने भट्ट द्वारा कहो हुई बातें प्राचार्य के सामने प्रकृट की। प्राचार्य ने देखा कि किसी खल ने बादशाह को बहकाया है, यह सोचकर उन्होंने उन्हीं के शास्त्र से जगदीश्वर के स्वरूप का वर्णन किया। इसी प्रकार सर्य तथा गंगोदक के सम्बन्ध में भी प्राचार्य ने ऐसा वर्णन किया कि जिसे सुनकर बादशाह खुश हुप्रा और पहले से भी ___ 2010_05 Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ ] [ पट्टावली -पराग अधिक सन्मान किया और दुर्जनों की तरफ तिरस्कार दिखाया । बादशाह के प्राग्रह से प्राचार्य विजयसेनसूरिजी ने लाहोर में दो चातुर्मास्य किये भौर प्रसंग पाकर बादशाह को उपदेश देते रहे । एक समय पुण्योपदेश के प्रसंग पर प्रमुदित होकर बादशाह ने श्राचार्य को कुछ मांगने को कहा। यह सुनकर प्राचार्य ने कहा - हे बादशाह ! जगत् के प्राणियों का दुख भांगने वाले राजाओं को गाय, बैल, भैंसा, भैंस की हत्या, नाऔलाद का द्रव्य लेना और निरपराधी पशु-पक्षियों को कैद करना योग्य नहीं है- इन बातों का त्याग करना ही हमारे लिये संतोष का कारण है और शाही सम्पत्ति का भी कारण है। इस बात से तुष्टमान होकर शाह अकबर ने उपर्युक्त छ: बातों के निषेध का फर्मान लिखकर अपने राज्य के सर्व सूबों में भेजा और विजयसेन सूरिजी को भी उसकी नकल दी । इस वर्ष का वर्षा चातुर्मास्य श्री विजयहीरसूरिजी ने सौराष्ट्र मंडल में किया था, प्राचार्य श्री के शरीर में बाधा बढ़ रही थी, इसलिये अपनी तरफ से लेख देकर विजयसेन सूरजी के पास पत्रवाहक भेजा और अन्तिम मिलाप के लिये अपने पास बुलाया। गुरु की आज्ञा मिलते ही विजयसेनसूरिजी ने लाहौर से विहार किया और अविच्छिन्न प्रयाणों से पाटण तक पहुँचे, तब ऊना में श्री हीरसरि का स्वर्गवास होने की बात विजयसेनस रिजी ने सनी और आगे का विहार रोका । श्री विजयसेनसूरि द्वारा जो कुछ धार्मिक और जिनशासन की प्रभाबना के कार्य हुए, उनकी रूपरेखा नीचे दी जाती है : つ सं० १६३२ में चम्पानेरगढ़ में जिनप्रतिष्ठा की भोर सुरतबन्दर में श्री मिश्र चिन्तामरिण प्रमुख विद्वानों की सभ्यता में श्री विजयसेनसूरिजी ने विवाद में भूषण नामक दिगम्बर भट्टारकजी को जीता । राजनगर में अपने उत्तराधिकारी शिष्य श्री विद्याविजय को दीक्षा दी मोर प्रतिष्ठा कराई, गन्धार बन्दर तथा स्तम्भ तीर्थ में प्रतिष्ठा कराई और चातुर्मास्य भी खम्भात में किया, वजिया राजीया द्वारा वहां चिन्तामरिण पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा की । बाद में १६५४ में अहमदाबाद में जमीन में से 2010_05 Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १५६ निकली हुई विजयचिन्तामणि पार्श्वनाथ की मूर्ति शकन्दरपुर में स्थापित की, फिर उसी वर्ष में सा. मोटा की तरफ से अहमदपुर में प्रतिष्ठा की और दोसी लहुमा की तरफ से प्रतिष्ठा कराकर गुर्जर तीर्थों की यात्रा करते हुए, शत्रुञ्जय की यात्रार्थ गये । यात्रा के बाद वहां से लौटकर स्तम्भतीर्थ पाकर श्री विजयदेवस रि को सूरि पद दिया और दो वर्ष के बाद सं० १६५८ में पाटन में विजयदेवस रि को आपने गच्छानुज्ञा की। वहां से शंखेश्वर तीर्थ की यात्रा करते हुए आप राजनगर पधारे और चातुर्मास्य वहीं किया । आपके उपदेश से वहां के अनेक श्रावकों ने बड़े प्राडम्बर के साथ छ प्रतिष्ठा महोत्सव करवाये। राजनगर के निवासी संघवी सूर। ने प्रतगृह महमुदी की प्रभावना की और बाद में श्री आबु श्री राणकपुर आदि तीर्थों की यात्रा कर कुशलपूर्वक वापिस प्राचार्य के साथ संघ राजनगर आया। एक वर्ष में श्रावकों ने एक लाख महमुदी खर्ची । वहां से राधनपुर जाकर दो प्रतिष्ठाएं करवाई, स्तम्भतीर्थ में एक, अकबरपुर में एक और गन्धार बन्दर में दो प्रतिष्टायें करवा कर सौराष्ट्र के संघ के प्रत्याग्रह से सौराष्ट्र में पधारे । शत्रुक्षय की यात्रा कर उस प्रदेश में तीन चातुर्मास्य और साठ प्रतिष्ठाएँ करवा कर गिरनार की यात्रा को गये और जामनगर में वर्षा चातुर्मास्य किया। सौराष्ट्र से लौट कर श्री शंखेश्वर होते हुए राजनगर पहुँचे। वहां चातुर्मास्य किया और चार प्रतिष्ठाएँ करवाईं, एकन्दर श्री विजयसेनसूरिजी के हाथ से ५० प्रतिष्ठाएँ और हजारों जिनप्रतिमाओं का अजन विधान हुआ। श्री शत्रुक्षय, तारंगा, नारंगपुर, शंखेश्वर, पंचाशर, राणकपुर, पारासण, वीजापुर प्रादि स्थानों में अपने उपदेश द्वारा जीर्णोद्धार करवाये । श्री विजयसेनसूरिजी ने आठ साधुनों को वाचक-पद और १५० साधुओं को पंडित-पद दिये। कुल २ हजार साधु-समुदाय के ऊपर २० वर्ष तक नेतृत्व करके सं० १६७१ के ज्येष्ठ कृष्णा ११ को अकबरपुर में स्वर्गवासी? हुए। १. उ० मेघविजयजी ने पट्टावलो के अपने अनुसन्धान में विजयसेनसूरिजी का स्वर्ग वास खम्भात में ज्येष्ठ शुक्ला ११ को होना लिखा है। और "नमो दुर्वाररागादि०" इस योगशास्त्र के श्लोक के ७०० अर्थ बताने वाला विवरण और सूक्तावलि आदि ग्रन्थों की रचना की है। 2010_05 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ] [ पट्टावली-पराग - . श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर ६०वें पट्टधर तपागरण के सूर्य समान श्री विजयदेवसूरि तप रहे हैं। विजयदेवसूरि का जन्म सं० १६३४ में ईडरगढ़ में हुआ था था। सं० १६४३ में अपनी माता के साथ दीक्षा ली थी, स० १६५५ में पण्डिस-पद और सं० १६५६ में सूरि-पद तथा १६५८ में पाटन में गच्छानुज्ञा नन्दी हुई । अहमदाबाद, पाटन और स्तम्भतीर्थ में क्रमश: दो, चार और तीन प्रतिष्ठाएँ करवा कर आपने अपनी जन्मभूमि ईडरगढ़ में चातुर्मास्य किया। वहां पर बड़ी प्रभावना हुई । चातुर्मास्य के बाद वडनगर में वीरजिन की प्रतिष्ठा करवा कर राजनगर गए और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। इस समय दमियान ईडरगढ़ में मुसलमानों द्वारा ऋषभदेव प्रतिमा खण्डित हो गई थी, इसलिये वहां के श्रावकों ने उसी प्रमाण का नया जिन बिम्ब बनवा कर नडियाद की बड़ी प्रतिष्ठा में प्राचार्य विजयदेवसूर द्वारा प्रतिष्ठित करवा के ईडर के किले पर के चैत्य में स्थापित करवाया। एक समय वादशाह जहांगीर ने प्राचार्य विजयदेवपूरि के सम्बन्ध में कुछ विरुद्ध बातें सुनीं, इससे बादशाह ने खम्भात से बहुमानपूर्वकसूरिजी को अपने पास बुलाया, उनसे अनेक बातचीतें की जिन्हें सुनकर बादशाह को बड़ा सन्तोष हुमा और देवसूरि की विरोधी पार्टी की बातों से बादशाह के मन पर जो कुछ विपरीत असर हुआ था, बह मिट गया और बादशाह ने कहा – श्री हीरसूरिजी तथा विजयसेनसूरिजी के पट्ट पर सर्वाधिकार पाने के योग्य ये ही प्राचार्य हैं, दूसरा कोई नहीं, इत्यादि प्रशंसा करते हुए बादशाह ने उनको “जहांगिरी महातपा" यह बिरुद देकर शाही ठाट के साथ सूरिजी को अपने स्थान पहुँचवाया। ____ कालान्तर में विजयदेवसूरिजी गुजरात होते हुए, सौराष्ट्रदेशान्तर्गत दीवबन्दर गए। वहां के फिरंगी शासक ने आपको धार्मिक व्याख्यान देने की इजाजत दी, आप भी वहां २ वर्षाचातुर्मास्य कर जामनगर होते हुए शत्रुञ्जय को यात्रा करके खम्भात पधारे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया । चातुर्मास्य के बाद खम्भात से विहार कर सावलो स्थान में पहुंचे और ____ 2010_05 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ १६१ सूरिमन्त्र का तीन महीने तक ध्यान किया और वहीं चातुर्मास्य तथा २ प्रतिष्ठाएं करके ईडर गए। वहां तीन प्रतिष्ठाए' करवा कर संघ के साथ पारासरण आदि तीर्थों की यात्रायें करते हुए पोसीना गए, वहां के पुराने पांच मन्दिरों का उपदेश द्वारा जीर्णोद्धार करवाया। आरासरण के मूल नायक को प्रतिष्ठा योग्य समय में पुनः स्थापित किया। कालान्तर में आप फिर ईडर पधारे और कल्याणमल्ल राजा के पाग्रह से १६८१ में वैशाख सुदि ६ को विजयसिंहसूरि को प्राचार्य-पद देकर अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और चातुर्मास्य वहां ही ठहरे। ____ चातुर्मास्य के बाद आप विजयसिंहसूरिजो आदि परिवार के साथ आबु तीर्थ की यात्रा करके विहारक्रम से सिरोही पहुंचे और वर्षा चातुमस्यि वहां ही किया। आसपास के अनेक स्थानों के भाविक श्रावक वन्दनार्थ पाए और अपने-अपने नगर की तरफ विहार करने की प्रार्थनायें की, उनमें सादड़ो के श्रावक भी थे। उन्होंने लुम्पक मत के अनुयायियों के प्रचार की बात कह कर, फरियाद करते हुए कहा - हमारे नगर में लुकामत का प्रचार जोरों से बढ़ रहा है और हमारा समुदाय निर्बल हो रहा है । इस पर से प्राचार्यश्री ने अपने पास के गोतार्थो को सादडो भेजा और उन्होंने बहां जाकर लंका के वेशधारियों को ललकारा और निरुत्तर किया। वहां से गीतार्थ उदयपुर पहुँचे और मेवाड़ के राणा कर्णसिंह के पास जाकर राणाजो को अपनी विद्वत्ता से सन्तुष्ट करके उनको राजसभा में लुम्पक वेशधारियों को शास्त्रार्थ के लिये बुलवाया और राजसभा समक्ष लुम्पकों को पराजित करके राणाजी को सही वाला प्राज्ञा-पत्र लिखवाया कि तपागच्छ वाले सच्चे हैं और लुंके झूठे हैं, गणाजी का यह पत्र सादड़ी के चौक में पढ़ा गया और लुंकों का प्राबल्य हटाया। ____ इसके बाद जोधपुर के राजा श्री गजसिंहजी के मन्त्री जयमल्लजी ने श्री विजयदेवसूरिजी को जालोर बुलाया और बड़े आडम्बर के साथ एकएक वर्ष के अन्तर में तीन प्रतिष्ठाएँ तथा तीन चातुर्मास्य करवा कर सुवर्णगिरि के ऊपर तीन चैत्यों की प्रतिष्ठाए करवाई। 2010_05 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ ] [ पट्टावलो-पराग सं० १६८४ में मन्त्री जयमल्लजी ने जालोर में श्री विजयसिंहमूरिजी की गच्छानुज्ञा नन्दी करवाई। बाद में मेड़ता नगर में तीन प्रतिष्ठाए करवा कर बीजोवा में चातुर्मास्य किया । गच्छ के गीतार्थो के उपदेश से खुश होकर राणा श्री जयसिंहजी ने पौष-दशमी के मेले पर पाने वाले यात्रियों से लिया जाने वाला मुडका के रूप में यात्रिक कर माफ किया। अपनी प्राज्ञा ताम्र-पत्र में खुदवा कर गुरु को भेंट किया तथा पत्थर पर खुदवा कर मन्दिर के बाहर पत्थर खड़ा किया। बाद में राणपुर आदि को यात्रा कर झाला श्री कल्गरणजी के आग्रह से मापने मेवाड़ में विहार किया और खमणोर में दो, देलवाड़ा में एक, नाही गांव में एक और प्राघाट नगर में एक, ऐसी ५ प्रतिष्ठा करा कर उदयपुर में चातुर्मास्य किया। चातुर्मास्य पूर्ण होने के बाद गुजरात की तरफ विहार करते समय माप दल-बदल महल में ठहरे जहां राणा श्री जगत्सिहजी प्राचार्य को वन्दन करने आए और देर तक उपदेश सुना । परिणामस्वरूप राणाजी ने श्री विजयदेवसूरि के सामने चार बातों की प्रतिज्ञा की, वह इस प्रकार हैं - माज से पिछौला तथा उदयसागर तालाब में मछली नहीं पकड़ो जायगो १, राज्याभिषेक के दिन, गुरुवार को, जीवहिंसा बन्द रहेगी २, अपने जन्ममास भाद्रवा में जीवहिंसा नहीं होगी ३, मचिदगढ़ में, कुम्भलविहार जिन चैत्य का जीर्णोद्धार कराया जायगा ४ । राणाजी की उक्त ४ प्रतिज्ञाएँ सुनकर लोगों को बड़ा प्राश्चर्य हुआ। प्राचार्य के लोकोत्तर प्रभाव पर विश्वास पाया । मालवमण्डल में उज्जैनी आदि में, दक्षिण देश में बीजापुर, बुरहानपुर प्रादि में, कच्छ में भुजनगर आदि में, मारवाड़ में जालोर, मेड़ता, घंघानी प्रादि गांवों में जीर्णोद्धारपूर्वक सैकड़ों जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा कराते अनेक साधुनों को पण्डित-पद तथा पाठक-पदों पर स्थापित करते और जीव हिंसादि के निषेध नियम कराते हुए विचरे । "तपगरणगणपतिपद्धति - रेषा गुणविजयवाचकैलिलिखे । गन्धारवन्दिरीय-श्रावक सा० मालजी तुष्ट्यं ॥१॥" ___ 2010_05 Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ पलावली सूत्रवृत्ति अनुसन्धित पूर्ति दूसरी - उपाध्याय मेघविजयजी विरचिता दाक्षिणात्य संघ का प्रत्याग्रह जानकर श्री विजयदेवसूरिजी गुजरात से विहार कर सूरतबन्दर पहुँचे, वहां सं० १६८७ में उत्पन्न हुए सागरमत के अनुयायी श्रावकों ने यह मत सत्य है, ऐसा गुरुमुख से कहलाने के लिये बहुत धन ब्यय करके श्री मीर मौज नामक शासक को अपने अनुकूल कर अपनी तरफ के गोतार्थो को बुलवा कर श्री विजयदेवसूरिजी से वाद शुरु करवाया । सूरिजी ने भी सागरमत को प्ररूपणा सूत्रविरुद्ध होने से यथार्थ नहीं है, ऐसा प्रामाणिक पुरुषों की सभा में राजा के समक्ष गीतार्थों द्वारा सागरपाक्षिक गीतार्थों को परास्त करवाया, सभाजनों ने विजयदेवसूरि के जीतने का निर्णय दिया। राजा ने आचार्य का सन्मान किया, वहां से सूरिजो दक्षिण में विचरे । बीजापुर में आपने कुल ४ चातुर्मास्य किये । वहां के बादशाह श्री इद्दलशाह ने गुरु से धर्म का स्वरूप सुना और प्रतिज्ञा की कि जब तक गुरु महाराज यहां ठहरेंगे, तब तक यहां गोवध नहीं होने पाएगा । समुद्र तटवर्ती "करहेड़ पाश्वनाथ "कलिकुण्ड पार्श्वनाथ' प्रादि तीर्थों को यात्रायें करते हुए, विजयदेवसूरि ने उन देशों के लोगों को धर्म में जोड़ा, प्राखिर औरंगाबाद में चातुर्मास्य करके श्रापने खानदेश की तरफ विहार किया और बुरहानपुर में २ चातुर्मास्य किये, वहां से संघ के साथ श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ, श्री माणिक्य स्वामी की यात्रा करते हुए, तिलिंग देश में गोलकुण्डा के निकट भाग्यनगर में बादशाह श्री कुतुबशाह से मिले और उनकी सभा में तैलिंग ब्राह्राणों को वाद में जीत कर जैनधर्म की , 2010_05 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ] [ पट्टावलो-पराग व्यवस्थापना के लिये श्री बादशाह को खुश किया और उससे जरूरी प्राज्ञाए प्राप्त की। बाद वहां अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठायें करवाई। राजा-प्रतिबोध आदि से दक्षिणापथ में उनका विहार सर्वत्र सुगम हो गया। इतना ही नहीं, उस देश में सात प्रतिष्ठए और सात ही वर्षा-चातुर्मास्य करके उस प्रदेश में जैनधर्म का खासा प्रचार किया। दक्षिणापथ में विजयदेवसूरिजी ने ८० विद्वानों को पण्डित पद दिए और एक को उपाध्याय पद, फिर आप संघ के प्राग्रह से गुजरात में पधारे। __इधर श्री विजयसिंहसूरिजी ने भी गुरु-प्राज्ञा से मारवाड़, मेवाड़, मेवात आदि प्रदेशों में विचर राणा श्री जगत्सिंहजी को उपदेश देकर देश में जीवदया का प्रचार करवाया। जैन तीर्थों में उपदेश द्वारा १७ भेदी पूजा का प्रचार करवाया, मारवाड़ में मेड़ता नगर में एक प्रतिष्ठा कराई, किशनगढ़ में राठोड़वंशी श्री रूपसिंह महाराज के महामात्य श्री रायचंद के आग्रह से चातुर्मास्य किया और चातुर्मास्य के बाद मन्त्री द्वारा अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई। वहां पर पाल्हणपुर से आए हुए, श्री महेशदास के मन्त्री श्री सुगुणा ने सुवर्णमुद्रामों से पूजन कर गुरु को वन्दन किया, बाद में माल्यपुर, बुन्दी, चतलेर पार्श्व प्रमुख तीर्थों की यात्रा करते हुए प्राप जैतारण पधारे और वहां चातुर्मास्य करने के बाद आप स्वर्णगिरि को यात्रा कर अहमदाबाद पहुंचे और गुरु को वन्दन किया। गुरु के साथ मापने सं० १७०५ में ईडरगढ़ में प्रतिष्ठा करवाई और वहां पर देवसूरिजी की तरह विजयसिंहसूरिजी ने भी ६४ विद्वानों को पण्डित-पद पर स्थापित किया। वहां से क्रमशः पाटन, राजनगर प्रादि में चातुर्मास्य करते हुए१ खम्भात पहुंचे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। श्री विजयसिंहसूरि का सं० १६४४ में जन्म, १६५८ में व्रत, १६७२ में वाचक-पद और सं० १६८१ में सूरि-पद हुआ था। श्री विजयसिंहसूरिजी बड़े क्षमाशील और विवेकी थे। आप २८ वर्ष तक सूरि-पद पर रह कर १. सं०.१७०६ में लुकामत के पूज्य बजरंगजी के शिष्य लवजी से मुख पर मुंहपत्ति गांधने वाले ढुढ़कों की उत्पत्ति हुई। इसमें दो भेद हैं - षट्कोटिक और अष्टकोटिक । 2010_05 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद ] [ १६५ सं ० ० १७०८ में अहमदाबाद के निकटवर्ती नवीनपुर में आषाढ़ सुदि २ को स्वर्गवासी हुए । उन्नति की । समय आने पर अपना सं० १७१० में वैशाख सुदि १० को प्रतिष्ठित किया । विजयप्रभसूरि का बृत्तलेश निम्न प्रकार से है : प्राचार्य श्री विजयदेवसूरि अनेक देशों में विचरे और जिनप्रवचन की श्रायुष्य चार वर्ष का शेष जान कर श्री विजयप्रभसूरि को अपने पाट पर "सिरिविजयदेवपट्ट, पढ़मं जाओ गुरू विजयसीहो । सग्गगए तम्मि गुरु पट्टे विजयप्पहो सूरी ॥ १ ॥" श्री विजयदेवसूरि के पट्ट पर प्रथम श्री विजयसिंहसूरि उत्तराधिकारी हुए थे, परन्तु विजयदेवसूरि की विद्यमानता में ही उनका स्वर्गवास हो जाने से प्राचार्यश्री ने अपने पट्ट पर श्री विजयप्रभसूरि को प्रतिष्ठित किया । आचार्य श्री विजयप्रभसूरि का जन्म १६३७ में कच्छ देश के मनोहरपुर में हुआ था । सं० १६८६ में दीक्षा, १७०१ में पंन्यास - पद, सं० १७१० में प्राचार्य पद और संवत् १७१३ में भट्टारक- पद हुना था । विजयप्रभसूरि का श्रमरणावस्था का नाम "वीरविजय" था । गान्धार बन्दर में आचार्य-पद पर स्थापित करके श्री विजयदेवसूरिजी ने "विजयप्रभसूरि" नाम रक्खा। वहां से विचरते हुए विजयदेवसूरिजी नवीन श्राचार्य के साथ सूरत पहुँचे और वर्षा चातुर्मास्य सूरत में किया, सूरत के बाद अहमदावाद जाकर वर्षा चातुर्मास्य किया और चातुर्मास्य के बाद वहीं पर विजयप्रभसूरि को गणानुज्ञा की, बाद में एक चातुर्मास्य अहमदपुर में करके विजयदेवसूरिजी विजयप्रभसूरि के साथ शत्रुञ्जय की यात्रा के लिये सौराष्ट्र की तरफ पधारे और संघ के साथ यात्रा करके सौराष्ट्रीय संघ के श्राग्रह से ऊनापुर गए । क्रमशः सं० १७१३ में आषाढ़ शुक्ला ११ को श्री विजयदेवसूरिजी ने स्वर्ग प्राप्त किया । आचार्य श्री विजयप्रभसूरि ने सौराष्ट्र में १० वर्षा चातुर्मास्य किए, ० १७१५, १७१७ और सं० १७२० इन तीन वर्षो में गुजरात नादि सं० 2010_05 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [पट्टावली-पराग देशों में दुष्काल पड़े, पर सौराष्ट्र में उसका प्रसार नहीं हुआ । सं० १७२३ में घोघा बन्दर में अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाई और इसके बाद अहमदाबाद नगर के संघ के प्राग्रह से आपने गुजरात की तरफ विहार किया। सिरिविजयरयणसूरि-पमुहेहि रणेगसाहुबग्गेहि । परिकलिया पुह विमले, सूरिवरा दिन्तु मे भई ॥४॥' श्री विजयरत्नसूरि प्रमुख अनेक साधु-वर्गो से परिवृत पृथ्वीतल पर विचरते श्री विजयदेवसूरि के पट्टधर श्री विजयप्रभसूरि कल्याणप्रद हों; जिनके गुजरात, मारवाड़, मालवा, मेवाड़, मेवात, कच्छ, हालार, सौराष्ट्र, दक्षिणादि देशों में तपःतेज के प्रताप से धर्मकार्य निर्विघ्नता से हो रहे हैं। "श्रीविजयप्रभसूरे - रुपासकः श्री कृपादिविजयानाम् । विदुषां शिष्यो मेघः, संबन्धमिमं लिलेख मुदा ॥३॥" श्री विजयप्रभसूरि के चरणसेवी और पण्डित श्री कृपाविजयजी के शिष्य मेघविजय ने पट्टावली का यह सम्बन्ध सहर्ष लिखा । ___ 2010_05 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडावलीसारोद्धार लेखक : रविवर्धन उपाध्याय आचार्य श्री विजयप्रभसूरि सं० १७२६ में उदयपुर गए, उदयपुर में प्रतिष्ठा कराकर मेवाड में दो चातुर्मास्य किये, फिर मारवाड़ में गए और सं० १७३२ में नागौर नगर में श्री विजयरत्नसूरि को अपना पट्टधर कायम किया और मेड़ता नगर में वर्षा चातुर्मास्य ठहरे, बाद में मेवाड़ मेवात, मारवाड़ देश में धर्म का प्रचार करते हुए, सं० १७३६ में गुजरात गये और श्री पाटन नगर में वर्षा चातुर्मास्य किया, प्राचार्य श्री विजयरत्नसूरिजी के दोनों प्रकार के भाई पं० विजयविमलगणि के वाचनार्थ उपा० रविवर्द्ध नगणि ने इस पट्टावलीसारोद्धार का उद्धार किया। इस पट्टावली के नीचे की अनुपूर्ति : __५६ श्री विजयसेनसूरि, ६० राजसागरसूरि, ६१ वृद्धिसागरसूरि, ६२ लक्ष्मीसागरसूरि, ६३ कल्याणसागरसूरि । श्री गुरुपट्टावल -अनुपूर्ति : विजयरत्नसूरि का पालनपुर में जन्म सं० १७२२ में, दीक्षा सं० १७३२ में, प्राचार्य-पद १७५० में सूरिपद (गणानुज्ञा) सं० १७७३ के भाद्रपद वदि ३ को, उदयपुर में स्वर्गवास । विजयरत्नसूरि के पट्ट पर ६४ वें विजयक्षमासूरि, इनका जन्म पाली में, सं० १७३८ में दीक्षा, सं० १७७३ में सूरिपद, भौर सं० १७८५ में चैत्र सुदि ५ को मांगलोर में स्वर्गवास । 2010_05 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ ] [ पट्टावली -पराग विजयक्षमासूरि के पट्ट पर ६५ वें विजयदयासूरि का दीवनगर में प्राचार्य पद, सं० १७८२ में पौ०, और विजयदयासूरि के पट्ट पर ६६ वें विजयधर्मसूरि, विजयधर्मसूरि के पट्ट पर श्री ६७ जिनेन्द्रसूरि प्रोर जिनेन्द्रसूरि के पट्ट पर श्री ६८ वें देवेन्द्रसूरि देवेन्द्रसूरि के पट्ट पर ६६ श्री धरणेन्द्रसूरि धरणेन्द्रसूरि के पट्ट पर ७० विजयराजसूरि, विजयराजसूरि के पट्ट पर ७१वें विजयमुनिचन्द्रसूरि और मुनिचन्द्र के पट्टधर ७२ वें श्री विजय कल्याणसूरि । 2010_05 Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री बृहत्पौषधशालिक- पहाक्ली "सथिसिरिसिद्धिसयरणं, गमिऊरणं बद्धमाजिरगनाहं । गुरुपरिवाडीहेडं, तहेव सिरिइदभूइगुरु ॥१॥ गुरुपरिवाडि बुच्छ, तत्थेव जिरिंणदवीरदेवस्स । पट्टोदयपढमगुरू, सुहम्मनामेण गणसामी ॥२॥" 'कल्याण लक्ष्मी तथा सिद्धि के कुलगृह समान और गुरुपरम्परा के हेतु ऐसे वर्द्धमान जिननाथ को तथा श्री इन्द्रभूति गुरु को नमन करके गुरुपरम्परा को कहूंगा, जिनेन्द्र वीरदेव के पट्ट पर तथा शासनोदय में प्रथम गुरु सुधर्मा नामक गण के स्वामी हुए ।१२।' "धोनो गरगवइ जंबू, पभयो तइप्रो गरणाहिवो जयइ । सिरि सिज्जभवसामी, मसभद्दी दिसउ भद्दारिण ॥॥ संभूइविजयसूरि, सुभद्दबाहू य - थूलभद्दो प्र । अन्ज महागिरिसूरी, अज्ज सुहत्थी दुवे पट्टे ॥४॥" 'गणधर सुधर्मा के बाद दूसरे गणाधिपति जम्बू और तीसरे गणाधिपति आर्य प्रभव जयवंत हुए, प्रार्य प्रभव के बाद श्री शय्यम्भव स्वामी और शय्यम्भव के पट्टधर श्री यशोभद्र कल्याणप्रद हों, यशोभद्र के पट्टधर श्री संभूतिविजयसूरि और भद्रबाहु प्राचार्य हुए और इन दोनों के पट्ट पर प्राचार्य स्थूलभद्र हुए, स्थूलभद्र के पट्ट पर आर्य महागिरि और प्रार्य सुहस्ती दो पट्टधर हुए ।३।४।' "सुट्ठिय-सुप्पडिबुद्धा, कोडिन-काकंदिगा गणाभिषखा। सिरिईददिन-दिन्ना, सीहगिरी वयरसामी अ॥५॥ ___ 2010_05 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] [ पट्टावली-पराग - "सिर वज्जसेगसूरी, कुलहेऊ चंदसूरितप्पट्ट । सामंतभद्दसुगुरू, वरणवास रुईविरायेण ॥६॥" 'प्रार्य सुहस्ति के पट्ट पर कोटिक और काकन्दिक सुस्थित सुप्रतिबुद्ध हुए जिनसे गण का नाम “कोटिक' प्रसिद्ध हुआ, सुस्थित सुप्रतिबुद्ध के पट्ट पर श्री इन्द्रदिन्न, इन्द्रदिन्न के पट्ट पर श्री दिन, श्री दिन के पट्ट पर श्री सिंहगिरि, सिंहगिरि के पट्ट पर वज्रस्वामी और वज्रस्वामी के पट्ट पर श्रो वज्रसेनसूरि हुए । वज्रसेन के पट्ट पर श्री चन्द्रकुल के हेतृभूत श्री चन्द्रसूरि, चन्द्रसूरि के पट्ट पर सामन्तभद्र गुरु हुए, जो वैराग्यवश वनवासरुचि होने से “वनवासी" कहलाए ।५।६।।' "सिरिवुड्डदेवसूरी, पज्जोयरण - मारणदेव मुरिगदेवा । सिरिमारणतुंगपुज्जो, वीरगुरू जयउ जयदेवो ॥ ७ ॥ देवाणंदो विक्कम - नरसिंह - समुद्द - मागदेववरा। विबुहप्पहाभिहारणो, युगप्पहाणो जयाणंदो ॥८॥" 'श्री समन्तभद्र के पट्टधर श्री वृद्धदेवसूरि, वृद्धदेव के पट्टधर प्रद्योतनसूरि, प्रद्योतनसूरि के पट्टधर मानदेवसूरि, रूप से देव स्वरूप हुए, श्री मानदेव के पट्टधर श्री मानतुंगसूरि पूज्य हुए, मानतुंग के पट्ट पर वीरसूरि, वीरसूरि के पट्टधर जयदेव हुए, जयदेव के पट्ट पर देवानन्दसूरि, देवानन्द के पट्ट पर विक्रमसूरि, विक्रमसूरि के पट्ट पर नरसिंहमूरि, नरसिंहसूरि के पट्ट पर समुद्रसूरि, समुद्रसूरि के पट्ट पर मानदेवसूरि, मानदेवसूरि के पट्ट पर विबुधप्रभाचार्य और विबुधप्रभ के पट्ट पर युगप्रधान जयानन्दसूरि हुए ।७८॥' "सिरिरविपहरिदो, जसदेवो देवयाहिं दीवंतो । पज्जुन्नसूरि पुरण मारण-देवसिरि विमलचंदगुरू ॥६॥ उज्जोयणो य सूरी, वडगच्छो सव्वदेवसूरि पहू । सिरिदेवसूरि तत्तो, पुरगोवि सिरिसबदेवमुरणी ॥१०॥" 'जयानन्दसूरि के पट्टधर श्री रविप्रभसूरि, रविप्रभ के पट्टधर यशोदेवसूरि हुए, जो सूरिमन्त्र के अधिष्ठातृ देवों से देदीप्यमान थे। यशोदेव के ___ 2010_05 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय- परिच्छेद ] [ १७१ पट्ट पर प्रद्युम्नसूरि, प्रद्य ुम्नसूरि के पट्टधर फिर मानदेवसूरि और मानदेवसूरि के पट्ट पर विमलचंद्रसूरि हुए। विमलचन्द्र के पट्टधर उद्योतनसूरि श्री उद्योतनसूरि के पट्ट पर वटगच्छ-प्रवर्तक सर्वदेवसूरि, सर्वदेवसूरि के पट्ट पर श्री देवसूरि श्रौर देवसूरि के पट्ट पर फिर सर्वदेवसूरि हुए 8|१०|' "जेण य अट्ठायरिया, समयं सुत्तत्यदायमा ठविना । तत्थ धरणेसर सूरी, पभावगो वीरतित्थस्स ॥ ११ ॥ खवरणारणं सत्तसया - एगुच्चि दिक्खिया सहत्थे । चित्तपुरि जिरण वीरो पट्टिश्रो चित्तगच्छो य ॥ १२॥" 'जिन द्वितीय सर्वदेवसूरि ने सूत्र और अर्थ के देने वाले प्राठ मुनियों को प्राचार्य पद पर स्थापित किया, जिनमें भगवान् महावीर के शासनप्रभावक धनेश्वरसूरि भी एक थे । इन्हीं धनेश्वरसूरि ने ७०१ दिगम्बर साधु एक साथ अपने शिष्य बनाये थे, चैत्रपुर नगर में वीर जिन की प्रतिष्ठा करने से इनका समुदाय " चैत्रगच्छ" के नाम से प्रसिद्ध हुआ || ११|१२|| ' "तत्थ सिरिचित्सगच्छे, तो गरणी भुवरणचंद तप्पट्टे । जावज्जीवं बिल - तबकररणाभिग्गहा उग्गा ॥ १३ ॥ " श्रीबालगोव सुपसिद्ध-सुद्ध संपत्त "तबगरगाभिक्खा" । सिरिदेव भद्दगुरुरणो, जगचंदो तप्पढम सोसो ॥१४॥” 'उस श्री चैत्रगच्छ में घनेश्वरसूरिजी के पट्ट पर भुवनचन्द्र प्राचार्य हुए और भुवनचन्द्र के पट्ट पर यावज्जीव आयम्बिल तप करने के प्रतिग्रहवान् उग्रविहारी श्री देवभद्र गुरु हुए, जिनसे बाल गोपाल सुप्रसिद्ध सुद्ध संयमवान् " तपागरण" की प्रसिद्धि हुई, उन देवभद्र गुरु के प्रथम शिष्य " जगच्चन्द्रसूरि" हुए | १३|१४|| ' "देविद - विजयचंदा, गुरुबंधू खेम किति कित्तिधरो । गुरुहेमकलस पुज्जो, रयणायरसूरिणो सधा ॥ १५॥ यह मरिसेहर - गुरुरणो सिरिधम्मदेवन । खससी । अभय सिंहवस, जयनिलया रयणसिंहगुरु ॥१६॥" 2010_05 Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [ पट्टावलो-पराग ___ 'जगच्चन्द्रसूरिजी के दो शिष्य हुए, प्राचार्य देवेन्द्रसूरिजी और विजयचन्द्रसूरिजी । इन दो गुरु-भाइयों में से विजयचन्द्रसूरि के पट्टवर श्री क्षेमकीतिसूरि हुए, जिन्होंने 'बृहत्कल्प' पर टीका लिखकर अपनी कीर्ति का विस्तार किया। क्षेमकीर्ति के पट्ट पर हेमकलशसूरि हुए, हेमकलश के पट्टधर श्री रत्नाकरसूरि हुए, जो सच्चे रत्नाकर थे। रत्नाकरसूरि के पट्ट पर श्री रत्नप्रभसूरि, रत्नप्रभ के पाट पर श्री मुनिशेखरसूरि, मुनिशेखर के पट्ट पर धर्मदेवसूरि हुए, धर्मदेवसूरि के पट्ट पर ज्ञानचन्द्रसूरि, ज्ञानचन्द्र के पट्ट पर श्री अभयसिंहसूरि, अभयसिंह के पट्ट पर श्री जयतिलकसूरि हुए, जयतिलकसूरि के पट्ट पर रत्नसिंहसूरि हुए ॥१५।१६।।' "सिरिउदयवल्लहा पुरण, सच्चत्था नारगसायरा गुरुरणो। सिरिउदयसायरा वि य, लद्धिवरा लद्धिसायरया ॥१७॥ सिरिधरणरयणगरणाहिब, अमरानो रयरणतेप्रो रयणा । गुरुभायरा गुणन्नू, सूरिवरो देवरयरणो य ॥१८॥" 'प्राचार्य रत्नसिंह के पट्ट पर श्री उदयवल्लभसूरि और उदयवल्लभ के पट्ट पर नामानुरूप गुण वाले श्री ज्ञानसागरसूरि, ज्ञानसागर के पट्टधर उदयसागरसूरि, उदयसागर के पट्टधर लब्धिधारी श्री लब्धसागरसूरि, लब्धिसागर के पट्ट पर श्री धनरत्नसूरि, धनरत्न के पट्ट पर श्री अमररत्नसूरि और श्री तेजरत्नसूरि गुरुभ्राता थे, अमररत्नसूरि ने चार विद्वानों को प्राचार्य बनाया था, जिनके नाम – तेजरत्नसूरि, देवरत्नसूरि, कल्याणरत्नसूरि और सौभाग्यरत्नसूरि थे ।। १७:१८॥' "सिरिदेवसुंदराभिहा, विहरंता विजयसुन्दरा गुरुणो। चिरजीविणो हवंतु, जिरणसासरणभूसरणा परमा ॥१६॥ घणरयरणसूरिसीसा, विबुहवरा भाणुमेरुगणिपवरा । माणिकरयणवायग, - सीसा लहुभायरा तेसि ॥२०॥ नयसुंदराभिहारणा, उवज्झाया सुगुरुचरणकमलाई । पणमंति भत्तिजुत्ता, गुरुपरिवाडि पयासंता ॥२१॥" 2010_05 Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ १८१ - आजकल "श्री चन्द्रगच्छ” "बृहद्गरण" और "तपागण" इन नामों से गच्छ व्यवहृत होता है, जब कि पूर्वकाल में कोटिक गच्छ में "चान्द्रकुल" और “वाजी शाखा" ऐसी प्रसिद्धि थी। प्राजकल श्री देवेन्द्र सूरि, विजयचन्द्रसूरि और देवभद्र वाचक “तपागरण' के भूषण रूप हैं। प्राचार्य जगच्चन्द्रसूरि चारित्र-धर्म को ऊंचा उठाने में सहायक मित्र समान श्री देवभद्र गणि का बहुमान करते हैं और गुरु की तरह इनकी गणना करते हैं, तब संविग्र देवभद्र गरिण भी अपने परिवार के साथ श्री जगच्चन्द्रसूरि को हर्षपूर्वक अपना गुरु मानते हैं। श्री जगच्चन्द्रसूरिजी के पट्टधर श्री देवेन्द्रसूरि के विद्यानन्दादि अनेक विद्वान् शिष्य हुए, तब लघुशाखा में श्री विजयचन्द्रसूरि के पट्ट पर तीन प्राचार्य हुए, श्री वज्रसेनमूरि १, श्री पद्मचन्द्रसूरि २ और श्री क्षेमकीर्तिसूरि । प्राचार्य क्षेमकीर्तिसूरि ने सं० १३३२ में “बृहत्कल्प" की टीका बनाई। क्षेमकीति के बाद हेमकलशसूरि, हेमसूरि के पट्ट-भूषण यशोभद्रसूरि हुए, । यशोभद्रसूरि के पट्टधर रत्नाकरसूरि और रत्नाकरसूरि के शिष्य रत्नप्रभसूरि हुए । रत्नप्रभ के शिष्य मुनिशेखर, मुनिशेखरसूरि के शिष्य धर्मदेवसूरि, धर्मदेव के श्री ज्ञानचन्द्र सूरि, ज्ञानचन्द्र के श्री अभयसिंहसूरि, श्री अभयसिंहसूरि के हेमचन्द्रसूरि, हेमच द्रसूरि के जयतिलकसूरि, जयतिलक के जिनतिलकसूरि और जिनतिलकसूरि के माणिक्यसूरि नामक प्राचार्य हुए। ये सब गुणवन्त आचार्य थे, फिर भी दुष्षमकाल के प्रभाव से अपनी शाखा का पार्थक्य मानने वाले थे। गुणवन्त आचार्य श्रीसंघ के कल्याणकर्ता हों। प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरिजी तक वृद्ध शाखा से लघु शाखा को भिन्न हुए करीब आठ-नौ पीढ़ी हो चुकी थीं, फिर भी वृद्ध शाखा की प्राचार्यपरम्परा पर उनका कितना सद्भाव था। वह ऊपर के निरूपण से ज्ञात होता है। ___ 2010_05 Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बधु पौषधशालिक पहावली लघु पौषधशालिक पट्टावली के लेखानुसार प्राचार्य सूमतिसाधुसूरि ने हेमविमलसरि के अतिरिक्त श्री इन्द्र नन्दिमूरि और श्री कमलकलशसूरि को भी प्राचार्य-पद दिए थे, परन्तु उनको गच्छ नहीं सोंपा। हेमविमलसूरि का जन्म सं० १५२० के कार्तिक सुदि पूर्णिमा को, सं० १५२८ वर्षे श्री लक्ष्मीसागरसूरिजी के हाथ से दीक्षा; सं० १५४८ में पंचलाशा गांव में श्री सुमतिसाधुसूरिजी ने प्राचार्य-पद दिया। उस समय श्री इन्द्र नन्दिसूरि ने तथा कमलकलशसूरि ने अपने दो गच्छ जुदे किये। इन्द्रनन्दी का समुदाय "कुतुबपुरा" और कमलकलशसूरि का समुदाय "कमलकलशा" नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुतुबपुरा गच्छ में से "हर्षविनयसूरि" ने "निगममत" निकाला, जिसका दूसरा नाम "भूकटीया" मत भी था, परन्तु बाद में हर्षविनयसूरि ने "निगम-पक्ष" छोड़ दिया था। सं० १५७० वर्ष में डाभेला गांव में स्तम्भ-तीर्थ निवासी सोनी जीवा, जागा ने पाकर धूमधाम के साथ मानन्दविमलसूरिजी को प्राचार्य पद तथा दानशेखर एवं मारिणक्यशेखर गरिण को वाचक-पद दिया, एक साध्वी को महत्तरा-पद दिया । सं० १५७२ में ईडर से खम्भात जाने के लिए रवाना हुए । कपडवंज में बड़ी धूमधाम से प्रवेश उत्सव हुअा। किसी चुगलखोर ने बादशाह मुदाफर के पास वृत्तान्त पहुँचाया, बादशाह ने कपडवंज में बन्दे भेजे, गुरु पहले हो वहां से चुडेल पहुँच गये थे। रात को चुडेल से चल कर सोजितरा पहुंचे, सुबह चुडेल बन्दे पहुचे, ग्रामपति को पूछा - गुरु कहां है ? ___ 2010_05 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १८३ उसने कहा - हमें मालूम नहीं। बाद में प्राचार्य खम्भात पहुँचे, संघ ने प्रवेशोत्सव किया। चुगलीखोरों ने खोज करने वालों के पास पता भेजा और उन्हें बन्दीखाने में रक्खा। संघ से १२ हजार लेकर उन्हें छोड़ा। इस घटना से प्राचार्य को बड़ा दुःख हुप्रा । उन्होंने प्रायम्बिल तप करके सरिमन्त्राधिष्ठायक को याद किया, अधिष्ठायक का वचन हुमा, “माक्षेप करो, द्रव्य वापस मिल जायगा। बाद में शतार्थी पं० हर्ष कुल गणि, पं० संघहर्षगरिण, पं० कुशल संयम गणि और शीघ्रकवि शुभशील गणि प्रभृति चार गीतार्थो को चम्पकदुर्ग भेजा और वहां बादशाह के पास जाकर अपनी काव्य-कला से बादशाह को खुश कर संघ से लिया हुप्रा द्रव्य वापस करवाया। सं० १५७८ में पूज्य हेमविमलसूरि ने पाटन में चातुर्मास्य किया। उस वर्ष में पूज्य के आदेश से श्री प्रानन्दविमलसूरिजी कुमरगिरि में चातुर्मास्य कर रहे थे, वहां पूज्य की प्राज्ञा के बिना एक साध्वी को दीक्षा दी, जो अवस्था में छोटी थी। हेमविमलसूरिजी ने कहा - मेरी प्राज्ञा के बिना वीक्षा कैसे दी ? इसको छोड़ दो। इतना कहने पर भी प्रानन्दविमलसूरि ने छोड़ा नहीं और सिद्धपुर, सिरोही प्रादि स्थानों में चार चातुर्मास्य करके गुजरात में प्राकर श्री हेमविमलसूरि को बिना पूछे हो सं० १५८२ के बैशाख सुदि ३ को अलग उपाश्रय में ठहरे। वहां पर तैलधूसक योग से कपड़े मैले करके रहे। इसी प्रकार ऋषि-मतियों की प्रवृत्ति हुई। सं० १५८३ में प्राचार्य का बिसलपुर में चौमासा था, आसोज महीने में पूज्य के शरीर में वेदना उत्पन्न हुई, तब चौमासे में वटपल्ली से श्री मानन्दविमलसूरि को बुलाया और गुरु ने कहा – गण का भार ग्रहण कर, उन्होंने कहा - गण का भार ग्रहण करने को मेरी शक्ति नहीं है, तब गीतार्थ संघ के साथ श्री हेमविमलसूरिजी ने प्रानन्दविमलसूरि के समक्ष अपने पट्ट पर श्री सौभाग्यहर्षसूरि को प्रतिष्ठित किया। सं० १५८३ के आश्विन शुक्ल १३ के दिन हेमविमलतूरि स्वर्गवासी हुए । सं० १५८३ में ऋषिमत की उत्पत्ति हुई। द्विवन्दनिक गच्छ से आए राजविजयसूरि ने ऋषिमत से "लघुउपाश्रयक" मत निकाला। 2010_05 Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] [ पट्टावली-पराग ___ सौभाग्यहर्षसूरि का जन्म १५५५ में, सं० १५६३ में हर्षदान गणि को वड़नगर में वहराए और हेमविमलसूरिजी ने दीक्षा दो, सं० १५८३ के आश्विन सुदि १० को श्री हेमविमलसूरिजी ने अपने पट्ट पर स्थापित किया। ___सं० १५८६ के ज्येष्ठ सुदि ६ को सौभाग्यसूरि का गच्छनायक-पद महोत्सव किया। सं० १५६५ में पौष सुदि ५ गुरुपुष्य योग में पं० सोमविमल गरिण को वाचक-पद दिया। उसी वर्ष में ईडरगढ़ में श्री सौभाग्यहर्षसूरि ने ५०० जिनप्रतिमानों की प्रतिष्ठा की, सं० १५९६ में प्राप अहमदाबाद पधारे और चातुर्मास्य वहीं किया। श्रीसंघ ने १५६७ के पाश्विन सुदि ५ के दिन वाचक सोमविमल तथा सकलहर्ष मुनि को प्राचार्य पद दिए तथा दो को वाचक-पद दिए । उपाध्याय-पद विजयकुशल तथा विनयकुशल को। सं० १५६७ के कार्तिक सुदि १२ के दिन सौभाग्यहर्षसूरि स्वर्गवासी हुए। . सौभाग्यहर्षसूरि प्रोसवाश-वंशीय थे, उनके हाथ से ३०० दीक्षाए हुई थीं। ६० तत्पट्ट सोमविमलसरि - खम्भात के समीप कंसारीपुर में पोरवाल कुल में सोमविमल का जन्म हुआ था सं० १५७० में, सं० १५७४ के वैशाख शु० ३ को अहमदा. बाद में हेमविमलसूरि द्वारा दीक्षा, सं० १५६० के कार्तिक व० ५ के दिन गणि-पद, सं० १५६४ में सिरोही नगर में सौभाग्यहर्षमूरि के हाथ से फाल्गुण व० ५ दिने सोमविमल को पं० पद, गुरु के साथ वीजापुर गए । सं० १५६५ में वाचक-पद, १५६७ में सौभाग्यहर्षसूरि द्वारा अहमदाबाद में सूरिपद। सं० १५६६ में पाटन में चातुर्मास्य, चौमासे के बाद १६०० में कार्तिक शुक्ला प्रतिपदा के दिन पाटण के संघ के साथ शत्रुक्षय, गिरनार की यात्रार्थ गए। कानमदेश के वणचरा गांव में आपने पं० प्रानन्दप्रमोद गणि को वाचक-पद दिया, तब उपाध्याय आनन्दप्रमोद गणि ने गच्छ को 2010_05 Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद [ १२५ परिधापनिका दो। क्रम से आम्रपद्र नगर पहुँचे, वहां पं० विद्यारत्न गरिण को तथा विद्याजय गरिण को पं० पद दिया । क्रमशः १६०२ में अहमदाबाद चातुर्मास्य किया। सं० १६०५ में खम्भात में चातुर्मास्य किया और संघ समवाय मिलनपूर्वक सं० १६०५ के माघ शु० ५ के दिन गच्छाधीश पद की स्थापना हुई, सं० १६०८ में राजपुर में चातुर्मास्य ठहरे, सं० १६१० पाटन में फिर चातुर्मास्य किया और वैशाख शु० ३ के दिन जिनबिम्बों को प्रतिष्ठा की, सं० १६१७ में अक्षयदुर्ग में चातुर्मास्य ठहरे। सं० १६१६ में खम्भात में चौमासा किया, चातुर्मास्य के बाद नन्दुरबार गए और संघ के प्राग्रह से चातुर्मास्य वहीं किया, सं० १६२३ में ग्रहमदाबाद में मभिग्रह किया। सं० १५६६ वर्षे कातिक सुदि १५ का जन्म, १६०१ के कातिक सुदि १५ को दीक्षा और सं० १६११ में कार्तिक वदि ५ को पण्डित-पद, १६२५ पाटन में प्राचार्यपद और "आनन्दसोमसूरि" यह नाम रक्खा, सोमविमलसूरिजो ने गण को परिधापनिका दी। सं० १६३० में अहमदाबाद में मा० शु० ५ के दिन प्रानन्दसोमाचार्य को गणानुज्ञा हुई । उस समय में हससोम गरिण तथा देवसोम गणि को वाचक-पद दिए, सोमविमलजी की उपस्थिति में सं० १६३६ के भाद्र० वदि ६ को श्री मानन्दसोमसूरि स्वर्गवास प्राप्त हुए। बाद में हेमसोम को सूरि-पद दिया गया, सं० १६३७ में मार्ग. में सोमविमल सूरि स्वर्गवासी हुए। २०० साधुओं की दीक्षा इनके हाथ से हुई थी। ६१ श्री हेमसोमसूरि - सं० १६२३ वर्षे ढंढार प्रदेश में इनका जन्म, पोरवाल जाति के थे। १६३० में बड़गांव में सोमविमलसूरि द्वारा दीक्षा, गृहस्थ नाम हर्षकुमार था पौर दीक्षा नाम हेमसोममुनि रक्खा, १६३५ में पण्डित-पद १६३६ में वैशाख सुदि २ को मुनि हेमसोम को प्राचार्य-पद, प्रपने गच्छवासियों को एवं अन्यगच्छीय साधुओं को परिधापनिका दो और हेमसोमसरि गच्छाधिए घोषित किये गये। 2010_05 Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] 2010_05 ६२ विमलसोमसूरि ६३ विशालसोमसूरि ६४ उदयविमलसूरि ६५ गजसोमसूरि ६६ मुनीन्द्र सोमसूरि ६७ राजसोमसूरि ६८ श्रानन्दसोमसूरि ६९ देवेन्द्रविमलसूरि ७० तत्त्वविमलसोमसूरि पुण्यविमलसोमसूरि ७१ [ पट्टावली-पराग Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ -कमलकलश शाखा की पडावली लक्ष्मीसागरसूरि द्वारा प्राचार्य-पदप्रतिष्ठित । श्री रत्नशेखरसूरि ,, लक्ष्मी सागरसूरि ,, सोमदेवसूरि - ,, सुधानन्दनसूरि , सुमतिसुन्दरसूरि " राजप्रियसरि कमलकलशसूरि - जयकल्याणसूरि - सं० १५५५ से कमलकलश गच्छ चला। १५३६ के फाल्गुन सुदि १० को अचलगढ़ पर प्राग्वाट साह सहसा के मन्दिर के मूलनायक की प्रतिष्ठा की। , कल्याणसूरि , चरणसुन्दरमरि - ये भी अचलगढ़ की सं० १५६६ की प्रतिष्ठा में हाजिर थे। 2010_05 Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजविजयसूरि-गह की पहावली ५८ चे पाट पर श्री आनन्द विमलसूरि हुए, एक समय पाबु पर यात्रार्थ गये, सूरिजी तुर्मुख चैत्य में दर्शन कर विमल वसही के दर्शनार्थ गए, गभारा के बाहर खड़े दर्शन कर रहे थे, उस समय अर्बुदादेवी श्राविका के रूप में प्राचार्य के दृष्टिगोचर हुई, आचार्यश्री ने उसे पहिचान लिया मोर कहा-देवी ! तुम शासन भक्त होते हुए लुगा के अनुयायी जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाओं का विरोध करते हुए, लोगों को जैन मार्ग से श्रद्धाहीन बना रहे हैं, तुम्हारे जैसों को तो ऐसे मतों को मूल से उखाड़ डालना चाहिये, यह सुनकर देवी बोली-पूज्य ! में आपको सहत्रोषधि का चूर्ण देती हूं। वह जिसके सिर पर आप डालेंगे, वह प्रापका श्रावक बन जायगा पोर मापकी आज्ञानुसार चलेगा, इसके, बाद अबुंदादेवो आचार्यश्री को योग्य भलामण देकर अदृश्य हो गई, बाद में प्राचार्य वहां से विहार करते हुए विरल (विसल) नगर पहुंचे, वही श्री विजयदानसूरि चातुर्मास्य रहे हुए थे, वही माकर मानन्दविमलसूरिजी ने देवी प्रश्नादिक सब बातें विजयदानसूरिजी को सुनायी, जिससे वे भी इस काम के लिये तैय्यार हुए, वहां से पानन्दविमलसूरि और विजयदानसूरि अहमदाबाद के पास गांव बारेजा में राजसूरिजी के पास आए और कहा-हम दोनों लुका मत का प्रसार रोकने के कार्यार्थ तत्पर हैं, तुम भी इस काम के लिये तैयार हो जानो, यह कहकर श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने कहा मेरे पट्टधर विजयदानसूरि हैं ही मोर विजयदानसूरि के उत्तराधिकारी श्री राजविजयसूरि को नियत करके अपन तीनों प्राचार्य तपगच्छ के मार्ग की मर्यादा निश्चित करके अपने उद्देश्य के लिये प्रवृत्त हो जाएं, मानन्दविमलसूरिजी ने श्री राजविजयसूरि को कहा-तुम विद्वान् हो इसलिये हम तुम्हारे पास पाए हैं, लुकामति जिनशासन का लोप ___ 2010_05 Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय- परिच्छेद ] [ १८९ कर रहे हैं, मेरा श्रायुष्य तो अब परिमित है, परन्तु तुम दोनों योग्य हो, विद्वान् हो और परिग्रह सम्बन्धी मोह छोड़कर वही वट की वटियां जल में घोल दी हैं, सवामन सोने की मूर्ति अन्धकूप में डाल दी, सवा पाव सेर मोतियों का चूरा करवा के फेंक दिया है, दूसरा भी सभी प्रकार का परिग्रह छोड़ दिया है । श्री राजविजयसूरि ने सं० १५८२ में क्रियोद्धार करने वाले लघुशालिक प्राचार्य श्री आनन्दविमलसूरि के पास योगोद्वहन करके श्री राजविजयसूरि नाम रक्खा, बाद में तीनों आचार्यों ने अपने-अपने परिवार के साथ भिन्नभिन्न तीनों देशों में बिहार किया। श्री प्रानन्दविमलसूरिजी ने सर्वत्र फिरकर श्रावकों को स्थिर किया है, कई गांवों में प्रतिमानों की प्रतिष्ठा को नये जिनबिम्ब भरवाए, जैनशासन की महिमा बढ़ायी, सं० १५९६ तक बहुत से लुका के अनुयायी गृहस्थ तथा वेशधारक उपदेशक मूर्ति मानने वाले हुए, विचरते हुए आप सोरठ के सिपा गांव में प्राए, और वहां से प्राप अपना प्रन्तकाल निकट जान कर राजनगर आए और सं० १५६६ में गच्छ को मर्यादा निश्चित करके श्री श्रानन्दविमलसूरिजी स्वर्गवासी हुए । ५६ विजय दानसूरि : * विजयदानसूरिजी का वर्षा चातुर्मास्य प्रहमदाबाद में था, बाबार्य श्री राजविजयसूरि का चातुर्मास्य राधनपुर में था, चातुर्मास्य के उतरने पर श्री राज विजयसूरि श्री शंखेश्वर पाश्र्वनाथ की यात्रार्थ प्राए, यात्रा कर जब वे वापस जाने लगे, तब राजविजयसूरि के शिष्य पं० श्री देवविनय के संसारी सगे जो धामा में रहते थे उन्हें लेने प्राये देवविजय ने उनको कहा — गुरु भादि को छोड़कर मैं अकेला नहीं आ सकता, इस से श्रावक राजविजयसूरि के साथ उनको अपने गांव ले गए और मास कल्प कराया । धामा में श्रावकों के ७०० घर थे, वो सभी पूनमीया थे । जो प्राचार्य श्री के उपदेश से पूर्णिमा पक्ष को छोड़कर सभी चतुर्दशी को पाक्षिक करने लगे। वहां से सूयंपुर भौर जीजू वाड़ा आए, श्रावकों ने उत्साह सहित नगरप्रवेश कराया और एक गृहस्थ की डेहली में उतारे गांव में छापरीया - पूनमीया के दो उपाश्रय थे, 2010_05 Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] [पट्टावलो-पराग उनमें एक में पुराने स्थायी प्राचार्य रहते थे। प्रभात में श्री राजविजयसूरि ने व्याख्यान शुरू किया, तब उस प्राचार्य ने अपना शिष्य उनके पास भेजकर व्याख्यान देने की मनाही करवाई। कहलाया कि यहां सभी पूनमीया श्रावक हैं, चऊदसीया कोई नहीं, इस पर राजविजयसूरि ने कहा-हमने पूनमीयों को मिटाने के लिये व्याख्यान शुरु किया है । इस पर उस प्राचार्य ने कहा-हमारे गांव में तुम व्याख्यान नहीं दे सकते, इस प्रकार उन दोनों में खींचतान और विवाद हुमा, एक श्रावक ने वहां आकर श्री राजविजयसूरि को एकान्त में कहा--स्वामी ! माप इसको किसी प्रकार से गांव में से निकल वा दें, तो बहुत अच्छा हो, श्रावक की इस सूचना को पाकर राजविजयसूरि राजकुल में गए, वहां भाला राजपूत का राज्य था। गुरु को देख कर उसने प्रादर के साथ प्रणाम किया और पूछा-स्वामी ! दरबार में कैसे पधारे ? गुरु ने कहाहम आठम और चउदस को मानते हैं और यहां का रहने वाला प्राचार्य सातम और पूनम मानता है। यह सुनकर ग्रामाधीश ने कहा, इस बात का निश्चय कैसे किया जाय कि किसका मानना सत्य है ? तब राजविजयसूरि ने कहा-सूरज के कोठे में मूलदेव की प्रतिमा है, वह ठहरावे, वह सही। इस पर राजा प्रजा सर्व मूल आचार्य के साथ इकट्ठे हुए, स्थायी प्राचार्य को समरावाब की माता मोर वाविभा वीर प्रत्यक्ष था। तब राजसरि को चक्रेश्वरी प्रत्यक्ष थी। दोनों प्राचार्यों ने अपने-अपने इष्ट देवों का ध्यान किया और पाने पर कारण बताया । देव ने कहा-पाठम चउदस हमारी है-इसलिये इस सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कहेंगे, पुराने प्राचार्य ने मन में कहा-अब मेरा न चलेगा, दूसरे दिन राजा प्रादि सब सर्य के कोठे पर गए, वहां चक्रेश्वरी मे मूल देव की प्रतिमा में प्रवेश कर कहा, राजविजयसूरि जो कहते है वही तिथि सत्य है, पुराने प्राचार्य की तिथि सत्य नहीं । सभा समक्ष वह प्राचार्य झूठा पड़ा और रात में अपनी चीज सामान लेकर गुप्तरूप से पाटन चला गया, बाद में राजविजयसूरि को उपाश्रय में लेजाकर ठहराया, सर्व श्रावक वासक्षेप लेकर चउदसीए हुए, १०० घर प्रोसवालों के, श्रीमाली तथा पोरवाल आदि पादि सब तपा श्रावक बने। .. भी संघ की बीनती से पं० देवविजय मणि को चातुर्मास्य के लिए वहां रक्खा, गुरु ने विहार किया, वहां से मुजपुर जाकर चौमासा किया। ____ 2010_05 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १९१ उस समय उज्जैन में एक दिगम्बर भट्टारक रहता था। उसने मालव देश में तपा श्रावकों को दिगम्बर मत में खींच लिया था। उज्जनी का एक धनवन्त तपगच्छ का श्रावक जिसका नाम चमूपाल मन्त्री ताराचंद मोतीचंद था, उसने भट्टारक की बात नहीं मानी, इसलिये उसका न्यातिव्यवहार भट्टारक ने बन्द करवा दिया। श्रावक का भट्टा'कजी को कहना था कि मेरे गुरु गुजरात में विचरते हैं, उनको जीतो तो मैं तुम्हारा श्रावक बन जाऊं । भट्टारकजी ने कहा - तुम्हारे गुरु को यहां बुलायो । श्रावक ने कहा - मेरे वास्ते वे नहीं पायेंगे, मैं सिद्धाचल का संघ निकालू सो प्राप संघ के साथ चलें । मेरे गुरु भी प्राजकल शत्रुञ्जय की यात्रार्थ गये हुए हैं, इसलिये आप कहो तो संघ निकालू, तब भट्टारक ने स्वीकार किया । शा० ताराचन्द्र चमूपाल मन्त्री श्री शत्रुक्षय का संघ निकाल कर शत्रुञ्जय प्राया पोर पहाड़ पर संघ चढ़ रहा है, वहां विजयदानसूरिजी को नीचे उतरते हुए देखा। शा० ताराचंद मन्त्री ने उनको वंदन किया, तब . जीवाजी भट्टारक ने पूछा - क्यों ताराचन्द्र, यही तेरे गुरु हैं ? ताराचन्द्र ने कहा - यही मेरे गुरु हैं, तब जोगाजी भट्टारक उनके पास जाकर विजयदानसूरि से विवाद करने लगा । युक्तिप्रयुक्ति करते हुए, एक प्रहर बीत गया । पूज्य प्राचार्य के अट्ठम का तप था और वृद्धावस्था, इस कारण भट्टारक को कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया, इस पर भट्टारक ने कहा-अबे ताराचन्द ? तुम्हारे गुरु को हमने जीत लिया, अब तू मेरा श्र.वक हो जा, ताराचन्द ने कहा ये तो वृद्ध और तपस्वी महात्मा हैं। इनके पट्टधर प्राचार्य श्री राजविजयसरि को ज.तो, तो मैं आपका धावक हो जाऊँ । वह नकी करके वे ऊपर चढ़े, और विजयदानमरिजो नीचे उतरे, ताराचन्द यात्रा करके अपने मुकाम पाया पौर स्वस्थ होकर प्राचार्य महाराज के पास गया और अपनी तथा मालवा की परिस्थिति से उनको वाकिफ किया और कहा-माज तक तो में दिगम्बर नहीं हुआ, परन्तु अब मालवे में योग्य गीतार्थ न आएगे, तो सारा मालव देश दिगम्बर सम्प्रदाय का अनुयायो बन जाएगा इत्यादि सब वृन्तान्त कहने के बाद शा० ताराचन्द अपने सौंध के साथ वापस उज्जनी चला गया; इघर दानविजयस रिजी गुजरात पहुंचे और राजविजयस रि को मुंजपुर से जल्दी बुलाया और शा० ताराचन्द के मुंह से सुनी हुई सभी बातें, उनको 2010_05 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [ पडावली-पराग कहीं, जिनको सुनकर श्री राजविजयसूरिजी भी मालवे में जाने के लिये तैयार हुए। लगभग ७०० यतियों के साथ मालवा की तरफ विहार किया, स्थान-स्थान पर दिगम्बरीय सम्प्रदाय की बातों का खण्डन करते हुए और पीछे साधुओं को छोड़ते हुए, लगभग ३०० साधुओं के साथ उज्जैन पहुंचे। चमूपाल ताराचंद को खबर मिलने पर वह राजा के पास गया और कहा - हमारे गुरु आये हैं, उनको नगर-प्रवेश उत्सव के साथ कराना है, परन्तु यहां के वरिणक तो हमको साथ नहीं दगे। महरबानी करके माप पधार कर हमारे कार्य को पार करवाइयेगा। मन्त्री की बात सुनकर राजा ने अपनी तरफ से प्राचार्य महाराज का प्रवेश उत्सव करने का प्रबन्ध करवाया। हाथी, घोड़े, रथ सभी प्रकार के सामान से बड़े ठाट के साथ नगर-प्रवेश करवाया । दिगम्बर भट्टारक जीप्राजो ने जाना कि कोई पराक्रमी पुरुष है, इसो से राजा भी इनकी पेशवाई में सहकार कर रहा है। पग्लिक रास्ते पर भट्टारक जोपाजी की पौषधशाला पड़ती है, मिनट दो मिनट के लिये बाजे बन्द रहे, इस पर राजा ने बाजे न बन्द करने की प्राज्ञा दो और जुलूस प्रागे बढ़ा। नगर के खास रास्तों में होता हुआ, जुलूस राजा की हाथीशाला में उतरा। भट्टारक जीमाजी के मन पर इस धूमधाम का ऐसा प्रभाव पड़ा कि प्राचार्य के साथ सभा समक्ष विवाद कर इनको जीतना आसान नहीं है, यह सोच कर भट्टारकजी ने एक फूट पद्य बनाकर अपने पण्डित द्वारा राजविजयसूरिजी के पास पहुंचाया और कहलाया कि इस पद्य का अर्थ समझ सको तब तो हमारे साथ विवाद करने के लिये तैयार होना, अन्यथा पाये वैसे ही चले जाना। पद्य वाली चिट्ठी सब साधुनों ने पढ़ी परन्तु किसी को पद्य का अर्थ नहीं सूझा । पद्य वाला पत्र अपने पास मंगा कर राजविजयसूरिजी ने भट्टारक के पण्डित को कहा - सात दिन के भीतर इसका उत्तर दे देंगे। पण्डित चला गया, राजविजयसूरि ने उस श्लोक पर ध्यान लगा कर अर्थ-विचार किया, परन्तु कुछ पता नहीं लगा। एक बार तो वह निराश हो गए, परन्तु अन्त में उस पद्य का भेद उन्हें मिल गया, अपने ही एक सैद्धान्तिक अन्य के पद्यों के प्रथमाक्षरों को लेकर वह पद्य बनाया गया था। आचार्य ने उसका अर्थ निश्चय कर लिया। सातवें दिन पंडित ने माकर उस र लिया कर वह पञ्च बनअपने ही एक सही ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद - - श्लोक का प्रत्युत्तर मांगा, राजविजय सूरि ने कहा - चोर के साथ वाद क्या और प्रत्युत्तर क्या ? पण्डित बोला - जो चोर हो उसके नाक, कान, काट कर देश-निकाला करना चाहिये। उस समय बादशाह श्री बहादुरशाह का दीवान श्री राजविजयसूरिजी के पास बैठा था, उसकी हाजरी में राजविजयसूरि ने एक नया श्लोक लिख कर दोवान की मुहर लगवाई और पण्डित को देते हुए राजविजयसूरि ने पण्डित को कहा - लो, यह पत्र तुम्हारे भट्टारकजी को दे देना। चिट्ठी पढ़ कर भट्टारकजी ने जाना कि अपनी चोरी तो प्रकट हो गई है। हाँ, उत्तर पर दीवान की मुहर छाप भी हो गई है। अब यहां रहना सलामत नहीं, यह सोच कर भट्टारकजी अपना चीज-भाव लेकर उसी रात को वहां से चले गये। इस बात का पता लगने पर दूसरे दिन शा. ताराचन्द मन्त्री ने विजयराजसूरिजी को तपागच्छ के उपाश्रय में पधराये। इस बात का बहादुरशाह बादशाह को पता लगने पर उसने विजयराजसूरिजी को अपने पास बुलाया और उनका बड़ा सत्कार किया। बादशाह ने विजयराजसूरि से भनेक बातें पूछीं पोर सूरिजी ने उनका संतोषजनक उत्तर दिया । राजविजयसूरिजी ने मालवा में अनेक चातुर्मास्य किये और श्वेताम्बर जैन संघ को अपने धर्म में स्थिर किया। कहते हैं कि श्री राजविजयसूरिजी के पास एक कामदुधातर्पणी थी। उसमें जो पदार्थ भरते, प्रखूट हो जाता। राजविजयसूरिजी के पास हानर्षि और वानर्षि नामक दो गुगभाई पण्डित थे। उन्होंने श्री राजविजयसूरिजी से तर्पणी मांगी, तब राजविजयसूरिजी ने उसे देने से इन्कार कर दिया। हानषि, वानर्षि इस कारण से रुष्ट हो गये पौर राजविजयसूरि की चुगलियां खाने लगे। उन्होंने गच्छपति को लिखा - राजविजयसूरि यहां आकर बहुत ही शिथिलाचारी हो गए हैं, फिर भी उनके लेख पर विजयदानसूरिजी ने कोई ध्यान नहीं दिया, तब कालान्तर में उन्होंने गच्छपति को लिखा कि राजविजयसूरिजी का यहां मकस्मात् स्वर्गवास हो गया है। इस पत्र को पढ़ कर श्री विजयदानसूरिजी ने राजनगर में श्री हीरविजयसूरि को अपना पट्टधर बना लिया। श्री राजविजयसूरि को इस 2010_05 Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] [ पट्टावली-पराग - बात को कोई खबर तक नहीं मिली। वे मालवा से गुजरात की तरफ विहार करते हुए चांपानेर पाए और वर्षा चातुर्मास्य वहां ठहरे। चौमारे के बाद वे अहमदाबाद पा रहे थे, बीच में एक गांव में वे महीना भर ठहरे, तब अहमदाबाद बात पहुंचो। किसी ने जाकर विजयदानसरिजो को कहा - श्री राजविजयपूरि ने प्रापको वन्दना कही है, यह सुन कर विजयदानसूरिजी को बड़ा पश्चात्ताप हुअा। उन्होंने सोचा - मैंने एक यति की बात मानकर बड़ी भूल की। राजविजयसूरि के विद्यमान रहते दूसरा पट्टधर कायम कर दिया। राजविजयसूरिजी पाए और विजयदानसूरि को वन्दन किया, तब विजयदानसूरिजी ने हीरसरिजी से कहा - उठो प्राचार्य ! बड़े प्राचार्य को वन्दना करो। यह सुनकर राजविजयसूरि ने कहा - आपने यह क्या किया ? विजयदानसूरि ने कहा - तुम्हारा निर्वाण सुनकर मैंने यह कार्य किया है। अब मेरे पट्टधर तुम राजविजयसूरि और राजविजयसूरि के पाट पर हीरविजयसरि, इस प्रकार की व्यवस्था रहेगी। परन्तु राजविजयसूरि को यह व्यवस्था पसन्द नहीं पाई और वे नाराज होकर विजयदानसूरिजी के पास से ७०० यतियों के साथ चले गये, तब बोहकल संघवी ने उन्हें दूसरे उपाश्रय में उतारा और प्राग्रह करके वर्षा चातुर्मास्य भी वहीं करवाया। एक समय बोहकल संघवी की बहू श्री हीरविजयमूरिजी को वन्दन करने गई, तब हीरविजयसूरिजी ने कहा- पाइए राजविजयसूरि की श्राविका ! यह वचन सुनकर संघविन को गुस्सा आया और वन्दन किये बिना ही घर चली गई और प्रतिज्ञा को कि हीरविजयसूरि को वन्दना नहीं करूंगी, वह अट्टम का तप कर घर में बैठी रही, सघवी को पता लगने पर उसे पूछा, तब उसने सब बातें कहीं। सेठ ने समझा बुझाकर उसे पारणा करवाया, बोहकल संघवी, बादशाही सेठ, न्यात में अधिकारी था, ७०० घर संघवी के पीछे थे । श्री राजविजयसूरि के पास जाकर बोला-स्वामी आप श्री मानन्दविमलसूरि के शिष्य हैं, इसलिये हीरविजयसूरि के साथ न मिलें, तुम बड़े पट्टधर हो, ये छोटे हैं, अब राजविजयसूरि ने कहा-ये और हम एक ही हैं, ममता करके क्या करना है। तब संघवी ने कहा-संघविव ने नियम कर लिया ____ 2010_05 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १६५ है कि वह हीरविजयसरिजी को नहीं वांदेगी, पापको हमने शाह करके रक्खा, इस कारण से होरविजयसरिजी संघविन को राजविजयसूरि की श्राविका कहकर बतलाते हैं, प्रारके साधु, क्षेत्र की सब सामग्री समान है। आप अपना स्वतंत्र मच्छ कायम करिये। यह कहकर बोहाल सघवी ने राजविजयसूरि के गच्छ की स्थापना की, बड़े उत्सव महोत्सव किये, इस प्रकार दो गच्छनायक प्राचार्य श्री अहमदाबाद में भिन्न-भिन्न उपाश्रयों में चातुमस्यि रहे, श्री विजयदानभूरि के स्वर्गवास के बाद ६० वें पाट पर श्री राजविजयसरि हुए, जिन्होंने मालव देश को प्रतिबोध दिया है। राजविजयसूरि ने अपने उतराधिकारी पद पर श्री मुनिराजसरि को स्थापित करके राधनपुर चातुर्मास्य के लिये भेजा, मुनिराजसूरि का इसी वर्ष में राधनपुर में स्वर्गवास हो गया, इस घटना से राजविजयसूरि को बड़ा दुःख हुप्रा, मुनिराजसूरि पर उनका बहुत मोह था, उनके जाने से उनके दिल में ऐसा वैराग्य प्रांगया कि अपना निर्वाण समय निकट जानकर भी किसी को अपने पद पर स्थापित करते नहीं थे, संघवी के प्राग्रह पूर्वक कहने पर माचार्य ने उत्तर दिया---मुनिराजसरि जैसा प्राचार्य चला गया, तो अब नया प्राचार्य स्थापित करके क्या करना है । संघवी की इच्छा थी कि शचार्यश्री किसी न किसी साधु के सिर पर हाथ रख दें तो अच्छा है, परन्तु प्राचार्य की ऐसा करने की इच्छा नहीं थी, तब संघवी ने अपने भानजे रत्नसो को जो जातिका श्रीश्रीमाल था और उन्हीं के घर पर रहता था, पूछा-यदि तू साधु हो जाय तो तुझे गच्छनायक का पद दिला दू। भानजे ने स्वीकार किया, संघवी उसे लेकर राजविजयसूरिजी के पास गया, श्रीजीने रत्नसी श्रावक के सिर पर हाथ रक्खा मौर राजविजयसूरिजी ने आयुष्य पूर्ण किया। राजविजयसूरि का राजनगर में सं० १५५४ में जन्म सं० १५७१ में व्रत, सं० १५८४ में सूरिपद और सं० १६२४ में स्वर्गवास । 2010_05 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१. श्री रत्नविजयसूरिनी और इनकी परम्परा __बोकल संघवी ने रत्नविजयजी के सिर पर राजविजयसरि का हाथ रखवाने के बाद तुरन्त गीतार्थ के पास से पांच महाव्रत उचरःए। उसी समय पाठक, पद और उसी समय प्राचार्य-पद, योगोद्वहन कराने के बाद पट्टाभिषेक तथा गच्छानुज्ञा उत्सव किया, परन्तु सूरिमन्त्र देने वाला कोई नहीं था, तब कमल-कलश तथा श्री देवरत्नसूरिजी जो संसार पक्ष में रत्नविजयसूरि के सगे लगते थे, श्री रत्नविजयसूरि ने संघवी को उनके पास भेजा, संघवी कतिपय गीतार्थो के साथ श्री देवरत्नसूरि के पास गया, सूरिमन्त्र प्रादि की सब हकीकत कही, तब कमलकलशा गच्छनायक ने कहा-तुम हमारी अटक रखो तो मैं सूरिमन्त्र देऊ, तब उनकी शर्त मान्य की और कहा-आयन्दा पट्टधर प्राचार्य होगा, उसके नाम के साथ "रत्नशाखा" रखेंगे। यह बात नक्की करने के बाद देवरत्नसूरि ने विधिविधान के साथ सूरिमन्त्र का मार्ग दिखाया । और विजयदानसूरि के पाट पर दो पट्टधर हुए। हीरविजयसूरिजी ने राजविजयसूरि का स्वर्गवास होने के बाद गच्छ में एकता करने का विचार किया मोर अपये गीतार्थों को श्री रत्नविजयसूरि के पास भेजा पोर कहा-अपन दोनों की सामाचारी एक है, गुरु एक है और गच्छ के प्राचार्य दो; यह बात अपन दोनों के लिये प्रयुक्त है, मेरी इच्छा है कि मैं अपने पट्ट पर दूसरा कोई प्राचार्य प्रतिष्ठित न करके आपके लिये स्थान खाली रखूगा। इस समय अपन दोनों एक हो जाये और मेरे बाद माप गच्छपति बने तो हम दोनों के लिये शोभा की बात होगी, 2010_05 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १६७ श्री रत्नविजयसूरि श्री श्रीमाल ज्ञाति के भोले भाले पुरुष थे। हीरविजयसूरिजी की बातों को मान लिया और सब बातें लेखबद्ध कर साख मते भी करवा दिये, बाद में यह बात उनके गीतार्थ साधुओं ने तथा संघवी ने जानी, उनको बहुत उपालम्भ दिया, परन्तु कोल वचन लिखवा दिये थे, उनमें कृछ भी रद्दोबदल होने की गुजाइश नहीं थी, कोल के अनुसार श्री राजविजयसूरिजी के क्षेत्र में श्री होरविजयसूरिजी ने अपने साधुनों को रक्खा और अपने क्षेत्रों में श्री रत्नविजयसूरि के यतियों को भेजा, इस प्रकार से यतियों ने सब क्षेत्र अपने हाथ में कर लिये। श्री रत्नविजयजी पालनपुर चातुर्मास्य करने जा रहे थे, शरीर में स्थूल होने से मार्ग चलना उनके लिये कठिन हो गया। इस बात को जान कर "उनावा' के श्रावकों ने प्राग्रह कर अपने गांव में ही चातुर्मास्य करवाया और इस प्रकार १५ वर्ष वहीं बीत गये। दरमियान सब क्षेत्र-यति-श्रावक अपने हाथ से चले गये, तब श्री हीरविजयसूरिजी ने रत्नसूरि को पत्र लिखा और कहा - हमने प्रापको प्राचार्य-पद देने का कहा था वह सही है पर एक क्षेत्र लेकर इतने वर्षों तक बैठे रहना गच्छनायक प्राचार्य के लिए अनुचित है। यदि क्षेत्रों में फिरने की शक्ति नहीं है, तो उपाध्याय-पद रखना कबूल करो, ताकि प्राचार्य के सम्बन्ध में दूसरा विचार किया जाय । पत्र पढ़ कर रत्नसूरिजी ने सोचा कि मैंने किसी से नहीं पूछा और न किसी का कहना माना, उसका यह परिणाम है, परन्तु अब क्या हो सकता है। अहमदाबाद से निकल कर पहला चातुर्मास्य वलाद में और दूसरा चातुर्मास्य वीसनगर में करके तीसरा चातुर्मास्य ऊनाऊ गांव में किया और वहां वर्षों तक रहा । अब क्षेत्र और यति कोई हाथ में नहीं रहे, यह सोच कर दूर विचरने वाले अपने साधुओं को पाने के लिये कहलाया, परन्तु कोई नहीं आया । तब अहमदाबाद संघवी को पत्र लिखा, परन्तु उनके पास साधु होरसूरिजी के हैं, वे पत्र संघपति के पास पहुँचने देते नहीं। एक बार पालनपुर से पत्र लेकर एक काशीद राजनगर जाने वाला है, यह उनको मालूम हुआ, तब वे स्वयं स्थण्डिल के बहाने बाहर गए और अहमदाबाद के रास्ते पर खड़े रहे । उनको हरकारा मिला, उसको पूछने पर उसने कहा - मैं महमदाबाद जा रहा हूं, यह सुन कर रत्नविजयसूरि ने दस रुपया देना निश्चय किया मौर 2010_05 Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [ पट्टावली-पराग - कान में रखी हुई सीसे की सली से समाचार लिख कर पत्र हलकारे को दिया। संघवी ने पत्रिका पढ़ी, समाचार जान कर संघवी ने कहा - "कान फड़वाए और बुद्धि गई', ऊनाऊ से उनको अहमदाबाद बुलवाया। वहां उपाश्रय दो थे, एक दोमीवाडा में, दूसरा निशापोल में। वे दोनों होरविजयसूरिजी के कब्जे में थे। संघवी ने अहमदाबाद में उनको अपनी वखार सौंपी, वहां उतरे। दो शिष्य और रत्नविजयसूरि ये ३ सुख से वहां रहते थे। दूसरे सब यति श्री हीरविजयसूरि की प्राज्ञा में रहते थे। श्री रत्नविजयसूरि के पाट पर श्री हीररत्नसूरि हुए। श्री रत्नविजयसूरि का जन्म सं० १५६४, सं० १६१३ में व्रत, १६२४ में सूरि-पद और सं० १६७५ में श्री राजनगर में स्वर्गवास । .. इस समय में विजयनानन्दसूरि का गच्छ निकला। शाह सोमकरण मनीया तथा नव उपाध्यायों ने मिल कर जिनमें छः उपाध्याय श्री विजयदेवसूरि के और तीन उपाध्याय विजयराजसूरि के थे। इन सब ने मिल कर प्रानन्दसूरि गच्छ की परम्परा चलाई । ६२. श्री हीररत्नमरि : श्री हीररत्नसरि का जन्म सं० १६२० में हुआ। सं० १६३३ में व्रत, सं० १६५७ में वाचक-पद, सं० १६६१ के वैशाख सुदि ३ को आचार्य पद, सं० १६७५ में भट्टारक-पद, सं० १७१५ के श्रावण सुदि १४ को राजनगर में आसासुमा की बाड़ी में स्वर्गवास । ६३. श्री जयरत्नमरि । श्री जयरत्नसूरि का १६६६ में जन्म, १६८६ में व्रत, सं० १६६६ में राजनगर में प्राचार्य-पद, १७१५ में भट्टारक-पद, सं० १७३४ के चैत्र सुदि ११ के दिन सूरत में स्वर्गवास ।। ६४. श्री हेमरत्नमरि : हेमरत्नसूरि का सं० १६६६ में जन्म, सं० १७०४ में व्रत, १७३४ में भट्टारक-पद, सं० १७७२ में कार्तिक सुदि १ को झिन्झुवाड़ा में . स्वर्गवास। ____ 2010_05 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ १६९ - - ६५. श्री दानरत्नसूरि । श्री दानरत्नसूरि का जन्म सं० १७२२ में, सं० १७५१ में दीक्षा, सं० १७७२ में भट्टारक पद, सं० १८२४ के फाल्गुण सुदि १० को प्रांगधरा में स्वर्गवास । ६६. श्री कीतिरत्नमरि । ६७. श्री मुक्तिरत्नसूरि : मुक्तिरत्नसूरि का १८७४ में सूरि-पद और १८७६ के मार्गशीर्ष सुदि ४ को स्वर्गवास हुआ। ६८, श्री पुण्योदयरत्नमरि । पुण्योदय का सं० १८७६ में सूरि-पद, सं० १८९० में पौ० सु० ११ को स्वर्गवास । ६६, श्री अमतरत्नसरि : सं० १८६० में बैशाख सु० ७ सूरि-पद वसो में । ७०. चन्द्रोदयसरि ७१. सुमतिरत्नसरि ७२. भाग्यरत्नसार ___ 2010_05 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयदेवसूरि के सामने नया आचार्य क्यों बनाया? "सोहम्मकुलरत्न पट्टावली रास' के कर्ता कवि श्री दीपविजयजी लिखते हैं : "सेनसूरि पाटे प्रगः, पाट साठ में होय । श्री देवसूरि श्री तिलकसूरि श्रे पडधारो दोय ॥१॥ मर्थात् – श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर श्री देवसूरि और श्री तिलकसूरि ये दो पट्टधर हुए। दो पट्टवर क्यों हुए? इसकी प्रस्तावना करते हुए कवि लिखते हैं - "तेरणे समे धरमसागर गरिण, वाचक राय महंत । कुमति कुद्दाल इति नाम छे, कीमो ग्रन्थ गुनवंत ॥७॥ बहु पंडित श्री सेनसूरि, ग्रन्थ कोनो अनमारण । वाचक “गरण बाहिर कोत्रा, पेढी त्रण प्रमाण ॥८॥" "संसारी सगपरण पर्छ, मामा ने भाणेज । देवसूरि भाणेज छ, वाचक मामा हेज ॥६॥ लखी लेख व्यतिकर सहु, मेहे यों तुरत जवाब । देवसूरि वांची करी, चिती मन में प्राप ॥१०॥ पत्र जुंबाब अहवो लख्यो, फिकर न करस्यो कोय । गुरु निर्वाण हुमा पछे, गच्छ में लेस्यां तोय ॥११॥" कवि दीपविजय के कहने का सार यह है कि उपाध्याय धर्मसागर गणि बड़े विद्वान् थे। उन्होंने 'कुमति-कुद्दाल" नामक एक ग्रन्थ बनाया 2010_05 Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ २०१ था, परन्तु श्री विजयसेनसूरिजी ने अनेक पण्डितों की सलाह से उस ग्रन्थ को अप्रामाणिक ठहराया और उपाध्याय धर्मसागरजी को तीन पीढ़ी तक गच्छ बाहर किया। कविराज का यह कथन कि धर्मसागरजी ने "कुमतिकुद्दाल" ग्रन्थ बनाया था, यथार्थ नहीं है, क्योंकि "कुमतिकुद्दाल" धर्मसागरजी के पूर्ववर्ती तपागच्छ के विद्वान् को कृति थी और धर्मसागरजी ने उसके आधार से दूसरे ग्रन्थ बना कर अन्यान्य गच्छों का खण्डन अवश्य किया था। परिणामस्वरूप "विजयदानसूरि तथा विजयहोरसूरिजी ने उन्हें गच्छ बाहर किया था और उन ग्रन्थों का संशोधन कराये बिना प्रचार नहीं किया जायगा, इस शर्त के साथ विपरीत प्ररूपणा के सम्बन्ध में मिथ्यादुष्कृत करवा करके उन्हें वापस गच्छ में लिया था। विजयसेनसूरि के समय में उपाध्याय धर्मसागर गच्छ से बाहर थे, यह कथन प्रामाणिक ज्ञात नहीं होता, क्योंकि १६५२ में श्री विजयहोरसूरिजी स्वर्गवासी हुए थे मोर १६५३ में उपाध्याय धर्मसागरजी भी स्वर्ग सिधारे थे। इस प्रकार एक वर्ष के भीतर धर्म सागरजी ने कौन-सा महान अपराध किया और विजयसेन सूरि ने उन्हें गच्छ बाहर किया? इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता। इस परिस्थिति में धर्मसागरजी मोर देवसूरि के बीच मामा-भाञ्जा का सम्बन्ध बता कर धर्मसागरजी द्वारा देवसूरि पर पत्र लिख कर गच्छ में लेने की सूचना करना और उसके उत्तर में गुरु का निर्वाण होने के बाद देवसूरि द्वारा 'गच्छ में लेने का आश्वासन" लिखना और वह पत्र भावियोग से विजयसेनसूरिजी के हाथ जाना, ये सब बातें एक कल्पित कहानी से अधिक नहीं हैं । कविराज लिखते हैं - "विजयदेवसूरि का पत्र पढ़ कर श्री विजयसेनसूरिजी को क्रोध माया कि ऐसे प्राचार्य को उत्तराधिकारी बनाने के बजाय किसी दूसरे को प्राचार्य बनाना ही ठीक होगा", यह सोच कर माचार्यश्री ४०० साघुत्रों के समुदाय और ८ उपाध्यायों के साथ खम्भात नगर पहुंचे। ___ 2010_05 Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ ] [ पट्टावली-पराग खम्भात में अकबरपुर में अपने स्वर्गवास के पहले आठ उपाध्यायों और मुनिगण को अपने पास बुला कर कहा - एक बार फिर देवसूरि के पास जाना, वह मेरा वचन प्रमाण करले तो दूसरा पट्टधर स्थापने की आवश्यकता नहीं, अन्यथा किसी योग्य पुरुष को प्रतिष्टित करना। यह कह कर उन्होंने संघ-समक्ष उपाध्यायों को सूरिमन्त्र सौंपा, बाद में श्री विजयसे नसूरि स्वर्ग सिधार गए। प्रागे कविराज लिखते हैं : राजनगर में देवगुरु कने रे, प्राया पुछरण वाचक माठ । तिण समे 'धरमसागर' गरिग देखोया रे पूज्य समीपे सखरे ठाठ ॥६॥ हगीगत कही सहुसने गुरु तरणी रे, काने न धरी रे गणधार । रोसावी सहु पाछा प्रावीया रे, भाप्या तिलकसूरि पट्टधार ॥७॥" अर्थात् - विजयसेनसूरि के स्वर्गवास होने के बाद विजयसेनसूरि के कथनानुसार सोमविजयजी प्रादि पाठ उपाध्याय अहमदाबाद आचार्य देवसूरि के पास आए, तब उपाध्यायों ने विजयदेवसूरि के पास अच्छे ठाठ से धर्मसागर गणि को बैठा देखा, उपाध्यायों ने विजयसेनसूरि की बात विजयदेवसूरि को कही, पर देवसूरि ने उस पर कोई ध्यान नहीं दिया । परिणामस्वरूप सर्व उपाध्याय नाराज होकर वापस लौटे और विजयसेनसूरि के पट्ट पर श्री विजयतिलकसूरि को प्रतिष्ठित किया, परन्तु विजयतिलकसूरि तीन वर्ष में स्वर्गवासी हो गए, तब उनके पट्ट पर विजयपानन्दसूरि को स्थापित किया। एक समय श्री विजयदेवसूरिजी विजयानन्दसूरिजी को मिलने पाये। वहां दोनों प्राचार्यों को आपस में अनेक बातें होने के बाद यह निश्चित हुआ कि दोनों प्राचार्य हिलमिल करके चलें और अब से यतियों की जो क्षेत्रादेश के पट्टक लिखे जाएं वे श्री देवसूरि और प्रानन्दसूरि दोनों की सहियों से लिखे जाएं। लगभग तीन वर्ष तक यह संघटन चलता रहा, परन्तु चौथे वर्ष गच्छपति श्री देवसूरिजी ने केवल अपने ही नाम से क्षेत्रादेश ____ 2010_05 Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद 1 [ २०३ पट्टक लिखे, तब प्रानन्दसूरिजो ने भी अपने अनुयायी साधुनों को अपने ही नाम से क्षेत्रादेश पट्टक लिखे । उपर्युक्त कड़ी ६ और ७ वीं में कविराज ने आठ उपाध्यायों के अहमदाबाद में विजयदेवसूरि के पास जाने पर उपाध्याय धर्मसागरजी को विजयदेवसूरिजी के पास बैठे देखने की बात कही है, जो असंभव है। क्योंकि उस समय तक धर्मसागरजी को स्वर्गवासी हुए बोस वर्ष होने पाए थे। इस दशा में कविराज का कथन प्रमादपूर्ण है। धर्ममागर नहीं, किन्तु उनके शिष्य लब्धिसागर नेमिसागर, अथवा मुक्तिसागर इनमें से सब या कोई एक हो सकते हैं। विजयदेवसूरि के विरोध में उपाध्याय सोमविजयजी, उ० कोतिविजयजी आदि ने जो विरोध का बवण्डर खड़ा किया था, उसका कारण भी सागर विरोधी उक्त उपाध्यायों के प्रचार का ही परिणाम था। प्राचार्य श्री विजयदेवसूरि का सम्पूर्ण जीवन-चरित्र पढ़ लेने पर भी यह वस्तु प्राप्त नहीं होती कि विजयदेवरिजी सागरों के पक्षकार थे। कई स्थानों पर तो विजयदेवसूरिजी को सागरों तथा सागर भक्त गृहस्थों से मुठभेड़ तक हुई है और सागरों को निरुतर होना पड़ा है । प्रस्तुत निरूपण से दो बातें स्पष्ट होती हैं, एक तो यह कि तपागच्छीय प्राचार्य श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर दो प्राचार्य होकर देवसूरि गच्छ, आनन्दसूरि गच्छ नामक दो पार्टिया होने का कारण उपाध्याय धर्म सागर गरिण नहीं थे। दूसरा विजयदेवसूरि को सागरों का पक्षकार बना कर इन पार्टियों की उत्पत्ति का कारण बताया जाता है, यह भी निराधार है। इस झगड़े का मूल कारण क्या था, यह तो ज्ञानी ही कह सकता हैं, परन्तु इतना तो निश्चित है कि तपागच्छ के उपाध्यायाष्टक ने इस सम्बन्ध में जो रस लिया है, उसमें उपा० सोमविजयजी, उपा० कीतिविजयजी के नाम सर्वप्रथम हैं। उपाध्याय कीतिविजयजी के शिष्य उपाध्याय विनयविजयजी ने भी कल्पसूत्र की "सुबोधिका टीका" के निर्माण काल सं० १६६६ तक इस विषय में बड़ी दिलचस्पी ली थी। वे प्रसंग आते ही उपाध्याय धर्मसागरजो की गलतियां बताने में अपना पुरुषार्थ किया करते थे, परन्तु धीरे-धोरे वस्तु ___ 2010_05 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] [पट्टावली-पराग - - स्थिति स्पष्ट हुई। विजयदेवपूरिजी के ऊपर लगाया गया सागरों के पक्ष का आरोप निराधार प्रमाणित हुप्रा तब विद्वान् साधु आनन्दसूरि की परम्परा में से निकल कर देवतरि की परम्परा में आने लगे थे। प्रसिद्ध उपाध्याय यशोविजयजो प्रथम से ही मध्यस्थ थे, परन्तु विनयविजयजी अपने गुरुषों के कारण प्रानन्दसूरि की पार्टी में मिले थे, परन्तु बाद में वे भी विजयदेवसूरि की परम्परा में पाए थे, ऐसा इनके पिछले ग्रन्थों की प्रशस्तियों से ज्ञात होता है। विजयदेवसूरि ने अमुक सागरों को पद प्रदान करने के लिये अपना वासक्षेप सेठ शान्तिदास को अवश्य दिया था, परन्तु किसी भी सागर को आपने माचार्य-पद नहीं दिया। इससे भी ज्ञात होता है कि विजयदेवसूरिजी सागरों को बढ़ावा देने वाले नहीं थे, परन्तु दोनों पार्टियां हिलमिल कर रहें ऐसी भावना वाले थे । आज उपर्युक्त दोनों पार्टियों की प्राचार्य-परम्पराएं कभी की समाप्त हो चुकी हैं। ___ 2010_05 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयानन्दसूरि-10 की परम्परा (१) ५६ प्राचार्य श्री विजयसेनसूरि - ६० प्राचार्य श्री विजयतिलकसूरि - जन्म सं० १६५१, दीक्षा सं० १६६२, पं० १६६३, सं० १६७३ में सिरोही में वडगच्छ के भट्टारक विजयसुन्दरसूरि के वासक्षेप से सूरि-पद दिया था और उपाध्याय आदि ने मिलकर प्राचार्य श्री विजयसेनसूरि के पट्ट पर विजयतिलकसूरि के नाम से प्रतिष्टित किया। स्वर्ग सं० १७७६ में। ६१ प्राचार्य श्री विजयानन्दसूरि - मारवाड़ के रोहा गांव में सं० १६४२ में जन्म, सं० १६५१ में दीक्षा, सं० १६७६ में सिरोही में विजयतिलक सूरि द्वारा प्राचार्य-पद, सं० १७११ में स्वर्गवास । ६२ प्राचार्य श्री विजयराजसूरि - सं० १६७६ में कडी में जन्म, सं० १६८६ में दीक्षा, नाम कुशलविजय, सं० १७०४ में सिरोही में विजयानन्दसूरि द्वारा प्राचार्य-पद, सं० १७४२ में खम्भात में स्वर्गवास । ६३ प्राचार्य श्री विजयमानसूरि - सं० १७०७ में बुरहानपुर में जन्म, सं० १७१६ में मालपुर में दोक्षा, वि० सं० १७३१ में उपाध्याय-पद, सं० १७३६ में सिरोही में विजयराजसूरि के हाथ से सूरि-पद, सं० १७७० में साणंद में स्वर्गवास । ___ 2010_05 Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [ पट्टावली-पराग - ६४ भाचार्य श्री विजयऋद्धिसूरि - आबु के पास थांरण गांव में सं० १७२७ में जन्म, सं० १७४२ में अहमदाबाद में दीक्षा, सं० १७६६ में सिरोही में प्राचार्य-पद, १७९७ में स्वर्गवास । ६५ प्राचार्य श्री विजयसौभाग्यसूरि - प्राचार्य श्री विजयप्रतापसूरि - सं० १७९५ में प्राचार्य-पद सादड़ो में, १८१४ में सिनोर में स्वर्गवास । इन्होंने अपने पट्ट पर विजयभानसूरि को बैठाया। ६६ प्राचार्य श्री विजयउदयसूरि - जन्म वांकली गांव में, प्राचार्य-पद मुडारा में, गुजरात में उदयसूरि ने सपरिवार जाकर काकागुरु सौभाग्यसूरि से. मिलकर भागे दक्षिण में विहार किया और सं० १८३७ में स्वर्गवासी हुए। ६७ प्राचार्य श्री विजयलक्ष्मीसूरि - सिरोडी और हणादरा के बीच में सिरोडी से दक्षिण में १ कोस और हणादरा गांव से उत्तर में दो कोस पर पालडी गांव में सं० १७९७ में जन्म, सं० १८१४ में नर्मदा तट पर सिनोर में दीक्षा, उसी वर्ष सूरि-पद, सं० १८५८ में सूरत में स्वर्ग-गमन । ६८ प्राचार्य श्री विजयदेवेन्द्रसूरि - सूरत में जन्म, सं० १८५७ में प्राचार्य-पद बड़ौदा में, प्रहमदाबाद में सं० १८६१ में स्वर्गवास । ६६ प्राचार्य श्री विजयमहेन्द्रसूरि - भीनमाल में जन्म, सं० १८२७ में प्रामोद में दीक्षा, सं० १८६१ भट्टारक-पद, सं० १८६५ में स्वर्गवास । 2010_05 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २०७ ७० प्राचार्य श्री विजयसमुद्रसूरि - गोढवाड१ में कवला गात्र में जन्म, पोरवाड़ जातीय, पितृनाम हरनाथ, मातृनाम पूरी की कुक्षि से जन्म, आचार्य-पद सं० १८८० में पूना में । १. सोहम्म कुल पट्टावली में कवि दीपविजयजी ने 'कवला' गांव गोढारण अर्थात् गोड़वाड़ में होना लिखा है, परन्तु कवला गोड़वाड़ में न होकर शिलावटी में है, भूति से एक कोस उत्तर में। 2010_05 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज यानन्द सूरि - शाखा को पहावली (२) ६० विजयसेनसूरि - ६१ विजयतिलकसूरि - विशल नगर में जन्म, जाति पोरवाड़, पिता नामदेव जी, माता जयवंती, होरविजयसूरि के प्रतिबोध से दीक्षा ली। वड-गच्छ के भट्टारक विजयसुन्दरसूरि के वासक्षेप से सिरोही में सं० विजयसेनसूरि के पट्ट पर प्रतिष्ठित किया, १६७६ में स्वर्गवासी हुए । ६२ विजयानन्दसूरि - रोहिड़ा नगर में जन्म! पोरवाल जातीय, पितृनाम श्रीवन्त, मातृनाम सिणगारदे, श्री विजयहीरसूरि के उपदेश से 6 लोगों के साथ सं० १६५१ के वर्ष में दीक्षा, उपाध्याय सोमविजयजी से शास्त्र-ज्ञान प्राप्त किया, प्राचार्य विजयतिलकसूरि ने विजयानन्दसूरि को सिरोही में १६७६ में सूरिपद दिया, सं० १७१७ में, मतान्तर से १७११ में स्वर्गवासी हुए। ६३ विजयराजसूरि - कडी गांव में सं० १६७६ में जन्म, पिता का नाम खीमा, ज्ञाति श्रीमाली, माता गमनादे, १६८६ में विजयानन्दसूरि के पास दीक्षा, १७०३ में सिरोही में सूरि-पद और सं० १७४२ में स्वर्ग । ६४ विजयमानसूरि - नगर बुरहानपुर के, जाति से पोरवाल, पिता वागजी, माता वीरमदे, जन्म सं० १७०७ में, दीक्षा सं० १७१७ में दो भाइयों के साथ, सं० १७३६ में सिरोही में प्राचार्य-पद, १७४२ में भट्टारक-पद, सं० १७७० में स्वर्गवास। ____ 2010_05 Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २०६ ६५ विजयऋद्धिसूरि - __ आबू के समीपवर्ती थाणा गांव के, वीसा पोरवाल, पिता नाम जसवंत, माता नाम यशोदा, सं० १७२७ में जन्म, विजयमानसूरि के पास सं० १७४२ में दीक्षा, सं० १७६६ में सिरोही में सूरि-पद, सं० १७६७ में स्वर्ग-गमन, मतान्तर से १८०६ में स्वर्गवास । ६ विजयसौभाग्यसूरि - विजयप्रतापसूरि - विजयसौभाग्यसूरि का जन्म स्थान पाटन, जाति प्रोसवाल, १७९५ में सादड़ी में सूरिषद, सं० १८१४ में सिनोर में स्वर्ग-गमन । ६७ विजयउदयसूरि - जन्म-स्थान गांव वांकली, सूरिपद मुण्डारा में, सं० १८५६ में, पाली में स्वर्गवास। ६८ विजयलक्ष्मीसूरि - ० १७६७ में जन्म हणादरा समीपवर्ती पालडी में, पिता का नाम हेमराज, माता आनन्दीबाई, दीक्षा सं० १८१४ में सिनोर में, सं० १८५६ में भट्टारक-पद और इसी वर्ष में स्वर्गवास । ६६ विजयदेवेन्द्रसूरि - __सूरत में जन्म, १८५७ में बड़ोदे में गच्छाधिपति-पद और सं० १८६१ में राजनगर में स्वर्गवास । ७० विजयमहेन्द्रसूरि - जाम-स्थान भीनमाल, जाति प्रोसवाल, सं० १८२७ में प्रामोद में दीक्षा, सं० १८६३ में विजापुर में स्वर्गवास । ७१ विजयसुरेन्द्रसूरि (समुद्रसूरि) ७२ धनेश्वरसूरि ___ 2010_05 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयानन्दसूरि-शाखा की पहावली (३) ३ ६० तत्प? श्री विजयसेनसूरि ६१ , , विजयतिलकसरि ६२ , , विजयानन्दसूरि विजयराजसूरि विजयमानसूरि विजयऋद्धिसूरि विजयसौभाग्यसूरि विजयप्रतापसूरि - जन्म गांव वांकली। विजयउदयसूरि ॥ विजयलक्ष्मीसूरि -- बाबू के परिसर में जन्म, गांव पालडी में। , विजयदेवेन्द्रसूरि ( महेन्द्रसूरि ) __, सुरेन्द्रसूरि (समुद्रसूरि ) " धनेश्वरसूरि , विद्यानन्दसूरि " गुणरत्नसूरि । ___ 2010_05 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजयानन्दसूरि-शाखा की पहावली (8) ६० तत्पट्ट श्री विजयसेनसूरि , विजयतिलकसूरि विजयानन्दसूरि विजयराजसूरि विजयमानसूरि , विजयऋद्धिसूरि विजयप्रतापसूरि । ,, विजयंसौभाग्यसूरि दान दोनों भाई थे। ,, विजय उदयसूरि , विजयलक्ष्मीसूरि ७० । विजयमहेन्द्रसूरि ,, विजयसुरेन्द्रसूरि HEARS मा १. विजयप्रताप और विजयसौभाग्य दोनों भाई थे, परन्तु पट्टधर एक ही थे। यही कारण है कि अन्य पट्ट परम्परा लेखकों ने एक नम्बर बढ़ाया है, पर प्रकृत में नहीं बढ़ाया। 2010_05 Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपागच्छ -सागरशाखा- पहावली (१ ५८ होरसूरि ५६ विजयसेनसूरि ६० राजसागरसूरि ६१ वृद्धिसागर ६२ लक्ष्मीसागर ६३ कल्याणसागर ६४ पुण्यसागर ६५ उदयसागरसूरि ६६ पानन्दसागरसूरि ६७ शान्तिसागरसूरि ___ 2010_05 Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरगाछीय - पहावली (१) ५३ प्राचार्य लक्ष्मीसागरसूरि ५४ उपाध्याय विद्यासागर गरिण ५५ उपाध्याय धर्मसागर मरिण - नाडोल में जन्म, सं० १५९५ में १६ वर्ष की उम्र में श्री दानसूरि के हाथ से दीक्षा, सं० १६५३ में स्वर्गवास । ५६ उपाध्याय - लज्थिसागर के शिष्य नेमिसागर और नेमिसागर के शिष्य मुक्तिसागर, उपाध्याय मुक्तिसागरजी को नगर सेठ शान्तिदास ने सं० १६७६ में प्राचार्य विजयदेवसूरि के वासक्षेप से उपाध्याय-पद दिया और १६८६ में उक्त प्राचार्य के ही वासक्षेप से महमदाबाद में प्राचार्य-पद दिया गया, इनकी पट्ट-परम्परा नीचे मुजब चली। ५६ प्राचार्य विजयसेनसूरि ६. प्राचार्य राजसागरसूरि - राजसायर, उपा० लब्धिसागर के शिष्य उपा० नेमिसागर के छोटे भाई तथा शिष्य थे। इनका जन्म सं० १६३७ में सिपोर में हुआ था, इनका दीक्षा नाम मुक्तिसागर था। सं० १६६५ में पंन्यास-पद, सं. १६७६ में वाचक-पद और सं० १६८६ में प्राचार्य-पद अहमदाबाद में हुआ, नाम "राजसागरसूरि" प्रतिष्ठित किया था, ___ 2010_05 Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [ पट्टावली-पराग - - ६१ वृद्धिसागरसूरि६२ लक्ष्मीसागरसूरि - ६३ कल्याणसागरसूरि - ६४ पुण्यसागरसूरि - ६५ उदयसागरसूरि - ६६ प्रानन्दसागरसूरि - ६७ शान्तिसागरसूरि - सं० १७२१ में अहमदाबाद में स्वर्गवास, प्राचार्य राजसागरसूरि से " सागर" शाखा की पट्टावली चली है । स्वर्गवास सं० १७४७ में अहमदासद में । स्वर्ग० सं० १७८८ में सूरत में। स्वर्ग० सं० १८११ में । सं० १९०८ में प्राचार्य-पद । इन्होंने सं० १९२६ में "तिथिक्षय वृद्धि'' के सम्बन्ध में हेण्डबिल प्रकाशित करवाये ALI ___ 2010_05 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागरगना के प्रारम्भिक आचार्यों का नाम - क्रम (३) ६० तत्प? श्री हीरविजयसूरि ६१ , , विजयसेनसूरि , राजसागरसूरि ऋद्धिसागरसूरि ६४ , , लक्ष्मीसागरसूरि ६५ , , कल्याणसागरसूरि ६६ ॥ ॥ पुण्यसागरसूरि सोहम्मकुल पट्टावली रास के आधार से विजयदानसूरि का सं० १६२२ में वटपद्र में स्वर्गवास । ५८ राजविजयसूरि को विजयदानसूरि ने अन्त में गच्छ सम्भालने के लिए लिखा, पर उन्होंने प्रत्युत्तर में लिखा कि दूसरा पट्टधर स्थापन करियेगा। 2010_05 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) तपागच की लघु-अपूर्णा पटावलियाँ हमारे पास की एक हस्तलिखित लघु तपागच्छीय पट्टावली, जो सुमतिसाधुसूरि के समय की लिखी हुई है, उसमें लिखी हुई कतिपय बातें उल्लेखनीय होने से टिप्पन के रूप में यहाँ दी जाती हैं। इस लघु पट्टावली में ३१वें पट्टधर श्री यशोदेवसूरि के बाद श्री प्रद्युम्नसूरि पोर मानदेवसूरि को नहीं लिया, सीधा विमनचन्द्र, उद्योतन और सर्वदेवसरि का नाम लिखा है और सर्वदेव के बाद अजितदेवसूरि, विजयसिंहसूरि, सोमप्रभसूरि, मुनिचन्द्रसूरि, अजितसिंहसूरि, विजयसेनसूरि और मणिरत्नसूरि का नाम लिख कर जगच्चन्द्रसूरि का नाम लिखा है । मणिरत्नसूरि के पहले के ६ नामों में कुछ गड़बड़ हुआ प्रतीत होता है । उद्योतनसूरि के नाम के बाद दिये हुए टिप्पन में विक्रम सं० १००८ में पोषधशालामों में ठहरने का कारण हुमा, ऐसा उल्लेख किया है। श्री सुमतिसाधुसूरि का नाम लिखने के बाद टिप्पन में लिखा है : "तेषां शिष्याः श्री हेमविमलसूरयः सम्प्रति विजयन्ते"। हमारी एक अन्य हस्तलिखित पट्ठावली में श्री यशोभद्रसूरि के बाद ४०वा मुनिचन्द्रसूरि का नाम लिखा है, नेमिचन्द्र का नाम नहीं लिखा । पागे अजितदेव नामक ४१वें पट्टधर से ६६वें पट्टधर श्री विजयजिनेन्द्रसूरि तक के नाम लिखे मिले हैं। ____ 2010_05 Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २१७ सं० १८५६ के भाद्रवा सुदि ३ की लिखी हुई एक लघु पट्टावली में पट्टक्रम निम्न प्रकार का है : यशोभद्र के बाद संभूतविजयजी का नाम लिख कर उनके पट्टधर स्थूलभद्रजी को लिखा है, भद्रबाहु का नाम नहीं दिया । उद्योतन और सर्वदेवसरि के नाम लिख कर देवसूरि का ३८वां नम्बर खालो रक्खा है और दूसरे सर्वदेवसूरि का नाम न लिख कर ३६वें पट्ट पर यशोभद्रसूरि को लिखा है। विजयसिंहसूरि के बाद सोमप्रभ का नाम न लिख कर मणिरत्न को ४४वां पट्टधर लिखा है । ५३वें पट्टधर मुनिसुन्दरसूरि के नाम के बाद सीधा लक्ष्मीसागरसूरि का ५४वां नाम लिखा है, रत्नशेखर का नाम छूट गया है। विजयते नसूरि के बाद विजयतिलकसूरि की पट्टावली दी है। एक चौथी हमारी हस्तलिखित लघु पट्टावली, जिसमें २० आचार्यों का पट्टकम नहीं है और बाद में विजयदेवेन्द्रसूरि तक की पट्टावली व्यवस्थित है, आगे का पाट-क्रम का भाग नहीं मिला। यशोदेवसूरि के बाद प्रद्युम्नसूरि तथा उपधान ग्रन्थकार मानदेवसूरि के नाम लिख कर इस पट्टावली में सीधा विमल चन्द्रसूरि का नाम लिखा गया है। उद्योतनसरि के पट्टधर श्री सर्वदेवसूरि का नाम लिख कर सीधा मजितदेव, विजयसिंह, सोमप्रभ, मुनिचन्द्र, अजितसिंह, विजयसेन और मणिरत्नसूरि का नाम लिख कर श्री जगच्चन्द्रसूरि को ४३वां पट्टधर लिखा है, इन नामों में भी खासी गड़बड़ी हुई है। ___ इस पट्टावली में विजयसेनसूरि के समय में विक्रम सं० १२०१ में चामुण्डिक गच्छ, सं० १२१४ में प्रांचलिक गच्छ; ११५६ में पूणिमा पक्ष और सं० १२५० में आगमिक गच्छ प्रकट होना लिखा है । हमारी एक लिखित पट्टावली में इन्द्रदिन्न के बाद सिंहगिरि का नाम दिया है। इसी तरह विक्रमसूरि के बाद नरसिंहसूरि का नाम नहीं ____ 2010_05 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [ पट्टावलो-पराग दिया। मालूम होता है कि दिन का नरसिंह नाम लेखक के प्रमाद से छूट गया है। इसी प्रकार सर्वदेव के पट्टधर देवसूरि के बाद द्वितीय सर्वदेवसूरि का नाम न लिख कर यशोभद्रसूरि का नाम लिखा है, यह भी लेखक का प्रमाद है। प्रा० मणिरत्नप्रभ के याद फिर सोमप्रभ का नाम लिख कर फिर जगच्चन्द्रसूरि का नाम लिखना तथा देवसुन्दरसूरि के बाद सोमसुन्दरसरि का नाम न लिख कर मुनिसुन्दरसूरि का नाम लिखना, यह भी लेखक की प्रमाददशा का परिणाम है । यह पट्टावली किसी सागर को लिखी हुई है, क्योंकि विजयसेनसूरि के पट्ट पर श्री राजसागर, वृद्धिसागर, लक्ष्मीसागर, कल्याणसागर और पुण्यसागर को पट्ट परम्परा में माना है । 2010_05 Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपगच्छ पाठ- परम्परा स्वाध्याय - ले० : हर्षसाग रोपाध्याय शिष्य हर्षसाग० शिष्य लिखते हैं- रविप्रभसूरि भीसमइ पाटित्र विश्ररण जिनरंजइ वरसइ ग्यारसइस तिरइ कुमति मदभंजइ ॥ ऊपर के उल्लेख से स्वाध्यायलेखक रविप्रभसूरि का समय १११७ सूचित करते हैं जो विचारणीय है । स्वाध्याय - लेखक ने विजयदानसरि के बाद श्री राजविजयसूरि का नाम लिखा है और उनको विजयदानसूरि का भावी पट्टधर लिखा है । लेखक ने अन्त में संवत् भी दिया है, पर बह स्पष्ट रूप से जाना नहीं जाता । अन्तिम अंक ६६ का होने से ज्ञात होता है कि यह स्वाध्याय १६६६ के वर्ष की कृति होनी चाहिए । श्री तपगच्छीय पट्टावली सज्झाय : इस स्वाध्याय का प्रारम्भ नीचे के पद्य से होता है : गुरु परिपाटी सुरलता, मूल पवडुरग मीर । शतसाखई प्रसरइ घणु, जय जगगुरु महावीर ॥१॥ 2010_05 कर्ता : मेघमुनि स्वाध्याय में विजयसेनसूरि तक पट्ट-क्रम व्यवस्थित रूप से दिया है । स्वाध्याय के अन्त की निम्नोद्धृत गाथा में लेखक ने अपना परिचय दिया जय तप गच्छ मंडरण, कुमत खंडरण सहजकुशल पंडितवरो । तस सोस पंडित माणिक कुशलो सकल साधु शोभा करो ॥ - Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [ पट्टावली-पराग श्री पंडित मेहमुनीससीसि रची पाटपरंपरा । जे भविभावि भरणस्यइ अनइ सुरणस्यइ वरस्यइ सिद्धि स्वयंवरी॥३६॥ इति श्री पट्टावली सज्झाय समाप्तः । हमारी एक लघु पट्टावली में विजयदानसूरि को ५६३ पट्ट पर लिख कर ५७३ पट्ट पर श्री देवचन्द्रसूरि का नाम लिखा है, फिर हीरविजयसूरि और विजयसेनसूरि के बाद विजयदेवसूरि का नाम न होने से ज्ञात होता है कि लेखक ने विजयदेवसूरि के बदले में ही देवचन्द्रसूरि का नाम लिख दिया है। विजयसेन के बाद विजयसिंह, विजयप्रभ, विजयरत्न, विजयक्षमा, विजयदया, विजयधर्म और विजयजितेन्द्रसूरि के नाम क्रमः लिखे गये हैं। इसी पट्टावली में उद्योतनसूरि के बाद सर्वदेवसूरि, देवसूरि और यशोभद्रसूरि के नाम लिखे हैं, द्वितीय सर्वदेवसूरि का नाम नहीं लिखा । यह पट्टावली भी किन्हीं यतिजी के हाथ की लिखी हुई है । हमारी एक तपागच्छीय पट्टावली है जो कल्पसत्र के टबार्थ के अन्त में लिखी हुई है। लेखक का नाम श्री खुशालचन्द्रजी, श्री भुवनचन्द्रगरिण के शिष्य थे और संवत् १७८४ के चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को जोधपुर में लिखी गई थी। पट्टावली का पट्टक्रम व्यवस्थित है। तपा-पट्टावली - ५ पत्र की अपूर्ण है, श्री जगच्चन्द्रसूरि तक की पाटपरम्परा इसमें दी हुई है। इसी पट्टावली के प्रार्य स्थूलभद्र के दीक्षा आदि का हिसाब निम्न ढंग से दिया गया है - ३० वर्षान्ते दीक्षा, २० वर्ष श्रामण्य पर्याय, ५० वर्षे सूरिपद, ४६ वर्ष तक युग प्रधान पद भोगा। देवसूरि के पट्टधर द्वितीय सर्वदेवसरि को न लिखकर सीधा यशोभद्रसूरि को बताया है। ____ 2010_05 Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ २२१ - विक्रमात् १२५० में पूर्णमीया से मांचलीया बनकर देवभद्र और शील भद्रसरि ने आगमिक मत प्रकट किया। ___ सं० ११४० वर्षे नवांगी वृत्तिकर्ता श्री अभयदेवसूरि और उनके पट्टधर जिनवल्लभसरि कूर्चपुर गच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य हुए और चित्रकूट ऊपर छः कल्याणकों को प्ररूपणा की। ___ "पत्तने स्त्रीजिन पूजा उत्थापिता, संघभयेन उष्ट्रिकावाहनेन जावालिपुरे गतः तेन लोकैः पौष्टिक नाम दत्तं ॥' हमारी एक संवत् १८५० में लिखी हुई भाषा पट्टावली जो विजयजिनेन्द्रसूरि के समय की लिखी हुई है, इस पट्टावली में अनेक प्रज्ञानपूर्ण स्खलनाएं दृष्टिगोचर होती हैं । जैसे सुधर्मा स्वामी की छद्मस्थावस्था ४२ वर्ष और केवली पर्याय १८ वर्ष का मानना । प्रभव-स्थविर के युगप्रधान पर्याय के १४ वर्ष लिखना । यशोभद्रसूरिजी का आयुष्य ६० वर्ष का लिखना । स्थूलभद्रजी का प्रायुष्य ८० वर्ष का लिखना और उनका स्वर्गवास महावीरनिर्वाण से २५० में मानना।। वज्रसेनसूरि का प्रायुष्य ६० वर्ष का लिखना । जयानन्दसूरि के पट्टधर श्री रविप्रभातरि को जिननिर्वाण से ११६० में मानना। श्री हेमविमलसरि के समय में तपागच्छ के तीन फाटे पड़े । कममकलशा, कतकपुरा, वड़गच्छा ।। सं० १५६२ में कडुग्रामत-गच्छ सं० १५७२ में बीजामत-गच्छ सं० १५८२ में पाश्वंचन्द्र गच्छ श्री दानसरि के समय में सागरमति-गच्छ निकला और सं० १६६२ में विजयदानसूरि का स्वर्गवास । सं० १६२९ में मेघजी ऋषि आदि ठाणा २७ ने प्राचार्य हीरसृरिजी के हाथ से दीक्षा ली। ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] [ पट्टावली-पराग - -- - सं० १६९२ वर्षे प्राषाढ़ सुदि ११ को उनानगर में विजयदेवसूरि का स्वर्ग० ॥ सं० १६६५ वर्षे विजयानन्दसृरि-गच्छ निकला। सं० १८५० वर्ष में कार्तिक सुदि ५ को यह पट्टावली पं० कल्याणसागर पठनार्थ लिखी गई है। हमारी एक हस्तलिखित पट्टावली में प्राचार्य वज्रसेनसूरि का आयुष्य १२० वर्ष का लिखा। ___ प्राचार्य सर्वदेवसूरि के पट्टधर देवेन्द्रसूरि लिखा है। प्राचार्य विजयदेवसूरि के समय में राजनगर में सेठ शान्तिदास ने प्रत्येक मनुष्य को प्रभावना में एक-एक अंगुठी सोने की दी थी । सागरगच्छ की खुशी में। हमारी एक पट्टावली जो विजयदयासूरि पर्यन्त की पाट-परम्परा वाली है, उसमें आर्यवज्र का जन्म नि० ४६६ मोर स्वर्गवास जिननिर्वाण से ५०४ में लिखा है। प्राचार्य रविप्रभ के समय में वीरनिर्वाण से ११६० में श्री उमास्वाति वाचक हुए । प्राचार्य रत्नशेखरसूरि के समय में सं० १५३५ वर्षे लुकामत प्रकट हुआ। उस समय में भारणा नामक व्यक्ति सावुवेश धारण करने वाला हुमा। इसी पट्टावली में प्राचार्य विजयसिंहसूरि की दीक्षा का वर्ष १६५१ और उपाध्याय-पद का १६७३ का वर्ष लिखा है। विजयप्रभसूरि का स्वर्गवास सं० १७४६ लिखा है, दीव बन्दर मध्ये उचा गांव में। ... विजयरत्नसरि का पूर्व नाम जीतविजय था। माता-पिता भाई के साथ इनकी दीक्षा विजयप्रभस रि के हाथ से हुई थी। विजयरत्नमरि के चातुर्मास्यों के गांवों की सूची: सं० १७४६ में भट्टारक-पद । १७३३ में मेड़ता में गुरु के साथ १७४६ पुंजपुर ___ 2010_05 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद 1 १७३४ स्वतंत्र मेड़ता में १७३५ सोजत १७३६ कुक्कुडेश्वर ( मालवा ) १७३७ सौंदरशी १७३८ दधालीए १७३६ रतलाम १७४० मांडवगढ़ १७४१ १७४२ रतलाम १७४३ १७४४ 11 उदयपुर खमरणोर १७४५ कोठारिया १७४६ श्रासपुर १७४७ बांसवाड़े १७४५ डूंगरपुर १७७६ १७७७ उदयपुर १७७८ पालनपुर 37 १७५० पाटण १७५१ सोहीगाम १७५२ (द) साड़ा 2010_05 १७५३ - १७६३ अहमदाबाद में बराबर ११ वर्ष रहे । १७६४ उदयपुर १७६५ में कोठारीया आचार्य विजयक्षमासूरि के चातुर्मास्यों की सूची : १७७४ कोठारीया १७७६ पाटण १७७५ कीशनगढ़ १७५० पालितारणा १७८१ घोघाबन्दर १७८२ दीवबन्दर १७८३ हमारी एक हस्तलिखित पट्टावली में जो १७६० में लिखी हुई है, प्रार्य स्थूलभद्र का गृहस्थ- पर्याय ३० वर्ष, व्रत पर्याय २० वर्ष, और ४६ वर्ष युगप्रधान पर्याय के माने हैं । १७६६ सादड़ी १७६७ बांसवाड़ा १७६८ उदयपुर १७६८ 11 जोधपुर १७७० १७७१ बीजौवा १७७२ सादड़ी १७७३ उदयपुर [ २२३ "वि० ० ११३५ वर्षे केचित् ११३८ वर्षे नवांगवृत्तिकारक श्री मदभयदेवसूरि ! स्वर्गभा तथा कूर्वपक्षीय चेत्यवासि जिनेश्वरसूरिशिष्यो जिनवल्लभनामा चित्रकूटे षष्ठकल्याणकप्ररूपरणया विधिसंघो विधिषमं इति • "" Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] [ पट्टावली-पराग नाम्ना स्वमतं प्रकाशितवान् तेन प्रवचनात् बहिर्भूतः । वि० ११४५ तथा ११५० सा प्ररूपरणा संभाव्यते ॥" इसी पट्टावली में - "वादिदेवसूरीणां वि० ११४३ जन्म, ११५२ व्रतं, ११५४ सूरिपदं, १२२६ स्वगर्गोऽभूत् ॥" "सं० १२५० वर्षे पौर्णमियकांचलिकमतोत्थिताभ्यां देवभद्र-शीलगुणाख्याभ्यां श्रीशत्रुञ्जयपरिसरे प्रागमिकमतं प्रादुर्भुतं ।" "तथा च भीमपल्या गुरुभिश्चतुर्मासकं कृतं, ज्ञानातिशयेन तद्भग ज्ञात्वान्यपक्षीयैकादशाचार्येनिवारिता अपि चतुर्मासी प्रतिक्रम्य प्रथमकार्तिकपक्षांतेऽन्यत्र विहताः ॥" ___एक अन्य हस्तलिखित पट्टावली में विजयक्षमासूरि का जन्म पाली में सं० १७३२ में, दोक्षा १७३६ में, १७५६ में पंन्यास-पद, १७७३ भाद्रपद सुदि ८ को प्राचार्य-पद, माह सुदि ६ पदोत्सव उदयपुर में । एक हस्तलिखित पट्टावली में प्राचार्य विजयरत्नसूरि का स्वर्ग-समय वि० सं० १७७३ के भाद्रपद शुक्ला ३ को लिखा है। आचार्य विजयक्षमासूरि का जन्म मेवाड़ प्रान्त में, 'धावल नगर' में हुमा । प्रा. विजयदयासूरि का सूरिपद मांगलोर में और १८०६ में स्वर्गवास हुआ। मा० धर्मसूरि को प्राचार्य-पद १८०३ में उदयपुर में और १८४१ में स्वर्गवास । विजयजिनेन्द्रसूरि को सूरि-पद १८४१ में ।। एक पट्टावली में विजयरत्नसूरि का स्वर्ग १७७३ में “भाद्रपद शु० २ मांगलोर में; सं० १७८४ में विजयदानसूरि को सूरि-पद और स्वर्गवास सुरत में। विजयदेवेन्द्र सूरि का जन्म चित्रावा नगर में, सिरोही में सूरि-पद पौर स्वर्गवास राधनपुर में हुआ। 2010_05 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. विनय-सविन शाखा की गुरु-परम्परा ६१ आचार्य श्री विजयसिंहसूरि – स्वर्ग० १७०६ में । पं० सत्यविजयजी गरिण - ६३ ५० कर्पूरविजयजी गरिण - स्वर्गवास सं० १७७५ में । ६४ पं० क्षमा विजयजी गरिण - स्व० सं० १७८७ में । ६५ प. जिनविजयजी गणि - स्व० सं० १९१६ में । ६६ पं० उत्तमविजयजी गरिण - स्व० सं० १८२७, (सं० १८१८ में भोखमजी ने १३ पंथ चलाया) पद्मविजयजी गरिण - स्व० १८६२ । ६८ पं० रूपविजयजी गरिण - स्व० सं० १६१० । कोतिविजयजी गरिण। कस्तूरविजयजी गरिण। मणिविजयजी गरिण। (दादा) स्व० सं० १६३५ । पं० सिद्धिविजयजी गणि (सूरि) स्व० सं० २०१६ । मुनि श्री केसरविजयजी - जन्म सं० १६१६ में शेरगढ़ (मारवाड) में दीक्षा सं. १८३४ चारित्रोपसम्पद् सं० १६६४ में पं० सिद्धविजयजी गणि के पास। स्वर्गवास सं० १६७१ फाल्गुण सुदि २ (तखतगढ़ में) 2010_05 Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर-सविन शाखा की गुरु-परम्परा (५८) माचार्य श्री हीरविजयसूरि । (६६) उपाध्याय सहजसागर । जयसागर। जितसागर। (६२) मानसागर। (६३) मयगलसागर । पद्मसागर । (स्व० सं० १८२५ में) सुज्ञानसागर । (स्व० सं० १८३८) स्वरूपसागर । (स्व० सं० १८६६) निधानसागर । (स्व० सं० १८८७) मयगलसागर । (६५) (६७) (६८) (६१) गौतमसागर । (६६) नेमिसागरजी। (७०) झवेरसागर (७०) रविसागरजी (७१) भाचार्य प्रानन्दसागरसूरि । (७१) सुखसागरजी (७२) , माणिक्यसागरसूरि। (७२) प्राचार्य बुद्धिसागरसूरि । (सं० १६८१ स्वर्ग) (७३) मा० अजितसागरसूरि । (७४) प्रा० ऋद्धिसागरसूरि । (७५) , कीर्तिसागरसूरि । ___ 2010_05 Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमल-सविन शाखा को गुरु-परम्परा (५६) प्रानन्दविमलसूरि (५७) ऋद्धिविमलजी (५८) कीतिविमलजी (५६) वीरविमलजी (६०) महोदयविमलजी (६१) प्रमोदविमलजी (६२) मरिणविमलजी उद्योतविमलजी (६४) दानविमलजी (६५) प० दयालविमलजी (६६) , सौभाग्यविमलजो (६७) , मुक्तिबिमलजी (स्व० १६७४ में) (६८) प्रा. रंगविमलसूरि (सं० २००५ में प्राचार्य-पद) ___ 2010_05 Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री पावचन्द्र गाछ की पहावली (१) श्री पाश्र्वचन्द्र गच्छ के अनुयायी अपने गच्छ का अनुसन्धान श्री वादिदेवसूरि के साथ करते हैं। इनका कहना है कि वादिदेवसूरिजी ने चौबीस साधुनों को प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया था। उनमें श्री "पद्मप्रभ" नामक प्राचार्य भी एक थे, जिनसे हमारी "नागपुरीयतपागच्छ” की परम्परा चली है । पार्श्वचन्द्र के अनुयायियों का उक्त कथन कहां तक ठीक है, इस पर हम टीकाटिप्पणी करना नहीं चाहते, परन्तु एक बात तो निश्चित है कि इनके गच्छ के साथ लगा हुमा "तपागच्छ” यह विशेषण सूचित करता है कि यह अनुसन्धान बाद में किया गया है । क्योंकि "तपागच्छ” नाम के प्रर्वतक प्राचार्यश्री जगच्चन्द्रस रि थे, और इनको यह पद सं० १२८५ में प्राप्त हुआ था। इससे इतना तो निश्चित है कि पद्मप्रभस रि से "नागपुरीय तपागच्छ” शब्द का प्रचलन नहीं हुआ था। मालूम होता है, उपाध्याय पावचन्द्र का अपने गुरु के साथ वैमनस्य होने के बाद "पद्मप्रभसूरि" से अपना सम्बन्ध जोड़कर वे स्वयं उनकी परम्परा में प्रविष्ट हो गये है। __ वादिदेवस रि के बाद पार्श्वचन्द्रीय अपनी पट्टपरम्परा निम्नलिखित बताते हैं - ४५ श्री पनप्रभस रि ५१ श्री रत्नशेखरस रि ४६ ॥ प्रसन्नचन्द्रसरि ५२ , हेमचन्द्रसरि ४७ , गुणसमुन्द्रसूरि ५३ , पूर्णचन्द्रस रि ४८ , जयशेखरसूरि ५४ , हेमहंसस रि ४६ , वज्रसेनस रि ५५ , लक्ष्मीनिवासस रि ५० , हेमतिलकसरि ५६ , पुण्यरत्नस रि ५७ , साधुरत्नस रि (पाश्र्वचन्द्र के गुरु) ___ 2010_05 Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २२६ श्री पाश्वंचन्द्रगच्छ नाम पड़ने के बाद - ५८ श्री पार्श्वचन्द्रस रि १ – पार्श्वचन्द्र के प्रथम शिष्य प्राचार्य विजयदेव ने अपने गुरु उपाध्याय पार्श्ववन्द्र को प्राचार्य-पद दिया था। पार्श्वचन्द्रस रि का जन्म सं० १५३७, हमीरपुर में, दीक्षा १५४६, उपाध्याय-पद सं० १५५४ में, क्रियोद्धार सं० १५६४ में, प्राचार्य-पद स० १५६५ में, स्वर्गवास सं० १६१२ में । ५६ श्री समरस रि – सं० १६२६ में स्वर्गवास , ६० , राजचन्द्र सूरि ६५ श्री नेमिचन्द्र ७० श्री लब्धिचन्द्र सू रि ६१ , विमलचन्द्रस रि ६६ , कनकचंद्रसूरि ६१ , हर्षचन्द्रस रि ,, जयचन्द्रस रि ६७ , शिवचन्द्रसूरि ७२ , मुक्तिचन्द्रसूरि ६३ , पद्मचन्द्रसूरि ६८ , भानुचन्द्रसरि ६४ , मुनिचन्द्रसू. द्वि. ६६ , विवेकचन्द्र रि ७३ श्री भ्रातृचन्द्रसू रि २ - का जन्म सं० १६२० में बड़गांव (मारवाड), दीक्षा सं० १९३५ में वीरमगांव, क्रियोद्धार सं. १६३७ में, मांडल में, प्राचार्य पद १६६७ शिवगंज ( मारवाड) स्वर्गवास १६७२ में अहमदाबाद में। ७४ श्री सागरचन्द्रस रि का जन्म सं० १६४३, दीक्षा १६५८ में, प्राचार्य १९६३ में, १८६५ में स्वर्गवास । ७५ , मुनिवृद्धिचन्द्र 2010_05 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावचन्द्र-छ की लघु- पहावली (२) १ श्री पार्श्वचन्द्रसूरि - सं० १५७२ वर्षे नागपुरीय तपागच्छ से निकल कर सं० १५७५ मैं अपना मत प्रकट किया । २ समरचन्द्रसूरि ३ राजचन्द्रसूरि ४ विमलचन्द्रसूरि ५ जयचन्द्रसूरि - सं० १६६E में स्वर्यचास। ६ श्री पद्मचन्द्रसरि - सं० १७४४ में स्वर्म । ७ श्री मुनिचन्द्रसूरि - १७५० में स्वर्ग। ८ श्री नेमिचन्द्रसूरि- १७६७ में स्वर्ग । ६ श्री कनकचन्द्रसूरि - १० श्री शिवचन्द्रसूरि - सं० १८२३ में स्वर्ग। ११ श्री भानुचन्द्रसूरि - १२ विवेकचन्द्रसूरि १३ श्री लब्धिचन्द्रसूरि - १४ श्री हर्षचन्द्रसूरि सं० १६१३ में स्वर्ग । १५ श्री हेमचन्द्रसरि सं० १९४० में स्वर्ग। १६ श्री भ्रातृचन्द्रसूरि सं० १६७२ में स्वर्ग। १७ श्री सागरचन्द्रसूरि सं० १६६३ में स्वर्ग। ___ 2010_05 Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बृहद्-गा गुविली १५ चन्द्रसूरि १६ समन्तभद्र (अरण्यवासी) १७ वृद्धदेवसूरि ( उपसम्पदा समन्तभद्र द्वारा) १८ प्रद्योतनसूरि १६ मानदेवसूरि २० मानतुंगतूरि २१ वीरसूरि २२ जयदेवसूरि २३ देवानन्दसूरि २४ विक्रमसूरि २५ नरसिंहमूरि २६ समुद्रसूरि २७ मानदेव २८ विबुधप्रभसूरि २६ जयानन्दसूरि ३० रविप्रभसूरि ( जिन्होंने वि० संवत् ७१० में नाडोल नगर में चैत्यप्रतिष्ठा को) ३१ यशोदेवसूरि ३२ प्रद्युम्नसूरि ३३ मानदेवसूरि ( योग और उपधान-विधिकारक ) ३४ विमलचन्द्र (वि० ८२२ में ) ___ 2010_05 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ ] [ पट्टावली- पराग ३५ उद्योतनसूरि ( लोकडीया वट के नीचे वि० ९९४ में ३०० शिष्य परिवार के साथ अनेकों को प्राचार्य पद दिया । ) ३६ सर्वदेवसूरि ३७ रूपदेवसूरि ३८ सर्वदेवसूरि ३६ यशोभद्र और नेमिचन्द्रसूरि ४० मुनिचन्द्रसूरि ( १९७४ में पट्टधर बनाया ) ४१ वादी देवसूरि ४२ मानदेवसूरि ४३ हरिभद्रसूरि ४४ पूर्णचन्द्रसूरि ४५ नेमिचन्द्रसूरि ४६ श्री मयचन्द्रसूरि ४७ मुनिशेखरसूरि ४८ तिलकसूरि ४९ भद्रेश्वरसूरि ५० मुनीश्वरसुमरिण - भट्टारक ५१ रत्नप्रभसूरि ५२ महेन्द्रसूरि ५३ रत्नाकरसूरि ५४ मेरुप्रभसूरि ५५ राजरत्नसूरि ५६ मुनिदेवसूरि ५७ रत्नशेखरसूरि ५८ पुष्यप्रभसूरि ५६ संयमराजसूरि ६० भावसूरि ६१ उदयराजसू रि 2010_05 Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २३३ ६२ भ० शीलदेवसूरि ६३ सुरेन्द्रसूरि ६४ प्रभाकरसरि ६५ माणिक्यदेवसूरि ६६ दामोदरसूरि ६७ देवसरि ६८ नरेन्द्रदेव 2010_05 Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अकेश गछीया पहावली पार्श्वनाथ शिष्य - १ गणधर श्री शुभदत्त २ त० हरिदत्त ३ भायं समुद्र ४ श्री केशी गणधर ५ स्वयम्प्रभसूरि ६ रत्नप्रभसूरि - वी. नि० ५२ में प्राचार्य-पद, पार्श्वनाथ की प्रतिमा साथ में लेकर दीक्षित हुए, वी० नि० ८४ में स्वर्गवास । ८ यक्षदेवाचार्य - मणिभद्र-यक्षप्रतिबोधकर्ता & ककसरि १० देवगुप्तसूरि ११ सिद्धसूरि १२ रत्नप्रभसूरि १३ यक्षदेव १४ कक्कसरि १५ देवगुप्तसूरि १६ सिद्धसूरि १७ रत्नप्रभसूरि १८ यक्षदेव वी. नि० से ५८५ में । ___ 2010_05 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २३५ १६ कक्कसूरि २० देवगुप्तसूरि २१ सिद्धसूरि २२ रत्नप्रभसूरि २३ यक्षदेव २४ ककसूरि २५ देवगुप्तसूरि २६ सिद्धसूरि २७ रत्नप्रभसूरि २८ यक्षदेव २६ कक्कदेवमूरि ३० देवगुप्त ३१ सिद्धसूरि ३२ रत्नप्रभ ३३ यक्षदेव ३४ ककुददेव ३५ देवगुप्त - ५ उपाध्याय स्थापित किये, उनमें से जयतिलक उपाध्याय ने 'शान्तिनाथचरित्र" बनाया। ३६ सिद्धसूरि ३७ ककूदेव ३८ देवगुप्त ३९ श्री सिद्धसूरि ४० कक ४१ देवगुप्त - सं० ६६५ के वर्ष में हर । वीणा बजाने में __ होशियार थे, जाति के यात्रिय होने से शिथिल हो गए, सो संघ ने पदभ्रष्ट किया और सिद्धसूरि को बिठाया । ४२ सिद्धसूरि ४३ ककसूरि - पंचप्रमाल ग्रन्थकर्ता । ___ 2010_05 Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] [ पट्टावली-पराग ४४ श्री देवगुप्तसूरि - सं० १०७२ वर्ष में । ४५ सिद्धसूरि - नवपदप्रकरण स्वोपज्ञ टीका कर्ता। ४६ कक्कसूरि ४७ देवगुप्तसूरि सिद्धसूरि ४६ ककसूरि ५० देवगुप्तसूरि - सं० ११०८ में भीनमाल नगर में पद-उत्सव शाह भैसाशाह ने किया । ५१ सिद्धसूरि ५२ कक्कसूरि - सं० ११५४ में हुए। जिन्होंने हेमसूरि और कुमारपाल के वचन से अपने पास से दयाहीन साधुओं को निकाल दिया । ५३ देवगुप्तसूरि - जिन्होंने एक लाख का त्याग किया । ५४ सिद्धसूरि ५५ ककसरि - जिन्होंने सं० १२५२ में मरोट कोट प्रकट किया। ५६ देवगुप्तसूरि ५७ सिद्धसूरि ५८ ककसूषि ५६ देवगुप्तसूरि ६० सिद्धसूरि ६१ कक्कसरि ६२ देवगुप्त सूरि ६३ सिद्धसूरि ६४ ककसूरि ६५ देवगुप्त - देसलपुत्र सहजा, समरा ने विमलवसतिका उद्धार कराया सं० १३७१ में । समरा के आग्रह से सिद्धसूरि ने शत्रुञ्जय के षष्ठ उद्धार में आदिनाथ की प्रतिष्ठा की । 2010_05 Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २३७ ६६ सिद्धसूरि - सं० १३३० में वर्षी नगर से शाह देसल ने यात्रा की १४ बार, सिद्धसूरि प्रमुख सुविहित प्राचार्य साधुनों द्वारा तिलक कराया गया। ६७ ककसूरि - सं० १३७१ में सहजा नै पदमहोत्सव किया। इन कक्कसूरि ने 'गच्छ-प्रबन्ध" बनाया जिसमें देसल के पुत्र समरा सहजा का चरित्र है। ६८ देवगुप्तसूरि - श्री शाङ्गधर संघवी ने सं० १४०६ में दिल्ली में इनका पदमहोत्सव दिया। ६६ श्री सिद्धसूरि-स० १४७५ में पाटन में शाह झाबा नीवागर ने इनका पदमहोत्सव किया। ७० ककसरि - सं० १४६८ में चित्तौड़ में शा० सारंग सोनागर राजा ने पदमहोत्सव किया। ७१ देवगुप्तसूरि - सं० १५२८ में जोधपुर में मन्त्री जैतागर ने पद महोत्सव किया, इन्होंने ५ उपाध्याय स्थापित किये, उनके नाम - धनसार उपा०, उपा० देवकल्लोल, उ० पद्म तिलक, उ० हंसराज, उ० मतिसागर । ७२ सिद्धसूरि - मन्त्री लोलागर ने सं० १५६५ में, मेड़ता में पदमहो त्सव किया। ७३ वकसूरि - जोधपुर में सं० १५६६ में गच्छाधिप हुए, मन्त्री धर्मसिंह ने पदमहोत्सव किया । ७४ देवगुप्तसूरि - सं० १६३१ में सहसवीरपुत्र मन्त्री देदागर ने पद __ महोत्सव किया। ७५ सिद्धसूरि - सं० १६५५ में चैत्र सुदि १३ को विक्रमपुर में पद महोत्सव हुआ। ७६ ककसरि - सं० १६८६ फाल्गुण सुदि ३ को पदमहोत्सव मन्त्री सावलक ने किया। ७७ देवगुप्तसूरि - सं० १७२७ में ईश्वरदास ने पदमहोत्सव किया। ७८ श्री सिद्धसूरि-सं० १७६७ के मिगसर सुदि १० को मन्त्रो सगतसिंह ने पदमहोत्सव किया। ___ 2010_05 Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ] [ पट्टावलो-पराग ७६ कक्कसरि - सं० १७८३ में प्राषाढ़ वदि १३ को मन्त्री दौलतराम ने पदमहोत्सव किया। ८० देवगुप्तसरि - सं० १८०७ में मुहता दौलतरामजी ने पदमहोत्सव किया। ८१ सिद्धसरि - सं० १८४७ में माह सुदि १० के दिन मुहता श्री खुशाल चन्द्र ने पदमहोत्सव किया। ५२ श्री ककसरि-सं० १८६१ वर्षे चैत्र सुदि ८ को पद हुआ, बीकानेर में। ८३ श्री देवगुप्तसरि-सं० १६०५ में भाद्रवा सुदि १३ को पद हुआ, फलोदी में समस्त मुहतों ने पदोत्सव करवाया। ८४ श्री सिद्धसरि-सं० १९३५ के माघ कृष्ण ११ को पट्टाभिषेक हुआ, विक्रमपुर में। 2010_05 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पौशामिक - Inछ की गुवविली -पं० उदयसमुद्र विरचित १ चन्द्रगच्छ में चन्द्रप्रभसूरि २ धर्मघोषसूरि ३ श्री देवभद्रसूरि ४ , जिनदत्तसूरि ५ शान्तिभद्रसूरि ६ श्री भुवनतिलकसूरि ७ , रत्नप्रभसूरि ८ , हेमतिलकसूरि ६, हेमरत्नसूरि १० । हेमप्रभसूरि ११ , रत्नशेखरसूरि , रत्नसागरसूरि १३ , गुणसागरसरि १४ , गुणसमुद्रसूरि १५ , सुमतिप्रभसूरि १६ , पुण्यरत्नसूरि १७ ,, सुमतिरत्नसूरि - सं० १५४३ के वैशाख सूदि ५ गुरुवार को प्राचार्य-पद। ___ 2010_05 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंबाल-ग की पहावली ३५ उद्योतनसूरि - इनसे बड़-गच्छ हुआ। ३६ सर्वदेवसूरि ३७ पद्मदेवसूरि ३८ उदयप्रभसूरि ३६ प्रभानन्दसूरि ४० धर्मचन्द्रसूरि ४१ विनयचन्द्रसूरि ४२ गुणसागरसूरि ४३ विजयप्रभसूरि ४४ नरचन्द्रसरि ४५ वीरचन्द्रसरि ४६ जयसिंहसरि ४७ मार्यरक्षितसरि - इनका जन्म सं० ११३६ में भाबु से नैऋत्य दिग्वर्ती १० माईल पर आये हुए आधुनिक "दत्ताणी" और प्राचीन "दन्ताणी" में हुआ था। सं० ११४६ में दीक्षा, ११५६ में सूरिपद, सं० ११६६ में भालेज गांव में फिर सरिपद और सं० १२२५ में पावागढ़ में स्वर्गवास । इन्होंने २१ उपवास करके काली देवी का आराधन किया था और ११६६ में ७० बोलों की ७० बातों का प्रतिपादन कर अपने समुदाय 2010_05 Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद [ २४१ - का "वित्रिपक्ष" यह नाम रखा और सं० १२१३ में इसका "अंचलगच्छ" यह दूसरा नाम पड़ा। ४८ जयसिंहसूरि ४६ धर्मघोषसूरि - स० १२६८ में स्वर्गवास, इन्होंने "शतपदी' ग्रन्थ रचा। ५० महेन्द्रसूरि - इन्होंने प्राकृत में "तीर्थमाला", "शतपदी विव. रण” और “गुरुगुणषट्त्रिंशिका'' बनाई । ५१ सिंहप्रभसूरि - इनका सं० १२८३ में जन्म, १२९१ में दोक्षा, सं० १३०६ में खम्भात में आचार्य-पद, सं० १३१३ में स्वर्गवास । ५२ अजितसिंहसूरि - जन्म १२८३ में, १३१६ में प्राचार्य-पद जालोर में, सं० १३३६ में स्वर्गवास । ५३ देवेन्द्रसिंहसूरि - इनका जन्म सं० १२६६ में, दीक्षा सं० १३१६, सं० १३२३ में प्राचार्य-पद, १३७१ में स्वर्गवास । ५४ धर्मप्रभसूरि - जन्म १३३१ में, सं० १३५१ में जालोर में दीक्षा, १३६६ में प्राचार्य-पद, १३६३ में प्रासोटी गांव में स्वर्गवास । ५५ सिंहतिलकसूरि - सं० १३४५ में जन्म, १३६१ में दोक्षा, १३७१ में प्राचार्य-पद, स० १३६३ में गच्छानुज्ञा और १४६५ में स्वर्गवास । ५६ महेन्द्रप्रभसूरि - सं० १३६३ में जन्म, १३७५ में दीक्षा, १३६३ में आचार्य-पद और १३६५ में गच्छनायक, १४४४ में स्वर्गवास शत्रुञ्जय पर । ५७ मेस्तुगसूरि - जन्म वि० सं० १४०३ में, १४१८ में दीक्षा, १४२६ सूरिपद, १४७३ में स्वर्गवास । ५८ जयकी तिसूरि - जन्म सं० १४२३ में, १४४४ में दीक्षा, १४६७ में सूरिपद, १४७३ में गच्छनायक १५०० में चांपानेर नगर में स्वर्गवास हुआ। उन्होंने उत्तराध्ययन 2010_05 Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ ] [ पट्टावली-पराग टीका, क्षेत्रसमासटीका, संग्रहणीटीका आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की। ५६ जयकेसरीसूरि - जन्म सं० १४६१ में, दीक्षा १४७५ में, सूरिपद १४६४ में, १५४२ में राजनगर में स्वर्गवासी हुए। ६० सिद्धांतसागरसूरि - जन्म १५०६ में, १५२२ में दीक्षा, सं० १५४१ में प्राचार्य-पद, सं० १५४२ में गच्छनायक-पद, १५६० में मांडलगढ़ में स्वर्गवास । ६१ भावसागरसूरि - जन्म १५१० में, सं० १५२४ में दीक्षा, १५६० में गच्छ नायक-पद, वि० १५८३ में खंभात में स्वर्गवास । ६२ गुणनिधानसूरि - वि० १५४८ में जन्म, १५६० में दीक्षा, १५८४ में सूरिपद और गच्छनायक पद सं० १६०२ में राजनगर में स्वर्गवास । ६३ धर्ममूर्तिसूरि - वि० स० १५८५ में जन्म; १५६६ में दीक्षा, १६०२ में राजनगर में सूरिपद और गच्छ नायक-पद, १६७० में स्वर्गवासी हुए। ६४ कल्याणसागरसूरि- सं० १६३३ में जन्म, १६४२ में दीक्षा, वि० १६४६ में प्राचार्य-पद, १७१८ में स्वर्गवास । ६५ अमरसागरसूरि - सं० १६६४ में जन्म, १६७५ में दीक्षा, १६८४ में प्राचार्य-पद, सं० १७६२ में स्वर्गवास । ६६ विद्यासागरस रि - १७३७ में जन्म, १७५६ में दीक्षा, १७६२ में प्राचार्य-पद और गच्छनायक-पद, १७९७ में स्वर्गवास । ६७ उदयसागरस रि - जन्म १७६३ में, दीक्षा १७७७ में, उपाध्याय-पद सं० १७८३ में सं० १८२८ में उदयसागरसूरिजी की प्राज्ञा से अंचलगच्छ की पट्टावली का यह अनुसन्धान बनाया। ६८ श्री कीर्तिसागरसूरि-सं० १७९६ में जन्म, सं० १८६० में दीक्षा, ____ 2010_05 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय परिच्छेद ] ६६ पुण्यसागरसूरि - सं० १८१७ में जन्म १८३३ में दीक्षा, १८४३ में प्राचार्य पद सं० १८७० में स्वर्गवास | श्री राजेन्द्रसागरसूरि - सं० १८६२ में स्वर्गवास मांडवी बन्दर । [ २४३ १८२३ में सूरिपद, १८३६ में गच्छेश, १८८३ में स्वर्गवास । ७० ७१ श्री मुक्तिसागरसूरि - सं० ७२ श्री रत्नसागरसूरि- ९८६ में जन्म, ७४ १८५७ में जन्म १८६७ में दीक्षा, १८६२ में प्राचार्य - गच्छनायक पद, सं० १८६३ में सेठ खोमचन्द मोतीचन्द ने शत्रुञ्जय पर टूक बंधा कर ७०० जिनबिम्ब भरवाये थे, उन सब की अंजनशलाका कर प्रतिष्टा करवाई । सं० १८१४ में स्वर्गवास || अंचल म्होटी. पट्टा. पृ. ३७४. 2010_05 दीक्षा १८०५ में १६१४ में ७३ श्री विवेकसागरसूरि - जन्म सं० १८९१ में, १६२८ में प्राचार्य-पद १८४८ में स्वर्गवास । भ० जिनेन्द्रसागरसूरि । श्राचार्य - पद, १६२८ में स्वर्गवास । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलिवालगाछीय पहावली x श्री महावीर १ सुधर्मस्वामी २ जंबू ३ प्रभव ४ शय्यम्भव ५ यशोभद्र ६ संभूतविजय और भद्रबाहु । ७ स्थूलभद्र ८ आर्यमहागिरि और सुहस्ती, आर्य सुहस्ती वीर से २६१ वर्ष में, और महागिरि २६३ वर्षे स्वर्ग । ६ बहुलस दृक् (बलिस्सह) वीर से ३२५ में स्वर्ग । १० स्वाति, वीर से ३६१ में स्वर्ग । तत्वार्थकर्ता । ११ श्यामाचार्य प्रज्ञापनाकार, वी० ३७६ में स्वर्ग । १२ साण्डिल्य - वीर से ३६६ में स्वर्ग । १३ आर्यगुप्त १४ वृद्धवादी १५ सोमदेवसूरि - वीर से ५०७ बर्षे रवर्ग । १६ नागदिन्नस रि - वि० सं० ८७ वर्षे स्वर्ग । १७ नरदेवस रि - वि० सं० १२५ में स्वर्ग । १८ सूरसेनस रि - वि० सं० १८७ में चित्रकूट में स्वर्ग । १६ धर्मकीति - वि० २१० में स्वर्गवास २० सुरप्रियस रि 2010_05 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ २४५ २१ धर्मघोषस रि ९२ निर्वृतिस रि २३ उदितसूरि २४ चन्द्रशेखरसूरि २५ सुघोषसूरि - २६ महीधर सूरि -- २७ दानप्रियसूरि २८ मुनिचन्द्रसूरि २६ दयानन्दसूरि - ३० धनमित्रसूरि - ३१ सोमदेवसूरि - वि० सं० ३६७ में स्वर्गवास । वि० ४२५ में स्वर्गवास । वि० ४७० में स्वर्गवास । वि० ५१२ में स्वर्गवास । एक समय विचरते हुए मथुरा गये, वहीं पर अन्य ५०० साधुनों का समुदाय सम्मिलित हुअा है । उसमें देवद्धि गगि भी सम्मिलित हैं, देवधि ने संघ-सभा में कहा - इस समय भी साधु अल्प. विद्यावान् अबहुश्रु त होगए हैं, तो भविष्य में तो क्या होगा, इस वास्ते पाप सब को सम्मति हो तो सत्र पुस्तकों पर लिखवा लें, देवद्धि का प्रस्ताव सबने स्वीकार किया। सर्व सत्र पुस्तकों पर लिख लिये गए, आज से विद्या पुस्तक पर हो यह सोचकर सब सत्र पुस्तक भण्डार में रक्खे । उसके बाद सोमदेवस रि विक्रम संवत् ५२५ में स्वर्गवासी हुए, पूर्वश्रुत का तब से विच्छेद हो गया। ३२ गुणन्धरसूरि - ३३ महानन्दसूरि - महानन्दस रि ने विद्यानन्द दिगम्बराचार्य को वाद में जीता, महानन्द ने दक्षिणा-पथ में भी विहार किया तथा "तर्कमंजरी" को रचना भी की, विक्रम सं० ६०५ में स्वर्गवासी हुए । 2010_05 Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ] ३४ सम्मतिसूरि - ३५ इन्द्रदेवसूरि ३६ भट्टस्वामी ३७ जिनप्रभाचायं - ३८ मानदेवाचार्य - -- 2010_05 [ पट्टावली-पराग उस समय अनेक मतभेदों का उद्भव हुआ, सामाचारियां भी भिन्न-भिन्न बनी और अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ । आर्य सुहस्ती की परम्परा में साधु शिथिलाचारी और चत्यवासी हो गए थे श्रौर उनका प्राबल्य बहुत बढ़ गया था । सुधर्मा गणधर की खरी परम्परा को पालने वाले बहुत ही कम रह गये थे । उस समय सन्मतिसरि विचरते हुए भीनमाल नगर गए, वहां पर सोमदेव के पुत्र इन्द्रदेव को प्रतिबोध देकर संयम दिया | वह विद्या का पारंगत हुआ, सन्मतिस रि विक्रम सं० ६७० के वर्ष देवलोक प्राप्त हुए थे 1 । इसलिये लोग इन्होंने कोरण्टक गांव में महावीर चैत्य में प्रतिष्ठा की, वहां से देवापुर में भी जिनप्रतिष्ठा की और वि० ० ७५० में स्वर्गवासी हुए । उग्रविहार से विचरते हुए नाड़ोलनगर प्राए । मानदेव बहुधा निर्वृति मार्ग की प्ररूपणा किया करते थे । इसलिये लोगों में वे निर्वृति आचार्य के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे वे जहां विचरते वहां रोगादि उपद्रव नहीं होते उनको युगप्रधान भी मानते थे । उन्होंने उपदेश देकर अनेक श्रीमाल ब्राह्मणों को जिनधर्म के अनुयायी बनाये थे । एक पल्लिवाल ब्राह्मण सरवरा गांव का रहने वाला, जो देवपाठी था, भाचार्य की महिमा सुनकर प्रब्रजित हुआ । उसने "सम्मतितर्क" शास्त्र का निर्माण किया । निर्वृति आचार्य वि० सं० ७८० के वर्ष में देवलोक प्राप्त हुए । Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद । [ २४७ ३६ सरवरणाचार्य - जो निवृति प्राचार्य के शिष्य थे, निवृतिकुल के थोड़े से साधुनों के साथ विहार करते थे । एक दिन रात्रि के समय शूलरोग से कालधर्म प्राप्त हुए । उनमें शिष्य अब पाच र्य की इच्छा करते हैं, परन्तु पाट के योग्य कौन है ? इसका निर्णय न होने से वे निराश रहते, अन्यथा वहां कोटिक गण के जयानन्दसूरि प्राये, उन्होंने उनको प्राश्वासन दिया और कहा-तुम्हारे में सूर योग्य है, साधुनों ने कहा - "आप इन्हें प्राचार्य-पद पर स्थापन करिये," उन्होंने सूर को प्राचार्य-पद देकर : 'सूराचायं" बनाया, सर्व स धुओं ने उनको माना । गच्छ की वृद्धि हुई, जयानन्दसूरि और सूगचार्य दोनों साथ-साथ में विचरते थे, परस्पर ६ड़ी प्रीति थी। ४० सूराचार्य - एक समय इस देश में दुष्काल पड़ा, तब दोनों प्राचार्य मालव देश गए और वहां पर जुदे-जुदे समुद यों के साथ विचरने लगे। सूराचार्य ने महेन्द्रनगर में च तुर्मास्य किया। जयानन्दसूरि ने उज्जैनी में चातुर्मास्य किया। वहां पर जयानन्दसरि का स्वर्गवास हो गया । सूराचर्य जयानन्दसूरि के स्वर्गवास के समाचार सुनकर शोकानुल हुए, उनके शिष्य देल्लमहत्तर ने कहा – गृहस्थ की तरह शोक करना साधु के लिये उचित नहीं, सूराचार्य ने भी अपने पट्ट पर देल्लमहत्तर को स्थापन कर आप तपस्या करने लगे, तीन-तीन उपवास के पारणे में प्रायम्बिल करते हुए, सब पदार्थ अनित्य मानते हुए उज्जैनी में ही अनशन करके देवलोक पधारे। ____ 2010_05 Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ ] [ पट्टावलो-पराग ४१ देल्लमहत्तर - देल्लमहत्तराचार्य मालवा से विचरते हुए भीनमाल आए, उस समय भीनमाल में सुप्रभ नामक एक वेदपारग बाह्मण रहता था। उसका दुर्ग नामक पुत्र नास्तिक था, जो परलोकादि कुछ नहीं मानता था। प्राचार्य देल्लमहत्तर ने उसको प्रतिबोध दिया और दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया, वह निर्मल चारित्र पालता हुमा विचरने लगा । उस समय शानपुर नामक गांव में एक सुखपति नामक क्षत्रिय रहता था । उसके एक पागल पुत्र था, क्षत्रिय ने प्राचार्य को कहा - मेरे पुत्र का पागलपन मिटाइये, जो मेरे पुत्र का पागलपन मिटाएगा, उसको शासन दूगा । प्राचार्य ने कहा - पागलपन तो मिटाऊँगा, परन्तु उसको दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाऊँगा, मंजूर हो तो कहो, क्षत्रिय ने स्वीकार किया। प्राचार्य ने विद्या-प्रयोग से उसका ग्रथिलपन मिटाया, वह बिल्कुल अच्छा हो गया। बाद में उसको प्रतिबोध देकर दीक्षित किया, क्रमशः शास्त्राध्ययन करके वह विद्वान् हुआ। प्राचार्य देल्लमहत्तर ने अपने दोनों शिष्यों को प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया, बाद में वे स्वर्गवासी हो गये। ४२ दुर्गस्वामी, गर्गाचार्य- दुर्गस्वामी और गर्गाचार्य विचरते हुए श्रीमाल नगर गए, वहां पर एक धना नामक सेठ जैन श्रावक रहता था। उसके घर पर सिद्ध नामक राजपुत्र था। उसको गर्गाचार्य ने दीक्षा दी, वह अतिशय बुद्धिमान तर्कशील था। एक बार उसने अपने गुरु से पूछा, – इससे अधिक या इसके 2010_05 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोय-परिच्छेद ] [ २४६ पागे तर्क-शास्त्र है या नहीं ? दुर्गाच र्य ने कहाबौद्ध मत में इससे भी अधिक तर्क-शास्त्र है । सिद्ध वहां जाने को तैयार हुग्रा, गर्गर्षि ने कहा, बौद्धों के विद्यापीठ में जाने से श्रद्धाभंग हो जायगी । उसने कहा-कुछ भी हो मैं आपके पास वापिस मा जाऊँगा । वह गया और श्रद्धाहीन बनकर लौटा । दुर्गाचार्य ने बोध देकर फिर श्रद्धालु बनाया, फिर वह वहां गया, फिर पाया, दुर्गाचार्य उसको प्रतिबोध देकर ठिकाने लाये, तो फिर बौद्ध विद्यापीठ में गया, इस प्रकार बार-बार गमनागमन से तंग आकर गर्गाचार्य ने जयानन्दसू रि के परम्परा-शिष्य श्री हरिभद्राचार्य जो उस समय सबसे श्रेष्ठ श्रुतार थे, बौद्धमत के ज्ञाता और बुद्धिमान थे, उन्हें विज्ञप्ति को कि सिद्ध ठहरता नहीं है । हरिभद्र ने कहा -- कुछ भी उपाय करूगा। सिद्ध प्राया, समझया, पर ठहरता नहीं है, कहता है मैं अध्यापक प्राच यं को वचन देकर आया हूं। सो एक बार तो उनके पास जाऊँगा, तब आचार्य हरिभद्र ने "ललितविस्तरा' वृत्ति की रचना कर गर्गाचार्य को दो पौर वे स्वयं अनशन कर परलोक प्राप्त हुए । कालान्तर से सिद्ध वापस आया, गग चार्य ने "ललितविस्तरा" उसको पढ़ने के लिये दो। सिद्ध भी उसे पढ़कर प्राहंत मत का रहस्य समझा, बोला "अइपंडिग्रो हरिभद्दगुरू" हरिभद्र गुरु सर्वश्रेष्ठ विद्वान् हैं, जैन धर्म में वह दृढ़ हो गया और आत्मा को धर्म-भावना से वासित करता हुमा, कठोर तप करता हुमा विचरने लगा। ४३ धोषेण, सिद्धाचार्य- पाच र्य दुर्गस्वामी वि० सं० ६०२ में परलोक ___ 2010_05 Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [ पट्टावली-पराग ४४ धर्ममति - ४५ नेमिसूरि - ४६ सुव्रतसूरि - वासी हुए, उनका शिष्य श्रीषेण प्राचार्य-पद पर था । गर्गाचार्य भी वि० सं० ६१२ में कालगत हुए। गर्गाचार्य के पट्ट पर सिद्धाचार्य और श्रीषेणाचार्य दोनों आचार्य इस प्रदेश में विचरते थे, कालान्तर में श्रीषेणा चार्य मालव देश गए, वहां पर नोलाई में धर्मदास श्रेष्ठो के पुत्र को दीक्षा दी, नगररांधकारित जिनचैत्य में प्रतिष्ठा को, सिद्धर्षि आचार्य वि० सं० ९६८ में देवलोक प्राप्त हुए। श्री सिद्धर्षि के पट्ट पर धर्ममति प्राच.यं हुए, धर्ममति के पट्ट पर श्री नेमिस रि हुए और उनके पट्ट पर सुव्रतस रि हुए। आचर्य सुव्रत के समय बहुतेरे गणभेद हुए, प्राचार्यों के आपस में विवाद खड़े हुए, अपनेअपने श्रावक-श्राविकाएं भी संगृहीत हुए, सुव्रतस रि के शिष्य भी शिथिल विहारी हो गए। उनमें एक दिनेश्वर नामक साधु था, वह बड़ा पण्डित था, सुव्रतस रि विक्रम सं० ११०१ में देवलोक प्राप्त हुए। उनके पट्ट पर दिनेश्वर उग्रविहारो हुए - महात्मा दिनेश्वरस रि विहार करते पाटण गए और वहां महेश्वर जाति के वणिकों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया। दिनेश्वरस रि के पट्ट पर महेश्वरसूरि हुए। महेश्वरस रि एक बार नाडलाई गए, वहां पल्लिवाल बाह्मण रहते थे। उनको प्रतिबोध देकर श्रद्धावान् श्रावक किया, लोगों ने महेश्वरस रि के श्रमण समुदाय का 'पल्लिवाल गच्छ” यह नाम ४७ दिनेश्वरसूरि - ४८ महेश्वरसूरि - ___ 2010_05 Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय-परिच्छेद ] [ २५१ किया, महेश्वररा रि वि० सं० ११५० में परलोक वासी हुए, महेश्वरस रि के पट्ट पर देवसूरि हुए। ४६ देवसूरि - देवस रि ने सुवर्णगढ़ पर पार्श्वनाथ के चैत्य की प्रतिष्ठा की, फिर महावीर के चैत्य पर सुवर्णकलश स्थापन करवाया। उस समय में पौर्ण मिक गच्छ आदि प्रकट हुए, देवस रि भी १२२५ में स्वर्गवासी हुए। उनके पट्ट पर न(२)देवस रि ५० न(र?)देवसूरि - प्राचार्य नरदेवस रि ने ज्योतिष शास्त्रों का निर्माण किया, और सोनगिरों को प्रतिबोध देकर जैन बनाया, जालन्धर तालाब के पास जिनचत्य को प्रतिष्ठा की, वि० सं० १२७२ के वर्ष में स्वर्गवासी हुए । इनके पट्ट पर कृष्णसूरि हए । इनके पट्ट पर विष्णुस रि और इनके पट्ट पर साम्रदेवस रि ५१ कृष्णमूरि५२ विष्णुसूरि - ५३ माम्रदेवसूरि- पाम्रदेवस रि ने कथाकोशादि ग्रन्थों की रचना की, इनके पट्ट पर सोमतिलकस रि, इनके पट्ट पर भीमदेवस रि। ५४ सोमतिलकसूरि - ५५ भीमदेवसूरि - भीमदेव ने कोरटा गांव में चैत्य की प्रतिष्ठा की, वि० सं० १४०२ में कालगत हुए। इनके पट्ट पर विमलसरि हुए। ५६ विमलसूरि- विमलस रि ने मेवाड देश में उदयसागर की पाल पर चैत्य में जिनबिम्ब की स्थापना करवाई। ५७ नरोत्तमसूरि - उनके पट्ट पर नरोत्तमस रि वि० सं० १४६१ में स्वर्गवासी हुए। ____ 2010_05 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] [ पट्टावली-पराग - ५८ स्वातिसूरि - नरोत्तम के पट्ट पर स्वातिस रि, इनके पट्ट पर हेमस रि का १५१५ में स्वर्गवास । इनके पट्ट पर हर्षस रि । ५६ हेमसूरि - ६० हर्षसूरि - ६१ कमलचन्द्र - हर्षसूरि पौषधशाला में रहने लगे, इनके पट्ट पर भट्टारक कमलचन्द्र, कमलचन्द्र के पट्ट पर गुणमारिणक्य । गुणमाणिक्य के पट्ट पर सुन्दरचन्द्र, इनका स्वर्गवास सं० १६७५ में हुआ इनके पट्ट पर भ० प्रभुचन्द्र विद्यमान हैं। ६२ गुणमाणिक्य - ६३ सुन्दरचन्द्र - ६४ प्रभुचन्द्र - ॥ इति द्वितीय परिच्छेद ।। ___ 2010_05 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय परिच्छेद [ खरतरगच्छ की पट्टावलियाँ ] 2010_05 Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतरगच्छ पहावली-संग्रह (१) इस "पट्टावली-संग्रह" में कुल ४ पट्टावलियां हैं, जिनमें प्रथम एक प्रशस्ति के रूप में है। इसमें कुल संस्कृत पद्य ११० हैं और प्राचार्य जिनहंससूरि के समय में बनी हुई है, किन्तु कर्ता का नाम नहीं दिया । जिनहंस का समय १५८२ विक्रमोय है तथा उसी वर्ष इसका निर्माण हुमा है। सामान्य मान्यता अर्वाचीन खरतरगच्छ की मान्यता के अनुसार है । जिन-जिन प्राचार्यों का समय दिया है, वह व्यवस्थित मालूम होता है । (२) दूसरी पट्टावली गद्य संस्कृत में है। इसका लेखक इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, केवल दन्तकथाओं को अव्यवस्थित रूप से लिखकर पट्टावली मान ली है। गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य को जिननिर्वाण से ५०० वर्ष में और जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण को १८० में लिख कर लेखक ने अपने अज्ञान का नमूना बता दिया है। इसी प्रकार अन्यान्य प्राचार्यो के सम्बन्ध में भी क्रम-उत्क्रम लिख कर पट्टावली को निकम्मा बना दिया है। यह पट्टावली वि० सं० १६७४ में बनाई गई है । . (३) इसमें प्रार्यवज्र स्वामी का जन्म जिननिर्वाण से ४६६ में, दीक्षा ५०४ में, ५८४ में स्वर्गवास लिखा है । - इसमें निर्वाण से ५२५ में शत्रुञ्जय का उच्छेद लिखा है और ५७० में जावडशाह द्वारा इसका उद्धार होना लिखा है । प्रज्ञापनाकार कालकाचार्य ३७६ में और गर्द भिल्लोच्छेदक कालकाचार्य ४५३ में होना लिखकर - "पुनस्तदेव श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणो जातः" ऐसा लिखकर शीलाझाचार्य को इनका शिष्य लिखा है और शीलाङ्क के ___ 2010_05 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [ पट्टावलो-पराग समय में ही हरिभद्रसूरि को बताया है। इस प्रकार समय की दृष्टि से ठीक व्यवस्थित नहीं है। प्रार्यवज्र के बाद इस पट्टावलीकार ने पट्टानुक्रम से १७ वज्रसेन, १८ चन्द्रसूरि, १६ समन्तभद्र, २० वृद्धदेवसूरि, २१ प्रद्योतनसूरि, २२ मानदेव, २३ मानतुङ्ग, २४ वीरसरि, २५ जयदेव, २६ देवानन्द, २७ विक्रम, २८ नरसिंह, २६ समुद्र, ३० मानदेव, ३१ विबुधप्रभ, ३२, जयानन्द, ३३ रविप्रभ, ३४ यशोभद्र, ३५ विमलचन्द्र, ३६ देवसरि, ३७ नेमिचन्द्र, ३८ उद्योतन और ३६ वर्धमान । इस प्रकार इसमें दी हुई पट्टपरम्परा पहली तथा दूसरी पट्टावलो से जुदा पड़ती है । पहली, दूसरी और तीसरी पट्टावली प्रार्य सुहस्ती तक एक-क्रम बताती है, इसके बाद पहली में सिंहगिरि, वज्र, पार्यरक्षित, दुर्बलिका पुष्यमित्र, मार्यनन्दि, रेवतिसरि, ब्रह्मद्वीपिकसिंह, भार्यसमित, सण्डिल्ल, हिमवान्, नागार्जुनवाचक, गोविन्दवाचक, सम्भूति, दिन, लौहित्यसूरि, (पू)ज्यगणी, उमास्वाति-वाचक, जिनभद्र, वृद्धवादी सूरीन्द्र, सिद्धसेन दिवाकर, हरिभद्र, देवसूरि, नेमिचन्द्र, उद्योतन, वर्धमान ये नाम क्रमशः पाए हैं। तथा दूसरी में आर्यसुहस्ती के बाद वज्र, कालिकाचार्य, गर्दभिल्ल. कालिकाचार्य, शान्तिसरि, हरिभद्र, सण्डिल्लसूरि, पार्यसमुद्र, आर्यमंगु, प्रार्यधर्म, मार्य भन्द, मार्यवयर, दुर्बलिका पुष्यमित्र, देवद्धिगणिक्षमाश्रमण, गोविन्दवाचक, उमास्वाति, देवेन्द्रवाचक, जिनभद्र गणी, शीलाङ्काचार्य, देवसूरि, नेमिचन्द्रसूरि, उद्योतन, वर्धमान । इस प्रकार प्रथम की तीन पट्टावलियों में आर्य सुहस्ती तक पट्टकम में ऐकमत्य है और बाद में तीनों के तीन पन्थ जुदे पड़ते हैं, जो देवसूरि तक माकर तीनों मिल जाते हैं। (४) चौथी पट्टाबली उपाध्याय क्षमाकल्याणकजी ने विक्रम सं. १८३० में बनायी है । इस पट्टावली का प्रारम्भ उद्योतनसूरि से किया है। उद्योतन, वर्धमान, जिनेश्वर, जिनचन्द्र, अभयदेव, जिनवल्लभ, जिनदत्त, जिनचन्द्र, जिनपति, जिनेश्वर, जिनसिंह, जिनप्रबोध, जिनचन्द्र पौर जिन 2010_05 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २५७ कुशलसूरि तक की नामावलि पट्टक्रम से दी है और पहली, दूसरी, तीसरी पट्टावलियों में भी उद्योतन के बाद इसी पट्टकम से प्राचार्यो की नामावलि मिलतो है, परन्तु क्षमाकल्याणकजी की तरह जिनसिंह का नाम जिनेश्वरसूरि के बाद मूलक्रम में नहीं लिखा। इसके बाद के पट्टकम करीब मिलतेजुलते हैं, परन्तु देवसरि के पहले के पट्टक्रम सभी भिन्न-भिन्न प्रकार से लिखे गए हैं । इससे ज्ञात होता है कि इन लेखकों के सामने कोई एक प्रामाणिक पट्टावली विद्यमान नहीं थी। __इस पट्टावली-संग्रह के सम्पापक ने पट्टावलियों में माने वाले पारस्परिक विरोधों की तरफ कुछ भी लक्ष्य नहीं दिया। इस प्रकार के ऐतिहासिक साहित्य के सम्पादन में सम्पादक को बड़ी सतर्कता रखनी चाहिए। 2010_05 Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरतर -बहद् - गुवक्लिी - श्रीजिनपालोपाध्यायादिसंकलिता - "खरतरगच्छ पट्टावली-संग्रह' के बाद हम "खरतरगच्छ बृहद् . गुर्वावली" का अवलोकन लिख रहे हैं। यह गुर्वांवली पूर्वोक्त प्रत्येक पट्टावली से बहुत बड़ो है। इसमें श्री वर्धमान सूरि जी से लेकर श्री जिनपद्मसूरि तक के खरतरगच्छोय १३ प्राचार्यो के वृत्तान्त दिए गए हैं । लेखक को प्रारम्भिक सहमंगल प्रतिज्ञा नीचे लिखे मुजब है - "वर्धमानं जिन नत्वा, वर्धमान-जिनेश्वराः । मुनीन्द्र - जिनचन्द्राख्याभयदेवमुनोश्वराः ॥१॥ श्रीजिनवल्लभसूरिः, श्रीजिनदत्तसूरयः ।। यतीन्द्रजिनचन्द्राख्यः, श्रीजिनपतिसूरयः ॥ २ ॥ एतेषां चरितं किश्चिन्मन्दमत्या यदुच्यते । वृद्धेभ्यः श्रुत (वेत्तृभ्य) स्तन्मे कथयत श्रृणु ॥३॥" लेखक कहते हैं - श्री वर्धमान जिन को नमस्कार कर श्री वर्धमान १, जिनेश्वर २, जिनचन्द्र ३, अभयदेव ४, जिनवल्लभ ५, जिनदत्त ६, जिनचन्द्र ७ प्रौर जिनाति ८, इन प्राचार्यो के चरित्र जो वृद्धों के मुख से सुने हैं, उ हें मन्दमति के अनुसार कहता हूं, हे शिष्य ! मेरे कथन को तू सुन । उपर्युक्त मंगलाचरण और प्रतिज्ञावचन किसी सामान्य लेखक के हैं। जिनपालोपाध्याय जैसे विद्वान् के ये वचन नहीं हो सकते। दो प्राचार्यों के लिए बहुवचनान्त प्रयोग केवल भद्दा ही नहीं, भ्रान्तिजनक भी है, ऐसा ____ 2010_05 Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २५६ शब्द-प्रयोग आपने दो जगह किया है। ऊपर की प्रतिज्ञा में पाठ प्राचार्यो के चरित्र लिखने की बात कही है, तब गुरिलो के ५०वें पृष्ठ में - "इति श्रीजिनचन्द्रसूरि - श्री जिनपतिसरि - श्री जिनेश्वरसूरि सत्कसज्जनमनश्चमत्कारिप्रभावनावानामपरिमितत्वेऽपि तामध्यवर्तिन्यः कतिचित् स्थूलाः स्थूला वार्ताः श्रोचतुर्विधसंघप्रमोदार्थम् । "ढिल्लीवास्तव्यसाधु - साहुलिसुत सा हेमाभ्यर्थनया। जिनपालोपाध्यायरित्थं ग्रथिताः स्वगुरुवार्ता. ॥" इसके बाद लेखक ने अपनी कृति के सम्बन्ध में विद्वानों के सामने तीन श्लोकों में अपना प्राशय व्यक्त किया है और अन्त में "उद्देशतोग्रंथ (?) १२४ ॥” इस प्रकार अपनी कृति का श्लोक-परिमारण भी लिख दिया है । लिखे हुए श्लोक-परिमारग में एक दूग्रा (२) रह गया है, वास्तव में श्लोकपरिमाण १२२४ लिखना चाहिए था। मणिधारी जिनचन्द्र, जिनपति और स० १३०५ तक जिनेश्वरसूरि का चरित्र सम्मिलित करने से उक्त तीन चरित्रों का श्लोक-परिमाण १२२४ ही बैठता है। ये ढाई चरित्र जिनपालोपाध्याय की कृति मान ली जाय तो भी प्राचार्य वर्धमा सूरि से जिनदत्त तक के छ: पुरुषों के चरित्रों का लेखक तो जिनपाल से भिन्न ही ठहरेगा, यह निर्विवाद है। अब यहां प्रश्न यह उठता है कि प्रारम्भ में लेखक ने पाठ प्राचार्यो के चरित्र लिखने की प्रतिज्ञा की थी, अब छः प्राचार्यो के ही वृत्तान्त लिख कर शेष जिनपाल उपाध्याय के लिए क्यों छोड़ दिये ? प्रश्न वास्तविक है और इसका उत्तर निम्न प्रकार से दिया जा सकता है। - प्रारम्भ, के छः आचार्यों का वृत्तान्त सुमतिगणि कृत गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति में उपलब्ध होता है, उसको सामने रखकर प्रारम्भिक छः प्राचार्यो के वृत्तान्त किसी साधारण विद्वान् ने लिखे थे। उन वृत्तान्तों में भी पिछले समय में अनेक प्रक्षेप करके उन्हें विस्तृत बना लिया। जिस पुस्तक के ऊपर से प्रस्तुत बृहद् गुर्वावली छपी है, वह अनेक ___ 2010_05 Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. ] [पट्टावलो-पराग प्रक्षिप्त पाठों से संबंधित आदर्श था। कम प्रक्षेपों वाला आदर्श भी थोड़ा सा सम्पादक के हाथ लगा था, परन्तु वह प्रारम्भिक पांच पत्रों में ही समाप्त हो गया था। उसके बाद की सारी गुर्वावली प्रक्षिप्त पाठों से संबंधित है, प्रक्षेप भी शब्दों, वाक्यों के नहीं किन्तु पांच-पांच सात-सात पंक्तियों से भी अधिक बड़े हैं। यहां पर दो-चार उदाहरण देंगे। बर्धमान और जिनेश्वरसूरि के वृत्तान्त में पालो में सोमध्वज नामक जटाधर मिलने सम्बन्धी जो प्रकरण है वह सारा का सारा प्रक्षिप्त है, दूसरी किन्हीं प्रतियों में वह प्रकरण नहीं मिलता। जिनवल्लभ गरिण के वृत्तान्त में उनके धारा नगरी में जाने की बात प्रक्षिप्त है, क्योंकि गुर्वावली के प्रत्यन्तरों में यह वृत्तान्त उपलब्ध नहीं होता। इसके अतिरिक्त एक-दो पोर तीन-तीन पंक्तियों के प्रक्षेपों की संख्या भी कम नहीं है, पदों तथा वाक्यों के प्रक्षेप तो बीसियों के ऊपर हैं। इन सब प्रक्षपों का अर्थ यही होता है कि प्रारम्भिक छः प्राचार्यो की गुर्वावली के पूर्वभाग में पिछले लेखकों ने अनेक नयी बातें जोड़ दी हैं। अब देखना यह है कि यह परिवर्तन किस समय में हुआ होगा? इस सम्बन्ध में भी हमने ऊहापोह किया तो यही ज्ञात हुमा कि अन्तिम प्रादर्श तैयार करने वाला विद्वान् विक्रम की पन्द्रहवीं शती के पूर्व का नहीं हो सकता, क्योंकि इसने कई शब्द तो मनस्वितापूर्वक बिगाड़ कर अपने सांकेतिक शब्द बना दिये हैं, जैसे-"पुरोहित" शब्द का सर्वत्र "उपरोहित" "अनहिल" को सर्वत्र "अनघिल" बना दिया है । यह भी एक सूचक बात है, क्योंकि प्रणहिल पाटन में खरतरगच्छ के प्राचार्यों का विहार लगभग १०० वर्ष तक बन्द रहा था। व्यवहारी अभयकुमार की कोशिश से तेरहवीं शताब्दी के लगभग मध्यभाग में खरतर माचार्यों का पाटन में जाना-आना फिर शुरु हुमा था। विक्रम संवत् १३६० में पाटन में मुसलमानों का अधिकार हुमा और नया पाटन बसा। उसके बाद खरतरगच्छ का पाटन में कायम के लिये स्थान नियत हुमा, जिसको वे "कोटड़ी" कहते थे। आज भी वह स्थान पाटन में "खराखोटड़ी" के नाम से विख्यात है। ____ 2010_05 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६१ - - - । प्रारम्भिक गुर्वावली का लेखक नये पाटन में गया है और पाटन के अपने श्रावकों की भक्ति को देखकर अणहिल पाटण को "अनधिल पाटन" अर्थात् "निष्पाप पाटन" नाम देने को प्रेरित हुआ है। यदि वह विहारप्रतिबन्ध के समय दर्मियान पाटण में गया होता तो उसे पाटन को "अघिल पाटन" कहने का ही मन होता । प्रारम्भिक बृहद्-गुर्वावली दूसरे भी अनेक कारणों से साधारण व्यक्ति की कृति सिद्ध होती है। इसमें प्रयुक्त अनेक प्रशुद्ध शब्दप्रयोग स्वयं इसको सामान्य कृति सिद्ध कर रहे हैं। अंभोहर, स्थावलक, दुर्लभराज्ञः, शुङ्क, छुपन्तु, गण्डलक, छोटित, निरोप, प्राढती, उम्बरिका, पश्चाटुकुरा, बिरदावली, प्रादि प्रलाक्षणिक शब्दों का प्रयोग करने वाला लेखक अच्छा विद्वान् नहीं माना जा सकता। गुर्वावली के प्राकृत भाग में “पारुस्थ", "पारुत्थ", "द्रम्भ" ये तीन सिक्कों के नाम पाए हैं, जिनमें प्रथम के दो नाम रजवाड़ी सिक्कों के हैं और उत्तर तथा मध्यभारतीय रजवाड़ों के ये सिक्के थे। इनकी प्राचीनता प्रतिपादक कोई प्रमाण नहीं मिलता, इससे अनुमान किया जा सकता है कि उक्त "सिक्के' विक्रम की १६वीं शती के बाद के होने चाहिए । गुर्वावली की प्रादर्श प्रति के प्रस्तुत पुस्तक में जो दो पानों के ब्लोक दिए हैं, उनको देखने से ज्ञात होता है कि इसकी लिपि विक्रम की सोलहवीं शती के पहले की नहीं हो सकती। क्या प्राश्चर्य है कि गुर्वावली के निर्मापक के हाथ का ही यह आदर्श हो, क्योंकि इस लिपि में पड़ी मात्रामों के अतिरिक्त लिपि की प्राचीनता का कोई प्रमाण नहीं है। अब रही मणिधारी जिनचन्द्र, जिनपति और जिनेश्वरसूरि के वृत्तान्त. लेखक की बात, सो गुर्वावली के पञ्चानवें पृष्ठ में किसी ने लिखा है कि "इस प्रकार जिनचन्द्र, जिनपति और जिनेश्वरसूरि के जीवनवृत्तान्त दिल्ली वास्तव्य साहुलिसुत साह हेमा की प्रार्थना से श्री जिनपालोपाध्यायजी ने ग्रथित किये" इसके आगे कहा गया है कि "लोकभाषा का अनुसरण करने वाली बातें सुबोध होती हैं । इसलिए कहीं-कहीं एक-वचन के स्थान बहुवचन भी लिखा 2010_05 Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ पट्टावली-पराग - है और इसी सुगमता के लिए क्वचित् संध्यभाव भी रखा गया है, ग्रन्थ की शुद्धि करने वाले सज्जनों को मेरी इन बातों को समझ लेना चाहिए।" लेखक ने जो कुछ ऊपर लिखा है, उससे उनकी यह कृति विरुद्ध जाती है । बहुवचन का अनुसरण करने तथा क्वचित् संधि न करने में तो बालावबोध का ध्यान रखा पर पंक्तियां की पंक्तियां गद्य-काव्य की तरह लिखी उस समय बालावबोध का ध्यान छोड़ दिया, इसका कारण क्या है ? जहां तक हमारा अनुमान है श्री जिनपालोपाध्याय ने अपने गुरुषों का वृत्तान्त संक्षेप में अवश्य लिखा होगा। परन्तु उनके देहान्त के बाद किसी डेढ़ पण्डित ने उसमें परिवर्तन करके बड़ा लम्बा चौड़ा प्रस्तुत वृत्तान्त गढ़ दिया है । इसमें प्राने वाले प्रद्य म्नाचार्य तथा ऊकेशगच्छीय पद्मप्रभाचार्य के साथ शास्त्रार्थ करने की जो बातें लिखी हैं, वे एक कल्पित नाटक है, जिसके पढ़ने से पाठक का सिर लज्जा से नीचा हो जाता है । जिनपालोपाध्याय जैसे विद्वान् इस प्रकार का लज्जास्पद नाटक लिखें यह असंभव है। चर्चा-शास्त्रार्थ होना असम्भव नहीं और उसका वृत्तान्त लिखना भी अनुचित नहीं, परन्तु लिखने में भी मर्यादा होती है, अपने मान्य पुरुष को आकाश में चढ़ाकर विरोधी व्यक्ति को पाताल में पहुंचा देना, सभ्य लेखक का कर्तव्य नहीं होता। उपाध्याय जिनपाल की लेखपद्धति का मैंने अध्ययन किया है । "चर्चरी" "उपदेश रसायन रास" तथा "कालस्वरूप कुलक" की टीकात्रों में जिनपाल ने बड़ी खूबी के साथ जिनदत्तसूरि की बातों का प्रतिपादन किया है । उनके विरोधियों के सम्बन्ध में लिखते हुए उन्होंने एक भी कटु-वाक्य का तो क्या कटु शब्द का भी प्रयोग नहीं किया, ऐसे वाक्संयमी जिनपालोपाध्याय के नाम पर गुर्वावली का यह भाग चढ़ाकर उनके किसी अयोग्य भक्त ने उनकी कुसेवा की है। व० सा० शब्द का "वश्याय" अथवा "वस्याय" संस्कृत रूप बनाने वाला लेखक विक्रम की पन्द्रहवीं शती के बाद का है, क्योंकि उनके टाइम में "व" तथा "सा" अक्षरों के प्रागे के अपूर्णता सूचक शून्य हट चुके थे 2010_05 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेद ] [ २६३ और केवल "वसा" लिखने का प्रचार हो चुका था । इसी कारण से लेखक ने दोनों प्रक्षरों का "खरा तात्पर्य" न समझ कर "वश्याय" अथवा " वस्याय" रूप बना लिए जो बिल्कुल अशुद्ध हैं, इससे लेखक सोलहवीं शती तक की अर्वाचीन कोटि में पहुँच जाता है, यह निस्सन्देह बात है । उस आधारभूत के श्राचार्य जिनेश्वरसूरि का अन्तिम, जिनप्रबोधसरि तथा जिनचन्द्रसूरि का सम्पूर्ण जीवन लिखने वाला लेखक नया प्रतीत होता है । इसके लेख में संस्कृत भाषा सम्बधी अशुद्धियां तो विशेष दृष्टिगोचर नहीं होती, परन्तु लिपिगत और विशेष नामों के अज्ञान की अशुद्धियां जरूर देखी जाती हैं । इस भाग के लेखक को सोलहवीं शती की लिपि को पढने का ठीक बोध नहीं था, इसी से "अंगुलंक त्रिशत्प्रमाण" इस शुद्ध संख्या को बिगाड़ कर "अंगुलि कत्रिशत्प्रमारण" ऐसा " अशुद्ध रूप" बना दिया है। लेखक ने जिस मूल पुस्तक के अाधार से गुर्वावली का यह भाग लिखा है, पुस्तक की लिपि पड़ी मात्रा वाली थी। एक मात्रा "ल" पीछे और एक उसके उपर लगी हुई थी, परन्तु लेखक ने उसे ह्रस्व "लि" समझ कर "अंगुलिक" बना लिया, छोटी बड़ी सभी मूर्तियां विषमांगुल परिमित होतो हैं, परन्तु लेखक को न शिल्प का ज्ञान था न प्राचीन लिपि पढ़ने का बोध । परिणामस्वरूप यह भूल हो गई । इसी प्रकार विशेष नामों का परिचय न होने के कारण "काकन्दी को" "नालन्दा" को "नारिन्दा" श्रादि नाम दिए। इनके लेख में नामक सिक्के का चार वार उल्लेख आया है, मथुरा के स्तूप की यात्रा के प्रसंग पर हुए हैं, कोई उत्तर भारतीय देशी राज्य का सिक्का होना चादिए । "क्राक्रन्दी" द्रम्म के अतिरिक्त "जैथल " ये उल्लेख हस्तिनापुर तथा इससे जाना जाता है कि यह प्राचीन सिक्कों की नामावली में "जैथल" का नाम न होने से यह भी कोई प्रचीन सिक्का ही मालूम होता है । जिनचन्द्रसरि का वृत्तान्त पूरा होने के बाद गुर्वावली का लेखक बदल जाने की झांकी होती है । लेखक की लेखन पद्धति बदलने के साथ ही उसकी प्रकृति भी बदली हुई प्रतीत होती है, इस भाग का लेखक गृहस्थों 2010_05 Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ] [ पट्टावली-पराग की प्रशंसा की भरमार से मर्यादा को लांघता है, विरोधी गच्छवालों के ऊपर हृदय की जलन निकाली जाती है - "निग्वधिविधिमार्गदुष्टलोकमुखमालिन्यनिर्मापरमषीकूर्चकानुकारिणा XXX सकल विपक्षहृदय कोलकानुकारिणी" इत्यादि वाक्यों से लेखक ने अपने हृदय का जोश प्रकट किया है, चिष्ठिका, रलिक चित्ता, प्रपाटी, शिलामय, पित्तलामय, भुवन, आदि अलाक्षणिक शब्दों का बार-बार प्रयोग करके अपने संस्कृतज्ञान का थाह बता दिया है। गृहस्थ भक्तों की लेखक ने किस प्रकार बिरुदावलियां लिखी हैं, उनका हम एक नमूना उद्धृत करके पाठकों की जिज्ञासापूर्ति करेंगे - "ततः सं० १३७६ वर्षे मार्गशोर्षवदि पंचम्यां नाना-नगर-ग्रामवास्तव्याऽसंख्य महद्धिक सुश्रावक लोकमहामेलापकेन श्रीसार्धामकवत्सलेन श्रीजिनशासनप्रोत्साप्रवीणेनोदारचरित्रेण दक्षदाक्षिण्यौदार्यधैर्यगाम्भीर्यादिगुरणगरणमालालंकृतसारेण युगप्रवरागमबोजिनप्रबोधसू रिसुगुर्वनुजसाधुराजजाह्नण पुत्ररत्नेन स्वभ्रातृ - सा० रुदपालकलितेन साधुराजतेजपालसुश्रावकेरा, XXX श्री भीमपल्लीसमुदायमुकुटकल्पेन सा० श्यामलपुत्ररत्नेनोदारचरित्रेन साधुवीरदेवेन ।" इत्यादि । यों तो सारी गुर्वावली प्रतिशयोक्तियों से भरी पड़ी है, फिर भी इसका अन्तिम भाग तो मानो एक उपन्यास- सा बन गया है । ऐतिहासिक कहे जाने वाले पट्टावली - गुर्वावली श्रादि साहित्य में इस प्रकार की प्रतिशयोक्तियाँ और विस्तृत वर्णन कहां तक उचित माने जा सकते हैं, इसका पाठकगरण स्वयं विचार कर लेंगे । श्राचार्य जिनकुशलसूरि के वृत्तान्त में सं० १३५० में दिल्ली का राजा गयासुद्दीन होने की बात लिखी है । प्राचार्य जिनपद्मसूरि के समय में सं० १३९३ में बूझरी के शासक को राजा के नाम से उल्लिखित किया है, इसी प्रकार हर एक आचार्य के विहार के प्रसंग में जहां इनके प्रवेश की धामधूम हुई है और ग्रामाधिपति उनके प्रवेश में सन्मुख गया है, वहां प्रायः सर्वत्र जागीरदार को राजा अथवा महाराजा के नाम से ऊंचे दर्जे चढ़ाया है। पट्टावली के इस भाग में बीसों स्थानों पर एक नये सिक्के का 2010_05 Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद 1 [ २६५ उल्लेख किया गया है, जिसका नाम है "द्विवल्लकद्रम्म" अर्थात् "दो वाल भर का चांदी का सिक्का," तीर्थयात्रामों के प्रसंगों में जहां-जहां 'इन्द्र' आदि बनने के चढ़ावे बोले गए हैं, वे सभी इन्हीं द्रम्मों के नाम से बोले गये हैं, एक रुपये के वाल ३२ होते हैं, इस हिसाब से दो वाल रुपया का सोलहवां भाग अर्थात् १ पाना हुअा, इसका अर्थ यह होता है कि विक्रमीय चौदहवीं शती में दक्षिण भारत में दो वाल का चांदी का सिक्का चलता था - जो "द्रम्म" नाम से व्यवहत होता था। "द्रम्म" शब्द का मूल फारसी "दिहम" अथवा उर्दु “दिरम" शब्द प्रतीत होता है, पुराने "द्रम्म" शब्द की मूल प्रकृति “दिरम" साढे तीन वाल का होता था। जिसका प्रचार गुजरात तथा सौराष्ट्र में विक्रम की १२वीं शती में सर्वत्र हो चुका था। दो वाल का द्रम्म उसके बाद सौ डेढ़ सौ वर्षों में प्रचलित हुआ मालूम होता है। खरतरगच्छीय बृहद्-गुर्वावली के अन्त में "वृद्धाचार्य-प्रबन्धावलि" इस शीर्षक के नीचे कतिपय प्राकृत भाषा के प्रबन्ध दिए गए हैं, जिनकी कुल संख्या १० है। इनमें से अन्तिम दो प्रबन्ध जो "जिनसिंह" और "जिनप्रभसरि" सम्बन्धी है, जिनकी यहां चर्चा अवसर प्राप्त नहीं है, क्योंकि ये दोनों प्राचार्य खरतरगच्छ की मूल परम्परा में नहीं हैं। शेष पाठ प्रबन्ध क्रमशः श्री वर्धमानसूरि, जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, निनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि और जिनेश्वरसूरि को लक्ष्य करके लिखे गए हैं । अतः गुर्वावली के अवलोकन में इन पर ऊहापोह करना अवसर प्राप्त है। प्रबन्धों में जो कुछ विशेष बातें उपलब्ध होती हैं, उन पर ऊहापोह करने के पहले इनके भाषाविषयक निरूपण और निर्माण समय के सम्बन्ध में विचार करेंगे। प्रबन्धों का लेखक प्राकृतभाषा का योग्य ज्ञाता नहीं था। भागमसूत्रों में पाने वाले वाक्यों, शब्दों और क्रियापदों को ले लेकर प्रबन्धों का निर्माण किया है - "गामाणुगाम, दूइज्जमाणा", "समोसड्डो", "वयासी", "भो धररिंगदा ! प्राढत्ता" इत्यादि शब्द तथा क्रियापद सूत्रों में से लेकर 2010_05 Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ ] [ पट्टावली-पराग धर दिये हैं। न व्याकरण का नियम है, न विभक्तिवचन का। जहां बहुवचन का प्रसंग है वहां एक वचन ही लिख दिया और एक वचन के स्थान बहुवचन । विषयनिरूपण का भी कोई ढंग धड़ा नहीं है, कतिपय विशेष नाम जिस प्रकार उनके समय में प्रचलित थे वैसे ही लिख दिए हैं, जैसे - "पोरवाड़ो" आदि । (१) श्री वर्धमानसूरिजी को प्रबन्ध में "अरण्यचारी-गच्छनायक" और उद्योतनसूरि के पट्टधारी लिखा है। उनके कासह्रद गांव में, जो भाबु पहाड़ी की पूर्वीय तलहटी में पाया हुआ है और आजकल "कायन्द्रा" के नाम से प्रसिद्ध है, पाने की बात कही गयी है - उसी कास ह्रद गांव में दण्डनायक विमल देश का राज्य-ग्राह्य-भाग उगाहने के लिए पाता है और श्राबु के ऊपर की रोनक देखकर वहां जिनमन्दिर बनाने की इच्छा करता है, परन्तु अचलेश्वर-दुर्गवासी जोगी, जंगम, तापस, संन्यासी, ब्राह्मण प्रमुख विमल की इच्छा को जान कर सब मिल कर विमल के पास पाते हैं और कहते हैं - 'हे विमल ! यहां पर तुम्हारा तीर्थस्थान नहीं है। यह कुलपरम्परा से आया हुआ हमारा तीर्थ है, तुमको यहां मन्दिर बनाने नहीं देंगे। विमल यह सुनकर निराश होता है और वर्धमानसूरि के पास जाकर पूछता है; भगवन् ! आबु पर अपना कोई तीर्थ-प्राचीनजिनप्रतिमा नहीं है ? सूरिजी ने कहा - छद्मस्थ मनुष्य इसका निर्णय कैसे दे सकते हैं। विमल ने देवताराधना करके इस बात का निर्णय करने के लिए प्रार्थना की। वर्धमानसूरि ने छः मासी तप कर ध्यान किया, तब धरणेन्द्र वहां माया। प्राचार्य ने उसे कहा - हे धरणेन्द्र ! सूरिमन्त्र के चौसठ देवता अधिष्ठायक हैं, उनमें से एक भी नहीं पाया, न मेरे प्रश्न का समाधान किया। इस पर धरणेन्द्र ने कहा - भगवन् ! सूरिमन्त्र का एक प्रक्षर पाप भूल गये हैं, इसलिए अधिष्ठायक देव नहीं पाते । मैं तो तुम्हारे तपोबल से आया हूं। इस पर प्राचार्य ने कहा - हे महाभाग ! पहले तुम मेरे सूरिमन्त्र को शुद्ध कर दो फिर दूसरा कार्य कहूंगा, इस पर धरणेन्द्र ने कहा- भगवन् ! सूरिमन्त्र को शुद्ध करने को मेरी शक्ति नहीं, यह कार्य तीर्थङ्कर के सिवाय नहीं हो सकता। इस पर वर्धमानसूरि ने अपने सूरि 2010_05 Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेव ] [ २६७ मन्त्र का मोलक धरणेन्द्र को दिया । उसे लेकर वह महाविदेह में गया और श्रीसोमन्वर स्वामी के पास सूरिमन्त्र को शुद्ध करवाया। उसके बाद केवल तीन बार स्मरण करने से सर्व अधिष्ठायक देव प्रत्यक्ष हो गए। गुरु ने पूछा- विमल दण्डनायक हमें पूछता है कि आबु पर्वत पर कोई प्राचीन जैनप्रतिमा है या नहीं ? अधिष्ठायक देवों ने कहा - अर्बुदादेवी के प्रासाद से वामभाग में "प्रबुद" आदिनाथ की प्रतिमा है। अखण्ड अक्षतों के स्वस्तिक पर चउसर पुष्पमाला जहां दीखे - वहां खुदवाना चाहिए । गुरु ने यह देवादेश विमल को कहा, उसने वैसा ही किया और प्रतिमा निकालो। योगी, जंगम प्रादि को बुलाकर विमल ने जिनप्रतिमा दिखाई, उनके मुख निस्तेज हो गए। विमल ने प्रासाद का काम प्रारम्भ किया, तब ब्राह्मण आदि ने कहा - भले हो तुम्हारी यहां मूर्तियां निकलने से तुम यहां मन्दिर बना सकते हो, परन्तु जमीन हमारी है। इसको रुपयों से ढांक कर हमको इसका मूल्य दो और इस पर मन्दिर बनवानो। विमल ने वैसा ही किया । जिनप्रासाद तैयार हो गया, ५२ जिनालय और सुवर्णदण्ड, ध्वज कलशसहित विमल ने प्रासाद तैयार करवाया। इसके निर्माण में १८ करोड़ ५३ लाख द्रव्य लगा। आज भी प्रासाद प्रखण्ड दीख रहा है। इस प्रकार वर्षमानसूरिजी ने तीर्थ प्रकट किया। ऊपर लिखे वृत्तान्त में सूरिमन्त्र सम्बन्धी कहानी हमारी राय में कल्पना मात्र है, क्योंकि वर्धमानसूरिजो के समय में संविनविहारी सुविहित आचार्य न सूरिमन्त्र की प्राराधना करते थे, न पूजा के लिए इसके पट्ट रखने के लिये गोलक (गोल भूङ्गले) रखते थे। यह प्रवृत्ति शिथिलाचारी पार्श्वस्थ प्राचार्यो की थी। प्रबन्ध-लेखक कोई खरतरगच्छीय अर्वाचीन भट्टारक मालूम होते हैं । खरतरगच्छ के लेखक पाबु के मन्दिर - विमल वसहि की प्रतिष्ठा वर्धमानसूरिजी के हाथ से हुई बताते हैं, परन्तु प्रबन्ध में प्रतिष्ठा का सूचन नहीं है। वैसे आबु के विमलवसहिमन्दिर की प्रतिष्ठाएँ बहुधा अनेक प्राचार्यों के हाथों से हुई हैं। मूल मन्दिर की प्रतिष्ठा का वहां कोई लेख नहीं मिलता, परन्तु देहरियों की प्रतिष्ठा सम्बन्धी तथा जीर्णोद्धारों को प्रतिष्ठा सम्बन्धी सैकड़ों लेख मन्दिर में ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ 1 [ पट्टावली-पराग मिलते हैं। श्री वर्धमानसूरिसन्तानीयचक्रेश्वरसूरि प्रादि ने प्रतिष्ठा की, उसके लेख मिलते हैं। चड्डावलि, भारासण, कास ह्रदीय-गच्छ के अनुयायियों द्वारा प्रतिष्टित मूर्तियां इस मन्दिर में मिलती हैं, परन्तु वर्धमानसूरि का नाम तक नहीं मिलता, यह विचारणीय हकीकत है। (२) जिनेश्वरसूरिजी सम्बन्धी दूसरे प्रबन्ध में लिखा है कि वर्धमानसूरि पृथ्वी पर विचरते हुए सिद्धपुर१ गए। वहां सरस्वती नदी में अनेक ब्राह्मण नहाते हैं, वर्धमानसूरि बाहिरभूमि गए थे। सरस्वती में स्नान कर वापिस लौटता हुमा "जग्गा" नामक एक "पुष्करणागोत्रीय" ब्राह्मण उनको सामने मिला। वर्धमानसूरि को देखकर वह जिनमत की निन्दा करता हुमा बोला - ये श्वेताम्बर साधु शूद्र, वेदबाह्य और अपवित्र होते हैं, यह सुनकर प्राचार्य ने कहा - हे ब्राह्मण ! बाह्य स्नान से शरीर की शुद्धि नहीं होती, क्योंकि तेरे सिर पर मृत कलेवर है। इनके प्रापस में विवाद छिड़ गया। जग्गा ने कहा – “यदि मेरे सिर में से मृतक निकल जाय तो मैं तुम्हारा शिष्य बन जाऊंगा अन्यथा तुम्हें मेरा शिष्य बनना पड़ेगा" । गुरु ने इस बात को मंजूर किया । तब जग्गा ने क्रोध से सिर पर के वस्त्र को दूर फेंका तब क्या देखता है कि भीतर से मरा हुमा एक मत्स्य गिरा। जग्गा शर्त में हार गया और उनका शिष्य बन गया। दीक्षा लेकर सिद्धान्त का अध्ययन कर तैयार हुआ। गुरु ने योग्य जान कर अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया, "जिनेश्वरसूरि" ऐसा नाम दिया। वर्धमानसूरि अनशन करके परलोकवासी हुए, तब जिनेश्वरसूरि गच्छनायक बनकर विचरते हुए प्रणहिल पट्टन पहुंचे। वहां उन्होंने चौरासी गच्छों के भट्टारकों को देखा। सब द्रव्यलिंगी चैत्यवासी मठपति थे। जिनेश्वरसूरि ने शासन की उन्नति के लिए श्रीदुर्लभराज की सभा में उनसे वाद किया। सं० १०२४ में वे सब प्राचार्य हारे और जिनेश्वरसूरि जीते। राजा ने खुश होकर उनको "खरतर" ऐसा बिरुद दिया, तब से "खरतर-गच्छ" हुमा। इस प्रबन्ध में कितनी सत्यता है, यह कहना कठिन है, क्योंकि पहले तो पुष्करण नामक कोई गोत्र ही नहीं होता था, तब ब्राह्मण जग्गा १. मूल में "सीधपुर" है। - - ___ 2010_05 Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६९ का पुष्करण गोत्र कहां से आया ? होगा, "पुष्कर नामक झील खोदने के कारण पुष्करण नाम पड़ा है", इसलिये उसको जाति कह सकते हैं, गोत्र नहीं। आज तक सिद्धपुर में औदीच्य, सारस्वत, नागर जाति के ब्राह्मण छात्र मिलते हैं, परन्तु पुष्करणों का वहां कोई नाम तक नहीं जानता। इससे ज्ञात होता है कि उपर्युक्त जिनेश्वरसूरि की दीक्षा की कहानी प्रबन्ध-लेखक ने कल्पनाबल से गढ़ ली है। अन्य खरतरगच्छीय पट्टावलियों में जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि को बनारस निवासी श्रोत्रिय ब्राह्मण लिखा है, इससे भी ऊपर की कह नी कल्पना मात्र ही ठहरती है । पाटन में दुर्लभ राजा की सभा में चैत्यवासियों को हराकर "खरतर" पद प्राप्त करने की बात भी प्रमाणिकता नहीं रखती, क्योंकि एक तो १०२४ में वहां दुर्लभराज का राज्य ही नहीं था। तब राजा ने खुश होकर "खरतर" विरुद दिया यह बात निराधार ठहरती है । "खरतर" यह शब्द सर्वप्रथम जिनदत्तसूरि के नाम के साथ प्रयुक्त हुआ था जो धीरे-धीरे लग-भग २०० वर्षों के बाद गच्छ के साथ मिल गया है, जिनेश्वरसूरि के समय में इस नाम को कोई जानता तक नहीं था, खरतरगच्छ की गुर्वावली आदि में वर्धमानसूरिजी का पाबु पर स्वर्गवासी होना लिखा है, तब प्रबन्धलेखक ने स्वर्गवास स्थान के रूप में, पाबु का नाम-निर्देश नहीं किया, इससे भी स्पष्ट होता है कि प्रबन्धलेखक भट्टारक नै केवल दन्त-कथाओं के प्राधार से ही प्रस्तुत प्रबन्ध लिख डाला है। (३) तीसरे प्रबन्ध में जिनेश्वरसूरि के पट्टवर षट्विकृति त्यागी जिनचन्द्रसूरि को बताया है और उनके पट्टधर अभयदेवसूरि को। लेखक का यह मत भी ठीक प्रतीत नहीं होता, क्योंकि जिनचन्द्रसूरि को षष्टि कृतियों का त्यागी कहीं नहीं बताया और न अभयदेवसूरि के सम्बन्ध में शासनदेवी से कहलाया है कि खंभात नगर के बाहर सेढ़ी नामक नदी है उसके निकट खरपलाश के नोचे पार्श्वनाथ की प्रतिमा है, वहां जाकर स्तुति करो,' इस लेख से तो यही मालूम होता है कि विचारे प्रबन्धलेखक को 'खंभात" ___ 2010_05 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ] [ पट्टावली-पराग तथा "स्तम्भनक" इन दो नामों के बीच का भेद तक मालूम नहीं, उन्हें पहले यह समझ लेना चाहिए था कि सेढो नदी "खंभात' के बाहर नहीं, किन्तु "स्तम्भनक ग्राम" के बाहर है, जिसे आजकल :"थांभणा'' के नाम से पहिचानते हैं । "खंभाइति'' इस नाम के उल्लेख से तो मालूम होता है कि लेखक सत्रहवीं शती के परवर्ती होने चाहिए। लेखक ने "पलाश" के साथ "खर" शब्द विशेषण के रूप से लगाया है, यह भी निरर्थक है, क्योंकि "पलाश" अपने नाम से ही पहिचाना जाता है, "खरपलाश" कोई वृक्ष ही नहीं होला । वर्तमान काल में लोग इसको “खाखरा" इस नाम से ही पहिचानते हैं। प्रबन्धलेखक ने “खाखर" शब्द की पूछपलाश से जोड़कर अपना निकटवर्ती समय ही सूचित किया है। प्रबन्ध-लेखकजी "जयतिहुअण." स्तव के सम्बन्ध में लिखते हैं - "जयतिहुणस्स दो वित्तं भंडारियं, संपई तिसं वित्तं वट्टइ' इस वाक्य से प्रबन्ध-लेखक ने अपने प्राकृत भाषा सम्बन्धी ज्ञान का भी परिचय दे दिया है। "दो वित्तं भंडारिय' के स्थान में ('दुण्णि वित्ताणि भंडारियारिण") ऐसा चाहिए। तिसं (तीसं) वित्तं (वित्तारिण) वट्टइ (वट्टति) ऐसा लिखना चाहिए था। अन्त में प्रवन्धलेखक कहते हैं - "आजकल खरतरगच्छ में “जयतिहुप्रण." नमस्कार बिना प्रतिक्रमण करने नहीं पाते। इस प्रकार की गच्छ-सामाचारी गुरुसम्प्रदाय है। इस अन्तिम कथन से प्रबन्ध कितना अर्वाचीन है, इस बात को पाठक स्वयं समझ सकते हैं । (४) चौथे प्रबन्ध में लेखक ने जिनवल्लभसूरि का वृत्तान्त लिखा है। लेखक कहते हैं - मालव देश की उज्जयनी नगरी में कच्चोलाचार्य चैत्यवासी रहता था। उसके जिनवल्लभ नामक शिष्य था। वह संसार से विरक्तचित्त और संवेगभावी था। एक समय उसने एकान्त में एक पुस्तक खोला, उसमें से गाथा निकली-"असणे देवदव्वस्स परत्थीगमणे तहा०" इत्यादि । इस गाथा का अर्थ विचारता हुमा जिनवल्लभ वहां से निकल कर प्रणहिलपुर पाटन गया। वहां चौरासी पौषधशालानों में चौरासी गच्छों के भट्टारक रहते थे। जिनवल्लभ प्रत्येक पौषधशाला में गया। पूछा, देखा, परन्तु कहीं भी उसे सन्तोष नहीं हुआ । अन्त में अभयदेवसूरिजी ___ 2010_05 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७१ की पौषधशाला में गया, सुविहित प्राचार्य को देखा और उनके पास दोक्षा ग्रहण की। गुरु ने उसे योगोद्वहन करवा के गीतार्थ बनाया। सर्वसंघ को प्रार्थना के वश ११६७ के वर्ष में अभयदेवसूरि ने उसे सूरिमन्त्र दिया और "जिनवल्लभसूरि" यह नाम दिया। बिधिपक्ष का स्थापन करते हुए, सुविहित जिनवल्लभसूरि मेवाड़ के चित्रकूट दुर्ग में पहुँचे। वहां मिथ्यात्वी लोग बहुत बसते थे। कोई जैनधर्म को स्वीकार नहीं करता, तब जिनवल्लभसूरि चामुण्डादेवी के मन्दिर में टहरे । रात्रि के समय चामुण्डा आई, मन्दिर कांपने लगा । जिनवल्लभ ने सूरिमन्त्र के बल से देवी को कीलित कर वश किया। देवी ने आचार्य से कहा - मेरे नाम से अपना गच्छ चलानो, मैं तुम्हें सहायता करूंगी। गुरु ने वैसा ही किया, सर्व लोगों को प्रतिबोध देकर सम्यत्व प्रदान किया। जिनवल्लभसूरि ने एक साधारण श्रावक को दस करोड़ द्रव्य का परिग्रह करवा के उसे करोड़पति बनाया। उसने चित्रकूट नगर में जैनप्रासाद बनाया, शत्रुजय का संघ निकाला। जिनवल्लभसूरि ने वागड़ प्रदेश में श्रीमालों को प्रतिबोध देकर दस हजार घर जैन बनाए और "पिण्ड-विशुद्धि-प्रकरण' की रचना की। जिनवल्लभसूरि के प्रबन्ध में लेखक ने अनेक ऐसी बातें लिखी हैं, जो खरतरगच्छ की मान्यता से ही नहीं, इतिहास से भी विरुद्ध हैं जिनको इन्होंने कच्चोलाचार्य लिखा है उनका खरा नाम 'कूर्चपुरीय जिनेश्वरसूरि" था और वे आशिका नगरी में भी रहते थे। प्राशिका और "कूर्चपुर" जो आजकल "कुचेरा" इस नाम से प्रसिद्ध है, ये दोनों मारवाड़ के अन्तर्गत हैं, न कि मालवा में । जिनवल्लभ ने जिस पुस्तक को खोला था और उसमें से "असणे देवदव्वस्स" इत्यादि गाथा निकलने का लिखा है, प्रथम तो यह गाथा ही प्रशुद्ध है, दूसरा खरतरगच्छ की पट्टावलियों में “दशवकालिक सूत्र" का पुस्तक खोला ऐसा लिखा है, परन्तु ऊपर उल्लिखित गाथा न दशवैकालिक की है, न किसी अन्य सूत्र की, यह गाथा मनघढन्त है, जो कहीं से उठाकर इसमें रख दी है। ___ 2010_05 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ ] [ पट्टावली-पराग प्रबन्धकार के कथनानुसार जिनवल्लभ स्वयं निकल कर पाटन पहुंचे थे, तब अन्य सभी लेखकों ने जिनवल्लभ को गुरु ने जैनसूत्र पढ़ने के लिए 'अणहिलपुर भेजा था ऐसा लिखा है।" जिनवल्लभ पाटन में सभी पौषधशालाओं में फिर-फिराकर अन्त में अभयदेवसरि की पौषधशाला में गये, ऐसा प्रबन्धकार कहते हैं, जो कल्पना मात्र है। क्योंकि न तो अभयदेवसूरि को कोई. पौषधशाला थी और न वे किसी पौषधशाला में उतरते थे । अभयदेव, इनके गुरु और शिष्य परिवार सभी वसतिवासी थे और गृहस्थों के खाली मकानों में ठहरते थे। अभयदेवसूरि के समीप जिनवल्लभ के दीक्षा लेने तथा अभयदेव द्वारा उन्हें सूरिमन्त्र देने आदि की बातें कल्पित हैं। जिनवल्लभ ने अभयदेवसूरि के पास ज्ञानार्थ उपसम्पदा लेकर उनसे सिद्धान्त पढ़ा था, ऐसा जिनवल्लभ स्वयं कहते हैं। प्राचार्य अभयदेवसूरि संवत् ११३५ में स्वर्गवासी हो चुके थे, तब ११६७ में जिनवल्लभ को सूरिमन्त्र देने कहां से आये, इस बात का प्रबन्ध-लेखक को विचार करना चाहिए था। जिनवल्लभ चित्रकूट गये थे, उस समय वहां के लोग बहुधा मिथ्यात्वी थे, प्रबन्धकार का यह लिखना भी असत्य है। उस समय भी चित्तौड़ में जैन धर्म का प्राचुर्य था। जैन मन्दिर, पौषधशालाएँ आदि सब-कुछ था । जिनवल्लभ को कहीं भी ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला, इसका कारण था उनके पाटण में संघबहिष्कृत होने की बात । पाटन में जिनवल्लभ गरिण संघ बहिष्कृत होकर चित्तौड़ गए थे, तब उनके वहां पहुँचने के पहल ही पाटन के समाचार वहां पहुंच चुके थे, जिससे उनको चण्डिका के मन्दिर में उतरना पड़ा था। चामुण्डा देवी के यह कहने पर कि "तुम मेरे नाम से अपना गच्छ चलायो" इत्यादि बात में सत्यांश क्या है, यह कहना तो कठिन है, परन्तु अंचलगच्छ के "शतपदी" आदि ग्रन्थों में जिनवल्लभ के अनुयायियों की परम्परा को :'चामुण्डिक-गच्छ” के नाम से उल्लिखित किया है, इससे इतना तो कह सकते हैं कि गच्छान्तरीय लोग जिनवल्लभ गरिण को "चामुण्डिक" कहा करते होंगे । ____ 2010_05 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७३ प्रबन्ध में साधारण श्रावक को जिनवल्लभसूरि ने "दस करोड़" द्रव्य परिमारण परिग्रह कराने का लिखा है, तब खरतर पट्टावलियों में उसी साधारण श्रावक को "एक लाख'' का परिग्रह परिमाण करने की बात कही है। खरतरगच्छ के लेखक अपनी मान्यता में एक दूसरे से कितने दूर पहुँच जाते हैं, इस बात में ऊपर का कथन एक उदाहरण माना जा सकता है। (५) पांचवां प्रबन्ध श्री जिनदत्तसूरि के सम्बन्ध में लिखा गया है। प्रबन्धकार लिखते हैं - जिनदत्तसूरिजी अणहिलपुर में विचरे। वहां के श्री नागदेव श्रावक को युगप्रधान के सम्बन्ध में संशय था, क्योंकि सभी साधु अपने-अपने गच्छ के प्राचार्य को युगप्रधान कहते थे। नागदेव ने गिरनार पर्वत के अम्बिका-शिखर पर जाकर अट्ठम का तप किया, अम्बिका प्रत्यक्ष हुई और उसके हाथ में अक्षर लिखे और कहा - तेरे मन में युगप्रधान विषयक संशय है, तू अणहिलपुर जाकर सभी पौषधशाला-स्थित प्राचायों को अपना हाथ दिखाना । जो तुम्हारे हाथ में लिखे अक्षरों को पढ़े उसे युगप्रधान जान लेना । नागदेव ने जाकर सभी पौषधशाला-स्थित प्राचार्यों को अपना हाथ दिखाया। किसी ने उसके हाथ के अक्षर नहीं पढ़े, तब वह खरतरगच्छाधिपति जिनदत्तसूरि की पौषधशाला में गया। प्राचार्य को वन्दन किया, सूरि ने उसका हाथ देख कर मौन किया और हाथ पर वासक्षेप किया और अपने शिष्यों को अक्षर पढ़ने का आदेश दिया। शिष्य ने निम्न प्रकार से अक्षर पढ़े - 'दासानुदासा इव सर्वदेवा, यदीयपादान्जतले लुठन्ति । मरुस्थलीकल्पतरुः स जीयाद्, युगप्रधानो जिनदत्तसूरि. ॥१॥" उपर्युक्त श्लोक सुनकर नागदेव निःसंशय हो गया, तीन प्रदक्षिणा पूर्वक उसने प्राचार्य को वन्दन किया। एक बार जिनदत्तसूरि प्रजमेर की तरफ विचरे। वहां चौसठ योगिनियों का पीठ था। योगिनियों ने सोचा - जिनदत्तसूरि यहां रहेंगे तो हमारा पूजा-सत्कार न होगा। इसलिए वे श्राविकाओं के रूप बनाकर प्राचार्य के व्याख्यान में आयीं। देवियों का अभिप्राय प्राचार्य को छलने ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ ] [ पट्टावली-पराग का था, परन्तु प्राचार्य ने सूरिमन्त्र के अधिष्ठायक द्वारा उन्हें कीलित करवा दिया। वे उठ न सकीं, तब दयावश होकर प्राचार्य ने उन्हें छोड़ा भोर आचार्य तथा देवियों के आपस में पणबन्ध हुआ, देवियों ने कहा " जहां हम हैं वहां तुम न आओ, हमारे साढ़े तीन पीठ हैं, एक उज्जैनी में, दूसरा दिल्ली में तीसरा अजमेर में और आधा भरोंच में । हे भट्टारक ! तुम अथवा जो भी तुम्हारा शिष्य तुम्हारे पट्ट पर बैठे, वह हमारे उक्त पीठों में विहार न करे। अगर बिहार करेगा तो वधबन्धादिक के कष्ट पाएगा, जैसे जिनहंससूरि ने पाए । जिनदत्तसूरि ने योगिनियों का कथन स्वीकार किया । योगिनियों की शर्तें स्वीकार करने के बाद सिन्ध प्रदेश में विहार किया। वहां एक लाख अस्सी हजार प्रोसवालों के घर जैनधर्मी बनाए । उस नगर में परकायाप्रवेश विद्या से जिनमन्दिर में से मरे हुए ब्राह्मण को सजीव कर नारायण के मन्दिर में रखा । ब्राह्मणों की प्रार्थना और हाथाजोड़ी से फिर उसे सजीव कर श्मशानभूमि में छोड़ा । W सिन्ध से विहार करते हुए पंचनद के संगमस्थान पर पहुंचे श्रौर वहां सोमर नामक यक्ष को प्रतिबोध दिहा । जिनवल्लभसूरि के स्वर्गगमन के समय गच्छ के आठ प्राचार्य थे, जिन मैं से एक पूर्वदिशा में रुदोली नगर में जिनशेखर नामक भट्टारक थे, जो रुद्रपल्ली - गच्छ के अधिपति हुए । शेष सात प्राचार्यों ने जालोर नगर में मिलकर सलाह की कि समग्र संघ तथा गच्छ की अनुमति लेकर जिनवल्लभसूरि के पट्ट पर दूसरा प्राचार्य प्रतिष्ठत करेंगे। उस समय दक्षिण देश में देवगिरि नगर में जिनदत्तगरिण चातुर्मास्य ठहरे हुए थे, उनको प्रभावशाली गीतार्थं जानकर संघ ने बुलाया, संघ की प्रार्थना से जिनदत्तगरिण माने के लिए रवाना हो गये, जब वे उज्जैनी में श्राये, उस समय जिनवल्लभ के पूर्वगुरु कच्चीलाचार्य की मृत्यु का समय निकट भा चुका था, कच्चीलाचार्य ने जिनदत्तगरि के पास श्राराधना की और शुभध्यान से मरकर कच्चोलाचार्य सौधर्मकल्प में देव हुए । जिनदत्तगरि भागे चले । जिहरणी नामक 2010_05 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७५ नगर के उद्यान में एक शून्य देवालय में ठहरे। प्रतिक्रमण के समय कच्चोलाचार्य देव उनके समीप आया और अपना परिचय देकर जिनदत्तगणि को उसने सात वर दिए, जैसे-तुम्हारे संघ में एक श्रावक महद्धिक होगा? तुम्हारे गच्छ में साध्वी को ऋतुपुष्प न होगा २, तुम्हारे नाम से बिजली न गिरेगी ३, तुम्हारे नाम से प्रांधी और धूल के बवण्डर टल जायेंगे ४, अग्निस्तम्भ होगा ५, सैन्य तथा जलस्तम्भ होगा ६, सांप का जहर हानि करने को समर्थ न होगा ६, इसके अतिरिक्त देव ने कहा - पट्टस्थापना के जो दो मुहर्त निर्धारित हुए हैं, उनमें से प्रथम मुहर्त में पट्ट पर मत बैठना, क्योंकि वह अल्पायु:कारक है । दूसरे मुहूर्त में बैठने से युगप्रधान जिनशासन का प्रभावक होगा । तेरे गच्छ में एक हजार साधु और ७०० साध्वियों का परिवार होगा, इतनी बातें कहकर देव अदृष्ट हो गया; जालोर नगर में जिनदत्तगणि ११६९ के वर्ष में पट्ट पर प्रतिष्ठित हुए, अजमेर में प्रतिक्रमण में उद्योत करती हुई बिजली को स्तंभन कर दिया । प्रबन्धलेखक ने जिनदत्तसूरि के सम्बन्ध में जो कुछ विशिष्ट चमत्कार पूर्ण बातें लिखी हैं वे सब लेखक के फलद्रप भेजे में से निकली हुई हैं। न अम्बिका ने नागदेव के हाथ पर अक्षर लिखे न जिनदत्तसूरि के शिष्य ने "दासानुदासाः" इत्यादि श्लोक पढ़ा। चौसठ योगिनियों की बात तो इससे भी भद्दी हैं, जिनदत्त जैसे शुद्ध धर्म को लगन वाले विद्वान् प्राचार्य के पवित्र जीवन में ये बातें कलंक रूप हैं, भले ही अन्धश्रद्धालु अज्ञानी भक्त इन बातों को पढ़कर खुश हों और जिनदत्त के नाम की माला फेरते रहें, इससे जिनदत्तसूरि का अथवा उनकी माला फेरने वाले भक्तों का भला होने की प्राशा नहीं रखना चाहिए। प्रबन्धलेखक जिनदत्तसूरि के मुंह से योगिनियों का वचन "तहत्ति" कराता है, अभयदेवसूरि और जिनदत्तसूरि को पाटन की पौषधशाला में रहने वाला कहने वाला वचन, जिनवल्लभसूरि का स्वर्गवास होने के वर्ष में गच्छ में आठ प्राचार्य बताता है। जिनदत्त का प्राचार्य होने के पहले का नाम 'सोमचन्द्र' था परन्तु लेखक प्रारंभ से ही इनका "जिनदत्तगणि" 2010_05 Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [ पट्टावली-पराग के नाम से उल्लेख करता है, जिनदत्त के प्राचार्य होने के पहले ही जिनशेखर का प्राचार्य के नाम से उल्लेख करता है। जिनदत्त को प्राचार्य का पद प्रदान करने का स्य न जालोर बताता है और जिनवल्लभ के पूर्वगुरु कूर्चपुरीय श्री जिनेश्वरसूरि के जीव को सौधर्म का देव बनाकर उससे जिनदत्त सूरि को सात वरदान दिलाता है और जिनदत्तसूरि के साधु साध्वी समुदाय की संख्या कमशः एक हजार तथा ७०० सौ को बताता है, इन सब बातों पर विचार करने से तो यही ज्ञात होता है कि लेखक, इतिहास किस चिड़िया का नाम हैं ? यह भी जानता नहीं था। सुनी सुनायो और मनःकल्पित बातें लिखकर भले ही लेखक ने अपने मन से जिनदत्तसूरि की सेवा मान ली हो। परन्तु वास्तव में उलने उनकी कुसेवा की है । उनके वास्तविक चरित्र को ढांककर जनता के सामने प्रबन्ध के नाम से एक अपवित्र गन्दे कचरे का ढेर उपस्थित किया है। (६) षष्ठ प्रबन्ध जिनदत्तसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि के सम्बन्ध में संक्षेप में लिखा है । लेखक ने जिनचन्द्र के ललाट में नरमरिण बताया है, वे जैसलमेर की तरफ विचरते थे, दिल्ली नगर के संघ ने उन्हें दिल्ली की तरफ बुलाया, जिनचन्द्र ने लेख द्वारा सूचित किया कि श्री जिनदत्तसूरिजी ने योगिनी पीठोंमें हमारा विहार निषद्ध किया है, फिर भी वे दिल्लीपुर के संघ की अभ्यर्थना के वश होकर योगिनी पीठ में विचरे, प्रवेश महोत्सव में ही योगिनियों ने उन्हें छला और मर गए, आज भी पुरानी दिल्ली में उनका स्तूप विद्यमान है, जिनचन्द्रसूरि के प्रबन्ध का सार उपर्युक्त है । जिनचन्द्र सूरि के ललाट में दीप्यमान मरिण बताया है, इस मरिण का तात्पर्य क्या है ? यह बात समझना कठिन है, मनुष्य का शरीर चर्म से ढंका हुआ होता है, उसके नीचे रहे हुए मरिण का प्रकाश बाहर कैसे आता है, इसका लेखक ने कोई खुलासा नहीं किया। (७) सातवां प्रबन्ध जिनप्रतिसूरि का है। जिनपति १२ वर्ष की अवस्था में पट्ट-प्रतिष्ठित हुए थे, पासीनगर में प्रतिष्ठा का प्रसंग था, बड़ी धूमधाम के साथ जिनपतिसूरि वहां पहुंचे, प्रतिष्ठा का कार्य प्रारंभ हुमा, ____ 2010_05 Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २७७ - - - परन्तु उसी मौके पर एक विद्यासिद्ध योगी भिक्षार्थ आया, संघ प्रतिष्ठा के कार्य में व्यग्रचित्त था, किसी ने भिक्षा नहीं दी, योगी रूठ गया। मूल नायक बिम्ब को कीलित कर दिया, प्रतिष्ठा की लग्नवेला में सर्व संघ उठने लगा पर बिम्ब नहीं उठा, संघ चिन्तातुर हो योगी की तलाश करने लगा, पर वह कहीं भी नहीं मिला, उस समय एक महत्तरा साध्वी प्राचार्य की वन्दन कर बोली - भगवन् ! संघ हँसता है। वह कहता है हमारे भट्टारक बालक हैं. ऐसी कोई विद्या नहीं जानते क्या किया जाय, यह सुनकर जिनपतिसूरि सिंहासन से उठे और सूरिमन्त्र से अभिमन्त्रित घास बिम्ब के मस्तक पर डाला, तत्काल एक श्रावक ने बिम्ब को उठा लिया बिम्बप्रतिष्ठा-महोत्सव समाप्त हुमा । खरतर गच्छ में जय-जय शब्द उछल गया। जिनपतिसूरि ने राजसभा में ३६ वाद जीते। खरतरगच्छ सामाचारो का उद्धार किया, जिनवल्लभ कृत संघपट्टक प्रकरण की टीका वनाई। इस प्रकार महाप्रभावक हुए। जिनपति-प्रबन्ध में बारह वर्ष को अवस्था में जिनपति को पट्ट. प्रतिष्ठित करने का लिखा है, तब गुर्वावली में १३ वर्ष की अवस्था में । यह तो एक सामान्य मतभेद है, परन्तु योगी द्वारा मूर्ति का स्थगित करना और जिनपति द्वारा वासक्षेप डाल कर एक श्रावक के उठवाने की बात एक चमत्कारी टुचका है। मालूम होता है, लेखक को चमत्कारों की बात लिखने में बड़ा आनन्द प्राता होगा । जिनपतिसूरि का वृत्तान्त लिखने में बृहद्-गुर्वावलीकार ने लगभग २० पृष्ठ भर दिये हैं, परन्तु यह चमत्कार नहीं लिखा कि इनके वासक्षेप डालने से योगो-कीलित जिनमूर्ति को एक श्रावक ने उठा लिया। इस पर से पाठकगण प्रबन्ध-लेखक की बातों के सत्यासत्य का निर्णय स्वयं कर लेंगे । (८) माठवां प्रबन्ध जिनेश्वरसूरि के सम्बन्ध में है। जिनपतिसूरि के पट्ट पर नेमिचन्द्र भण्डारी के पुत्र जिनेश्वरसूरि हुए। जिनेश्वर के दो शिष्य थे, एक श्रीमाल जिनसिंहमूरि, दूसरा पोसवाल जिनप्रबोधसूरि । एक समय जिनेश्वरपूरि का दण्ड अकस्मात् टूट कर दो टुकड़े हो गये, इससे ____ 2010_05 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] [ पट्टावली-पराग आचार्य ने भविष्य सोचा कि मेरे गच्छ में दो टुकड़े होने वाले हैं, तब क्यों मैं स्वयं अपने हाथ से दूसरा गच्छ कायम न कर दू ! इसी समय के दर्मियान श्रीमालों के संघ ने मिल कर विचार किया। अपने देश में कोई गुरु माते नहीं, चलो गुरु के पास गुरु को ले पायें। श्रीमाल संघ गुरु के पास गया और वन्दनपूर्वक विज्ञप्ति की कि-स्वामी ! हमारे देश में कोई गुरु नहीं पाते, तब हम क्या करें - गुरु के बिना ? धर्मसामग्री कैसे जुड़े ? संघ की बात सुनकर प्राचार्य ने श्रीमालवंशज जिनसिंह गणि को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया। "जिनसिंहसूरि" यह नाम देकर प्राचार्य ने कहा-लो श्रावकोः ये मैंने तुम्हें अर्पण कर दिये। सूरि से कहा - इनके साथ विहार कर इनके देश में जाम्रो। जिनसिंहसूरि ने श्रावकों के साथ विहार किया । श्रीमाली संघ ने कहा- प्राज से लेकर हमेशा के लिए ये हमारे धर्माचार्य रहेंगे। इस प्रकार निनेश्वरसूरि के शिष्यों से दो गच्छ हुए। १२८० के वर्ष में जिनेश्वरसूरि ने जिनसिंह को प्राचार्य बनाया और पद्मावती के मन्त्र का उपदेश दिया। कुछ वर्षों के बाद जिनेश्वरसूरि स्वर्गवासी हुए । - प्रबन्धकार ने प्रारम्भ में हो "जिनपतिसूरि पढें नेमिचन्द्र भण्डारी जिणेसरसूरीणो पिया संजानो" इस प्रकार का अपपाठ लिखा है । लिखना तो यह चाहिए था कि "नेमिचन्द भण्डारी पुत्तो जिणेसरसूरी सजागो' परन्तु जिस प्रबन्ध-लेखक को लिंग-वचन-विभक्ति का भी भान नहीं है उसको इस प्रकार का प्रपपाठ लिखना पाश्चर्य क्या है। वह जो लिखे, भक्तों को सच्चा मान लेना चाहिए। 2010_05 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) वर्द्धमानसूरि - वर्द्धमानसूरिजी का वास्तविक इतिहास गुर्वावली में नहीं मिलता उनके सम्बन्ध में केवल इतना ही लिखा है कि वे अम्भोहर देश के जिनचन्द्राचार्य के शिष्य थे। जिनचन्द्र चैत्यवासी थे, परन्तु वर्धमान को चैत्यवास पसन्द नहीं आया । गुरु की आज्ञा से कुछ साधुओं के साथ वे दिल्ली की तरफ गए । उस समय बहां उद्योतनाचार्य नामक नाचार्य विचर रहे थे । वर्धमान ने उनके पास आगम का अध्ययन किया और उन्हीं से चारित्रोपसम्पदा लेकर संविग्न विहारी के रूप में विचरने लगे । एक समय वर्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वर गरिए ने अपने गुरु को गुजरात की तरफ विहार करने की सलाह दी और भामह श्रादि व्यापारियों के बड़े काफले के साथ वर्धमानसूरि आदि अट्ठारह साधुनों ने विहार किया । क्रमशः वे सब गुजरात की राजधानी राहिल पत्तन पहुँचे और शुल्कमण्डपका में ठहरे। उनके लिए पाटन एक विदेश था । न कोई उनका भक्त, न कोई परिचित । कुछ विश्रान्ति लेने के बाद, पण्डित जिनेश्वर गुरु की आज्ञा लेकर नगर में गए और एक बड़ा मकान देख कर वहां पहुंचे । मकान राजपुरोहित का था। जिनेश्वर ने पुरोहित से वार्तालाप करके अपना परिचय दिया, पुरोहित ने अपने चतुश्शाल मकान में किनायत बंधवा के सब साधुयों को वहां ठहराया। नगर में बात फैल गई कि पाटन में वसतिपालक साधु श्राये हैं । चत्यवासी प्राचार्यों ने सोचा, अपरिचित हरिक साधुओं का यहां रहना हानिकर होगा। उन्होंने उनको वहां से निकालने के अनेक प्रपंच किये, पर सफलता नहीं मिली । अन्त में दुर्लभराज की सभा में प्रागन्तुक तथा स्थानीय साधुनों के बीच चैत्य में रहने न रहने के सम्बन्ध में चर्चा हुई । जिनेश्वर गरिण ने शास्त्रों के प्राधार से 2010_05 Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [ पट्टावली-पराग साधुनों को वसति में ही ठहरना चाहिए, चैत्य में नहीं, इस बात को प्रमाणित किया। श्री वर्द्धमानसूरि वसतिवास की स्थापना होने के बाद देश में सवत्र विचरने लगे। शुभ-लग्न देखकर उन्होंने जिनेश्वर गणि को अपना पट्टधर माचार्य बनाया। उनके भाई बुद्धिस गर को भी प्राचार्य-पद दिया। इनकी बहन कल्याणमती साध्वी को महत्तरा-पद दिया, बाद जिनेश्वरसूरि विहारक्रम से देश में घूमे और जिनचन्द्र, अभयदेव, धनेश्वर, हरिभद्र, धर्मदेव, सहदेव, सुमति आदि अनेकों को दीक्षा देकर अपना शिष्य बनाया। बर्द्धमानसूरिजी ने शास्त्रीय विधिपूर्वक भाबु ऊपर अनशन करके देवत्व प्राप्त किया। (२) जिनेश्वरसूरि - जिनेश्वरसूरिजी ने जिनचन्द्र पोर अभयदेव को योग्य जानकर प्राचार्य-पद पर प्रतिष्ठित किया। जिनेश्वरसूरि ने पाशापल्ली की तरफ विहार किया, वहां "लीलावती" कथा को रचना की, डीडवाना गांव में "कथानक कोष" बनाया । भगवान् महावीर के शासन-धर्म की प्रभावना कर श्री जिनेश्वरमूरि देवगति को प्राप्त हुए। (३) जिनचन्द्रसूरि - जिनचन्द्रसूरि भी श्रेष्ठ प्राचार्य थे, जिनको अनेक नाममालाएं कण्ठस्थ थी। सर्व शास्त्रज्ञ प्राचार्य जिनचन्द्र ने अठारह हजार श्लोक १. गुर्वावली में लिखा है कि जिनचन्द्रसूरि को “१८ नाममालाएं" सूत्र तथा अर्थ से याद थीं, यह अतिशयोक्ति मात्र है। नाममालाएं अनेक हो सकती हैं, परन्तु एक व्यक्ति के लिये दो नाममालाएं पर्याप्त हो जाती हैं । एक तो 'एकार्थ नाममाला" और दूसरी "अनेकार्था", जिस प्रकार आचार्य हेमचन्द्र कृत "अभिधानचिन्तामणि" और "अनेकार्थ संग्रह" पढ़ने के बाद तीसरे कोश की आवश्यकता नहीं रहती, उसी प्रकार जिनचन्द्र के लिए भी दो कोशों से अधिक की आवश्यकता नहीं थी। "१८ नाममालाएं" बताना केवल अतिशयोक्ति है । ____ 2010_05 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २८१ - - परिमाण "संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ बनाया, और जालोर में श्रावकों के आगे "चीइ वंदणमावस्सय” इत्यादि गाथा का व्याख्यान करते हुए जो सिद्धान्त के पाठ दिये थे वे उनके शिष्यों ने लिख दिये, जिससे ३०० श्लोक परिमाण का "दिनचर्या" ग्रन्थ बन गया। जिनचन्द्र भो वीरधर्म को यथार्थ रूप में प्रकाशित कर देवगति को प्राप्त हुए। (४) अभयदेवसूरि - अभयदेवसूरि के प्रबन्ध में लेखक ने शम्भानक (सम्भाण) गांव में उनके शरीर में रोग उत्पन्न होने और अभयदेव के अनशन करने तक की परिस्थिति लिखी है परन्तु किसी देवता ने आदेश दिया कि 'स्तम्भनक के पास सेढी नदी के तट पर पलाश वृक्ष के नीचे स्वयम्भू२ प्रतिमा है, तुम उसको वन्दन करो, शरीर स्वस्थ हो जायगा' । प्राचार्य श्र वकों के साथ स्तम्भनक जाने के लिए रवाना हुए, प्रथम प्रयाग में ही उनको सरस आहार की इच्छा हुई, क्रमशः धवलक गांव तक पहुंचे और उनका शरीर स्वस्थ हो गया, फिर पैदल चलकर स्तम्भनक पहुँचे । श्रावकों ने मूर्ति की तपास की पर कहीं दृष्टिगोचर नहीं हुई, तब गुरु ने कहा - खाखरा-पलाश३ के नीचे देखो, १. गुर्वावली में “संवेगरंगशाला" का श्लोक-परिमाण अठारह हजार बताया है, यह भी लेखक की अतिशयोक्ति समझना चाहिए । ग्रन्थ-भण्डारों की प्राचीन सूचियों में "संवेग रंगशाला' का श्लोक-परिमाण १००७५ लिखा मिलता है । गुर्वावलीकार के लिखे परिमाण में लगभग आठ हजार श्लोक अतिशयोक्ति के हैं। गुर्वावली ने प्रत्येक बात में आठ पाने का रुपया बताकर अपने प्राचार्यों की महिमा बढ़ायी है, जो इतिहास-क्षेत्र में अन्धकार को ही फैलाता है। २. लेखक की स्वयम्भू प्रतिमा होने की कल्पना अज्ञानपूर्ण है। शिवलिंग स्वयम्भू हो सकता है, परन्तु किसी भी देव की प्रतिमा स्वयम्भू नहीं होती। प्रतिमा तो घडने से ही तैयार होती है। ३. लेखक ने पलाश शब्द के पूर्व में "खंखरा" शब्द लिख कर अपना अर्वाचीनत्व सूचित किया है । "पलाश" शब्द इतना कठिन नहीं है कि उसके साथ "खंखरा" शब्द लिखने की आवश्यकता हो, इससे तो सूचित होता है कि लेखक की दृष्टि में "पलाश" दुर्जेय प्रतिभासित हुआ है, जिससे उसे सुगम बनाने के लिए साथ में "खंखरा" अर्थात "खाखरा नाम भी लिख दिया है। ___ 2010_05 Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] [ पट्टावली-पराग श्रावकों ने वैसा ही किया, मूर्ति दृष्टिगोचर हुई। अभयदेवसूरि ने जाकर भक्तिपूर्वक वन्दन किया और खड़े-खड़े "जय तिहुयण ०" इत्यादि नमस्कारद्वात्रिंशिका की रचना की, देवताओं ने कहा -- इसमें से दो नमस्कार पद्य हटा लो, क्योंकि उनके स्मरण से प्रत्यक्ष होना पड़ेगा, जो कष्टदायक होगा। प्राचार्य ने दो पद्य हटा लिये । समुदाय ने प्रतिमा को वहां स्थापन किया, देवालय वहां बन गया। श्री अभयदेवसूरि स्थापित १ पार्श्वनाथ तीर्थ प्रसिद्ध हो गया। स्तम्भनक से अभयदेवसूरि पाटन गए और "करडीहट्टी वसति' में ठहर कर स्थानांग प्रमुख नव आगमों की वृत्तियां निर्मित की, वृत्ति निर्माण में जहां कहीं सन्देह उत्पन्न होता वहां जया, विजया जयन्ती अपराजिता देवताओं को याद करते जिससे वे महाविदेह में तीर्थंकर के पास जाकर शंकित-स्थल को पूछ कर संशय दूर कर देती२ । अभयदेवसूरि के आने पर द्रोणाचार्य खड़े होते३ थे और चैत्यवासी - - १. गुर्वावली लेखक ने 'स्तम्भतीर्थ" को "स्थम्भनकपुर" समझ लिया है। उनको यह समझ लेना चाहिये था कि अभयदेवसूरि ने स्तम्भनपुर के परिसर में पार्श्वनाथ की स्थापना की थी। परन्तु मुसलमानों के गुजरात में फैलने के समय में स्तम्भनपूर से हटाकर पार्श्वनाथ को 'स्तम्भतीर्थ" में ले जाया गया था और लेखक के समय में तो क्या आज तक वे "स्तम्भतीर्थ' में ही विराजमान हैं, "स्तम्भनक' में नहीं। २. अभयदेवसूरि निर्मित वृत्तियों के सन्देहस्थल देवियों द्वारा तीर्थंकर को पूछवाकर निःसंदेह किये जाते थे, तब प्राचार्य अभयदेवसूरिजो ने द्रोणाचार्य प्रमुख पाटन के विद्वान् श्रमणों की समिति द्वारा अपनी सूत्र-वृत्तियां क्यों सुधरवाई, इसका गुर्वावली लेखक ने कुछ भी खुलासा नहीं किया, अभयदेवसूरिजी स्वयं तो स्थानांगवृत्ति में अपनी सूत्र-वृत्तियों का संशोधन करने वाली श्रमणसमिति की स्तुति करते हैं। तब गुर्वावली लेखक अभयदेव की वृत्तियों को तीर्थंकर के पास सुधरवाते हैं, यह कैसा गड़बड़झाला है। ३. अभयदेवसूरिजी के आने पर द्रोणाचार्य के खड़े होने और अभयदेवसूरिजी की प्रशंसा में पद्य लिखकर सर्व मठपतियों के पास भेजने सम्बन्धी लेखक की बात उसकी अन्धश्रद्धा का नमूना मात्र है, यदि लेखक ने स्थानांगवृत्ति का उपोद्घात पढ़ लिया होता तो वे इस प्रकार की हास्यजनक बातें कभी नहीं लिखते । ____ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २८३ maroo साधुनों के विरोध करने पर उन्होंने अभयदेवसूरिजी की प्रशंसा में एक पद्य बनाकर सर्व मठपतियों के पास पहुंचाया जिसे पढ़कर वे सब ठण्डे हो गये। पालडदा ग्राम के भक्त श्रावकों के यानपत्र डूबने की बात सुनकर अभयदेवसूरिजी ने यानगत्रों के मालिक-भक्तों को आश्वासन देते हुए कहा, चिन्ता न करियेगा, तुम्हारे जलयान कुशलतापूर्वक समुद्र पार उतर गए १ हैं । इस खुशी की बात को सुनकर यानों के मालिक बोले - किरानों से जितना लाभ होगा उसके आधे धन से हम सिद्धान्त लिखवायेगे। प्राचार्य ने कहा - अच्छी बात है, आपका यह कार्य मोक्ष का कारण है। ऐसा परिणाम करना ही चाहिए। कालान्तर में अभय देवमूरिजी वापस पाटन पाए। इस समय तक उनकी सर्व दिशाओं में सिद्धान्तपारंगत के रूप में प्रसिद्धि हो चुकी थी। उस समय प्राशो दुर्ग में श्री कूर्चपुरीय जिनेश्वर सूरि रहते थे। उस गांव में जितने श्रावकपुत्र थे वे सब जिनेश्वरसूरि की पौषधशाला में पढ़ते थे। वहां जिनवल्लभ नामक श्रावर पुत्र था, वह भी उसी पौषधशाला में पढ़ता था। जिनवल्लभ बुद्धिशाली लड़का था। उसकी मां को प्रलोभन देकर प्राचार्य ने उसे शिष्य बना दिया । व्याकरण, साहित्य आदि पढ़ाकर विद्वान् बना दिया । एक समय जिनेश्वर सूरि की गैरहाजिरी के समय में जिनवल्लभ ने एक धार्मिक सूत्र पढ़ा उसमें साधु को माधुकरी वृत्ति से निर्दोष आहार लेने का लिखा था। उसका चैत्यवास की तरफ से मन भंग हो गया, परन्तु अपने गुरु से इस विषय में कुछ भी चर्चा नहीं को। जिनवल्लभ १. पालडदा ग्राम के भक्तों के यानपात्र पार उतरने की बधाई भी लेखक के दिमाग की उपजमात्र है, अभयदेवसूरि सुविहित साधु थे, लेखक के जैसे शिथिल यति नहीं, जो व्यापार के लाभ का आधा भाग सिद्धान्त लिखने को देने की बात सुनकर उनका बार-बार समर्थन करते । अभयदेवसूरिजी की प्रागम वृत्तियां लिखवाने वाले अनेक गृहस्थ पाटन में थे, उनको उसके लिये - निमित्त भाषण द्वारा पालडदा के भक्तों को अनुकूल करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। ___ 2010_05 Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ ] [ पट्टावली-पराग साहित्य में अच्छा तैयार हो गया था, फिर भी उसको धार्मिक सिद्धान्त पढ़ना शेष था। आचार्य ने अपने शिष्य जिनवल्लभ और जिनशेखर१ को अभयदेवसूरिजी के पास धार्मिक सिद्धान्त पढ़ने के लिए भेजा। मरुकोट होकर अनहिल पत्तन जाते हुए जिनवल्लभ ने वहां एक गृहदेवालय की प्रतिष्ठा को, फिर वहां से पाटन पहुँचे, गुरु को वन्दन किया। गुरु ने भी जिनवल्लभ को देखते ही चूडामणि ज्ञान से उसकी योग्यता परख ली और आने का कारण पूछा। उसने कहा-हमको गुरु ने आपके पास जैन सिद्धान्त को वाचना लेने भेजा है। प्राचार्य ने सोचा - चैत्यवासी का शिष्य है फिर भी योग्य है यह विचार कर उनका स्वागत किया। अच्छा दिन देखकर वाचना देना प्रारम्भ किया। गुरु के मुख से निकलते हुए सूत्रवाक्यों को वह अमृत समान मान कर संतुष्ट होने लगा। गुरु ने भी सच्छे प्रतीच्छक को पाकर प्रानन्द का अनुभव किया। रात-दिन पढ़ने तथा चिन्तन करने से सिद्धान्त वाचना थोड़े ही काल में पूर्ण हो गई। प्राचार्य का एक स्वीकृत ज्योतिषी विद्वान् था, उसने कहा - यदि आपके कोई योग्य शिष्य हो तो मुझे सौंप देना, मैं उसे ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान करा दूंगा। जिनवल्लभ उसको सौंप दिया गया। ज्योतिर्विद ने अपने पास जितना ज्योतिष का ज्ञान था, जिनवल्लभ को पढ़ा दिया। बाद में जिनवल्लभ ने अपने मूल गुरु के पास जाने को प्राज्ञा मांगी, गुरु ने कहा - जो कुछ सिद्धान्त का ज्ञान था, मैंने तुझे बता दिया है। अब ऐसा बर्तना जैसा कि सिद्धान्त में १. गुर्वावली लेखक ने जिनशेखर को जिनवल्लभ का वैयावृत्यकार (सेवा करने वाला) लिखा है, वास्तव में जिनशेखर जिनवल्लभ के गुरु-भाई थे साथ ही पढ़कर अच्छे विद्वान् बने थे, इसीलिए तो जिनवल्लभ के पट्ट पर सोमचन्द्र को प्रतिष्ठित करने का अधिक साधुओं ने विरोध किया था, क्योंकि जिनशेखर जिनवल्लभ के गुरु-भाई होने के उपरान्त विद्वान् भी थे। परन्तु आचार्य देवभद्र की जिनशेखर पर अवकृपा थी, इसलिए उन्होंने गच्छ के विरोध का विचार न करके जिनवल्लभ के पट्ट पर मुनिसोमचन्द्र को "जिनदत्तसूरि" बनाकर बैठा दिया, इसी के परिणाम स्वरूप अन्य गीतार्थ श्रमणों ने जिनशेखर को भी प्राचार्य बनाकर जिनवल्लभ का उत्तराधिकारी नियत कर दिया। जिनशेखर जिनवल्लभ का केवल वैयावृत्यकार होता तो यह बखेड़ा कभी नहीं होता। ___ 2010_05 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेद ] [ २८५ लिखा है । जिनवल्लभ ने कहा- यथाशक्ति प्रापकी प्राज्ञा का पालन करूंगा । जिस रास्ते से वे प्राये थे उसी रास्ते से चले गये । प्राशी दुर्गं से तीन कोश पर रहे हुए "माईयड " गांव में ठहरे और अपने आने की गुरु को खबर पहुँचाई । दूसरे दिन आशिका से आचार्य वहां आये । श्राशिका न आकर बीच में ठहरने का आचार्य ने कारण पूछा। जिनवल्लभ ने कहा मैं चत्यवास करना नहीं चाहता | आचार्य ने अनेक प्रकार से समझाया, पर जिनवल्लभ ने अपना निर्णय नहीं बदला । गुरु को वन्दन कर जिनवल्लभ फिर पत्तन की तरफ विहार कर गये। श्री अभयदेवसूरि के चरणों में जिनवल्लभ के आने से प्रभयदेवसूरि के मन का समाधान हो गया । वे मन में जानते थे कि जिनवल्लभ प्राचार्य पद के योग्य है, परन्तु देवगृह निवासी का शिष्य होने से गच्छ को यह बात मंजूर न होगी, यह विचार कर उन्होंने अपने पट्ट पर वर्द्धमानसूरि को बैठाया । जिनवल्लभ गरिए को अपनी उपसम्पदा १ देकर कहा - सर्वत्र हमारी प्राज्ञा से विचरना । एकान्त में प्रसन्नचन्द्राचार्य को कहा - अच्छे लग्न में जिनवल्लभ गरिए को मेरे पट्ट पर - १. उपसम्पदा का तात्पर्य क्या होता है इसको गुर्वावली लेखक समझा नहीं है, जिनवल्लम ने चित्रकूट की प्रशस्ति में अपने लिये स्वयं लिखा है कि "उसने अभयदेवसूरि के पास 'ज्ञानोपसम्पदा' लेकर तज्ञान की प्राप्ति की थी" । जिनवल्लभ अन्त तक अपने मूल गुरु कूर्चपुरीय श्री जिनेश्वरसूरि को अपना गुरु मानते थे, सं० ११३८ में लिखे गए “विशेषावश्यक भाष्य" की कोट्याचार्य कृत टीका के अन्त में लिखा है कि "यह पुस्तक प्रख्यात आचार्य जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभ गरिग की है" "प्रश्नोत्तर एकषष्ठिशतक" में एक प्रश्नोत्तर में जिनवल्लभ गरिण लिखते हैं। “मद्गुरवो जिनेश्वरसूरयः" अर्थात् मेरे गुरुजी जिनेश्वरसूरि हैं। जिनवल्लभ गरिए क' इस प्रकार को स्पष्ट लेख मिलने पर भी गुर्वावली लेखक अभयदेवसूरि की उपसम्पदा को प्रव्रज्या मानकर जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि का दीक्षित शिष्य मानते हैं यह उनका अज्ञान है । यदि जिनवल्लभ ने अभयदेवसूरि के समीप चरित्रोपसम्पदा ली होती तो उनको अपने पूर्वगुरु जिनेश्वरसूरि और उनके गच्छ का त्याग करना पड़ता और अभयदेवसूरि के गच्छ को अपना गच्छ और प्राचार्य उपाध्यायों को अपने प्राचार्य उपाध्याय मानने की प्रतिज्ञा करनी पड़ती परन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, इससे सिद्ध है कि जिनवल्लभ गरिण अभयदेवसूरि के प्रतीच्छक मात्र थे, शिष्य नहीं । 2010_05 Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] [ पट्टावलो-पराग प्रतिष्ठित कर देना, परन्तु प्रसन्नचन्द्राचार्य को भी जिनवल्लभ को गुरु-पद पर बैठाने का प्रस्ताव न मिला। उन्होंने भी अपने आयुष्य की समाप्ति के समय कपडवंज में अभयदेवसूरिजी की भावना की देवभद्राचार्य को सूचना दो। देवभद्राचार्य ने उसको स्वीकार किया। प्राचार्य अभयदेवसूरिजी कपडकंज में आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए । (५) जिनवल्लभ गरिण - जिनवल्लभ गणि कुछ दिनों तक पाटन की परिसर-भूमि में विचरे, परन्तु वहां किसी को प्रतिबोध नहीं होता था, इसलिए उनका मन नहीं लगा, प्रतः दो साधुनों के साथ विधिधर्म के प्रचारार्थ चित्रकूट की तरफ विहार किया। वे देश भी बहुधा चैत्यवासी आचार्यों से व्याप्त थे। वहां के निवासी भी उन्हीं के भक्त थे, फिर भी अनेक गांवों में फिरते हुए चित्तौड़ पहुंचे। वहां ठहरने के लिये श्रावकों से स्थान पूछा, उन्होंने कहा"चण्डिका का मठ है, यदि वहां ठहरो तो", जिनवल्लभ ने कहा"तुम्हारी अनुमति हो तो वहीं ठहरें"। श्रावकों ने अनुमति दी। जिनवल्लभ गणि सभी विद्याओं में प्रवीण थे। धीरे-धीरे चित्तौड़ में उनकी प्रसिद्धि हो गई, ब्राह्मण आदि विद्वान् तथा इतर जिज्ञासु मनुष्य और कोई श्रावक भी उनके पास जाने लगे । आश्विन कृष्ण त्रयोदशी महावीर के गर्भापहार कल्याणक का दिन है, यदि देवालय में जाकर विस्तार से देववन्दन किया जाय तो अच्छा है। उस समय बहां विधि-चैत्य तो था नहीं - वे चैत्यवासियों के देवालयों में जाने लगे, तब एक साध्वी देवगृह के द्वार पर खड़ी होकर कहने लगी - १. गुर्वावली में जिनवल्लभ ने पाटन छोड़ा तब उन्हें "प्रात्मतृतीय” लिखा है, परन्तु हमारी राय में जिनवल्लभ गणि अकेले ही पाटन से चित्तौड़ गये हैं, क्योंकि बाद के उनके जीवनवृत्त में उनके साथ में साधु होने की कोई सूचना तक नहीं मिलती, देवभद्र चित्तौड़ के लिए रवान होते हैं जब उन्हें नागौर लिखते हैं - "अपने परिवार के साथ चित्तौड़ चले आना, परन्तु उनके साथ परिवार था इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता । जिनवल्लभ के केवल एक "रामदेव" नामक शिष्य होने का उनके एक ग्रन्थ की अवचूर्णी से पता लगता है । ___ 2010_05 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २८७ नयी रीतियां करने के लिये यहां स्थान नहीं है। इस पर जिनवल्लभ तथा उनके अनुयायी श्रावक वहां से लौट गये। अपने स्थान पर जाकर श्रावकों ने कहा – बड़े मकान हैं उनमें से एक के ऊपर "चतुर्विंशति जिनपट्ट" स्थापित कर देववन्दनादिक धार्मिक क्रियाएं की जाएं तो कैसा ? गुरु ने कहा – बहुत ठीक है। श्रावकों ने वैसा ही किया, गुरु का मन संतुष्ट हुना। बाद में श्रावकों ने "चित्तौड़दुर्ग" में तथा "नगर" में एक-एक जिनालय बनाने का विचार किया और गणिजी की सम्मति मांगने पर जिनवल्लभ ने उनके विचार का अनुमोदन किया। दोनों मन्दिर तैयार हो गये१ । दुर्ग में पार्श्वनाथ और नीचे महावीर के बिम्ब । जिनवल्लभ गणि द्वारा प्रतिष्ठित किये गये। ___ एक समय मुनिचन्द्राचार्य ने अपने दो शिष्यों को सिद्धान्त-वाचना के निमित्त जिनवल्लभ गणि के पास भेजा । गणिजी ने उनको वाचना देना प्रारम्भ किया, पर बाद में उन्हें एक पत्र से मालूम हुअा कि दोनों साधु मेरे श्रावकों को बहकाकर अपने गुरु का भक्त बना रहे हैं, उन्होंने साधुनों को फटकारा और वे वहां से चले गए२ । जिनवल्लभ गणि ने अपने श्रावक गणदेव को धार्मिक शिक्षा देकर उपदेशक बनाया, क्योंकि उसको वक्तृत्वशक्ति अच्छी थी। अपने नये तैयार १. अष्टसप्ततिका के अनुसार मन्दिर एक ही बना था। २. मुनिचन्द्रसूरि स्वयं आगम-शास्त्र और न्याय-शास्त्र के प्रौढ़ विद्वान् थे और जिन वल्लभ के स्वर्गवास के बाद वे वर्षों जक जीवित रहे थे, इस परिस्थिति में उनके शिष्यों का जिनवल्लभ के पास वाचना लेने जाने की बात निर्मूल प्रतीत होती है और जिनवल्लभ के श्रावकों को बहकाकर अपने गुरु के रागी बनाने का कथन इससे भी विशेष असंभव प्रतीत होता है, क्योंकि मुनिचन्द्रसूरि उस समय के सुविहित साधुओं में पहले नम्बर के त्यागी और उग्र विहारी थे, वे हमेशा सौवीर जल पीते थे और मास-कल्प के क्रम से विहार करते थे, वृद्धावस्था में भी पाटन में मास कल्प की मर्यादा का पालन करने के लिए प्रतिमास मुहल्ला और मकान बदलते थे । सारा पाटन उनका भक्त और प्रशंसक था। ऐसे त्यागी पुरुष के लिए भक्त बनाने के प्रपंच की बात केवल कल्पित कहानी ही हो सकती है । 2010_05 Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] [ पट्टावली-पराग - किये हुए कुलक लेखों के साथ जिनवल्लभ मरिण ने गणदेव को बागड़ देश में धर्मप्रचार के लिए भेजा। वहां गणदेव ने सर्वलोकों को जिनवल्लभ मरिण दर्शित विधि-धर्म की तरफ भाकृष्ट किया था। एक समय धारा नगरी में नरवर्मा राजा की सभा में दो दक्षिणी पंडित पाए, उन्होंने "कण्ठे कुठारः कमठे ठकारः" यह पद सभा के पंडितों को दिया और मनेक पण्डितों ने समस्यापूर्तियां कीं, परन्तु आगन्तुक पण्डितों को एक भी समस्यापूर्ति सन्तुष्ट न कर सकी। इससे राजा ने जिनवल्लभ गरिण की प्रशंसा सुनकर उनसे समस्यापूर्ति कराने के लिए शोघ्रगतिक ऊंटों के साथ लेख लिख कर पुरुषों को चित्तौड़ भेजा। प्रतिक्रमण के समय बरवर्मा का प्रादमी जिनवल्लभ से मिला, पत्र दिया और जिनवल्लभ ने तुरन्त समस्यापूर्ति करके नरवर्मा के पुरुषों को दे दी। दाक्षिणात्य पण्डित समस्यापूर्ति सुनकर सन्तुष्ट हुए और राजा की तरफ से पारितोषिक पाकर चले गए। जिनवल्लभ गरिण कुछ दिनों के बाद धारा नगर पहुंचे १ । राजा नरवर्मा ने जिनवल्लभ गरिण को अपने पास बुलाया और "समस्यापूर्ति के पारितोषिक के रूप में तोन लाख पारुत्थ अथवा तीन गांव लेने के लिए कहा, उत्तर में गरिणजी ने कहा - महाराज ! हम साधु लोग धन-संग्रह नहीं करते। चित्तौड़ में श्रावकों ने दो जिनमन्दिर बावाए हैं, उनकी पूजा के लिए आपको शुल्कशाला की आमदनी में से दो पारुत्थ प्रतिदिन दिलाइयेगा । राजा ने चित्रकूट की शुल्कमण्डपिका से प्रतिदिन दो पारुत्य चित्तौड़ के जैन-मन्दिरों में देने के लिए प्राज्ञा दो। १. जिनवल्लभ गरिण के धारा नगर जाने और चित्तौड़ के दोनों मन्दिरों के लिए प्रतिदिन दो पारुस्थ नियत करवाने की हकीकत वाला सारा प्रकरण प्रक्षित है । गुर्वावली की अन्य प्रतियों में यह प्रकरण उपलब्ध नहीं होता, इस गुर्वावली की प्राचीन प्रति मिल गई होती तो इस प्रकार के तमाम कूटप्रकरणों का पता लग जाता, परन्तु अफसोस है कि प्राचीन प्रति के आदि के ५ पत्र ही उपलब्ध हुए, इसलिए लग-भग सम्पूर्ण प्रक्षिप्त पाठ गुर्वावली में रह गए हैं । 2010_05 Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेद ] [ २८६ जिनवल्लभ गरिए को प्रतिष्ठाएं करवायेंगे । अच्छे लग्न में देवगृह नागौर में श्रावकों ने नेमिनाथ का देवालय और नेमिनाथ का बिम्ब तयार करवाया था । उनकी इच्छा हुई कि हम गुरु के रूप में स्वीकार कर उनके हाथ से दोनों की सर्वसम्मति से उन्होंने जिनवल्लभ गरिए को बुलाया । तथा नेमिनाथ - बिम्ब को प्रतिष्ठित करवाया उसके प्रभाव से वे श्रावक लखपति बन गए । नेमिनाथ के बिम्ब के लिए उन्होंने रत्नमय आभूषण बनवाये । इसी प्रकार 'नरवर' के श्रावकों की इच्छा हुई और जिनवल्लभ गणिका गुरुत्व स्वीकार कर उनसे जिनालय तथा जिनबिम्ब की प्रतिष्ठा करवाई। दोनों स्थानों के मन्दिरों में रात्रि में वलिप्रदान, स्त्रीप्रवेश, लकुटादिदान का निषेध कर विधि-चैत्य के नियम लिखवाए । मरुकोट के श्रावकों की विज्ञप्ति से जिनवल्लभ गरि विक्रमपुर होते हुए मरुकोट पहुंचे। वहां के श्रावकों ने एक अच्छा स्थल ठहरने के लिए दिया और उनके मुख से धर्मोपदेश सुनने की इच्छा व्यक्त की । गणिजी ने उपदेशमाला सुनाना प्रारम्भ किया । यद्यपि यह ग्रन्थ श्रावकों का सुना हुआ था तथापि जिनवल्लभ गरिए की उपदेशधारा इतनी मधुर थी कि श्रोताओं को सुनकर तृप्ति नहीं होती थी । उस समय आचार्य देवभन विहार करते हुए रहिल पत्तन आए । पत्तन प्राकर उन्होंने जिनवल्लभ गरि को चित्तौड़ जल्दी प्रा जाने के लिए लिखा । जिनवल्लभ नागौर से विहार करते हुए चित्तौड़ पहुँचे और सं० ११६७ के प्राषाढ़ सुदि ६ के दिन वीरविधिचैत्य में अभयदवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभ गरिए को प्रतिष्ठित किया । देवभद्रादिक अपने-अपने स्थान पहुँचे, परन्तु उसी वर्ष में कार्तिक बदि १२ को रात्रि के समय जिनवल्लभसूरि समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हो गये । जिनवल्लभ का मरण- समाचार सुनकर देवभद्रसूरि को बड़ा दुःख हुआ और जिनवल्लभ के पद पर किसी योग्य साधु को प्रतिष्ठित कर उसकी परम्परा चालू करने की चिता में लगे । साधुनों की योग्यता पर विचार करते-करते उ० धर्मदेव के शिष्य सोमचन्द्र मुनि पर आचार्य देवभद्र की दृष्टि पहुँची । वह चपल 2010_05 Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० ] [ पट्टावली-पराग प्रकृति का होते हुए भी विद्वान् साधु था। प्राचार्य हरिसिंह के पास सिद्धान्त पढ़ा हुआ था। गृहस्थवर्ग तथा श्रमणसमुदाय भी सोमचन्द्र की योग्यता से परिचित था। देवभद्रसूरि ने सर्वसम्मति से चित्तौड़ आने के लिए पत्र लिखा। चित्तौड़ जाने के बाद पं० सोमचन्द्र को देवभद्रसूरि ने एकान्त में कहा - अमुक दिन में प्राचार्य-पद प्रदान करने के योग्य लग्न निश्चित किया है । सोमचन्द्र ने कहा - ठीक है, पर इस लग्न में मुझे पद पर प्रतिष्ठित करोगे, तो मेरा जीवित लम्बा नहीं होगा। छः दिन के बाद शनिवार को जो लग्न मायगा, उसमें पट्टप्रतिष्ठित होने पर चारों दिशाओं में श्री जिनवल्लभसूरिजी के वचन का प्रचार होगा और चतुर्विध श्रमणसंध की वृद्धि होगी। श्री देवभद्रसूरि ने कहा - वह लग्न भी दूर नहीं है, उसी दिन पद प्रदान करेंगे। बाद में सोमचन्द्र के बताए दिन ११६६ के वैशाख सुदि १ को चित्रकूट के जिनचैत्य में श्रीजिनवल्लभसरि के पट्ट पर पं० सोमचन्द्र को प्राचार्य-पद देकर "श्री जिनदत्तसूरि" यह नाम रक्खा। जिनदत्तसूरि की पदप्रदान के बाद की देशना सुनकर सब ने प्राचार्य देवभद्र की पसन्दगी की प्रशंसा की। देवभद्र ने कहा - जिनवल्लभसूरिजी ने मुझे कहा था कि मेरे पट्ट पर आप सोमचन्द्र गणि को बिठायें, इसलिए मैंने उनकी इच्छा के अनुकूल कार्य किया है। अन्त में देवभद्राचार्य ने नये आचार्य को कहा - कुछ दिन तक पाटन को छोड़ कर अन्य प्रदेश में विहार करना१, जिनदत्तसूरि ने कहा - ऐसा ही करेंगे। १. गुर्वावलीकार जिनदत्त को पाटन से अन्य स्थानों में विहार करने की सूचना देवभद्र के मुख से करवाता है, और जिनदत्तसूरि उसको स्वीकार करते हैं। इस पर भी जिनदत्त अट्ठम तप करके देव को बुलाते हैं और देव से अपने विहार का क्षेत्र पूछते हैं, देव उनको मरुस्थली का प्रदेश विहार के लिए सूचित करता है। जिनशेखर को समुदाय में लेने के बाद गच्छ के आचार्य जिनदत्तसूरि को कहते हैं- जिनशेखर को शामिल लेना तुम्हारे लिए सुखकर न होगा, यह कहने के बाद वे आचार्ग अपने अपने स्थान जाते हैं, गुर्वावलीकार ने इस विषय में यथार्थ बात को छिपाया है। जिनशेखर को शामिल लेने का परिणाम जिनदत्त को भयंकर मिला हैं, इस सम्बन्ध में उपाध्याय श्री समयसुन्दरजी नीचे का वृत्तान्त लिखते हैं - जो ध्यान में लेने योग्य है - "श्री जिनवल्लभसूरिनिष्काषितसाधुमध्यग्रहणेन १३ 2010_05 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २९१ एक दिन जिनशेखर ने व्रत के विषय में कुछ अनुचित कार्य किया, फलस्वरूप देवभद्राचार्य ने जिनशेखर को समुदाय से निकाल दिया, जहां होकर स्थण्डिल भूमि जाते हैं, वहां जाकर जिनशेखर खड़ा रहा। जिस समय बहिभूमि में जाते हुए जिनदत्तसूरि वहां पहुंचे और जिनशेखर उनके पैरों में गिरकर बोला - "मेरा यह अपराध क्षमा करियेगा" फिर ऐसी भूल न करूंगा । दयासागर श्री जिनदत्तसूरिजी ने उनको फिर समुदाय में मिला दिया, पता लगने पर प्राचार्य ने कहा – जिनशेखर को समुदाय में प्राचायौं: श्री जिनदत्तसूरिः गच्छाद्वहिष्कृतः ततः पदस्थापनाकारक श्रावकं पृष्ट्वा वर्षत्रयावधिं कृत्वा निर्गतः ॥" अर्थात् = जिनवल्लभसूरि द्वारा निकाले हुए साधु को फिर समुदाय में लेने के अपराध में गच्छ के १३ प्राचार्यो ने श्री जिनदत्तसूरि को गच्छ से बहिष्कृत किया, तब पदस्थापनाकारक श्रावक को पूछकर तीन वर्ष के लिए जिनदत्तसूरि निकल गए। खरतरगच्छ की एक अन्य पट्टावली में जो जिनराजसूरि तक के आचार्यो की परम्परा बताने वाली है और सत्रहवीं शदी में लिखी हुई है, जिनदत्तसूरि के उक्त प्रसंग में - "बीणई दीनि बाहरि गया छई, श्री जिनदत्तसूरि, तिवारइ, जिनशेखर आवी पगे लागऊ, कह्यऊ मारु x x x x x x x x . माहि घातो, गुरु साथइ लेई माव्या अनेरे आचार्ग काऊ एकाढयऊ हुंतप्रो तम्हे अणपूछिइ किममाहि प्राण्यो, तिवारइ जिनदत्तसूरि कामो म्हारइ दाइ आणइ मइ घाल्यो, श्री जिनवल्लभसूरि न ओ एगुराहि जिनषेखर, समस्त संघ १४ प्राचार्य मिली कह्यो एबारउ काढनो नहिंतर थेई विहार करो, जिनदत्तसूरि विहार किधरो, उपवास ३ करी स्मरयों हरिसिंहाचार्य देवलोक हूंती प्राव्यमो, मूनइ किसइ अथि स्मरओ तू हे, कह्यो मुहूर्त ३ बीजई मुह ति मूनई पाट हो, गच्छसू विरोध ह यत्रों किसी-किसी दिसि विहार करो, मारुवाडि मरुस्थलि दिशि विहार करि जेति तुम्हें स्मरस्यो तेथी हूं जुदडं।" हमारे पास एक २६ पत्रात्मक बड़ी गुर्वावली है, उसमें जिनदत्तसूरि का वृत्तान्त क्षमाकल्याणकमुनि का लिखा हुआ है, उसमें जिनदत्तसूरि को गच्छ के प्राचार्यों द्वारा गच्छ बाहर निकालने की सूचना तक नहीं है, उपर्युक्त खरतर 2010_05 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ ] [ पट्टावली-पराग लेना तुम्हारे लिए सुखकर न होगा, बाद में दूसरे प्राचार्य आदि वहां से विहार कर गए, इसके बाद जिनदत्तसूरिजी ने अपने विहार का निश्चय करने के लिए तीन उपवास कर देवलोक-स्थित हरिसिंहाचार्य के जीवदेव का स्मरण किया; देव उनके समीप आया और बोला - मेरा स्मरण क्यों किया है ? जिनदत्तसूरि ने पूछा, "विहार किघर करूं" देव ने कहा - "मरुस्थली आदि देशों में विहार करो।" देवादेश के अनुसार जिनदत्तसूरि मारवाड़ में विहार करते हुए नागौर पहुँचे, वहां का रहने वाला धनदेव श्रावक उनका बड़ा आदर करता है और कहता है - यदि आप मेरा कथन माने तो मैं आपको सब का पूज्य बनालू, इस पर जिनदत्तसूरि ने कहा - हे धनदेव ! शास्त्र में श्रावक को गुरु का वचन मानने का विधान है। गुरु को श्रावक का वचन मानने का नहीं, मेरे पास परिवार न होने से लोगों में मेरी पूजा न होगी, यह नहीं मान लेना चाहिए, अधिक परिवार वाला मनुष्य ही जगत् में पूज्यता को पाता है यह एकान्त नहीं मान लेना चाहिये क्योंकि अनेक पुत्रों में परिवृत भी गर्ताशूकरी विष्ठा खाती है। धनदेव को जिनदत्तसूरि का उपर्युक्त कठोग उत्तर भाया नहीं। ___ वहां से जिनदत्तसूरि विचरते हुए भजमेर पहुंचे, बाहड़देव श्रावक के गृहदेवालय में जिनदत्तसूरि देववन्दनार्थ गए, मन्यदा वहां एक अन्य प्राचार्य गच्छ की पट्टावलियों में से प्रथम दो १७ वीं सदी की हैं तब तीन गुर्वावलियाँ १६ वीं सदी की हैं, इस प्रकार ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों खरतरगच्छ की पट्टावलियों, गुर्वावलियों में अनुकूल पाठ प्रक्षिप्त किये जाते हैं और प्रतिकूल पाठ उनमें से निकाल दिये जाते हैं, प्रस्तुत "खरतर बृहद् गुर्वावली" में से जिनदत्तसूरि वाला प्रसंग सर्वथा तो निकाला नहीं गया। परन्तु उसमें ऐसा गोलमाल किया है कि उस प्रसंग को खरे रूप में कोई समझ न सके । देवभद्रसूरि के मुख से इतना ही कहलाया कि "तुम अभी पाटन से अन्यत्र विहार करना,” अन्य आचार्यों के मुख से इतना ही कहलाया- जिनशेखर को शामिल लेना तुम्हारे लिए सुखावह नहीं है, इन गोलमाल लेखों से इतना तो निश्चित होता है कि "बृहद् गुर्वावली" समयसुन्दर, जिनराजसूरि के समय से अर्वाचीन १८ वीं सदी की हैं, और उ० क्षमाकल्याण के पहले की। 2010_05 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६३ प्राया, जो पर्याय में छोटा था, जिनदत्तसृरि वहां जाते तब वह प्राचार्य उनके साथ उचित व्यवहार नहीं करता था। आशधर प्रमुख जिनदत्तसूरि के श्रावकोंने अर्णोराज को विज्ञप्ति की कि हे देव ! हमारे गुरु जिनदत्तसूरिजी महाराज पधारे हुए हैं । राजा ने कहा - अच्छी बात है, कार्य हो तो कहो, श्रावकों ने कहा - एक जमीन का टुकड़ा चाहिए, जहां देवालय धर्मस्थान, श्रावक-कुटुम्बों के रहने के लिए मकान बनाये जासकें । राजा ने कहा - दक्षिण-दिशा में जो पर्वत दोख रहा है, उसकी तलभूमि में जो करना चाहो करो। राजा ने कहा - आपके गुरु महाराज के दर्शन तो हमें भी करना ! राजा के साथ जो कुछ बातचीत हुई थी, वह सब श्रावकों ने अपने गुरु को सुनायी । प्राचार्य ने कहा - ऐसे राजा को अपने पास बुलाना चाहिए। अच्छा दिन देखकर राजा को बुलाया, राजा ने प्राचार्य को नमस्कार किया। प्राचार्य ने राजा को निम्नलिखित याशीर्वाद का श्लोक अर्थ के साथ सुनाया - "श्रिये कृतनतानन्दा, विशेषवृषसंगताः । भवन्तु भवतां भूप, ब्रह्मा श्रीवस्शंकगः ॥" आशीर्वाद सुनकर राजा प्रसन्न हुअा, बाद में श्रावकों ने स्तम्भनक, शत्रुञ्जय, उज्जयन्त, की कल्पना से पार्श्वनाथ ऋषभदेव और नेमिनाथ के बिम्बों की स्थापना की, भावना की । ऊपर के भाग में अम्बिका की देवकुलिका और नीचे गणधर आदि के स्थान रखने का विचार किया। अजमेर से वागड़ की तरफ विहार किया। वहां के लोग पहले से ही जिनवल्लभसूरि के भक्त थे और उन्होंने जब सुना कि जिनवल्लभ के पट्टधर भी बड़े विद्वान हैं तो वे बहुत संतुष्ट हुए, कइयों ने दीक्षा ली, सुना जाता है कि वहां सब मिलकर ५२ साधु साध्वियों की दीक्षाएं हुईं। उस प्रसंग पर जिनशेखर को उपाध्याय बनाकर कतिपय साधुनों के साथ रुद्रपल्ली की तरफ भेजा । वहां उसके सांसारी स्वजन रहते थे, उनके चित्तसमाधान के लिए जिनशेखर तपस्या करता था । कालान्तर में जिनदत्तसूरि भी रुद्रपल्ली की तरफ विचरे। जिनशेखरोपाध्याय श्रावकों के साथ 2010_05 Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ ] [ पट्टावलो-पराग प्राचार्य के सामने गए। ठाट के साथ जिनदत्तसूरि का नगरप्रवेश हुआ। वहां पर पार्श्वनाथ तथा ऋषभदेव के दो जिनालयों की प्रतिष्ठा की । अनेक श्रावकों ने सम्यक्त्व तथा देशविरति का व्रत स्वीकार किया, फिर वहां से पश्चिम में विहार करते हुए वागड़ में व्याघ्रपुर गये। वहां से जयदेवाचार्य को रुद्रपल्ली भेजा और मापने वहां रहते हुए "चर्चरी" की रचना की। पहले आपने वागड़ में रहते हुए जिन साधुओं को पठनार्थ धारा भेजा था, उन सब को अपने पास बुलाया और उनको सिद्धान्त सुनाया। जीवदेव को प्राचार्य-पद प्रदान किया। जिनचन्द्रगणि, शीलभद्रगणि, स्थिरचन्द्रगणि, ब्रह्मचन्द्रगणि, बिमलचन्द्रगणि, वरदत्तगणि, भुवनचन्द्रगरिण, वरणागगणि, रामचन्द्रगणि और मणिभद्रगणि इन दस को वाचनाचार्य-पद प्रदान किया। ___ श्रीमति, जिनमति, पूर्णश्री, जिनश्री और ज्ञानश्री इन पांच साध्वियों को महत्तरा का पद दिया। हरिसिंहाचार्य के शिष्य मुनिचन्द्र उपाध्याय के शिष्य जयसिंह को चित्तौड़ में प्राचार्य-पद दिया। उनके शिष्य जयचन्द्र को पाटन में प्राचार्य-पद पर स्थापित किया। इन दोनों को कहा - भागे रीति से चलना। सब पदस्थों को शिक्षा देकर विहारादि स्थानों का निर्देश करके आपने अजमेर की तरफ विहार किया। विक्रमपुर के देवधर नामक श्रावक ने अपने नगर की तरफ जिनदत्तसूरिजी को विहार कराने का निश्चय किया। उसके सामने किसो ने इन्कार नहीं किया, वह श्रावक-समुदाय के साथ नागौर गया और वहां के प्रसिद्ध आचार्य देवचन्द्रसूरि के साथ आयतन अनायतन के विषय में वार्तालाप करने के उपरान्त देवधर श्रावक अपने समुदाय और कुटुम्ब के साथ विधि-मार्ग का अनुयायी बन गया । वहां से देवधर सपरिकर अजमेर गया और जिनदत्तसूरि को वन्दन कर विक्रमपुर की तरफ विहार करने की प्रार्थना की। अजमेर का कार्य निपटा कर देवधर के साथ जिनदत्तसूरिजी विक्रमपुर गए। वहां के अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध किया पौर भगवान् महावीर की प्रतिमा की स्थापना की। ____ 2010_05 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६५ विक्रमपुर से उच्चानगर जाने के रास्ते में अनेक भूतों का भय था, उसे हटाया। उच्चा के लोगों को प्रतिबोध देकर नवहर गए और वहां से त्रिभुवनगिरि । त्रिभुवनगिरि के राजा कुमारपाल को प्रतिबोध किया, शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा करवाई। सं० १२०३ के फाल्गुन सुदि नवमी के दिन अजमेर में आपके हाथ से श्री जिनचन्द्रसूरि की दीक्षा हुई। सं० १२०५ के वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन विक्रमपुर में श्री जिनदत्तसूरिजी ने अपने पद पर जिनचन्द्रसूरि को प्रतिष्ठित किया और सं० १२११ के आषाढ़ वदि ११ को जिनदत्तसूरिजी अजमेर में स्वर्गवासी हुए। (७) श्री जिनचन्द्रसूरि - सं० १२१४ में जिनचन्द्रसूरि ने त्रिभुवनगिरि में श्री शान्तिनाथ के प्रासाद पर कलश-दण्ड-ध्वजारोहण किया। हेमदेवी गणिनी को प्रवर्तिनीपद दिया, फिर मापने मथुरा की यात्रा की। सं० १२१७ के फाल्गुन शुक्ल दशमी के दिन पूर्णदेवगणि जिनरथ, वीरभद्र, बीरजय, जगहित, जयशील, जिनभद्र और जिनपति प्रापके हाथ से दीक्षित हुए। इसी वर्ष में मरुकोट में चन्द्रप्रभ स्वामी के चैत्य पर वैशाख शुक्ल दशमी के दिन दण्डध्वज, कलशारोपण किया। ५०० पारुत्थ द्रम्म बोल कर सा० क्षेमंकर ने माला पहनी । सं० १२१८ के वर्ष में उच्चा नगरी में ऋषभदत्त, दिनयच द्र, विनयशील, गुणवर्धन, वर्धमानचन्द्र नामक ५ साधु और जगश्री, सरस्वती और गुणश्री नामक तीन साध्वियों की दीक्षा हुई। सं० १२२१ के वर्ष में सागरपट्ट में पार्श्वनाथचैत्य में देवकुलिका की प्रतिष्ठा की। अजमेर में जिनदत्तसूरि का स्तूप प्रतिष्ठित किया। बब्बेरक में गुणभद्रगणि, अभयचन्द्र, यशश्चन्द्र, यशोभद्र और देवभद्र को दीक्षा दी। देवभद्र की भार्या भी दीक्षित हुई। आशिका में नागदत्त को ___ 2010_05 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] [ पट्टावलो-पराग वाचनाचार्य-पद दिया, महावन में अजितनाथ के चैत्य की प्रतिष्ठा की, इन्द्रपुर में शान्तिनाथ के चैत्य पर कलश, दण्डध्वज का रोपण किया। नगला गांव में अजितनाथ के चैत्य की प्रतिष्ठा की। सं० १२२२ में बादली नगर में पार्श्वनाथ चैत्य पर दण्डध्वज-कलश की प्रतिष्ठा की और अम्बिका शिखर पर कलश की प्रतिष्ठा कराके रुद्रपल्लो की तरफ विहार किया। उसके प्रागे नरपालपुर में किसी ज्योतिष-शास्त्र के जानकार पं० से ज्योतिष सम्बन्धी चर्चा हुई, फिर रुद्रपल्ली विचरे। वहां पद्मचन्द्राचार्य ने उनसे कुछ बातें पूछीं, जिनका इन्होंने उत्तर दिया। रुद्रपल्ली से विहार करते हुए चौरचिन्दानक ग्राम के समीप उनका साथ उतरा। वहां म्लेच्छों के भय से प्राकुल हुए साथ के लोगों को पूछा - प्राकुल क्यों हो? साथ वालों ने कहा - म्लेच्छों का लश्कर पा रहा है, प्राचार्य ने कहा- तुम सर्व वस्तु वृषभादि एकत्र करलो। प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरि रक्षा करेंगे। यह कह कर उन्होंने पड़ाव के चारों ओर अपने दण्ड से गोलाकार लकीर खींच ली। सार्थ लोग सब बोरियों पर बैठे हुए घोड़ों पर चढ़े हुए हजारों म्लेच्छों को देखते हैं, परन्तु म्लेच्छ लोग किसी को नहीं देखते, वे केवल कोट को ही देखते हैं। निर्भयता होने के बाद वहां से चलकर सार्थ के साथ प्राचार्य अगले गांव गये। दिल्ली वास्तव्य श्रावकों ने प्राचार्य का आगमन सुना, वे उनके सामने गये । अपने महल पर बैठे हुए राजा मदनपाल ने वस्त्रालंकारों से सज्ज श्रावकों को जाते देखकर अपने प्रादमियों से पूछा - आज क्या मामला है, सब लोग बाहर क्यों जा रहे हैं ? राजपुरुषों ने कहा - देव, इनके गुरु मा रहे हैं। ये लोग भक्तिवश उनके सामने जाते हैं। कुतूहल से राजा ने कहा - महासाधनिक पट्टघोड़े को तैयार कर और काहलिकहस्त द्वारा काहला को बजवा, जिससे लोग जल्दी तैयार होकर यहां आ जाय । आदेश होने के बाद हजार घोड़े सवारों से परिवृत राजा श्रावकों के पहले प्राचार्य के पास पहुँच गया। प्राचार्य के साथ पाए हुए लोगों ने उपहार आदि द्वारा राजा का सत्कार किया। प्राचार्य ने मधुर वाणी से राजा को धर्म सुनाया, राजा ने आचार्य को अपने नगर में पाने के लिए प्रार्थना की, 2010_05 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २९७ परन्तु उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया, क्योंकि जिनदत्तसूरिजी ने अपने पट्टधरों की परम्परा के प्राचार्य को योगिनीपुर में न जाने का प्रादेश दिया था। राजा के उपरोध से जिनचन्द्रसूरि योगिनीपुर में जाने के लिए तैयार हुए और ठाट के साथ नगरप्रवेश किया। एक समय वहां रहने वाले अपने भक्त कुलचन्द्र श्रावक को पूज्य ने अतिगरीब देखकर उसे एक यन्त्रपट दिया और कहा - कुलचन्द्र ! अपनी मुट्ठीभर वास से पट को प्रतिदिन पूजना, इस पट पर चढाये हुए, निर्माल्य रूप वास पारद आदि के संयोग से सुवर्ण बन जायेंगे१, गुरु की बताई हुई रोति से पट्ट को पूजता हुआ कुलचन्द्र कोटिध्वज हो गया। १. वास को सोना बनाकर कुलचन्द्र श्रावक को करोडपति बनाने वाला गुर्वावलीलेखक किसी नई दुनियां का मनुष्य प्रतीत होता है। खनिज-पदार्थों के सम्पर्क से पारद का सोना बनाने का तो भारतीय रसायन और तन्त्र-शास्त्रों में लिखा है, परन्तु केसर, कस्तूरी चन्दन आदि सुगन्ध काष्टिक पदार्थों से सोना बनाने का गुर्वावलीकार को छोड़ कर अन्य किसी ने नहीं लिखा । लेखक को इस प्रकार के कल्पित किस्से लिखने के पहले सोचना था कि इन बातों को सत्य मानने वाले परिमित भोले भक्त मिलेंगे, तब इन बातों को पढ़कर लेखक की खिल्ली उडाने वाले बहत मिलेंगे। परिणामस्वरूप इस जरिये से हमारे गुरु का महत्त्व बढ़ाने के बदले घट जायगा। उक्त हकीकत वाले फिकरे के नीचे एक प्रक्षिप्त पाठ पंक्ति का पाठ है, उसमें एक देवता को देव बनाने की कहानी लिखी है, वह कहानी इस प्रकार है - "एक दिन जिनचन्द्रसूरि दिल्ली के उत्तर दरवाजे से होकर स्थण्डिल भूमि की तरफ जा रहे थे। महानवमी का दिन था, श्री पूज्य ने मांस के निमित्त आपस में लड़ती हुई दो देवताओं को देखा। बड़े जोरों का युद्ध हो रहा था, उसे देख कर श्री पूज्य ने दया लाकर "अधिगालि'' नामक देवता को प्रतिबोध दिया। शान्तचित्त होकर उसने प्राचार्य को कहा - भगवन् ! मैंने मांस-बलि का त्याग कर दिया, परन्तु आप मुझे कोई स्थानक वनाएं, जहां रहकर आपकी आज्ञा का पालन करती रहूं। प्राचार्य ने उसे कहा - महानुभाव ! श्रीपार्श्वनाथविधिचत्य में प्रवेश करते दाहिनी तरफ जो स्तम्भ है, उसमें तू अपना स्थान बना ले। श्री पूज्य बहिर्भूमि से पौषधशाला में पाये और सा० लोहड, सा० कुलचन्द्र, सा० पाल्हण आदि प्रधान श्रावकों को कहा - श्री पार्श्वनाथ प्रासाद में प्रवेश करते दाहिनी तरफ के स्तम्भ ___ 2010_05 Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [ पट्टावली-पराग .... सं० १२२३ के द्वितीय भाद्रपद वदि १४ को समाधिपूर्वक आयुष्य पूर्ण कर जिनचन्द्रसूरि स्वर्गवासी हो गए। (८) श्री जिनपतिसूरि जिनपतिसूरि का जन्म १२१० विक्रमपुर में हुआ था पोर इनकी दीक्षा सं० १२१७ के फाल्गुन सुदि १० को और सं १२२३ में १४ वर्ष की उम्र में इन्हें क्षुल्लक नरपति से जिनपतिसूरि बनाकर जिनचन्द्रसूरि के पट्टपर प्रतिष्ठित किया था। जिनचन्द्रसूरि के पाठक श्री जिनभक्त मुनि को प्राचार्य-पद देकर "श्री जिनभक्ताचार्य" बनाया, वहां के समुदाय के साथ सा० मानदेव ने हजार द्रव्य खर्च कर यह महोत्सव किया था। उसी स्थान पर जिनपतिसूरिजी ने पद्मचन्द्र भौर पूर्णचन्द्र को श्रमणवत दिये । सं० १२२४ में विक्रमपुर में प्रथमनन्दी में गुणधर, गुणशील, दूसरी में पूर्णरथ, पूर्णसागर और तीसरी नन्दी में वीरचन्द्र तथा वीरदेव को दीक्षा दी और जिनप्रिय को उपाध्याय-पद, १२२५ में भी जिनसागर, जिनाकरादि की वहां दीक्षाएं हुईं, फिर विक्रमपुर में जिनदेवगणि की दीक्षा हुई। में अधिष्ठायक की मूर्ति खुदवालो। श्री पूज्य का आदेश होते ही श्रावकों ने वैसा ही किया। बड़े ठाट के साथ श्री पूज्य ने वहां प्रतिष्ठा की और "अतिबल" ऐसा अधिष्ठायक का नाम दिया, श्रावकों ने उसको बड़े-बड़े भोग चढ़ाना शुरु किया। "अतिबल' भी श्रावकों का मनोवांछित पूरने लगा। .. पाठकगण ऊपर पढ़ आये हैं कि जिनचन्द्रसूरि ने जिस देवता को मांसबलि न लेने का प्रतिबोध दिया था, उसका नाम “अधिगालि" था और जात की वह देवी थी, परन्तु पार्श्वनाथ के मन्दिर में स्तम्भ पर प्रतिष्ठित कर आचार्य श्री जिनचन्द्रसूरि के भक्तों ने उसको "अतिबल" नामक देव बना लिया और जिनचन्द्रसूरिजी से उसकी प्रतिष्ठा भी करवा ली। पाठक महोदयः इस प्रकार के चमत्कारों की बातें आपने किसी अन्य गच्छ की गुर्वावलियों में नहीं पढ़ी होगी। कभी आपको दिल बहलाने के लिए नवल कथा पढ़ने की इच्छा हो जाय तो एक आध खरतरगच्छ की गुर्वावली पढ़ लेना सो आपकी इच्छा पूरी हो जायगी। ___ 2010_05 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ २६९ सं० १२२७ में उच्चानगर में धर्मसागर धर्मचन्द्रादि की ६ दीक्षाएं हुई, एक श्राविका की दीक्षा हुई और जिनहित को वाचनाचार्य-पद दिया, उसी वर्ष में मरुकोट में शीलसागर, विनयसागर और उसकी बहन अजितश्री को गणिनी का व्रत दिया। सं० १२२८ में सागरपाट में अजितनाथ और शान्तिनाथ चैत्यों की प्रतिष्ठायें की; उसी वर्ष विहार करके बब्बेरक गए । प्राशिका के निकट श्री पूज्य का प्रागमन सुनकर माशिका का समुदाय, वहां के राजा भीमसिंह के साथ उनके सामने गया और नगर में प्रवेश कराया। माशिका में बहिर्भूमि जाते एक दिगम्बर विद्वान् मिला, उससे कुछ वार्तालाप हुमा । नगर में बात फैली कि श्वेताम्बर प्राचार्य ने वाद में दिगम्बर को जीता राजा भीमसिंह ने अपनी प्रसन्नता प्रकट की। फाल्गुन शुक्ल ३ को वहां देवालय में पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापन कर वहां से सागरपाट जाकर देवकुलिका की प्रतिष्ठा की। सं० १२२६ में घानपाली में संभवनाथ की प्रतिष्ठा और शिखर की प्रतिष्ठा की, सागरपाट में पं० मरिणभद्र के पद पर विनयभद्र को वाचनाचार्य-पद दिया। सं० १२३० विक्रमपुर में स्थिरदेव, यशोधर, श्रीचन्द्र तथा प्रभयमति, जयमति, प्रासमति और श्रीदेवी को दीक्षा दी। सं० १२३२ फाल्गुन सुदि १० को विक्रमपुर में गुणचन्द्र गणि के स्तूप की प्रतिष्ठा की, उसी वर्ष में विक्रमपुर के समुदाय के साथ आशिका की तरफ विहार किया और ज्येष्ठ शुक्ल ३ को प्रवेश किया । धूमधामपूर्वक पार्श्वनाथ प्रासाद पर दण्डकलश का प्रारोपण हुआ। साहु श्राविका ने ५०० पारुत्थ द्रम्मों से माला ग्रहण की, धर्मसागर गणि और धर्मरुचि की दीक्षा हुई। भाषाढ़ मास में कन्यानन के विधिचैत्य में श्री महावीरदेव की प्रतिमा स्थापित की, व्याघ्रपुर में पार्श्वदेव गणि को दीक्षा दी। 2010_05 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] [ पट्टावली-पराग सं० १२३४ फलोदी के विधिवत्य में पार्श्वनाथ को स्थापित किया मौर जिनमसे को उपाध्याय-पद और गुणश्री को महत्तरा पद दिया गया । सर्वदेवाचार्य मोर जयदेवी साध्वी को दीक्षा दी । सं० १२३५ अजमेर में चातुर्मास्य किया । श्री जिनदत्तसूरि का स्तूप फिर से विस्तार के साथ प्रतिष्ठित किया, देवप्रभ तथा उनकी मां चरणमति गणिनी को दीक्षा दी। सं० १२३६, अजमेर में महावीर प्रतिमा की ओर अम्बिका के शिखर की प्रतिष्ठा की । सागरपाट में भी अम्बिका के शिखर की प्रतिष्ठा की । सं० १२३७, बम्बेरक में जिनरथ को वाचनाचार्य बनाया । सं० १२३८, आशिका में दो बड़ी मूर्तियां स्थापित की। से सं० १२३६, फलोदी में अनेक भक्तिमान् श्रावकों के साथ बहिर्भूमि जाते हुए श्री जिनभक्ताचार्य को देखकर ऊकेश - गच्छीय पद्मप्रभ नामक आचार्य जिनपतिसूरि को जीतने की भट्टों प्रशस्ति पढ़ाने लगा, इससे श्री पूज्य के भक्त श्रावकों ने पद्मप्रभ को बड़े कठोर शब्दों से फटकारा । बात बढ़ गई, एक दूसरे के सामने एक दूसरे के भक्त गृहस्थ बड़े बीभत्स शब्दों का प्रयोग करने लगे। बृहद् गुर्वावलीलेखक ने यह प्रकरण गुर्वावली में न लिखा होता तो अपने आचार्यों की बड़ी सेवा की मानी जाती । आचार्य पद्मप्रभ के साथ जिनपति के शास्त्रार्थ में उनके भक्त सेठ रामदेव ने अपने घर से १६ हजार पारुत्य द्रव्य खर्च किये थे । सं० १२४० में विक्रमपुर में श्रीपूज्य जिनपतिसूरि ने १४ साधुओं के साथ गणियोग का तप किया । सं० १२४१ में फलोदी में जिननाग, श्रजित, पद्मदेव, गरगदेव, यमचन्द्र तथा धर्मश्री श्रौर धर्मदेवी को दीक्षा दी । 2010_05 Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] - सं० १२४३ में खेटनगर में चातुर्मास्य किया। सं० १९४४ में श्री प्रणहिलपाटकी में इष्ट गोष्टी चल रही थी, तब 4. सा० अभयकुमार को भाण्डशालिक ने कहा - अभयकुमार ! तुम हमारे स्वजन हो, कोटिधन के मालिक हो, और राजमान्य हो इससे हमको क्या फायदा हुआ ? जो तुम हमारे गुरषों को श्री उज्जयन्त, शत्रुञ्जय प्रादि तीर्थो की यात्रा नहीं करते। भाण्डशालिक की इस प्रेरणा को सुनकर अभयकुमार बोला - भाण्डशालिक ! किसी प्रकार से निराश मत हो, सब ठीक करूंगा, यह कह कर वह महाराज भीमदेव के पास गया । १. बृहद् गुर्वावली में सोमचन्द्र मुनि के साथ अराहिल पाटन का नाम आया था। जिनवल्लभ गणि ने पाटन में वर्षों तक विधिधर्मका प्रचार किया, परन्तु पाटन के संघ द्वारा गुजरात भूमि की सीमा छोड़कर, वे मारवाड़, मेवाड़ की तरफ गये थे सो जीवन पर्यन्त गुजरात की सीमा में पग नहीं रक्खा, जिनदत्तसूरि ने भी आचार्य बनने के बाद मेवाड़, मारवाड़, सिन्ध की तरफ ही विहार किया। आचार्य देवभद्र ने उनको कुछ समय तक पाटन में न आने की सलाह दी थी, तब जिनदत्त ने तीन वर्ष तक गुजरात की तरफ न आने की प्रतिज्ञा करके चित्तौड से विहार किया था। परन्तु जहां तक हमने इनके जीवन का अध्ययन किया है, जिनदत्तसरि ने आचार्य होने के बाद गुजरात और पाटन की तरफ प्रयाग नहीं किया। __ अंचलगच्छ की शतपदी नामक सामाचारी के कथनानुसार जिनदत्त एक बार पाटन आये थे, परन्तु उनको रात्रि के समय वाहन द्वारा मारवाड़ की तरफ भाग जाना पड़ा था। जिनदत्त के पट्टधर मणिधारी जिनचन्द्रसूरि मारवाड़ तथा उत्तर भारत में ही विचरे थे, गुजरात की तरफ कभी विहार तहीं किया था । जिनचन्द्र के पट्टधर जिनपतिसूरि सं० १२२३ में पट्टप्रतिष्ठित हुए थे, परन्तु सं० १२४३ तक उन्होंने पाटन में पग नहीं रवखा था। यद्यपि विधि-धर्म के अनुयायी अन्य साधु वहां आते जाते और रहते थे परन्तु गच्छ का मुख्य प्राचार्य पाटन में नहीं आता था। जिनवल्लभगणि पाटन में अपमानित होकर गए थे, इसलिए उनका वहां न आना सकारण था, परन्तु जिनदत्तसूरि जिनदत्त के शिष्य जिनचन्द्र और उनके पट्टधर जिनपतिसूरि का पाटन में न आना एक रहस्यमयी समस्या है, जिसका आजकाल के खरतरगच्छीय विद्वानों को पता तक नहीं है, प्रस्तुत गुर्वावली और बारहवीं शती के अन्यान्य ग्रन्थों से हमको पता लगा है कि जिनदत्तसूरि के उत्तेजक और लडाके उपदेशों को शान्तिभंग करने वाले बताकर जिनदत्तसूरि का पाटन ___ 2010_05 Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] [ पट्टावली-पराग राजा और उसके प्रधान जगदंब प्रतिहार को प्रार्थना करके अजमेर वास्तव्य खरतरगच्छ योग्य राजादेश लिखवा कर, वह अपने घर गया और अभयकुमार ने भाण्डशालिक को अपने पास बुलाकर उसके समक्ष राजाज्ञा का लेख तथा खरतरसघ योग्य और जिनपतिसूरि योग्य अपने दो विज्ञप्ति - पत्र प्रधान लेखवाहक को देकर अजमेर संघ के पास भेजा । में आना उनके विरोधी प्राचार्यों ने राजाज्ञा द्वारा निषिद्ध करवाया था। जिनश्वरसूरि की परम्परा के अन्य साधु पाटन में उनकी कोटड़ी में आते जाते और रहते हुए अपना सामान्य व्यवहार चलाते रहते थे । “विधिधर्म" का प्रचार और " आयतन अनायतन" की सभी चर्चाएं ठण्ड़ी पड़ चुकी थी, इतना ही नहीं, जिनवल्लभ के समय से विधि धर्मानुयायियों द्वारा पाटन तथा प्रासपास में आठ दस विधिचैत्य बनाए गए थे, उनको भी उनके अनुयायियों से छिनवा कर "कुमारपाल के राज्यकाल में पाटन संघ को सुपुर्द कर दिया था, इन बातों से उत्तेजित होकर जिनदत्त दूर बैठे हुए भी अपने भक्तों को विधि - धर्म के लिए मरने-मारने के लिए उत्तेजित किया करते थे, परन्तु निर्नायक सैन्य की तरह विधि - धर्म के अनुयायियों पर उनका कोई असर नहीं होता था । आचार्य जिनदत्त अपने " उपदेश - रसायन रास" में लिखते हैं "जो गीयत्थ सु करइ न मच्छरु, सुवि जीवंतु न भिल्लई मच्छरु, । सुद्धइ धम्मि जु लग्गइ विरलउ, संघि सु बज्भु कहिज्जइ जवलउ ॥२१॥" ( अपभ्रंश काव्यत्रयी, पृ० ३६ ) ऊपर के पद्य में जिनदत्तसूरि ने शुद्ध-धर्म में लगने वाले विरल मनुष्य को संघ द्वारा बहिष्कृत कहे जाने की बात कही है । " विहि चेहरि विहि करेवइ, करहि उवाय बहुति तिलेवर | जइ विहिजिणहरि अविहि पयट्टइ, तो घिउ सतुय मज्भि पलुट्टई ||२३|| " "जइ किर नरवरइ किविइ समवास, ताहिवि प्रघहि विहि चेइय दस तह विन धम्मिय विहि विणु झगडहि, जइ ते सव्वि वि उट्ठहि लगुडिहि । २४ | " ( अपभ्रंश का ० ० पृ० ४१ ) उपर के २३ वें पद्य में विधि चैत्य में अविधि करने के लिए बहुतेरे उपाय किये जाने तथा विधि - जिनघर में प्रविधि प्रवर्तने की भक्त श्रावकों की फरियाद पर आचार्य उन्हें आश्वासन देते हुए कहते हैं, भाइयों - जो कुछ भी हो, होने दो ! 2010_05 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [३०३ श्रीपूज्य निनपतिसूरि भो गुजरात के राजा का आदेश-पत्र और अभयकुमार की दो विज्ञप्तियां पढ़कर संघ की प्रार्थना से श्रीनजमेर के संघ के साथ तीर्थवन्दनार्थ चले । विधिजिन-घर में प्रविधि की प्रवृत्ति सत्तु में घी ढलने जैसी बात है। २४ वें पद्य में विधिर्मियों की इस फरियाद पर कि "राजा ने दसही विधि-चैत्य प्रविधि करने वालों के हवाले दे दिये हैं।" आचार्य कहते हैं -- यद्यपि राजा ने दुप्पम काल के वश हो दश विधि-चैत्य तुमसे ले लिए हैं, तथापि धार्मिकों को उनमें जाकर विधिचैत्य का ही व्यवहार करना चाहिए, भले ही वे सब लाठियों के साथ सामना करने को खड़े हो। "धम्मिउ धम्मुकज्जु साहंतउ, परू मारइ कीवइ जुज्झन्तउ । तुवि तसु धम्मु अस्थि नहु नासह, परम पइ निवसइ सो सासइ ॥२६॥ (अपभ्रंश का० १० पृ० ४२) ऊपर के पद्य में प्राचार्य ने धार्मिकों को उत्साहित करते हुए कहा है -- धर्मकार्य को साधन करते हुए धार्मिकों को कोई क्रोध के वश हो मार डाले तब भी उसका धर्म नहीं जाता और वह मर कर शाश्वत पद अर्थात् “मोक्ष स्थान में निवास करता है।" जिनदरासूरि के उपर्युक्त प्रकार के उपदेशों से ही उनके पाटन के विहार पर प्रतिबन्ध लगाया गया था और कुमारपाल के राजस्वकाल में तो केवल जिनदत्त तथा इनके अनुयायियों का ही नहीं, पौर्णमिक, प्रांचलिक, विधिधर्म प्रवर्तक आदि सभी नये गच्छ वालों का पाटन में पाना बन्द हो गया था। कुमारपाल के स्वर्गवास के बाद १२३६ में एक पौर्णमिक साधु पाटन में आया और पता लगने पर राजकर्मचारियों ने पूछा -- कि "तुम पौर्णमिक गच्छ के हो,” उसने कहा -- "मैं पौर्णमिक नहीं हूँ, मैं तो साधु-पौर्णमिक हूं." इस प्रकार पौर्णमिक से अपने को जुदा बताने पर ही उसे पाटन में ठहरन दिया, कुमारपाल के राज्य तक ही नहीं उसके बाद द्वितीय भीमदेव के राज्य तक उक्त पौर्णमिक खरतर आदि गच्छों का पाटन में आना जाना बन्द था। अजमेर से जिनपतिसूरि के भक्तों ने शत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रा के लिए संघ की तैयारी कर रक्खी थी और गुजरात के राजा पर अर्जी लिखने पर गुजरात में होकर संघ के जाने की आज्ञा भी मिल सकती थी, परन्तु सवाल यह था कि पाटन में संघ के जाने पर "खरतर आचार्य को" नगर में आने का मनाई हुक्म हो जाय तो मुश्किली खड़ी हो सकती है, इस भविष्य की चिन्ता को लक्ष्य में ___ 2010_05 Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ । [ पट्टावली-पराग अजमेर के संघ की बात चारों ओर फैली और विक्रमपुर, उच्चा, मरुकोट, जैसलमेर, फलोधी, दिल्ली, वागड़, मण्डोवर प्रादि नगरों के रहने वाले यात्रियों के समूह प्रा मिले । श्रीपूज्य भी अपने विद्या-तपो आदि गुणों से स्थान-स्थान में जैन प्रवचन की शोभा बढ़ाते हुए, संघ के साथ चन्द्रावती पहुंचे। वहां पर पूर्णिमा-पक्ष के प्राचार्य "प्रकलंकदेवसूरि' ने भी ज्ञानगोष्ठी करते हुए जिनपतिसूरि को पूछा कि "क्या साधु को तीर्थयात्रा के लिए घूमना शास्त्रोक्त है ?" श्रीपूज्य ने कहा – “कारणवश रखकर पाटन निवासी विधि-धर्म का अनुयायी एक भणशाली गृहस्थ किसी बड़े आदमी को कहकर खरतराचार्यों का पाटन में आना जाना शुरु करवाना चाहता था। एक दिन वह भांडशालिक गृहस्थ व्यवहारी साधु अभयकुमार सेठ के साथ बैठा हुआ था, सेठ को प्रसन्नचित्त देखकर उसने अभयकुमार को सम्बोधित किया - "अभयकुमार ! तव सोजन्येन, तव कोटिसंख्यद्रव्याधिपत्येन, तव राज्यमान्यतया किमस्माकं फलं! यत्त्वमस्मद्गुरुन् श्री उज्जयन्त-शत्रुञ्जयादितीर्थेषु यात्रा न कारयसि ?" भरणशाली के उपर्युक्त शब्द जो अपने सम्बन्धी अभयकुमार को उपालम्भ पूर्वक कहे गए है, इससे यही सूचित होता है कि अभयकुमार सेठ जैसे राजमान्य और धनाढ्य गृहस्थों के बिना पाटन में आने जाने का मार्ग खुलना कठिन था, अपने सांसारिक सम्बन्धी को इस प्रार्थना पर अभयकुमार ने तुरंत ध्यान दिया और संघ को गुजरात पाने की प्राइम के अतिरिक्त उनके साथ जो प्राचार्य आदि हों उनको भी किसी प्रकार की रोक टोक न होने की वाचिक मञ्जूरी ले ली और उसकी सूचना अजमेर के संघ और जिनपतिसूरिजी को अपने पत्रों द्वारा दे दी, यह कार्य अभयकुमार ने अच्छा ही किया, राजकीय आज्ञा, निषेध, परिस्थितियों के वश होते हैं तो परिस्थिति के बदलने पर, उनको बदलना ही चाहिए, परन्तु पाटन नगर अनेक गच्छों का केन्द्रस्थान था । खरतर, पौर्णमिक आदि सुधारक गच्छों से पुराने गच्छ नाराज तो थे ही फिर वे पुरानी राजाज्ञानों को क्यों शिथिल होने देते? खरतरगच्छ वालों के लिए तो १३ वीं शती के मध्यभाग में ही मार्ग खुल गया था, परन्तु पौर्णमिक, आंचलिक, गच्छ वाले तो जब तक पाटन में राजपूतों का राज्य रहा तब तक पाटन से दूर-दूर ही फिरते थे। जब पुराने पाटन का मुसलमानों के आक्रमण से भंग हुआ और मुसलमानों ने वहां अपना राज्य जमा कर नया पाटन बसाया तब से पौर्ण मिक आदि पाटन में प्रवेश कर पाए थे। 2010_05 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३०५ मुझे आचार्य पद पर बैठा दिया है, इसलिए संघ के साथ विचरता हुग्रा अज्ञात देशों की भाषा से भी परिचित हो जाऊंगा और साथ-साथ तीर्थयात्रा भी हो जायगी। इसके अतिरिक्त संघ ने अत्यन्त प्रार्थना की कि प्रभो ! अनेक चार्वाक लोकों से भरी हुई गुर्जर भूमि में तीर्थ प्राए हुए हैं, हम वहां तीर्थ यात्रार्थं जाते हैं। कोई नास्तिक हमारे सामने तीर्थ यात्रा का निषेध प्रमाणित करेगा तो हम प्रज्ञानी उसको क्या उत्तर देंगे, इसलिए श्राप संघ के साथ अवश्य पधारें ताकि जिनशासन का लाघव न हो, इसलिए हम संघ के साथ जा रहे हैं ।" श्री अकलंकदेवसूरिजी ने जिनपतिसूरिजी के इस उत्तर को योग्य माना । दोनों प्राचार्यों के बीच देर तक ज्ञान-गोष्ठी होती रही । भिक्षा का समय हो जाने पर कलंकसूरि प्रपने स्थान पर गए । दूसरे दिन जिनपतिसूरि संघ के साथ कासहृद गए। वहां पौर्णमिक प्राचार्य श्री तिलकप्रभ अनेक साधुयों के साथ संघ के स्थान पर प्राए । परस्पर सुखवार्तादि शिष्टाचार हुआ और तिलकप्रभ के साथ श्रीपूज्य ने ज्ञानगोष्ठी की । अन्त में तिलकप्रभसूरि ने भी श्री पूज्य को प्रशंसा की । वहां से संघ प्रशापल्ली पहुंचा, वहां श्रावक क्षेमंकर अपने संसारी पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को वन्दनार्थ वादिदेवाचार्य सम्बन्धी पोषधशाला में गया । वन्दन के बाद प्रद्युम्नाचार्य ने क्षेमंकर को कहा - जिनपतिसूरि को गुरु के रूप में स्वीकार कर अच्छा नहीं किया । क्षेमंकर ने कहा - मेरी समझ से तो मैंने अच्छा ही किया है । प्रद्युम्नसूरि ने कहा - मरुस्थली के जड़ लोगों को पाकर आपके गुरु ने अपने को सर्वज्ञ मान लिया है सो ठीक है, क्योंकि “निर्वृक्षे देशे एरण्डोऽपि कल्पवृक्षायते" परन्तु तुम्हारे जैसे देवसूरि के वचनामृत का पान करने वाले समझदारों का मनोभाव बदल गया, इससे हमारा दिल दुःखता है । वहां से आगे बढ़कर संघ ने स्तम्भनक, गिरनार यादि तीर्थों की यात्रा की । मार्ग की तकलीफ के कारण संघ शत्रुञ्जय नहीं गया । यात्रा से लौट कर संघ वापस प्राशापल्ली श्राया । इस समय क्षेमंकर ने जिनपति के साथ प्रद्युम्नाचार्य का शास्त्रार्थ होने की बात 2010_05 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग फैलाई१ और दोनों को मामने-सामने भिड़ाया। शास्त्रार्थ का नाटक हुआ पौर जिनपति ने कहा- दूसरे सिद्धान्त-ग्रन्थ तो दूर रहो, हम "प्रोपनियुक्ति" के प्रमारणों से देवगृह तथा जिनप्रतिमा को अनायतन प्रमाणित कर दें तो हमारी जीत मानी आयगी ? प्रद्युम्नसूरि ने कहा - प्रमाण, परन्तु अभी टाइम बहुत हो गया है, आगे बात कल प्रभात को होगी। प्रद्युम्नाचार्य ने रात्रि के समय अपने पक्ष के प्राचार्य और पण्डितों के साथ प्रदीप के प्रकाश में "मोघ-नियुक्ति" सूत्रवृत्ति के पुस्तक पढ़े, परन्तु १. क्षेमंकर यद्यपि प्रद्य म्नाचार्य का पिता लगता था, तथापि वह स्वयं खरतरगच्छ का अनुयायी बन चुका था और अपने पुत्र प्रद्युम्नाचार्य को किसी प्रकार खरतरगच्छ में खींचना चाहता था । प्रद्युम्नाचार्य एक विद्वान् प्राचार्य थे, आशापल्ली के लोग उन पर मुग्ध थे। क्षेमंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ के नाम पर प्रपंच में फंसा दिया। कैसा भी विद्वान् क्यों न हो वह झूठे जाल में फंसकर अपमानित हो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। जिनपलिसूरि के भक्त "जिनहितोपाध्याय" और "रामदेव” जैसे गृहस्थ जाल बिछाने में सिद्धहस्त थे । अजमेर में ऊकेशगच्छय प्राचार्य पद्मप्रभ को इसी प्रकार के जाल में फोसकर अपमानित किया था, अजमेर के राजा पृथ्वीराज के परिकर को जिनमें से अनेक पद्मप्रभाचार्य के पुराने भक्त थे, धन की थैलियां पाकर पद्यप्रभाचार्य के विरुद्ध हो चुके थे, जिस बात की पद्मप्रभाचार्य ने पृथ्वीराज के सामने सभा में खुल्ली शिकायत की थी, प्राचार्य ने कहा - "महाराज ! मण्डलेश्वरो लञ्चाग्रहण एव प्रवीणो न गुणिनां गुणग्रहणे" अर्थात् हे राजा साहब! आपका मण्डलेश्वर कई मास लांच लेने में ही प्रवीण है. गुणी के गुण ग्रहण करने में नहीं, इस प्रकार राजा के सामने शिकायत होने पर भी राजा ने उस तरफ कुछ ध्यान नहीं दिया । शास्त्रार्थ करने के लिए इस प्रकार की सभाएं नहीं होती, उसमें प्रमुख होता है, मध्यस्थ सभ्य होते हैं, वादी प्रतिवादी के वक्तव्यों को लेखबद्ध कर उनके ऊपर से फैसला देने वाले निर्णायक होते हैं, अजमेर की शास्त्रार्थसभा क्या थी, तमाशा करने वालों का थियेटर था। तमाशाबीन लोग इकट्ठे हो जाते, शास्त्रार्थ करने वाले मुख से असभ्य वचन निकालकर विरोधी को अपमानित करते थे, राजा साहब सभा में पाते और पूछते - कैसे कौन जीता? कौन हारा ? उनके गुर्गे जिनकी तरफ से पेट भर जाता, उनकी तरफ अगुली कर कहते - ये जीते और उनकी जय 2010_05 Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३०७ "अनायतन" प्रतिपादक स्थान नहीं मिला । श्रीपूज्य के पास उन्होंने मनुष्य भेजा और पूज्य ने उनकी पृच्छा के अनुसार "प्रोपनियुक्ति' का उद्देश कहा, प्रद्युम्नसूरि आदि ने पूज्य के कथनानुसार उद्देश की गवेषणा करते हुए वह स्थल पाया। अनायतन प्रतिपादक गाथा-सम्बद्ध-वृत्ति के अक्षर अन्य गाथाक्षरों के साथ मिला कर उन पर विचार किया। प्रातः समय प्रद्युम्नाचार्य अभयड दण्डनायक के साथ जिनपतिसूरि के स्थान पर जयकार पुकारते, क्या वादसमाओं का यही पोजिशन होता है ? अजमेर में इसी प्रकार की धांधागर्दी से पद्मप्रभाचार्ग को अपमानित किया था । ___ सभा शास्त्रार्थ का मनचाहा वर्णन करने के बाद गुर्वावलीकार लिखता है"दिनद्वयानन्तरं प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहकः सबलवाहनो महाराजाधिराजश्रीपृथ्वीराजः श्री अजयमेरो निजधवलगृहे समागत्य ततः स्थानाद्धस्तिस्कन्धाधिरूढेन जयपत्रेण सह पौषधशालायामागतो ददौ च जयपत्रं श्रीपूज्यानां हस्ते । पठितश्चाशीर्वादः श्रीपूज्यैः श्रावकैश्च कारित महावर्धापनकं, तस्मिंश्च वर्धापनके श्रे० रामदेवेनात्मगृहात् पारुत्थद्रम्माः षोडश सहस्राणि ध्ययीकृताः।" __अजमेर के राजा साहब हाथी पर आरुढ़ होकर जिनपतिसूरिजी को उनके स्थान पर "जयपत्र" देने जाते हैं, सूरिजी राजा साहब को आशीर्वाद देते हैं और सूरिजी के भक्त बघाई बांटते हैं, सूरिजी के भक्त सेठ रामदेव अपने घर से सोलह हजार रुपया खर्च करते हैं। यहां कोई गुर्वावलीकार को पूछे कि आपके प्राचार्य की विजय पर नगर में वर्धापन तो श्रावकों ने ही किया था। तब सेठ रामदेव के घर से खर्च होने वाले १६०००) सोलह हजार रुपया किस मार्ग से गया, इसका कोई उत्तर दे सकता है ? जिस प्रकार से अजमेर में धांधागर्दी से पद्मप्रभाचार्य का अपमान किया गया, उसी प्रकार से आशापाल्ली में प्रद्युम्नाचार्य को कृत्रिम प्रमाण उपस्थित करके अपनी जीत दिखाई गई, दो पत्र छिपाने का जो हो हल्ला मचाया था, वास्तव में वे दो पत्र "प्रोधनियुक्ति” की वृत्ति में घुसेड़े हुए थे, उनका तथा मूल वृत्ति का सम्बन्ध ठीक ढंग से न बैठने के कारण प्रद्य म्नसूरि दो पत्रों को एक तरफ रखकर अगले पत्र के साथ पूर्वपत्र का सम्बन्ध मिलता है या नहीं इसकी जांच कर रहे थे, इतने में जिनहितोपाध्याय ने पान छिपाने का जो हल्ला मचाया, वीरनाग जैसे ने चोरी करने के दण्ड की बात चलाई और हण्टर चलने लगे । क्या शास्त्रार्थ-सभाएं इसी 2010_05 Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ ] [ पट्टावली-पराग - माए और निचली भूमिका पर बैठे। जिनपति भी ऊपर से सपरिवार नीचे पाए, संस्कृत भाषा में चर्चा का प्रारम्भ हुमा । श्री जिनपतिसूरिजी ने प्रद्युम्नाचार्य की प्रत्येक युक्ति का खण्डन कर खरतर मार्ग का स्थापन किया। चर्चा के आखिरी भाग में "प्रोघनियुक्ति" में से "पायतन अनायतन" सम्बन्धी अधिकार पढ़ने का कार्य प्रद्युम्नाचार्य को सौंपा गया। अधिकार पढ़ते-पढ़ते प्रद्युम्नाचार्य ने वृत्ति के दो पत्र छोड़कर अगला पत्र पढ़ना शुरु कर दिया उस समय पूज्य के पास बैठे हुए जिनहितोपाध्याय ने हाथ पकड़ कर कहा - प्राचार्य पहले के दो पत्र पढ़ने के बाद यह पत्र पढ़ने का है। प्रद्युम्नाचार्य व्याकुल हो गये थे, इधर-उधर के पत्र उलटने लगे, तब "श्रीमाल वंशीय वीरनाग ने प्रकार की होती हैं ? जिनपतिसूरि के भक्त अपने आचार्य को 'राजसभा में छत्तीस बाद जीतने वाला' इस विशेषण से उल्लिखित करते हैं, दो समानों के वाद का .. वर्णन तो हम पढ़ चुके हैं, यदि इसी प्रकार की शेष चौतीस सभात्रों में जिनपतिसूरिजी ने विजय पायी हो तो हमें कुछ कहने की जरूरत नहीं है। ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध से जब से जिनेश्वरसूरि तथा इनके शिष्यों ने बैत्य-वासियों के विरुद्ध प्रचार शुरू किया था, तब से आज तक कई कृत्रिम गाथाओं कृत्रिम कुलकों और कृत्रिम ग्रन्थों का निर्माण हुआ, जिनमें न कर्ता का नाम है, न ग्रन्थ का नाम, कृत्रिम नामों से गाथा, श्लोक, कुलक, बनते ही जाते हैं, यह दुःख का विषय है, इस प्रकार अप्रामाणिकता को धारण कर विरोधी को नीचा दिखाना किसी प्रकार से उचित नहीं कहा जा सकता। "प्रोधनियुक्त वृत्ति" के नाम पर गुर्वावलीकार ने ४६ से ५७ के अंक वाली जिन ८ गाथाओं को उद्धृत किया है, उनमें से अधिक गाथाएं कृत्रिम हैं, “ोधनियुक्ति" में अथवा उसकी वृत्ति में उक्त गाथाएं दृष्टिगोचर नहीं होती, जिनेश्वरसूरि की परम्परा के विद्वानों द्वारा निर्मित ग्रन्थों में अथवा उनकी वृत्तियों में ये गाथाएं बहुधा देखी जाती हैं, जैसे "धर्मरत्न-प्रकरण" की स्वोपज्ञ वृत्ति में, इन गाथाओं द्वारा प्रद्युम्नाचार्य को जीतने की बात एक प्रकार का षड्यन्त्र ही प्रतीत होता है, विधिर्मियों के द्वारा संगठित इस प्रकार के प्रपंचों से जैन साहित्य पर्याप्त दूषित हुआ है, हम आशा करते हैं कि खरतरगच्छ के विद्वान् साधु तथा भक्त श्रावक मेरी इस चुनौती को ध्यान में लेंगे तो भविष्य में इस विषय पर अधिक लिखने का प्रसंग नहीं आयेगा । ___ 2010_05 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३०९ अभय दण्डनायक को कहा - क्या तुम्हारे नगर में उसी को दण्ड दिया जाता है जो रात को चोरी करता है, दिन में चोरी करने वालों को अपराधी नहीं माना जाता ? अभय दण्डनायक ने कहा - हे हेडावाहक ! तुमने क्या कहा ? वीरनाग ने कहा - देखो देखो, प्राचार्य ने दो पत्र छिपा दिये। यह सुनते ही दण्डनायक ने उसके पीठ पर चमड़े से मढ़ा वेत जमा दिया। जिनपतिसूरि ने "प्रोपनियुक्ति वृत्ति" में से "नाणस्स दसणस्स य" इत्यादि आठ माथाओं का व्याख्यान करते हुए "जिनचैत्य" तथा "जिनप्रतिमा' को "मनायतन प्रमाणित किया" और प्रद्युम्नाचार्य ने मौन धारण किया। थोड़ी देर के बाद जिनपतिसूरिजी के मागे उन्होंने कहा - प्राचार्य ! हमारे नाम वाले पराजयसूचक रास, काव्य, चौपाई न बनवानी चाहिये, न पढ़वानी चाहिये । श्री पूज्य ने उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया, संघ में महान् प्रानन्द उमड़ पड़ा। श्री पूज्य, साधु और श्रावक समुदाय के साथ अपने उपरितन स्थान पहुँचे। प्रद्युम्नाचार्य भी लज्जावश नीचे देखते हुए अपनी पौषधशाला में गए। ___ संध के अन्दर और बाहर बड़ा आनन्द फैला। भा० शालिक, वैद्य सहदेव, ठ० हरिपाल, सा० क्षेमंकर, सा० सोमदेवादि समुदाय ने बड़े ठाट के साथ वर्धापन कराया। इस समय दण्डनायक अभय ने सोचा - ये यहां से आगे जाकर मेरे गुरु के पराजय की बात तो अवश्य करेंगे, इसलिए इन्हें यहीं कुछ शिक्षा करलू। मालव देश की तरफ गुजरात का लश्कर गया हना था, अपनी तरफ से एक विज्ञनि पत्र देकर एक मनुष्य को जगहेव प्रतीहार के पास भेजा। इधर दूसरे ही दिन संघ में राजाज्ञा जाहिर की "महाराजाधिराज भीमदेव की प्राज्ञा है कि इस स्थान से हमारी प्राज्ञा से ही तुम जा सकते हो" उक्त प्राज्ञा जारी करने के साथ ही, संघ की निगरानी के लिए अभय ने गुप्त रूप से १०० राजपूतों को नियत कर दिया। संघ में से भण्डशालिक, वैद्य सहदेव, व्य० लक्ष्मीधर, ठ० हरिपाल, सा० क्षेमंधर मादि श्री पूज्य के पास गए और अभयड दण्डनायक के दुष्ट अभिप्राय की सूचना की। श्री पूज्य ने कहा - कुछ भी चिन्ता न करो, श्री जिनदत्तसूरिजी की कृपा से सब अच्छा होगा। परन्तु सब संघ ____ 2010_05 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग के मनुष्य भगवान् श्री पार्श्वनाथ की पाराधना, स्नात्र पूजा प्रादि धर्मकृत्यों में तत्पर हो जानो। श्रीपूज्य के उपदेशानुसार संघ धर्म में उद्यत हो गया। सुखपूर्वक १४ दिन बीत गये, पर वहां से कोई निकल नहीं सका, उधर अभयड का भेजा हुआ मनुष्य लश्कर में जा पहुंचा और अपने स्वामी प्रभयड की विज्ञप्ति जगद्देव के चरणों में रक्खी। पारिग्रहिक ने लेख पढ़ा और तुरन्त जगदेव ने अपने पारिग्राहक के हाथ से राजादेश लिखवाया और उसके साथ मनुष्य को वापिस भेज दिया । राजादेश दण्डनायक के हाथ पहुंचा और पढ़कर तुरन्त संघ को हिरासत से मुक्त किया। वहां से संघ अपहिल-पाटण पहुँचा। पाटन में श्रीपूज्य ने अपने गोत्रीय ४० प्राचार्यो को अपनी भोजन-मण्डली में भोजन करवाया और वस्त्रदान पूर्वक सन्मान किया। - वहां से संघ के साथ श्री पूज्य चलते हुए लबरगखेट पहुंचे। वहां पूर्णदेव गरिण, मानचन्द्र गणि, गुणभद्र गरिण को वाचनाचार्य पद दिया। सं० १२४५ के फाल्गुन में पुष्करिणी में धर्मदेव, कुलचन्द्र, सहदेव, सोमप्रभ, सूरप्रभ, कीर्तिचन्द्र, श्रीप्रभ, सिद्धसेन, रामदेव और चन्द्रप्रभ को तथा संयमश्री, शान्तमति और रत्नमति को दीक्षा दी। सं० १२४६ में पाटन में श्री महावीर की प्रतिमा स्थापन की। सं० १२४८ में जिनहित को लवणखेट में उपाध्याय-पद दिया। सं० १२४६ में पुष्करिणी में मलयचन्द्र को दीक्षा दी। सं० १२५० में विक्रमपुर में प्रद्मप्रभ साधु को प्राचार्य-पद दिया मोर 'श्री सर्वदेवसूरि' यह नाम रक्खा । सं० १२५१ मंडोवर में लक्ष्मीधर आदि अनेक श्रावकों को मालारोपावि किया। वहां से अजमेर गए । अजमेर में उन दिनों म्लेच्छों का उपद्रव था, दो मास बड़े कष्ट से निकाले । वहां से वतन पाकर भीमपल्ली ____ 2010_05 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेव ] [ ३११ में चातुर्मास्य किया । कूईप गांव में जिनपाल गरिए को वाचनाचार्य-पद दिया, "लवरखेड़ा में राणा श्री केल्हण के समझौते और उपरोध से दक्षिणावर्त प्रारती उतारना, मान्य किया ।" सं० १२५ में पाटन में विनयानन्द गरिण को दीक्षा दी । सं० १२५३ में भाण्डारिक नेमिचन्द्र श्रावक को प्रतिबोध दिया, और पतन भाग के बाद घाटी गांव में चातुर्मास्य किया । सं० १२५४ में धारानगरी के शान्तिनाथ देवालय में विधि का प्रवर्तन किया और तपन्यासों द्वारा महावीर नामक दिगम्बर को खुश किया, रत्नश्री प्रती को दीक्षा दी। नागहद में चातुर्मास्य किया । सं० १२५६ में लवरणखेट में नेमिचन्द्र, देवचन्द्र धर्मकीर्ति और देवेन्द्र नामक साधुओं क दीक्षा हुई । सं० १२५७ में श्री शान्तिनाथ देवालय में प्रतिष्ठा का आरम्भ अच्छे शकुन न होने के कारण श्रागे रक्खा । सं० १२५८ चैत्र वदि ५ शान्तिनाथ विधिचंत्य में, शान्तिनाथ प्रतिमा और शिखर प्रतिष्ठित किया, चैत्र यदि २ को वीरप्रभ और देवकीर्ति गरणी को दीक्षित किया । सं० १२६० श्राषाढ वदि ६ वीरप्रभ और देवकीर्ति गरगो को उपस्थापता की और सुमतिगरिए, पूर्णभद्रगरिण को दीक्षा दो, ग्रानन्दश्री को महत्तरापद दिया, जयसलमेर के देवालय में फाल्गुन शु० २ को पार्श्वनाथ प्रतिमा स्थापित की । ० १२६३ फाल्गुन वदि ४ को लवणखेड़ में महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा की, नरचन्द्र, रामचन्द्र, पूर्णचन्द, तथा विवेकश्री, मंगलमति, कल्याणश्री, जिनश्री की दीक्षा हुई और धर्मदेवो को प्रवर्तनी - पद दिया । सं० १२६५ में मुनिचन्द्र, मानभद्र गरिण तथा सुदरमति, रासमति की दोक्षा हुई । 2010_05 Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ ] [ पट्टावली-पराग सं० १२६६ में विक्रमपुर में भावदेव, जिनभद्र, विजयचन्द्र को दीक्षित किया, गुरगशील को वाचनाचार्य पद दिया और ज्ञानश्री को दीक्षा दी । सं० १२६९ में जालोर के विधिचंत्य में महावीर प्रतिमा की स्थापना की, जिनपाल गरिण को उपाध्याय पद दिया, धर्मदेवी प्रवर्तिनी को महत्तरापद दिया और प्रभावती नाम रक्खा । महेन्द्र, गुणकीर्ति, मानदेव तथा चन्द्रश्री केवलश्री को दोक्षा दो, वहां से विक्रमपुर की तरफ विहार किया। सं० १२७० बागड़ को तरफ बिहार किया, दारिदरेरक में सैकड़ी श्रावक श्राविकाओं ने सम्यक्त्व तथा मालारोपण किया तथा उपाध्याय आदि धर्मकृत्य किये । सं० १२७१ में बृहदद्वार में धूमधाम के साथ प्रवेश किया, दारिदरेरक की तरह यहां भी नन्द्यादिक हुए। सं० १२७३ में बृहद्वार में लौकिक दशाहिक पर्व, गंगा की यात्रा के लिए जाते हुए अनेक राणा, नगरकोटीय राजाधिराज पृथ्वीचन्द्र के साथ प्राये हुए काश्मीरी पण्डित मनोदानन्द के साथ श्री जिनपालोपाध्याय का शास्त्रार्थ हुआ और पृथ्वीचन्द्र से जयपत्र प्राप्त किया । सं० १२७३ के ज्येष्ठ वदि १३ को जिनप लोपाध्याय को जयपत्र मिलने के उपलक्ष्य में वर्द्धापनक किया गया । बृहद्वार से आते हुए रास्ते में भावदेव मुनि को दीक्षा दो और दारिद्रेरक में चातुर्मास्य किया । सं० १२७५ में ज्येष्ठ सुदि १२ को जालोर में भुवनश्री गणिनी, जगमति, मंगलश्री तथा विमलचन्द्र गरिण पद्मदेव गणि की दीक्षा हुई । सं० १२७७ में पालनपुर में प्रभावना हुई, कालान्तर में नाभि के निचले भाग में गांठ उत्पन्न होने की वेदना से मूत्रसंग्रहादि रोग श्रादि से अपना श्रायुष्य निकट समझकर अपने अनुयायियों को सान्त्वन और प्रोत्साहन देकर सं० १२७७ के श्राषाढ सुदि १० के दिन श्री जिनपतिसूरि स्वर्गवासी हुए । 2010_05 Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३१३ (६) श्री जिनेश्वरसूरि - सं० १२७८ के माघ सुदि ६ को जालोर में जिनपतिसूरि के पट्टपर प्राचार्य सर्वदेवसूरि ने वीरप्रभ गरिंग की पदस्थापना की और "जिनेश्वरसूरि" यह नाम रक्खा, माघ सुदि ६ के दिन यशकलश, विनयरुचि, बुद्धिसागर, रत्नकीति, तिलकप्रभ, रत्नप्रभ और अमरकीर्ति गरिण को जालोर में दीक्षा दो। बाद में वहां के यशोधवल के साथ विहार कर श्रीमाल जाति के श्री विजयहेमप्रभ, श्री तिलकप्रभ, विवेकप्रभ तथा चारित्रमाला गणिनी, सत्यमाला गणिनी इन सब को ज्येष्ठ सुदि १२ के दिन दीक्षा दी । मागे प्राषाढ़ सुदि १० को श्रीमाल में समवसरण प्रतिष्ठा तथा शान्तिनाथ स्थापना की, जालोर में देवगृह का प्रारंभ हुप्रा । सं० १२७६ के माघ सुदि ५ को अर्हद्दत गरिण, विवेकत्रो गरिणनी, शीलमाला गणिनी, चन्द्रयाला गणिनी और विनयमाला गणिनी की जालोर में दीक्षा हुई । सं० १८० के माघ सुदि १२ को श्रीमाल में ज्ञात्तिनाथ-भवन पर ध्वजारोप और ऋषभनाथ, गौतमस्वामी, जिनपतिसूरि, मेघनाद क्षेत्रपाल और पद्मावता देवी की प्रतिमानों की प्रतिष्ठा की । फाल्गुन वदि १ को कुमुदचन्द्र, कनकचन्द्र, तथा पूर्णश्री गणिनी, हेमश्री गणिनी की दीक्षा हुई। सं० १२८० के वैशाख सुदि १४ के दिन पालनपुर के स्तूप में जिनाहितोपाध्याय ने जिनपतिसूरि की प्रतिमाप्रतिष्ठा की । सं० १२८१ के वैशाख सुदि ६ को जालोर में विजयकीर्ति, उदयकीर्ति, गुणमागर, परमानन्द और कमलश्री गणिनी की दीक्षा हुई, वहीं पर ज्येष्ठ सुदि ६ को महावीर भवन पर ध्वजारोप हुआ । सं० १२८३ के माघ वदि २ को बाड़मेर के ऋषभदेव भवन पर ध्वजारोप हुआ, माघ वदि ६ को सूरप्रभ को उपाध्याय-पद और मंगल 2010_05 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] [ पट्टावली-पराग मति गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया, वीर कलशगणि, नन्दिवर्द्धन और विजयवर्द्धन की दीक्षा हुई । सं० १२८४ में वोजापुर में वासुपूज्य की स्थापना हुई और आषाढ सुदि २ को अमृतकी ति गणि, सिद्धकीति गरिण और परित्रसुन्दरी तथा धर्मसुन्दरी गणिनी की दीक्षा हुई । सं० १२८५ ज्येष्ठ सुदि २ को कीर्तिकलश गणि, पूर्णकलश और उदयश्री गणिनी की दीक्षा, ज्येष्ठ सुदि ६ को वासुपूज्य भवन पर ध्वजारोप और सं० १२८६ के फाल्गुन वदि ५ को बीजापुर में विद्याचन्द्र, न्यायचन्द्र, अभयचन्द्र गणि की दीक्षा । ____सं० १२८७ के फाल्गुन सुदि ५ को पालनपुर में जयसेन, देवसेन, प्रबोधचन्द्र, अशोकचन्द्र गणि और कुलश्री गणिनी तथा प्रमोदश्री गरिणनी की दीक्षा । सं० १२८८, भाद्रपद सुदि १० को जालोर में स्तूपध्वज-प्रतिष्ठा और माश्विन सुदि १० को स्तूपध्वजारोप पालनपुर में और पौष सुदि ११ जालोर में शरच्चन्द्र, कुशलचन्द्र, कल्याणकलश, प्रसन्नचन्द्र, लक्ष्मीतिलक गरिण, वीरतिलक, रत्नतिलक और धर्ममति, विनयमति गणिनी, विद्यामति गणिनी और चारित्रमति गणिनी की दीक्षा । सं० १२८८ (६) को चित्तौड़ में ज्येष्ठ सुदि १२ को प्रजितसेन, गुणसेन, अमृतमूर्ति, धर्ममूर्ति तथा राजीमति, हेमावलि, कनकावलि, रत्नाबलि गणिनी, मुक्तावलि गणिनी की दीक्षा । प्राषाढ़ वदि २ ऋषभदेव, नेमिनाथ और पाश्र्वनाथ की प्रतिष्ठा । सं. १२८९ उज्चयन्त, शत्रुक्षय, स्तम्भनक तीर्थों की यात्रा की। स्तम्भतीर्थ में वादियमदण्ड नामक दिगम्बर के साथ गोष्ठी, नगर-प्रवेश में सपरिवार महामात्य श्री वस्तुपाल श्रीपूज्य के सामने गया। सं० १२६१ वैशाख सुदि १० को जालोर में यतिकलश, क्षमाचन्द्र, शीलरत्न, धर्मरत्न, चारित्ररत्न, मेघकुमार गणि, अभयतिलक गणि, 2010_05 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३१५ श्रीकुमार तथा शीलसुन्दरी गणिनी और चन्दनसुन्दरी की दीक्षा। ज्येष्ठ यदि २ मूलार्क में श्री विजयदेवसूरि को आचार्य-पद प्रदान । सं० १२६४, श्री संघहितोपाध्याय को पद प्रदान । सं० १२९६ फाल्गुन वदि ५ पालनपुर में प्रमोदमूर्ति, प्रबोधमूर्ति और देवमूर्ति गरिण को दोक्षा। ज्येष्ठ सुदि १० को श्री शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा । सं० १२९७ में चैत्र सुदि १४ को देवतिलक, धर्मतिलक की दीक्षा। सं० १२६८ वैशाख की ११ को जालोर में ध्वजदण्डारोप कराया। सं० १२६६ प्रथम प्राश्विन वदि २ को मन्त्री कुलघर की दीक्षा, नाम कुलतिलक मुनि। सं० १३०४ वैशाख सुदि १४ को विजयवर्द्धन गरिण को प्राचार्य-पद, जिनरत्नाचार्य नाम दिया। त्रिलोकहित, जीवहिल, धर्माकर, हर्षदत्त, संघप्रमोद, विवेकसमुद्र, देवगुरुभक्त, चारित्रगिरि, सर्वज्ञभक्त और त्रिलोकानन्द की दीक्षा हुई। सं० १३०५ आषाढ़ सुदि १० को पालनपुर में महावीर, ऋषभनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ के बिम्बों की और नन्दीश्वर को प्रतिष्ठा की। सं० १३०६ में ज्येष्ठ सुदि १३ को श्रीमाल में कुन्थुनाथ, अरनाथ की प्रतिमा-प्रतिष्ठा और दूसरी बार ध्वजारोपण करवाया। सं० १३०६ मार्गशीर्ष सुदि १२ को पालनपुर में समाधिशेखर, गुणशेखर, देव शेखर, साधुभक्त और वीरवल्लभ मुनि तथा मुक्तिसुन्दरी साध्वी की दीक्षा और उसी वर्ष में माघ सुदि १० को शान्तिनाथ, अजितनाथ, धर्मनाथ, वासुपूज्य, मुनिसुव्रत, सीमन्धर स्वामी और पद्मनाभ की प्रतिमानों की प्रतिष्ठा कराई। उसी वर्ष बाडमेर में प्रादिनाथशिखर पर दण्डकलश प्रतिष्ठित किए। सं७ १३१० वैशाख सुदि ११ जालोर में चारित्रवल्लभ, हेमपर्वत, अचलचित्त, लाभनिधि, मोदमन्दिर, गजकीति, रत्नाकर, गतमोह, देवप्रमोद, 2010_05 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] [ पट्टावली-पराग वीराणन्द, विगतदोष, राजललित, बहुचरित्र, विमलप्रज्ञ और रत्ननिधान इन १५ साधुनों को दीक्षित किया। वहीं पर वैशाखी १३ स्वाति शनिवार के दिन श्री महावीर विधिचैत्य में २४ जिनालय, सप्ततिशत, सम्मेत, नन्दीश्वर, तीर्थंकर मातृ, श्री नेमिनाथ, महावीर, चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, सुधर्म स्वामी, जिनदत्तसूरि, सीमन्धर स्वामी, युगमन्धर स्वामी प्रभृति की प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा हुई । प्रमोदश्री गणिनी को महत्तरा पद और लक्ष्मीनिधि नाम रक्खा और ज्ञानमाला को प्रवर्तिनी - पद दिया । सं० १३११ के बैशाख सुदि ६ को पालनपुर में चन्द्रप्रभ चैत्य में भीमपलीय प्रासाद स्थित श्री महावीर प्रतिमा की प्रतिष्ठा करवाई मौर पालनपुर में उपाध्याय जिनपाल का अनशन पूर्वक स्वर्गगमन । सं० १३१२ के वैशाख सुदि १५ को चन्द्रकीति को उपाध्याय-पद देकर चन्द्र तिलकोपाध्याय नाम रक्खा और प्रबोधचन्द्र गरिण को तथा लक्ष्मी तिलक गरिए को वाचनाचार्य पद दिये । ज्येष्ठ वदि १ को उपशमचित्त, पवित्रचित्त, प्राचारनिधि और त्रिलोकनिधि की दीक्षा हुई । सं० १३१३ फाल्गुन सुदि ४ जालोर में किले पर के बड़े मन्दिर में शान्तिनाथ की स्थापना की, चैत्र सुदि १४ को कनककीर्ति, विबुधराज, राजशेखर, गुरणशेखर तथा जयलक्ष्मी, कल्याणनिधि, प्रमोदलक्ष्मी, गच्छवृद्धि की दीक्षा, वैशाख वदि १ को अजितनाथ - प्रतिमा की प्रतिष्ठा की, बाद में पालनपुर में आषाढ़ सुदि १० को भावनातिलक, भरतकीर्ति की दीक्षा और भीमपल्ली में उसी दिन महावीर की स्थापना । सं० १३१४ माघ सुदि १३ को सुवर्णगिरि ऊपर बने हुए प्रधान मन्दिर में ध्वजारोप, महाराज उदर्यासहजी के प्रसाद से कार्य निर्विघ्न हुमा । श्राषाढ़ सुदि १० को पालनपुर में सकल हित, राजदर्शन साधु और बुद्धिसमृद्धि, ऋद्धिसुन्दरी, रत्नदृष्टि साध्वियों की दीक्षा हुई । सं० १३१६ माघ सुदि १ जालोर में धर्मसुन्दरी गणिनी को प्रवर्तिनी - पद, माघ सुदि ३ को पूर्णशेखर, कनककलश को प्रव्रज्या और 2010_05 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३१७ माघ सुदि ६ को सुवर्णगिरि के शान्तिनाथ के प्रासाद पर कलशदण्ड का श्रारोपण श्री चाचिगदेव के राज्य में करवाया । श्राषाढ़ सुदि ११ को वीजापुर में वासुपूज्य - जिनमन्दिर पर कलशध्वज - दण्डारोपण करवाया । सं० १३१७ माघ सुदि १२ को लक्ष्मीतिलक गरिण को उपाध्याय-पद मौर पद्माकर की दीक्षा हुई । माघ सुदि १४ को जालोर के महावीर प्रासाद पर स्थित २४ देहरियों पर कलश दण्ड- ध्वजारोपण हुआ । फाल्गुन सुदि १२ को शासनपुर में अजितनाथ प्रासाद पर ध्वजारोप पूर्णकलश गरि द्वारा हुआ । भीमफली में मण्डलिक राज्य में वैशाख सुदि १० सोमवार को महावीर के प्रासाद पर दण्ड- कलश की प्रतिष्ठा और ध्वजारोप हुना और ५१ अंगुल परिमण सरस्वती की प्रतिमा की प्रतिष्ठा की । ३१ अंगुल परिमारण शान्तिनाथ प्रतिमा, ऋषभनाथ प्रतिमा, महावीर - प्रतिमा, पार्श्वनाथ प्रतिमा २ और भीमभुजबल - पराक्रम क्षेत्रपालबिम्ब, ऋषभनाथ महावीर की प्रतिमाएं चतुविशति पट्टक, अजित प्रतिमा, ऋषभनाथ प्रतिमा २, शान्तिनाथ प्रतिमा २ । महावीर की तीन प्रतिमाएं, जिनदत्तसूरि-मूर्ति, चन्द्रप्रभ-प्रतिमा, नेमिनाथ - बिम्ब और अम्बिका की प्रतिमा प्रतिष्ठित हुई और सोम्यमूर्ति, न्यायलक्ष्मी की दीक्षा हुई । " सं० १३१८ पौष सुदि ३ को संघभक्त की दीक्षा और धर्ममूर्ति गरिए को वाचनाचार्य पद दिया । सं० १३१६ मार्गशीर्ष सुदि ७ को प्रभवतिलक गरिण को उपाध्यायपद हुआ और उसी वर्ष में प्रभवतिलक उपाध्याय का उज्जैनी की तरफ विहार | वहां तपोमतीय पं० विद्यानन्द के साथ यतिवल्य प्रासुक शीतल जल की चर्चा, फिर पालनपुर आदि की तरफ विहार और उसी वर्ष में माघ वदि ५ को विजयसिद्धि साध्वी की पालनपुर में दीक्षा, माघ वदि ६ चन्द्रप्रभ, अजितनाथ, सुमतिनाथ की प्रतिष्ठा । ऋषभनाथ, धर्मनाथ, सुप व नाथ- प्रतिमा, जिनवल्लभसूरि-मूर्ति और सिद्धान्त यक्ष की मूर्ति की प्रतिष्ठा की । पाटन के शान्तिनाथ प्रासाद में अक्षयतृतीया के दिन दण्ड- कलश का आरोपण किया । 2010_05 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] [ पट्टावली-पराग सं० १३२१ फाल्गुन सुदि २ गुरु के दिन चित्तसमाधि, क्षान्तिनिधि साध्वियों की दीक्षा, फाल्गुन वदि ११ को पालनपुर में एक पाले में तीन प्रतिमाएं और ध्वजादण्ड चढ़ाया, ज्येष्ठ सुदि १५ को विक्रमपुर में चारित्रशेखर, लक्ष्मीनिवास और रत्नावतार साधुओं की दीक्षा । __ सं० १३२२ माघ सुदि १४ को त्रिदशानन्द, शान्तमूर्ति, त्रिभुवनानन्द, कीर्तिमण्डन, सुबुद्धिराज, सर्वराज, वीरप्रिय, जयवल्लभ, लक्ष्मीराज, हेमसेन आदि नामक दस साधु । मुक्तवल्लभ, नेमिभक्ति, मंगलनिधि और प्रियदर्शना नामक चार साध्वियों को दीक्षा दी और वैशाख ६ को वीरसुन्दरी को विक्रमपुर में दीक्षा । सं० १३२३ मार्ग० वदि ५ को नेमिध्वज साधु तथा विनयसिद्धि और आगमरिद्धि की दीक्षा जालोर में। वैशाख सुदि १३ देवमूर्ति गरिण को वाचनाचार्य-पद पर द्वितीय ज्येष्ठ सुदि को जयसलमेरु पार्श्वनाथ-चैत्य पर दण्डकलश प्रतिष्ठा और विवेकसमुद्र गरिण को वाचनाचार्य-पद की स्थापना की गई । प्राषाढ़ वदि १ को हीरकर साधु किया। सं० १३२४ मार्ग वदि २ शनि को कुल भूषण, हेमभूषण की दीक्षा, अनन्तलक्ष्मी, व्रतलक्ष्मी, एकलक्ष्मी और प्रधानलक्ष्मी की जालोर में दीक्षा हुई। ___ सं० १३२५ वैशाख सुदि १० को जालोर में महावीर चैत्य में गजेन्द्र बल साधु और पद्मावती साध्वी की दीक्षा। वैशाख सुदि १४ को उसी महावीर-चैत्य में २४ जिनबिम्बों की, २४ ध्वजदण्डों की, सीमन्धर युग्मन्धर, बाहु, सुबाहु के बिम्बों की तथा अन्य भनेक बिम्बों की प्रतिष्ठा हुई। ज्येष्ठ वदि ४ को सुवर्णगिरि के शान्तिनाथ-चैत्य में बनी हुई २४ देहरियों में उन्हीं २४ जिनबिम्बों तथा सीमन्धर, युग्मन्धर, बाहु, सुबाहु के बिम्बों की स्थापना हुई और उसी दिन धर्म तिलक गणि को वाचनाचार्यपद दिया गया। उसी वर्ष वैशाख सुदि १४ को जैसलमेरु में पार्श्वनाथचैत्य पर दण्डकलशारोपण का उत्सव हुमा । ___ 2010_05 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेद ] [ ३१६ सं० १३२६ के चैत्र वदि १३ को पालनपुर से अभयषन्द्र की व्यवस्था में विधिर्म का संघ शत्रुञ्जय तीर्थ की यात्रा के लिए निकला । श्री जिनेश्वर सूरि, जिनरत्नाचार्य, चन्द्रतिलकोपाध्याय, कुमुदचन्द्र प्रमुख २३ साधु और लक्ष्मीनिधि महत्तरा प्रमुख १३ साध्वियों के साथ चलता हुआ संघ तारंगा तीर्थ पहुँचा। वहां इन्द्रादि पदों के चढ़ावे हुए, इन्द्रपद-द्र० १५००, मन्त्री प० द्र० ४००, सारथि प० द्र० १००, भाण्डागारी प० द्र० ११०, आद्य चामर-धारी के २ पद ३०० द्रम, पिछले चमरधारी २ पद द्र०, छत्रधर पद द्र० ६६, वहां से संघ वीजापुर गया, वहां भी वासुपूज्य मन्दिर में चढ़ावे हुए । तीन हजार द्रम्स की ग्रामदनी हुई, इसी प्रकार स्तम्भनक महातीर्थ में चढ़ावे हुए । कुल द्रम्म ५००० प्राये । वहां से संघ शत्रुञ्जय महातीर्थ पहुँचा और पूर्वोक्त प्रकार के द्रम्म इन्द्रादिक के चढ़ावों में प्राप्त हुए । द्रम्म १७ हजार की प्राप्ति हुई । वहां से संघ गिरनार महातीर्थ पहुंचा, वहां पर भी इन्द्रमाला आदि के 1 चढ़ावे बोले गये और ५३२ तमाम चढ़ावे हुए और ७०६७ द्रम्म की ग्रामदनी हुई। एकन्दर इस संघ की तरफ से शत्रुञ्जय के देवभण्डागार में अनुमानतः २० हजार द्रम्म की प्राप्ति हुई और गिरनार के देवभण्ड गार में १७ हजार द्रम्म भए । गिरनार पर नेमिनाथ चैत्य में जिनेश्वरसूरि द्वारा प्रबोधसमुद्र (हर) विनयसमुद्र की दीक्षा हुई, वहां से संघ प्रभास पारण गया और चतुविध संघ के साथ उधर के सर्व चैत्यों की यात्रा की । इस प्रकार विधिमार्ग संघ तथा सा० अभयचन्द्र के साथ आषाढ़ सुदि ६ को देवालय का जिनेश्वरसूरि प्रमुख चतुविध संघ सहित पालनपुर में प्रवेश हुआ । सं० १३२८ के वैशाख सुदि १४ को जालोर में चन्द्रप्रभ, ऋषभदेव और महावीर के बिम्बों की प्रतिष्ठा करवाई, ज्येष्ठ वदि ४ को हेमप्रभा को दीक्षा दी । सं० १३३० में वैशाख बदि ६ को प्रबोधमूर्ति गरिए को वाचनाचार्य - पद दिया और कल्याण ऋद्धि गणिनी को प्रवर्तिनी पद हुमा, जालोर में वैशाख वदि ८ को स्वर्णगिरि के जिनचैत्य के शिखर में चन्द्रप्रभ की प्रतिमा स्थापित हुई । 2010_05 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० ] [ पट्टावली-पराग जालोर में रहते हुए जिनेश्वरसूरिजी ने अपने आयुष्य की समाप्ति निकट जानकर सं० १३३१ के प्राश्विन कृष्ण ५ को प्रातःकाल अपने पद पर प्रबोधमूर्ति गरिए को बैठाया और "जिनप्रबोधसूरि" यह नाम दिया । पालनपुर में रहे हुए जिनरत्नाचार्य को प्रदेश दिया कि चातुर्मास्य के बाद सर्वगच्छ तथा विधि-सन्दायों को इकट्ठा कर अच्छे लग्न में फिर सूरिपद स्थापन कर देना, बाद में श्रीपूज्य ने अनशन किया और पंचपरमेष्ठिमन्त्र का ध्यान करते हुए प्राश्विन कृष्ण ६ को दो घड़ी रात बीतने पर श्री जिनेश्वरसू जी स्वर्गवासी हुए । प्रभात समय में समुदाय ने श्रीपूज्य का संस्कार महोत्सव किया और सा० क्षेमसिंह ने अग्निसंस्कार के स्थान पर स्तूप बनवाया । चातुर्मास्य उतरने पर जिनरत्नाचार्य जालोर पाए और जिनेश्वरसूरि के उपदेशानुसार जिनप्रबोधसूरि का फिर बड़े ठाट के साथ पद स्थापनाउत्सव कराया और सं० १३३१ के फाल्गुन वदि ८ रवि को श्री जिनरत्नाचार्य द्वारा जिनप्रबोधसूरि की महोत्सव पूर्वक पट्ट-स्थापना हुई । (१०) जिनप्रबोधसूरि - सं० १३३१ के फाल्गुन सुदि ५ को स्थिरकीर्ति भवनकीर्ति और केवलप्रभा, हर्ष प्रभा, जयप्रभा, यशः प्रभा साध्वियों की दीक्षा जालोर में हुई । सं० १३३२ ज्येष्ठ वदि १ शुक्र को शा० क्षेमसिंह श्रावक ने नमिविनमि परिवृत युगादिदेव, श्री महावीर भवलोकन शिखरस्थ नेमिनाथबिम्ब, साम्बप्रद्यम्न की मूर्तियां, जिनेश्वरसूरि की मूर्ति, घनदयक्ष की मूर्ति और सुवर्णगिरि पर के चन्द्रप्रभ स्वामिचैत्य की ध्वजा की प्रतिष्ठा करवाई, ज्येष्ठ वदि ६ को चन्द्रप्रम स्वामी के शिखर पर ध्वजारोप हुमा, ज्येष्ठ वदि & को स्तूप में जिनेश्वरसूरि की मूर्ति की प्रतिष्ठा की भौर उसी दिन विमलप्रज्ञ को उपाध्याय पद और राजतिलक को वाचनाचार्य पद प्रदान किया, ज्येष्ठ सुदि ३ को गच्छकीर्ति, चारित्रकीति, क्षेमकीर्ति मुनियों को तथा लब्धिमाला, पुण्यमाला साध्वियों को दीक्षा दी । 2010_05 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२१ सं० १३३३ के माघ वदि १३ को जालोर में कुशलश्री गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया, इसी वर्ष में सा० क्षेमसिंह और चाहडकी तरफ से संघ प्रयाण की तैयारी हुई, अनेक गांवों से विधि-संघ का समुदाय इकट्ठा हुआ और उसके उपरोध से श्री शत्रुञ्जयादि महातीर्थों की यात्रा के लिए श्री जिनप्रबोधसूरि, श्री जिनरत्नसूरि, लक्ष्मीतिलकोपाध्याय, विमलप्रज्ञोपाध्याय, वा० पद्मदेव, वा० राजगणि प्रमुख २७ साधु और प्रवर्तिनी ज्ञानमाला गणिनी प्र० कुशलश्री, प्र. कल्याण ऋद्धि प्रमुख २१ साध्वियों के परिवार सहित जालोर से चैत्र वदि ५ को संघ रवाना हुमा, वहां से श्रीमाल में शान्तिनाथ विधिचैत्य में द्रम्म १४७६ विधिसंघ ने सफल किये, वहां से पालनपुर प्रादि नगरों की यात्रा करता हुआ संघ तारंगातीर्थ पहुंचा, वहां इन्द्रमाला प्रादि के चढावे हुए, अनुमानतः द्रम्म ४ हजार मालादि लेकर कृतार्थ किये, वहां से स्तम्भनक तीर्थ में अनुमानतः ७००० द्रम्म के चढावे दिये, वहां से भरुच जाकर संघ ने ४७०० द्रम्म खर्चे, वहां से संघ शत्रुञ्जय पर पहुँचा, शत्रुञ्जय पर इन्द्रमालादि के चढ़ावे हुए भौर अनुमानतः सब मिलकर २५००० द्रम्म संघ ने खर्च किये। ज्येष्ठ वदि ७ को युगादिदेव के सामने अापने जीवानन्द साधु और पुण्यमाला, यशोमाला, धर्ममाला, लक्ष्मीमाला को दीक्षा दी। मालारोपगादि का उत्सव हुमा, श्री श्रेयांस-विधिचैत्य में ७०८ द्रम्म, उज्जयन्त में ७५० द्रम्म, इन्द्रादि के परिवार की तरफ से २१५० और नेमिनाथ की माला के द्रम्म २०००, एकन्दर गिरनार पर २३००० द्रम्म की आमदनी हुई। इस प्रकार स्थान-स्थान जिनशासन की उन्नति करता हुमा, सा. क्षेमसिंह विधिसंघ के साथ महातीर्थो की यात्रा करके भाषाढ़ सुदि १४ को वापस जालोर आया। सं० १३३४ मार्ग सुदि १३ को रत्नबृष्टि गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया, वैशाख वदि ५ को भीमपल्ली में श्री नेमिनाथ तथा श्री पार्श्वनाथ के बिम्बों की, जिनदत्तसूरि की मूर्ति की, शान्तिनाथ के देवालय के ध्वजदण्ड की और गौतमस्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा का महोत्सव कराया, वैशाख ____ 2010_05 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ [ पट्टवली-परण वंदि ६ को मंगलकलश साधु की दीक्षा और ज्येष्ठ सुदि २ को बाड़मेर की तरफ विहार किया । सं० १३३५ के मार्ग वदि ४ को पद्मकीर्ति, सुधाकलश, तिलककीति, लक्ष्मीकलश, नेमिप्रभ, हेमतिलक और नेमितिलक नामक साधुत्रों की दीक्षा हुई, पौषसुदि & को चित्तौड़ में धूमधाम के साथ प्रवेश किया, फाल्गुण वदि ५ को श्री समरसिंह महाराज के राज्य में चौरासी में मुनिसुव्रत, युगादिदेव, अजितनाथ और वासुपूज्य के बिम्बों की, श्री महावीर के समवसरण की, स्वर्णगिरि के शान्तिनाथ विधिचैत्यस्थित पित्तलमय समवसरण की और दूसरी अनेक प्रतिमाओं की, साम्बमूर्ति की, आठ दण्ड़ों की महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा हुई और उसी दिन चौरासी में युगादिदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, शाम्ब, प्रद्युम्न और अम्बिका के मन्दिरों पर ध्वजारोप हुए, वद्रद्राह नामक गांव में जिनदत्तसूरि की प्रतिमा प्रतिष्ठा, श्री पार्श्वनाथ चैत्य पर चित्रकूट में अभिषिक्त दण्ड फाल्गुन सुदि १४ को चढ़ाया, जाहेड़ा गांव में चैत्र सुदि १३ को सम्यक्त्वारोपादि नन्दी महोत्सव हुमा, वरड़िया में वैशाख वदि ६ को पुण्डरीक, गौतमस्वामी, प्रद्य ुम्न मुनि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनेश्वरसूरि की मूर्तियों तथा सरस्वती की मूर्ति का प्रतिष्ठा महोत्सव हुमा, वैशाख वदि ७ को मोहविजय, मुनिवल्लभ की दीक्षा श्रौर हेमप्रभगरिण का वाचनाचार्य पद हुम्रा । सं० ० १३३६ में ज्येष्ठ सुदि ६ को अपने पिता का अन्त्य समय जानकर चित्तौड़ से जल्दी विहार करते हुए पालनपुर श्राए और अपने पिता श्रीचन्द्र श्रावक को दीक्षा दी और चन्द्र ने १७ दिन तक संस्तारक दीक्षा पालकर समाधि - पूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया । सं० १३३७ के वैशाख वदि ६ को गुर्जर भूमि के गांव को अपने चरणों से पवित्र किया, श्रावकों ने बड़ी नगर प्रवेश कराया, ज्येष्ठ वदि ४ शुक्रवार को सारंगदेव में वासुपूज्य चैत्य में २४ जिनालयों के बिस्त्रों तथा ध्वजदण्डों की, जोइला गाँव के लिए पार्श्वनाथ की और अनेक जिनप्रतिमानों की शानदार प्रतिष्ठा महाराज के राज्य 2010_05 वोजापुर नामक धूमधाम के साथ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२३ हुई, इस उत्सव में वासुपूज्य चैत्य में द्र० ३०००० उत्पन्न हुए, द्वादशी के दिन आनन्दमूर्ति, पुण्यमूर्ति की दीक्षा हुई ।। स० १३३६ के फाल्गुन सुदि ५ को सर्वविधिमार्ग संघ के साथ प्रस्थान करके जिनरस्नाचार्य, देवाचार्य, वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गणि प्रमुख अनेक मनुष्यों के साथ श्री जिनप्रबोधसूरिजी फाल्गुन चातुर्मास्य के दिन श्री अर्बुदगिरि ऊपर पहुँचे और युगादिदेव और नेमिनाथ की यात्रा की। आठ दिन तक वहां ठहर कर इन्द्रपदादि के उत्सवों द्वारा अपने साथ ने हजार द्रम्म सफल किये, बाद में श्रीपूज्य के प्रसाद से कुशलतापूर्वक सर्वसंघ वापस जालोर आया। उसी वर्ष में ज्येष्ठ वदि ४ को जगच्चन्द्रमुनि और कुमुदलक्ष्मी तथा भुवनलक्ष्मी साध्वियों को दीक्षा दी, पंचमी को चन्दनसुन्दरी गणिनी को महत्तरा-पद दिया और चन्दनश्री नाम रक्खा। वहां से सोम महाराज की अभ्यर्थना से शम्यानयन में चातुर्मास्य कर सं० १३४० में जिनप्रबोधसूरिजी ने फाल्गुन चातुर्मास्य के दिन जैसलमेर में प्रवेश किया। वहां पर अक्षयतृतीया के दिन २४ जिनालय तथा अष्टापदादि के बिम्बों-ध्वजों का प्रतिष्ठा-महोत्सव हुमा, जिसमें देवद्रव्य की आमदनी ६ हजार द्रम्म की हुई। ज्येष्ठ वदि ४ को मेरुकलश, धर्मकलश और लब्धिकलश मुनि को तथा पुण्यसुन्दरो, रत्नसुन्दरी, भुवनसुन्दरी और हर्षसुन्दरी साध्वियों की दीक्षा हुई, श्री कर्णदेव महाराज के भाग्रह से चातुर्मास्य वहां किया । __चातुर्मास्य के बाद जिनप्रबोधसूरि ने विक्रमपुर को विहार किया। वहां सं० १३४१ के फाल्गुन वदि ११ के दिन महावीर चत्य में सम्यक्त्वारोप, मालारोप, दीक्षादान आदि निमित्तक उत्सत्र हुए, जिनमें विनयसुन्दर, सोमसुन्दर, लब्धिसुन्दर, मेघसुन्दर और चन्द्रमूति क्षुल्लकों की और धर्मप्रभा, देवप्रभा नामक दो क्षुल्लिकानों को दीक्षायें हुई। वहां पर शासनप्रभावक जिनप्रबोधसूरि को दाहज्वर उत्पन्न हुआ, अपना आयुष्य स्वल्प समझ कर निरन्तर प्रयाणों से श्रीपूज्य जालोर पधारे । 2010_05 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ] [ पट्टावली -पराग सं० १३४१ की अक्षय तृतीया के दिन अपने पद पर श्री जिनचन्द्रसूरि को प्रतिष्ठित किया और उसी दिन राजशेखर गरिए को वाचनाचार्य-पद दिया, बाद में अष्टमी को सकल संघ से मिथ्यादुष्कृत देकर आप अन्तिम श्राराधना में लगे और वैशाख शुक्ल एकादशी को स्वर्गवासी हुए I (११) जिनचन्द्रसूरि - ( ३) 1 सं० १३४२ के वैशाख शुक्ल १० के दिन श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने जालोर के श्री महावीर चैत्य में प्रीतिचन्द्र, सुखकीर्ति को और जयमञ्जरी, रत्नमञ्जरी तथा शीलमञ्जरी नामक क्षुल्लिकानों को दीक्षित किया, उसी दिन वाचनाचार्य विवेकसमुद्र गरिण का अभिषेक पद सर्वंशज गरिण को वाचनाचार्य पद और बुद्धि समृद्धि गरिगनी को प्रवर्तिनी - पद दिया और वदि ७ को सम्यक्त्वारोपादि नन्दिमहोत्सव हुआ, ज्येष्ठ कृष्ण ६ को रत्नमय अजितनाथ बिम्बों की और युगादिदेव, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ विम्बों की तथा शान्तिनाथबिम्ब की, अष्टापदध्वजा-दण्ड की और अन्य अनेक जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा का महोत्सव श्री सामन्तसिंह के राज्य में श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने करवाया, ज्येष्ठ वदि ११ को वाचनाचार्य देवमूर्ति गरिण को अभिषेक पद दिया और मालारोपणादि कार्य हुए । सं० १३४४ के मार्ग सुदि १० को महावीर चैत्य में स्थिरकीर्ति गरिए को श्री जिनचन्द्रसूरि ने प्राचार्य पद दिया और दिवाकराचार्य नाम दिया । सं० १३४५ के भाषाढ सुदि ३ को मतिचन्द्र, धर्मकीर्ति की दीक्षा, वैशाख वदि १ को पुण्यतिलक, भुवनतिलक और चारित्रलक्ष्मी साध्वी को दीक्षा दी और राजदर्शनगरिए को वाचनाचार्य पद दिया । सं० १३४६ में माघ वदि १ को बाडड़ कारित स्वर्णगिरिस्थ श्री चन्द्रप्रभस्वामिदेवगृह के पास में रहे हुए युगादिदेव और नेमिनाथ के बिम्बों की मंडप के गोखलों में श्रौर सम्मेतशिखर के २० बिम्बों का स्थापना - महोत्सव हुआ, फाल्गुन सुदि ८ को शम्यानयन के प्रासाद में शान्तिनाथ की स्थापना हुई, देववल्लभ, चारित्रतिलक, कुशलकीर्ति, साधुनों की भोर रत्नश्री साध्वी को दीक्षा हुई, चैत्र वदि १ को पालनपुर से विहार किया, 2010_05 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२५ वैशाख वदि १४ को भीमपल्ली गए और वैशाख सुदि ७ को शैलमय युगादिदेव बिम्ब, चतुर्विंशतिजिनालययोग्य १(२)४ बिम्ब, इन्द्रध्वज, श्री अनन्तनाथदण्ड ध्वज, जिनप्रबोधसूरि स्तूतमूर्ति दण्डध्वजों के अतिरिक्त अनेक पाषाण तथा पित्तलमय जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा का महोत्सव हुआ । ज्येष्ठ वदि ७ को नरचन्द्र, राजचन्द्र, मुनिचन्द्र, पुण्यचन्द्र साधुनों को और मुक्तिलक्ष्मी, मुक्तिश्री साध्वियों को दोक्षा हुई । सं० १३४७ मार्ग० सुदि ६ पालनपुर में सुमतिकोति की दीक्षा और नरचन्द्रादि साधु-साध्वियों की उपस्थापना, मालारोपण आदि महोत्सव हुमा, वहां से संघ मेलापक के साथ श्री तारणगढ़ में अजितनाथ की यात्रा की, पौषवदि ५ को वीजापुर श्रावक समुदाय के साथ गए, श्री जालोर में जिनप्रबोधसूरि के स्तूप में मूर्ति स्थापनोत्सव तथा दण्डध्वजारोपण उत्सव माघ सुदि ११ को सा० अभयचन्द्र ने करवाया और चैत्र वदि ६ को वीजापुर में अमररत्न, पद्मरत्न, विजयरत्न साधुओं को दीक्षा हुई। सं० १३४८ के वैशाख सुदि ३ को पालनतुर में वीरशेखर, अमनश्री की दीक्षा हुई, त्रिदशकीति गरिण को वाचनाचार्य पद दिया गया, उसी वर्ष में श्रीपूज्य ने सुधाकलश, मुनिवल्लभ साधुओं के स.थ गणियोग का तप किया। सं० १३४६ भाद्रपद वदि ८ को अभयचन्द्र श्रावक को संस्तारक दीक्षा, अभयशेखर नाम दिया, मार्गशीर्ष वदि २ को यशःकीर्ति को दोक्षा । सं० १३५० वैशाख सुदि ६ को भाण्डा० झांजन श्रावक को संस्तारक दीक्षा दी और नरतिलक राजर्षि नाम रक्खा । सं० १३५१, माघ वदि १ पालनपुर में युगादिदेव चैत्र में महाकोर प्रमुख ६४० जिनबिम्बों को प्रतिष्ठा की और ५ को मालारो णादि महोत्सव हुअा, विश्वकीर्ति साधु की और हेमलक्ष्मी साध्वी की दोक्षा हुई। सं० १३५२ में राजशेखर गरिण ने बड़गांव में विहार किया और वहां से कौशाम्बी, वाराणसी, काकन्दो, राजगृह, पावपुरी नालन्दा, क्षत्रिय ___ 2010_05 Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] [ पट्टावलो-पराग कुण्डग्राम, रत्नपुरादि गांवों में तीर्थयात्रा की और राजगृह समीप उद्दण्डविहार में चातुर्मास्य किया और उसी वर्ष में भीमपल्ली से विहार कर अनेक नगरों के समुदायों के साथ श्री विवेकसमुद्र उपाध्याय प्रमुख साधु मण्डली सहित श्रीपूज्य ने शंखेश्वर पार्श्वनाथ की यात्रा को । वहां से जिनचन्द्रसूरि पाटन पहुँचे, वहां के सर्व चैत्यों की यात्रा कर श्रीपूज्य वापस भीमपल्ली आए और वीजापुर के समुदाय की प्रार्थना से चातुर्मास्य वीजापुर में किया, वहां सं० १३५३ मार्ग० कृ० ५ को वासुपूज्य विधि-चैत्य में मुनिसिंह. तपःसिंह और नयसिंह साधुनों को दीक्षा हुई। वहां से जालोर की तरफ विहार किया और उसी वर्ष में सा० सीहा सा० माण्डव्यपुरीय मोहन श्रावकों ने संघ की व्यवस्था की, अनेक गांवों में विधि-समुदाय के साथ जालोर से वैशाख कृष्ण ५ को प्रस्थान कर अनेक मुनिसमुदाय परिवृत श्रीपूज्य ने संघ के साथ अर्बुदाचल पहुँच कर श्री युगादिदेव और नेमिनाथ की यात्रा की, वहां पर इन्द्र पद प्रादि के चढ़ावों द्वारा संघ ने बारह हजार द्रम्म खर्च किये और सकुशल संघ वापस जालोर पहुँचा। सं १३५४ ज्येष्ठ वदि १० को जालोर महावीर विधिचत्य में नन्दिमहोत्सव हुआ, जिसमें बीरचन्द्र, उदयचन्द्र, अमृतचन्द्र साधुनों की और जयसुन्दरी साध्वी की दीक्षा हुई। उसी वर्ष में प्राषाढ़ शुक्ल २ को सिराणा गांव में महावीर-प्रासाद का जीर्णोद्धार होकर महावीरविम्ब की स्थापना हुई। सं० १३५६ में राजा श्री जैसिंह को विज्ञप्ति से मार्गशीर्ष वदि ४ को जैसलमेरु पहुँचे, वहां पर ही संवत् १३५७ में मार्गशीर्ष शुक्ल को जयहंस, पद्महंस की दीक्षा हुई। सं० १३५८ के माघ सुदि १० को पार्श्वनाथ-विधिचैत्य में सम्मेत-शिखर आदि जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा का उत्सव हुप्रा। सं० १३५६ फाल्गुन वदि ११ को श्रीपूज्य ने बाडमेर जाकर युगादिदेव को नमस्कार किया और वहीं पर सं० १३६० के माघ वदि १० को ____ 2010_05 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२७ मालारोपणादि नन्दिमहोत्सव हुमा, बाद में श्री शीतलदेव महाराज की विज्ञप्ति से और श्रावकों को प्रार्थना से श्रीपूज्य शम्यानयन श्री शान्तिनाथ को यात्रार्थ गए। __ सं० १३६१ में शान्तिनाथ विधिचैत्य में द्वितीय वैशाख सुदि ६ को शम्यानयन में प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ और १० को मालारोपणादि-नन्दिमहोत्सव हुआ, जिसमें पं० लक्ष्मीनिवास गरिण को तथा पं० हेमभूषण गरिण को वाचनाचार्य-पद दिया गया। जालोर के संघ की प्रार्थना से श्रीपूज्य जालोर पधारे। वहां संवत् १३६४ वैशाख कृष्ण १३ को राजशेखर गणि को आचार्य-पद प्रदान किया, बाद में श्रीपूज्य भीमपल्ली पधारे । भीमपल्ली से पाटन के समुदाय की प्रार्थना से आप पाटन पहुंचे, बाद में स्तम्भतीर्थ कोटडी के श्रावकों को प्रार्थना से शेरीषक पार्श्वनाथ देव की यात्रा करके श्रीपूज्य स्तम्भतार्थ पहुँचे । वहां से संवत् १३६६ के ज्येष्ठ वदि १२ को सा० जैसल द्वारा संयोजित संघ के साथ श्रीपूज्य, जयवल्लभ गरिण, हेमतिलक गणि प्रादि ग्यारह साधु और प्र० रत्नवृष्टि गणिनी प्रादि १५ साध्वियों के परिवार सहित स्तम्भतीर्थ से महातीर्थो की यात्रा के लिए निकले, क्रमशः संघ पीपलाउली गांव पहुँचा। वहां शत्रुञ्जय महातीर्थ पर्वत के दर्शन कर संघ मे उत्सव मनाया। वहां से श्रीपूज्य ने श्री युगादिदेव की यात्रा की, इन्द्रपदादिमहोत्सव हुआ। वहां ज्येष्ठ शुक्ला १२ को मालारोपणादि महोत्सव संघ की तरफ से हुआ। वहां से संघ गिरनार की तरफ रवाना हुप्रा और गिरनार की तलहटी में जाकर संघ ने अपना पड़ाव डाला। श्रीपूज्य समुदाय के साथ पर्वत ऊपर चढ़े और नेमिनाथ की यात्रा की, श्रावकों ने इन्द्रपदादि के चढ़ावे बोले । वहां से वापस लौटकर श्रीपूज्य संघ के साथ स्तम्भतीर्थ पाए और चातुर्मास्य वहां पर ही कर भरपाल श्रावक की सहायता से पूज्य ने स्तम्भतीर्थ की यात्रा को, वहां से वीजापुर जाकर श्री वासुपूज्य की यात्रा की। 2010_05 Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] [ पट्टावली-पराग वीजापुर में सं० १३६७ के माघ वदि ६ को महावीर प्रमुख बिम्बों की श्रीपूज्य ने ठाट पूर्वक प्रतिष्ठा की, वहां से भीमपल्ली के समुदाय की प्रार्थना से भीमपल्ली पधारे और वहां फाल्गुन शुक्ल १ को तीन क्षुल्लक और २ क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी, उनके नाम परमकोति, वरकीर्ति, रामकोति, पद्मश्री तथा व्रतश्री थे। उसी दिन पं० सोमसुन्दर गरिण को वाचनाचार्य पद दिया गया। प्रस्तुत वर्ष में हो कुंकुमपत्रिकाएं भेज कर श्री पाटन, पालनपुर, जालोर, सिवाना, जयसलमेर, राणुकोट, नागौर, रिणी, वीजापुर, सांचौर, भीनमाल, रत्नपुरादि अनेक स्थानों के वास्तव्य-श्रावक-समुदाय के साथ सा० सामल ने तीर्थ-यात्रा का प्रारम्भ किया। सामल तथा संघ समुदाय की प्रार्थना से चैत्र शुक्ल १३ के दिन चतुर्विध संघ मौर देवालय के साथ पूज्य श्रीजिनचन्द्रसूरिजी ने भीमपल्ली से प्रयाण किया और श्री शंखेश्वर में जाकर पार्श्वनाथ की यात्रा की, संघ ने आठ दिन तक वहां ठहर कर उत्सव किया, वहां से पाटडी में नेमिनाथ को वन्दन किया और राजशेखराचार्य, जयवल्लभ गणि आदि १६ साधु और प्र० बुद्धिसमृद्धि गणिनी आदि १५ साध्वियों के साथ विधिसंघ ने क्रमशः शत्रुञ्जय पहुँच कर आदिनाथ की यात्रा की। वहां से गिरनार जाकर श्री नेमिनाथ को वन्दन किया, दोनों तीर्थो पर इन्द्रपदादि के चढ़ावों द्वारा प्रचुर द्रव्य खर्च किया सर्व तीर्थो की यात्रा करके सा० सामल के संघ के साथ पूज्य जिनचन्द्रसूरि प्राषाढ़ चातुर्मास्य के दिन वायड गांव पाए और महावीर की यात्रा कर श्रावण वदि में विधि-समुदाय के साथ जिनचन्द्रसूरि ने भीमपल्ली में प्रवेश किया। संव के साथ पाए हुए भरणशाली लूणा श्रावक ने पूज्यपाद आचार्य के समक्ष अपनी तरफ से संघ के पाश्चात्य-पद की व्यवस्था का भार निभा कर जो पुण्य उपाजित किया था, वह सब अपनी माता भा० धनी सुश्राविका को दिया? और धनी ने श्रद्धापूर्वक उसका अनुमोदन किया। १. भणशाली लूणा श्रावक द्वारा संघ के पाश्चात्य भार वहन करने से उत्पन्न पुण्य को अपनी मां को गुरु की साक्षी से अर्पण करने की बात कही गई है, परन्तु जैन 2010_05 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३२९ भीमपल्ली के समुदाय द्वारा किये गये उत्सव में प्रतापकीर्ति आदि २ क्षुल्लकों की उपस्थापनाएं हुई और दो क्षुल्लक नये किये जिनके नाम - तरुणकीति और तेजकीर्ति हैं, दो क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी और नाम व्रतधर्मा, दृढ़धर्मा दिये। __उसी दिन रत्नमंजरी गणिनी को महत्तरा-पद देकर "जद्धिमहत्तरा" यह नाम रक्खा और प्रियदर्शना गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया। वहां से श्रीपूज्य पाटन नगर पाए। सं० १३६९ के मार्ग वदि ६ को श्रीपूज्य ने चन्दनमूर्ति, भुवनमूर्ति, सारमूर्ति, हीरमूर्ति नामक चार क्षुल्लक बनाए और केवलप्रभा गणिनी को प्रवर्तिनी-पद दिया। सं० १३७० के माघ शुक्ल ११ श्रीपूज्य ने निधानमुनि कोथात यशोनिधि, महानिधि को पाटन में दीक्षा दो। वहां से भीमपल्ली गए। सं० १३७१ में फाल्गुन शुक्ल ११ को त्रिभुवन कीर्तिमुनि तथा प्रियधर्मा, आशालक्ष्मी धर्मलक्ष्मी नामक साध्वियों को भीमपल्ली में दीक्षा दी। बाद में श्रीपूज्यपाद जालोर विचरे, वहां पर संवत् १३७१ के ज्येष्ठ वदि १० को श्रीपूज्य ने देवेन्द्रदत्त, पुण्यदत्त, ज्ञानदत्त, चार दत्त मुनियों को तथा पुण्यलक्ष्मी ज्ञ नलक्ष्मी, कमललक्ष्मी और मति लक्ष्मी को दीक्षित किया, बाद में जालोर का भंग म्लेच्छों द्वारा (मुसलमानों से) हुमा, बाद में प्राचार्य सिवाना, रीणी, बब्बेरक आदि स्थानों में होते हुए फलोदी पार्श्वनाथ की यात्रा को गए । वहां से नागोर की तरफ विहार किया, वहां से उच्चापुरीय विधि-ममुदाय की प्रार्थना से श्री जिनचन्द्रसूरिजा ने सिन्ध की तरफ विहार किया और उच्चापुरीय के निकटवर्ती देवराजपुर में कुछ समय तक ठहरे। सिद्धान्त के अनुसार यह घटित नहीं होती। जैन-सिद्धान्त ने पुण्य अथवा पाप की प्रवृत्ति करने वालों को स्वयं उनका भोक्ता बताया है। पुण्य के फल की तरह कोई पाप करने बाले का पाप फल अपने ऊपर ले ले और करने वाला अपना दुष्कृत दे दे तो क्या पापकर्ता पाप से मुक्त हो सकेगा ? कभी नहीं । इसी प्रकार पुण्य के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए । ___ 2010_05 Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० ] [ पट्टावली-पराग सं० १३७३ के मार्गशीर्ष वदि ४ को प्राचार्य ने पद-स्थापनादि उत्सव शुरु करवाने और चौमासे में भी देवराजपुर से विशल, महरणसिंह श्रावकों को पाटन भेजकर अपने शिष्य रामचन्द्र को बुलाया, उपाध्यायजी ने भी गुरु की आज्ञा के अनुसार पुण्यकीर्ति गरिए को साथ में देकर रामचन्द्र मुनि को उनको साथ भेज दिया, कार्तिक मास की चतुर्मासी के दिन रामचन्द्र मुनि श्री जिनचन्द्रसूरिजी के पास पहुँचे और अनेक नगरों के संघ- समवायों के समक्ष आचार्य ने अपने शिष्य रामचन्द्र को आचार्य पद देकर राजेन्द्रचन्द्राचार्य बनाया, उसी उत्सव में ललितप्रभ, नरेन्द्रप्रभ, धर्मप्रभ, पुण्यप्रभ, अमरप्रभ साधुनों की दीक्षा दी । सं० १३७४ फाल्गुन वदि ६ के दिन उच्चापुरीय प्रादि अनेक सिन्धदेश के समुदायों ने नन्दिमहोत्सव किया, जिसमें दर्शनहित, भुवनहित, त्रिभुवनहित, मुनियों को दीक्षा प्रदान की, १०० श्राविकाओं ने माला ग्रहण की, इस प्रकार देवराजपुर में दो चातुर्मास्य रहकर श्रीपूज्य ने नागौर की तरफ बिहार किया, वहां से पूज्य ने कन्यानयन के निवासी सा० काला सुश्रावक की सहायता से श्रीपूज्य ने फलोदी पार्श्वनाथ की दूसरी बार यात्रा की । सं० १३७५ के माघ शुल्क १२ को नागपुर में महोत्सव कराया और उसमें सोमचन्द्र साधु को तथा शीलसमृद्धि, दुर्लभसमृद्धि, भुवनसमृद्धि साध्वियों को दीक्षा दी, और पं० जगच्चन्द्र गरिण तथा राजकुशल गरिए को वाचनाचार्य पद दिया, धर्ममाला गरिणनी, पुण्यसुन्दरी गरिणनी को प्रवर्तनीपद दिया, बाद में अनेक श्रावक समुदाय के साथ फलौदी जाकर श्री पार्श्वनाथ की तीसरी बार यात्रा की, श्री पार्श्वनाथ के भाण्डागार में ३० हजार जैथल उत्पन्न हुए, फिर श्रीपूज्य संघ के साथ नागोर गए । सं० १३७५ के वैशाख वदि ८ को ठक्कर अचल सुश्रावक ने श्री कुतुबुद्दीन सुरत्राण से आज्ञा निकलवा कर कुंकुमपत्रिकादानपूर्वक अनेक नगरों के समुदायों को एकत्र कर हस्तिनापुर, मथुरा महातीर्थों की यात्रा के लिए संघ निकलवाया, श्रीपूज्य जिनचन्द्रसूरि, जयवल्लभ गरिए, पद्मकीर्ति 2010_05 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३३१ गणि, अमृतचन्द्र गणि आदि ८ साधु और जयद्धिमहत्तरा प्रमुख साध्वियों के परिवार से युक्त संघ नागोर से रवाना हुमा, क्रमशः श्री नरभट में पार्श्वनाथ की तीर्थयात्रा कर संघ कन्यानयन गया, वहां श्री वर्द्धमान स्वामी को नमन किया और आठ दिन तक उत्सव किया, वहां के यमुना पार तथा वागड़ के श्रावकों के समुदाय सहित ४०० घोड़े, ५०० शकट, ७०० बैल प्रादि विस्तार के साथ संघ नावों से यमुना महानदी को पार कर क्रमशः हस्तिनापुर पहुंचा। पूज्य ने संघ के साथ शान्तिनाथ, परनाथ, कुन्थुनाथ देवों की यात्रा की। संघ ने इन्द्र पदादि के चढ़ावे बोलकर अपना द्रव्य सफल किया। ठक्कर देवसिंह श्रावक ने बीस हजार जैथल बोलकर इन्द्रपद ग्रहण किया, अन्य चढ़ावे मिलकर देवभण्डार में १ लाख ५० हजार जैथल की उपज हुई। वहां पांच दिन ठहर कर संघ मथुरा तीर्थ के लिए रवाना हुआ, दिल्ली के निकट पाने पर वर्षा चातुर्मास्य लग गया, इसलिए श्रीपूज्य सघ को विसर्जन कर 8. अचलादि सुश्रावकों के साथ खण्डसराय में चातुर्मास्य ठहरे । यहां पर सुरत्राण के कहने से और संघ के प्राग्रह से "रायाभियोगेणं, गणाभित्रोणं" इत्यादि सिद्धान्त वचन का अनुसरण करते हुए प्राप चौमासे में भी वागड़ देश के श्रावक-समुदाय के साथ मथुरा गए १ और सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ तथा १. आचार्य जिनचन्द्रसूरि के द्वारा दूसरी बार जिनासा भंग करने का यह प्रसंग है। पहले आपने शत्रुञ्जय गिरनार के संघ के साथ वापस भीमपल्ली आते हुए, वायड महास्थान में प्राषाढी १४ की और बाद में वहां से श्रावण वदि में भीमपल्ली आकर चातुर्मास्य पूरा किया था। इस प्रसंग पर तो लगभग तीर्थो में जाने-आने में ही खासा चातुर्मास्य व्यतीत किया । पट्टावली-लेखक कहता है - सुरत्राण के उपरोध से और संघ के अत्याग्रह से आप मथुरा के लिए निकले थे, जो सरासर झूठा बचाव है । सुरत्राण को तो कोई मतलब ही नहीं था और संघ का भी इन्होंने विसर्जन कर दिया था, कतिपय वागड़ के श्रावकों के साथ आप खण्डसराय में चातुर्मास्य व्यतीत करने के लिए ठहरे थे, फिर मथुरा जाने का तात्कालिक क्या कारण उपस्थित हुआ कि जिससे बाध्य होकर आपको मथुरा जाना-माना पड़ा। हमारी राय में दोनों स्थानों पर जिनचन्द्रसूरि ने गफलत की है। प्रथम तो ___ 2010_05 Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ] [ पट्टावली-पराग महावीर तीर्थङ्करों की यात्रा की, फिर दिल्ली पाकर खण्डसराय में शेष चातुर्मास्य पूरा किया । दमियान श्री जिन चन्द्रसूरि के स्तूप की दो बार यात्रा की। चातुर्मास्य के बाद श्रीपूज्य के शरीर में कम्परोग की पीड़ा उत्पन्न हुई जिससे अपना आयुष्य अल्प समझ कर अपने शिष्य वा० कुशलकीर्ति गरिण को अपने पट्ट पर स्थापन करने का निश्चय करके सब हकीकत एक चिट्ठी में लिख कर राजेन्द्रचन्द्राचार्य को देने के लिए अपने विश्वासपात्र ४० विजयसिंह के हाथ में चिट्ठी का गोलक दिया, बाद में चौहान श्री मालदेव के प्रत्याग्रह से दिल्ली से विहार कर मेड़ता की तरफ प्रयाण किया। कन्यानयन प्राते-पाते आपको ताप श्वास आदि की विशेष बाधा बढ़ गई। परिणामस्वरूप अपने सर्व संघ से मिथ्या दुष्कृत किया और कहा - "यह लेख राजेन्दचन्द्राचार्य को देना"। कोई मास भर कन्यानयन में ठहर कर बाद में नरभटादि स्थानों में होते हुए मेड़ता पहुंचे, वहां पर राणक श्रीमालदेव के प्राग्रह से २४ दिन ठहर कर अपने स्वर्गवास के योग्य स्थान समझ कर वहां से कोसवाणा गए और वहां सं० १३७६ के इस प्रकार साधुओं को तीर्थयात्रा के निमित्त भ्रमण करना निष्कारण भ्रमण बताया है और निष्कारण भ्रमण करने पर शास्त्रकार ने प्रायश्वित्त विधान किया है, तब चातुर्मास्य में दिल्ली से मथुरा जाकर चौमासे में ही वापस दिल्ली आना कितना बुरा दृष्टान्त है, इसका जिनसूरिजी ने कतई विचार नहीं किया। साधुओं के लिए संयम यात्रा ही मुख्य यात्रा है। तीर्थयात्रा दर्शनशुद्धि का कारण होने से श्रावकों के लिए खास उपयोगी है, साधुओं के लिए नहीं। चारित्र में विराधना लगाकर तीर्थयात्रा के लिए अपने भक्तों का समुदाय इकट्ठा करके इधर-उधर घूमते रहना यह खरतरगच्छ के आचार्यों का प्रचार मात्र है। जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि आदि को तीर्थयात्रा निकाल कर तीर्थों में ले जाने वाला कोई नहीं मिला था क्या ? खरी बात तो यह है कि वे साधु का कर्त्तव्य अकर्त्तव्य समझते थे। चन्द्रावती में जिनपतिसूरि के साथ वार्तालाप करते हुए पोर्णमिक-गच्छीय प्राचार्य श्री अकलंकदेवसूरि नै संध के साथ साधु को जाने के लिए जो आपत्तियां उठायी हैं और जिनपतिसूरिजी ने उनका जो समाधान किया है उसके पढ़ने से पाठकगण अच्छी तरह समझ सकते हैं कि जिनचन्द्रसूरि की उक्त गफलत ही नहीं किन्तु निष्कारण अपवाद का सेवन है । 2010_05 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुतीय-परिच्छेद ] [ ३३३ प्राषाढ़ शुक्ल ६ को रात्रि में डेढ़ पहर रात्रि व्यतीत होने पर चतुर्विध संघ को मिथ्यादुष्कृत कर समाधिपूर्वक देह छोड़कर स्वर्गवासी हुए । श्रावक-समुदाय ने नारियल आदि फल उछालते हुए ले जाकर आपका अन्तिम देहसंस्कार किया । चातुर्मास्य के अनन्तर जयवल्लभ गरिण जिनचन्द्र का दिया हुमा लेख. पत्र लेकर भीमपल्ली राजेन्द्राचार्य के पाम गए, वहां से प्राचार्य साधु समुदाय के साथ पाटन पहुंचे, उस प्रदेश में दुर्भिक्ष घल रहा था तो भी श्रीपूज्य के आदेश का पालन करने के निमित्त राजेन्द्रा ने सं० १३७७ के ज्येष्ठ वदि ११ को कुम्भलमेर में मूलपद स्थापना का निश्चित किया। बाद में सा० तेजपाल श्रावक ने मूलपद स्थापना का महोत्सव करने का भार स्वीकार कर विधिमार्ग श्रावकों वाले सर्व गांव नगरों में कुकुमपत्रिकायें भेजी, सर्व स्थानों के विधिसमुदाय नियत दिन पर पाटन आ पहुंचे, ठक्कुर विजयसिंह भी श्रीपूज्यदत्त चिट्ठी का गोलक लेकर दिल्ली से पाटन पाया, श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य, विवेकसमुद्र महोपाध्याय, प्रवर्तक जयवल्लभ गणि, हेमसेन गणि, वाचनाचार्य हेमभूषण गणि प्रमुख साधु ३३ और जद्धि महत्तरा, प्रवर्तिनी बुद्धिसमृद्धि, प्रियदर्शना प्रमुख २३ साध्वियां सर्वस्थानीय श्रावकसमुदाय के सामने जयवत्लभ गणि के हस्तक का खेल और ठा० विजयसिंह वाला चिट्ठी का गोलक राजेन्द्रचन्द्राचार्य को दिया, पत्र तथा चिट्ठी सभा में पढ़ी गई, सुनकर चतुर्विध विधि-संघ आनन्दित हुआ और ४० वर्ष की उम्र वाले वाचनाचार्य कुगलकीर्ति को शान्तिनाथ देव के सामने प्राचार्य-पद प्रदान किया गया और "जिनकुशलसूरि" यह नाम रक्खा । (१२) जिनकुशलसूरि -- ___ उसके बाद श्री जिनकुशलसूरिजी भीमपल्ली गए, और प्रथम चातुमस्यि वहीं किया, सं० १३७८ के माघ शुक्ल ३ को भीमपल्ली में नन्दीमहोत्सव हुआ । श्री राजेन्द्र चन्द्राचार्य ने माला ग्रहण को और देवप्रभ मुनि को दीक्षा दी, तथा वाचनाचार्य हेमभषरण गरिण को अभिषेक पद ___ 2010_05 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ ] [ पट्टावली-पराग और पं० मुनिचन्द्र गरिण को वाचनाचार्य-पद प्रदान किया, उसी वर्ष में विवेक समुद्रोपाध्याय का प्रायुष्य समाप्त होता जानकर भीमपल्ली से श्रीपूज्य पाटन गए और ज्येष्ठ वद १४ के दिन विवेकसमुद्रोपाध्याय को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत कराके अनशन दिया, उपाध्यायजी पंचपरमेष्ठो नमस्कार मन्त्र का स्मरण करते हुए समाधि पूर्वक ज्येष्ठ शुदि २ को स्वर्गवासी हुए । उसके बाद श्रीपूज्य ने विधि-समुदाय को उपदेश देकर श्री विवेकसमुद्र उपाध्याय के शरीर-संस्कार भूमि में स्तूप करवाया और प्राषाढ़ शुक्ल १३ को उस पर वासक्षेप किया, बाद में पाटन के समुदाय की प्रार्थना से पाटन में द्वितीय चातुर्मास्य किया । . सं० १३७६ के मार्गशीर्ष वदि ५ को पाटन में विधिचैत्य में प्रतिष्ठा-महोत्सव कराया और उसी दिन सा० खीमड श्रावक के उद्यम से और सा• तेजपालादि विधि-समुदाय की तरफ से शत्रुजय तीर्थ पर श्री युगादिदेव के विधिचैत्य का प्रारम्भ किया गया, पाटन के इस महोत्सव में श्री शान्तिनाथ प्रमुख के शैलमय, रत्नमय, पित्तलमय १५० जिनबिम्बों की, दो समवसरणों को, श्री जिजचन्द्रसूरि, जिनरत्नसूरि और अधिष्ठायकों की मूर्तियों की श्रीपूज्य ने प्रतिष्ठा की । __ बाद में श्री वीजापुर के संघ की प्रार्थना से श्रीपूज्य वीजापुर पधारे पोर वीजापुर से वहां के समुदाय के साथ त्रिशुगम पधारे, त्रिशुगम से वीजापुर के तथा वहां के समुदाय के साथ आरासरण तथा तारंगातीर्थ की यात्रा कर श्री जिनकुशलसूरिजो पाटन पहुंचे और तीसरा चातुर्मास्य वहां किया । सं० १३८० कार्तिक शुक्ल १४ को सा. तेजपाल श्रावक ने शत्रुजय तीर्थ पर तैयार होने वाले विधि-चैत्य योग्य श्री युगादिदेव का २७ अंगुल परिमाण जिनबिम्ब जो तैयार करवाया था, उसकी प्रतिष्ठा की, अन्य भी अनेक शैलमय, पित्तलमय बिम्बों तथा जिनप्रबोधसूरि 2010_05 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयपरिच्छेद ] [ ३३५ जिनचन्द्रसूरि की दो मूर्तियों कपर्दियक्ष, क्षेत्रपाल, अम्बिका आदि की मूर्तियां उसमें प्रतिष्ठित हुई । शत्रुञ्जय पर विधीयमान प्रासाद योग्य दण्ड- ध्वज की प्रतिष्ठा भी इसी प्रतिष्ठा महोत्सव में की। उसके बाद उसी वर्ष में दिल्ली निवासी सा० रयपति श्रावक ने बाहशाह श्री गयासुद्दीन का फरमान हासिल कर पाटन श्री पूज्य को अपनी तरफ से विज्ञप्ति करने के लिए मनुष्य भेजे और श्री जिनकुशलसूरिजी ने भो तीर्थयात्रा का आदेश दिया । गुरु प्रदेश प्राप्त कर हृष्ट-चित्त श्रीरयपति ने अपने कुटुम्ब के अतिरिक्त योगिनोपुर का तथा योगिनीपुर निकटवर्ती अनेक गांवों का विधि-समुदाय बुला कर वैशाख वदि प्रथम ७ को योगिनीपुर से प्रस्थान किया । प्रथम संघ कन्यानयन गया और श्री महावीर देव को यात्रा करके ग्राम, नगर आदि में होता हुआ संघ नरभट पहुँचा और पार्श्वनाथ की यात्रा की, वहां से संघ फलौदी पार्श्वनाथ की यात्रार्थ गया । वहां से संघ जालोर पहुँचा और बड़े ठाट से वहां की यात्रा की, वहां से संघ भीनमाल पहुँचा और शान्तिनाथ की यात्रा की, वहां से प्रयाण कर संघ भीमपल्ली, वायड महास्थान में महावीर की यात्रा करता हुआ ज्येष्ठ दि १४ को श्री पाटन पहुँचा । पाटन के देवालयों की यात्रा की और श्री जिनकुशलसूरिजी को संघ में पधारने की प्रार्थना की । वर्षाकाल निकट जानते हुए भी श्री पूज्य संघ का अपमान नहीं करना चाहिए, इस भावना से वर्षा चातुर्मास्य की भी अवगणना कर १७ साधु और जयद्धि महत्तरा प्रमुख १९ साध्वियों के परिवार सहित सा० रयपति के संघ में सम्मिलित हुए और बड़े आडम्वर के साथ ज्येष्ठ शुक्ल ६ के दिन संघ आगे रवाना हुआ । क्रमशः दण्डकारण्य १ जैसे वालाक देश को उल्लंघन कर संघ श्री शत्रुञ्जय की तलहटी में पहुँचा, वहां पार्श्वनाथ की यात्रा की और १. गुर्वावली- लेखक ने सौराष्ट्र के "भाल" प्रदेश को दण्डकारण्य की उपमा दी है, यह उनका साहित्य विषयक अज्ञान सूचन करता है, क्योंकि उपमा वहीं दी जाती है जो 2010_05 Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] [ पट्टवलो-परग आषाढ़ वदि ६ के दिन तोधिराज शत्रुञ्जय पर चढ़े और युगादिदेव की यात्रा को । संघपति श्री रयपति ने सुवर्णटकों से नवांग पूजा की और करवाई, अन्य महद्धिक श्रावकों ने भी रूप्य टंकादि से पूजा की। उमी दिन श्री युगादिदेव के आगे देवभद्र और यशोभद्र क्षुल्लकों की दीक्षा सम्पन्न हुई और आषाढ वदि ७ को जल-यात्रा करके श्री युगादिदेव के मूलचैत्य में स्वकारित नेमिनाथ बिम्ब प्रमुख अनेक जिनबिम्बों, भण्डागार योग्य समवसरण, जिनातिसूरि, जिनेश्वरसूरि प्रमुख अनेक गुरु-मूर्तियों की श्री जिनकुशलसूरिजी ने प्रतिष्ठा वी और उसी दिन पाटन में प्रतिष्ठापित युगादिदेव के मूल नायक बिम्ब की शत्रुञ्जय पर नवनिर्मित प्रासाद में स्थापना की। आषाढ़ वदि ६ को मालारोपण प्रादि उत्सव युगादिदेव के मूलचैत्य में किया, उसी दिन सुखकी ति गरिण को वाचनाचार्य पद दिया और नूतन प्रासाद में ध्वजारोप महोत्सव हुआ । उक्त महोत्सव में इन्द्रपद आदि के चढावे तथा अन्य तरीकों से युगादिदेव के भण्डागार में द्विवल्लक ५०००० द्रम्म उत्पन्न हुए। बाद में श्रीपूज्य संघ के साथ तलहटी में संघ के पड़ाव पर पाए और वहां से गिरनार तीर्थ की यात्रा के लिए जूनागढ़ की तरफ चले और आषाढ शुक्ल १४ के दिन संघ ने गिरनार पर श्री नेमिनाथ की यात्रा की। यहां पर भी सा० रयपति प्रमुख श्रावकों ने सुवर्ण टंकादि से पूजा की और संघ चार दिन ठहरा तथा महापूजा, ध्वजारोपादि महोत्सव किए। यहां नेमिनाथ के देवभण्डार में द्विवल्लक ४० हजार द्रम्म उत्पन्न हुए, उसके बाद पर्वत से उतर कर प्राचार्य तलहटी में संघ के स्थान पर आए और वहां से संघ वापस पाटन के लिए रवाना हुआ। संघवी रयपति पूज्य प्राचार्य को वन्दन कर पाटन से रवाना हुप्रा, बीच में कोशवाणा में श्री जिनचन्द्रसूरि के स्तूप पर ध्वजारोप किया, फिर उपमेय से मिलती-जुलती हो । भाल प्रदेश ऐसा स्थान है जहां घास तक नहीं उगता, तब दण्डकारण्य ऐसी घनी वनस्पति वाला प्रदेश है, जहां सामान्य मनुष्य चल भी नहीं सकता। ऐसे एक दूसरे के विरुद्ध स्वभाव के दो पदार्थों को आपस में उपमेय उपमान बनाना अज्ञान का परिणाम है । 2010_05 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय- परिच्छेद ] [ ३३७ वहां से फलौदी की यात्रा कर देशान्तरीय यात्रिकों को अपने-अपने स्थान निवास स्थान योगिनीपुर में कार्तिक वदि ४ पहुँचा कर संघपति ने अपने को प्रवेश किया । सं० १३८१ वैशाख सुदि ५ को सा० तेजपाल, सा० रुदपाल ने जलयात्रा पूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव कराया । इस उत्सव में श्री जिनकुशलसूरिजी ने जालोर योग्य महावीर देव का बिम्ब, देवराजपुर युगादिदेव का बिम्ब, शत्रुञ्जय स्थित बूल्हा वस्ति प्रासाद जीर्णोद्धारार्थ श्रीश्रेयांस प्रमुख अनेक बिम्ब, शत्रुञ्जय स्थित स्वप्रासादमध्यस्थ अष्टापद योग्य चौबीस जिनबिम्ब इत्यादि शैलमय १५० जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा की । उच्चापुरीय योग्य श्रीजिनदत्तसूरि, जालोर तथा पाटन योग्य जिनप्रबोधसूरि और देवराजपुर योग्य जिनचन्द्रसूरि की मूर्तियों की और अम्बिका श्रादि धिष्ठायकों की प्रतिष्ठा की और अपने भण्डार योग्य श्रेष्ठ समवसरण भी प्रतिष्ठित किया । देवभद्र, यशोभद्र क्षुल्लकों की उपस्थापना की, सुमतिसार, उदयसार, जयसार, क्षुल्लकों और धर्मसुन्दरी, चारित्रसुन्दरी, क्षुल्लिकाओं को दीक्षा दी। जयधर्म गरिए को उपाध्याय पद दिया, अनेक साध्वी श्राविकानों ने माला ग्रहण की। पाटन से श्रीपूज्य भीमपल्ली पहुँचे और वैशाख वदि १३ को महावीर देव को नमस्कार किया । उसी वर्ष में सा० वीरदेव श्रावक द्वारा रचित संघ के साथ जाने के लिए जिनकुशलसूरिजी ने स्वीकार किया । सा० वीरदेव ने बादशाह गयासुद्दीन से फर्मान निकलवा के नाना स्थानों के समुदायों को कुंकुंम पत्रिका देकर बुलाया, श्रोजिन कुशलसूरिजी भी सा० वीरदेव तथा संघ के प्राग्रह से चतुर्मांस्य निकट होने पर भी ज्येष्ठ दि ५ को भोमपल्ली से संघ के साथ रवाना हुए। श्री वायड़, सेरीशक आदि स्थानों में ठहर कर ध्वजारोप की रस्म करता हुप्रा संघ सरखेज नगर पहुँचा । निकटवर्ती प्राशापल्ली नगर के विधि-समुदाय की प्रार्थना से जिनकुशलसूरि कतिपय श्रावकों के साथ श्राशापल्ली पधारे, प्राशापल्ली की यात्रा कर आप वापस संघ में प्राए और वहां से सर्व संघ स्तम्भतीर्थ पहुंचा, नवांग वृत्तिकार श्रभयदेवसूरि प्रकटित श्री स्तम्भनक पार्श्वनाथ 2010_05 Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ] [ पट्टावली-पराग विधिचत्य में अजितनाथ को यात्रा की। पाठ दिन तक संघ वहां ठहरा और इन्द्रमाला द्विवल्लक १२००० द्रम्म में पहनी गई, खम्भात से प्रस्थान कर संघ शून्य प्रदेशों में चलता हुआ शत्रुञ्जय की तरफ आगे बढ़ा, बोच में आने वाले धन्धूका नगर में ठ. उदयकरण श्रावक ने संघ वात्सल्य आदि किया। क्रमश: संघ शत्रुञ्जय की तलहटी में पहुंचा, वहां से श्रीपूज्य शत्रुञ्जय पर चढ़े और दूसरी बार श्री युगादिदेव की यात्रा की। दस दिन तक संघ वहां ठहरा और इन्द्रपदादि के चढावे किये। श्री युगादिदेव के भण्डार में देकर विधि-संघ ने १५ हजार द्विवल्लक द्रम्म सफल किये, अपने युगादिदेव के विधि-चैत्य में नई तैयारी हुई। २४ देवगृहिकाओं पर श्रीपूज्य ने कलश-ध्वजारोप किया, इसके अनन्त र श्रीपूज्य संघ के साथ तलहटी में पाए, बाद में सर्व संघ पाया उसी रास्ते गया । क्रमशः सेरीशे होकर शंखेश्वर पहुँचे। वहां चार दिन ठहर कर ध्वजारोप आदि करके संघ के साथ श्री जिनकुशलसूरि श्रावण शुवल ११ को भीमपल्ली पहुँचे? । देशान्तरीय यात्रिकगण अपने-अपने स्थान पहुँचे । जिनचन्द्रसूरिजी ने यात्रा निमित्त दो बार चातुर्मास्य में भ्रमण करने के जो अपवाद सेवन किये थे उन पर टिप्पण करते हुए हम लिख पाये हैं कि चातुर्मास्य में इधर उधर होने की अनागमिक रीति योग्य नीं है, हमारे उस कथन के अनुसार ही परिणाम प्राया, जिनचन्द्रसूरिजी दो बार इधर-उधर हुए थे तब उनके पट्टधर श्री जिनकुशलसूरिजी ने भी चातुर्मास्य में दो बार यात्रार्थ भ्रमण किया। __ प्रथम योगिनीपुर निवासी सा० रयपति के संघ के साथ सौराष्ट्र तीर्थ की यात्रा के लिए जाकर वापस भ्राद्रपद वदि ११ को पाटन पहुंचे थे और चातुर्मास्य वहां पर पूरा किया था। दूसरी बार भीमपल्ली निवासी सा० वीरदेव के संघ के साथ उन्हीं तीर्थो की यात्रा करने गये और श्रावण शुल्क ११ को वापिस भीमपल्ली में प्रवेश किया था। ___ इसी प्रकार खरतरगच्छ के प्राचार्यो' ने नाम मात्र का निमित्त पाकर चौमास में इधर उधर जाने में पाप नहीं समझा और खूबी यह है कि इनके पिछले गुर्वावलीकार लेखक "रायाभियोगेणं" इस प्रागार को आगे कर इस अनुचित प्रवृत्ति का बचाव करते हैं, उनको समझ लेना चाहिये कि इन बातों में "राजाभियोग, गणाभियोग" लागू ही नहीं होता । राजा साधुओं को वर्षाकाल में इधर उधर 2010_05 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद 1 [ ३३६ सं० १३८२ के वैशाख सुदि ५ को सा० वीरदेव ने वहां नन्दिमहोत्सव किया और श्रीपूज्यजी ने उसमें चार क्षुल्लक, २ क्षुल्लिकानों को दीक्षा दो, जिनके नाम विनयप्रभ, हरिप्रभ, सोमप्रभ आदि और कमलश्री तथा ललितश्री, इसके बाद श्रीपूज्य सांचोर पहुँचे।। एक मास सांचोर ठहर कर आगे लाटहद (राडदरा) गए। वहां पर १५ दिन ठहर कर आगे बाडमेर गए और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। सं० १३८३ के पौष शुक्ल पूर्णिमा को वाडमेर में अट्टाहिमहोत्सव हुया और उसमें नव-दीक्षितों की उपस्थापना, मालारोपणादि उत्सव हुए। उसी वर्ष में बाडमेर से विहार कर लवणखेट (पचपदरा) सिवाना होते हुए जालोर पहुँचे और वहां पर अट्ठाही-महोत्सव शुरु हुग्रा, जिसमें १३८३ के फाल्गुन वदि ६ को श्री जिनकुशलसूरिजी ने प्रतिष्ठा, व्रतग्रहण, उपस्थापना, मालारोपणादि कार्य कराये और उस उत्सव में वैभारगिरि होने की आज्ञा क्यों देंगे ? राजनीति तो साधु, नट, नर्तक आदि घुमक्कड जातियों को वर्षाकाल में एक स्थान में रहने की आज्ञा देती है, तब खरतरगच्छ के आचार्यों को वह वषीकाल में घूमने की आज्ञा क्यों देगी। युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसरिजी वर्षाकाल में बादशाह अकबर के पास जाने को रवाना हुए और जालोर तक पहुंचने के बाद उनको बादशाह की तरफ से समाचार पहुंचे कि वर्षाकाल में चलते हए पाने की कोई आवश्यकता नहीं है, तब आपने शेष वर्षाकाल जालोर में बिताया, जहां तक हम समझ पाये हैं श्री जिन् दत्त मूरिजी से ही खरतरगच्छ के अनुयायियों को गुरुपारतन्त्र्य का उपदेश मिलना प्रारम्भ हो गया था, उसके ही परिणाम स्वरूप खरतरगच्छ में यह बात एक सिद्धात बन गया है कि आगम से प्राचार्यपरम्परा अधिक बलवती है, किसो प्रसंग पर आचरणा के विपरीत पागम की बात होगी तो आगमिक नियम को छोड़कर आचरणा की बात को प्रमाण माना जायगा, शास्त्र बिरुद्ध यात्रार्थभ्रमण और वर्षाकाल तक की उपेक्षा करना उसका कारण एक ही है कि वे इस प्रकार की प्रवृत्तियों के विरुद्ध कुछ भी कह नहीं सकते थे, ठीक है, गुरु पारतन्त्र्य में रहना चाहिए, परन्तु पारतन्त्र्य का अर्थ यह तो नहीं होना चाहिए कि शास्त्रविरुद्ध अथवा लोकविरुद्ध, प्रवृत्तियों के सम्बन्ध में भी गुरुत्रों को कुछ नहीं कहा जाय, अांखें मुन्दकर गुरुओं की प्रवृत्तियों को निभाने का परिणाम यह होगा कि धीरे-धीरे गुरु और गच्छ दुनिया से विदा हो चलेंगे। 2010_05 Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० ] [ पट्टावली-पराग - पर के चतुर्विंशति जिनालय के मूलनायक श्री महावीरदेव प्रमुख अनेक शैलमयबिम्बों, पित्तलमय-बिम्बों, गुरु-मूर्तियों तथा अधिष्ठायक-मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। ६ क्षुल्लक किये जिनके नाम न्यायकीति, ललितकीर्ति, सोमकीति, अमरकीति, नमिकीति और देवकीति दिये थे। उसके बाद देवराजपुर के श्रावकों के अत्याग्रह से श्री जिनकुशलसूरिजी ने चैत्र वदि में सिन्ध की तरफ विहार करने का मुहूर्त किया। सिवाना, खेडनगर आदि स्थानों में होते हुए जसलमेरु पहुँचे। वहां १६ दिन ठहर कर उच्चा आदि स्थानों में होते हुए श्रीपूज्य देवराजपुर पहुंचे और श्री युगादिदेव को नमस्कार किया। देवराजपुर में एक मास की स्थिरता कर वहां से विहार कर उच्चा पहुँचे। एक मास तक वहां ठहर कर विधिसमुदाय को स्थिर कर चातुर्मास्य करने के लिए पाप फिर देवराजपुर पहुँचे । चातुर्मास्य के बाद सं० १३८४ में माघ शुक्ला ५ को प्रापने वहां पर प्रतिष्ठामहोत्सव करपाया। इस महोत्सव में राणुकोट, कियासपुर के चैत्यों के मूलनायक योग्य श्री युगादिदेव के २ बिम्ब तथा अन्य अनेक पाषाणमय तथा पित्तलमय बिम्बों की प्रतिष्ठा हुई, तथा नव क्षुल्लक बनाये और तीन क्षुलिकाएं, इनके नाम - भावमूर्ति, मोदमूर्ति, उदयमूर्ति, विजयमूर्ति, हेममूर्ति, भद्रमूर्ति, मेघमूर्ति, पद्ममूर्ति और हर्ष मूर्ति इनको दीक्षा दी और कुलधर्मा, विनयधर्मा, शीलधर्मा इन साध्वियों को भी। सं० १३८५ में फाल्गुन शुक्ल ४ के दिन श्री जिनकुशलसूरिजी ने उत्सव कराया। उसमें पं० कमलाकर गरिण को वाचनाचार्य-पद दिया, नूतन दीक्षितों की उपस्थापना की और मालारोपणादि कार्य हुए। सं० १३८६ के वर्ष में बहिरामपुरीय संघ की प्रार्थना से श्रीपूज्य बहरामपुर गए और ठाट से नगर प्रवेश कर पाश्वनाथ के दर्शन किये, कुछ दिन वहां ठहरे और वहां से विहार कर क्यासपुर गये और वहां से नारवाहन की तरफ विहार किया, छः दिन तक वहां ठहर कर वापस क्यासपुर की तरफ विचरे। 2010_05 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३४१ - ____सं० १३८७ के वर्ष में उच्चकीय समुदाय के आग्रह से और १२ साधुओं के परिवार के साथ उच्चा गए और एक मास वहां ठहरे, बाद में परसुरोरकोट के श्रावकों के आग्रह से वहां पधारे, वहां से विहार करके बहिरामपुर पहुंचे, वहां से क्यासपुरादि होते हुए, वर्षा चातुर्मास्य करने देवराजपुर पहुंचे। चातुर्मास्य के बाद १३८८ के वर्ष में बिम्ब प्रतिष्ठा संस्थापनादि के लिए उत्सव करवाया। उच्चापुरीय, बहिरामपुर, क्यासपुर, सिलारवाणादि अनेक गांवों के रहने वाले सिन्धदेश के समुदायों की हाजरी में मार्गशीर्ष शुक्ला १० के दिन तरुणकीर्ति गरिण को प्राचार्यपद दिया और तरुण प्रभाचार्य नाम रक्खा । पं० लधिनिधान गरिण को अभिषेक पद देकर लब्धिनिधानोपाध्याय बनाया और जयप्रिय मुनि, पुण्यप्रिय मुनि को क्षुल्लक बनाया और राजश्री तथा धर्मश्री को क्षुल्लिका बनाया, उसके बाद देराउर में चातुर्मास्य किया। श्रीपूज्य अपना अन्त समय देखकर चातुर्मास्य के बाद भी उसी क्षेत्र में ठहरे, माघ महीने में ज्वरश्वासादि के बढ़ जाने से अपना निर्वाण समय निकट समझकर तरुणप्रभाचार्य को पौर लब्धिनिधानोपाध्याय को अपने पट्ट के योग्य पद्ममूर्ति क्षुल्लक को बनाकर उसको पद प्रतिष्ठित करने की शिक्षा दे के सं० १३८६ के फाल्गुन कृष्ण ५ को चतुर्विध संघ के साथ मिथ्यादुष्कृत देने के बाद रात्रि के लगभग दो पहर बीतने पर आपने देह छोड़ देवगति को प्रयाण किया । आपके अग्निसंस्कार स्थान पर देवराजपुर के विधि-समुदाय ने स्तूप निर्माण करवाया। सं० १३६० के ज्येष्ठ शु० ६ को मिथुन लग्न में देवराजपुर के युगादि जिन चैत्य में तरुणप्रभाचार्थ ने जयधर्मोपाध्याय, लब्धिनिधानोपाध्याय प्रमुख ३० साधु, अनेक साध्वी समुदाय की हाजरी में भावना के अनुसार पद्ममूर्ति क्षुल्लक को श्री जिनकुशलसूरिजी के पट्टपर स्थापित किया, पूज्य के प्रादेशानुसार ही "श्री जिनपभसूरि" यह नाम दिया । इस पद स्थापना महोत्सव पर- जयचन्द्र, शुभचन्द्र, हर्षचन्द्र, महाश्री, कनकधी, क्षुल्लिकानों को जिनपद्मसूरिजी ने दीक्षा दी। पं० अमृतचन्द्र गणि को वाचनाचार्य-पद हुप्रा । 2010_05 Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ ] [ पट्टावलो-पराग (१३) जिनपद्मसूरि - सं० १३९० के ज्येष्ठ शुक्ल ६ को युगादिदेव प्रमुख जिनबिम्बों और स्तूप योग्य, जैसलमेर योग्य, क्यासपुर योग्य, जिनकुशलसूरिजी की तीन मूर्तियों की प्रतिष्ठा करने के लिए उत्सव किया और उसी दिन स्तूप में जिनकुशलसूरि की मूर्ति स्थापित की, बाद में श्रीपूज्य जिनपद्मसूरिजी ने दो उपाध्याय प्रमुख १२ साधुओं के साथ जैसलमेर की तरफ विहार किया और प्रथम चातुर्मास्य जैसलमेर में किया। सं० १३९१ के पौष वदि १० को जैसलमेर में लक्ष्मीमाला गणिनी को प्रवर्तिनी पद दिया, फिर बाड़मेर को तरफ विचरे । दस दिन तक वहां ठहर कर सांचोर की तरफ विहार किया, वहां पर माघ शुक्ला ६ के दिन समुदाय की तरफ से नन्दिउत्सव किया। उसमें नयसागर, अभयसागर क्षुल्लकों को दीक्षा दी। वहां मास से कुछ कम टहर कर वहां से आदित्यपाटक गए और शान्तिनाथ की यात्रा की, उसके बाद माघ पूर्णिमा को समुदाय की तरफ से प्रतिष्ठा-महोत्सव किया। उसमें युगादिदेव आदि के ५०० बिम्बों की श्रीपूज्य ने प्रतिष्ठा की। सं० १३६२ मार्गशीर्ष वदि ६ के दिन २ क्षुल्लकों की उपस्थापना की। ___ सं० १३६३ के कार्तिक मास में पाटणस्थित श्रीपूज्य ने लघुवय के होते हुए भी प्रथमोपधान तप वहन किया, वहां से फाल्गुन वदि १० को पाटन से जीरावला की यात्रा के लिए प्रयाण किया। नारउद्र होते हुए श्रीपूज्य प्राशोटा (मासेडा) पहुंचे। वहां भीमपल्लीय सा० वीरदेव श्रावक ने विधिसमुदाय के साथ श्रीराज० रुद्रन दन, राज० गोधा आदि को साथ में लेकर प्रवेशोत्सव कराया। वहां से श्रीपूज्य विचरते हुए बूजद्रो पधारे। उसी वर्ष में सा० मोकदेव ने आबू की यात्रा के लिए श्रीपूज्य से प्रार्थना की और उन्होंने स्वीकृति दी। चैत्र शुक्ल ६ के दिन तीर्थयात्रा योग्य देवालय में शान्तिनाथ को स्थापित कर वासक्षेप किया, फिर अट्ठाई 2010_05 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] उत्सव कर चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को बूजड़ी से संघ का प्रस्थान हुअा, श्रीपूज्य भी लब्धिनिधान उपाध्याय, वा० अमृतचन्द्र गरिण प्रमुख १५ साधु और जद्धि महत्तरा प्रमुख ८ साध्वियों के परिवार सहित चले। क्रमशः सघ आबू पहुँचा और विमलविहार में श्री आदिनाथ और लूणिकविहार में नेमिनाथ प्रमुख तीर्थङ्करों की यात्रा की। विधि-संघ ने इन्द्रपद आदि चढ़ावों में तथा अन्य उत्सवों में ५०० रूप्य टंक सफल किये, वहां से संघ के साथ श्रीपूज्य मुडस्थला (मुगुथला) गांव जाकर जिनपतिसूरि की मूर्ति को वन्दन किया। वहां से संघ जीरापल्ली पहुँचा, वहां भी युगादिदेव के प्रासाद में २०० टंक खर्च किये। वहां से प्रयाण कर संघ पारासरण गया और नेमिनाथ प्रमुख पंचतीर्थों की यात्रा की। इन्द्रपदादि के चढ़ाबों द्वारा १५० रूप्य टंक खर्च किये, वहां से संघ तारंगा पहुँचा और अजितनाथ की यात्रा की, वहां भी इन्द्रपदादि के चढ़ावों में २०० रूप्य टंक खर्च किये। वहां से वापस लौट कर संघ त्रिशृङ्गमक पहुँचा। श्रीपूज्य ने वहां के सर्व चैत्यों की यात्रा को, संघ ने इन्द्रपदादि द्वारा पार्श्वनाथ के प्रासाद में १५० रूप्य टक खर्च किये। वहां से लौट कर चन्द्रावती के मार्ग से श्रीपूज्य बूजड़ी पधारे और वर्षा चातुर्मास्य वहीं किया। राजाओं का मोह - खरतरगच्छ की पट्टावलियों तथा गुर्वावलियों के लेखकों को राजाओं तथा महाराजानों का बड़ा मोह था, एक साधारण गांव के जागीरदार अथवा कोली ठाकुर को भी राजा कहकर अपने गुरुत्रों के नगरप्रवेशों का महत्त्व बढ़ाया है, एक छोटे में गांवड़े का गिरासिया ठाकुर भी उनकी दृष्टि में बड़ा राजा तथा राजाधिराज था, इस प्रकार के बृहद् गुर्वावली में प्राने वाले नामों की एक लम्बी नामावली देकर खरतरगच्छ के एक लेखक महोदय ने "खरतरगच्छ गुर्वावलो का ऐतिहासिक महत्त्व' इस शीर्षक के नीचे नामावलि में सूचित राजा; महाराजा, जागीरदारों के संबन्ध में चर्चा की है। प्रस्तुत लेख में बृहद् गुर्वावली को प्रशंसा करने में लेखक ने सोमोल्लंघन कर दिया है । कई स्थानों में तो गुर्वावली के खरे अर्थ को छिपाकर 2010_05 Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] [ पट्टावली-पराग कल्लित अर्थ लगाकर अपने प्राचार्यों का महत्त्व बढ़ाया है, इस सम्बन्ध में एक दो दृष्टान्त देकर इस चर्चा को पूरा कर दिया जायगा । १. बृहद् गुर्वावली में सं० १२४४ की हकीकत में पाटन के रहने वाले "व्यवहारी अभयकुमार सेठ" को खरतरगच्छ का एक अनुयायी भरणशाली कहता है - 'अभयकुमार ! तुम हमारे स्वजन हो, करोडपति हो और राजमान्य हो, परन्तु इससे हमको क्या फायदा, जो हमारे गुरुयों को गिरनार, शत्रुञ्जय आदि तीर्थो की यात्रा नहीं करवाते ।" भरणशाली की इस बात से उत्साहित होकर अभयकुमार ने उसे आश्वासन दिया और महाराजा भीमदेव तथा उनके "प्रधान मन्त्री जगद्देव पडिहार" को मिलकर अजमेर से संघ निकलवाने की राजाज्ञा लिखवायी और अजमेर के खरतरगच्छ संघ तथा जिनपतिसूरि के नाम दो पत्र लिखकर अपने लेखवाहक द्वारा अजमेर के संघ के पास भेजे, अभयकुमार मार्फत श्रायी हुई राजाज्ञा तथा अभयकुमार के पत्रों को पढ़कर अजमेर के संघ के साथ जिनपतिसूरिजी ने यात्रा के लिए प्रयाण किया और वहां से सीधे प्राबु के निकटवर्ती चन्द्रावती होकर माशापल्ली प्राये मौर खंभात होते हुए, सौराष्ट्र के तीर्थों में गये, वहां की यात्रा करके संघ वापस प्राशापल्ली होता हुआ अन्त में पाटन श्राया, भोर वहां से अपने स्थान अजमेर पहुँचा तब "ऐतिहासिक महत्त्व लेखक" "पाटन से ही अभयकुमार की तरफ से संघ निकलवाता है । यह झूठा प्रचार नहीं तो क्या है ? राजाज्ञा अजमेर पहुंचाने के बाद अभयकुमार का संघ के प्रकरण में कहीं नाम तक नहीं मिलता तब लेखक प्रभयकुमार द्वारा संघ निकलवाने की बात करते हैं, खरी बात तो यह है कि "खरतरगच्छ के पट्टधर प्राचार्यों के पाटन माने पर राजकीय प्रतिबन्ध लगा हुआ था, " इसलिए संघ पाटन होकर ही नहीं पाटन राज्य की हद में होकर भी जा नहीं सकता था, इसलिए अभयकुमार ने राजाज्ञा अजमेर भेजी थी । श्रभयकुमार स्वयं पाटन से संघ निकालता तो राजाज्ञा अजमेर क्यों भेजता ? मौर अजमेर का संघ पाटन को छोड़कर सीधा तीर्थों में क्यों जाता । २. " सं० १२८६ में श्री जिनेश्वरसूरिजी के खम्भात जाने पर महामात्य वस्तुपाल द्वारा उनका समारोह से नगरप्रवेशोत्सव किया गया था, " 2010_05 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३४५ - ऐसा लेखक लिखता है, यह भी गलत है - जिनेश्वरसूरि का नगरप्रवेशोत्सव उनके भक्तों ने किया था और वस्तुपाल भी अपने मित्रों के साथ उसमें सम्मिलित हुए थे इतना ही गुर्वावली में लिखा है । ३. बृहद् गुर्वावली में संवत् १३५३ में मुसलमानों द्वारा पाटन का भंग होने की बात गुर्वावलीकार ने लिखी है, यह भी सुनी सुनायी झूठो अपवाह लिख दी है, पाटन का भंग १३५३ में नहीं किन्तु १३६० में हुमा था, पहले मुसलमान पाटन पर चढ़ाई कर गुजरात तरफ माये थे, सहो परन्तु पाबु के निकट से ही गुजराती सैन्य की मार खाकर वापस भाग गए थे । सं० १३६० तक पाटन में वाघेले सोलंकियों का ही राज्य था। यों तो बृहद्गुर्वावली प्रतिशयोक्तियों, अफवाहों और कल्पित वर्णनों का खजाना है, परन्तु उन सभी बातों की चर्चा करने से कोई सारांश नहीं निकलता, जो कुछ इतिहास और वास्तविकता से विपरीत बातें प्रतीत हुई उनमें से कतिपय वृत्तान्तों की खरी समीक्षा लिखनी पड़ी है, प्राशा है, इसे पढ़कर पाठक गरण सार ग्रहण करेंगे । 2010_05 Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हस्तलिखित खरतर-गछौय पहावलियां हमारे शास्त्र संग्रह में कुछ हस्तलिखित खतर-पट्टावलियां भी हैं, जिनमें नम्बर २३२४,२३२७,२३२८,२३२६,२:३३ की पट्टावलियां खरतरगच्छ के प्राचार्यो की परम्परा का प्रतिपादन करती हैं, यद्यपि इन पट्टावलियों में अव्यवस्थितता है, फिर भी इनमें से कुछ पट्टावलियों में विशेष वृत्तान्त भी मिलते हैं, अतः इन का अवलोकन लिखना प्रासंगिक होगा। पट्टावली नम्बर २३२४ - उक्त पट्टावली १५ पत्रात्मक है, इसका लेखन समय विक्रम की सत्रहवीं शती का उत्तरार्ध है, लेखक ने अपना नाम नहीं लिखा फिर भी यह पट्टावली श्री जिनराजसूरि के समय की है, इसमें कोई शंका नहीं। पट्टावली लेखक का निम्नांकित उल्लेख इस पट्टावली का समय सूचित करता है - "श्री जिन चन्द्रसूरि अनेक अवदातकीया वृद्धावस्तायि पातिसाहजो कनई जई षट्दर्शन मुगता कीधा, अन्त समयि प्रसरण करो सं० १६७० पासु बदि २ बोलपुरइ दिवगत थया । दिवंगत हुयां पछई मुहपतो अग्निरइ विषइ साबती रही, तेहना कितराएक अवदात कहीयह तेहनइ पाटनइ विषइ श्री जिनसिंघसूरि हूया जाणिवा, चौपड़ा गोत्रीय तेहना जितरा दिहाड़ा तितरा पवाडा ते कितरा एक कहियइ, श्री संघइ दृष्टइ दीठा हसी तेहनई प टरइ बिषय बोहिथरा बंश सिणगारहार चूडामणि समान श्री जिनराजसूरि विजयमान प्रवर्तइ. तेहनई पाटरइ विषइ बोहथहरा वंशीय श्री जिनसागरसूरि थापी (मू० ग्रन्थाग्रन्थ ३७६ ॥छः॥) "महो उपाध्याय श्री हंसप्रमोद गरिण, महो उपाध्याय श्री चारित्रदत्त गरिण, तत् शिष्य पंडित पोथाजी, तत् शिष्य पं० पारदलिषितम् ॥छः॥" उपर्युक्त पट्टावली में प्राचार्य परम्परा श्री प्रार्यरक्षितसूरिजी से प्रारम्भ की है और भायंरक्षितसूरि के पट्टपर प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी को बिठाया ___ 2010_05 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोय - परिच्छेद ] [ ३४७ है, इससे इतना तो पहले से ही निश्चित हो जाता है कि पट्टावली प्रमादपूर्ण है। श्री हरिभद्रसूरि के बाद श्री शान्तिसू, श्री देविन्दवाचक, गोविन्दवाचक, उमास्वातिवाचक, श्री जिनभद्र गरि क्षमाश्रमण, इस क्रम से श्रुतधरों के नाम लिखने के बाद लेखक कहते हैं - श्री देवद्धि गरिण क्षमाश्रमण ने वलभी नगरी में सर्वसाधु संघ का सम्मेलन किया और सर्व- सिद्धान्त पुस्तकों में लिखवाएं, भगवान् महावीर से ६८० वें वर्ष में पुस्तक लिखे गए, श्री देवद्धि गरिए के पट्टपर श्री शीलाङ्काचार्य हुए, जिन्होंने एकादशांगी पर वृत्ति बनाई, शीलाङ्काचार्य के पट्ट पर श्री देवसूरि, इनके पट्ट पर श्री नेमिचन्द्रसूरि नेमिचन्द्र के पट्टपर श्री उद्योतनसूरि, उद्योतनसूरि के पट्टपर श्री वर्धमानसूरि, । वर्धमानसूरि के सम्बन्ध में कहा जाता है कि अंभोहर देश में ८४ स्थविरों की मण्डली में श्री जिनचन्द्राचार्य सब से बड़े थे और जिनचन्द्राचार्य के शिष्य वर्धमान को सिद्धान्त का श्रवगाहन करते ८४ प्राशातनाओं का अधिकार आया, तब आपने गुरु से पूछा कि चैत्य में रहने से प्राशातनाए लगती हैं, इस पर से जिनचन्द्रचार्य ने दिल्ली की तरफ विचरते हुए सुविहित श्री उद्योतनसूरिजी को पत्र लिखा कि मेरा शिष्य वर्धमानसूरि प्रापकी तरफ भारहा है सो प्राप इसे उपसंपदा देकर जिस प्रकार इसका विस्तार हो वैसा करें, मैंने अपना यह शिष्य आपको सोंप दिया है। वर्धमान उद्योतन रिजो के पास गया और उन्होंने योग्य जानकर अपना पट्टधर बना लिया । वर्धमानसूरि के पट्ट पर जिनेश्वरसूरि तथा बुद्धिसागरसूरि हुए, । एक समय जिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि पाटण गए और राजा के पुरोहित के यहां ठहरे, चैत्यवासियों के साथ दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि का वाद हुआ और साधुनों का " वसति में रहना प्रमाणित हुआ, " इससे सं० १०८० में जिनेश्वरसूरि को "खरतर " बिरुद दिया, तब से उनका गच्छ "सुविहित" इस नाम से प्रसिद्ध हुआ और "चौरासी गच्छ" "कोमल" इस नाम से प्रसिद्ध हुए । इतिहास के जानने वालों को यह समझने में तनिक भी देर न लगेगी कि भार्य रक्षित से पट्टावली की शुरुआत करवा कर उनके बाद हरिभद्र, श्री शान्तिसूरि, श्री देविन्दवाचक, गोविन्दवाचक, उमास्वातिवाचक श्री 2010_05 Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ ] [ पट्टावलो-पराग जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण और देवद्धि गणि क्षमाश्रमण के नाम लिख दिये, . इन श्रुतधरों का न पट्टक्रम से सम्बन्ध है, न कालक्रम से ही, जैसे नाम याद आए वैसे ही एक के बाद एक लिख दिए । हरिभद्रसूरि के बाद के सभी श्रुतधर उनके पूर्ववर्ती हैं, तब लेखक ने हरिभद्र को सब से पूर्व में लिखा हैं । देवर्धिगणि के पट्ट पर शीलाङ्काचार्य का नाम लिखना भी इतिहास का अज्ञान ही सूचन करता है। श्री वर्धमानसूरि तथा इनके पूर्ववर्ती सभी प्राचार्यों के नाम कल्पनाबल से लिखे गए हैं, वास्तव में यह पट्टावलो श्री वर्धमानसूरिजी से प्रारम्भ होती है, यही कहना चाहिए। "दुर्लभराज की सभा में जिनेश्वरसूरि का चैत्यवासियों के साथ वाद हुमा" यह कथन भी एक विवादग्रस्त प्रश्न है, क्योंकि सं० १०८० के पहले ही राजा दुर्लभसेन सोलंकी इस दुनिया से विदा हो चुके थे। गुजरात पाटन के सोलंकी राजामों की वंशावली प्राचीन शिलालेखों तथा ताम्रपत्रों के माधार से विद्वानों ने इस प्रकार तैयार की है - ८९७ दुर्लभसेन १०२२ (१) मूलराज सोलंकी इ० ९४२ से १६७ तक (२) चामुण्ड , १०१० (३) वल्लभसेन . १०१० ॥ १०१० , ॥ १०२२ भीमदेव (प्रथम) ॥ १०७१ (६) करण १०७२ ॥ १०६४ सिद्धराज १०६४ , ११४३ (८) कुमारपाल ११४३ , ११७४ (8) अजयपाल " ११७४ , ११७७ (१०) मूलराज (दूसरा) , ११७७ ॥ ११७६ (११) भीमदेव (दूसरा) , " ११७६ ॥ १२४१ ॥ (१२) त्रिभुवनपाल " १२४१ ॥ १२४१ ॥ उक्त वंशावली में राजा दुर्लभसेन जिसको खरतरगच्छीय लेखकों ने दुर्लभराज लिखा है, इसका राजत्वकाल इ० १०१० से १०२२ तक रहा था, ____ 2010_05 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३४६ - इस इसवी सन् को अगर हम विक्रम सं० बना लें तो भी १०७६ के पहले ही दुर्लभसेन का समय पूरा हो जाता है, इस परिस्थिति में दुर्लभराज के द्वारा जिनेश्वर सूरिजी को १०८० में खरतर विरुद प्राप्त होने की बात प्रमारिणत नहीं होती। हम इतना मान लेते हैं कि जिनेश्वरसूरि का पाटन के किसी चौलुक्य राजा को राजसभा मे चैत्यवासियों के साथ चर्चा-विवाद होकर साधुओं का वसति-निवास प्रमाणित हुना था। तथापि इस घटना से उन्हें "खरतर" विरद मिलने का कथन कल्पना मात्र ही ठहरता है, इस सम्बन्ध में प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरि निर्मित "गणधर सार्द्धशतक' को हमने ध्यान पूर्वक पढ़ा है। जिनदत्त सूरिजी ने अपने इस ग्रन्थ में "खरतर विरुद" मिलने का कोई सूचन नहीं किया, विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में निर्मित सुमतिगरिण की "गणधर सार्द्धशतक की बृहद्वृत्ति" को भी हमने अच्छी तरह पढ़ा है । उसमें प्राचार्य जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, बुद्धि सागर, जिनचन्द्रसूरि और जिनवल्लभसूरि तथा ग्रन्थकर्ता श्री जिनदत्तसूरि के सविस्तर चरित्र दिए गए हैं, चैत्यवासियों के साथ वसतिवास के सम्बन्ध में चर्चा होने की बात सूचित की है, परन्तु किसी भी राजा द्वारा जिनेश्वरसूरि को कोई विरुद मिलने की बात नहीं, ऐसी कोई घटना बनी होती तो जिनदत्तसूरजी "सार्द्धशतक" के मूल में ही उसका सूचन कर देते पर ऐसा कुछ नहीं किया, न प्राचीन वृत्तिकार श्री सुमतिगणिजी ने ही "खरतर विरुद" की चर्चा की है. इससे निश्चित होता है कि राजा द्वारा "खरतर विरुद" प्राप्त होने की बात पिछले सावली लेखकों की गढ़ी हुई बुनियाद है। श्री जिनेश्वर सूरि की परम्परा के कई विद्वान् साधुनों ने संस्कृत तथा प्राकृत भाषा में ग्रन्थों का निर्माण किया है और उनके अन्त में अपनी गुरुपरम्परा की प्रशस्तियां भी दी हैं, जिनमें "चन्द्र कुल' का निर्देश मात्र मिलता है, कहीं भी "खरतर" शब्द का प्रयोग नहीं मिलता, जहां तक हमें ज्ञात हुआ है, "खरतर" शब्द श्री जिनदत्तसूरिजो के लिए प्रयुक्त हुआ है और वह भी इनके विरोधी साधुनों की तरफ से, जिनदत्तसूरि की प्रकृत्ति कितनी कठोर भाषी थी, यह बात इनके ग्रन्यों के पढ़ने से जानी जातो है। 2010_05 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ] [ पट्टावलो-पराग - श्रो जिनबल्लभ गणि की पीठ थपेड़ कर उन्हें पाटन में संघ बाहर करवाया और जिनदत्तसूरि को भी उकसा कर जिलेश्वरसुरिजी के शिष्य-मंडल ने उन्हें पाटन से मारवाड़ की तरफ विहार करवाया, जिनवल्लभ गरिण ने पाटन से मेवाड़ की तरफ विहार करने के बाद, अपनो वाणी की उग्रता पर कुछ अंकुश डाल दिया था, जो उनके बाद के बने हुए "कुलकों" पर से जाना जाता है, परन्तु जिनदत्तसूरि की उग्रता अन्त तक बनी रही, ऐसा "चर्चरी," "उपदेशरसायनरास,” "कालस्वरूप कुलक” तथा “गणधर सार्द्धशतक उत्तरार्ध को ७५ गाथाए" पढ़ने से जाना जाता है । अनेक विद्वानों का कहना है कि "जिनवल्लभ के निरंकुश भाषणों से पाटण गुजरात में उन्हें संघ से बहिष्कृत होकर गुजरात छोड़ना पड़ा था,"-इस कथन में सत्यांश अवश्य है, अपने "संघरट्टक" में जिनवल्लभ गरिण ने तत्कालीन जैन संघ पर जो वचन-प्रहार किये हैं. वे इनके सघबहिष्कृत होने के बाद के वचन हैं, बाकी उन्होंने चैत्यवासियों की कतिपय अयोग्य प्रवृत्तियों का और उनके शिथिलाचार का खण्डन अवश्य किया है । "विधिचैत्यादि" कतिपय बातें जिनवल्लभ गरिण पर थोपी जाती हैं, परन्तु वास्तव में ये अधिकांश बातें "जिनदत्तसूरिजी' इनके बाद के प्राचार्य "जिनपतिसूरिजी' तथा "तरुणप्रभसूरिजी" प्रादि की चलाई हुई हैं, वास्तव में जिनवल्लभ गरिण के समय में इन बातों की चर्चा तक नहीं चली थी। जिनवल्लभ गणि विद्वान् थे, और जिनेश्वरसूरि के कतिपय शिष्यों के उकसाने से वे चैत्यवासियों के खण्डन में अगुअां बने थे, परन्तु जब पाटण का पूरा संघ उनके विरुद्ध हुआ और संघ बाहर का प्रस्ताव पास किया, तब से उन्हें अकेला मारवाड़, मेवाड़ की तरफ फिरना पड़ा, उकसाने वाले तो क्या, उनका गुरुभाई जिनशेखर तक संघ बाहर होने के भय से साथ में नहीं गया , प्राचार्य देवभद्र आदि कतिपय साधुनों को जिनवल्लभ गणि की तरफ पूरी सहानुभूति थी और इस सहानुभूति को चरितार्थ करने के लिए जिनवल्लभगणिजी को प्राचार्य-पद तक देना चाहते थे, परन्तु पाटण में जो इनके संघ बाहर का प्रस्ताव हुअा था, उसके साथ यह भी प्रकट कर दिया था कि जो कोई जिनवल्लभ गरिण के साथ सम्बन्ध रखेगा उसे भी संघ बाहर समझा जायगा, इस संघ बाहर के हथियार से डरकर वर्षों तक आचार्य देवभद्र और उनकी 2010_05 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५१ पार्टी जिनवल्लभ के भाव तक नहीं पूछ सकी, परन्तु जिनवल्लभ गणि ने पाटण में चैत्यवासियों के सामने जो विरोध की नींव डाली थी, वह धोरेधीरे मजबूत होती गई । आचार्य चन्द्रप्रभ तथा प्राचार्य प्रार्यरक्षित मादि ने जिनवल्लभ की नींव पर तो नहीं, पर अपनी नयी विरोधी भित्तियों पर चंत्यवासियों के सामने ही नहीं, सारे जैन संघ के सामने अपने नये विरोध खड़े किये । प्राचार्य चन्द्रप्रभ ने प्राथमिक रूप में साधु द्वारा जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा करने का विरोध किया और धीरे-धीरे उनके अनुयायियों ने पूर्णिमा का पाक्षिक प्रतिक्रमरण और भाद्रपद शुक्ल ५ को सांवत्सरिक प्रतिक्रमण करने का प्रारंभ किया। "महानिशीथ सूत्र" के आधार पर पहले जो "उपधान" करवाया जाता था, उस प्रवृत्ति का भी त्याग किया। आर्य रक्षितसरि, जो अचलगच्छ-प्रवर्तक माने जाते हैं, उन्होंने तो चन्द्रप्रभ से भी दो कदम आगे रवखे, प्रचलित धार्मिक क्रिया-काण्ड जो 'कसी न किसी सूत्र मथवा उसकी पंचांगी का आधार रखता था, उसे छोड़कर शेष सभी परम्परागत प्रवृत्तयों का त्याग कर दिया, यहां तक कि "सूत्र की पंचांगी द्वारा प्रतिपादित नहीं है," यह कह कर श्राद्धप्रतिक्रमणादि अनेक बातों का उन्होंने त्याग किया, इस विरोध तथा नये गच्छों की उत्पत्ति का परिणाम यह हुआ कि पाटण का सघ-बंधारण जो सैकड़ों वर्षों से अक्षुण्ण चला आ रहा था, छिन्न-भिन्न हो गया। संघ बंधारण के विनाशक समय में जिनवल्लभ गरिण से सहानुभूति रखने वाले प्राचार्य देवभद्र के ग्रुप की भी हिम्मत बढ़ी, उन्होंने गुजरात से मारवाड़ होकर चित्रकूट की तरफ विहार किया और विक्रम सं० ११६७ के प्राषाढ़ शुक्ला ६ के दिन जिनवल्लभ गणि को प्राचार्य बनाकर अभयदेवसूरि के पट्ट पर बिठाया। जिनवल्लभ गरिण को प्राचार्य बनाकर देवभद्रसरि ने अभयदेवसूरि का पट्टधर होने की उद्घोषणा की, इसका कारण बताते हुए देवभद्र ने कहाप्राचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने प्रसन्न चन्द्राचार्य को एकान्त में सूचना की थी कि समय पाकर जिनवल्लभ को मेरा पट्टवर बना देना परन्तु प्रसन्नचन्द्राचार्य को अपने जीवन काल में ऐसा समय नहीं मिला कि वे जिनवल्लभ ___ 2010_05 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ ] [ पट्टावली-पराग को प्राचार्य पद देते, अन्तिम समय में प्रसन्नचन्द्राचार्य ने मुझे एकान्त में सूचित किया था, कि मुझे गुरु-महाराज की प्राज्ञा का पालन करने का मौका नहीं मिला, परन्तु तुम तो जिनवल्लभ को आचार्य बनाकर गुरुमहाराज की आज्ञा का पालन कर ही देना।" उपर्युक्त बातों में सत्यता व हां तक होगी यह कहना तो असंभव है, परन्तु इतना तो निश्चित है कि जिनवल्लभ को अभयदेवसूरि का पट्टधर बनाने सम्बन्धी बात में वास्तविकता से कृत्रिमता अधिक होने का सभव प्रतीत होता है, इसके अनेक कारण हैं, प्रथम तो यह कि 'खरतरगच्छ' के किसी भी पट्टावलीकार ने श्री अभयदेवसूरिजो के स्वर्गवास का समय तक नहीं लिखा, उनके अनुयायो होने का दावा करने वालों के पास अपने पूर्वज प्राचार्य के स्वर्गवास का समय तक न हो यह क्या बताता है ? अभयदेवसूरिजो सूत्रों के टीकाकार थे, इस कारण से अन्यान्य गच्छ को पट्टावलियों में उनके स्वर्गवास का समय संगृहीत हैं, कोई उन्हें विक्रम सं० ११३५ में स्वर्गवासी हुआ मानते हैं तो दूसरे इन्हें संवत् ११३६ में परलोकवासी हुमा मानते हैं, पर आश्चर्य की बात तो यह है कि उक्त दोनों संवत् अन्यगच्छीय पट्टावलियों में मिलते हैं, खरतरगच्छ की किसी भी प्राचीन पट्टावली में नहीं। हमारी देखो हुई और पढ़ी हुई कोई १५ खरतरगच्छोय पट्टावलियों में से केवल एक पट्टावली में है - जिसकी कि समालोचना हो रही है। इस भाषा की पट्टावलो में अभय देवमूरि के स्वर्गवास के विषय में निम्नलिखित शब्द दृष्टि-गोचर होते हैं - 'श्रो जिनवल्लभवाचकई प्रतिष्ठ्यउ मरोटिमांहे नेमिनायरउं देहरउ, तिहाथको विहार करी गुजराती श्री अभयदेवतरि कन्हई प्रावी वांदी काउं मुनइ सिद्धांत भरणावामो, तिवारई गुरे काउं, तप विण वो सिद्धान्त भरिणवा नहीं, कितराएक दिन अभयदेवसूरि कन्नइ रहि पछइ गुरु अभयदेव कहई हुतो भरणावऊं जउं गुर कन्नहा जई अनुमति मांगी कागल लिखाबी ल्यावइ तो, अम्हारो उपसम्पदा ल्यइ तो, गुरु कन्नहई जई घणो अाग्रह मांडी अनुमति लई कागल लिखावी अभयदेवसरि कन्हइ अाधा, अभयदेवसूरि उपसम्पदा देइ तप विहरावी, सिद्धान्त भरणाया, महापंडित पाट जोग्य महासंवेगी देवभद्राचार्य नई काउं माहरउ ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५३ पाट एह जिनकलभनु देज्यो, इसमो कहई संबत् ११ पंचावन अभयदेवसूरि गुरु देवलोकि बहुता, भवत्रि जइ मोक्ष जासी ॥" पट्टावली के उपर्युक्त फिकरे की अनेक बातें "गणधर सार्धशतक" की बातों से विरुद्ध जाती हैं, इसलिए ऐसी कल्पित पट्टावली के आधार से अभयदेवसूरि का सत्तासमय निर्णीत करना धोखे से खाली नहीं, अभयदेवसूरिजी ने नवांग सूत्रों की वृत्तियां तो बनाई ही हैं और अधिकांश वृत्तियों के अन्त में उनके निर्माण समय का भी पारने निर्देश किया है, "पंचाशक" आदि प्राचीन प्रकरणों पर भी आपने वृत्तियां लिखी हैं, परन्तु आज तक हमने अभयदेवमूरिजी की किसी भी वृत्ति या टीका की प्रशस्ति विक्रम संवत् ११२८ के बाद की नहीं देखी। वृद्धावस्था या शारीरिक अस्वस्थता के कारण साहित्यनिर्माण के कामों के लिए आप अशक्त हो चुके थे, उसके वाद छः सात अगर दस ग्यारह वर्ष तक जीवित रहकर स्वर्ग प्राप्त हुए हों तो अश्चर्य की बात नहीं है, वृद्धपौषधशालिक पट्टावली आदि में इनका स्वर्गवास सं० ११३५ या ११३६ में होना लिखा है, वह ठीक प्रतीत होता है। जिनेश्वरसूरि के समय की प्रस्तुत पट्ट वली में जिनदत्तसूरिजी के सम्बन्ध में अनेकानेक चमत्कार की अद्भुत बातें मिलती हैं, जिनकी सुमतिगरिग की 'सार्द्धशतक की बड़ी टीका' में सूचना तक नहीं है, प्राचार्यश्री जिनदत्तसूरिजी की अनेक कृतियां मैंने पढ़ी हैं, उनमें जोश है, लगन है, अपने कार्य का दृढ अाग्रह है, ये सभी बातें आपकी धार्मिक-संशोधक वृत्ति की परिचायक हैं, परन्तु दुःख के माथ कहना पड़ता है कि पिछले भक्तों ने आपको एक चामत्कारिक जादूगर आचार्य बनाकर आपके वास्तविक जीवन को ढांकसा दिया है । भले ही अनपढ़ और अन्वश्रद्धालु भक्त लोग इन बातों से आपको महान् मानें परन्तु समझदार विचारकों के मत से तो इस प्रकार की बातें महापुरुषों के वास्तविक जीवन को अतिशयोक्तियों के स्तरों में अन्तहित कर देती हैं। 2010_05 Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] [ पट्टावली-पराग - (२) पट्टावली नम्बर २३२७ : यह पट्टावली वास्तव में "गणधर-सार्द्ध शतक" की लघु टीका है, यह लघुवृत्ति ४३ पत्रात्मक है, इसके निर्माता वाचक सर्व राजगरिण हैं कि जिनका सत्तासमय विक्रम की १५ वीं शताब्दी है, वृत्तिकार ने वृत्ति के उपोद्घात में आचार्य जिनदत्तसूरिजी को अनेक प्रकार के ऐसे विशेषण दिए हैं, जो पिछले लेखकों ने इनके जीवन के साथ जोड़ दिये हैं, जैसे - "भूतप्रेतनिरसन, योगिनीचक्रप्रतिवोधक, कुनार्गनिरसन, प्रतिवादिसिंहनादविधान श्री त्रिभुवनगिरिदे :नियमित, पंचसप्रयतिवारण, श्री पाश्वनाथ (नव) फरण धारण, वामावतीरात्रिकस्थापन, निरन्तरागच्छद्गच्छयान, सुरासुरविर. चितांतिसेवन, इत्यादि विशेषणों में अधिकांश विशेषण ऐसे हैं, जो बृहद्वृत्ति में नहीं हैं, इससे यह प्रमाणित होता है कि या तो यह लघुवृत्ति बृहवृत्ति का अनुसरण करने वाली नहीं है, यदि यह शब्दशः बृहद्वृत्ति का अनुसरण करती है तो इसके उपोद्घात को किसी अर्वाचीन विद्वान् ने विगाड़कर वर्तमानरूप दे दिया है, इस प्रकार की प्रवृत्तियां खरतरगच्छ की पट्टावलियों में होना अस्वाभाविक नहीं, कुछ वर्षों पहले इसी लघुवृत्ति को हमने मुद्रित अवस्था में पढ़ा था, जिसमें यह छपा हुआ था कि "प्रणहिल पाटण के राजा दुर्लभराज ने श्री जिनेश्वरसूरिजी को चैत्यवासियों को जीतने के उपलक्ष्य में 'खरतर'' विरुद प्रदान किया था, वही लघुवृत्ति हमारे पास हस्तलिखित है और इसके कर्ता भी वाचक सर्वराज गणि हैं, परन्तु इस लघुवृत्ति की हस्तलिखित वृत्ति में "खरतर विरुद" देने की बात कहीं नहीं मिलती और न उपोद्घात छोड़कर जिनदत्तसूरि के जीवन में किसो चमस्कार की बात का ही उल्लेख मिलता है । अाज तक हमने खरतरगच्छ से सम्बन्ध रखने वाले सकड़ों शिलालेखों तथा मूर्तिलेखों को पढ़ा है, परन्तु ऐसा एक भी लेख दृष्टिगोचर नहीं हुअा, जो विक्रम की १४ वीं शती के पूर्व का हो और उसमें "खरतर" अथवा "खरतरगच्छ” नाम उत्कीर्ण हो, इससे जना जाता है कि "खरतर" यह "शब्द" पहले गच्छ के अर्थ में प्रयुक्त नहीं होता था। "जिनदत्तरि" के कठोर भाषी स्वभाव के कारण उनके विरोधी जिनदत्त सूरि के लिए "खरतर" यह शब्द प्रयोग में लाते थे, तब 2010_05 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५५ जिनदत्तसूरि और इनके अनुयायो विरोधियों को "कोमल' इस नाम से सम्बोधित करते थे, पागे जाते गच्छ वाले किसी न किसी गच्छ के नाम से अपनी परम्परा को प्रसिद्ध करने लगे, तब जिनात्तसूरि तथा जिनकुशलसूरि के अनुयायियों ने भी अपने नाम के साथ 'खरतर" शब्द का :'गच्छ' के अर्थ में प्रयोग करना प्रारम्भ किया और पन्द्रहवीं शती के प्रारम्भ तक उसका पर्याप्त प्रचार हो गया। __ "सार्द्धशतक' की लघुवृत्त में जिनेश्वर सूरि का चैत्यवासियों के साथ विवाद होने का विवरण दिया गया है, किन्तु दुर्लभराज द्वारा खरतर विरुद प्राप्त होने का सूचन तक नहीं दिया गया, इससे प्रमाणित होता है कि वाचक सर्वराज गणि के समय तक "खरतरगच्छ'' यह नाम गच्छ के अर्थ में प्रचलित नहीं हरा था। लघुव त्त के सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण देने के बाद अब हम "गणधर सार्द्धशतक' के निरू.एग के सम्बन्ध में विचार करेंगे। "गणधर सार्द्धशतक'' नाम के अनुसार १५० गाथाओं का एक प्राकृतभाषामय प्रकरण है। इसके कर्ता प्राचार्य श्री जिनदत्तसूरिजी हैं। आपने यह प्रकरण प्राचार्य पद प्राप्त होने के बाद तुरन्त बनाया मालूम होता है। यही कारण है कि प्रकरण के अन्त में "जिनदत्त' और "सोमचन्द्र'' इन दोनों नामों का निर्देश किया है। कुछ भी हो, परन्तु इतना तो निश्चित है कि यह 'सार्द्धशतक' आपने पूर्वाचार्यो की स्तुति के रूप में निर्मित किया है न कि परम्पराप्रतिपादन के भाव से । यही कारण है कि इसमें परम्परा का हिसाब न रख कर सभी प्रसिद्ध श्रुतधरों को स्तुति की है, जिसका सक्षिप्त सार नीचे दिया जाता है : प्रारम्भ में ऋषभदेव तीर्थङ्कर के प्रथम गणधर ऋषभसेन से लगा कर अजितादि चौबोस तीर्थङ्करों के गणधरों की स्मृति में ५ गाथाएं लिखी हैं, फिर दो गाथाओं में महावीर के पंचम गणधर सुधर्मा की स्तुति की है । सुधर्मा के बाद जम्बू स्वामी, प्रभवस्वामी, शय्यम्भवसूर, यशोभद्रसूरि, सम्भूतविजयसूरि और भद्रबाहु स्वामी की क्रमशः सात गाथानों में स्तवना 2010_05 Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग की है, फिर प्रार्य स्थूलभद्र की प्रशंसा की पांच गाथाएं लिखी हैं और उनके शिष्यद्वय आर्य महागिरि तथा सुहस्तीसूरि को दो गाथाओं में याद कर आर्य समुद्र, आर्य मंगु और आर्य धर्म नामक तीन युगप्रधानों को एक गाथा से नमस्कार किया है, फिर एक गाथा से युगप्रधान श्री भद्रगुप्त को वन्दन करके साढ़े चौदह गाथाओं में वज्रस्वामी का वृत्तान्त लिखा है और इसके बाद अक्रमप्राप्त युगप्रधान श्री आर्य रक्षितजी की दश (१०) गाथानों में स्तवना की है। इसके उपरान्त दो गाथाओं से सामान्य युगप्रधानों का शरण स्वीकार करके दो गाथाओं से श्री उमास्वाति वाचक को वन्दन कर पाठ गाथाओं में याकिनी महत्तरा धर्मपुत्र श्री हरिभद्रसूरि की प्रशंसा की है । हरिभद्र के सम्बन्ध में उस समय तक दन्तकथा प्रचलित थी कि वे चैत्यवासी आचार्यों द्वारा दीक्षित और शिक्षित हुए थे। इस दन्तकथा का आपने निम्नलिखित गाथा से खण्डन किया है- वह गाथा यह है - "जंपइ केई समनाम - भोलिया भोलियाई जंपंति । चीवासी दिक्खिनो सिक्खिनो य गोयाण तं न मयं ॥" उपर्युक्त गाथा में प्राचार्य कहते हैं - नामसाम्य की भ्रान्ति में पड़ कर कई भोले विद्वान् असत्य कहते हैं कि हरिभद्रसूरि चैत्यवासियों में दीक्षित हुए थे और उन्हीं के पास शिक्षित हुए थे, परन्तु यह कथन गीतार्थसम्मत नहीं है। हरिभद्रसूरि के सम्बन्ध में प्राचार्य जिनदत्तसूरिजी कहते हैं- हरिभद्रसूरि जिनभटसूरि के शिष्य थे और युगप्रधान जिनदत्तप्रभु के पास सूत्रार्थ का अनुयोग लेने वाले थे। ग्रन्थकार के उक्त कथन से हमारा मतभेद है, क्योंकि माचार्य हरिभद्रसूरिजी स्वयं अपने आपको जिनदत्तसूरि का शिष्य और जिनभटसूरि का प्राज्ञाकारी लिखते हैं, इसका तात्पर्य यह हो सकता है कि हरिभद्रसूरि के दीक्षा-गुरु जिनदत्तसूरि थे और वे जिनभटसूरि को माज्ञा में रहते थे। यहां पर लघुवृत्तिकार ने हरिभद्रसूरिजी को चतुर्दशशत प्रकरणकार लिखा है और उनके प्रकरणों तथा कतिपय टीकाग्रन्थों का नामनिर्देश किया है, जो इस प्रकार है - ____ 2010_05 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५७ ____ "पंचवस्तुक, उपदेशपद, पंचाशक अष्टक, षोडशक, लोकतत्त्वनिर्णय, धर्मबिन्दु, लोकबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, दर्शनसप्ततिका, नानाचित्रक, बृहन्मिथ्यात्वमथन, पंचसूत्रक, संस्कृतात्मानुशासन, संस्कृत चैत्यवन्दमभाष्य, अनेकान्तजयपताका, अनेकान्तवादप्रवेशक, परलोक सिद्धि, धर्मलाभसिद्धि, शास्त्रवार्तासमुच्चय, प्रावश्यकवृत्ति, दशवकालिक बृहद्वृत्ति, दशवकालिक लघुवृत्ति, पिण्डनियुक्तिवृत्ति, जीवाभिगमवृत्ति, प्रज्ञापनोपाङ्गवृत्ति, पंचवस्तुकवृत्ति, क्षेत्रसमासवृत्ति, शास्त्रवातासमुच्चयवृत्ति, अर्हशीचूडामणि, समरादित्य चरित्र, यथाकोश ।" प्राचार्य हरिभद्रसूरि के बाद सार्द्धशतककार ने प्राचारांग टीकाकार श्री शीलाङ्काचार्य की प्रशंसा करने के उपरान्त सामान्य युगप्रधान गणधरों को प्रणाम किया है, उसके बाद देवाचार्य, नेमिचन्द्र और उद्योतनसूरि गुरु के पारतन्त्र्यगमन का निर्देश किया है, फिर श्री वर्धमानसूरि के चैत्यवास त्यागने और वसतिवास ग्रहण करने की बात कही है। इसके बाद १३ गाथाओं में वसतिवास के उद्धारक युगप्रधान श्री जिनेश्वरसूरिजी की प्रशंसा की है। जिनेश्वरसूरिजी को वर्धमानसूरिजी का शिष्य लिखा है, प्रणहिलवाड में चैत्यवासियों के साथ शास्त्रार्थ करने के सम्बन्ध का तीन गाथाओं में निम्न प्रकार से वर्णन किया है - "प्रणहिल्लवाडए नाडइव्व दंसिअसुपत्तसंदोहे । पउरपए बहुकविदूसगेये नायगाणुगए ॥६५॥ सड्डियदुल्लहराए, सरसइअंकोवसोहिए सुहए । मज्झे रायसहं पविसिऊरण लोयागमाणुमयं ॥६६॥ नामायरिएहि समं, करिय वियारं वियाररहिएहि । वसहिनिवासो साहूरणं, ठावित्रो ठाविप्रो अप्पा ॥६७॥" अर्थात् - अरण हिल्ल पाटक (पाटण, नगर में श्रद्धावान् श्री दुर्लभराज को सभा में नामाचार्यों (चैत्यवासियों) के साथ विचार करके श्री जिनेश्वरसूरिजी ने साधुनों के लिए वसतिवास को प्रतिष्ठित किया। 2010_05 Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ । [ पट्टवलो-पराग ___ उपर्युक्त तीन गाथानों में सार्द्धशतककार श्री जिनदत्तसूरिजी ने चैत्य वासियों के साथ जिनेश्वरसूरिजी का शास्त्रार्थ होने और वसतिवास का प्रमाणित होना बड़ी खूबी के साथ बताया है, परन्तु राजा की तरफ से जिनेश्वरसूरिजी को "खरतर विरुद" मिलने का सूचन तक नहीं है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जिनदत्तसूरिजी के "गणधर साद्धं शतक" का निर्माण हुमा तब तक "खरतर" नाम व्यवहार में पाया नहीं था, अन्यथा जिनदत्तसूरिजी इसकी सूचना किये विना नहीं रहते। हरिभद्रसूरिजी के सम्बन्ध में उनके चैत्यवासी होने की दन्तकथा का खण्डन करने के लिए आप तैयार हो गए हैं तो जिनेश्वरसूरि को राजसभा में "खरतर विरुद" मिलने की वे चर्चा न करें, यह बात मानने काबिल नहीं है। जिनेश्वर सूरिजी के बाद “सार्द्धशतक" में श्री जिन चन्द्रसूरिजी का नम्वर आता है, जिनचन्द्रसूरि द्वारा अठारह हजार श्लोकी परिमारण "संवेगरंगशाला" कथा बनाने का निर्देश किया है, फिर अभयदेवसूरि का वर्णन दिया है और जिनवल्लभ गरिण के आने, अभयदेवसूरि के पास सिद्धान्त पढ़ने और अपने पूर्व गुरु जिनेश्वराचार्य से मिलकर फिर अभयदेवसूरि के पास पाकर उनसे उपसम्पदा लेने की बात कही है। प्राचार्य श्री अभयदेवसूरिजी ने अपने पट्ट पर श्री वर्धमानसरि को बैठ ने की बात भी लघुवृत्तिकार ने लिखी है, बाको जिनदत्तसूरिजी ने "सार्द्धशतक'' में अपने परिचित और उपकारक प्राचार्यों, उपाध्यायों की प्रशंसा करके :"सार्द्धशतक" की १०० गाथाएं पूरी की हैं - इसके बाद की ५० गाथाएं लेखक ने अपने अनुयायियों की चैत्यवासियों से रक्षा करने तथा चैत्यवासियों के खण्डन में पूरी की हैं । हमने "गणधर साद्धं शतक" को खरतर पट्टावली का नाम इसलिए दिया है कि इसका लगभग प्राधा भाग खरतर-गच्छ के मान्य पुरुषों की १ "गणधर सार्द्धशतक" टीकाकार श्री सर्वराजगरिण ने "संवेगरंगशाला" का श्लोक परिमाण अठारह हजार लिखा है जो ठीक नहीं जान पड़ता। "संवेगरंगशाला" का श्लोक-परिमाण १० हजार ७५ श्लोक है । 2010_05 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३५९ प्रशंसा में पूरा हुआ है। वास्तव में इसको पट्टावली कहने के बजाय "गणधर-स्तुति” कहना अधिक उपयुक्त है। (३) पट्टावली नम्बर २३२८ : उपर्युक्त पट्टावली संस्कृत भाषा में ६ पत्रात्मक हैं, इसके कर्ता समयसुन्दर गरिण हैं, लेखक का मंगलाचरण निम्न प्रकार से है - "गोतमादिगुरुन्नत्वाः गरिणः समय सुन्दरः । वक्ति गुर्वावलो-ग्रन्थं गच्छे खरतराभिधे ॥१॥ इसके बाद गरिण समयसुन्दरजी ने भगवान महावीर के प्रथम शिष्य गौतम स्वामी और प्रथम गणधर सुधर्मास्वामी का समय लिखा है, उनके समय की थोड़ी-थोड़ी जानकारी भी लिखी है, सुधर्म के बाद जम्बू, प्रभव, शयम्भवसूरि, यशोभद्रसूरि, प्राचार्यां संभूतविजय, आर्य भद्रबाहु के नाम तया इनके समय का परिचय दिया है । भद्रबाहु के पट्टधर स्थूलभद्र, स्थूलभद्र के बाद पट्टावली में आर्य संभूतहस्तिसूरि नाम लिखा है, जो यथार्थ नहीं, आर्य सुहस्तीसूरि चाहिए, आर्य सुहस्ती के बाद श्री सुस्थितसूरि, उसके बाद इन्द्रदिन्नसूरि, इन्द्रदिन के बाद श्री दिन्नसूरि और श्री दिन के बाद सिंहगिरिजी का नाम उल्लिखित है। यहां पर महावीर निर्वाण से ५०० वर्ष के बाद श्री वज्रस्वाम का जन्म बताया है । वज्रस्वामी के चार शिष्यों से नागेन्द्र, चन्द्र, निति, विद्याधर नामक चार शाखाओं का निकलना लिखा है, वीर निर्वाण के बाद ५४४ में "जटाधर मत?" निकलने का उल्लेख किया है, वीर निर्वाण से ६६६ में दिगम्बर मत निकलने का लिखा है जो ठीक नहीं। दिगम्बर मत ६०६ में निकला था। श्री वज्रस्वामी के पट्ट पर प्राचार्य वज्रसेन बैठे थे, यह १५ पट्टों का अनुक्रम कल्पसूत्र के अनुसार है, इसके बाद श्री चन्द्रसूरि १, रोहगुप्त की त्रैराशिक प्ररूपणा के परिणाम स्वरूप वैशेषिक दर्शन की उत्पत्ति हुई थी, उसी वैशेषिक दर्शन के संन्यासियों को यहां जटाधर कहा है । ___ 2010_05 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० । [पट्टावली-पराग - १६, समन्तभद्रसूरि १७, वृद्धदेवसूरि १८, प्रद्योतनसूरि १६, श्री मानदेवसूरि २०, श्री देवेन्द्रसूरि २१, श्री मानतुंगसूरि २२, श्री वीरसूरि २३, श्री जयदेवसूरि २४, श्री देवानन्दसूरि २५, श्री विक्रमसूरि २६, श्री नरसिंहसूरि २७, श्री समुद्रसूरि २८, श्री मानदेवसरि २६, श्री विबुधप्रभसूरि ३०, श्री जयानन्दसूरि ३१, श्री रविप्रभसरि ३२, श्री यशोभद्रसूरि ३३, श्री जिनभद्रसूरि ३४, श्री हरिभद्रसूरि ३५, श्री देवसूरि ३६, श्री नेमिचन्द्रसूरि ३७, सुविहित चूडामणि उद्योतनसूरि ३८, श्री उद्योतनसूरि के पट्ट पर वर्धमानसूरि ३६ हुए, श्री वर्धमानसूरि के पट्ट पर श्री जिनेश्वरसूरि जिन्होंने प्रणहिल पत्तन में दुर्लभराज-सभा में सं० १०८० में "खरतर" विरुद प्राप्त किया, जिनेश्वरसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए जिन्होंने “संवेगरंगशाला" ग्रन्थ बनाया और मोजदीन पिञ्जर को दिल्ली के राज्य का भविष्य कथन किया था जो सही उतरा। श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर अभयदेवसूरि हुए, ब्याख्यान में षड्रसों का पोषण करने से गुरु ने प्रार्याश्चत्त के रूप में छः महीने तक माचामाम्ल करने का दण्ड दिया, जिससे उनके शरीर में कुष्ठ रोग की उत्पत्ति हुई, स्तम्भनक पार्श्वनाथ मूर्ति प्रकटन, नवांगी वृत्तिकरणादि सम्बन्ध स्वयं लमझ लेने चाहिए, अन्त में कपड़वंज नगर में अनशन द्वारा शरीर छोड़कर चौथे देवलोक गए। श्री अभयदेवसूरि के पट्ट पर जिनवल्लभसूरिजी हुए जो पूर्वावस्था में कूर्चपुरीय जिनेश्वरसूरिजी के शिष्य थे, बाद श्री अभयदेवसूरिजी के पास उपसम्पदा लेकर उनके शिष्य हुए । प्राचार्य अभयदेवसूरिजी जिनवल्लभ को अपना पट्टधर बनाना चाहते थे, परन्तु परगच्छीय को कैसे पट्ट दिया, इस प्रकार के लोकापवाद से डरते हुए वे उसे पट्ट नहीं दे सके और अपने शिष्य प्रसन्नचन्द्राचार्य को पट्ट देने का कह गए। प्रसन्नचन्द्राचार्य ने देवभद्राचार्य को जिनवल्लभ को पट्टधर बनाने की सूचना को, उसके बाद बारह वर्ष तक देवभद्राचार्य ने गच्छ का भार ____ 2010_05 Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] चलाया, फिर सं० ११६७ के वर्ष में प्राचार्य देवभद्र ने श्री जिनवल्लभ गणि को अभयदेवसूरि के पट्ट पर स्थापित किया, परन्तु छः मास के बाद जिनवल्लभसूरि वहीं पर देवगत हुए। इस समय में खरतरगच्छ में 'मधुकरा शाखा' निकली। श्री जिनवल्लभसरि के पट्ट पर श्री जिनदत्त हुए, जिनदत्त का पूर्व नाम सोमचन्द्र था और वे "जयदेव१ उपाध्याय' के शिष्य थे तथा धन्धूका में इनका जन्म और धन्धूका में हो सं. ११४१ में दीक्षा हुई थी। संवद् ११६६ में वैशाख वदि ६ के दिन श्री देवभद्राचार्य के द्वारा ये चित्तौड़ में जिनवल्लभसूरि के पद पर प्रतिष्ठित हुए। श्री जिनवल्लभसूरि द्वारा समुदाय से निष्कासित किसी साधु को फिर गच्छ में लेने के अपराध में १३ प्राचार्यों ने मिलकर श्री जिनदत्तसूरि को अपने गच्छ से बहिष्कृत कर दिया । जिनदत्तसूरि तीन वर्ष के लिए वहां से चले गए थे। उसके बाद पट्टावलीकार ने जिनदत्तसूरि को एक चमत्कारमूर्ति बना दिया है जो उनके जीवन के वास्तविक स्तर को ढांक देता है। जिनदत्तसरिजी ने कुल १५०० साधु और ७०० साध्वियों को दीक्षित किया, ऐसा लिखा हुआ है, परन्तु “चर्चरी" "उपदेशरसायन" और "कालस्वरूप कुलक" आदि इनकी खुद की कृतियों को पढ़ने से परिस्थिति इससे बिल्कुल विपरीत ज्ञात होती है। पट्टावली में जिनदत्तसरि के परकायप्रवेश की बात लिखी है, जो निराधार है। जिनके साथ परकायप्रवेश विद्या का सम्बन्ध है वे जिनदत्तसरि वायट-गच्छीय थे, यह बात प्रभावकचरित्रादि प्राचीन ग्रन्थों से जानी जा सकती है। १. गणधर सार्द्ध शतक की लबुटीका में सर्वराजगरिग ने सोमचन्द्र के गुरु का नाम "धर्भदेव उपाध्याय" और जन्म-स्थान का नाम “धवलक" लिखा है। ___ 2010_05 Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ ] [ पट्टावली-पराग जिनदत्तसरिजी १२११ के श्राषाढ़ सुदि ११ के दिन अनशन करके अजमेर में स्वर्गवासी हुए थे। जिनदत्तसूरि के समय दर्म्यान सं० १२०५ में श्री जिनशेखरसूरि से 'रुद्रपल्लीय खरतरगच्छ " निकला। जिनदत्तसूरिजी के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए जिनचन्द्रसूरि का जन्म ११६७ में, दीक्षा संवत् १२०३ में, पट्ट स्थापना १२०५ में जिनदत्तसूरि द्वारा हुई थी और सं० १२३३ में इनका स्वर्गवास हुमा 1 यहां से प्रत्येक चतुर्थ पट्टधराचार्य का नाम " जिनचन्द्र" देने की पद्धति चली। श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनपतिसूरि हुए, जिन्होंने खरतरगच्छ-सामाचारी स्थापित की । सं० १२७७ में श्री जिनपतिसूरिजी स्वर्गबासी हुए, जिनपति सूरि के पट्ट पर श्री जिनेश्वरसरि बैठे। इनके समय में श्री जिनसिंहसूर से लघु खरतरगच्छ उत्पन्न हुआ, जिनेश्वरसूरि के पट्ट पर जिनप्रबोधसूरि हुए, जिनेश्वरसूरि ने इन्हें प्राचार्य पद दिया था । सं० १३४१ में आप स्वर्गवासी हुए थे। जिनप्रबोधसरि के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि हुए, जिनकी दीक्षा १३३२ में श्री जालोर नगर में हुई थी । संवत् १३४७ में जालोर में ही स्वर्गवासी हुए, श्री जिनचन्द्रसूरि के पद पर श्रीजिनकुशलसूरि हुए, जिनका जन्म संवत् १३३७ में हुआ था । १३४७ में दीक्षा, १३७७ में प्राचार्य पद और १३८६ में आप स्वर्गवासी हुए । जिनकुशलसूरि के पट्ट पर सं० १३६० में श्री जिनपद्मसूरि को श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा आठ वर्ष की उम्र में प्राचार्य - पद दिया गया । सं० १४०० के वैशाख सुदि १४ के दिन किसी के छलने से पाटण में श्रापका स्वर्गवास हुआ, श्री जिनपद्मसूरि के पट्ट पर श्री जिनलब्धिसूरि हुए, आपको भी संवत् १४०० में तरुणप्रभाचार्य ने सूरि-पद दिया, सं० १४१६ के वर्ष में आप स्वर्गवासी हुए, जिनलब्धिसूरि के पट्ट पर श्री जिनोदयसूरि हुए, प्राप भी सं० १४१५ में तरुणप्रभाचार्य द्वारा सूरि-पद पर आरूढ़ हुए, सं० १४३२ में आपने पाटण में स्वर्गवास प्राप्त किया । श्री जिनोदयसूरि के पट्ट पर श्री जिनराजसूरि हुए, जिनराजसूरि को सं० १४३३ में पतन में श्री लोकहितसूरि ने सूरि-पद दिया, जिनराजसूरि ने श्री स्वर्णभाचार्य, श्री भुवन रत्नाचार्य और श्री सागरचन्द्राचार्य को प्राचार्य पद पर स्थापित 2010_05 ू Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] किया और सं० १४६१ में देलवाड़ा में स्वर्गवास प्राप्त किया, श्री जिनराजसूरि के पट्ट पर श्री जिनवर्धनसूरि हुए। जिनवर्धनमूरि - जिनवर्धनसूरि को संवत् १४६१ में सागरचन्द्रसूरि ने प्राचार्य-पद पर स्थापित किया, यहां खरतरगच्छ में एक नया फाट पड़ा। जिनवर्धनसूरि से संवत् १४६१ में “पीपलिया" खरतरगच्छ उत्पन्न हुआ, तब श्री सागरचन्द्रसूरि ने सं० १४७५ के वर्ष में श्री जिनभद्रसूरि को प्राचार्य-पद पर स्थापित किया। जिनभद्रसूरि . ___ जिनप्रभसूरि ने भावप्रभाचार्य, कोतिरत्नसूरि प्रमुख अनेक अचार्य बनाये, स्थान-स्थान पर पुस्तक लिखवाकर भण्डागार स्थापित करवाए, सं० १५१४ में जिनभद्रसूरि ने श्री कुम्भलमेर में स्वर्गवास प्राप्त किया, श्री जिनचन्द्रसरि - श्री जिनभद्रसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसूरि हुए, जो १५१५ में जिनकीतिसूरि द्वारा प्राचार्य बने और धर्मरत्नसूरि, गुणरत्नसूरि मादि को आचार्य-पद पर बिठाया, सं० १५३७ में जिनचन्द्रसूरि का जैसलमेर में स्वर्गवास हुआ। श्री जिनसमुद्रसूरि__ श्री जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनसमुद्रसरि हुए, इनकी दीक्षा सं० १५२१ में और पदस्थापना १५३३ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा हुई, आप सं. १५५५ में अहमदाबाद में परलोकवासी हुए । श्री जिनहंसवरि - __श्री जिनसमुद्रसूरि के पट्ट पर जिनहंससूरि हुए, इनका जन्म संवत् १५२४, दीक्षा सं० १५३५ में पौर आचार्य-पद १५५६ में शान्तिसागर द्वारा हुआ, सं० १५८२ में जिनहंस पाटण में स्वर्गवासी हुए, इनके समय में सं० १५६३ में शान्तिसागर द्वारा "प्राचार्यांय" गच्छ की उत्पत्ति हई । 2010_05 Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ ] [ पट्टावली-पराग श्री जिनमाणिक्यसरि - श्री जिनहंससृरि के पट्ट पर श्री जिनमाणिक्यसूरि हुए, जिनमाणिक्य को श्री जिनहंससरि ने सं० १५८२ में प्राचार्य-पद दिया, स० १६१२ में जिनमाणिक्यसूरि स्वर्गवासी हुए। श्री जिनचन्द्रसूरि युग-प्रधान - श्री जिनमाणिक्यसरि के पट्ट पर जिनचन्द्रसूरि युगप्रधान हुए, इनका जन्म सं० १५६५ में हुआ था और सं० १६१२ में जैसलमेर वेगड़ा भट्टारक श्री गुणप्रभसूरि ने इन्हें प्राचार्य-पद दिया था। जिनचन्द्रसरि ने क्रियोद्धार किया था, इनके प्रथम शिष्य का नाम सकलचन्द्र था, इन्होंने अकबर बादशाह द्वारा आषाढ़ महीने की अष्टाहिका के दिनों में जीवदया का फर्मान निकलवाया था। जिनचन्द्र ने अपना गच्छ जिनसिंहसूरि को सौंप कर सं० १६७० में परलोक प्राप्त किया। श्री जिनसिंहसरि___जिनचन्द्र के पट्ट पर जिनसिंहसूरि हुए, जिनसिंह का जन्म १६१५ में और दीक्षा १६२३ में हुई थी, सं० १६४६ में लाहोर में आपको सूरि-पद प्राप्त हुमा था, सं० १६७० में बिलाड़ा नगर में मि. सु. १० के दिन भट्टारक-पद मिला और सं० १६७४ में मेड़ता में भाप परलोकवासी हुए। श्री जिनसागरसूरि - ___ श्री जिनसिंहसरि के पट्ट पर जिनसागरसूरि हुए, इनकी दीक्षा १६६१ में और भट्टारक-पद १६७४ में मेड़ता में हुआ था। जिनराजसूरि द्वारा सं० १६८६ के वर्ष में किसी दुर्जन ने विषप्रयोग की मिथ्यावार्ता चलाई, जिसके परिणामस्वरूप गच्छ में फूट पड़ी, फिर भी आपकी मान्यता सर्वत्र होती रही, सं० १७२० में प्रापका अहमदाबाद में स्वर्गवास हुमा । श्री जिनधर्मसूरि - जिनसागर के पट्ट पर श्री जिनधर्मसूरि हुए, जिनधर्मसूरि को सं० १७०८ में अहमदाबाद में जिनसागरसूरि ने दीक्षा दी । और सं० १७११ में 2010_05 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] अहमदाबाद में श्री जिनसागरसूरि द्वारा प्राचार्य-पद दिया गया और गुरुमहाराज दिवंगत हो जाने के कारण सां० १७२० में श्री बीकानेर में स्वयं ने भट्टारक-पद प्राप्त किया। सं० १७४७ में लूणकरणसर में आपका देहान्त हुना। श्री जिनचन्द्रसूरि - जिनधर्मसूरि के पट्ट पर श्री जिनचन्द्रसरि हुए, जिनचन्द्र को १७४६ में लूणकरण में भट्टारक-पद प्राप्त हुआ, सं० १७९४ में बीकानेर में जिनचन्द्रसूरि स्वर्गवासी हुए। श्री जिनविजयसरि - जिनचन्द्रसूरि के पट्ट पर जिनविजयसूरि हुए, आपको सं० १७८५ में श्री बीकानेर में जिनचन्द्रसरि ने प्राचार्य-पद दिया, उनकी आज्ञा में श्री संघ प्रवृत्ति कर रहा है। (४) पट्टावली न० २३२६ : यह पट्टावली २६ पत्रात्मक संस्कृत भाषा में लिखी हुई है, इसके लेखक ने इसका नाम पट्टावली न रखकर गुर्वावली रक्खा है, यह पट्टावली विक्रम की उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में प्राचार्य श्री जिनमहेन्द्रसूरि के समय में बनी हुई है, हमारे पास वालो प्रति का लेखनकाल सं० १९१७ है, कहीं-कहीं विस्तृत प्रसंग भी इसमें लिखे गए हैं, फिर भी सामान्य रूप में यह "गुर्वावली" खरतरगच्छीय अन्य पट्टावलियों से मिलती जुलती है, इसके सम्बन्ध में हम विशेष विवरण न देकर पट्टधरों की नामावलियां तथा उनका यथोपलब्ध समय देकर ही इसका अवलोकन पूरा कर देंगे। पट्टावली का मंगलाचरण निम्न प्रकार से है - "प्रणिपत्य जगन्नाथं, वर्धमान जिनेश्वरम् । गुरूणां नामधेयानि, लिख्यन्ते स्वविशुद्धये ॥१॥" 2010_05 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] [ पट्टावली-पराग भगवान महावीर चतुर्थारक के तीन वर्ष और साढ़े आठ मास शेष रहे तब कातिको अमावस्या को मुक्ति प्राप्त हुए। महावीर के पट्ट पर इन्द्रभूति गौतम-बीर निर्वाण से १२ वर्ष के बाद मोक्ष, गौतम स्वामी की परम्परा आगे नहीं बढ़ी इसलिए ये पट्टधरों में नहीं गिने जाते। (१) महावीर के पट्ट पर सुधर्मस्वामी, जिननिर्वाण से २० वर्ष के बाद मुक्ति। (२) जम्बूस्वामी जिननिर्वाण से ६४ वर्ष के बाद मुक्ति प्राप्त हुए। (३) प्रभवस्वामी वीरात् ७५ वर्षे स्वर्ग प्राप्ति । (४) शय्यम्भवसूरि वीरात् ६८ वर्षे स्वर्ग गमन । (५) श्री यशोभद्रसूरि का वीरात् १४८ वर्षे स्वर्ग गमन । (६) संभूतविजय का वीरात् १६५ वर्षे स्वर्गवास । (७) भद्रबाहु स्वामी-वीरात् १७० वर्षे परलोकगमन । (८) स्थूलभद्र स्वामी-वीरात २१६ वर्षे स्वर्गवास । (६) आर्य महागिरि-वीरात् २४६ वर्षे स्वर्गवास । ... (१०) आर्य सुहस्ती-बीरात् २६५ वर्षे स्वर्गवास । (११) सुस्थितसूरि-कोरात् ३४३ वर्ष के बाद स्वर्ग। इन्हीं से हमारा सम्प्रदाय कोटिकगच्छ कहलाया। (१२) श्री इन्द्रदिन्नसूरि, (१३) श्री दिन्नसूरि (१४) श्री सिंहगिरि, इस समय में प्राचार्य पादलिप्तसूरि, वृद्धवादिसूरि, तथा सिद्धसेन विवाकर हुए। (१५) श्री वज्रस्वामी का जन्म वीरात् ४६६ में, निर्वाण से ५८४ में स्वर्गवास। (१६) वज्रसेनाचार्य-नागेन्द्र, चन्द्र, निवृति, विद्याधर को दीक्षा और चार कुलों की उत्पत्ति । (१७) श्री चन्द्रमूरि - इस समय में प्रार्य रक्षित युगप्रधान हुए। (१८) समन्तभद्रसूरि - ( वनवासी) ___ 2010_05 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३६७ - (१६) श्री वृद्धदेवसूरि (२०) प्रद्योतनसूरि (२१) मानदेवसूरि (शान्तिस्तव कर्ता) (२२) मानतुगसूरि ( भक्तामर कर्ता) (२३) वोरसूरि, इस समय के दान देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण हुए जिन्होंने ६८० में वलभी नगरी में सर्वसिद्धान्त लिखवाए, इसी समय में श्री कालकाचार्य, जिन्होंने भाद्रपद शुक्ल ५ से चतुर्थी पर्युषणा पर्व किया, यह घटना वोर निर्वाण से ९६३ में बनी। इसके पहले दो कालकाचार्य और हुए, प्रथम श्यामाचार्य जो ३७६ में, द्वितीय गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य वीर से ४५३ में, फिर इसी समय के भीतर श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (विशेषावश्यक भाष्य कर्ता) हुए, जिनके शिष्य शोलाङ्काचार्य ने प्राचारांग और सूत्रकृतांग की वृत्ति बनाई और इसी समय के लगभग प्रसिद्ध श्रुतधर हरिभद्रसूरि हुए। (२४) श्री जयदेवसूरि, (२५) देवानन्दसूरि, (२६) विक्रमसूरि, (२७) नरसिंहसूरि, (२८) समुद्रसूरि, (२६) मानदेवसूरि, (३०) विबुधप्रभसूरि, (३१) जयानन्दसूरि, (३२) रविप्रभ, (३३) यशोभद् (३४) विमलचन्द्रसूरि । (३५) श्री देवसूरि, इनके सुविहित मार्गाचरण से सुविधि गच्छ ऐसी प्रसिद्धि हुई। (३६) श्री नेनिच द्रसूरि (३७) श्री उद्योतनसूरि - इनसे चौरासी गच्छों की उत्पत्ति हुई । (३८) वर्धमानसूरि । (३६) जिनेश्वरसूरि बुद्धिसाग सूरि "जिनेश्वरसूरिमुद्दिश्यातिखरा एते इति राज्ञा प्रोक्त तत एव "खरतर-विरुद" लब्धं, तथा चैत्यवासिनां हि पराजयप्रापरणात् "कुवला" इति नामधेय प्राप्ता एवं च सुविहितपक्षधरका जिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १००० वर्षेः "खरतर" विरुदधारका जाताः।" पट्टावली के उपर्युक्त फिकरे में राजा दुर्लभ द्वारा जिनेश्वरसूरि को "अतिखर" और इनके सामने चर्चा करने वालों को "कोमल" कहलाया है। ___ 2010_05 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ] [ पट्टावली-पराग इन शब्दों से यही अर्थ निकलता है कि जिनेश्वरसूरि ने वसतिवास का निर्भयतापूर्वक प्रतिपादन किया, तब चैत्यवासियों ने इनके मुकाबिले में चैत्यवास का प्रतिपादन कोमलतापूर्वक किया, इस शब्दप्रयोगों से विरुद्ध प्रदान मान लेना यौक्तिक नहीं माना आ सकता है। (४०) जिनचन्द्रसूरि (४१) अभयदेवसूरि एक समय में प्राचार्य-पद प्राप्त करने के बाद प्राचार्यश्री अभयदेवसूरिजी ने नव रसों का पोषण किया, जिसे सुनकर सभा आनन्दित हुई, परन्तु गुरु ने उन्हें उपालम्भ दिया, तब अभयदेवसूरिजी ने आत्मशुद्धयर्थ प्रायश्चित्त मांगा और गुरु ने १२ वर्ष तक आचामाम्ल व्रत करने का प्रादेश दिया? अभयदेवसरिजी ने गुरु का वचन स्वीकृत करके छः ही विकृतियों का त्याग किया, परिणाम स्वरूप उनके शरीर में गलत्कुष्ठ रोग की उत्पत्ति हो गई, बाद में स्तम्भनक पार्श्वनाथ की स्तवना करके प्रतिमा निकलवाई, जिसके स्नात्रजल से शरीर नीरोग हुना, बाद में सृरिजी ने नवांगसूत्रों की वृत्तियां बनाई और प्रत में कपड़वंज में अनशन कर चतुर्थ देवलोक प्राप्त किया। (४२) जिनवल्लभरि - ___ जिनवल्लभसूरि जो पहले कूर्चपुरीय गच्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे, इन्होंने "पिण्डविशुद्धिप्रकरण", "गणधर२ सार्द्धशतक", "षडशीति" प्रमुख अनेक शास्त्र बनाये थे। जिनवल्लभ सं० ११६७ में देवभद्राचार्य द्वारा प्राचार्य बने और छः मास तक प्राचार्य-पद भोगा। इनके समय में "मधुकर खरतर" शाखा निकली तथा इन्हीं के समय में शासन देवता के बचन से प्राचार्य के नाम की आदि में "जिन" शब्द रखने की प्रवृत्ति चली। १. समयसुन्दरजी की पट्टावली में ६ मास का प्रायश्चित्त लिखा है। २. "गणधर सार्द्धशतक" जिनवल्लभसूरि की कृति नहीं, यह जिनदत्तसूरि की कृति है। 2010_05 Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३६६ (४३) जिनदत्तमूरि - जिनदत्तसरि का जन्म ११३२ में, दीक्षा ११४१ में, प्राचार्य-पद ११६६ में आचार्य देवभद्र द्वारा दिया गया। इनके समय में संवत् १२०४ में जिनशेखराचार्य से रुद्रपल्लीय शाखा निकली, यह द्वितीय गच्छभेद हुमा। यहां पर वायटगच्छीय जिनदत्तसूरि सम्बन्धी गौशरीर में प्रवेश करने की हकीकत प्रस्तुत जिनदत्तसूरि के साथ जोड़ दी है जो अन्धश्रद्धा का परिणाम है, इसके सिवा अन्य भी अनेक वृत्तान्त जिनदत्तसूरि के जीवन के साथ जोड़ दिये हैं, जो इनकी महिमा बढ़ाने के बजाय महत्त्व घटाने बाले हैं। जिनदत्तसूरि स० १२११ के प्राषाढ़ शुक्ल ११ को अजमेर में स्वर्गवासी हुए। यहां पर क्षमाकल्याणक मुनि ने निम्न प्रकार का डेढ़ श्लोक लिखा है - "श्री जिनदत्तसूरीणां, गुरूणां गुणवर्णनम् । मया क्षमाविकल्याण-मुनिना लेशत. कृतम् ॥ सुविस्तरेण तत्कर्तु, सुराचार्योऽपि न क्षमः ॥१॥" उपर्युक्त षट्पदी से मालूम होता है कि या तो यह पट्टावली क्षमाकल्याणक-कृत होनी चाहिए, जिसका मन्तिम भाग जिनमहेन्द्रसूरि के किसी शिष्य ने जोड़ कर इसे अपना लिया है । अगर ऐसा नहीं है, तो कम से कम जिनदत्तसूरिजी का वर्णन तो क्षमाकल्याणकजी की पट्टावली से उद्धृत किया होगा, इसमें कोई शंका नहीं है । (४४) श्री जिनचन्द्रसरि - इनकी दीक्षा संवत् १२०३ में अजमेर में हुई थी । सं० १२११ में श्री जिनदत्तसूरिजी के हाथ से प्राचार्य-पद पर स्थापित हुए थे और सं० १२२३ में भाद्रपद कृष्णा १४ के दिन २६ वर्ष की उम्र में आपका स्वर्गवास हुआ था । ___ 2010_05 Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ ] [ पट्टावली-पराग (४५) श्री जिनपतिसरि - प्रापकी दीक्षा १२१८ को साल में दिल्ली में हुई थी और संवत् १२२३ में श्री जयदेवाचार्य द्वारा भापको पद-स्थापना हुई थी। सं० २७० में पालनपुर में स्वर्गवास । (४६) श्री जिनेश्वरम् रे - आपकी दीक्षा सं० १२६५ में, १२७० में सर्वदेवाचार्य द्वारा जालोर में आचार्य-पद, इनके समय में ही १२१४ में पांचलिक मत की उत्पत्ति हुई । १२८५ में चित्रावालगच्छीय जगच्चन्द्रसूरि से तपागण प्रसिद्ध हुआ । सं० १३३१ में प्रापका स्वर्गवास हुमा। इनके समय में जिनसिंहसूरि से लधुखरतर शाखा प्रकट हुई । (४७) श्री जिनप्रबोधसरि - इनका सं० १३३१ में जालोर में प्राचार्य-पद हुमा और स्वर्गवास १३४१ में । (४८) श्री जिनचन्द्रसरि - सं० १३३२ में जालोर में दोक्षा, सं. १३४१ में जालोर में पदमहोत्सव, सं० १३७६ में स्वर्गवास । इनके समय में "खरतरगच्छ" की "राजगच्छ" के नाम से प्रसिद्धि हुई थी। (४६) श्री जिनकुशलसरि सं० १३३० में जन्म, १३४७ में दीक्षा, सं० १३७७ में राजेन्द्राचार्य द्वारा सूरिमन्त्र दिया गया। सं० १३८६ में स्वर्ग प्राप्ति । (५०) श्री जिनपसरि - सं० १३८६ में प्राचार्य तरुणप्रभ द्वारा सूरिमन्त्र दिया गया, सं० १४०० वैशाख सुदि १४ के दिन पाटण में स्वर्गवास । 2010_05 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३७१ (५१) जिनलब्धिसूरि - श्री तरुणप्रभाचार्य द्वारा प्राचार्य-पद, सं० १४०६ में स्वर्गवास । (५२) श्री जिनचन्द्रसरि - इनको सं० १४०६ में तरुणप्रभाचार्य द्वारा सूरि-मन्त्र मिला और १४१५ में स्वर्गवास। (५३) जिनोदयसरि - सं० १३७५ में जन्म, १४१५ में आषाढ़ शु० २ को तरुणप्रभाचार्य द्वारा पद स्थापना और सं० १४३२ में पाटण में स्वर्गवास, इनके समय में १४२२ में "वेगडखरतरशाखा" निकली । यह चतुर्थ गच्छ भेद हुमा । (५४) श्री जिनराजसरि - स. १४३२ में पाटण में प्राचार्य-पद हुआ, स्वर्णप्रभाचार्य, श्री भुवनरत्नाचार्य और सागरचद्राचार्य को आचार्य बनाया। सं० १४६१ में देलवाड़ा में स्वर्गवास । (५५) श्री जिनमद्रसरि सं० १४६१ में सागरचन्द्राचार्य ने श्री जिनराजसूरि के पट्ट पर श्री जिनवर्द्धनसूरि को स्थापित किया था, उन्होंने जैसलमेर के श्री चिन्तामणि पार्श्वनाथ के पास में स्थापित क्षेत्रपाल की मूर्ति को गर्भगृह के बाहर ले जाकर स्थापित किया, इससे कुपित क्षेत्रपाल ने उनमें चतुर्थव्रत भंग का दोष बताया, जिससे इनके भक्त नाराज हो गये। सं० १५१४ में श्री जिनभद्रसूरि का कुम्भलमेर में स्वर्गवास । इनके समय में १४७४ में श्री जिनवर्द्धनसूरि से 'पिप्पलक' नाम की "खरतर शाखा निकली," यह पांचवां गच्छ भेद हुमा। (५६) श्री जिनचन्द्रसरि - ___ सं० १४९२ में दीक्षा, १५१४ में कीतिरत्नाचार्य द्वारा पद स्थापना मौर आबु ऊपर नवफरणा पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा को। धर्मरत्नसूरि, गुण ____ 2010_05 Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ 1 [ पट्टावली-पराग -- रत्नसूरि प्रमुख अनेक प्राचार्य बनाने वाले, श्री जिनचन्द्रसूरि १५३० में जैसलमेर में स्वर्गवासी हुए, इनके समय में १५०८ में अहमदाबाद में लौंका नामक लेखक ने प्रतिमा-पूजा का विरोध किया; और सं० १५२४ में लौंका के नाम से मत प्रचलित हुना। (५७) श्री जिनसमुद्रसरि - १५२१ में दीक्षा, १५३० में श्री जिनचन्द्रसूरि द्वारा पदस्थापना पौर सं० १५५५ में अहमदाबाद में स्वर्गवास । (५८) श्री जिनहंससूरि -- सं. १५६५ में दीक्षा, सं० १५५५ में प्राचार्य-पद, सं० १५५६ में फिर विशेष पद महोत्सव, स० १५८२ में पाटन में स्वर्गवास, इनके समय में १५६४ में मारवाड़ में आचार्य शान्तिसागर ने प्राचार्यांय खरतरशाखा निकाली। (६६) श्री जिनमाणिक्यसरि -- सं० १५४६ में जन्म, १५६० में दीक्षा, सं० १५८२ में प्राचार्य-पद श्री जिनहंससूरि द्वारा, श्री जिनमारिणक्यसूरि कई वर्षों तक जैसलमेर में रहे। परिणामस्वरूप इनके सब साधु शिथिलाचारी हो गये, उधर प्रतिमोत्थापकों का मत बहुत बढ़ रहा था, यह देखकर मन्त्री संग्रामसिंह ने गच्छ की स्थिति ठीक रखने के लिए गुरु को अजमेर बुलाया, उन्होंने मन से तो क्रियोद्धार का संकल्प कर ही लिया था और कहा - प्रथम देराउल में श्री जिनकुशलसूरिजी की यात्रा करके फिर यहां से क्रियोद्धार करके विहार करूंगा। देराउल से माप वापिस जैसलमेर पा ही रहे थे परन्तु सं० १६१२ के भाषाढ़ शुक्ल ५ को आप का स्वर्गवास हो गया । (६०) श्री जिनचन्द्रसूरि .. ____ इनकी दीक्षा सं० १६०४ में, सूरि-पद १६१२ में, गच्छ में शिथिलाचारित्व देखकर सर्व परिग्रह का त्याग कर कर्मचन्द्र के प्राग्रह से बीकानेर ___ 2010_05 Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३७३. गए और वहां से सुविहित साधुओं के साथ विहार करते हुए, प्रतिमोत्थापक मत का खण्डन करते हुए, अपनो सामाचारो को दृढ़ करते हुए गुजरात को तरफ गए । अहमदाबाद में शिवा, सोमजी नाम के दो भाइयों को प्रतिवोध करके धनवन्त किए, लाहोर जाकर अकबर को प्रतिबोध करके सब देशों में फर्मान भिजवाकर अट्ठाई के दिनों में अमारि का पालन करवाया, सं० १६५२ में पांच नदियों का साधन किया, जहां ५ पीर मरिणभद्रयक्ष, खोडिया क्षेत्रपालादि देव शामिल थे, सं० १६७० में बेणातट पर आपका स्वर्गवास हुआ, इनके समय में सं० १६२१ में भावहर्षोपाध्याय से "भावहर्षीय खरतर शाखा" निकलो। यह सातवां गच्छभेद हुआ। (६१) श्री जिनसिहसूरि सं० १६२३ में दीक्षा, १६४६ के फल्गुन शुक्ल २ को लाहोर में प्राचार्य-पद और सं० १६७० में बेनातट पर सूरि-पद, १६७४ में मेड़ता में स्वर्गवास । (६२) श्री जिनराजमूरि -- सं० १६५६ में दीक्षा, १६७४ में मेड़ता में सूरि-पद, इनके द्वितीय शिष्य सिद्धसेन गरिण को प्राचार्य पद देकर जिनसागरसूरि नाम रक्खा, १२ वर्ष तक आप इनकी आज्ञा में रहे, फिर समयसुन्दरोपाध्याय के शिष्य हर्षनन्दन के कदाग्रह से २०१६८६ में प्राचार्य जिनसागरसूरि से 'लध्वाचार्य" खरतर शाखा निकली, यह अष्टम गच्छ भेद हुअा। जिनराजसूरि ने नैषधीय काव्य पर "जैनराजी" नामक टीका बनाई, सं० १६६६ में आप स्वर्गवासी हुए । लगभग उसी समय १७०० में पं० रंगविजयजी गरिण से "रंगविजया" शाखा निकलो यह नवंमा गच्छभेद हुआ और इस शाखा में से श्रीसार उपाध्याय ने "श्रीसारीय खरतर शाखा' निकाली, यह दशवां गच्छभेद हुआ । ग्यारहवां सुविहित मूल खरतरगच्छ का भेद कायम रहा इस तरह ११ भेद पड़े। (६३) श्री जिनरत्नमरि - सं १६९६ में श्री जिन राजसूरिजी ने सूरिमन्त्र दिया। सं० १७११ में जिनरत्नसूरि अकबराबाद में स्वर्गवासी हुए। 2010_05 Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] [ पट्टावली-पराग (६४) श्री जिनचन्द्रसूरि आपकी स० १७११ में राजनगर में पद-स्थापना हुई, सं० १७६३ में सूरत बन्दर में स्वर्गवासी हुए । (६५) श्री जिनसुखसरि - सं० १७५१ में दीक्षा, १७६३ में पदस्थापना हुई और संवत् १७८० में रीणी नगर में स्वर्गवास । (६६) श्री जिनमतिमूरि - सं० १७८० में प्राचार्य-पद, सं० १८०४ में मांडवो बन्दर में स्वर्गवास । (६७) श्री जिनलाममूरि - सं० १७९६ में जसलमेर में दीक्षा, १८०४ में प्राचार्य-पद, सं० १८३४ में स्वर्गवास। (६८) श्री जिनचन्द्रसूरि - सं० १८२२ में दीक्षा, सं० १८३४ में पदस्थापना, १८५६ में सूरत में स्वर्गवास । (६६) श्री जिनहर्षसरि - सं. १८४३ में दीक्षा, सं० १८५६ में पदस्थापना, १८६२ में ब्राह्ममुहूर्त में मंडोवर में स्वर्गवास । (७०) श्री जिनमहेन्द्रसरि - सं० १८६७ में जन्म, १८८५ में दीक्षा, सं० १८६२ में जोधपुर महाराजा मानसिंहजो के राज्यकाल में प्राचार्य-पद । श्री पादलिप्तपुर में तपागच्छीय उपाश्रय के आगे होकर वादित्र बजाते हुए जिनमन्दिर में दर्शनार्थ गए। श्री संघाधिप ने सपरिकर गुरु को अपने निवास स्थान पर बुलाकर स्वर्णमुद्राओं से नवांग पूजा की और दस हजार रुपया और पालकी संघ के 2010_05 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३७५ समक्ष भेंट की। वाचक, पाठक साधुवर्ग को सुवर्ण रूप्य मुद्राए तथा महावस्त्रादि ज्ञानोपकरण भेंट दिए । श्री गुरु ने भी चौरासी-गच्छीय समस्त आचार्य तथा सहस्र साधुनों को महावख और प्रत्येक को दो-दो रूप्य-मुद्राएं अर्पण को। ऊपर चौरासी गच्छ के प्राचार्यो तथा सहस्राधिक साधुनों को श्रीजी द्वारा महावस्त्र और वस्त्रादि दो-दो रुपयों के साथ देने की बात कही है तब आगे जाकर नीचे का फिकरा लिखते हैं - __ "फाल्गुन सुदि २ दिने सर्व तपागच्छीयावि प्राचार्य साधूनुपत्यकायां संरोध्य श्रीजिनमहेन्द्रसूरयः सर्वसंघपतिभिः सार्द्ध श्रीमूलनायकजिनगृहाग्रतो गत्वा विधिना सर्वेषां कण्ठेषु संघमालाः स्थापिताः, अन्यगच्छीयाचार्याणां कौशिकानामिव मनोभिलाषं मनस्येव स्थितं, खरतरगच्छेश्वरसूर्योदयतेज प्रकरत्वात्तदनुत्तीर्य गीतगानतुर्यवाद्यमानगजाश्वशिविकेन्द्रध्वजादिमहा पादलिप्तपुरे जिनगृहे दर्शनं विधाय तपागच्छीयाचार्यस्थितोपाश्रयाग्रतो भूत्वा संघावासेऽयासिषुः भूयोऽपि तत्रस्थचतुरशीतिगच्छीय द्वादशशत साधुवर्गेभ्यो महावस्त्र-रूप्यमुद्रायुग्मं प्रत्येकं प्रदत्तानि, तदवसरे श्रीमत्पूज्य. बहुतरद्रव्यव्ययं कृतं, तत्सम्बन्धः पूर्ववत् पुनः श्री मदादिजिनकोशकुंचिकायुग्मं श्रीखरतरगरणश्राद्धस्तपाश्रद्धालुभ्यः सकाशाद होतं कुंचिकायुग्म तत्पार्वे रक्षितं ।" पट्टावली का ऊपर जो पाठ दिया है इससे अनेक गुप्त बातें ध्वनित होती हैं। फाल्गुन सुदि २ के दिन, जिनमहेन्द्रसूरिजी पादलिप्तपुर में उपस्थित संघपतियों को माला पहिनाने वाले थे, परन्तु दादा की टूङ्क में मूलनायकजी के सामने माला पहिनाने में तपागच्छीय तथा अन्यगच्छीय सभो प्राचार्य विरुद्ध थे, जिसके परिणामस्वरूप जिनमहेन्द्रसूरिजी ने राजकीय बल द्वारा अन्य सभी गच्छों के प्राचार्यो' तथा साधुओं को ऊपर जाने से रुकवा दिया था, फिर आपने निर्भयता से दादा के सामने संघ. पतियों को मालायें पहिनाने का पुरुषार्थ किया था। पट्टावली के कथना. नुसार यह घटना खरतरगच्छ के सूर्योदय के तेज का प्रकाश था, जिसके ___ 2010_05 Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] [पट्टावली-पराग - सामने अन्यगच्छोय प्राचार्य-रूप उल्लुनों के नेत्र चौंधिया गए थे। ऊपर से उतर कर नगर के मन्दिर में दर्शनार्थ जाने के प्रसंग में तपागच्छ के उपाश्रय के सामने होकर गीत-वादित्रों के साथ जाने का उल्लेख किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि विशिष्ट प्रसगों के सिवाय तपागच्छ के उपाश्रय के प्रागे होकर वादित्रों के साथ निकलने का खरतरगच्छीय प्राचार्यों के लिए बन्द होगा अन्यथा यहां पर उक्त उल्लेख करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। पट्टावली के उपर्युक्त पाठ में संघपति द्वारा अपने निवास-स्थान पर जिनमहेन्द्र सूरि को बुलःकर सुवर्ण मुद्राओं से नवांग पूजा करने और दस हजार की थैली भेंट करने की बात कही है। ठीक तो है, संघपति जब धनवान् है तो अपने गुरु को धनहीन कैसे रहने देगा। इन बातों से निश्चित होता है कि उन्नीसवों शताब्दी के "श्रीपूज्य" नाम से पहिचाने जाते जैन आवार्य और “यति के नाम से प्रसिद्ध जैन साधु" पूरे परिग्रहधारी बन चुके थे। संघपति ने अपने प्राचार्य तथा साधुनों को वस्त्र और दो दो रुपये भेंट किये, यह एक साधारण बात है, परन्तु आचार्य जिनमहेन्द्रसूरि द्वारा प्रत्येक साधु को दो-दो रुपयों के साथ वस्त्र देना, हमारी राय में उचित नहीं था। कुछ भी हो, परन्तु खरतरगच्छ के अतिरिक्त अन्य सभी गच्छों के प्राचार्य तथा साधुओं को ऊपर जाने से रोकने वाले संघपतियों से तथा उनके गुरु श्री जिनमहेन्द्रसूरि से अन्य गच्छ के प्राचार्यों तथा साधुओं ने वस्त्र तथा मुद्रामों की दक्षिणा लो होगी, इस बात को कौन मान सकता है। जिनके मन में अपने सम्प्रदाय का और अपनी आत्मा का कुछ भी गौरव होगा, वे तो दक्षिणा तो क्या उनकी शक्ल तक देखने को तैयार नहीं हुए होंगे। बाकी पट्टावली में कुछ भी लिखें इसको कौन रोक सकता है। पट्टावली-लेखक कहता है - "तदवसरे श्रीमत्पूज्यर्बहुतरं द्रव्यं व्ययं कृतं ।" पट्टावलीकार की भाषा से इतना तो स्पष्ट होता है कि इसका अन्तिम भाग किसो अर्घदग्ध संस्कृतपाठी का लिखा हुमा है। अधिकांश पट्टावली शुद्ध संस्कृत में है, परन्तु जिनमहेन्द्रसूरि के वर्णन में जो कुछ लिखा गया है, उसमें व्याकरण को अशुद्धियों का तो ठिकाना ही नहीं, ___ 2010_05 Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३७७ लिंग, वचन और सन्धि तक का पूरा ज्ञान नहीं था, उसी ने जिनमहेन्द्रसूरि के गुणगान किये हैं। इसके अतिरिक्त पट्टावली में ऐतिहासिक दृष्टि से अनेक स्खलनाएं दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु उन सब की यहां चर्चा करके लेख को बढ़ाना उचित नहीं समझा गया। (५) पट्टावली नम्बर २३३३ : उपर्युक्त नम्बर की पट्टावली में भिन्न-भिन्न पट्टावली तथा गुर्वावली के पांच पत्र हैं और इनमें भिन्न-भिन्न लेखकों की लिखी हुई पांच पाटपरम्पराए हैं, परन्तु उन सब को यहां चर्चा करना उपयुक्त नहीं, इनमें से जो बातें उपयोगी जान पड़ेगी मात्र उन्हीं की चर्चा करना ठीक होगा, इन पानों में एक पाट परम्परा श्री जिनलाभसूरि पर्यन्त लिखी हुई है और जिन्लाभसूरि का नम्बर ६६ वां दिया है, परन्तु बाद में किसी ने श्री जिनचन्द्रसूरि और जिनहर्षसूरि के नाम बढ़.कर पट्टधरों के नम्बर ७१ कर दिये हैं। एक दूसरे पट्टावली पत्र में युगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि को ६२ वें नम्बर में लिया है और आगे जिनसिंह, जिनराज, जिनरत्न और जिवचन्द्रसूरि के नाम लिखकर पट्टधरों के नम्बर ६६ कर दिये हैं परन्तु बाद में जिनसुख, जिनभक्ति और जिनलाभ इन तीनों आचार्यों के नाम बढ़ाकर पट्टधरों के नम्बर ६६ कर दिये हैं। एक पट्टावली का पत्र पद्यमय गुर्वावलो का है, प्राचार्यों की स्तुति उद्योतनसूरि से प्रारम्भ को है और जिनलाभसूरि तक परम्परागत प्राचार्यों की स्तुति करके इस कल्पवाचना का उपोद्घात लिखा है, यह पत्र जिनलाभसूरि के समय का लिखा हुआ है । चौथा पत्र सुधर्म-स्वामी से लेकर जिनलाभसूरि के पट्टधर श्री जिनचन्द्रसूरि तक के ७२ पट्टधरों के नम्बर लगाए हैं, परन्तु इस पट्टावली में 2010_05 Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ ] [ पट्टावलो-पराग कितने हो नाम युगप्रधानों के हैं जिनको यहां परम्परा में लिखा है, इनमें से बहुतेरे युगप्रधानों के नाम न आर्य महागिरि की परम्परा से मिलते हैं, न आर्य सुहस्तीसूरि की परम्परा से; यह पत्र जिनचन्द्रसूरि के समय का लिखा हुना है, इसके अन्त में "खरतरगच्छ" की शाखाओं के तथा अन्य गच्छों की उत्पत्ति के समयनिर्देशपूर्वक उल्लेख किये गए हैं। यह पत्र विशेष उपयोगी होने से इसका विशेष संक्षेप सार देंगे। इस पत्र में प्रार्य सुहस्ती तक प्रचलित परम्परा दी है, आर्य सुहस्ती को १० नम्बर दिया है, इसके बाद ११ वां शान्तिभद्रसूरि, (१२) हरिभद्रसूरि, (१३) गुणाकरसूरि, (१४) कालकाचार्य, (१५) श्री शण्डिलसूरि, (१६) रेवन्तसूरि, (१७) श्री धर्मसूरि, (१८) श्रीगुप्तसूरि, (१६) श्री आर्यसमुद्रसूरि, (२०) श्री मंगुसूरि, (२१) श्री सुधर्मसूरि, (२२) श्री भद्रगुप्तसृरि, (२३) श्री वयरस्वामी, (२४) आर्य रक्षितसूरि, (२५) दुर्बलिकापक्ष (पुष्य) मित्र, (२६) श्री आर्यनन्दसूरि, (२७) नागहस्तीसूरि, (२८) श्री लघुरेवतीसूरि, (२९) श्री ब्रह्मद्वीपसूरि, (३०) श्री षाण्डिलसूरि, (३१) हिमवन्तसूरि, (३२) श्री नागार्जुन वाचक, (३३) श्री गोविन्द वाचक, (३४) श्री सम्भूतिदिन्न वाचक, (३५) श्री लोहित्यसरि, (३६) श्री दुष्यगणि वाचक, (३७) उमास्वाति वाचक, (३८) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, (३६) श्री हरिभद्रसूरि, (४०) श्री देवसरि ।। उपर्युक्त ४० नामों से प्रार्य सुहस्ती के बाद के ३० नाम अस्तव्यस्त और इधर-उधर से उठा कर लिख दिये हैं। इनमें न पट्टक्रम है, न समय ही व्यवस्थित है, कितनेक नाम तो कल्पित हैं, तब अधिकांश नाम युगप्रधान पट्टावलियों में से लिये हुए हैं। (४१) श्री नेमिचन्द्र, (४२) श्री उद्योतन, (४३) श्री वर्धमान और (४४) श्री जिनेश्वरसूरि के नाम खरतर पट्टावलियों से मिलते-जुलते हैं। इसके आगे के (४५) श्री जिनचन्द्र, (४६) श्री अभयदेव, (४७) श्री जिनवल्लभ, (४८) श्री जिनदत्त, (४६) श्री जिनचन्द्र, (५०) श्री जिनपति, (४१) श्री जिनेश्वर, (५२) श्री जिनप्रबोध, (५३) श्री जिनचन्द्र सूरि, (५४) श्री जिनकुशल, (५५) श्री जिनपद्म, (५६) श्री जिनलब्धि, (५७) श्री जिनचन्द्र, (५८) श्री जिनोदय, (५६) 2010_05 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३७६ श्री जिनराज, (६०) श्री जिनभद्र, (६१) श्री जिनचन्द्र, (६२) श्री जिनसमुद्र, (६३) श्री जिनहंस, (६४) श्री जिनमारिणक्य, (६५) थी जिनचन्द्र, (६६) श्री जिनहंस, (६७) श्री जिनराज, (६८) श्री जिनरत्न, (६९) श्री जिनचन्द्र, (७०) श्री जिनसुख, (७१) श्री जिनभक्ति, (७२) श्री जिनलाभ, (७३) श्री जिनचन्द्रसूरि । इस प्रकार ये पिछले सभी नाम खरतर पट्टावली के अनुसार हैं। जिनचन्द्र के समय में यह पाना लिखा गया है। इस पत्र के अन्त में खरतरगच्छ की शाखामों तथा अन्यगच्छ-मतों के प्रकट होने का समय-निर्देश नीचे लिखे अनुसार किया है। १. सं० १२०४ में जिनशेखराचार्य से "रुद्रपल्लीय" खरतर शाखा निकली। २. सं० १२०५ में श्री जिनदत्तसूरि के समय "मधुकर" खरतर शाखा निकली। ३, सं० १२२२ में जिनेश्वरसूरि द्वारा "वेगड" खरतर शाखा निकली। ४. सं० १४६१ के वर्ष में श्री वर्धमानसूरिजी ने "पीप्पलीया" खरतरगच्छ की शाखा का प्ररूपण किया। ५. सं० १५६० में श्री शान्तिसागराचार्य ने "प्राचार्या" नामक नयी खरतरगच्छ की शाखा निकाली। ६. श्री जिनसागरसरिजी ने सं० १६८७ में "लघु आचार्य' नामक खरतरगच्छ में एक नयी शाखा चलाई। ७. सं० १३३१ में श्री जिनसिंहसूरि एवं जिनप्रभसूरि ने "लघु खरतरगण" नाम से अपने गच्छ को प्रसिद्ध किया। ८. सं० १६१२ में भावहर्षगणि ने अपने नाम से खरतरगच्छ में "भावहर्षीया' शाखा निकाली। है. सं० १६७५ में श्री रंगविजयसूरि ने "रंगविजया" शाखा निकाली। १०. १६७५ वर्ष खरतरगच्छ में श्री सारजी से "श्री सांरगच्छ' नामक भेद पड़ा। ___ 2010_05 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग सं० १२३६ (१२२६ ) में प्राचार्य हेमसूरि त्रिकोटी ग्रन्थों के ३८० ] कर्त्ता हुए । सं० १२८५ में तपागच्छ की उत्पत्ति हुई । सं० १९५६ में पूर्णमीयागच्छ निकला । सं० १२१४ में प्रांचलीयागच्छ निकला । सं० १३३३ ( अन्यत्र १२५० ) में श्रागमिकगच्छ निकला । सं० १५०८ में अहमदाबाद में लुकाशाह नामक पुस्तक लेखक ने ' प्रतिमोत्थापक" मत निकाला और लखमसी से भेंट हुई । सं० १५२४ में लंकागच्छ की उत्पत्ति हुई । उपसंहार : इतिहास साधन होने के कारण हमने तपागच्छ, खरतरगच्छ, श्रच गच्छ आदि की यथोपलब्ध सभी पट्टावलियों तथा गुर्वावलियां पढ़ी हैं और इससे हमारे मन पर जो असर पड़ा है उसको व्यक्त करके इस लेख को पूरा कर देगे । वर्तमानकाल में खरतरगच्छ तथा श्रांचलगच्छ की जितनी भी पट्टाबलियां हैं, उनमें से अधिकांश पर कुलगुरुयों की बहियों का प्रभाव है, विक्रम की दशवीं शती तक जैन श्रमरणों में शिथिलाचारी साधुयों को संख्या इतनी बढ़ गई थी कि उनके मुकाबले में सुविहित साधु बहुत ही कम रह गये थे । शिथिलाचारियों ने अपने अड्डे एक ही स्थान पर नहीं जमाये थे, उनके बड़ेरे जहां-जहां फिरे थे, जहां-जहां के गृहस्थों को अपना भाविक बनाया था, उन सभी स्थानों में शिथिलाचारियों के अड्डे जमे हुए थे, जहां उनकी पौषधशालाएं नहीं थीं वहां अपने अड्डों से अपने गुरु- प्रगुरुनों के भाविकों को सम्हालने के लिये जाया करते थे, जिससे कि उनके पूर्वजों के भक्तों के साथ उनका परिचय बना रहे, गृहस्थ भी इससे खुश रहते थे कि हमारे कुलगुरु हमारी सम्हाल लेते हैं, उनके यहां कोई भी धार्मिक कार्य प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, संघ आदि का प्रसंग होता, तब वे अपने कुलगुरुयों को आमन्त्रण करते और 2010_05 Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय-परिच्छेद ] [ ३८१ धार्मिक विधान उन्हीं के हाथ से करवाते, धीरे-धीरे वे कुलगुरु परिग्रहधारी हुए: वस्त्र, पात्र के अतिरिक्त द्रव्य की भेंट भी स्वीकारने लगे, तबसे कोई गृहस्थ अपने कुलगुरु को न बुलाकर दूसरे गच्छ के प्राचार्य को बुला लेता और प्रतिष्ठादि कार्य उनसे करवा लेता तो उनका कुलगुरु बना हुआ प्राचार्य कार्य करने वाले अन्य गच्छीय प्राचार्य से झगड़ा करता। इस परिस्थिति को रोकने के लिए कुलगुरुषों ने विक्रम को १२ वीं शताब्दी से अपने-अपने श्रावकों के लिए अपने पास रखने शुरू किये, किस गांव में कौन-कौन गृहस्थ अपना मथवा अपने पूर्वजों का मानने वाला है उनकी सूचियां बनाकर अपने पास रखने लगे और अमुक-अमुक समय के बाद उन सभी श्रावकों के पास जाकर उनके पूर्वजों की नामावलियां सुनाते और उनकी कारकीदियों की प्रशंसा करते, तुम्हारे बड़ेरों को हमारे पूर्वज अमुक प्राचार्य महाराज ने जैन बनाया था, उन्होंने अमुक २ धार्मिक कार्य किये थे इत्यादि बातों से उन गृहस्थों को राजी करके दक्षिणा प्राप्त करते । यह पद्धति प्रारम्भ होने के बाद वे शिथिल साधु धीरे-धीरे साधुधर्म से पतित हो गए और "कुलगुरु" तथा 'बही वंचों" के नाम से पहिचाने जाने लगे । आज पर्यन्त ये कुलगुरु जैन जातियों में बने रहे हैं, परन्तु विक्रम की बीसवीं सदी से वे लगभग सभी गृहस्थ बन गए हैं, फिर भी कतिपय वर्षों के बाद अपने पूर्वज-प्रतिबोधित श्रावकों को वन्दाने के लिए जाते हैं, बहियां सुनाते हैं और भेट पूजा लेकर पाते हैं, इस प्रकार के कुलगुरुषों की अनेक बहियां हमने देखी और पढ़ी हैं उनमें बारहवीं शती के पूर्व की जितनी भी बातें लिखी गई हैं वे लगभग सभी दन्तकथामात्र हैं, इतिहास से उनका कोई सम्बन्ध नहीं, गोत्रों और कुलों को बहियां लिखी जाने के बाद की हकीकतों में आंशिक तथ्य अवश्य देखा गया है, परन्तु अमुक हमारे पूर्वज प्राचार्य ने तुम्हारे अमुक पूर्वज को जैन बनाया था और उसका अमुक गोत्र स्थापित किया था, इन बातों में कोई तथ्य नहीं होता, गोत्र किसी के बनाने से नहीं बनते, आजकल के गोत्र उनके बड़ेरों के धन्धों रोजगारों के ऊपर से प्रचलित हुए हैं, जिन्हें हम "अटक" कह सकते हैं । खरतरगच्छ की पट्टावलियों में अनेक आचार्यों के वर्णन में लिखा मिलता है कि अमुक को मापने जैन बनाया और उसका यह गोत्र कायम किया, अमुक आचार्य ने इतने लाख और इतने हजार अजैनों ____ 2010_05 Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] [ पट्टावली-पराग को जैन बनाया, इस कथन का सार मात्र इतना ही होता है कि उन्होंने अपने उपदेश से अमुक गच्छ में से अपने सम्प्रदाय में इतने मनुष्य सम्मिलित किए। इसके अतिरिक्त इस प्रकार की बातों में कोई सत्यता नहीं होती, लगभग आठवीं नवमीं शताब्दी से भारत में जातिवाद का किला बन जाने से जैन समाज की संख्या बढ़ने के बदले घटती ही गई है । इक्का दुक्का कोई मनुष्य जैन बना होगा तो जातियों की जातियां जैन समाज से निकलकर अन्य धार्मिक सम्प्रदायों में चली गई हैं, इसी से तो करोड़ों से घटकर जैन समाज की संख्या आज लाखों में आ पहुँची है । ऐतिहासिक परिस्थिति उक्त प्रकार की होने पर भी बहुतेरे पट्टावलीलेखक अपने अन्य प्राचार्यों की महिमा बढ़ाने के लिए हजारों और लाखों मनुष्यों को नये जैन बनाने का जो ढिढोरा पीटे जाते हैं इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता, इसलिए ऐतिहासिक लेखों प्रबन्धों और पट्टावलियों में इस प्रकार की प्रतिशयोक्तियों और कल्पित कहानियों को स्थान नहीं देना चाहिए । हमने तपागच्छ की छोटी बड़ी पवीस पट्टावलियां पढ़ी हैं मौर इतिहास की कसौटी पर उनको कसा है, हमको अनुभव हुआ कि अन्यान्य गच्छों की पट्टावलियों की अपेक्षा से तपागच्छ की पट्टाबलियों में प्रतिशयोक्तियों और कल्पित कथानों की मात्रा सब से कम है और ऐसा होना ही चाहिए, क्योंकि कच्ची नींव पर जो इमारत खड़ी को जाती है, उसकी उम्र बहुत कम होती है । हमारे जैन संघ में कई गच्छ निकले और नामशेष हुए, इसका कारण यही है कि उनकी नींव कच्ची थी, आज के जैन समाज में तपागच्छ, खरतरगच्छ, प्रांचलगच्छ आदि कतिपय गच्छों में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविकात्मक चतुविध जैन संघ का प्रास्तित्व है, इसका कारण भी यही है कि इनमें वास्तविक सत्यता है । जो भी सम्प्रदाय वास्तविक सत्यता पर प्रतिष्ठित नहीं होते, वे चिरजीवी भी नहीं होते, यह बात इतिहास और अनुभव से जानी जा सकती है । ॥ इति खरतरगच्छीय पट्टावली संग्रह ॥ 2010_05 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद [लौंकागच्छ और कडवामत की पट्टावलियाँ ] ____Jain Education international 2010_05 Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थों का गच्छ - प्रवर्तन लौकामत - गछ की उत्पत्ति सूत्रकाल में स्थविरों के पट्टकम की यादी को "थेरावली" अर्थात् "स्थविरावली" इस नाम से पहिचाना जाता था, क्योंकि पूर्वधरों के समय में निर्ग्रन्थश्रमण बहुधा वसति के बाहर उद्यानों में ठहरा करते थे और पृथ्वीशिलापट्ट पर बैठे हुए ही श्रोतागणों को धर्मोपदेश सुनाते थे, न कि पट्टो पर बैठकर । देश, काल, के परिवर्तन के वश श्रमणों ने भी उद्यानों को छोड़कर ग्रामों नगरों में ठहरना उचित समझा और धीरे-धीरे जिननिर्वाण से ६०० वर्ष के बाद अधिकांश जैन श्रमणों ने वसतिवास प्रचलित किया। गृहस्थ वर्ग जो पहले "उपासक" नाम से सम्बोधित होता था वह धीरे-धीरे नियत रूप से धर्म-श्रवण करने लगा, परिणाम स्वरूप प्राचीन श्रमणोपासकश्रमणोपासिका-समुदाय श्रावक श्राविका के नाम से प्रसिद्ध हुमा । यह सब होते हुए भी तब तक श्रमरणसंघ धार्मिक मामलों में अपनी स्वतंत्रता कायम रक्खे हुए था। उपर्युक्त समय दर्मियान जो कोई निर्ग्रन्थ श्रमरण अपनी कल्पना के बल से धार्मिक सिद्धान्त के विरुद्ध तर्क प्रतिष्ठित करता तो श्रमण-संघ उसको समझा-बुझाकर सिद्धान्तानुकूल चलने के लिए बाध्य करता, यदि इस पर भी कोई अपने दुराग्रह को न छोड़ता तो श्रमण-संघ उसको अपने से दूर किये जाने की उद्घोषणा कर देता । श्रमण भगवान् महावोर को जीवित अवस्था में ही ऐसी घटनाएं घटित होने लगी थीं। महावीर को तीर्थ ____ 2010_05 Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] [ पट्टावली-पराग कर पद प्राप्त होने के बाद १४ वें और २० वें वर्ष में क्रमशः जमालि और तिष्यगुप्त को श्रमरण-संघ से वहिष्कृत किये जाने के प्रसंग सूत्रों में उपलब्ध होते हैं, इसी प्रकार जिन-वचन से विपरीत अपना मत स्थापित करने वाले जैन साधुओं के संघबहिष्कृत होने के प्रसंग "प्रावश्यक-नियुक्ति" में लिखे हुए उपलब्ध होते हैं, इस प्रकार से संघ बहिष्कृत व्यक्तियों को शास्त्र में निह्नव इस नाम से उल्लिखित किया है और 'प्रोपपातिक" "स्थानाङ्गसूत्र" एवं आवश्यकनियुक्ति में उनकी संख्या ७ होने का निर्देश किया है । वीरजिन-निर्वाण को सप्तम शती के प्रारंभ में नग्नता का पक्ष कर अपने गुरु से पृथक् हो जाने और अपने मत का प्रचार करने की आर्य शिवभूति की कहानी भी हमारे पिछले भाष्यकार तथा टीकाकारों ने लिखी है, परन्तु शिवभूति को संघ से बहिष्कृत करने की बात प्राचीन साहित्य में नहीं मिलती। इसका कारण यही है कि तब तक जैन श्रमण बहुधा वसतियों में रहने वाले बन चुके थे और उनके पक्ष, विपक्ष में खड़े होने वाले गृहस्थ श्रावकों का उनके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बन चुका था। यही कारण है कि पहले "श्रमरण-संघ' शब्द की व्याख्या "श्रमणानां संघः श्रमरण-संघः" अर्थात् "साधुओं का संघ" ऐसी की जाती थी, उसको बदलकर "श्रमणप्रधानः संघः श्रमणसंघः" अर्थात् जिरासंघ में साधु प्रधान हों वह "श्रमणसंघ" ऐसी व्याख्या को जाने लगी। प्रार्य स्कन्दिल के समय में जो दूसरी बार आगमसूत्र लिखे गए थे, उस समय श्रमणसंघ शब्द की दूसरी व्याख्या मान्य हो चुकी थी और सूत्र में "चाउवणे सघो" शब्द का विवरण, "समणा, समणीमो, सावगा, साविगानो" इस प्रकार से लिखा जाने लगा था। इसका परिणाम श्रमरणसंघ के लिए हानिकारक हुआ, अपने मार्ग में उत्पन्न होने वाले मतभेदों और प्राचार-विषयक शिथिलताओं को रोकना उनके लिए कठिन हो गया था। जिननिर्वाण की १३ वीं शती के उत्तरार्ध से जिनमार्ग में जो मतभदों का और आचारमार्ग से पतन का साम्राज्य बढ़ा उसे कोई रोक नहीं सका। वर्तमान आगमों में से "प्राचारांग" और "सूत्रकृतांग" ये दो सूत्र मौर्यकालीन प्रथम आगमवाचना के समय में लिखे हुए हैं। इन दो में से 2010_05 Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३८७ "प्राचारांग' में केवल एक "पासत्था'' शब्द प्राचारहीन साधु के लिए प्रयुक्त हुआ उपलब्ध होता है, तब "सूत्रकृतांग" में एक शब्द जो प्राचारहीनता का सूचक है अधिक बढ़ गया है । वह शब्द है "कुश'ल' । उपर्युक्त दो सूत्रों के अतिरिक्त अन्य अनेक सूत्रों में 'पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न, संसक्त, और यथाछन्द" इन पांच प्रकार के कुगुरुपों की परिगणना हुई; परन्तु आगे चलकर "नियय" अर्थात् 'नियत" रूप से "वसति" तथा "पाहार" प्रादि का उपभोग करने वालों की छ8 कुगुरु के रूप में परिगणना हुई । यह सब होने का मूल कारण गृहस्थों का संघ में प्रवेश और उनके कारण से होने वाला एक दूसरे का पक्षपात है । साधुनों के समुदाय जो पहले "गण" नाम से व्यवहृत होते थे “गच्छ” बने और "गच्छ” मैं भी पहले साधुओं का प्राबल्य रहता था वह धोरे-घोरे गृहस्थ श्रावकों के हाथों में गया, गच्छों तथा परम्परामों का इतिहास बताता है कि कई "गच्छपरम्पराएं" तो केवल गृहस्थों के प्रपंच से ही खड़ी हुई थी, और उन्होंने श्रमणगणों के संघटन का भयंकर नाश किया था। मामला यहीं समाप्त नहीं हुअा, पागमों का पठन पाठन जो पहले श्रमणों के लिए ही नियत था, श्रावकों ने उसमें भी अपना दखल शुरू कर दिया, वे कहते - अमुक प्रकार के शास्त्र गृहस्थ-श्रावक को क्यों नहीं पढ़ाये जायें? मर्यादारक्षक आचार्य कहते - श्रावक सुनने के अधिकारी हैं, वाचना के नहीं, फिर भी कतिपय नये गच्छ वालों ने अमुक सीमा तक गृहस्थों को सूत्र पढ़ाना, सुनाना प्रचलित कर दिया, परिणाम जो होना था वही हुमा, कई सुधारक नये गच्छों की सृष्टि हुई और अन्धाधुन्ध परिवर्तन होने लगे, किसी ने सूत्र-पंचांगी को ही प्रमाण मानकर परम्परागत प्राचार-विधियों को मानने से इन्कार कर दिया, किसी ने द्रव्य-स्तव भावस्तवों का बखेड़ा खड़ा करके, अमुक प्रवृत्तियों का विरोध किया, तब कइयों ने प्रागम, परम्परा दोनों को प्रमाण मानते हुए भी अपनी तरफ से नयी मान्यताएं प्रस्तुत करके मौलिकता को तिरोहित करने की चेष्टा की, इस अन्धाधुन्ध मत सर्जन के समय में कतिपय गृहस्थों को भी साधुओं के उपदेश और आदेशों 2010_05 Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ ] [ पट्टावली-पराग का विरोध कर अपनी स्वयं की मान्यताओं को मूर्त रूप देकर अपने मत गच्छ स्थापित करने का उत्साह बढ़ा । ऐसे नये मतस्थापकों में से यहां हम दो मतों की चर्चा करेंगे, एक "लोकमत" की और दूसरी " कडुवामत" की। पहला मत मूर्तिपूजा के विरोध में खड़ा किया था, तब दूसरामत वर्तमानकाल में शास्त्रोक्त प्राचार पालने वाले साधु नहीं हैं, इस बात को सिद्ध करने के लिये । लौका कौन थे ? लोकागच्छ के प्रादुर्भावक लौका कौन थे ? यह निश्चित रूप से कहना निराधार होगा । लौंका के सम्बन्ध में प्रामाणिक बातें लिखने का आधारभूत कोई साधन नहीं है, क्योंकि लौंकाशाह के मत को मानने वालों में भी इस विषय का ऐकमत्य नहीं है । लौंका के सम्बन्ध में सर्वप्रथम कागच्छ के यतियों ने लिखा है पर वह भी विश्वासपात्र नहीं । बीसवीं शती के लेखकों में शाह वाडीलाल मोतीलाल, स्थानकवासी साधु मणिलाल - जी आदि हैं, पर ये लेखक भी लौंका के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न दिशाओं में भटकते हैं | शाह वाडीलाल मोतीलाल लौंकाशाह का जन्म अहमदाबाद में मानते हैं और इनको बड़ा भारी साहूकार एवं शास्त्र का बड़ा मर्मज्ञ विद्वान् मानते हैं, तब स्थानकवासी साधु मुनिश्री मणिलालजी अपनी पट्टावली में लोंका का जन्म "अर्हटवाडा" में हुआ बताते हैं और लिखते हैं - अहमदाबाद में आकर लौंका बादशाह की नौकरी करता था और कुछ समय के बाद नौकरी छोड़ कर पाटन में यति सुमतिविजय के पास वि० सं० १५०६ में यतिदीक्षा ली थी और अहमदाबाद में चातुर्मास्य किया था, परन्तु वहां के जैनसंघ ने यति लौंका का अपमान किया, जिससे वे उपाश्रय को छोड़ कर चले गये थे । इसके विपरीत लौंका के समीपवर्ती काल में बने हुए चौपाई, रास आदि में लौंकाशाह को गृहस्थावस्था में हो परलोकवासी होना लिखा है । इन परस्पर विरोधी बातों को देखने के बाद लौंकाशाह 2010_05 Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३८९ के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित रूप से अभिप्राय व्यक्त करना साहस मात्र ही माना जायगा । लौकाशाह और इनका मन्तव्य : लौंकाशाह का अपना खास मन्तव्य क्या था, इसको इसके अनुयायी भी नहीं जानते । लौंका को मौलिक मान्यताओं का प्रकाश उनके समीपकालवर्ती लेखकों की कृतियों से ही हो सकता है, इसलिए पहले हम लौंका के अनुयायी तथा उनके विरोधी लेखकों को कृतियों के माधार से उनके मत का स्पष्टीकरण करेंगे । लौकागच्छीय यति श्री भानुचन्द्रजी कृत "याधर्म चौपाई' के अनुसार लौंका के मत की हकीकत - यति भानुचन्द्रजी कहते हैं - "भस्मग्रह के अपार रोष से जैनधर्म अन्धकारावृत हो गया था । भगवान् महावीर का निर्वाण होने के बाद दो हजार वर्षों में जो जो बरतारे बरते उनके सम्बन्ध में हम कुछ नहीं कहेंगे, जब से शाह लौंका ने धर्म पर प्रकाश डाला और दयाधर्म की ज्योति प्रकट हुई है उसके बाद का कुछ वर्णन करेंगे ।१।२।" "सौगष्ट्र देश के लींबड़ी गांव में डुङ्गर नामक दशा श्रीमाली गृहस्थ बसता था। उसकी स्त्री का नाम था चूड़ा। चूड़ा बड़े उदार दिल की स्त्री थी, उसने संवत् १४८२ के वैशाख वदि १४ को एक पुत्र को जन्म दिया और उसका नाम दिया लौका। लौंका जब पाठ वर्ष का हना तब उसका पिता शा. ड्रगर परलोकवासी हो गया था ।३.४।" 'लौंका की फूफी का बेटा लखमसी नामक गृहस्थ था, जिसने लौका का धनमाल अपने कब्जे में रखा था। लौंका की उम्र १६ वर्ष की हुई तब उसकी माता भी स्वर्ग सिधार गई। लौंका लीम्बड़ी छोड़कर अहमदाबाद आया और वहां नाणावट का व्यापार करने लगा। हमेशा वह धर्म सुनने और पौषधशाला में जाता और त्रिकाल-पूजा, सामायिक करता, व्या 2010_05 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० ] [ पट्टावली-पराग ख्यान में वह साधुयों का प्राचार सुनता, परन्तु उस समय के साधुनों में शास्त्रोक्त - प्राचार पालन न देखकर उनको पूछता - आप कहते तो सही है परन्तु चलते उससे विरुद्ध हैं, यह क्या ? लौंका के इस प्रश्न पर यति उसको कहते - धर्म तो हमसे ही रहता है, तुम इसका मर्म क्या जानो । तुम पांच ग्रश्रवसेवतो हो और साधुनों को सिखामन देने निकले हो । ५६ । ७८ ।" "यति के उक्त कथन पर शाह लौंका ने कहा- शास्त्र में तो दया को धर्म कहा है, पर तुम तो हिंसा का उपदेश देकर धर्म की स्थापना करते हो ? इस पर यति ने कहा - फिट् भोण्डे ! हिंसा कहां देखी ? यति के समान कोई दया पालने वाला है ही नहीं । लौंका ने यति के उत्तर को अपना अपमान माना और साधुत्रों के पास पौधशाला जाने का त्याग किया | स्थान-स्थान वह दया-धर्म का उपदेश देता, और कहता - ग्राज ही हमने सच्चा धर्म पाया है । दूकान पर बैठा हुआ भी वह लोगों को दया का उपदेश दिया करता, जिसे सुनकर यति लोग उसके साथ क्लेश किया करते थे, पर लौंका अपनी धुन से पीछे नहीं हटा । फलस्वरूप संघ के कुछ लोग भो उसके पक्ष में मिले, बाद में शाह लौंका अपने वतन लींबड़ी गया, लींबड़ी में लौका को फूकी का बेटा लखमसी कारभारी था, उसने लौंका का साथ दिया और कहा - हमारे राज्य में तुम धर्म का उपदेश करो । दया-धर्म ही सब धर्मो में खरा धर्म है | |१० ११ १२ " "शाह लौका और लखमसी के उद्योग से बहुत लोग दया-धर्मी बने । इतने में लौंका को भारणा का संयोग मिला । लौंका बुढ्ढा होने प्राया था, इसलिए उसने दीक्षा नहीं ली, परतु भारगा ने साधु का वेष ग्रहण किया और जिसका शाह लौंका ने प्रकाश किया था उस दया-धर्म की ज्योति भाणा ने सर्वत्र फैलायी । शाह लौंका संवत् १५३२ में स्वर्गवासी हुए |१३|१४| " दया-धर्म जयवन्त है, परन्तु कुमति इसकी निन्दा और बुराइयां करते हैं, कहते हैं - 'लौंका साधुनों को मानने का निषेध करता है, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा और दान को नहीं मानता।' परन्तु हे 2010_05 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३६१ कुमतियो ! यह क्या कहते हो ? लौंका ने किस बात का खण्डन किया है, वह समझ तो लो | "लौंका सामायिक को दो से अधिक बार करने का निषेध करता है, पर्व विना पौषध का निषेध करता है, व्रत बिना प्रतिक्रमण करने का निषेध करता है । वह भव- पूजा से ज्ञान को अच्छा बताता है, वह द्रव्य-पूजा का निषेध करता है, क्योंकि उसमें धर्म के नाम से हिंसा होती है । ३२ सूत्रों को वह सच्चा मानता है, समता-भाव में रहने वालों को वह साधु कहता है ।" उक्त प्रकार से लौंका का धर्म सच्चा है, परन्तु भ्रम में पड़े हुए मनुष्य उसका मर्म नहीं समझते । १५ । १६।१७।१८।१६" "जो कुमति है वह हठवाद करता है, जैसे बिच्छू के काटने से उन्मादी हुना बन्दर । झूठ बोलकर जो कर्म बांधता है वह धर्म का सच्चा मर्म नहीं जानता । यतना में धर्म है और समता में धर्म है, इनको छोड़कर जो प्रवृत्ति करते हैं वे कर्म बांधते हैं, जो परनिन्दा करते हैं वे पाप का संचय करते हैं, जिनमें समता नहीं है उनके पास धर्म नहीं रहता । श्रीजिनवर ने दया को धर्म कहा हैं, शाह लौंका ने उसको स्वीकार किया है और हम उसी की आज्ञा को पालते हैं, यह तुमको बुरा क्यों लगता है ? क्या तुम दया में पाप मानते हो जो इतना विरोध खड़ा कर दिया है, तुम सूत्र के प्रमाण देखो, दया विना का धर्म नहीं होता जो जिन ग्राज्ञा का पालन करते हैं, उनको मेरा नमस्कार हो । मेरे इस कथन से जिनके मन में दुःख हुआ हो उनके प्रति मेरा मिथ्यादुष्कृत हो । सं० १५७८ के माघ सुदी ७ को यति भानुचन्द ने अपनी बुद्धि के उल्लास से लौका के दया-धर्म पर यह चौपाई लिखी है, जो पढ़ने वालों के मन का उल्लास बढ़ाये | २०|२१|२२| २३२४।२५।" T ऊपर जिसका सारांश लिखा है उस दया धर्म चोपाई से शाह लौंका का जीवन कुछ प्रकाश में आता है । उसका जन्म-गांव, माता-पिता के नाम और जन्म-समय पर यह चौपाई प्रकाश डालती है । लौका मरहटवाड़ा में नहीं पर लीम्बड़ी (सौराष्ट्र) में जन्मे थे, उनका जन्म १५वीं शती के अन्तिम चरण में हुआ था । प्रपनी २८ वर्ष की उम्र में उसने यतियों 2010_05 Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ ] [ पट्टावली-पराग से विरुद्ध होकर उनके सामने “दया-धर्म के नाम से अपना मूर्तिपूजा विरोधी मत स्थापित किया था" और २२ वर्ष तक उन्होंने महेता लखमसी के सहकार से उसका प्रचार किया। सं० १५३२ में अपने पीछे भागजी को छोड़कर लौंका परलोकवासी हुए। भाणजी ने साधु का वेश लौंकाशाह के जीवनकाल में धारण किया था या उनके स्वर्गवास के बाद ? इसमें दो मत प्रतीत होते हैं। उक्त "दया-धर्म चौपाई ' में लौंका यति भानुचन्द्रजी ने सं० १५३२ में लौंकाशाह का स्वर्गवास माना है। लौंकाशाह ने खुद ने दीक्षा नहीं ली पर भाणा ने वेष-धारण किया था ऐसा चौपाई में लिखा है। इसके विपरीत लौंकागच्छ के यति केशवजी कृत लोकाशाह के सिलोके में लौंका द्वारा सं० १५३३ में भागजी को दीक्षा देने और उसी वर्ष में लौंका के स्वर्गवास प्राप्त करने का लिखा है। केशवर्षि-कृत लौं काशाहसिलोके में लेखक ने कुछ ऐतिहासिक बातें भी लिखी हैं इसलिए सिलोका के आधार से लौंकामत को कुछ बातें लिखते हैं सौराष्ट्र में नागनेरा नदी के तट पर आए एक गाव में हरिचन्द्र नाम का एक सेठ रहता था। उसको स्त्री का नाम मूगोबाई था । पूनमीया गच्छ के गुरु की सेवा से और शय्यद के आशीर्वाद से सं० १४७७ में उनके एक पुत्र हुमा जिसका नाम "लक्खा' दिया गया। लक्खा ज्ञानसागर गुरु की सेवा करता हुआ पढ़-लिखकर "लहिया" बना और वहीं पुस्तक लिखने का काम करने लगा। इस कार्य में लक्खा को द्रव्य की प्राप्ति होती थी, श्रत की भक्ति होती थी, और ज्ञान-शक्ति भी बढ़ती थी। आगम लिखतेलिखते उसके मन में शंका उत्पन्न हुई कि “पागम में कहीं भी दान देने का विधान नहीं दीखता, प्रतिमा-पूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक और पौषध भी मूल सूत्रों में कम दीखता है।" राजा श्रेणिक, कुरिणक, प्रदेशी तथा तु'गिया नगरो के श्रावक जो तत्वगवेषी थे उनमें से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न किसी को दान दिया। सामायिक और पूजा एक ठट्ठा है, मौर यतियों की चलाई हुई यह पोल है, प्रतिमा-पूजा बड़ा सन्ताप है, इसको करके हम धर्म के नाम पर थप्पड़ खाते हैं। लक्खा को लोग "लुम्पक" कहते हैं सो ठीक ही है, क्योंकि वह प्रविधि का लोप करने वाला है । ___ 2010_05 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३९३ लखा का दूसरा नाम लऊका भी है। वह संयत नहीं है, फिर भी यति से अधिक है। लोगों ने लौंका-मत को परख लिया है । सं० १५०८ में सिद्धपुर में लौंका ने खोज-पूर्वक शुद्ध जिन मत की स्थापना की है । लौंका मत प्रसिद्ध हुआ। बादशाह मुहम्मद लुका-मत को प्रमाण मानता है। सूबा, सेवक सब कोई इसको मानते हैं और लखा गुरु के चरणों में शिर नवांते हैं। उस समय सोरठ देश में लीम्बड़ी गांव का लखमसी वामक एक कामदार था, उसने लुकागुरु का उपदेश ग्रहण किया और देश-विदेश में विस्तार किया। इस मत के सम्बन्ध में जो कोई वाद-विवाद करता है तो न्यायाशीश भी 'लौंका' का पक्षपात करता है। ___सं० १५३३ के वर्ष में लौंका-मत के प्रादुर्भावक शाह लौ का ने ५६ वर्ष की उम्र में स्वर्गवास प्राप्त किया और १५३३ में ही लौका ने भाणजी को शिक्षा दी थी।" भाणजी ऋषि सत्य का और जीव-दया का प्रचार करते थे। वर्धमान की पेढी के नायक बनकर भागजी ऋषि देश-विदेश में विचरते थे और अब तक उनकी शुद्ध परम्परा चलती है । ___ 2010_05 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकागच्छ की पट्टावली (१) सिलोके में केशवजी कहते हैं - अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान के गुणवान् ११ गणधर हुए इसलिए उनकी पाट-परम्परा कहते हैं - १ महावीर के पंचम गणधर सुधर्मास्वामी हुए । ५ यशोभद्र, ६ संभूति, १० सुहस्ती, ११ बहुल १४ स्कन्दिलस्वामी, २ सुधर्मा के शिष्य गुणवान् जम्बू हुए । ३ जम्बू के प्रभव, ४ प्रभव के शय्यम्भव, ७ बाहुस्वामी, ८ स्थूलभद्र, ६ महागिरि, और १२ बल्लिरसह स्वाति, १३ कालिकसूरि, १५ श्रार्यं समुद्र, १६ श्रीमंगू, १७ श्रीधमं, १८ भद्रगुप्त, १९ वज्रस्वामी, २० सिंहगिरि, २१ वज्रसेन, २२ चन्द्र, २३ समन्तभद्र, २४ मल्लवादी, २५ वृद्धवादी, २६ सिद्धसेन, २७ वादीदेव २८ हेमसूरि २६ जगच्चन्द्रसूरि ३० विजयचन्द्र, ३१ खेमकीर्तिजी, ३२ हेमजीस्वामी, ३३ यशोभद्र, ३४ रत्नाकर, ३५ रत्नप्रभ, ३६ मुनिशेखर, ३७ धर्मदेव, ३८ ज्ञानचन्द्रसूरि । 2010_05 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौंकामना की पहावली (२) हमारे भण्डार में श्री कल्पसूत्र मूल की एक हस्तलिखित प्रति है, उसके अन्तिम पत्र १७२ से १७४ तक में लौंकागच्छीय पट्टावली दी हुई है । यह कल्पसूत्र सं० १७६४ में लिखा गया था ऐसा इसकी निम्नोद्धत पुष्पिका से ज्ञात होता है - __"इलि कल्पसूत्र समाप्त “छ" श्री श्री संवत् १७६४ वर्षे शा० १६६० प्रवर्तमाने चैत्रमासे, कृष्णपक्षे ६ गुरौ लि. पूज्य श्री ५ नाथाजी, तत् शिष्य ५ मनजीजी तत् शिष्य श्री ५ मूलजी, गुरुभ्राता प्रेमजी लिपी कृतं स्वात्मार्थे ।" उपर्युक्त पुष्पिका से ज्ञात होता है कि यह पट्टावली आज से लगभग सवा दो सौ वर्ष पहले लिखी गई है और इसके लिखने वाले लौकागच्छ के श्रीपूज्य मूलजी के गुरुभाई प्रेमनी यति थे। पट्टावली का प्रारम्भ श्री स्थूलभद्रस्वामी से किया है, अन्य पट्टावली लेखकों की तरह इसके लेखक ने भी अनेक युगप्रधानों के नामों तथा समयनिरूपण में गोलमाल किया है; फिर भी हम इसमें कुछ भी मौलिक परिवर्तन न करके पट्टावली को ज्यों का ज्यों उद्धृत करते हैं - ॥६॥ तत् पटे श्री स्थूलभद्रस्वामीऽत्र स्थूलभद्रजीकथा सर्व जाणवी ॥७॥ दशपूर्वधारी महावीर पछी १७० वर्षे देवलोक पहोतो॥ तत्पटे प्रार्य महागिरी १० पूर्वधर, ॥८॥ तत्पट्टे प्रार्य सुहस्तस्वामी, ॥॥ तत्प? श्री गुरणगार स्वामी, ॥१०॥ तत्पट्टे श्री कालिकाचार्य, ॥११॥ तत्प? श्री संडिलस्वामी, ॥१२॥ तत्पट्टे श्री रेवतगिरस्वामी, ॥१३॥ तत्पट्टे सौधर्माचार्य, ___ 2010_05 Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ ] [ पट्टावली-पराग ॥ १४ ॥ तत्पट्टै श्रीगुप्तास्वामी ॥१५॥ तत्पट्टे श्री श्रार्य मंगुस्वामी ॥१६॥ तत्पट्टे श्री सुधर्मस्वामी ॥१७॥ तत्पट्टे श्री वृद्धवादधरस्वामी ॥१८॥ तत्पट्टे श्री कुमुदचन्द्रस्वामी ॥१६॥ तत्पट्टे श्री सिंहगिरिस्वामी ॥२०॥ तत्पट्टे श्री वरस्वामी दशपूर्वधर, ॥ २१॥ तत्पट्टे श्री भद्रगुप्ताचार्य स्वामी, ॥२२॥ तत्पट्टे श्री आर्यनन्द स्वामी ॥२३॥ तत्पट्टे श्री श्रार्यनागहस्ती स्वामी ॥२४॥ ते वारे बीजी पट्टावलीगां सत्तावीसमे पार्ट देवर (धि) गरि जे सर्व सूत्र पुस्तके चढाव्या ते समस्थ ज. गव्यो, प्रार्थनागहस्ती, तत्पट्टे श्री रेवतस्वामी ॥ २५ ॥ तत्पट्टे श्री ब्रह्मदिन्नस्वामी ॥२६॥ तत्पट्टे श्री संडिलसूरि ॥२७॥ तत्पट्टे श्री हेमवन्तसूरि ॥२८॥ तत्पट्टे श्री नागार्जुनस्वामी ॥२६॥ तत्पट्टे श्री गोवन्दवाचक स्वामी ॥३०॥ तत्पट्टे श्री संभूतिदिनवाचक स्वामी, ॥३१॥ तत्पट्ट श्री लोहगिरिस्वामी ॥३२॥ तत्पट्ट श्री हरिभद्रस्वामी ॥३३॥ तत्पट्टे श्री सिलंगाचार्यस्वामी ॥३४॥ 1 , तिवारपनी (छी ) १२ दुकाली जोगे पाट लोहडीवडी पोसाल मां चाल्या जात् पौसालिक धर्म प्रवत्यों । पौशालिक कालि माहात्मा नामघरवुई छै ॥ पाट ३३ | ३४ सूधी पूर्वधर छे, पछे पूर्व विद्या ढांको पोसाल प्रवति जातां जातां पाट १० । १२ पोसाल मां थया, तिखे समें सूत्रने ढांकी अनेरा दहेरा पोशालना माहातम ग्रन्थकरी पूजाsर्चा धर्म चलाग्यो, वीर पछी १२ सौं वर्षे देहरा प्रवर्त्य, जावत् महावीर पछी बेसहस्र वर्ष वुझों तिहां सूधी पौशाल धर्म प्रवर्तना थई | तेणे समें श्री गुजर देशें श्रणहल्लपुर पाटन में विषे मोटी पौशाल सूरी सूरपाट प्रवति थई, तेरणे समे ते नगरमां लोकासाह इस नामहं विवहारी वसे छे, जावत सिद्धवंत छे, लिखत कला छै, ते माटे एकदा समे सूरि सूरे सिद्धान्त परत जुनी थाई जांगी लका साहनें लिखवा दीधी, ते लिखतां वीरवांगी सिधांत जाण्यों १ परत पोती ने अर्थ लिखें १ परत सूरिसर ने लिखी देयें, एम करतां ३२ सूत्र लिख्यां, तेणे समे सूरिशरे जाण्यो ते पोतानी प्रति पर लिखे छै पर्छ भंडारमाथी लिखवा दीधी नहीं । पाटन ना भंडार मां ८४ सूत्र छै. बोजी श्रागमोक्त सर्व विद्यारण छै, परण ३२ सूत्र लकेताहि लिल्पांति श्रावक श्रागेवांची साधना गुण दिषाडे ॥ वीरवारणी ओलखाववे इत्र करतां केतलाक सूत्र रुचि 2010_05 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ३६७ श्रावक थया, साध मूर्त मानता थया, तेरपे समय मारवाड थी एक संघ सेत्रुजानी जात्राइं जाई, तेमा ८ संघ मुखी छे, भारणा, भीदा, जगमाल, सरवा प्रमुख ते पाटण प्राव्या, ते लकासाह नो नवीन धर्म प्रबोध सांभलवा पाव्या, तेरणे प्रबोध दई सिद्धान्त पोल खाव्यो, तेणे पोसाली धर्म, देहरों, प्रतमा पुजा मुकी, सधिथया, तारे लके साही सूत्र ३३ साधने ते संप्या हवे, तुम्यों वचिो धर्म धुरंधर, त्यार पछी भारादिक साधे वीरधर्मवारणी साधु धर्म देशे २ प्रवर्तना कींधी, इम सूरिसरे जाण्यो जे सर्वे ए धर्म ग्रहसे, तारि पोसालमाथी पाटधारी सूरि क्रियाउधारो निकल्या, नाम 'तपगछ" धराणों, इम करतां भारणा, भीदाना साधप्रवा, तेणे प्राचार्यपद धरयो लके साहिं धर्म प्रवर्ताव्यो ते माटे प्राचार्ये "लुका नामे गच्छ स्थापना कीधी" लुकागच्छ स्थापना जाणवी। श्रीवीरवाणी महापन्नवरणा सूत्र मां तथा दुसरा ग्रन्थ मां कह्यो छ, जे पंचमा प्रारा मां 'रूपा, जीवा दो पारीया भवई", ते प्राचार्य प्रेमना साध धर्म प्रवा; तेणे समे संवत् १५०० मध्ये दक्षण देशे निकलंकी राजा ने घरे धर्मदत्त पुत्र उपनो, लोक मां बुध अवतारे कहवाणो, गुप्त पणे साधुधर्म प्रकासे, जिनशासन धर्मउदे करी संबुध कला ज्ञानप्रकासी पाचमां देवलोके देवता थया। तेलकगच्छ मां थया, तीर्थ गौत्री ते वीरवाणी सूत्र मांही छे, ते रूप रुष धर्म धूरंधर मंहत पुरुष धर्माचार्य भवप्राणी उधारक थया तिल (तेह) ना पाट लिखिये प्रथम पाट युगप्रधान श्री ६ श्री रुपरखजी (१), ता? श्री युगप्रधान श्री ६ जीवरुषजी जी ॥२॥, तत्पट्टे यु. श्री ६ वरुद्धवरसंगाजी ॥३॥, तत्पट्टे यु० श्रीं ६ थी लघुषरसंगजी ॥४॥, तत्पट्टे यु० जसवंतजी ॥५॥, तत्पट्टे यु० श्री ६ रुपसिंहजी ॥६॥, तत्पट्टे यु० श्री ६ दामोदरजी ॥७॥, तत्पट्टे यु० ६ श्री क्रमसिहजीं ॥८॥, तत्प? युग० श्री ६ केशवजी ॥८॥, सत्पट्टे यु० तेजसिंहजी ॥१०॥, तत्पट्टे यु० श्री ६ लख्यमचंद्रजी ॥११॥, तत्प? श्री ६ श्री वुलसिंहजी ॥१२॥, तत्पट्टे यु० श्री ६ श्री जगरूपजीजी जय. जयवन्तं, अस्मिन् जंबुद्वीपे अस्मिन् भरतखण्डे, दक्षरण भरते, अस्मिन् देशे, अस्मिन् ग्रामनगरे, अस्मिन् चतुर्मास चतुविध संग धर्म प्रबोधित तेहुना मात्र हे एका मुसिहजी व अस्मिन में ____ 2010_05 Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ ] [ पट्टवली-पराग गुणकर्कोतिनां करतां संघ ने यर्भ (परम) कल्याणनी कोड हुई ॥श्रीरस्तु॥ तत्पट्टे श्री ६ श्री जगजीवनजी, तत्प? श्री : मेघराजजी, तत्प? युगप्रधान जयवंता श्री ६ श्री सोमचंदजी, तत्पट्टे श्री ६ श्री हर्षचन्द्रजी, तत्पट्टे श्री ६ युगप्रवर्तक जयचन्द्रजी, तत् श्री युगप्रवर श्री ६ कल्याणचन्द्र सूरिसर छ ।” a 2010_05 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लौकामना की पहावली (3) (बड़ोदे की गादी) तपगच्छ की बड़ी पौशाल के प्राचार्य ज्ञानसागरसूरि के पुस्तक-लेखक लौंका गृहस्थ ने मूर्तिपूजा के विरुद्ध में अपना लौंकामत चलाया, उसके मतानुयायी ऋषि नामक वेशधारियों की एक परम्परा नीचे मुजब है - १. भारगजी ऋषि २. भीदा जी , ३. नूनाजी , ४. भीमाजी , ५. जगमालजी , ६. सर्वाजी , ७. रुपजी , . जीवाजी , (१) ६. वरसिंहजी (बृद्ध) को सं० १६१३ के ज्येष्ठ वदि १३ को बड़ौदे के भावसारों ने श्रीपूज्य का पद दिया, तब से उनकी गादी बड़ोदे में स्थापित हुई और "गुजराती लौंकागच्छ मोटीपक्ष" ऐसा नाम प्रसिद्ध हुमा । इसी दान अहमदाबाद के मूल गादी के श्रीपूज्य कुवरजी ऋषि के उत्तराधिकारी श्री मेघजी ऋषि ने २६ ऋषियों के साथ आचार्य श्री हीरसूरि के पास दीक्षा स्वीकार की, सं० १६२८ में। (२) १० वरसिंहजी ऋषि (लघु) दूसरे वरसिंहजी जिनका स्वर्गवास ___ 2010_05 Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] [ पट्टावली-पराग - १६५२ में हुआ था, के शिष्य कलाजो ने भी संवेग. मार्ग स्वीकार किया था जो विजयानन्दसूरि के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। ११. यशवन्त ऋषि १२. रुपसिंहजी , १३. दामोदरजो, १४, कर्मसिंहजी, १५. केशवजो , गुजराती लौकागच्छ के बड़े पक्ष का दूसरा नाम "केशवजी पक्ष' भी है। १६. तेजसिंहजो , १७. कानजी , १८. तुलसीदासजी, १६. जगरूपजी , २०. जगजीवनजी , २१. मेघराजजी , २२. सोमचन्दजी , २३. हरकचन्दजी , २४. जयचंदजी , २५. कल्याणचन्दजी, २६. खूबचन्दजी , २७. श्रीपूज्य न्यायचन्द्रसूरि ___ 2010_05 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालापुर की गादी की लौंका पहावली (8) ८. ऋषि जीवाजी ६. , कुवर जी - इनको बालापुर के श्रावकों ने श्रीपूज्य का पद दिया, तब से इनकी गादी बालापुर में स्थापित हुई और “गुजराती लौंकापक्ष का छोटा पक्ष'' इस नाम से वह प्रसिद्ध हुई। इनके शिष्य ऋषि मेघजो अहमदाबाद की गादी ऊपर थे, जिन्होंने संवेगो-मार्ग ग्रहण किया था। श्रीमलजी ११. , रत्नसिंहजो ., केशवजी - स्व० सं० १६८६ में । ., शिवजी - इनके शिष्य धर्मसिंह के शिष्य धर्मदासजी ने "दण्ढिया" मत चलाया। १४. , संघराजजी - स्व० सं० १७२५ में । आनन्द ऋषि ने अपने शिष्य ऋषितिलक को श्रीपूज्य बनाकर नया गच्छ स्थापित किया जो "अढारिया" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । १५. , सुखमलजी - स्वर्ग सं० १७६३ में। १६. , भागचन्द्रजी १७. " बालचंदजी १८. , माणिक्यचंदजी १६. , मूलचदजी - स्वर्ग सं० १८७६ , जगतचंदजी , रतनचंदजो २२. , नृपचंदजी - (मुनि मणिलाल-कृत "प्राचीन संक्षिप्त इतिहास") ___ 2010_05 Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुजराती लौंकागाछ की पहावली (१) (पू० जयराजजो) (पू० ) ऋ० मेघराजजी) (, , कृष्णाजी ) (, , वगतमलजी) , परसरामजी) ज्योतिरूपजी) सं० १८६५ (, , हर्षजी ) (, , जिनदासजी) सं० १६१० आगरा ___ 2010_05 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केशवर्षि वशित लौकागना की पहावली (8) भाणाजी ऋषि के पाट पर सुबुद्धिभद्र ऋषि हुए। भीमाजी स्वामी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी इस समय कुमति वीजा पापी निकला जिसने फिर जिन-प्रतिमा को स्थापना की । सर्वा स्वामी के बाद-रूपजी । जीवाजी। कुवरजी। श्रीमलजी ऋषि जो विचर रहे हैं, इन पूज्य के चरणों को प्रणाम करके केशव ने यह गुरुपरम्परा गाई है । उपर्युक्त लौंकाशाह-सिलोका के लेख के श्री केशवजी ऋषि ने श्रीमल जी को अपना गुरु बताया है और श्रीमलजी लौकाशाह के आठवें पट्टधर श्री जीवर्षि के तीन शिष्यों में से एक थे, इससे सिलोका के लेखक केशवजी सं. १६०० के आसपास के व्यक्ति होने चाहिए। इनसे २५-३० वर्ष पूर्ववर्ती लौका-गच्छीय यति भानुचन्द्रजी लौका की मान्यता के सम्बन्ध में मन्दिरमागियों की तरफ से होने वाले आक्षेपों का उत्तर देते हुए कहते हैं"लौका यतियों को नहीं मानता, लौका सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, जिनपूजा, दान नहीं मानता इत्यादि।" क्या कहा ? लुका ने क्या उत्थान किया है ? वह तो दो बार से अधिक बार सामायिक करने, पर्वदिन बिना पौषध करने, १२ व्रत बिना प्रतिक्रमण करने, नागार-सहित 2010_05 Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] [ पट्टावली-पराग प्रत्याख्यान करने और असंयत को दान देने का निषेध करता है । तब भानुचन्द्रजी से बाद में होने वाले केशवजी ऋषि मन्दिर - मार्गियों की तरफ से किये जाने वाले आक्षेपों का खण्डन न करके अपने लौंकाशाह के सिलोका की गाथा १३, १४, १५ में उनका समर्थन करते हैं। वे कहते हैं- "दान देने में श्रागम साक्षी नहीं है । प्रतिमापूजा, प्रतिक्रमण, सामायिक और पौषध भी श्रागम में नहीं है । राजा श्रेणिक, कुणिक, प्रदेशी और तत्त्वगवेषक तुंगिया के श्रावकों में से किसी ने प्रतिक्रमण नहीं किया, न पर को दान दिया । सामायिक पूजा यह ठट्ठा है और यतियों की चलाई हुई पोल है, प्रतिमा पूजा सन्ताप रूप है तो इसको करके हम धर्म को थप्पड़ क्यों लगाएं ? यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि की इन परस्पर विरोधी बातों से मालूम होता है कि लौंकाशाह की मान्यताओं के सम्बन्ध में होने वाले प्रक्षेप सत्य थे । यदि ऐसा नहीं होता तो केशवजी ऋषि उनका समर्थन नहीं करते, इसके विपरीत यति भानुचन्द्रजी ने इन प्रक्षेपजनक बातों का रूपान्तर करके बचाव किया है। इससे निरिचित होता है कि लौंका की प्रारम्भिक मान्यतानों के सम्बन्ध में लौका के अनुयायी ऋषियों में ही बाद में दो मत हो गये थे, कुछ तो लोकाशाह के वचनों को अक्षरशः स्वीकार्य्यं मानते थे, तब कतिपय ऋषि उनको सापेक्ष बताते थे । कुछ भी हो एक बात तो निश्चित है कि कोई भी लौंका का अनुयायी लौंका के सम्बन्ध में पूरी जानकारी नहीं रखता था । यति भानुचन्द्रजी ने aौंका के सम्बन्ध में जो कुछ खास बातें लिखी हैं, केशवजी ऋषि ने अपने लौंका - सिलीका में उनसे बिल्कुल विपरीत लिखी हैं । भानुचन्द्रजी लौंका का जन्म सं० १४८२ के वैशाख वदि १४ को लिखते हैं, उसका गांव लीम्बड़ी, जाति दशा श्रीमाली और माता-पिता के नाम शाह डुंगर भौर चूड़ा लिखते हैं तथा लोंका का परलोकवास १५३२ में हुमा बताते हैं । इसके विपरीत केशव ऋषि लोंका का गांव नागनेरा नदी के तट पर बताते हैं और माता पिता के नाम सेठ हरिचन्द्र और मूंगीबाई लिखते हैं, लौंका का नाम लखा लिखते हैं और उसका जन्म १४७७ में बताते हैं और लौंका का स्वर्गवास सं० १५३३. में होना लिखते हैं । इस प्रकार लोकाशाह के निकटवर्ती अनुयायी ही उनके सम्बन्ध में एक-मत नहीं थे तो अन्य गच्छ 2010_05 Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ] [ ४०५ तथा सम्प्रदाय की मान्यता का निर्देश करके इस विषय को बढ़ाना तो बेकार ही होगा। लौंका के जन्म-स्थान और जाति के सम्बन्ध में तो इतना अज्ञान छाया हुआ है कि उसका किसी प्रकार से निर्णय नहीं हो सकता। कोई इनको दशा-श्रीमाली और लीम्बड़ी में जन्मा हुना मानते हैं, कोई इनको प्रोसवाल जातीय अरहटवाड़ा का जन्मा हुआ मानते हैं, कोई इनको दशा-पोरवाल जाति में पाटन में जन्मा हुआ मानते हैं। कोई इनको नागनेरा नदी-तट के गांव में जन्म लेने वाला मानते हैं, कोई इनको जालोर मारवाड़ समीपवर्ती पौषालिया निवासी मानते हैं, कोई इनका जन्म-स्थान जालोर को मानते हैं, तब स्वामी जेठमलजी, श्री अमोलक ऋषिजी, श्री सन्तबालजी और शा० वाड़ीलाल मोतीलाल लौंकाशाह को अहमदाबाद निवासी मानते हैं। पूर्वोक्त लौंकाशाह के संक्षिप्त निरूपण से इतना तो निश्चित हो जाता है कि लोकाशाह १५वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से १६वीं शती के द्वितीय चरण तक जीवित रहने वाले एक गृहस्थ व्यक्ति थे । लौका ने मूर्तिपूजा के अतितिक्त अनेक बातों को प्रशास्त्रीय कहकर खण्डन किया था, परन्तु उनके अनुयायी ऋषियों ने एक मूर्तिपूजा के अतिरिक्त शेष सभी लौंका द्वारा निषिद्ध बातों को मान्य कर लिया था और कालान्तर में लौंकागच्छ के अनुयायो यतियों और गृहस्थों ने मूर्तिपूजा का विरोध करना भी छोड़ दिया था। आज तक कई स्थानों में लुकागच्छ के यति विद्यमान हैं जो मूर्तियों के दर्शन करते हैं और उनकी प्रतिष्ठा भी करवाते हैं और लौकागच्छ का अनुयायी गृहस्थवर्य जिन-मूर्तियों को पूजा भी करता है । 2010_05 Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लकागाछ और स्थानकवासी लौंकागच्छ के अनुयायी यति और गृहस्थ जब लौंका की मान्यताओं को छोड़ कर अन्य गच्छों के यतियों की मर्यादा के बिलकुल समीप पहुँच गए तब उनमें से कोई कोई यति क्रियोद्धार के नाम से अपने गुरुओं से जुदा होकर मुंह पर मुहपत्ति बांध कर जुदा फिरने लगे । इन क्रियोद्धारकों में पहला नाम “धर्मसिंहजी" का है, लौंकागच्छ वालों ने इनको कई कारणों से गच्छ बाहर कर दिया था। इस सम्बन्ध में नीचे लिखा दोहरा पढ़ने योग्य है - "संवत् सोलह पंच्च्यसिए, अहमदाबाद मझार । शिवजी गुरु को छोड़ के. धर्मसिंह हुआ गच्छ बहार ॥" क्रियोद्धारकों में दूसरे पुरुष यति लवजी थे जो लौंकागच्छीय यति बजरंगजी के शिष्य थे। गुरु के मना करने पर भी लवजी मुंह पर मुहपत्ति बांधकर उनसे अलग हो गये। धर्मसिंह और लवजी सूरत में मिले, दोनों क्रियोद्धारक थे, दोनों मुहपत्ति बांधते थे, पर छ:-कोटि पाठ-कोटि के बखेड़े के कारण ये दोनों एक दूसरे से सहमत नहीं हुए, इतना ही नहीं, वे एक दूसरे को जिनाज्ञाभंजक और मिथ्यात्वी तक कहते थे। तीसरे क्रियोद्धारक का नाम था धर्मदासजी। ये धर्मसिंहजी तथा लवजी में से एक को भी नहीं मानते थे और स्वयं मुहपत्ति बांधकर क्रियो. द्धारक के रूप में फिरते थे। इन क्रियोद्धारकों से समाज और लौंकागच्छ को जो नुकसान हुआ है उसके सम्बन्ध में वाड़ीलाल मोतीलाल शाह का निम्नोद्धृत अभिप्राय पढ़ने योग्य है। शाह कहते हैं - ____ 2010_05 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४०७ " x x x इतना इतिहास देखने के बाद में पढ़ने वालों का ध्यान एक बात पर खींचना चाहता हूं कि स्थानकवासी व साधुमार्गी जैन-धर्म का जब से पुनर्जन्म हुआ तब से यह धर्म अस्तित्व में श्राया और आज तक यह जोर-शोर में था या नहीं ! अरे ! इसके तो कुछ नियम भी नहीं थे, यतियों से अलग हुए और मूर्तिपूजा को छोड़ा कि ढूंढिया हुए । x x x 33 " x x x मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैन-धर्म का बड़ा भारी नुकसान हुआ, इन तीनों के तेरह सौ भेद हुए । xxx " ऊपर के विवरण से सिद्ध होता है कि भाज का स्थानकवासीसम्प्रदाय लौंका गच्छ का अनुयायी नहीं है, किन्तु लौंकागच्छ से बहिष्कृत धर्मदासजी लवजी तथा स्वयं वेशधारी धर्मसिंहजी का अनुयायी है, क्योंकि मुँह पर मुँहपत्ति बाँध कर रहना उपर्युक्त तीन सुधारकों का ही प्राचार है । काशाह स्वयं असंयत दान का निषेध करते थे, तब उक्त क्रियोद्धारक अभयदान का शास्त्रोक्त मतलब न समझ कर पशुओं, पक्षियों को उनके मालिकों को पैसा देकर छोड़ाने को अभयदान कहते थे । आज तक स्थानकवासी-सम्प्रदाय में यह मान्यता चली श्रा रही है । प्राजकल के कई स्थानकवासी - सम्प्रदायों ने अपनी परम्परा में से शाह लौंका का नाम निकाल कर ज्ञानजी यति, अर्थात् "ज्ञानचन्द्रसूरिजी " से अपनी पट्टपरम्परा शुरु की है। खास करके पंजाबी और कोटा की परम्परा के स्थानकवासी साधु लौंका का नाम नहीं लेते, परन्तु पहले के Maiगच्छ के यति लौंकाशाह से ही अपनी पट्टपरम्परा शुरु करते थे । हमने पहले जिस लोकाशाह के शिलोके को दिया है उसमें केशवजी ऋषि द्वारा लिखी हुई पट्टावली केशवर्षि वरिंगत, "लौंकागच्छ की पट्टावली ( ६ ) " इस शीर्षक के नीचे दी है । श्री देवद्धि गरि के बाद ज्ञानचन्द्रसूरि तक के प्राचार्यों के नामों की सूची देकर केशवजी लौंकाशाह का वृत्तान्त लिखते हैं तथा लोकाशाह के उत्तराधिकारी के रूप में भारगजी ऋषि को बताते हैं और भागजी के बाद 2010_05 Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ ] [ पडावली-पराग भद्र ऋषि लवण ऋषि भोमाजी जगमाल ऋषि सर्वा स्वामी रूपजी जीवाजी कुवरजी और श्रीमलजी के नाम लिखकर उनको प्रणाम करते हैं । इस लेख से प्रमाणित होता है कि लुकागच्छ वालों ने अपना सम्बन्ध वृद्धपौषालिक पट्टावली से जोड़ा था, परन्तु उनमें से निकले हुए धर्मदासजी लवजी और धर्मसिंहजी के बाद उनके अनुयायियों में अनेक परम्पराएं और आम्नाय स्थापित हुए। इन आम्नायों के अनुयायी स्थानकवासी साधु अपना सम्बन्ध प्रसिद्ध अनुयोगधर श्री देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण से जोड़ना चाहते हैं, इसके लिए उन्होंने कल्पित नाम गढ़कर अपना सम्बन्ध जोड़ने का साहस भी किया है, परन्तु इसमें उनको सफलता नहीं मिली, क्योंकि लौकागच्छ वालों ने तो, ज्ञानचन्द्रसूरि तक के पूर्वाचार्यों को अपने पूर्वज मान कर सम्बन्ध जोड़ा था और वह किसी प्रकार मान्य मी हो सकता था, परन्तु स्थानकवासी समाज के नेता ५२५ वर्ष से अधिक वर्षों को कल्पित नामों से भर कर अपने साथ जोड़ते हैं, यह कभी मान्य नहीं हो सकेगा। इस समय हमारे पास स्थानकवासो-सम्प्रदाय की चार पट्टावलियां मौजूद हैं - (१) पंजाबी स्थानकवासी साधुओं द्वारा व्यवस्थित की गई पट्टावली। (२) अमोलक ऋषिजी द्वारा संकलित । (३) कोटा के सम्प्रदाय द्वारा मानी हुई पट्टावली और (४) श्री स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी द्वारा व्यवस्थित की हुई पट्टावली। ___ 2010_05 Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४०९ ___ये चारों ही पट्टावलियां प्राचार्य देवगिरिण क्षमाश्रमण पर्यन्त की हैं। इनमें गणधर सुधर्मा से लेकर नवमें पट्टधर प्राचार्य महागिरि तक के नाम सब में समान हैं, बाद के १८ नामों में एक दूसरे से बहुत ही विरोध है, परन्तु इसकी चर्चा में उतर कर समय खोना बेकार है। पंजाब के स्थानकवासियों को पट्टावली में देवद्धिगरिण के बाद के १८ नाम छोड़ कर आगे के नाम निम्न प्रकार से लिखे हैं - "४६ हरिसेन, ४७ कुशलदत्त, ४८ जीवनर्षि, ४६ जयसेन, ५० बिजयर्षि, ५१ देवर्षि, ५२ सूरसेनजी, ५३ महासेन, ५४ जयराज, ५५ विजयसेन, ५६ मिश्र(त्र)सेन, ५७ विजयसिंह, ५८ शिवराज, ५६ लालजीमल्ल, ६० ज्ञानजी यति । SEARTH, NER ___ 2010_05 Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासियों की हस्तलिखित पहावली १. स्थानकवासी पट्टावलियों के सम्बन्ध में ऊपर हमने जो ऊहापोह किया है, वे सभी मुद्रित पट्टावलियां हैं। अब हम एक हस्तलिखित पट्टावली के सम्बन्ध में विचार करेंगे। हमारे पास स्थानकवासी सम्प्रदाय की एक ११ पत्र की पट्टावली है जिसका प्रारंभ निम्नलिखित शब्दों से होता है __ "प्रथः श्री गुरुभ्यो नमो नमः" ॐ ह्री श्री मोतीचन्दजी, श्री बर्दीचन्दजो श्री नमो नमः।" "प्रथः श्री पटावली लिखते" "वली पाट परंपराये चाल्यो प्राबे छ ते कहे छ-" "श्री जेसलमेर ना भंडार मांहे थी पुस्तक लौंके महेताजीने कडावी जोया छ, तिरणमांहे ऐसी वीगत निकली छ ॥" उपर्युक्त प्रारम्भ वाली पट्टावली किसी स्थानकवासी पूज्य ने सं० १६३६ के वर्ष में गांव सीतामऊ में लिखी हुई है, ऐसा अन्तिम पुष्पिका से ज्ञात होता है। “पटावली" यह अशुद्ध नाम स्वयं बताता है कि इसका लेखक संस्कृत का जानकार नहीं था, उसने इस पट्टावली में सुनी-सुनाई बातें लिखी हैं और जैसलमेर के भण्डार में से पुस्तकें लौंका महेता ने निकालकर देखने की बात तो कोरी डींग है, क्योंकि लौंका महेता ने अहमदाबाद और लीम्बड़ी के बीच के गांवों के अतिरिक्त कोई गांव देखे ही नहीं थे। लौंका के परलोकवास के बाद भाणजी आदि ने गुजरात और अन्य प्रदेशों में फिरकर लौंका के मत का प्रचार किया था पर उनमें से कोई जैसलमेर गया हो ऐसा प्रमाण नहीं मिलता। 2010_05 Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] प्रस्तुत पट्टावली-लेखक जैनशास्त्र और ज्योतिषशास्त्र से कितना दूर था यह बात उसके निम्नलिखित शब्दों से स्पष्ट होती है लेखक इन्द्र के मुख से भगवान महावीर को कहलाता है - "अहो भगवन्त ! पूज्य तुमारी जन्मरास उपरे भस्म ग्रहो बेठो छे, दोय हजार वरसनो सीघस्थ छ ।" भगवान महावीर की जन्मराशि पर दो हजार वर्ष की स्थिति वाला भस्मग्रह बैठने और उसको "सिंहस्थ" कहने वाले लेखक ने "कल्प-सूत्र” पढ़ा मालूम नहीं होता, क्योंकि कल्पसूत्र देखा होता तो वह भगवन्त को जन्मराशि न कहकर जन्म-नक्षत्र पर दो हजार वर्ष की स्थिति का भस्मग्रह बैठने की बात कहता, और "भस्मग्रह को सिंहस्थ' मानना भी ज्योतिष से विरुद्ध है। प्रथम तो भगवान् महावीर के समय में राशियों का प्रचलन ही नहीं हुआ था, दूसरा महावीर की जन्मराशि "कन्या" है पौर जन्म नक्षत्र "उत्तरा-फाल्गुनी।" इस परिस्थिति में उक्त कथन करना अज्ञानसूचक है। __अब हम पट्टावलीकार की लिखी हुई देवद्धिगणि क्षमा-श्रमण तक की पट्टपरम्परा उद्धृत करके यह दिखायेंगे कि मुद्रित लौकागच्छ की सभी पट्टावलियों में देवद्धिगणि की परम्परा नन्दी-सूत्र के अनुसार देने की चेष्टा की गई है, वह परम्परा वास्तव में देवद्धि की गुरु-परम्परा नहीं है, किन्तु अनुयोगधर वाचकों की परम्परा है। तब प्रस्तुत पट्टावली में लेखक ने देवधिगणि क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा समझकर दी है, जिससे कई स्थानों पर भूलें दृष्टिगोचर होती हैं। प्रस्तुत पट्टावली की देवर्द्धिगणि-परम्परा : (१) सुधर्मा (२) जम्बु (४) शय्यम्भव (५) यशोभद्र (७) भद्रबाहु (८) स्थूलभद्र (१०) सुहस्ती (११) सुप्रतिबुद्ध (१३) मार्यदिन (१४) वज्रस्वामी (३) प्रभव (६) संभूतविजय ___(8) महागिरि (१२) इन्द्रदिन्न (१५) वज्रसेन 2010_05 Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] (१६) प्रार्य रोहण ( १९ ) धरणीधर स्वामी (२२) श्रार्य नक्षत्र (१७) पुष्यगिरि (२० ) शिवभूति (२३) श्रार्यरक्ष (२५) जेहल विसन स्वामी (२६) संदिदत्र 2010_05 [ पट्टावलो-पराग (१८) युगमन्त्र (२१) आर्यभट्ट पट्टावली लेखक यह परम्परा नन्दीसूत्र के आधार से लिखी बताते हैं जो गलत है । इस परम्परा के नामों में आर्य-महागिरि और श्रार्य सुहस्ती को एक पट्ट पर माना है, तब प्रार्य - सुहस्ती के बाद के नामों में से कोई भी नाम नन्दी में नहीं है, किन्तु पिछले सभी नाम कल्पसूत्र की स्थविरावली के हैं, इसमें दिया हुआ ११ वां सुप्रतिबुद्ध का नाम अकेला नहीं किन्तु स्थविरावली में "सुस्थित सुप्रतिबुद्ध" ऐसे संयुक्त दो नाम हैं । प्रार्य दिन्न के बाद इसमें वज्रस्वामी का नाम लिखा है जो गलत है । आर्यदिन के बाद पट्टावली में प्रायं सिंहगिरि का नाम है, बाद में उनके पट्टधर वज्रस्वामी है । वज्रस्वामी के शिष्य वज्रसेन के बाद इसमें आर्य - रोहण का नाम लिखा है जो गलत है। आर्यरोहण आर्यसुहस्ती के शिष्य थे, न कि वज्रसेन के, वज्रसेन के शिष्य का नाम 'आर्य - रथ' था। पुष्यगिरि के बाद इसमें १८वें पट्टधर का नाम "युगमन्त्र" लिखा है जो अशुद्ध है । पुष्यगिरि के उत्तराधिकारी का नाम श्रार्य " फल्गुमित्र" था, फल्गुमित्र के बाद के पट्टधर का नाम कल्पस्थविरावली में श्रार्य " घनगिरि" है जिसको बिगाड़कर प्रस्तुत पट्टावली में “धरणीधर स्वामी" लिखा है । आर्य-नक्षत्र के पट्टधर का नाम कल्पस्थविरावली में "आर्य-रक्ष" है, जिसके स्थान पर प्रस्तुत पट्टावलीकार ने "क्षत्र" ऐसा गल्त नाम लिखा है । प्रायंनाग के बाद “कल्पस्थविरावली" में "जेहिल" और इसके बाद "विष्णु" को नम्बर आता है, तब प्रस्तुत पट्टावली में उक्त दोनों नामों को एक ही नम्बर के नीचे रख लिया है । विष्णु के बाद कल्पस्थविरावली में "श्रार्यकालक" का नम्बर है, तब प्रस्तुत पट्टावली में इसके स्थान पर "सढिल" यह नाम है जो शाण्डिल्य का उपभ्रंश है । शाण्डिल्य देवगिरिण के पूर्ववर्ती आचार्य थे, जबकि पट्टावली लेखक विष्णु के बाद के अनेक आचार्यों के नाम छोड़कर देवगिरि के समीपवर्ती शाण्डिल्य का नाम खींच लाया है, इसके बाद (२४) नाग (२७) देवड्ढि Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ] [ ४१३ देवगिरिण क्षमा श्रमरण का नाम लिखकर उन्हें २७वां पट्टधर मान लिया है । वास्तव में देवगिरिण क्षमा-श्रमण की गुरु-परम्परा गिनने से उनका नम्बर ३४वां प्राता है, जबकि देवगिरिण क्षमा-श्रमरण २७ व पुरुष माने गये हैं, सो वाचक-परम्परा के क्रम से, न कि गुरु-शिष्य परम्परा-क्रम से । इस भेद को न समझने के कारण से ही प्रस्तुत पट्टावलीकार ने कल्पस्थविरावली के क्रम से देवद्विगरिएको २७वां पुरुष मानने की भूल की है । देवगण तक के नाम लिखकर पट्टावली लेखक कहता है - ये २७ पाट नन्दी सूत्र में मिलते हैं, "ये २७ पट्टधर जिनागा के अनुसार चलते थे, तब इनके बाद में पाट परम्परा द्रव्यलिंगियों की चली, फिर कालान्तर में श्रात्मार्थी साधु शुद्धमार्ग को चलायेंगे उनका अधिकार आगे कहते हैं ।" लेखक के कहने का तात्पर्य यह है कि देवद्वगरिण के बाद जो साधु परम्परा चली वह मात्र वेषधारियों की परम्परा थी । भाव साधुनों की नहीं । यहां लेखक को पूछा जाय कि भावसाघु देवगिरिण के बाद नहीं रहे और सं० ० १७०९ से भगवान् के दयाधर्म का प्रचार स्थानकवासी साधुत्रों ने किया, तब देवगिरिण क्षमाश्रमरण के स्वर्गवास के बाद और स्थानकवासी साधुनों के प्रकट होने के पहले के १२०० वर्षों में भगवान् का दयाधर्म नहीं रहा था ? क्योंकि जैन शासन के चलाने वाले तो निर्ग्रन्थ भावसाधु ही होते थे । तुम्हारी मान्यता के अनुसार देवद्धि के बाद की श्रमणपरम्परा केवल लिंगधारियों की थी तब तो सं० १७०६ के पहले के १२०० वर्षों में जैन दयाधर्मं विच्छिन्न हो गया था, परन्तु भगवतीसूत्र में भगवान् महावीर ने अपना धर्मशासन २१ हजार वर्षो तक अविच्छिन्न रूप से चलता रहने की बात कही है, अब भगवतीसूत्र का कथन सत्य माना जाय या प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली के लेखक पूज्यजी का कथन ? समझदारों के लिए तो यह कहने की आवश्यकता ही नहीं है, कि वर्तमान अवसर्पिणी के चतुर्थं आरे के अन्तिम भाग में भगवान् महावीर ने श्रमरणसंघ की स्थापना करने के साथ धर्म की जो स्थापना की है वह आज तक प्रविच्छिन्न रूप से चलती रही है और पंचम श्रारे के अन्त तक चलती रहेगी, चाहे स्थानकवासी सम्प्रदाय 2010_05 Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ ] [ पट्टावली-पराग बढे घटे या विच्छिन्न हो जाय, जैनधर्म के अस्तित्त्व में उसका कोई असर नहीं पड़ेगा। यद्यपि प्रस्तुत स्थानकवासी पट्टावली ११ पानों में पूरी की है, फिर भी देवद्धिगणि क्षमाश्रमण की परम्परा के अतिरिक्त इसमें कोई भी व्यवस्थित परम्परा या पट्टकम नहीं दिया । प्रार्यकालक की कथा, पंचकाली, सप्तकाली, बारहकाली सम्बन्धो कल्पित कहानियां और दिगम्बर तथा निह्नवों के उटपरांग वर्णनों से इसका कलेवर बढ़ाया है, हमको इन बातों की चर्चा में उतरने की कोई आवश्यकता नहीं। "लौकागच्छ तथा "स्थानकवासी सम्प्रदायों" से सम्बन्ध रखने वाली कुछ बातों की चर्चा करके इस लेख को पूरा कर देंगे। पट्टावली के आठवें पत्र के दूसरे पृष्ठ में प्रस्तुत पट्टावलीकार लिखते हैं - श्री महावीर स्वामी के बाद दो हजार तेईस के वर्ष में जिनमत का सच्चा श्रद्धालु और भगवन्त महावीर स्वामी का दयामय धर्म मानने वाला लौकागच्छ हुआ१ ।" लौकागच्छ के यति भानुचन्द्रजी और केशवजी ऋषि अपने कवित्तों में लौकाशाह के धर्म प्रचार का सं० १५०८ में प्रारम्भ हुआ बताते हैं और १५३२ में तथा ३३ में भागजीऋषि की दीक्षा और लौंकाशाह का देवलोक गमन लिखते हैं, तब स्थानकवासी पट्टावली लेखक वोरनिर्वाण २०२३ में अर्थात् विक्रम सं० १५३३ में लौकागच्छ का प्रकट होना बत ते हैं, जिस समय कि लौंकाशाह को स्वर्गवासी हुए २० वर्ष से अधिक समय व्यतीत हो चुका था। पट्टावली लेखक कितना असावधान और अनभिज्ञ है यह बताने के लिए हम ने समयनिर्देश पर ऊहापोह किया है । यहां पर पट्टावलोकार ने ली कागच्छ की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक कल्पित कथा दी है जिसका सार यह है - १. "श्री महावीर पछे २०२३ वरषेजिनमति साचीसरदाका धरणी भगवन्त महावीर स्वामी नो धर्म दया में चाल्यो लौ कागच्छ हुवां ।” (पट्टावली का मूल पाठ) ___ 2010_05 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४१५ "पुस्तक भंडार में से पुस्तक निकाले तो कुछ पाने दीमक खा गया था, यह देख यति ने उनके पास गए हुए मेहता लुका को कहा - महेताजी । एक जैन मार्ग का काम है, महेता ने कहा - कहिये क्या काम है ? यति ने कहा - सिद्धान्त के पांने दीमक खा गया है, उन्हें लिख दो तो उपकार होगा, लौका ने उनका वचन मान लिया । यति ने 'दशवकालिक" को प्रत लौका को दी। लौका ने मन में सोचा-वीतराग भाषित दयाधर्म का मार्ग दशवकालिक में लिखे अनुसार है, आजकाल के वेषधारी इस प्राचार को छोड हिंसा की प्ररूपणा करते हैं, वे स्वय धर्म से दूर हैं इसलिए लोगों को शुद्धधर्म-मार्ग नहीं बताते, परन्तु इस समय इनको कुछ कहूंगा तो यानेंगे नहीं, इसलिए किसी भी प्रकार से पहले शास्त्र हस्तगत करलू तो भविष्य में उपकार होगा, यह सोचकर महेता लुका ने दसवैकालिक को दो प्रतियां लिखी, एक अपने पास रखी, एक यति को दो । इस प्रकार सब शास्त्रों की दो-दो प्रतियां उतारी और एक-एक प्रति अपने पास रखकर खासा शास्त्र-संग्रह कर दिया। महेत' अपने घर पर सूत्र की प्ररूपणा करने लगा' बहुत से लोग उनके पास सुनने जाते और सुनकर दयाधर्म की प्ररूपणा करते। उस समय हटवारिणया के वरिणक् शाह नागजी १, मोतीचन्दजी २, दुलीचन्दजी ३, शम्भुजी ४, और शम्भुजी के बेटा की बेटी मोहीबाई और मोहीबाई की माता इन सब ने मिलकर संघ निकाला। घाड़ो, गोड़े, ऊंट, बैल, इत्यादि साज सामान के साथ निकले परन्तु मार्ग में जलवृष्टि हो गई, जहां लौका महेता अपने मत का उपदेश करता था वहां यात्रिक पाए और लौंका की वाणो सुनने लगे । लौका महेता भी बड़ी तत्परता से दयाधर्म का प्रतिपादन करते थे । सारा यात्री संघ लुका महेता वाले गांव में आया और वहां पड़ाव डालकर महेता की वाणी सुनने लगा, उस समय संघ के गुरु वेशधारी साधु ने सोचा - अगर संघ के लोग सिद्धान्त शैली सुनेंगे तो आगे चलेंगे नहीं और हमारी बात भी मानेंगे नहीं, यह विचार कर वेशधारी साधु संघनायक के पास पाया और कहने लगा - संघ के लोग खर्च और पानी से दु:खी हैं, तब संघनायक ने कहा - मार्ग में तो त्रसजीव और ___ 2010_05 Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] [ पट्टावली-पराग हरिवालो के अंकुर निकल जाने से प्रयतना बहुत दीख रही है वास्ते अभी ठहरो ! इस पर द्रव्यलिंगी गुरु बोले - शाहजी धर्म के निमित्त होने वाली हिंसा को हिंसा नहीं माना, यह सुनकर संघवी ने सोचा कि लौंका महेता के पास जो सुना था कि वेशवारी साधु अनाचारी हैं, छः काय की दया से हीन हैं, वह बात माज प्रत्यक्ष दीख रही है, द्रव्यलिंगी यति वापस लौट गया और संघ के साथ सिद्धान्त सुनता वहीं ठहरा, सुनते-सुनते उनमें से ४५ जनों को वैराग्य उत्पन्न हुआ और संयम लिया, उनके नाम - सर्वोजी, भारगोजी, नयनोजा, जगमोजी नादि थे, इस प्रकार ४५ साधु जिनमाग के दयाधर्म की प्ररूपणा करने लगे और अनेक जीवों ने दयाधर्म का स्वीकार किया, उस समय लोकाशाह ने पूछा तुम कैसे साधु कहलाते हो ? साधु बोले - महेताजी हमने तीर्थङ्कर का धर्ममार्ग आपसे पाया है, इसलिए हम " लौका साधु" कहलाते हैं और हमारा समुदाय "लौकागच्छ' कहलाता है । कल्पित कथा के प्रारंभ में "दशवैकालिक" के पांने दीमक रवाने की बात कही गई है । श्रौर " दशवैकालिक" की प्रति लौका को देने का कहा है. अब विचारणीय बात यह है कि पुस्तक के पाने दीमक द्वारा नष्ट हो गये तो उसी "दशवेकालिक" की प्रति के ऊपर से लौका ने दो प्रतियां कैसे लिखी ? क्योंकि लौका के पास तो पुस्तक भंडार था नहीं और लौंका को लिखने के लिए पुस्तक देने वाले यतिजी ने उसे " दशवेकालिक" की अखंडित प्रति देने का का सूचन तक नहीं है, केवल "दशवेकालिक" ही नहीं यतिजो के पास से दूसरे भी सूत्र लिखने के लिए aौंका ले जाता था और उनकी एक-एक नकल अपने लिए लिखता था । यदि भण्डार के तमाम सूत्रों में दीमक ने नुकशान किया था और यतिजी भंडार के पुस्तकों को लिखवाते थे तो साथ में प्रखड़ित सूत्रों की प्रतियां देने की आवश्यकता थी, परन्तु इस कहानी से ऐसी बात प्रमाणित नहीं होती अत: “लौकाशाह जिनमार्ग का काम समझकर सूत्रों की प्रतियां लिखते थे, यह कथन सत्यता से दूर है ।" सत्य बात तो यह है कि लौंकाशाह लेखक का धन्धा करता था । मेहनताना देकर साधु उससे पुस्तक लिखवाते थे, 2010_05 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४१७ उनमें से लौंका ने लिखवाने वाले को प्राज्ञा के बिना अपने लिए पुस्तक की एक-एक प्रति लिख ली हो तो असम्भव नहीं है, परन्तु एक बात विचारणीय यह है कि लौंका के समय में जैनसूत्रों पर टिब्बे नहीं बने थे। सूत्रों पर टिब्बे सर्वप्रथम पावचन्द्र उपाध्याय ने लिखे थे और पार्श्वचन्द्र का समय शाह लौका के बाद का है। लौंका "संस्कृत" या "प्राकृत" भाषा का जानकार भी नहीं था फिर उसने सूत्रों की नकल करते-करते मूल सूत्रों का अगर उसकी पंचांगी का तात्पर्य कैसे समझा कि सूत्रों में साधु का आचार ऐसा है और साधु उसके अनुसार नहीं चलते हैं। सच बात तो यह है कि वह साधुओं के व्याख्यान सुना करता था, इस कारण से वह साधुओं के प्राचारों से परिचित था। वृद्ध पौषधशालिक प्राचार्य श्री ज्ञानचन्द्रसूरि का पुस्तक-लेखन का कार्य लौंकाशाह कर रहा था और इस व्यवसाय को लेकर ही ज्ञानचन्द्रसूरि ने लौंका को फिटकारा और लौंका ने साधुनों के पास न जाने की प्रतिज्ञा की थी और उनके प्राचार-विचार के सम्बन्ध में टोका-टिप्पणियां करने लगा था। लौंकामत को कल्पित कहानी में दी गई, हटवाणियां गांव के संघ की कहानी भी सरासर झूठो है। क्योंकि पहले तो 'हटवारिणया" नामक कोई गांव ही मारवाड़ अथवा गुजरात में नहीं है, दूसरा चातुर्मास्य आगे लेकर संघ निकालने की पद्धति जैनों में नहीं है, फिर लौंकाशाह के निकट पहुँचने के लगभग जलवृष्टि होना और वनस्पति के अंकुरों के उत्पन्न होने आदि की बातें केवल कल्पना-कल्पित हैं। विद्वान् साधुनों की विद्वत्तामयी धर्मदेशना सुनकर हजारों में से शायद ही कोई दीक्षा के लिये तैयार होता है। तब लौंकाशाह के उपदेश से केवल यांत्रिक-संघ में से ४५ जनों के दीक्षा लेने की बात सफेद झूठ नहीं तो और क्या हो सकती है। लौंकाशाह के थोड़े ही वर्षों के बाद होने वाले लौंका भानुचन्द्रजी ऋषि और लौका केशवजी ऋषि अपनी रचनाओं में लौंकाशाह के अन्तिम समय में केवल एक भाणजी की दीक्षा होने की बात लिखते हैं। तब बीसवीं शती का स्थानकवासी पट्टावलीकार ४५ जनों के दीक्षा की बात कहता है और लौकाशाह के द्वारा पुछवाता है कि "तुम कैसे साधु कहलाते हो ?" साधु ____ 2010_05 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ ] [ पट्टावली- पराग कहते हैं कि - "हम लौंकागच्छ के साधु कहलाते हैं" यह क्या मामला है ? पट्टावलीकार के लेखानुसार लोकाशाह के स्वर्गवास के बाद २१ वें वर्ष में कागच्छ की उत्पत्ति होती है और ४५ साधु लोकाशाह के सामके कहते हैं- "हम लौंकाशांह के साधु कहलाते हैं" क्या यह अन्धेरगर्दी नहीं है ? लौकागच्छ को कहलाने वाली सभी स्थानकवासी पट्टावलियां इसी प्रकार के अज्ञान से भरी हुई हैं । न किसी में अपनी परम्परा का वास्तविक क्रम है न व्यवस्था, जिसको जो ठीक लगा वही लिख दिया, न किसी ने कालक्रम से सम्बन्ध रक्खा, न ऐतिहासिक घटनाओं की श्रृंखला से । पट्टावली-लेखक आगे लिखता उसके बाद रूपजी शाह पाटन का निवासी संयमी होकर निकला, वह "रूपजी ऋषि के नाम से प्रसिद्ध हुआ । यह लौंकागच्छ का पहला पट्टधर हुआ ।" उसके बाद सूरत निवासी शाह जीवा ने रूपजी ऋषि के पास दीक्षा ली और जीवजी ऋषि बने । व्यवहार से हम इनको शुद्ध साधु जानते हैं । बाद में स्थानक दोष सेवन करने लगे । आहार की गवेषरणा से मुक्त हुए, वस्त्र पात्र की मर्यादा लोपी, तब सं० १७०६ में सूरत निवासी बहोरा वीरजी का दोहिता शा० लवजी जो पढ़ा-लिखा था, उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ और संयम लेने के लिए अपने नाता वीरजी से श्राज्ञा मांगी। वीरजी ने कहा कागच्छ में दीक्षा ले तो प्राज्ञा दूं, लवजी ने सोचा अभी प्रसंग ऐसा ही है, एक बार दीक्षा ले हो लू यह पास दीक्षा ली। विचार कर लवजो ने लागच्छ के यति बजरंगजी के उनके पास सूत्र सिद्धान्त पढ़ा। कालान्तर में अपने गुरु से पूछा - सिद्धान्त में साधु का श्राचार जो लिखा है उस प्रकार प्राजकल क्यों नहीं पाला जाता ?, गुरु ने आजकल पांचवां आरा है । इस समय आगमोक्त आचार किस ―― www कहा प्रकार पल सकता है ?, शिष्य लवजी ने कहा - स्वामिन्! भगवन्त का मार्ग २१ हजार वर्ष तक चलने वाला है, सो लौंकागच्छ में से निकलो, आप मेरे और में प्रापका शिष्य । बजरंगजी ने कहा- मैं तो गच्छ से गुरु 2010_05 Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४१६ निकल नहीं सकता, तब लवजी ने कहा - मैं तो गच्छ का त्याग कर चला जाता हूं, यह कह कर ऋषि लवजी, ऋषि भाणोजी और ऋषि सुखजी तीनों वहां से निकल गये और तीनों ने फिर से दीक्षा ली। गांव नगरों में विचरते हुए जैनधर्म की प्ररूपणा की, अनेक लोगों को धर्म समझाया, तब लोगों ने उनका 'दुण्ढिया" ऐसा नाम दिया। अहमदाबाद के कालुपुर के रहने वाले शाह सोमजी ने लवजी के पास दोक्षा ली। २३ वर्ष की अवस्था में दीक्षा लेकर बड़ी तपस्या को, उनके अनेक साधु-साध्वियों का परिवार बढ़ा जिनके नाम हरिदासजी १, ऋषि प्रेमजी २, ऋषि कानाजी ३, ऋषि गिरधरजी ४, लवनी प्रमुख वजरंगजी के गच्छ से निकले थे जिनके अनुयायियों का नाम अमोपालजी १, ऋषि श्रीपालजी २, ऋ० धर्मपालजी ३, ऋ० हरजी ४, ऋ० जीवाजी ५, ऋ० कर्मणजी ६, ऋ० छोटा हरजी ७, और ऋ० केशबजो ८। इन महापुरुषों ने अपना गच्छ छोड़ कर दीक्षा ली और जैनधर्म को दीपाया । बहुत टोले हुए, समर्थजी पूज्यश्री धर्मदासजी, श्री गोदाजी, फिर होते ही जाते हैं। इनमें कोई कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं, तब दूसरा कहता है - मैं उत्कृष्ट हूं। उपर्युक्त शुद्ध साधुओं का वृत्तान्त है, पीछे तो केवली स्वीकारे, सो सही। यह परम्परा की पट्टावली लिखी है । पट्टावलो-लेखक ने रूपजी ऋषि को लौंकागच्छ का प्रथम पट्टधर लिखा है, परन्तु लौंकागच्छोय ऋषि भानुचन्द्रजी तथा ऋषि केशवजी ने लौंकामच्छ का और लौंकाशाह का उत्तराधिकारी भारगजी को बताया है। उपर्युक्त दोनों लेखकों का सत्ता-समय लोकाशाह से बहुत दूर नहीं था; इससे इनका कथन ठीक प्रतीत होता है। पट्टावलीकार रूपजी ऋषि को लौकागच्छ का प्रथम पट्टधर कहते हैं वह प्रामाणिक नहीं है । पट्टावलीकार रूपजी जीवाजी को महापुरुष और शुद्ध साधु कहकर उनको उसी जीवन में स्थानक-दोष, आहार-दोष, वस्त्रापात्र आदि मर्यादा ___ 2010_05 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] [पट्टावली-पराग का लोप आदि दोषों के कारण शिथिलाचारी बताता है. और १७९६ में शा० लवजी की दीक्षा की बात कहता है । लवजी दीक्षा लेने के बाद अपने गुरु बजरंगजो को लौकागच्छ से निकालने का आग्रह करते हैं, और इनके इन्कार करने पर भी ऋ० लवजी, ऋ० भारगजी और ऋ० सुखजी के साथ लौकागच्छ को छोड़कर निकल जाते हैं, और तीनों फिर दीक्षा लेते हैं और लोग उनको "दुढ़िया" यह नाम देते हैं। पट्टावलीकार ने उक्त त्रिपुटी को दीक्षा तो लिवाली, पर दीक्षा-दाता गुरु कौन थे ? यह नहीं लिखा । अपने हाथ से कल्पित वेश पहिन लेना यह दीक्षा नहीं स्वांग होता है । दीक्षा तो दीक्षाधारी अधिकारी- गुरु से ही प्राप्त होती है, न कि वेश- मात्र धारण करने से । लौकागच्छ के साधु स्वयं गृहस्थ- गुरु के चेले थे तो उनमें से निकलने वाले लवजी आदि नया वेश धारण करने से नये दीक्षित नहीं बन सकते । पट्टावली के अन्त में लेखक ऋषि लवजी के मुंह से कहलाता है - "अरे भाई ! पांचवां प्रारा है, ऐसी कठिनाई हम से नहीं पलेगी, ऐसा करने से हमारा टोला बिखर जाय । पट्टावलीकार ने पूर्व के पत्र में तो लवजी को महात्यागी और लोकागच्छ का त्याग करके फिर दीक्षा लेने वाला बताया श्रौर आगे जाकर उन्हीं लवजी के मुंह से पंचम आरे के नाम से शिथिलाचार को निभाने की बात कहलाता है | यह क्या पट्टावली- लेखक का ढंग है ! एक व्यक्ति को खूब ऊंचा चढ़ाकर दूसरे ही क्षरण में उसे नीचे गिराना यह समझदार लेखक का काम नहीं है । 2010_05 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरातक - मत की पहावली २. श्री आत्मारामजी महाराज के हाथ से लिखी हुई स्थानकवासियों की पट्टावली सम्यक्त्व शल्योद्धार के बाधार से नीचे दी जाती है - पूज्य लेखक का कथन है कि "यह पट्टावली हमने अमरसिंहजी के परदादा श्री मुल्कचन्दजी के हाथ से लिखी हुई, ढुंढकपट्टावली के ऊपर से ली है।" हमने सभी स्थानकवासियों की अन्यान्य पट्टावलियों की अपेक्षा से इसमें कुछ वास्तविकता देखकर यहां देना ठीक समझा है । पट्टावलोकार लिखते हैं कि "अहमदाबाद में रहने वाला लौका नामक लेखक ज्ञानजी यति के उपाश्रय में उनके पुस्तक लिखकर अपनी आजीविका चलाता था, एक पुस्तक में से सात पाने उसने यों ही छोड़ दिए । यतिजी को मालूम हुआ कि लौका ने जान बुझकर बेईमानी से पांने छोड़ दिये हैं, उसे फटकार कर उपाश्रय में से निकाल दिया और दूसरे पुस्तक लिखाने वालों को भी सूचित कर दिया कि इस लुच्चे लेखक लोंका के पास कोई पुस्तक न लिखावें।" उक्त प्रकार से लोका की आजीविका टूट जाने से वह जैन साधुनों का द्वेषी बन गया, पर अहमदाबाद में उसका कुछ नहीं चला, तब वह अहमदाबाद से ४० कोस की दूरी पर आये हुए लीम्बड़ी गांव गया, वहां उसका मित्र लखमशी नामक राज्य का कार्यभारी रहता था। लौका ने लखमशी से कहा - "भगवान् का मार्ग लुप्त हो गया है, लोग उल्टे मार्ग चलते है, मैंने अहमदाबाद में लोगों को सच्चा उपदेश किया, पर उसका परिणाम उल्टा पाया, मैं तुम्हारे पास इसलिए पाया हूं कि मैं सच्चे दयाधर्म की प्ररूपणा करू और तुम मेरे सहायक बनों।" लखमशी ने लौका को आश्वासन देते हुए कहा - खुशी से अपने राज्य में तुम दयाधर्म का प्रचार करो, मैं तुम्हारे खान-पान सादि की व्यवस्था कर दूंगा। 2010_05 Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ ] [ पट्टावली-पराग ___ सं० १५०८ में लौंका ने जैन साधुषों के विरोध में मन्दिर मूर्तिपूजा आदि का खण्डन करना शुरू किया, लगभग २५ वर्ष तक दयाधर्म-सम्बन्धी चौपाइयां सुना-सुनाकर लोगों को मन्दिरों का विरोधी बनाता रहा, फिर भी उसका उत्तराधिकारी बनकर उसका कार्य सम्हालने वाला कोई नहीं मिला। सं० १५३४ में भाणा नामक एक बनिया उसे मिला, अशुभ कर्म के उदय से वह लौ का का अनन्य भक्त बना । इतना ही नहीं, वह लौका के कहने के अनुसार विना गुरु के ही साधु का वेश पहन कर प्रज्ञ लोगों को लोका का अनुयायी बनाने लगा। लौ का ने ३१ सूत्र मान्य रखे थे । व्यवहार सूत्रों को वह मानता नहीं था और माने हुए सूत्रों में भी जहां जिनप्रतिमा का अधिकार आता वहां मनःकल्पित अर्थ लगाकर उनको समझा देता। सं० १५६८ में भागजी ऋषि का शिष्य रूपजी हुआ। सं० १५७८ में माघ सुदि ५ के दिन रूपजी का शिष्य जीवाजी हुना। सं० १५८७ के चेत्र वदि १४ के दिन जीवाजी का शिष्य वृद्धवरसिंहजी नामक हुआ। सं० १६०६ में उनका शिष्य वरसिंहजी हुआ। सं० १६४६ में वरसिंहजी का शिष्य यशवन्त नामक हुआ और यशवन्त के पीछे बजरंगजी नामक साधु हुअा, जो बाद में लौ कागच्छ का प्राचार्य बना था। उस समय सूरत के रहने वाले बोहरा वीरजी की पुत्री फूलांबाई के दत्तपुत्र लवजी ने लौंकाचार्यजी के पास दीक्षा ली और दोक्षा लेने के बाद उसने अपने गुरु से कहा - दशवकालिक सूत्र में जो साधु का आचार बताया है, उसके अनुसार आप नहीं चलते है। लवजी की इस प्रकार की बातों से बजरंगजी के साथ उनका झगड़ा हो गया और वह लौ कामत और अपने गुरु का सदा के लिए त्याग कर थोमण ऋषि आदि कतिपय लौ का साधुनों को साथ में लेकर स्वयं दीक्षा ली और मुख पर मुहपत्ति बांधी। ___ 2010_05 Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४२३ - लवजो के सोमजी और कानजी नामक दो शिष्य हुए। कानजो के पास एक गुजराती छोपा दीक्षा लेने आया था, परन्तु कानजी के प्राचरण अच्छे न जानकर उनका शिष्य न होकर वह स्वयं साधु बन गया और मुंहपर मुंहपत्ति बांध ली। धर्मदास को एक जगह उतरने को मकान नहीं मिला, तब वह एक ढुण्ढे (फुटे टुटे खण्डहर) में उत्तरा तब लोगों ने उसका नाम “ढुण्ढक दिया। लौ कामति कुंवरजी के धर्मशी; श्रीपाल और अभीपाल ये तीन शिष्य थे, इन्होंने भी अपने गुरु को छोड़कर स्वयं दीक्षा ली, इनमें से पाठ कोटि प्रत्याख्यान का पन्थ चलाया, जो आजकल गुजरात में प्रचलित है । धर्मदास के धनजी नामक शिष्य हुए। धनजी के भूदरजी नामक शिष्य हुए और भूदरजी के रघुनाथजी जयमलजी और गुमानजी नामक तीन शिष्य हुए जिनका परिवार मारवाड़ गुजरात और मालवा में विचरता है । रघुनाथजी के शिष्य भीखमजी ने १३ पंथ चलाया। 2010_05 Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीखमजी के तेरापंथ सम्प्रदाय की आचार्य परम्परा तेरापन्थी सम्प्रदाय स्थानकवासी साधु रघुनाथमलजी के शिष्य भिक्खूजी से चला । तेरापन्थी भिक्खूजी को श्री भिक्षुगणी के नाम से व्यवहृत करते हैं । श्चाज तक इस सम्प्रदाय को दो सौ वर्ष हुए और इसके उपदेशक प्राचार्य 8 हुए । नवों चाचार्यों की नामावलि क्रमश: इस प्रकार है - (१) श्राचार्य श्री भिक्षुगणी (२) (३) (४) (५) "" 27 27 11 (६), (७) (5) (e) "1 "" " " 2010_05 " 11 " 11 "1 22 "1 भारमल गणी ऋषिराय गणी जयगरणी - श्री मज्जयाचार्य मघवागरणी माणकगरणी डालगणी कालूगणी तुलसीगणी ऊपर की तेरापन्थी प्राचार्यों की नामावलि तेरापन्थी मुनि श्री नगराजजी लिखित "तेरापन्थ दिग्दर्शन" नामक पुस्तिका से उद्धृत की है । पुस्तिका में लेखक ने अतिशयोक्तियाँ लिखने में मर्यादा का उल्लंघन किया है, जिसका एक ही उदाहरण यहां उद्धृत किया जाता है - Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४२५ "संस्कृत भाषा के अभ्यासी ऐसे भी साधु संघ में हैं, जिन्होंने एकएक दिन में पांच-पांच सौ व सहस्र - सहस्र श्लोकों की रचना की है ।" ठीक तो है जिस संघ में प्रतिदिन पांच-पांच सौ और सहस्र - सहस्र श्लोक बनाने वाले साधु हुए हैं उस संघ में संस्कृत-साहित्य के तो भण्डार भी भर गए होंगे, परन्तु दुःख इतना ही है कि ऐसे संघ की तरफ से एक भी संस्कृत ग्रन्थ मुद्रित होकर प्रकाशित हुआ देखने में नहीं श्चाया । लवजी के शिष्य सोमजी हुए । हरिदासजी के शिष्य वृन्दावनजी हुए । वृन्दावनजी के भवानीदासजी हुए। भवानीदासजी के शिष्य मलूकचन्दजी हुए । मलूकचन्दजी के शिष्य महासिंहजी हुए । महासिंहजी के शिष्य खुशालरामजी हुए । खुशालरामजी के शिष्य छजमलजी हुए । रामलालजी के शिष्य अमरसिंहजी हुए । अमरसिंहजी का शिष्य परिवार श्चाजकल पंजाब में मुख बांध कर विचरता है । लवजी के शिष्यों का परिवार मालवा और गुजरात में विचरता है । "समकित सार" के कर्त्ता जेठमलजी धर्मदासजी के शिष्यों में से थे श्रीर उनके प्राचरण ठीक न होने के कारण उनके चेले देवीचन्द श्रीर मोतीचन्द दोनों जन उनको छोड़ कर जोगराजजी के शिष्य हजारीमलजी के पास दिल्ली में चाकर रहे थे । ऊपर हमने जो लौंकामत की और स्थानकवासी लवजी की परम्परा लिखी है वह पूर्वोक्त प्रमोलकचन्दजी के हाथ से लिखी हुई ढुण्ढकमत की पट्टावली के ऊपर से लिखी है, इस विषय में जिस किसी को शंका हो, वह हस्तलिखित मूल प्रति को देख सकता है । 2010_05 Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] [ पट्टावली-पराग लौंकाशाह, लौंकागच्छ भौर स्थानकवासी सम्प्रदाय के सम्बन्ध में अनेक व्यक्तियों ने लिखा है । वाडीलाल मोतीलाल शाह ने अपनी “ऐतिहासिक नोंध " में, संत बालजी ने " धर्मप्रारण लोकाशाह" में, श्री मरिण - लालजी ने "प्रभुवीर पट्टावली" में मोर प्रन्यान्य लेखकों ने इस विषय के लेखों में जो कुछ लिखा है, वह एक दूसरे से मेल नहीं खाता, इसका कारण यही है कि सभी लेखकों ने अपनी बुद्धि के अनुसार कल्पनाओं द्वारा कल्पित बातों से अपने लेखों को विभूषित किया है । इन सब में शाह वाडीलाल मोतीलाल सब के अग्रगामी हैं । इनकी असत्य कल्पनाएं सब से बढ़ी चढ़ी हैं, इस विषय का एक ही उदाहरण पर्याप्त होगा । लौंकागच्छ के आचार्य श्री मेघजी ऋषि अपने २५ साधुत्रों के साथ लौंकामत को छोड़ कर तपागच्छ के प्राचार्य श्री विजयहीरसूरिजी के शिष्य बने थे । इस घटना को बढ़ा-चढ़ा कर शाह वाडीलाल लौंकागच्छ के गच्छ में जाने की बात कहते हैं । अतिशयोक्ति की भी परन्तु शाह ने इस बात का कोई ख्याल नहीं किया । इसी प्रकार शाह वाडीलाल ने अपनी पुस्तक " ऐतिहासिक नोंध " में अहमदाबाद में मूर्तिपूजक और स्थानकवासी साधुनों के बीच शास्त्रार्थ का जजमेन्ट लिख कर अपनी श्रसत्यप्रियता का परिचय दिया है, शाह लिखते हैं ५०० साधु तपा कोई हद होती है, "आखिर सं० १८७८ में दोनों ओर का मुकद्दमा कोर्ट में पहुँचा । सरकार ने दोनों में कौन सच्चा कौन झूठा ? इसका इन्साफ करने के लिए दोनों ओर के साधुनों को बुलाया । "स्था० की ओर से पूज्य रूपचन्दजी के शिष्य जेठमलजी श्रादि २८ साधु उस सभा में रहने को चुने गये" और सामने वाले पक्ष की भोर से "बीरविजय श्रादि मुनि और शास्त्री हाजिर हुए।" मुझे जो यादी मिली है, उससे मालूम होता है कि मूर्तिपूजकों का पराजय हुआ और मूर्तिविरोधियों का जय हुआ ।" शास्त्रार्थं से वाकिफ होने के लिए जेठमलजी -कृत "समकित सार" पढ़ना चाहिए × × × १८७८ के पोष सुदि १३ के दिन मुकद्दमा का जजमेन्ट ( फैसला ) मिला ।" ऐ० नों० पृ० १२६ । 2010_05 Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४२७ शाह शास्त्रार्थं होने का वर्ष १७८७ बताते हैं और मिति उसी वर्ष के पौष मास की १३ | शाह ने वर्ष मिति की यह कल्पना पं० वीरविजयजी और ऋषि जेठमलजी के बीच हुए शास्त्रार्थ की यादगार में पं० उत्तमविजयजी द्वारा निर्मित " लूँपकलोप- तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास" के ऊपर से गढ़ी है, क्योंकि उत्तमविजयजी के बनाये हुए रास की समाप्ति में सं० १७८७ के वर्ष का और माघ मास का उल्लेख है। शाह ने उसी वर्ष को शास्त्रार्थ के फैसले का समय मान कर पौष शुक्ल १३ का दिन लिख दिया है पर वार नहीं लिखा, क्योंकि वार लिखने से लेख की कृत्रिमता तुरन्त पकड़ी जाने का भय था । शाह का यह फैसला उनके दिमाग की कल्पना मात्र है, यह बात निम्न लिखे विवरण से प्रमाणित होगी - " समकितसार" के लेखक जेठमलजी लिखते हैं- श्री वर्द्धमान स्वामी मोक्ष गए तब चौथा आरा के ३ वर्ष और साढ़े आठ मास शेष थे । उसके बाद पांचवां श्रारा लगा और पांचवे भारे के ४७० वर्ष तक वीर संवत् चला, उसके बाद विक्रमादित्य ने संवत्सर चलाया, जिसको अाजकल १८६५ वर्ष हो चुके हैं ।" शाह के जजमेन्ट के समय में अहमदाबाद में कम्पनी का राज्य हो चुका था और अंग्रेजी अदालत में ही अर्जी हुई और जजमेन्ट भी अंग्रेजी में लिखा गया था, फिर भो जजमेन्ट में अंग्रेजी तारीख न लिखकर पौष सुदि १३ लिखा है इसका अर्थ यही है कि उक्त जजमेन्ट उत्तमविजयजी के रास के श्राधार से शाह वाड़ीलाल ने लिखा है, जो कल्पित है यह निश्चित होता है । शाह शास्त्रार्थ के फैसले में लिखते हैं - "शास्त्रार्थ से वाकिफ होने के लिए जेठमलजी कृत समकितसार पढ़ना चाहिए," यह शाह का दम्भ वाक्य है और "समकितसार" के प्रचार के लिए लिखा है, वास्तव में जेठमलजी के " समकितसार" में वीरविजयजी के साथ होने वाले शास्त्रार्थ की सूचना तक भी नहीं है । 2010_05 Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] [ पट्टवली-पराग "ऐतिहासिक नोष" के पृष्ठ १३० में शाह लिखते है "परन्तु किसो प्रकार के लिखित प्रमाण के प्रभाव में किसी तरह की टीका करने को खुश नहीं हूं।" भला किसी लिखित प्रमाण के प्रभाव में शास्त्रार्थ का जजमेन्ट देने को तो खुश हो गए तब उस पर टीका-टिप्पणी करने में आपत्ति ही क्या थी ? परन्तु शाह अच्छी तरह समझते थे कि केवल निराधार बातों की टीका-टिप्पणी करता हुआ कहीं पकड़ा जाऊंगा, इसलिए वे टीका करने से बाज भाए है। शाह स्वयं स्वीकार करते है कि दोनों सम्प्रदायों के बीच होने वाले शास्त्रार्थ में कौन जीता और कौन हारा, इसका मेरे पास कोई लिखित प्रमाण नहीं है, इससे इतना तो सिद्ध होता है कि इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में जेठमलजी ऋषि अथवा उनके अनुयायियों ने कुछ भी लिखा नहीं है, अन्यथा शाह वाड़ीलाल को ऐसा लिखने का कभी समय नहीं पाता। पं० वीरविजयजी मोर उनके पक्षकारों ने प्रस्तुत शास्त्रार्थ का सविस्तर वर्णन एक लम्बी ढुंढक चौपाई बनाकर किया है, जिसमें दोनों पक्षों के साधुनों वथा श्रावकों के नाम तक लेख-बद्ध किये हैं, इससे सिद्ध होता है कि शास्त्रार्थ में जय मूर्तिविरोध पक्ष का नहीं, परन्तु मूर्तिपूजा मानने वाले पं० वीरविजयजी के पक्ष का हुमा था, इस शास्त्रार्थ के सम्बन्ध में लिखित प्रमाण होते हुए भी शाहने अपने पक्ष के विरुद्ध होने से उनको छुमा तक नहीं है। रासकार पं० उत्तमविजयजी कहते हैं -मुहपर पाय बांधकर गांव गांव फिरते और लोगों को भ्रमणा में डालते हुए एक समय लौंका के अनुयायी साणंद पाये और वहां लोगों को फंसाने के लिए पास फैलाया, वहां पर तपागच्छ का एक श्रावक नानचन्द शान्तिदास रहता था, कर्मवश वह ढुढको के फंदे में फंस गया। वह ढुढकों को मानने लगा और परापूर्व के अपने जैनधर्म को भी पालता था, इस प्रकार कई वर्षों तक वह पालता रहा और बीसा श्रीमाली न्यात ने उसको निभाया, पब नानूशाह के पुत्रों की बात कहता हूं। अफीमची, अमरा, परमा पनजी और हमका ये चारों पुत्र भी न्यात जात की शर्म छोड़कर ढुढकधर्म पालने लगे, इस समय न्यात 2010_05 Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४२६ - ने देखा कि यह चेप बढ़ रहा है, अब इसका प्रतीकार करना जरूरी है, यह सोचकर नानचन्द और उसके पुत्रों को न्यात से बहिष्कृत कर दिया, कोई उनको पानी तक नहीं पिलाता था। सगे सम्बन्धी भी अलग हो गये, फिर भो वे अपना दुराग्रह नहीं छोड़ते थे। उनके घरों में लड़कियां १२-१२ वर्ष की हो गई थीं, फिर भी उनसे कोई संबन्ध नहीं करता या और जो लड़की राजनगर में व्याही थी वह भी न्याती का विचार कर घर नहीं पाती थी इस पर नानचन्द ने अपनी न्यात पर १४ हजार रुपयो का राजनगर की राज्यकोर्ट में दावा किया ।" उघर अमरचन्द के घर में उसकी मौरत के साथ रोज क्लेश होने लगा। औरत कहती - "तुमने न्यात के विरुद्ध झगड़ा उठाया, यह मूर्खता का काम किया । न्यात से लड़ना झगड़ना आसान बात नहीं। पहले यह नहीं सोचा कि इसका परिणाम क्या होगा, तुमने न्यात से सामना किया और लोगों के उपालम्भ मैं खाती हूं बड़ी उम्रकी बेटी को देखकर मेरी छाती जलती है," साह अमरा अपनी औरत की बातों से तंग भाकर शा० पूंजा टोकर से मिला और कहने लगा - न्यात बहिष्कृति वापस खींचकर हमें न्यात में कैसे लें, इसका कोई मार्ग बतायो । बेटी बड़ी हो गई हैं, उसको व्याहे बिना कैसे चलेगा, अमरा की बात सुनकर पूजाशाह ने अमरा को उल्टी सलाह दी, कहा - न्यात पर कोर्ट में अर्जी करो, इस पर अमरा ने अर्जी को और अपनी पुत्रो को खंभात के रहने वाले किसो ढुण्ढक को व्याह दी। पूजाशाह ने न्यात में कुछ “करियावर'' किया - तब उनके वेवाई जो ढुण्ढक थे, उसके वहां मर्यादा रक्खी तो भी ढुण्ढक लज्जित नहीं हुए, बहुत दिनों के बाद जब मर्जी की पेशी हुई तब शहर के धर्मप्रेमी सेठ भगवान् इच्छाचन्द मारणकचन्द और अन्य भी जो धर्म के अनुयायी थे सब अदालत में न्यायार्थ गए। अदालत ने अर्जी पर हुक्म दिया कि “मामला धर्म का है, इसलिए सभा होगी तब फैसला होगा, दोनों पक्षकार अपने-अपने गुरुत्रों को बुलाकर पुस्तक प्रमाणों के साथ सभा में हाजिर हों," अदालत का हुक्म होते ही गांव-गांव पत्रवाहक भेजे, फिर भी कोई ढुण्ढक पाया नहीं था । 2010_05 Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० ] [ पट्टावलो-पराग इस समय पाटन में रहे हुए जेठमलजी ऋषि ने अहमदाबाद पत्र लिखा कि 'मूर्तिपूजकों की तरफ से वाद करने वाला विद्वान् कोन आएगा ? मूर्तिपूजकों की तरफ से एक वीरविजयजी झगड़े में आये तो अपने पक्ष के सब ऋषि राजनगर आने के लिए तैयार हैं," इस प्रकार का जेठमलजी ऋषि का पत्र पढ़कर प्रेमाजी ऋषि ने गलत पत्र लिखा कि "वीरविजयजी यहां पर नहीं है और न आने वाले हैं" इस मतलब का पत्र पढ़कर जेठमलजी ऋषि लगभग एक गाड़ो के बोझ जितनी पुस्तकें लेकर अहमदाबाद पाए और एक गली में उतरे, वहां बैठे हुए अपने पक्षकारों से सलाह मशविरा करने लगे। लोम्बडी गांव के रहने वाले देवजी ऋषि महमदाबाद पाने वाले थे परन्तु विवाद के भय से बोमारी का बहाना कर खुद नहीं पाए और अपने शिष्य को भेजा। मूलजी ऋषि जो शरीर के मोटे ताजे थे और चलते वक्त हाँफते थे, इसलिए लोगों ने उनका नाम "पूज्यहाँफूस" ऐसा रख दिया था । इनके अतिरिक्त नरसिंह ऋषि जो स्थूलबुद्धि थे । वसराम ऋषि मादि सब मिलकर ८१ ढुण्डक साधु जो मुंह पर मुहपत्ति बांधे हुए थे, अहमदाबाद में एकत्रित हुए। शहर में ये सर्वत्र भिक्षा के लिए फिरते थे। लोग आपस में कहते थे - ये दुण्ढिये एक मास भर का अन्न खा जायेंगे। तब दीनानाथ जोशी ने कहा - "फिकर न करो पाने वाला वर्ष ग्यारह महीने का है," जोशी के वचन से लोग निश्चिन्त हुए । श्रावक लोग उनके पास जाकर प्रश्न पूछते थे, परन्तु वे किसी को उत्तर न देकर नये-नये प्रश्न मागे धरते थे। तपागच्छ के पण्डितों के पास जो कोई प्रश्न पाते उन सब का वे उत्तर देते, यह देखकर ढुण्ढकमत वाले मन में जलते थे, इस प्रकार सब अपनी पार्टी के साथ एकत्रित हुए । इतने में सरकारी आदमी ने कहा - "साहब अदालत में बुलाते है," उस समय जो पण्डित नाम धराते थे, सभा में जाने के लिए तैयार हुए; मन्दिर मागियों के समुदाय में सब से भागे पं० वीरविजयजी चल रहे थे, उनकी मधुर वाणी और विद्वत्ता से परिचित लोग कह रहे थे - जयकमला वीरविजयजी को वरेगी। हितचिन्तक कहते थे - महाराज ! 2010_05 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४३१ अच्छे शकुन देखकर चलियेगा, इतने में एक मालिन फूलमाला लेकर वीरविजयजो को सामने मिली इस शकुन को देखकर जानकार कहने लगेये शकुन जेठाजी ऋषि को हरायेंगे और उनके समर्थक नीचां देखेंगे । वीरविजयजी से कहा - तुम्हारी कीर्ति देश-देश में फैलेगी। उस समय वीरविजयजी के साथ खुशालविजयजी, मानविजयजो, भुजनगर से आये हुए प्रानन्दशेखरजी, खेड़ा के चौमासी दलोचन्दजी और साणंद से आए हुए लब्धिविजयजी आदि विद्वान् साधु चल रहे थे, इतना ही नहीं गांव-गांव के पढ़े लिखे श्रोता श्रावक जैसे बीसनगर के गलालशाह, जयचन्दशाह आदि। इन के अतिरिक्त अनेक साधु सूत्र-सिद्धान्त लेकर साथ में चल रहे थे और धन खर्च ने में श्रीमाली सेठ रायचन्द, बेचरदास, मनोहर, वक्तचन्द, महेता, मानचन्द प्रादि जिनशासन के कार्य में उल्लास पूर्वक भाग ले रहे थे। भाविक श्रावक. केसर चन्दन बरास प्रादि घिसकर तिलक करके भगवान् की पूजा करके जिनाज्ञा का पालन कर रहे थे, नगर सेठ मोतीभाई धर्म का रंग हृदय में धरकर सवै-गृहस्थों के आगे चल रहे थे। इधर ऋषि जेठमलजी अपने स्थान से निकलकर छीपा गली में पहुंचे, वहां सभी जाति के लोग इकट्ठे हुए थे, वहां से ऋषि जेठमलजी और उनकी टुकड़ी अदालत द्वारा बुलाई गई, सब सरकारी सभा की तरफ चले, मूर्तिपूजक और मूर्तिविरोधियों की पार्टियां अपने-अपने नियत स्थानों पर बैठी। शास्त्रार्थ में पूर्वपक्ष मन्दिर-मागियों का था, इसलिए वादी पार्टी के विद्वान् अपने-अपने शास्त्र-प्रमाणों को बताते हुए मूर्तिविरोधियों के मत का खण्डन करने लगे। जब पूर्व पक्ष ने उत्तर पक्ष की तमाम मान्यतामों को शास्त्र के आधार से निराधार ठहराया तब प्रतिमापूजा-विरोधी उत्तर पक्ष ने अपने मन्तव्य का समर्थन करते हुए कहा - "हम प्रतिमापूजा का खण्डन करते हैं, क्योकि प्रतिमा में कोई गुण नहीं है, न सूत्र में प्रतिमापूजा कही है, क्योंकि दशवें अंग सूत्र "प्रश्न व्याकरण" के आश्रवद्वार में मूर्ति पूजने वालों को मन्दबुद्धि कहा है और निरंजन निराकार देव को छोडकर चैत्या. लय में मूर्ति पूजने वाला मनुष्य अज्ञानी है।" ___ 2010_05 Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ ] [ पट्टावलो-पराग उत्तर पक्ष की युक्तियों को सुनकर पं० वीरविजयजी प्रत्युत्तर देते हुए बोले - "तुम ढुण्ढक लोगों का प्रवाह जानवरों के जैसा है, जिस प्रकार जानवरों के टोले को एक प्रादमी जिधर ले जाना चाहता है, उसी तरफ ले जाता है, वही दशा तुम्हारी हैं, तुम्हारे प्रादि गुरु लौंका ने किसी को गुरु नहीं किया और मूर्तिपूजा प्रादि का विरोध कर अपना मत स्थापिन किया, उसो प्रकार तुमने भी किसी भी ज्ञानी गुरु के विना उनको बातों को लेकर उसके पन्थ का समर्थन किया है, जिससे एक को साधते हो मोर दस टूटते हैं। प्रतिमा में गुण नहीं कहते हो तो उसमें दोष भी तो नहीं है और उसके पूजने से भक्तिगुण को जो पुष्टि होती है वह प्रत्यक्ष है। सूत्र-सिद्धान्त में अरिहन्त भगवन्त ने जिनप्रतिमा पूजनीय कही है प्राश्रव द्वार में प्रतिमापूजा वालों को मन्दबुद्धि कहा है - वह प्रतिमा जिन की नहीं, परन्तु नाग भूत आदि को समझना चाहिए ऐसा "अंगविद्या" नामक ग्रन्थ में कहा है। इतना ही नहीं बल्कि उसी "प्रश्नव्याकरण" अंग के सवरद्वार से जिनप्रतिमा को प्रशंसा की है और पूजने वाले के कर्मों को निर्बल करने वाली बताई है। छ8 अंग "ज्ञातासूत्र" में द्रौपदी के ठाठ के साथ पूजा करने का पाठ है, इसके अतिरिक्त विद्यावारणमुनि जिनप्रतिमा वन्दन के लिए जाते हैं, ऐसा भगवती सूत्र में पाठ है । सूर्याभदेव के शाश्वत जिनप्रतिमाओं की पूजा करने का "राजप्रश्नीय" में विस्तृत वर्णन दिया हुआ है और "जीवाभिगम" सूत्र में विजयदेव ने जिनप्रतिमा की पूजा करने का वर्णन विस्तारपूर्वक लिखा है, इस प्रकार जिन-जिन सूत्रों में मूर्तिपूजा के पाठ थे वे निकालकर दिखाये जिस पर ढुण्ढक कुछ भी उत्तर नहीं न दे सके। आगे पं० वीरविजयजी ने कहा - जब स्त्रा ऋतुधर्म से अपवित्र बनती है, तब उसको "सूत्र-सिद्धान्त" पढ़ना तथा पुस्तकों को छूना तक शास्त्र में निषेध किया है। यह कह कर उन्होंने "ठाणाङ्ग" सूत्र का पाठ दिखाया, तब ढुण्ढकों ने राजसभा में मंजूर किया कि ऋतुकाल में स्त्री को शास्त्र पढ़ना जैन सिद्धान्त में वर्जित किया है । परन्तु यह बात शास्त्रार्थ के अन्तर्गत नही है हमारा विरोध प्रतिमा से है इसके उत्तर में वीरविजयजी ने कहा - यज्ञ कराने वाला शयम्भव भट यूप के नीचे से निकली हुई शान्तिनाथ की प्रतिमा को देखकर प्रतिबोध पाया. इसी प्रकार अनेक भव्य मनुष्यों ने जिनप्रतिमा के दर्शन से जैनधर्म ____ 2010_05 Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] - को पाया और दीक्षा लेकर मोक्ष के अधिकारी हुए। प्रतिमा का विरोध करने वाले लौका के अनुयायी सं० १५३१ में प्रकट हुए, उसके पहले जैन नामधारी कोई भी व्यक्ति जिनप्रतिमा का विरोधी नहीं था। इस पर नृसिंह ऋषि बोले - सूत्र में जिनप्रतिमा का अधिकार है यह बात हम मानते हैं, परन्तु हम स्वयं प्रतिमा को जिन के समान नहीं मानते। नरसिंह ऋषिजो के इन इकबाली बयानों से अदालत ने मूर्तिपूजा मानने वालों के पक्ष में फैसला सुना दिया और जैनशासन की जय बोलता हुआ मूर्तिपूजक समुदाय वहां से रवाना हुप्रा । ___ बाद में मूर्तिपूजा विरोधियों के अगुमानों ने संघ के नेतामों से मिल कर कहा - "हम शहर में झूठे तो कहलाये, फिर भी हम वीरविजयजो से मिल कर कुछ समाधान करले । इसलिए जेठमलजी ऋषि को बीरविजयजी मिलें ऐसी व्यवस्था करो" इस पर इच्छाशाह ने कहा - यह तो चोरों की रोति है, साहूकारों को तो खुल्ले प्राम चर्चा करनी चाहिए। तुम मूर्ति को उत्थापन करते हो, इस सम्बन्ध में तुम से पूछे गये १३ प्रश्नों के उत्तर नहीं देते, राजदरबार में तुम झूठे ठहरे, फिर भी धीठ बनकर एकान्त में मिलने की बातें करते हो ?, मोटे ताजे मूलजी ऋषि मदालत में तो एक कोने में जाकर बैठे थे और अब एकान्त में मिलने की बात करते हैं ?, अगर अब भो जेठाजी ऋषि और तुमको शास्त्रार्थ कर जीतने की होश हो तो हम बड़ी सभा करने को तैयार हैं। उनमें शास्त्र के जानकार चार पण्डितों को बुलायेंगे, दूसरे भी मध्यस्थ पण्डित सभा में हाजिर होंगे। वे जो हार-जीत का निर्णय देंगे, दोनों पक्षों को मान्य करना होगा। तुम्हारे कहने मुजब एकान्त में मिलकर कुलड़ी में गुड़ नहीं भांगेंगे। सभा करने की बात सुनकर प्रतिपक्षी बोले - हम सभा तो नहीं करेंगे, हमने तो पापस में मिलकर समाधान करने की बात कही थी। सभा करने का इनकार सुनने के बाद प्रतिमा पूजने वालों का समुदाय भौर प्रतिम-विरोधियों का समुदाय अपने-अपने स्थान गया। अपने स्थानक पर जाने के बाद जेठाजी ऋषि ने हकमाजी ऋषि को कहा -माज राजनगर में अपने धर्म का जो पराजय हुआ है, इसका 2010_05 Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग - मुख्य कारण तुम हो। हमने पहले हो तुमको पूछाया तो तुमने लिखा कि शहर में शास्त्रार्थ करने वाला कोई पण्डित नहीं है। तुम्हारे इस झूठे पत्र के भरोसे हम सब हर्षपूर्वक यहां पाये भोर लूटे गये। इस प्रकार एक दूसरे की भूलें निकालते हुए, ढुण्ढक अहमदाबाद को छोड़ कर चले गये । शहर से बहुत दूर निकल जाने के बाद वे गांव-गांव प्रचार करने लगे कि राजनगर को अदालत में हमारी जोत हुई। ठोक तो है, सुवर्ण थाल से कांसे का रणकार ज्यादा ही होता है। विष को बघारना इसी को तो कहते हैं, "काटने वाला घोड़ा. और आंख से काना", "झूठा गाना और होली का त्यौहार", "रण का जंगल और पानी खारा" इत्यादि कहावतें ऐसे प्रसंगों पर ही प्रचलित हुई हैं। रास के रचियता पं० श्री उत्तमविजयजी जो उस शास्त्रार्थ के समय वहां उपस्थित थे, रास की समाप्ति में अपना अभिप्राय व्यक्त करते हुए कहते हैं - "जनिवक वस्त लहिईरे ॥ जे. ॥ निंदा तेनो नवी कहिईरे ॥ जै० ॥ अहमदाबाद सेहर मजार रे ॥ जै० ॥ सहु चव्या हता दरबार रे ॥०॥३॥ करयो न्याय अदालत माथे रे ॥०॥ त्यारे अमे गया ता साथे रे ॥०॥ त्यारे दुण्ढ सभा थी भागा रे ॥०॥ जिनसासन डंका वागा रे ॥३०॥४॥ ए वातो नजरें दीठी रे ॥०॥ हइयामां लागी मोठी रे ॥ जै० ॥ जब जाजा वरसते थाय रे ॥ ज० ॥ तव काइक बीसरि जाय रे ॥०॥५॥ पछे कोइ नर पुछाय रे ॥ ज० ॥ प्राडुअवलु बोलाय रे ॥०॥ जूठा बोला करी गाय रे ॥ ज० ॥ दुनिया जीति मवि जाय रे ॥जै॥६॥ अंग चौथुजे समवाय रे ॥ ज०॥ जूठा ना पाप गवाय रे ॥ जै० ॥ . अमें जूठ नयी कहेंवाय रे ॥ जै० ॥ प्राटा मां लूण समाय रे ॥०॥७॥ जिन सामन फरसी छाय रे ॥ ० ॥ साचा बोला मुनि राय रे ॥३०॥ जे मृग तृष्णा जल धाय रे ॥ जै० ॥ ते प्रापमति कहेवाय रे ॥जै०॥८॥ प्रमे प्रवलंब्या गुरु पाय रे ॥ज० ॥ साचु सोनु ते फसाय रे ॥०॥ साची बातों अमे भाषी रे ॥०॥ छे लोक हजारो साखी रे ॥३०॥६॥ 2010_05 Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४३५ अढार अठयोत्तर वरसे रे॥ जै० ॥ सुदि पौष नी तेरस विधमें रे ॥०॥ कुमति ने शिक्षा दोधी रे ॥ जै० ॥ तव रास नी रचना कीधी रे ॥०॥१७॥ राधनपुर ना रहेवासी रे ॥ जै०॥ तपगच्छ केरा चौमासी रे ॥ जै० ॥ खुशालविजयजी नु सोस रे ॥ जै० ॥ कहे उत्तमविमय जगीस रे ॥०॥११॥ जे नारी रस भर गास्ये रे ॥ ज० ॥ सोभाग्य अषंडित थास्ये रे ॥ जै० ॥ सांभल से रास रसीला रे ॥ जै० ॥ ते लेस्य अविचल लीला रे ॥०॥१२॥ ___इति लुपक लोप तपगच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास संपूर्ण । सं० १८७८ ना वर्षे माघ मासे कृष्णपक्षे ५ वार चन्द्र पं० वीरविजयजी नीं प्राज्ञा थी कत्तपुरा गच्छे राजनगर रहेवासी पं० उत्तमविजय । सं० १८८२ र वर्षे लिपिकृतमस्ति पाटन नगरे पं० मोतीविजय ॥" 'जो निन्दक होता है, उसके वास्तविक स्वभाव का वर्णन करना वह निन्दा नहीं है । अहमदाबाद में जब दोनों पार्टियां कोर्ट में जाकर लड़ी थीं और मदालत ने जो फैसला दिया था, उस समय हम भी अदालत में उनके साथ हाजिर थे। ढुण्ढकों के विपक्ष में फैसला हुआ और जैनशासन का डंका बजा, तब ढुण्ढक सभा को छोड़ कर चले गये थे। यह हमने अपनी आंखों से देखी बात है। जब कोई भी घटना घटती है और उसको अधिक समय हो जाता है, तब वह विस्मृत हो जाती है। लम्बे काल के बाद उस घटना के विषय में कोई पूछता है तो वास्तविक स्थिति से ज्यादा कम भी कहने में प्रा जाता है भोर तब जानकार लोग उसको असत्यवादी कहते हैं, हालाकि कहने वाला विस्मृति के वश ऊंचा-नीचा कह देता है, परन्तु दुनियां को कौन जीत सकता है, वह तो उसको असत्यवादी मान लेती हैं। चौथे समवायांग सूत्र में असत्य बोलने का पाप बताया है, इसलिये जो बात ज्यों बनी है हम वही कहते हैं। वर्णन में असत्य की मात्रा आटे में नमक के हिसाब से रह सकती है, अधिक नहीं। जिन्होंने जैनशासन को छाया का भी स्पर्श किया है, वैसे मुनि तो सत्यभाषी हो कहलाते हैं। जो मृग की तरह मृगतृष्णा के पीछे दौड़ते हैं, वे प्रापमति कहलाते हैं। हमने तो गुरु के चरणों का आश्रय लिया है। जिस प्रकार 2010_05 Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग सच्चा सोना कसौटी पर कसा जाता है, हमारी बातों की सच्चाई के हजारों लोग साक्षी हैं । सं० १८७८ के पौष सुदि १३ के दिन जब दुर्बुद्धि मूर्तिलोपकों को शिक्षा दी, उस समय इस रास की रचना की है। राधनपुर रहने वाले तपागच्छ के चौमासी श्री खुशालविजयजी के शिष्य उत्तमविजयजी कहते हैं - नो नारी इस रास को रसपूर्वक गायेगी उसका सौभाग्य अखंडित होगा और जो इस रसपूर्ण रास को सुनेंगे वे शाश्वत सुख पायेंगे। "इस प्रकार लुम्पक लोप तपमच्छ जयोत्पत्ति वर्णन रास पूर्ण हुमा। सं० १८७८ के माघ कृष्णपक्ष में ५ सोमवार को पंडित वीरविजयजी की प्राज्ञा से कत्तपुरागच्छीय राजनगर के निवासी पं० उत्तमविजयजी ने रास की रचना की और सं० १९८२ के वर्ष में पं० मोतीविजय ने पाटन नगर में यह प्रति लिखी ॥" उपर्युक्त पं० उत्तमविजयजी के रास से और वाडीलाल मोतीलाल शाह के जजमेन्ट से प्रमाणित होता है कि "समकितसार" के निर्माण के बाद स्थानकवासियों का प्रचार विशेष हो रहा था, इसलिए इस प्रचार को रोकने के लिए महमदाबाद के जैनसघ ने स्थानकवासियों के सामने कड़ा प्रतिबन्ध लगाया था। परिणामस्वरूप अदालत द्वारा दोनों पार्टियों से सभा में शास्त्रार्थ करवा कर निर्णय किया था। निर्णयानुसार स्थानकवासी पराजित होने से उन्हें अहमदाबाद छोड़ कर जाना पड़ा था। ___ 2010_05 Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभुवीर पट्टावली (२) "N स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी द्वारा संकलित "प्रभुवीर पट्टावली" के पृ० १५७ में ३३ पट्टधरों के उपरान्त आगे के पट्टधरों के नाम निम्न प्रकार से दिये हैं - ३४ वर्धनाचार्य ३५ भूराचार्य ३६ सूदनाचार्य ३७ सुहस्ती ३८ वर्धनाचार्य ३९ सुबुद्धि ४० शिवदत्ताचार्य ४१ वरदत्ताचार्य ४२ जयदत्ताचार्य ४३ जयदेवाचार्य ४४ जयघोषाचार्यं ४५ वीरचक्रधर ४६ स्वातिसेनाचार्य ४७ श्री वन्ताचार्य ४५ सुमतिप्राचार्य (लौंकाशाह के गुरु ) अब हम पंजाब की पट्टावली और श्री मणिलालजी की पट्टावली के नाम तुलनात्मक दृष्टि ने देखते हैं तो वे एक दूसरे से मिलते नहीं हैं, इसका कारण यही है कि ये दोनों पट्टावलियां कल्पित है और इसी कारण से पंजाबी स्थानकवासियों की पट्टावली के अनुसार लौंकाशाह के गुरु ज्ञानजी यति का पट्ट नं० ० ६० वां दिया है, तब श्री मणिलालजी ने ज्ञानजी यति के स्थान पर "सुमति" प्राचार्य नाम लिखा है और उनको ४८ वो पट्टधर लिखा है | 2010_05 Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थानकवासी पंजाबी सामों की पहावली (३) पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली जो "ऐतिहासिक नोध" पृ० १६३ में दी गई है, उसमें देवद्धिगरिण के बाद के १८ नाम छोड़कर शेष ४६ से लगाकर निम्न प्रकार से नाम लिखे हैं - ४६ हरिसेन ५३ महासेन ४७ कुशलदत्त ५४ जयराज ४८ जोवर्षि ५५ गजसेन ४६ जयसेन ५६ मिश्रसेन ५० विजयषि ५७ विजयसिंह ५१ देवर्षि ५८ शिवराज ५२ सूरसेन ५६ लालजोमल्ल ६० ज्ञानजी यति ___ 2010_05 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुतागमों की प्रस्तावनों की स्थानकवासी पट्टावली ( ४ ) १ सुधर्मा ४ शय्यम्भव ७ आर्य भद्रबाहु १० बलिस्सह १३ साण्डिल्य १६ नन्दिल १६ खन्दिल २२ नागार्जुन २५ लोहाचार्य २८ वीरभद्र ३१ वीरसेन ३४ हर्षसेन ३७ देवर्षि ४० राजर्षि ४३ लक्ष्मीलाभ ४६ हरिशर्मा ४६ जयसेन ५२ सूरसेन ५५ जयराज ५८ विजयसिंह 2010_05 २ जम्बू ५ यशोभद्र ८ स्थूलभद्र ११ सन्तायरिय १४ जिनधर्म १७ श्री नागहस्ती २० सिंहगिरि २३ गोविन्द २६ दुप्रस्सह २६ शिवभद्र ३२ गिज्जाम्य ३५ जयसेन ३८ भीमसेन ४१ देवसेन ४४ रामषि ४७ कुशलप्रभ ५० विजयषि ५३ महासिंह ५६ गजसेन ५६ शिवराज ३ प्रभव ६ सम्भूति ६ श्रार्य महागिरि १२ श्यामाचार्य १५ समुद्र १८ रेवत २१ श्रीमन्त २४ भूतदिन २७ देवगिरिण ३० जसवीर ३३ जससेन ३६ जयपाल गरिण ३६ कर्मसिंह ४२ शंकरसेन ४५ पद्माचार्य ४८ उन्मूनाचार्य ५१ श्री देवचन्द्र ५४ महासेन ५७ मित्रसेन ६० लालाचार्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० [ पट्टावली-पराग ६१ ज्ञानाचार्य ६२ भारणा ६४ जीवर्षि ६५ तेजराज ६७ जीवराज ७८ धनजी ७० मनजी ७१ नाथूरामाचार्य ७३ छित्तरमल ७४ राजाराम ७६ रामलाल ७७ फकीरचन्द ७६ सुमित्त ८० जिणचन्द ( २०११ में जिनचन्द्र ने यह पट्टावली बनाई ) ६३ रूपाचार्य ६६ हरजी ६६ विस्सणायरियो ७२ लक्ष्मीचन्द्र ७५ उत्तमचन्द ७८ पुप्फभिक्खू ___ 2010_05 Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमरा - सुरतरु की स्थानकवासि- पहावली (५) पुप्फभिक्खू की पट्टावली लिखने के बाद स्थानकवासी मुनि श्री मिश्रीमलजी (मरुधर केसरी) निर्मित "श्रमणसुरतरु'' नामक एक पट्टक हमारे देखने में पाया, उसमें दी गई सुधर्मा स्वामी से ज्ञानजी ऋषि पर्यन्त के ६७ नाम पट्टावली में लिखे गए हैं । तब पुप्फभिक्खू की नूतन पट्टावली में ज्ञानजी ऋषि को "ज्ञानाचार्य" नाम दिया है, और ६१ वां पट्टधर बताया है, इस प्रकार इन दो पट्टावलियों में ही छः नाम कम ज्यादह भाते हैं और जो नाम लिखे गए हैं उनमें से छः नाम दोनों में एक से मिलते हैं । वे ये हैं - . २८ प्रा० वीरभद्रजी ३१ मा० वीरसेनजी ३६ प्रा. जगमालजी ३८ ना० भीमसेनजी ४० मा. राजर्षिजी ४१ ना. देवसेनजी उपर्युक्त छः प्राचार्यों के नाम सौर नम्बर दोनों पट्टावलियों में एक से मिलते हैं। तब शेष देवद्धिगरिण के बाद । ३४ नामों में से एक भी नाम एक.दूसरे के साथ मेल नहीं खाता, इससे प्रमाणित होता है कि देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के बाद के ज्ञानजी यति तक के सभी नाम कल्पित हैं, जिनकी पहिचान यह है कि इन सब नामों के अन्त में 'जी' और 'महाराज' शब्द प्रयुक्त किए गए हैं, 'जी' कारान्त पोर 'महाराजान्त' नाम मौलिक नहीं है, 2010_05 Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ ] [ पट्टावली-पराग यह बात नामों की रचना और उनके प्रयोगों से ही पाठकगरण अच्छी तरह समझ सकते हैं । सुधर्मा से देवगिरिग तक के २८ नामों में भी लेखक महोदय ने अनेक स्थानों में अशुद्धियां घुसेड़ दी है, इनके दिये हुए देवगिरिण क्षमाश्रमण तक के नाम वास्तव में किसी की गुरु-परम्परा के नाम नहीं हैं, किन्तु ये माथुरी वाचनानुयायी वाचक-वंश के नाम है, जिसका खरा कम निम्न प्रकार का है ६ श्री चार्य महागिरि ११ " स्वास्तिसूरि १३ " १५ " श्रार्य मंगू १७, नागहस्ती १६, ब्रह्मद्वीपकसिंह जीतधर- शाण्डिल्य २१ हिमवान् २३ " २५” "" २७, गोविन्द वाचक लोहित्य देवगिरिण क्षमाश्रमण १० श्री बलिस्साहसूरि श्यामार्य १२ " आर्य समुद्र आर्य नन्दिल रेवती नक्षत्र स्कन्दिल नागार्जुन १४, १५, १८ " २०,” २२ " २४, भूतदिन्न २६,, दूष्यगणि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक महाशय ने ११ वें नम्बर में सुहस्तीसूरि को रखा है, जो ठीक नहीं, क्योंकि महागिरि के बाद उनके अनुयोग-धर शिष्यों के नाम ही आते हैं, सुहस्ती का नहीं । १२ वें नम्बर में आचार्यश्री शान्ताचार्य लिखा है, इसी लाइन में नन्दिलाचार्य नाम लिखा है, वे भी यथार्थ नहीं हैं, खरा नाम स्वात्याचार्य है । सुप्रतिबुद्ध का नाम वाचक परम्परा में नहीं है, किन्तु सुहस्तिसूरि की की शिष्य परम्परा में है और नन्दिल का नाम १६ वें नम्बर में आता है । 2010_05 १३ वां नम्बर स्कन्दिलाचार्य का दिया है, जो गलत है । १३ वें नम्बर के श्रुतघर जीतश्रुतघर शाण्डिल्य हैं, स्कन्दिल नहीं । स्कन्दिलाचार्य का Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] नम्बर २० वां है, १३ वां नहीं, कोष्टक में आर्यदिन्न का नाम भी गलत लिखा है, आर्यदिन मार्य सुहस्ती की परम्परा के स्थविर थे और इनका पट्ट नम्बर ११ वां था, १३ वां नहीं। १४ ३ नम्बर में जीतधर स्वामी का नाम लिखा है, जो ठीक नहीं है, क्योंकि जोतधर विशेष नाम नहीं है, किन्तु १३ वें नम्बर के आर्य शाण्डिल्य का विशेषण मात्र है। १५ वें नम्बर में आर्य समुद्र का नाम दिया है पर आर्य समुद्र १४ वें नम्बर में हैं और आगे कोष्टक के श्री वज्रधर स्वामी ऐसा नाम लिखा है, यह भी यथार्थ नहीं है, क्योंकि इस नाम के कोई भी स्थविर हुए ही नहीं हैं । १६ वें नम्बर के आगे "वयर-स्वामी" लिखा है, जो गलत है, इस नम्बर के नन्दिलाचार्य स्थविर ही हुए हैं, इनके आगे वज्रशाख १, चन्द्रशाखा २, निवृत्तिशाखा ३ और ४ विद्याधरीशाखा नाम लिखे हैं, ये भी यथार्थ नहीं हैं । वज्रस्वामी से वानीशाखा जरूर निकली है, "चन्द्र" नाम कुल का है शाखा का नहीं इसी तरह "निवृति" नहीं किन्तु “निर्वृति" नाम है और वह नाम शाखा का नहीं "कुल" का है, इसी तरह "विद्याधर" भी "कुल" का नाम है । शाखा का नहीं। १७ वें नम्बर के प्राचार्य "रेवतगिरि" "श्री मार्यरक्षित" और श्री "धरणीधर" इनमें से पहले और तीसरे नाम के कोई श्रुतधर हुए ही नहीं है और भार्यरक्षित हुए हैं, तो इनका नम्बर २० वां है, १७ वां नहीं। १८ वें और १६ वें नम्बर के प्रागे आचार्य "श्री सिंहगणि" नौर "स्थविर-स्वामी" ये नाम लिखे हैं, परन्तु दोनों नाम गलत है, क्योंकि इन नामों के कोई श्रुतधर हुए ही नहीं, सिंहगरिण के आगे शिवभूति का नाम लिखा है, सो ठीक है परन्तु शिवभूति वाचक-वंश में नहीं किन्तु देवद्धि गणि की गुर्वावली में है, यह बात लेखक को समझ लेना चाहिए थी। 2010_05 Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] [ पट्टावली-पराग २० वें नम्बर में आचार्य शाण्डिल्य का नाम लिखा है, और कोष्टक में भायं नागहस्ती एवं प्रायं भद्र के नाम हैं, परन्तु ये शाण्डिलाचार्य श्रुतधर शाण्डिल्य नहीं, क्योंकि श्रुतधर शाण्डिल्य का नाम १३ वां है, जो पहले लेखक ने खन्दिलाचार्य के रूप में लिख दिया है । प्रस्तुत शाण्डिल्य आर्य नागहस्ती और प्रार्य भद्र ये तीनों नाम देवगिरिग की गुर्वावली के हैं नोर गुर्वावली में इनके नम्बर क्रमश: ३३, २२ र २० हैं, जिनको लेखक बें ऊटपटांग कहीं के कहीं लिख दिए हैं। २५ वें नम्बर के आगे श्री लोहगरिए नाम लिखा है, सो ठीक नहीं, शुद्ध नाम "लोहित्यगरिए" है । २६ नम्बर के नागे इन्द्रसेनजी लिखकर कोष्टक में दूष्यगरि लिखा है, वास्तव में "इन्द्रसेनजी " कोई नाम ही नहीं है, शुद्ध नाम "दूष्यगरिए" ही है । जैनसंघ तीर्थयात्रा को जा रहा था । लौंकाशाह जहां अपने मत का प्रचार कर रहे थे वहां संघ पहुंचा और वृष्टि हो जाने के कारण संघ कुछ समय तक रुका । संघजन लौंका का उपदेश सुनकर “दयाधर्म के अनुयायी बन गए और संघ को झागे ले जाने से रुक गए," यह कल्पित कहानी स्थानकवासी सम्प्रदाय की अर्वाचीन पट्टावलियों में लिखी मिलती है। परन्तु न तो सिरोही स्टेट के अन्दर अहवाड़ा अथवा श्रटवाड़ा नामक कोई गांव है, न इस कहानी की सत्यता ही मानी जा सकती है; तब अहवाड़ा में लौंका का जन्म बताने वाली बात सत्य कैसे हो सकती है । सं० १४७२ के कार्तिक सुदि १५ को गुरुवार होना पंचांग गणित के आधार से प्रमाणित नहीं होता, न उनके स्वर्गवास का समय ही १५४६ के चैत्र सुदि ११ को होना सिद्ध होता है । उपर्युक्त दोनों संवत् मनघडन्त लिखे हैं, क्योंकि उन दोनों तिथियों में "एफेमेरिज " के आधार से लिखित वार नहीं मिलते । अब रही दीक्षा की बात सो लौंकागच्छ की किसी भी पट्टावली में लोकाशाह के दीक्षा लेने की बात नहीं लिखी । प्रत्युत केशवजी ऋषि ने लौका को दीक्षित माना है, 2010_05 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४४५ तब २१ वीं सदी के स्थानकवासी श्रमण संघ और " श्रमरणसुरतरु" के लेखक मुनिजी को लौंकाशाह के जन्म, दीक्षा और स्वर्गारोहण के समय का किस ज्ञान से पता लगा, यह सूचित किया होता तो इस पर कुछ विचार भी हो सकता था । खरी बात तो यह है कि पट्टावली-लेखकों तथा लौकागच्छ को अपना गच्छ कहने वालों को लोकाशाह को गृहस्थ मानने में संकोच होता था, इसलिये पंजाबी पट्टावली में से लोकाशाह कों पहले से ही श्रद्दश्य बना दिया था, अब मारवाड़ के श्रमरणों को भी अनुभव होने लगा कि लोकाशाह को साधु न मानला अपने गच्छ को एक गृहस्थ का चलाया हुआ गच्छ मानना है, इसी का परिणाम है कि 'श्रमणसुरतरु' के लेखक ने लोकशाह को दीक्षा दिलाकर "अपने गच्छ को श्रम प्रवर्तितगच्छ बताने की चेष्टा की है," कुछ भी करें, लोंका के अनुयायियों की परम्परा गृहस्थोपदिष्ट भार्ग पर चलने वाली है, वह इस प्रकार की कल्पित कहानियों के जोड़ने से ग्रागमिक श्रमण परम्पराम्रों के साथ जुड़ नहीं सकती । प्रारम्भिक पट्टावलियों के विवरण में लौंकागच्छीय और स्थानक - वासियों की पट्टावलियों के सम्बन्ध में हम लिख ग्राए है कि ये सभी पट्टावलियां छिन्नमूलक हैं । देवगिरिण क्षमा श्रमरण तक के २७ नामों से मी इनका एकमत्य नहीं है । किसी ने देवगिरिण क्षमा श्रमण को आर्यमहागिरि की परम्परा के मानकर नन्दी की स्थविरावली में लिया है, तब किसी ने उन्हें प्रार्य - सुहस्ती की गुरु परम्परा के स्थविर मानकर कल्पसूत्र की स्थविरावली में घसीटा है । वास्तव में दोनों प्रकार के लेखक देवगिरिक्षमा-श्रमण की परम्परा लिखने में मार्ग भूल गये हैं । देवद्विगरि क्षमा-श्रमण के बाद के कतिपय स्थविरों को छोड़कर "प्रभुवीर पट्टावली" में उसके लेखक श्री मणिलालजी ने लोकाशाह के गुरु तक के जो नाम लिखे हैं, वे लगभग सब के सब कल्पित हैं । उधर पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली में जो नाम देवगिरि के बाद १८ नामों को छोड़कर शेष लिखे गए हैं, उनमें से भी अधिकांश कल्पित ही ज्ञात होते हैं, क्योंकि आधुनिक स्थानकवासी साधु उनमें के अनेक नामों को भिन्न 2010_05 Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] [ पड़ावली-पराग e प्रकार से लिखते हैं । पंजाब की पट्टावलियों में देवद्धिगणि-क्षमाश्रमण के बाद १८ नाम छोड़कर ज्ञानजी यति तक के जो नाम मिलते हैं, उनसे भी नहीं मिलने वाले प्राधुनिक स्थानकवासी पंजाबी साधु श्री फूलचन्दजी द्वारा सम्पादित "सुत्तागमे" नामक पुस्तक के दूसरे भाग के प्रारम्भ में दी गई पट्टावली में उपलब्ध होते हैं, जो १८ नाम अन्य पट्टावलियों में नहीं मिलते, वे भी इसमें लिखे मिलते हैं। 2010_05 Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फभिक्खू की पट्टावली (६) २७ देवगिरिण क्षमाश्रमण २८ वीरभद्र ३० जसवीर ३१ वीरसेन ३३ जससेन ३० हर्षसेन ३६ जयपाल गरि ३९ कर्मसिंह ४२ शंकरसेन ४५ पद्माचार्य ४८ उन्मनाचार्य ५१ देवचन्द्र ५४ महासेन ५७ मित्रसेन ६० लालाचार्य ६३ रूपाचार्य ६६ हरजी ६६ विस्सरणायरि ७२ लक्ष्मीचन्द्र ७५ उत्तमचन्द ७८ पुष्पभिक्षु ३७ देवर्षि ४० राजर्षि 2010_05 ४३ लक्ष्मीलाभ ४६ हरिशर्मा ४६ जयसेन ५२ सूरसेन ५५ जयराज ५८ विजयसिंह ६१ ज्ञानाचार्य ६४ जीवष ६७ जीवराज ७० मनजी ७३ छितरमल ७६ रामलाल ७६ सुमित्र २६ शिवभद्र ३२ णिज्जामय ३५ जयसेन ३८ भीमसेन ४१ देवसेन ४४ रामपि ४७ कुशलप्रभ ५० विजयप ५३ महासिंह ५६ गजसेन ५६ शिवराज ६२ भागाचार्य .६५ तेजराज ६८ धनजी ७१ नाथूरामाचार्य उपर्युक्त ८० नामों में से देवगिरि पर्यन्त के २७ नाम ऐतिहासिक हैं । इनमें भी कतिपय नाम प्रस्त-व्यस्त और अशुद्ध बना दिये हैं । २७ में से ११वां, १४, २०, २१वां, २५वां और २६ वां, ये सात नाम वास्तव ७४ राजाराम ७७ फकीरचन्द ८० जिनचन्द्र Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] [ पट्टावली-पराग में देवद्विगरिण की वाचक - वंशावली के नहीं हैं और न देवद्धि की गुरु परम्परा के ये नाम हैं, तथा २८ से लेकर ६० तक ये नाम कल्पित हैं । इन नामों के आचार्यों या साधुओं के होने का उल्लेख माथुरी या वालभी स्थविराबली में अथवा तो अन्य किसी पट्टावली स्थविरावली में नहीं है । ६१वां ज्ञानाचार्य वास्तव में वृद्धपोषधशालिक याचार्य ज्ञानचन्द्रसूरि हैं। इसके आगे के ६२ से लेकर ८० तक के १८ नामों में प्रारम्भ के कतिपय नाम faraच्छ के ऋषियों के हैं, तब अन्तिम कतिपय नाम पुष्पभिक्षु के बड़ेरों के और उनके शिष्य - प्रशिष्यों के हैं । पंजाब के स्थानकवासियों की पट्टावली जो "ऐतिहासिक नोंघ" पृ० १६३ में दी है उसमें देवगिरिण के बाद के १८ नाम छोड़कर ४६ से लगाकर निम्न प्रकार से नाम लिखे हैं ४६ हरिसेन ४६ जयसेन ५२ सूरसेन ५५ गजसेन ५८ शिवराज ४७ कुशलदत्त ५० विजयब 2010_05 ५३ महासेन ५६ मिश्रसेन ५६ लालजीमल्ल पंजाबी साधु फूलचन्दजी ने अपनी नवीन पट्टावली में देवगिरिणक्षमाश्रमण के बाद जो २८ से ४५ तक के नम्बर वाले नाम लिखे हैं वे तो कल्पित हैं ही, परन्तु उसके बाद के भी ४६ से ६० नम्बर तक के १५ नामों में से ७ नाम फूलचन्दजी की पट्टावली के नामों से नहीं मिलते । ४६वा पट्टधर का नाम पंजाबी पट्टावली में हरिसेन है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर हरिशर्मा लिखा है । पं० पट्टावली में ४७वां नाम कुशलदत्त है, तब फूलचन्दजी ने उसे कुशलप्रभ लिखा है । पं० पट्टावली में ४८वाँ नाम जीक्नषि है, तब फूलचन्दजी ने उसके स्थान पर "उमरगायरियो” लिखा है । ५१वां नाम पं० पट्टावली में "देवर्षि" है तब फूलचन्दजी ने "देवचन्द्र" लिखा है | पं० पट्टावली में ५३वां नाम " महासेन" मिलता है तव फूलचन्दजी ने "महासिंह" लिखा है। पं० पट्टावली में ५४वां नाम ४८ जीवनषि ५१ देवर्षि ५४ जयराज ५७ विजयसिंह ६० ज्ञानजी यति - Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ] [ ४४६ जयराज है तब फूलचन्दजी ने उस नम्बर के साथ "महासेन' लिखा है और "जयराज" को नम्बर ५५वां में लिया है, और पं० पट्टावली में ५५वें नंबर के साथ गजसेन का नाम लिखा है। पं० पट्टावली में ५६वों पट्टधर "मिश्रसेन" बताया है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को "मित्रसेन" लिखा है पोर नम्बर ५७वां दिया है। पं० पट्टावली में ५७वां नाम "विजयसिंह" का है, तब फूलचन्दजी ने विजयसिंह को ५८वें नम्बर में रखा है । पं० पट्टावली में ५८-५९-६० नम्बर क्रमशः शिवराज, लालजीमल्ल, और ज्ञानजी यति को दिए है, तब फूलचन्दजी ने इन्हीं को ५६-६०-६१ नम्बर में रखा है। उपर्युक्त नामों की तुलना से जाना जा सकता है कि पंजाबी साधु श्री फूलचन्दजी सूत्रों के पाठों के परिवर्तन में भौर नये नाम गढने में सिद्धहस्त प्रतीत होते हैं। इन्होंने स्थविरों के नामों में ही नहीं मागमों के पाठों में भी अनेक परिवर्तन किये हैं और कई पाठ मूल में से हटा दिये हैं। इस हकीकत की जानकारी पाठकगण नागे दिये गए शीर्षकों को पढ़कर हासिल कर सकते हैं। जैन आगमों में काट-छांट : लौंकामत का प्रादुर्भाव बिक्रम सं० १५०८ में हुआ था और इस मत में से १८वीं शती के प्रारम्भ में अर्थात् १७०६ में मुख पर मुहपत्ति बांधने वाला स्थानकवासी सम्प्रदाय निकला, इत्यादि बातों का विस्तृत वर्णन लौकागच्छ की पट्टावली में दिया जा चुका है। शाह लौंका ने तथा उनके अनुयायी ऋषियों ने मूर्तिपूजा का विरोध अवश्य किया था, परन्तु जैन मागमों में काटछांट करने का साहस किसी ने नहीं किया था। सर्वप्रथम सं० १८६५ में स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी ने "समकितसार" नामक ग्रन्थ लिखकर मूर्तिपूजा के समर्थन में जो भागमों के पाठ दिये थे उनकी समालोचना करके अर्थ-परिवर्तन द्वारा अपनी मान्यता ____ 2010_05 Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० ] [ पट्टावली-पराग - का बचाव करने की चेष्टा की, परन्तु मूल-सूत्रों में परिवर्तन अथवा कांटछांट करने का कातर प्रयास किसी ने नहीं किया। उसके बाद स्थानकवासी साधु श्री अमोलकऋषिजी ने ३२ सूत्रों को भाषान्तर के साथ छपवाकर प्रकाशित करवाया। उस समय भी ऋषिजी ने कहीं-कहीं शब्द परिवर्तन के सिवा पाठों पर कटार नहीं चलाई थी। विक्रम की २१ वीं शती के प्रथम चरण में उन्हीं ३२ सूत्रों को "सुत्तागमे' इस शीर्षक से दो भागों में प्रकाशित करवाने वाले श्री पुप्फभिक्खू (श्री फूलचन्दजी) ने उक्त पाठों को जो उनकी दृष्टि में प्रक्षिप्त थे निकालकर ३२ प्रागमों का संशोधन किया है। उन्होंने जिन-जिन सूत्रों में से जो-जो पाठ निकाले हैं उनकी संक्षिप्त तालिका नीचे दी जाती है - (१) श्री भगवती सूत्र में से शतक २० । ३०६ । सू० ६८३ - ६८४ । भगवतीसूत्र शतक ३ । ३०२ में से । भगवतीसूत्र के अन्दर जंघाचारण विद्याचारणों के सम्बन्ध में नन्दीश्वर मानुषोत्तर पर्वत तथा मेरु पर्वत पर जाकर चैत्यवन्दन करने के पाठ मूल में से उड़ा दिए गए हैं। (२) ज्ञाताधर्म-कथांग में द्रौपदी के द्वारा की गई जिनपूजा सम्बन्धी सारा का सारा पाठ हटा दिया है। (३) स्थानांग सूत्र में आने वाले नन्दीश्वर के चैत्यों का अधिकार हटाया गया है। (४) उपासक-दशांग सूत्र के प्रानन्द श्रावकाध्ययन में से सम्यक्त्वोच्चारण का पालापक निकाल दिया है। (५) विपाकश्रुत में से मृगारानी के पुत्र को देखने जाने के पहले मृगादेवी ने गौतम स्वामी को मुहपत्ति से मुह बांधने की सूचना करने वाला पाठ उड़ा दिया है। (६) मोपपातिक सूत्र का मूल पाठ जिसमें मम्बडपरिव्राजक के सम्यक्त्व उचरने का अधिकार था, वह हटा दिया गया है, क्योंकि उसमें 2010_05 Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५१ "अरिहन्तचैत्य" और "अन्य तीथिक परिगृहीत अरिहन्त चैत्यों" का प्रसंग पाता था। (७) राजप्रश्नीय सूत्रों में सूर्याभदेव के विमान में रहे हुए सिद्धायतन में जिनप्रतिमामों का वर्णन और सूर्याभदेव द्वारा किये हुए उन प्रति___ मानों के पूजन का वर्णन सम्पूर्ण हटा दिया है। (८) जीवाभिगम सूत्र में किये गए विजयदेव की राजधानी के सिद्धायतन तथा जिनप्रतिमाओं का, नन्दीश्वर द्वीप के जिनचंत्यों का रुचक तथा कुण्डल द्वीप के जिनचंत्यों का, वर्णन निकाल दिया गया है। श्री जीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति के द्वितीय उद्देश में विरुद्ध जाने वाला जो पाठ था उसको हटा दिया है। (8) इसी प्रकार जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रादि सूत्रों में आने वाले सिद्धायतन कूटों में से "पायतन" शब्द को हटाकर "सिद्धकूट" ऐसा नाम रक्खा है। (१०) वहार-सूत्र के प्रथम उद्देशक के ३७ ३ सूत्र के द्वितीय भाग में माने __ वाले "भाविजिनचे इन" शब्द को हटा दिया है । उपर्युक्त सभी पाठ स्थानकवासी साधु धर्मसिंहजी से लगाकर बीसवीं सदी के स्थानकवासी साधु श्री अमोलक ऋषिजी ने ३२ सूत्रों को भाषान्तर के साथ छपवाकर प्रकाशित करवाया तब तक सूत्रों में विद्यमान थे। गतवर्ष सं० २०१६ के शीतकाल में जब हमने श्री पुप्फभिक्खू सम्पादित “सुत्तागमे" नामक जैनसूत्रों के दोनों अंश पढ़े तो ज्ञात हुमा कि सूत्रों के इस नवीन प्रकाशन में श्री फूलचन्दजी (पुप्फभिक्खू) ने बहुत ही गोलमाल किया है । सूत्रों के पाठ के पाठ निकालकर मूर्तिविरोधियों के लिए मार्ग निष्कण्टक बनाया है । मैंने प्रस्तुत सूत्रों के सम्पादन में की गई काटछांट के विषय में स्थानकवासी श्री जैनसंघ सहमत है या नहीं, यह जानने के लिए एक छोटा सा लेख तैयार कर "जनवाणी" कार्यालय जयपुर (राजस्थान) तथा चांदनी चौक देहली नं० ६ "जेनप्रकाश" कार्यालय को 2010_05 Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ ] [ पट्टावली-पराग एक-एक नकल प्रकाशनार्थ भेजी, परन्तु उक्त लेख स्थानकवासी एक भी पत्रकार ने नहीं छापा, तब इसकी नकल भावनगर के "जैन" पत्र के ऑफिस को भेजी और वह लेख जैन के : भगवान् महावीर-जन्म कल्याणक विशेषाङ्क" में छपकर प्रकट हुना, हमारा वह संक्षिप्त लेख निम्नलिखित था। श्री स्थानकवासी जैनसंघ से प्रश्न : पिछले लगभग अर्द्धशताब्दी जितने जीवन में अनेक विषयों पर गुजराती तथा हिन्दी भाषा में मैंने अनेक लेख तथा निबन्ध लिखे हैं, परन्तु श्री स्थानकवासी चैनसंघ को सम्बोधन करके लिखने का यह पहला ही प्रसंग है, इसका कारण है "श्री पुप्फभिक्खू" द्वारा संशोधित और सम्पादित "सुत्तागमे" नामक पुस्तक का अध्ययन । पिछले कुछ वर्षों से प्राचीन जैन साहित्य का स्वाध्याय करना मेरे लिए नियम सा हो गया है, इस नियम के फलस्वरूप मैंने "सुत्तागमे" के दोनों अंश पढ़े, पढने से मेरे जीवन में कभी न होने वाला दुःख का अनुभव हुमा । मेरा झुकाव इतिहास-संशोधन की तरफ होने से "श्री लौकागच्छ" तथा "श्री बाईस सम्प्रदाय" के इतिहास का भी मैंने पर्याप्त अवलोकन किया है। लौकाशाह के मत-प्रचार के बाद में लिखी गई अनेक हस्तलिखित पुस्तकों से इस सम्प्रदाय की पर्याप्त जानकारी भी प्राप्त की, फिर भी इस विषय में कलम चलाने का विचार कभी नहीं किया, क्योंकि संप्रदायों के मापसी संघर्ष का जो परिणाम निकलता है उसे मैं अच्छी तरह जानता था। लोकाशाह के मौलिक मन्तव्य क्या थे, उसको उनके अनुयायियों के द्वारा १६वीं शताब्दी के अन्त में लिखित एक चर्चा-ग्रन्थ को पढ़ कर मैं इस विषय में अच्छी तरह वाकिफ हो गया था। उस हस्तलिखित ग्रन्थ के बाद में बनी हुई भनेक इस गच्छ की पट्टावलियों तथा अन्य साहित्य का भी मेरे पास अच्छा संग्रह है । स्थानकवासी साधु श्री जेठमलजी द्वारा संदृब्ध "समकितसार" और इसके उत्तर में श्री विजयानन्दसूरि-लिखित "सम्यक्त्व 2010_05 Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५३ शल्योद्धार" पुस्तक तथा श्री अमोलकऋषिजी द्वारा प्रकाशित ३२ सूत्रों में से भी कतिपय सूत्र पढ़े थे। यह सब होने पर भी स्थानकवासी सम्प्रदाय के विरुद्ध लिखने की मेरी भावना नहीं हुई । यद्यपि कई स्थानकवासी विद्वानों ने अपने मत के बाधक होने वाले सूत्र-पाठों के कुछ शब्दों के अर्थ जरूर बदले थे, परन्तु सूत्रों में से बाधक पाठों को किसी ने हटाया नहीं था। लौंकागच्छ को उत्पत्ति से लगभग पौने पांच सौ वर्षों के बाद श्री पुप्फभिक्खू तथा इनके शिष्य-प्रशिष्यों ने उन बाधक पाठों पर सर्वप्रथम कैंची चलाई है, यह जान कर मन में अपार ग्लानि हुई। मैं जानता था कि स्थानकवासी सम्प्रदाय के साथ मेरा सद्भाव है, वैसा ही बना रहेगा, परन्तु पुप्फभिक्खू के उक्त कार्य से मेरे दिल पर जो आघात पहुँचा है, वह सदा के लिए अमिट रहेगा। भगवतीसूत्र, ज्ञाताधर्मकथांग, उपासकदशांग, विपाकसूत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय ,जीवाभिगम, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, व्यवहारसूत्र आदि में जहां-जहां जिनप्रतिमा-पूजन, जिनचैत्यवन्दन, सिद्धायतन, मुहपत्ति बांधने के विरुद्ध जो जो सूत्रप ठ थे, उनका सफाया करके श्री भिक्खूजी ने स्थानकवासी सम्प्रदाय को निरापद बनाने के लिए एक अप्रामाणिक और कापुरुषोचित कार्य किया है, इसमें कोई शंका नहीं, परन्तु इस कार्य के सम्बन्ध में मैं यह जानना चाहता हूं कि “सुतार मे" छपवाने में सहायता देने वाले गृहस्थ और सुत्तागमें पर अच्छी-अच्छी सम्मतियां प्रदान करने वाले विद्वान् मुनिवयं मेरे इस प्रश्न का उत्तर देने का कष्ट करेंगे कि इस कार्य में वे स्वयं सहमत हैं या नहीं ? उपर्युक्त मेरा लेख छपने के बाद "अखिल भारत स्थानकवासी जैन कॉफ्रेन्स" के माननीय मन्त्री और इस संस्था के गुजराती साप्ताहिक मुखपत्र "जैन-प्रकाश' के सम्पादक श्रीयुत् खीमचन्दमाई मगनलाल बोहरा द्वारा "जैन" पत्र के सम्पादक पर तारीख १-५-६२ को लिखे गये पत्र में लिखा था कि - "सुत्तागमें" पुस्तक श्री पुप्फभिक्खू महाराज का खानगी प्रकाशन हैं, जिसके साथ "श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसध'' अथवा "अखिल भारतीय स्थानकवासी जैन कॉन्फ्रेन्स" का कोई सम्बन्ध 2010_05 Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ ] [ पट्टावली-पराग - - नहीं है, सो जानिएगा। "इस पुस्तक के प्रकाशन के सम्बन्ध में श्रमणसंघ के अधिकारी मुनिराजों ने तथा कॉन्झेन्स ने श्री पुप्फभिक्खू महाराज के साथ पत्र व्यवहार भी किया है, इसके अतिरिक्त यह प्रश्न श्रमणसंघ के विचारणीय प्रश्नों पर रक्खा गया है और श्रमणसंघ के अधिकारी मुनिराज थोड़े समय में मिलेंगे तब इस पुस्तक प्रकाशन के विषय में आवश्यक निर्णय करने का सोचा है।" कुछ समय के बाद पत्र में लिखे मुजब ता० ७-६-६२ के "जैनप्रकाश" में स्थानकवासी श्रमणसंघ की कार्यवाहक समिति ने "सुत्तागम" पुस्तक को अप्रमाणित ठहराने वाला नीचे लिखा प्रस्ताव सर्वानुमति से पास किया - “मन्त्री श्री फूलचन्दजी महाराज ने "सुत्ताममे" नामक पुस्तक के प्रकाशन में प्रागमों में कतिपय मूल पाठ निकाल दिए हैं, वह योग्य नहीं । शास्त्र के मूल पाठों में कमी करने का किसी को अधिकार नहीं है, इसलिए "सुत्तागमे" नामक सूत्र के प्रस्तुत प्रकाशन को यह कार्यवाहक समिति अप्रमाणित उद्घोषित करती है।" उपर्युक्त स्थानकवासी श्रमणसंघ की समिति का प्रस्ताव प्रसिद्ध होने के बाद इस विषय में अधिक लिखना ठीक नहीं समझा और चर्चा वहीं स्थगित हो गई। ___ पट्टावली के विवरण में श्री पुप्फभिक्खू के "सुत्तागमे” नामक सूत्रों के प्रकाशन के सम्बन्ध में पुप्फभिक्खूजी द्वारा किये गये पाठ परिवर्तन के सम्बन्ध में कुछ लिखना आवश्यक समझ कर ऊपर निकाले हुए सूत्रपाठों की तालिका दी है। पुप्फभिक्खूजी का पुरुषार्थ इतना करके ही पूरा नहीं हुआ है, इन्होंने सूत्रों में से चैत्य शब्द को तो इस प्रकार लुप्त कर दिया है कि सारा प्रकाशन पढ़ लेने पर भी शायद ही एकाध जगह चैत्य शब्द दृष्टिगोचर हो जाये । १. उत्तराध्ययन-सूत्र के महानियंठिज्ज नामक बीसवें अध्ययन की दूसरी गाथा के चतुर्थ "मण्डि कुच्छिसिचेइए" इस चरण में "चैत्य" शब्द रहने पाया है, वह भी भिक्खूजी 2010_05 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५५ भिक्खूजी की चैन्य शब्द पर इतनी अब कृपा कैसे हुई यह समझ में नहीं आता, मन्दिर अथवा मूर्तिवाचक "चैत्य" शब्द को ही काट दिया होता तो बात और थी। पर मापने चुन-चुन कर "गुणशिलकचैत्य," "पूर्णभद्रचैत्य," और चौबीस तीर्थङ्करों के "चैत्यवृक्ष" आदि जो कोई भी चैत्यान्त शब्द सूत्रों में आया, उसको नेस्तनाबूद कर दिया । इनके पुरोगामी ऋषि जेठमलजी आदि "चैत्य" शब्द को "व्यन्तर का मन्दिर" मानकर इसको निभाते थे, उनके बाद के भी बीसवीं शती तक के स्थानकवासी लेखक "चैत्यशब्द" का कहीं 'ज्ञान, कहीं 'साधु,' कहीं 'व्यन्तर देव का मन्दिर' मानकर सूत्रों में इन शब्दों को निभा रहे थे, परन्तु "श्री पुप्फभिक्खूजी" को मालूम हुअा कि इन शब्दों के अर्थ बदलकर चैत्यादि शब्द रहने देना यह एक प्रकार को लीपापोती है । "चैत्यशब्द" जब तक सूत्रों में बना रहेगा तब तक मूर्तिपूजा के विरोध में लड़ना झगड़ना बेकार है, यह सोचकर ही आपने "चैत्य" 'पायतन" "जिनधर'' "चैत्य वृक्ष" आदि शब्दों को निकालकर अपना मार्ग निष्कण्टक बनाया है । ठीक है, इनकी समझ से तो यह एक पुरुषार्थ किया है, परन्तु इस करतूत से इनके सूत्रों में जो नवीनता प्रविष्ट हुई है, उसका परिणाम भविष्य में ज्ञात होगा। पुप्फभिक्खूजी ने पूजा-विषयक सूत्र-पाठों, मन्दिरों और मूर्तिविषयक शब्दों को निकालकर यह सिद्ध किया है, कि इनके पूर्ववर्ती शाह लौका, धर्मसिंह, ऋषि जेठमलजी और श्री अमोलक ऋषिजी आदि शब्दों का अर्थ बदलकर मूर्तिपूजा का खण्डन करते थे, वह गलत था। "चैत्य शब्द" का वास्तविक अर्थ : आजकल के कतिपय प्रदीर्घदर्शी विद्वान् "चैत्यशब्द" की प्रकृति "चिता" शब्द को मानते हैं और कहते हैं मरे मनुष्य को जहां पर जलाया के प्रमाद से नहीं किन्तु निरुपायता से, क्योंकि "चेइए" इस शब्द के स्थान में रखने के लिए प्रापको दूसरा कोई रगणात्मक "चेइय" शब्द का पर्याय नहीं मिलने से चैत्य शब्द कायम रखना पड़ा और नीचे टिप्पण में "उज्जाणे" यह शब्द लिखना पड़ा।" 2010_05 Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ ] [ पट्टावलो-पराग - - जाता था उस स्थान पर लोग चबूतरा आदि कुछ स्मारक बनाते थे, जो "चैत्य" कहलाता था। इस प्रकार "चिता" शब्द को निष्पत्ति बताने वाले विद्वान् व्याकरण-शास्त्र के अनजान मालूम होते हैं। "चिता" शब्द से "चैत्य" नहीं बनता पर "चैत" शब्द बनता है। आज से लगभग ५ हजार वर्ष पहले के वैदिक धर्म को मानने वाले सवर्ण भारतीय लोग भग्निपूजक थे, उन प्रत्येक के घरों में पवित्र अग्नि को रखने के तीन-तीन कुण्ड होते थे, उन कुण्डों में अग्नि की जो स्थापना होती थी उसको "अग्निचित्या" कहते थे। सैकड़ों वर्षों के बाद "अग्निचित्या" शब्द में से "अग्नि" शब्द तिरोहित होकर व्यवहार में केवल "चित्या" शब्द ही रह गया था। भाज से लगभग २४०० वर्ष पहले के प्रसिद्ध वैयाकरण श्री पारिणनिऋषि ने अपने व्याकरण में व्यवहार में प्रचलित "चित्या" शब्द को ज्यों का त्यों रखकर उसको स्पष्ट करने वाला उसको पर्याय शब्द "अग्निचित्या" को उसके साथ जोड़कर "चित्याग्निचित्त्ये" ३।१॥ ३२. यह सूत्र बना डाला, इसो अग्निचयनवाचक "चित्या" शब्द से "चैत्य ' शब्द की निष्पत्ति हुई, जिसका अर्थ होता है - "पवित्र अग्नि, पवित्र देवस्थान, पवित्र देवमूर्ति और पवित्र वृक्ष" इन सब अर्थों में "चैत्य" शब्द प्रचलित हो गया और बाज भी प्रचलित है। जिनचैत्य का अर्थ - जिन का पवित्र स्थान प्रथया जिन की पवित्र प्रतिमा, यह अर्थ आज भी कोशों से ज्ञात होता है। जिस वृक्ष के नोचे बैटकर जिन ने धर्मोपदेश किया वह वृक्ष भी श्रीजिन चैत्य-वृक्ष कहलाने लगा और कोशकारों ने उसी के प्राधार से "चैत्य जिनौ कस्तबिम्बं, चैत्यो जिनसभातरुः" इस प्रकार अपने कोशों में स्थान दिया। कौटिल्य अर्थशास्त्र जो लगभग २३०० वर्ष पहले का राजकीय न्याय-शास्त्र है, उसमें भी अमुक वृक्षों को "चैत्यवृक्ष" माना है और उन पबित्र वृक्षों के काटने वालों तथा उसके आस-पास गन्दगी करने वालों के लिए दण्डविधान किया है ।" नगर के निकटवर्ती भूमि-भागों को देव. तामों के नामों पर छोड़कर उनमें अमुक देवों के मन्दिर बना दिये जाते थे सौर उन भूमि-भागों के नाम उन्हीं देवों के नाम से प्रसिद्ध होते थे। जैसे ___ 2010_05 Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेब ] [ ४५७ राजगृह नगर के ईशानदिक्कोण में "गुणशिलक" नामदेव का स्थान होने से वह सारा भूमिभाग "गुणशिलक चैत्य" कहलाता था। इसी प्रकार चम्पानगरी के ईशान दिशा-भाग में "पूर्णभद्र' नामक देव का स्थान था जो "पूर्णभद्र चैत्य" के नाम से प्रसिद्ध हो गया था और उस सारे भूमिभाग को देवता-अधिष्ठित मानकर उस स्थान की लकड़ी तक लोग नहीं काटते थे। इसी प्रकार प्राचीनकाल के ग्रामों, नगरों के बाहर तत्कालीन भिन्नभिन्न देवों के नामों से भूमि-भाग छोड़ दिए जाते थे और वहां उन देवों के स्थान बनाए जाते थे, जो चैत्य कहलाते थे। अाजकल भी कई गांवों के बाहर इस प्रकार के भूमिभाग छोड़े हुए विद्यमान हैं। प्राजकल इन मुक्त भूमिभागों को लोग "उरण" अर्थात् "उपवन" इन नाम से पहिचानते हैं । उपर्युक्त संक्षिप्त विवरण से पाठकगण समझ सकेंगे कि "चैत्यशब्द" "साधुवाचक" अथवा "ज्ञानवाचक" न कभी था न माज ही है। क्योंकि चैत्य शब्द की उत्पत्ति पूजनीय अग्निचयन वाचक "चित्या" शब्द से हुई है, न कि "चिता" शब्द से अथवा "चिति संज्ञाने" इस धातु से । इस प्रकृतियों से "चैत" "चित्त" "चैतस्" शब्द बन सकते हैं, "चैत्य-शब्द" नहीं। श्री पुप्फभिक्खू की समझ में यह बात आ गई कि शब्दों का अर्थ बदलने से कोई मतलब हल नहीं हो सकता। पूजनीय पदार्थ-वाचक "चैत्य" शब्द को सूत्रों में से हटाने से ही अमूर्तिपूजकों का मार्ग निष्कण्टक हो सकेगा। श्री पुप्फभिक्खू पपने प्रकाशन के प्रथम अंश के प्रारम्भ में "सूचना" इस शीर्षक के नीचे लिखते हैं "यह प्रकाशन मेरे धर्मगुरु धर्माचार्य साधुकुल-शिरोमणि १०८ श्रीफकीरचन्दजीमहाराज (स्वर्गीय) के धारणा व्यवहारानुसार है।" पुप्फभिक्खूजी को इस सूचना में "धारणा-व्यवहार" शब्द का प्रयोग किस अर्थ में हुआ है यह तो प्रयोक्ता हो जाने, क्योंकि "धारणा-व्यवहार" शब्द प्रायश्चित्त विषयक पांच प्रकार के व्यवहारों में से एक का वाचक है। 2010_05 Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ ] [ पट्टावली-पराग शास्त्र के प्रकाशन में प्रायश्चित संबन्धी व्यवहार का कोई प्रयोजन नहीं होता, फिर भी आपने इसका प्रयोग किया है। यदि "हमारे गुरु की धारणा यह थी कि चैत्यादि-वाचक शब्द-विशिष्ट पाठों को निकालकर सूत्रों का सम्पादन करना" यह धारणा व्यवहार के अर्थ में अभिप्रेत है तो जिनके विशेषणों से पौने दो पृष्ठ भरे है वे विशेषण अपार्थक हैं और यदि वे लेखक के कथनानुसार विद्वान् और गुणी थे तो सम्पादक ने उनकी "धारणा" का नाम देकर अपना बोझा हल्का किया है, क्योंकि गुणी और जिनवचन पर श्रद्धा रखने वाला मनुष्य जैनागमों में काट-छाँट करने को सलाह कभी नहीं दे सकता। श्री भिक्खूजी के सम्पादन में सूत्रों की काफी काटछाँट हुई है, इसकी जवाबदारी पुप्फभिक्खूजी अपने गुरुजी पर रक्खे या स्वयं जवाबदार रहें इस सम्बन्ध में हमको कोई सारांश निकालना नहीं है । पुप्फभिक्खूजी के समानधर्मी श्रमणसमिति ने इस प्रकाशन को अप्रमाणित जाहिर किया, इससे इतना तो हर कोई मानेगा कि यह काम भिक्षुजी ने अच्छा नहीं किया। पुप्फभिक्खूजी ने अपने प्रस्तुत कार्य में सहायक होने के नाते अपने शिष्यि श्री जिनचन्द्र भिक्खू की अपने वक्तव्य में जो सराहना की है उसका मूल वाधार निम्नलिखित गाथा है - "दो पुरिसे घरइ धरा, अहवा दोहिवि धारिमा धरणी । उवयारे जस्स मई, उवयरिनं जो न फुसेई ॥" अर्थात् ;- पृथ्वी अपने ऊपर दो प्रकार के पुरुषों को धारण करती है उपकार बुद्धि वाले उपकारक को और उपकार को न भूलने वाले "कृतज्ञ" को अथवा दो प्रकार के पुरुषों से पृथ्वी धारण की हुई है। एक उपकारक पुरुष से और दूसरे उपकार को न भूलने वाले कृतज्ञ पुरुष से। उपर्युक्त सुभाषित को गुरु-शिष्यों के पारस्परिक सहकार को व्यक्त करने के लिए प्रयुक्त करना शिष्टसम्मत है. या नहीं, इसका निर्णय हम शिष्ट वाचकों पर छोड़ते हैं । ____ 2010_05 Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४५६ श्री पुप्फभिक्खू, सुमित्तभिक्खू और जिषचन्दभिक्खू यह त्रितय "सुत्तागमे" के सम्पादन में एक दूसरे का सहकारी होने से भागे हम इनका उल्लेख "भिक्षुत्रितय" के नाम से करेंगे। पुस्तक की प्रस्तावना में "नागमों की भाषा" नामक शोर्षक के नीचे लिखा है - "देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने प्रागमों को लिपिबद्ध किया, इतने समय के बाद लिखे जाने पर भी भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं आई।" देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय में भाषा की प्राचीनता में कमी नहीं आई, यह कहने वाले भिक्षुत्रितय को प्रथम प्राचीन और अर्वाचीन अर्द्धमागधी भाषा में क्या अन्तर है, यह समझ लेना चाहिए था । वागमों में प्राचारांग और सूत्रकृतांग हैं और मागमों में विपाक और प्रश्न व्याकरण भी हैं, इन सूत्रों की भाषाओं का भी पारस्परिक अन्तर समझ लिया होता तो वे "प्राचीनता में कमी नहीं हुई' यह कहने का साहस नहीं करते । आचारांग तथा सूत्रकृतांग सूत्र माज भी अपने उसी मूल रूप में वर्तमान हैं, जो रूप उनके लिखे जाने के मौर्य-समय में था। इनके आगे के स्थानांग मादि सभी अंग सूत्रों में भिन्न-भिन्न वाचनात्रों के समय में थोड़ा थोड़ा परिवर्तन और संक्षेप होता रहा हैं । स्थानांग प्रादि नव अंग सूत्रों में दूसरी वाचना के समय में स्कन्दिलाचार्थ की प्रमुखता में सूत्रों का जो स्वरूप निर्धारित हुआ था, वह आज तक टिका हुआ है । देवद्धिगणि क्षमाश्रमण के समय में जो पुस्तकालेखन हुमा उसमें मुख्यता माथुरी और वालभी वाचनानुगत सूत्रों में चलते हुए पाठान्तरों का समन्वय करने की प्रवृत्ति को थी। देवद्धिगरिण ने तत्कालीन दोनों वाचनानुयायी श्रमणसंघों की सम्मति से सूत्रों का समन्वय किया था, तत्कालीन प्रश्नव्याकरण में १०८ प्रश्न, १०८ अप्रश्न, १०८ प्रश्नाप्रश्न, जैसे अंगुष्ठ प्रश्नादि, बाहु-प्रश्नादि, मादर्शप्रश्नादि के उत्तरों का निरूपण था। इनके अतिरिक्त दूसरे भी अनेक विचित्र विद्यानों के अतिशय थे उनको तिरोहित करके वर्तमानकालीन ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] [ पट्टावलो-पराग पंचसंवर-पंचाश्रवमय प्रश्नव्याकरण बनाया और प्राचीन प्रश्न-व्याकरण के स्थान में रखा। भाषा की प्राचीनता अर्वाचीनता की मीमांसा करने वाला भिक्षुत्रितय यह बताएगा कि प्राचारांग, सूत्रकृतांग की भाषा में और भागे के नव अगसूत्रों की भाषा में क्या अन्तर पड़ा है, और उनमें प्रयुक्त शब्दों तथा वाक्यों में कितना परिवर्तन हुआ है ? अंग्रेज विचारकों के अनुयायी बनकर जैन-आगमों की भाषा को महाराष्ट्रीय प्राकृत के असर वाली मानने के पहले उन्हें देशकाल-सम्बन्धी इतिहास जान लेना आवश्यक था। डा० हानले जैसे अंग्रेजों की अपूर्ण शोध के रिपोर्टों को महत्त्व देकर जैन मुनियों के दक्षिण-देश में जाने की बात जो दिगम्बर भट्टारकों की कल्पनामात्र है, सच्ची मानकर जैन-आगमों में दक्षिणात्य प्राकृत का असर मानना निराधार है। न तो मौर्य चन्द्रगुप्त के समय में जैनश्रमण दक्षिण प्रदेश में गए थे, न उनकी अर्द्धमागधी सौत्र भाषा में दक्षिण-भाषा का असर हुआ या । जो दिगम्बर विद्वान् कुछ वर्षों पहले श्रुतधर भद्रबाहु स्वामी के चन्द्रगुप्त के साथ दक्षिण में जाने की बात करते थे वे सभी आज मानने लगे हैं कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त दूसरे थे, श्रुतधर भद्रबाहु और मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त नहीं, क्योंकि दिगम्बरों के ग्रन्थों में भद्रबाहु का और चन्द्रगुप्त का दक्षिण में जाना उज्जनी नगरी से बताया है, और उनका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी में अनुमानित किया है। आज तो डा० ज्योतिप्रसाद जैन जैसे शायद ही कोई अति-श्रद्धालु दिगम्बर विद्वान् श्रुतकेवली भद्रबाहु के दक्षिण में जाने की बात कहने वाले मिलेंगे। श्रवणबेल्गोल आदि दिगम्बरों के प्राचीन तीर्थों के शिलालेखों के प्रकाशित होने के बाद अब विद्वानों ने यह मान लिया है कि दक्षिण में जाने वाले भद्रबाहु श्रुतकेवली नहीं किन्तु दूसरे ज्योतिषी-भद्रबाहु हो सकते हैं। इसका कारण उनके प्राचीन तीर्थों में से जो शिलालेख मिले हैं वे सभी शक की आठवीं शती और उसके बाद के हैं। हमारी खुद की मान्यता के अनुसार तो अधिक दिगम्बर साधुओं के दक्षिण में जाने सम्बन्धी दंतकथाएं सही हों, तो भी इनका समय विक्रम की छट्ठी शती के पहले का नहीं हो सकता। दिगम्बर-सम्प्रदाय को ग्रंथप्रशस्तियों तथा पट्टावलियों में 2010_05 Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४६१ जो प्राचीनता का प्रतिपादन किया गया है, वह विश्वासपात्र नहीं है । इस स्थिति में श्वेताम्बर - सम्प्रदाय मान्य आगमों पर दक्षिणात्य प्राकृत भाषा का प्रभाव बताना कोई अर्थ नहीं रखता । " सुत्तागमे" के प्रथम प्रदेश की प्रस्तावना के १४ वें पृष्ठ की पादटीका में लेखक कहते हैं. - " इतना और स्मरण रहे कि इससे पहले पाटलीपुत्र का सम्मेलन और नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्वावधान में माथुरी - वाचना हो चुकी थी ।" लेखकों का नागार्जुन क्षमाश्रमण के तत्त्वावधान में माथुरीवाचना बताना प्रमादपूर्ण है, माधुरो - वाचना नागार्जुन वाचक के तत्वावधान में नहीं' किन्तु आचार्य स्कन्दिल की प्रमुखता में मथुरा नगरी में हुई थी; इसलिये यह वाचना "माथुरी" तथा "स्कन्दिली ” नामों से भी पहचानी जाती हैं। एक श्रागम के नाम का निर्देश दूसरे में होने के सम्बन्ध मैं भिक्षुत्रितय समाधान करता है - कि यह आगमों की प्राचीन शैली है । भिक्षुत्रय का यह कथन यथार्थ नहीं, भगवान् महावोर के गणधरों ने जब द्वादशांगी की रचना की थी, उस समय यह पद्धति अस्तित्व में नहीं थी । पूर्वाचार्यों ने नाश के भय से जब आगमों को संक्षिप्त रूप से व्यवस्थित किया, तब उन्होंने सुगमता के खातिर यह शैली अपनाई है, और जिस विषय का एक अग अथवा उपांगसूत्र में विस्तार से वर्णन कर देते थे । उसको दूसरे में कट करके विस्तृत वर्णन वाले सूत्र का निर्देश कर देते थे । अंगसूत्रों में "पनवरणा" आदि उपांगों के नाम आते हैं उसका यही कारण है । जैन - साहित्य पर नई-नई आपत्तियाँ : उपर्युक्त प्रस्तावनागत शीर्षक के नीचे भिक्षुत्रितय एक नया प्राविकार प्रकाश में लाता हुआ कहता है - "जिस काल में जैनों और बौद्धों के साथ हिन्दुओं का महान संघर्ष था उस समय धर्म के नाम पर बड़े से 2010_05 Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [ पट्टावली-पराग बड़े अत्याचार हुए। उस अन्धड़ में साहित्य को भी भारी धक्का लगा, फिर भी जैन समाज का शुभ उदय या मागमों का माहात्म्य समझो कि जिससे आगम बाल-बाल बचे और सुरक्षित रहे।" भिक्षुत्रितय की उपर्युक्त कल्पना उसके फलद्रूप भेजे की है। इतिहास इसकी साक्षी नहीं देता कि बौद्ध और जैनों के साथ हिन्दुओं का कभी साहित्यिक संघर्ष हुआ हो। साहित्यिक संघर्ष की तो बात ही नहीं, किन्तु धार्मिक असहिष्णुता ने भी बौद्ध और जैनों के साथ हिन्दुनों को संघर्ष में नहीं उतारा । किसी प्रदेश विशेष में राज्यसत्ताधारी धर्मान्ध व्यक्ति-विशेष ने कहीं पर बौद्ध जैन अथवा दोनों पर किसी अंश तक ज्यादती की होगी तो उसका अपयश हिन्दू समाज पर थोपा नहीं जा सकता और उससे जैन-साहित्य को हानि होने की तो कल्पना ही कैसे हो सकती है । इस प्रकार की देश-स्थिति जैन-साहित्य को हानिकर मुसलमानों के भारत पर आक्रमण के समय में अवश्य हुई थी, परन्तु उससे केवल जैनो का ही नहीं, हिन्दू, जैन, बौद्ध आदि सभी भारतीय सम्प्रदायों को हुई थी। आगे भिक्षुत्रितय अपनी मानसिक खरी भाव. नामों को प्रकट करता हुआ कहता है - "इसके अनन्तर चैत्यवासियों का युग पाया । उन्होंने चैत्यवास का जोर-शोर से आन्दोलन किया और अपनी मान्यता को मजबूत करने के लिए नई-नई बातें घड़नी शुरु की, जैसे कि अंगूठे जितनी प्रतिमा बनवा देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है। जो पशु मन्दिर की ईटें ढोते हैं वे देवलोक जाते हैं आदि-प्रादि । वे यहीं तक नहीं रुके, बल्कि उन्होंने भागमों में भी अनेक बनावटो पाठ घुसेड़ जिये । जिस प्रकार रामायण में क्षेपकों की भरमार है, उसी प्रकार भागमों में भी।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों के युग की बात कहता है, तब हमको आश्चर्य के साथ हंसी आती है। युग किसे कहते हैं और "चैत्यवास" का अर्थ क्या है ? इन बातों को समझ लेने के बाद भिक्षुत्रितय ने इस विषय में कलम चलाई होती, तो वह हास्यास्पद नहीं बनता। ___ 2010_05 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६३ - "चैत्यवास" यह कोई नई संस्था नहीं है और चैत्यों में रहना भी वर्जित नहीं है। मौर्यकाल और नन्दकाल से ही पहाड़ों को चट्टानों पर "लेण" बनते थे जिसका संस्कृत अर्थ "लयन" होता था, ये स्थान बनाने वाले राजा, महाराजा और सेठ साहूकार होते थे और मेलों उत्सवों के समय में इनका उपयोग होता था, शेषकाल में उनमें साधु सन्यासी ठहरा करते थे, "लयन" बनाने वाला धनिक जिसधर्म की तरफ श्रद्धा रखने वाला होता, उस धर्म के प्रवर्तक देवों और उपदेशक श्रमणों की मूर्तियां भी उन्हीं पत्थरों में से खुदवा लेता था, जिससे कि उनमें ठहरने वाले श्रमण लोग उनको लक्ष्य करके ध्यान करते, प्राज भी इसी प्रकार के लयन उडीसा के खण्डगिरि आदि पर्वतों में और एजण्टा, गिरनार प्रादि के चट्टानों में खुदी हुई गुफामों के रूप में विद्यमान हैं । सैकड़ों लोग उनको देखने जाते है, खोदी हुई मूर्तियों से सुशोभित इस प्रकार के लयनों को भिझुत्रितय "चैत्य" कहे चाहे अपनी इच्छानुसार दूसरा नाम कहे, वास्तव में इस प्रकार के स्थान "चैत्यालय" ही कहलाते थे और उनमें निस्संग और त्यागी श्रमण रहा कहते थे, खास कर वर्षा के समय में श्रमण लोग उनका माश्रय लेते थे जिनको बड़े-बड़े राजा महाराजा पूज्य दृष्टि से देखते और उनकी पूजा करते थे। धीरे-धीरे समय निर्बल पाया, मनुष्यों के शक्तिसंहनन निबंल हो चले, परिणामस्वरूप विक्रम की दूसरी शती के निकट समय में श्रमणगण ग्रामों के परिसरों में बसने लगे, जब उनकी संख्या अधिक बढ़ी और परिसरों में इस प्रकार के ठहरने के स्थान दुर्लभ हो चले, तब धीरे-धीरे श्रमणों ने गांवों के अन्दर गृहस्थों के अव्यापृत मकानों में ठहरना शुरु किया, पर इस प्रकार के मकानों में भी जब उनका निर्वाह नहीं होने लगा तब गृहस्थों ने सामूहिक धार्मिक क्रिया करने के लिए स्वतंत्र मकान बनवाने का प्रारम्भ किया। उन मकानों में वे सामायिक प्रतिक्रमण, पोषध आदि धार्मिक अनुष्ठान करने के लिए जाने लगे, पौषध क्रिया के कारण ये स्थान “पोषधशाला" के नाम से प्रसिद्ध हुए, यह समय विक्रम की पाठवीं शती का था। साधुनों के उपदेश के सम्बन्ध में भिक्षुत्रितय का कथन अतिरंजित है, उपदेश के रूप में गृहस्थों के आगे उनके कर्तव्य का उपदेश करना उपदेशकों ___ 2010_05 Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग का कर्तव्य है और इसी रूप में सुविहित गीतार्थ साधु जैन गृहस्थों को उनके अन्यान्य कर्तव्यों के उपदेश के प्रसंग में दर्शन-शुद्धयर्थ जिनभक्ति का भी उपदेश करते थे और करते हैं । प्रसिद्ध श्रुतघर श्री हरिभद्रसूरि के प्रतिष्ठा पंचाशक और षोडशक आदि में इसी प्रकार के निरवद्य उपदेश दिये गये हैं। मर्वाचीनकाल में अंगुष्ठ मात्र जिनप्रतिमा के निर्माण से स्वर्गप्राप्ति का रिसो ने लिखा होगा तो वह भी अधार्मिक वचन नहीं है, किसी भी धार्मिक अनुष्ठान के करने में कर्ता का मानसिक उल्लास उनके फल में विशिष्टता उत्पन्न कर सकता है इसमें कोई असम्भव की बात नहीं, दो तीन घंटे तक मुंह बंधवाकर स्थानक में जैनों अजैनों को विठाना और बाद में उनको मिष्टान्न खिलाकर रवाना करना इस प्रकार दया पल बानेके धार्मिक अनुष्ठान से तो भावि शुभ फल की प्राशा से मन्दिर तथा मूर्तियां का निर्माण करवाना और उनमें जिनदेव की कल्पना कर पूजा करना हजार दर्जे अच्छा है। भिक्षुत्रितय ने उपर्युक्त फिकरे में मागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ देने की बात कही है, वह भी उनके हृदय की भावना को व्यक्त करती है, यों तो हर एक आदमी कह सकता है कि अमुक ग्रन्थ में अमुक पाठ प्रक्षिप्त है, परन्तु प्रक्षिप्त कहने मात्र से वह प्रक्षिप्त नहीं हो सकता, किन्तु पुष्ट प्रमाणों से उस कथन का समर्थन करने से ही विद्वान् लोग उस कथन को सत्य मानते हैं । संपादक ने बनावटो पाठ घुसेड़ने की बात तो कह दी पर इस कथन पर किसी प्रमारण का उपन्यास नहीं किया। अतः यह कथन भी अरण्यरोदन से अधिक महत्त्व नहीं रखता, प्रागमों में बनावटी पाठ घुसेड़ने और उसमें से सच्चे पाठों को निकालना यह तो भिक्षुत्रितय के घर की रीति परम्परा से चली आ रही है । इनके आदि मार्गदर्शक शाह लूका ने जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, दान, सामायिक, प्रतिक्रमण, पौषध, साधार्मिक, वात्सल्य आदि अनेक आगमोक्त धार्मिक कर्त्तव्यों का उच्छेद कर दिया था । और इन कार्यों का उपदेश करने वालों की निन्दा करने में अपना समय विताया था, परन्तु इनके मन्तव्यों का प्रचार करने वाले वेशधारी शिष्यों ने देखा कि लुका के इस उपदेश का प्रचार करने से तो सुनने 2010_05 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] .... [ ४६५ वाला अपने पास तक नहीं फटकेगा, न मपनी पेटपूजा ही सुख से होगी, इस कारण से लौंका के वेशधारी शिष्यों ने प्रतिमापूजा के विरोध के अतिरिक्त शेष सभी लौंका के उपदेशों को अपने प्रचार में से निकाल दिया, इतना ही नहीं, कतिपय बातें तो लौका के मन्तव्यों का विरोध करने वाली भी प्रचलित कर दी। भिक्षुत्रितय ने जिन 'सूत्रपाठों' को मूल में से हटा दिया है, उनको बनावटी कहकर अपना बचाव करते हैं । “गणधरों की रचना को हो ये मागम मानकर दूसरे पाठों को बनावटी मानते हैं, तब तो इनको मूल आगमों में से अभी बहुत पाठ निकालना शेष है। स्थानांग सूत्र और प्रोपपातिक सूत्र में सात निन्हवों के नाम संनिहित हैं, जो पिछला प्रक्षेप है, क्योंकि अन्तिम निन्हव गोष्ठामाहिल भगवान महावीर के निर्वाण से ५८४ वर्ष बीतने पर हुआ था, इसी प्रकार नन्दीसूत्र और अनुयोग द्वार में कौटिल्य,. कनकसप्तति, वैशेषिकदर्शन, बुद्धवचन, पैराशिकमत, षष्ठितन्त्र, माठर, भागवत, पातञ्जल, योगशास्त्र मादि अनेक अर्वाचीनमत और. ग्रन्थों के नामों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनका अस्तित्व ही गणधरों द्वारा की गई भागम-रचना के समय में नहीं था, इनको प्रक्षिप्त मानकर भिक्षुत्रितय ने पायमों में से क्यों नहीं निकाला, यह समझ में नहीं पाता। प्रक्षिप्त पाठ मानकर ही आगमों में से पाठों को दूर करना था तो सर्वप्रथम उपर्युक्त पाठों का निकालना आवश्यक था, अथवा तो अर्वाचीन पाठ वाले प्रागमों को अप्रमाणिक घोषित करना था सो तो नहीं किया, केवल "चैत्यादि के पाठों को सूत्रों में से हटाए," इससे सिद्ध है कि. बनावटी कहकर चैत्य-सम्बन्धी पाठों को हटाने की अपनी जबावदारी कम करने की चाल मात्र है । . . गणधर तीर्थङ्करों के उपदेशों को शब्दात्मक रचना में व्यवस्थित करके मूल आगम बनाते हैं और उन आगमों को अपने शिष्यों को पढ़ाते समय गणघर और अनुयोगधर चार प्रकार के व्याख्यानांगों से विभूषित कर पंचांगी के रूप में व्यवस्थित करते हैं। आगमों की पंचाँगी के नाम ये हैं - १ सूत्र, अर्थ २, ग्रन्थ ३, नियुक्ति ४ और ५ संग्रहणी। श्वाज भी ____ 2010_05 Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावली-पराग यह पंचांगी तीर्थङ्कर भाषित प्रागमों का खरा अर्थ बता सकती है। मूल सूत्र के ऊपर उसी भाषा में प्रथवा तो संस्कृत प्रादि अन्य भाषाओं द्वारा सूत्रों का जो भाव स्पष्ट किया जाता है, उसको संक्षेप में "अर्थ' कहते हैं । सूत्र का अर्थ ही पद्यों में स्वकर प्रकरणों द्वारा समझाया जाता है उसको "ग्रन्थ' कहते हैं, सूत्रों में प्रकट रूप से नहीं बंधे हुए और लक्षणाव्यंजनामों से उपस्थित होने वाले अर्थों को लेकर सूत्रोक्त-विषयों का जो शंका-समाधान पूर्वक ऊहापोह करने वाला गाथात्मक निबन्ध होता है वह "नियुक्ति" नाम से व्यवहृत होता है, तथा सूत्रोक्त विषयों को सुगमतापूर्वक याद करने के लिए अध्याय, शतक, उद्देशक प्रादि प्रकरणों की प्रादि में उनमें वरिणत विषयों का सूचित करने वाली गाथानों का संग्रह बनाया जाता था, उसको "संग्रहणी" के नाम से पहिचानते हैं। आजकल सूत्रों पर जो प्राकृत चूणियां, संस्कृत टीकाएं आदि व्याख्याएं हैं, इनको प्राचीन परिभाषा के अनुसार "अर्थ" कह सकते हैं। सूत्र तथा अर्थ में व्यक्त किये गये विषयों को लेकर प्राचीनकाल में गाथाबद्ध निर्मित भाष्यों को भी प्राचीन परिभाषा के अनुसार "ग्रन्थ" कहना चाहिए। भद्रबाहु मादि अनेक श्रुतधरों ने प्रावश्यक, दशवकालिक आदि सूत्रों के ऊपर तर्कशेली से गाथाबद्ध निबन्ध लिखे हैं, उन्हें माज भी "नियुक्ति" कहा जाता है। "भगवती", "प्रज्ञापना' प्रादि के कतिपय अध्यायों को आदि में अध्यायोक्त विषय का सूचन करने वाली गायाएं दृष्टिगोचर होती हैं इनका पारिभाषिक नाम "संग्रहणी" है। भगवती-सूत्र के प्रथम शतक के प्रारम्भ में ऐसी संग्रहणी गाथा आई तब भिक्षु महोदय ने पुस्तक के नीचे पाद-टीका के रूप में उसे छोटे टाइपों में लिया, परन्तु बाद में भिक्षु महोदय की समझ ठिकाने आई और आगे की तमाम संग्रहणी गाथाएं मूल सूत्र के साथ ही रक्खीं। सम्प्रदायानभिज्ञ व्यक्ति अपनी समझ से प्राचीन साहित्य में संशोधन करते हुए किस प्रकार सत्यमार्ग को भूलते हैं, इस बात का भिक्षु महोदय ने एक उदाहरण उपस्थित किया है। भिक्षुत्रितय मागे लिखता है - "इसके बाद युग ने करवट बदली और उसी कटाकटी के समय धर्मप्रारण लौंकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुष 2010_05 Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६७ प्रकट हुए। उन्होंने जनता को सन्मार्ग सुझाया और उस पर चलने की प्रेरणा दी xxx जिससे लोगों में क्रान्ति घोर जागृति उत्पन्न हुई तथा लवजी, धर्मशी, धर्मदासजी, जीवराजजी जैसे भव्य भावुकों ने धर्म की वास्तविकता को अपनाया और उसके स्वरूप का प्रचार आरम्भ किया; परिणामस्वरूप आज भी उनकी प्रेरणाओं को जीवित रखने वालों की संख्या ५ लाख से कहीं अधिक पाई जाती है । लौंकाशाह सहित इन चारों महापुरुषों ने "चंत्यवासी मान्य अन्य आगमों में परस्पर विरोध एवं मनघड़न्त बातें देखकर ३२ आगमों को ही मान्य किया ।" भिक्षुत्रितय चैत्यवासी युग के बाद लौंकाशाह जैसे क्रान्तिकारी पुरुषों के उत्पन्न होने की बात कहता है, जो प्रज्ञानसूचक है, क्योंकि विक्रम की चौथी शती से ग्यारहवीं शती तक शिथिलाचारी साधुओं का प्राबल्य हो चुका था। फिर भी वह उनका युग नहीं था । हम उसे उनकी बहुलता वाला युग कह सकते हैं, क्योंकि उस समय भी उद्यतविहारी साधुनों की भी संख्या पर्याप्त प्रमारण में थी । शिथिलाचारी संख्या में अधिक होते हुए भी उद्यतविहारी संघ में अग्रगामी थे। स्नानमह, प्रथमसमवसरण नादि प्रसंगों पर होने वाले श्रमरण-सम्मेलनों में प्रमुखता उद्यतविहारियों की रहती थी। कई प्रसंगों पर वैहारिक श्रमणों द्वारा पार्श्वस्यादि शिथिलाचारी फटकारे भी जाते थे, तथापि उनमें का अधिकांश शिथिलता की निम्न सतह तक पहुंच गया था और धीरे-धीरे उनको संख्या कम होती जाती थी । विक्रम की ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध तक शिथिलाचारी धीरे-धीरे नियतवासी हो चुके थे और समाज के ऊपर से उनका प्रभाव पर्याप्त रूप से हट चुका था । भले ही वे जातिगत गुरुनों के रूप में अमुक जातियों और कुलों से अपना सम्बन्ध बनाए हुए हों, परन्तु संघ पर से उनका प्रभाव पर्याप्त मात्रा में मिट चुका था, इसी के परिणाम स्वरूप १२ वीं शती के मध्यभाग तक जैनसंघ में अनेक नये गच्छ उत्पन्न होने लगे थे । पौमिक, चांचलिक, खरतर, साधुपौमिक और प्रागमिक गच्छ ये सभी १२ वीं श्रीर १३ वीं शती में उत्पन्न हुए थे और इसका कारण शिथिलाचारी चैत्यवासी कहलाने वाले साधुनों की कमजोरी थी । यद्यपि उस समय में भी वर्द्धमान 1 2010_05 Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८. [ पट्टावलो-पराग सूरि, जिनेश्वरमूरि, ज़िनवल्लभगणि, मुनिचन्द्रसूरि, धनेश्वरसूरि, जगचन्द्रसरि आदि अनेक उद्यतविहारी प्राचार्य और उनके शिष्य परिवार अप्रतिबद्ध विहार से विचरते थे, तथापि एक के बाद एक नये सुधारक गच्छों की सृष्टि से जैनसंघ में जो पूर्वकालीन संघटन चला आ रहा था वह विशृखल हो गया। इसी के परिणाम-स्वरूप शाहलौका शाह कडुअा आदि गृहस्थों को अपने पन्थ स्थापित करने का अवसर मिला था, न कि उनके खुद के पुरुषार्थ से। उपर्युक्त जैनसंघ की परिस्थिति का वर्णन पढ़कर विचारक समझ सकेंगे कि श्रमणसमुदाय में से अधिकांश शिथिलाचार के कारण निर्बल हो जाने से सुधारकों को नये गच्छ और गृहस्थों को श्रमणगण के विरुद्ध अपनी मान्यताओं को व्यापक बनाने का सुअवसर मिला था, किसी भी संस्था या समाज को बनाने में कठिन से कठिन पुरुषार्थ और परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है, न कि नष्ट करने में । समाज की कमजोरी का लाभ उठाकर क्रियोद्धार के नाम से नव गच्छसर्जकों ने तो अपने बाड़े मजबूत किये ही, पर इस अव्यवस्थित स्थिति को देखकर कतिपय श्रमरणसंस्था के विरोधी गृहस्थों ने भी अपने-अपने मखाड़े खड़े किये और आपस के विरोधों और शिथिलाचारों से बलहीन बनी हुई श्रमणसंस्था का ध्वंस करने का कार्य शुरू किया। लौंका तथा उसके अनुयायी मन्दिर तथा मूर्तियों की पूजा की "अतिप्रवृत्तियों का उदाहरण दे देकर गृहस्थवर्ग को साधुओं से विरुद्ध बना रहे थे। कडुवा जैसे गृहस्थ मूर्तिपूजा के पक्षपाती होते हुए भी साधुनों के शिथिलाचार की बातों को महत्त्व दे देकर उनसे असहकार करने लगे, चीज "बनाने में जो शक्ति व्यय करनी पड़ती हैं वह बिगाड़ने में नहीं। लौंकाशाह तथा उनके वेशधारी चेले हिंसा के विरोध में और दया के पक्ष में बनाई 'गई, चौपाइयों के पुलिन्दे खोल-खोलकर लोगों को सुनाते और कहते - "देखो भगवान् ने दया में धर्म बताया है, तब आजकल के यति स्वयं तो अपना प्राचार पालते नहीं और दूसरों को मन्दिर मूर्तिपूजा आदि का उपदेश करके पृथ्वी, पानी, वनस्पति आदि के जीवों की हिंसा करवाते हैं, बोलो - धर्म दया, में कि हिंसा में ? उत्तर मिलता दया में," तब लौंका के चेले कहते - "जब धर्म दया में है तो हिंसा को छोड़ों और दया पालो" अनपढ़ लोग, लौंका के अनपढ अनुयायियों की इस प्रकार की बातों से भ्रमित ___ 2010_05 Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६६ होकर पूजा, दर्शन प्रादि जो श्रमसाध्य कार्य थे, उन्हें छोड़ छोड़कर लौंका के मनुयायी बन गये, इसमें लौका मौर इनके अनुयायियों की बहादुरी नहीं, विध्वसंक पद्धति का ही यह प्रभाव है, मनुष्य को उठाकर ऊचे ले जाना पुरुषार्थ का काम है, कार खड़े पुरुष को धक्का देकर नीचे निराना पुरुषार्थ नहीं कायरता है, जैनों में से हो पूजा आदि की श्रद्धा हटाकर शाह लौका, लवजी, रूपजी, धर्मसिंह आदि ने अपना बाडा बढाया, यह वस्तु प्रशंसनीय नहीं कही जा सकती, इनकी प्रशंसा तो हम तब करते जब कि ये अपने त्याग और पुरुष यं से आकृष्ट करके जैनेतरों को जैनधर्म की तरफ खींचते और शिथिलाचार में डूबने वाले तत्कालीन यतियों को अपने आदर्श और प्रेरणा से शिथिलाचार से ऊंचा उठाने को बाध्य करते । भिक्षुत्रितय चैत्यवासियों द्वारा लोंका आदि को कष्ट दिये जाने की बात कहता है, इसके पुरोगामी लेखक शाह वाडीलाल मोतीलाल तथा स्थानकवासी साधु श्री मणिलालजी ने भी यही राग अलापा है कि यतियों ने लौकाशाह को कष्ट दिया था, परन्तु यतियों पर दिये जाने वाले इस मारोप की सच्चाई को प्रमाणित करने के लिए कोई प्रमाण नहीं बताया, वास्तव में यह हकीकत लौकाशाह को महान् पुरुष ठहराने के अभिप्राय से कलित गढी है । ईसाइयों के धर्मप्रवर्तक "जेसस काईष्ट' को उनके विरोधियों ने क्रॉस पर लटकाया था, जिसके परिणामस्वरूप लगभग सारा यूरोप उसका अनुयायी बन गया था, इसी प्रकार लौका को कष्ट-सहिण्णु महापुरुष बताकर लोगों को उसकी तरफ खोंचने का लौंका के भक्तों का यह झूठा प्रचार मात्र है । लौंका ने तो तत्कालीन किन्हीं भी साधुनों के साथ मुकाबला करने की कोई बात नहीं लिखी, परन्तु लौंकाशाह के वेशधारी शिष्यों के साथ श्री लावण्यसमय प्रादि अनेक विद्वान् साधु चर्चा शास्त्रार्थ में उतरे थे और उनको पराजित किया था, लेकिन यह प्रसंग कोई उनको कष्ट देने का नहीं माना जा सकता, समाज के अन्दर फूट डालने मर हजारों वर्षों से चले पाते धार्मिक मार्ग में बखेडा डालने वे कारण उन पर किसो ने कटुशब्द प्रहार अवश्य किए होंगे और यह होना अत्याचार नहीं है, ऐसी बातें तो लौका के बाड़े में से भाग छूटने वालों पर लौका के अनुया. यियों ने भी की हैं, देखिये - ___ 2010_05 Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० ] [ पट्टावलो-पराग सं० १५७० में लौकामत को छोड़कर श्री विजजऋषि ने मूर्तिपूजा मानना स्वीकार किया; तब लौंका के अनुयायियों ने उन पर कैसे वाग्वाण बरसाये थे, उसका नमूना निम्नलिखित केशवजी ऋषि कृत लौंकाशाह के सिलोके की कडी पढिए - "लवरण ऋषि भीमाजी स्वामी, जगमाला रुषि सखा स्वामी । Hatat freat कुमति पापी तेरगइं वली जिनप्रतिमा थापी ॥ २३ ॥ " इसी प्रकार लोकाशाह के विरोध में मूर्तिमण्डन पक्ष के विद्वानों ने लौकाशाह के लिए "लुम्पक" "लुंकट" श्रादि शब्दों से कोसा होगा, तो यह कुछ कष्ट देना नहीं कहा जा सकता । लौंका की ही शती के लकागच्छीय भानुचन्द्र यति, केशवंजो ऋषि उन्नीसवीं शती के मध्यभागवत "समकित सार" के कर्त्ता श्री जेठमलजी ऋषि आदि ने लौंकाशाह तथा उनके मत के सम्बन्ध में बहुत लिखा है, फिर भी उनमें से किसी ने भी यह सूचन तक नहीं किया कि चैत्यवासियों ने लौकाशाह को कष्ट दिया था, वास्तव में लौंकाशाह की तरफ जन समाज का ध्यान खींचने के लिए बीसवीं सदी के लेखकों की यह एक कल्पना मात्र है | भिक्षुत्रिय मागे कहता है - वर्तमानकालीन जैन साहित्य में चैत्यवासियों ने अनेक प्रक्षेप कर उन्हें परस्पर विरोधी बना दिया है, इसलिए लौका और उसके अनुयायी धर्मशी, प्रादि ने ३२ सूत्रों को ही मान्य रक्खा है । भिक्षुत्रितय की ये बातें उनके जैसे ही सत्य मान गे, विचारक वर्ग नहीं, जैन प्रागमों का शास्त्रवरिंगत स्वरूप आज नहीं है, इस बात को हम स्वयं स्वीकार करते हैं, परन्तु लौंका के अनुयायी जिन ३२ श्रागमों को गणधर कृत मानते हैं, वे भी काल के दुष्प्रभाव से बचे हुए नहीं हैं, उनमें सौकर्यार्थ संक्षिप्त किये गये हैं, एक दूसरे के नाम एक दूसरे में निर्दिष्ट किये हुए हैं, उनसे यही प्रमाणित होता हैं, कि सूत्रों में जिस विषय का वर्णन जहां पर विस्तार से दिया गया है, उसको फिर मूल-सूत्र में न लिखकर उसी वर्णन वाले सूत्र का प्रतिदेश कर दिया है, जैन सिद्धान्त के द्वादश आगम गरणधर कृत होते हैं तब उपांग, प्रकीर्णक आदि शेष श्रुतस्यविकृत होते हैं । 2010_05 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४७१ स्थविरों में चतुर्दश पूर्वधर भी हो सकते है और सम्पूर्ण दशपूर्वधर भी हो सकते हैं, इन श्रुतधरों की कृतियां प्रागमों में परिगणित होती हैं, तब इन से निम्न कोटि के पूर्वधरों की कृतियां सूत्रव्याख्यांग या प्रकार्णक कहलाते हैं मोर उनमें द्रव्य, क्षेत्र, काल के अनुसार पढ़ने वालों के हितार्थ सिद्धान्त मर्यादा के बाहर नहीं जाने वाले उपयुक्त परिवर्तन भी होते रहते हैं, इस प्रकार के परिवर्तन ३२ सूत्रों में भी पर्याप्त मात्रा में हुए है, परन्तु लौका के अनपढ अनुयायियों को उनका पता नहीं है । लौंका के अनुयायियों में प्रचलित सैकड़ों ऐसी ब तें हैं जो ३२ भागमों में नहीं हैं और उन्हें वे सच्ची मानते हैं तव कई बातें उनमें ऐसी भी देखो जाती हैं जो उनके मान्य आगमों से भी विरुद्ध हैं, इसका कारण मात्र इस समाज में वास्तविक तलस्पर्शी ज्ञान का अभाव है। व्याकरण व्याधिकरण है : आज से कोई ५० वर्ष पहले ल कामत के अनुयायी साधुनों को कहते सुना है कि "व्याकरण में क्या रक्खा है, व्याकरण तो व्याधिकरण है।" स्थानकवासी साधुषों के उपर्युक्त उद्गारों का खास कारण था सत्रहवीं शती में लुकागच्छ के प्राचार्य मेघजी ऋषि ने अपना गच्छ छोडकर तपागच्छ में दीक्षित होने को घटना । इस घटना के बाद लुकामच्छ वालों ने व्याकरण का पढ़ना खतरनाक समझा और अपने पाठ्यक्रम में से उसको निकाल दिया था, यही कारण है कि वाद के लौंकागच्छ के आचार्य, यति और स्थानकवासी साधुनों के बनाये हुए संस्कृत, प्राकृत प्रादि के ग्रन्थ दृष्टिगोचर नहीं होते "समकित सार" के कर्ता ऋषि जेठमलजी जैसे अग्रगामी स्थानकवासी साधु भो सूत्रों पर लिखे हुए टिबों मात्र के आधार से अपना काम चलाते थे, यही कारण है कि भौगोलिक प्रादि की आवश्यक बातों में भी वे प्रज्ञान रहते थे, इस विषय में हम "समकितसार" का एक फिकरा उद्धृत करके पाठकों को दिखाएगे कि उन्नीसवीं शती तक के लौकागच्छ के वंशज कितने प्रबोध होते थे। 2010_05 Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ ] [ पट्टावली-पराग “समकितसार" के पृष्ठ ११ - १२ में "आर्यक्षेत्र की मर्यादा" इस शीर्षक के नीचे ऋषि जेठमलजी ने "बृहत्कल्पसूत्र" का एक सूत्र देकर प्रार्य अनार्य क्षेत्र को हद दिखाने का प्रयत्न किया है - "कप्पइ निग्गन्थारणं वा निग्गयोणं वा पुरथिमेणं जाव अंग मगहात्रों एत्तए, दक्खिरणेणं जाव कोसम्बोसो एत्तए, पच्चत्यिमेणं जाव थूगाविसयाओ एत्तए, उत्तरेणं जाव कुणालाविसयानो एसए एयावयावकप्पइ, एयावयाव पारिए खेते, नो से कप्पइ एत्तो वाहि, तेरण परं जत्य नाणदंसरणचरित्ताई उस्सप्पन्ति ॥४८॥" ___ उपर्युक्त पाठ "समकितसार' में कितना अशुद्ध छपा है, यह जानने की इच्छा वाले सज्जन "समकितसार" के पाठ के साथ उपर्युक्त पाठ का मिलान करके देखे कि "समकितसार" में छपा हुआ पाठ कितना भ्रष्ट है, इस पाठ को देकर नीचे चार दिक्षा की क्षेत्र मर्यादा बताते हुए ऋषिजी कहते हैं - "पूर्व दिशा में अंगदेश मोर मगधदेश तक आर्यक्षेत्र है, अब भी राजगृह और चम्पा की निशानियां पूर्व दिशा में हैं। दक्षिण में कौशम्बी नगरी तक प्रार्यक्षेत्र है, आगे दक्षिण दिशा में समुद्र निकट है इसलिए समुद्र की जगती लगती है। । पश्चिम दिशा में थूभणानगरो कही है, वहां भी कच्छ देश तक प्रार्यक्षेत्र है, प्रागे समुद्र की जगती पाती है। उत्तर दिशा में कुणाल देश और श्रावस्ती-नगरी है, जहां आज स्यालकोट नामक शहर है। मागे ऋषिजी कहते हैं - कितनेक नगरों के नाम बदल गए हैं। उनको लोकोत्तर से जानते हैं, जैसे - पाटलीपुर जो आज का पटना है, देसारणपुर वह मन्दसौर है, हत्थरणापुर वह माज की दिल्ली, सौरीपुर वह प्रागरा पट्ठीगांव वह वढवारण है। ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४७३ इसी प्रकार बृहत्कल्पोक्त गंगा, यमुना, सरयू, इरावती पौर मही इन पांच महानदियों का परिचय देते हुए जेठमलजी इरावती को लाहौर के पास की रावी बताते हैं और मही गुजरात में बडौदा शहर के उत्तर में ८-१० माईल के फैसले पर बहने वाली मही बताते हैं । जेठमलजी कौशम्बी के मागे दक्षिण में समुद्र और उसकी जगती बताते हैं, यह भौगोलिक "मज्ञान" मात्र है, कौशम्बी नगरी माधुनिक इलाहबाद से दक्षिण में वत्स देश की राजधानी थी। उनकी दक्षिण सीमा विन्ध्याचल के उत्तर प्रदेश में ही समाप्त हो जाती थी भोर समुद्र कहाँ से १ हजार माईल से भी अधिक दूर था, इस परिस्थिति में कौशम्बी की दक्षिण सीमा समुद्र के निकट बताना भौगेलिक अज्ञानता सूचक है । पश्चिम दिशा में मार्यदेश की अन्तिम सौमा थूभणानगरी कहते हैं और उनकी हद कच्छ देश तक बताते हैं, यह भी गल्त है, प्रथम तो नगरी का नाम ही गलत लिखा है, नगरी का नाम थूभरणा नहीं, पर उसका नाम "स्थूणा" है और वह सिन्ध देश के पश्चिम में कहीं पर पायी हुई थी और उसके मास-पास के प्रदेश को जेनसूत्रों में "स्थूणाविषय" बताया है, कच्छ को नहीं। भारत के उत्तरीय पार्यक्षेत्र की सीमा पंजाब के शहर स्यालकोट तक बताते हैं, यह भी प्रज्ञानजन्य हैं, स्यालकोट पंजाब प्रदेद में वर्तमान भारत के वायव्यकोण में पाया हुआ है, तब कुणाल देश भारत के उत्तरीय भाग में था पोर माजकल के "सेटमहेट" के किले को प्राचीनकाल में श्रावस्ती कहते थे । गोरखपुर तथा बस्ति जिले के आस-पास का प्रदेश पूर्वकाल में कुणाल देश कहलाता था। ___ दशार्यपुर को जेठमलजी देसारणपुर लिखते हैं और उसको माधुनिक मन्दसौर कहते हैं जो यथार्ण नहीं है । दशार्णपुर आजकल का मन्दसौर नहीं किन्तु पूर्व मालवा के पहाड़ी प्रदेश में पाए हुए दशार्ण देश की राजधानी थी और दशाणपुर अथवा मृत्तिकावती इन नामों से प्रसिद्ध थी, 2010_05 Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७४ ] [ पट्टावली-पराग याधुनिक मन्दसौर का पूर्वकालीन नाम दशार्णपुर नहीं किन्तु 'दशपुर'' था, यह बात शायद जेठमलजी के स्मररण में से उतर गई है । हत्थारणापुर अर्थात् हस्तिनापुर दिल्ली नहीं, किन्तु वह कुरु जांगल देश की राजधानी स्वतंत्र नगरी थी और आज भी है । सौरीपुर आगरा नहीं किन्तु आगरा से भिन्न प्राचीन सौर्य्यपुर नगर का नाम है । वढ़वाण को अट्ठीगांव कहना भूल से भरा है, अस्थिकग्राम प्राचीन भारत के विदेह प्रदेश में था, पश्चिम भारत में नहीं । लाहौर के पास को रावी नदी इरावती नहीं, किन्तु कुणाल प्रदेश में बहने वाली इरावती नामक एक बड़ी नदी थी, इसी प्रकार मही नदी भी बड़ौदा के निकटवर्ती गुजरात की मही नहीं किन्तु दक्षिण कौशल की पहाड़ियों से निकलने वाली मही नदी को सूत्र में ग्रहण किया है जो गंगा की सहायक नदी है । "समकितसार” के लेखक श्री जेठमलजी के प्रमादपूर्ण उपर्युक्त पांच सात भूलों में हो "समकितसार" गत प्रज्ञान विलास की समाप्ति नहीं होती । यों तो सारी पुस्तक भूलों का खजाना है, प्रमाण के रूप में दिये गये संस्कृत प्राकृत ग्रवतररण इतनी भद्दी भूलों से भरे पड़े हैं जो देखते ही पुस्तक पढ़ने की श्रद्धा को हटा देते हैं और पुस्तक की भाषा तो किसी काम की नहीं रहीं, क्योंकि शब्द शब्द पर विषयगत ज्ञान और मुद्रण सम्बन्धी शुद्धियों को देखकर पढ़ने वाले का चित्त ग्लानि से उद्विग्नि हो जाता है । हमारे सामने जो " समकितसार" की पुस्तक उपस्थित है यह "समकितसार" की तृतोयावृत्ति के रूप में विक्रम सं० १९७३ में श्रमदाबाद में छपी हुई है, इसी "समकितसार" की सम्भवतः प्रथमावृत्ति विक्रम सं० १९३८ में निकली थी, इसकी द्वित्तीयावृत्ति कब निकली इसका हमें पता नहीं है और ७३ के बाद इसकी कितनी प्रावृत्तियां निकली यह भी साधनाभाव से कहना कठिन है । १९३८ की आवृत्ति निकलने के बाद इसके उत्तर में सं० १९४१ में “ सम्यक्त्व - शल्योद्धार" नामक पुस्तक पूज्य श्री आत्मारामजी महाराज ने लिखकर प्रकाशित करवाई "समकितसार " 2010_05 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ परिच्छेद ] [ ४७५ में इसके लेखक, "ऋषि जेठमलजी ने मूर्तिपूजक जैन सम्प्रदाय का "हिंसाधर्मी" यह नाम रक्खा है और सारी पुस्तक में उनको इसी नाम से संबोधित किया है । "सम्यक्त्व - शल्योद्धार" में जेठमलजी की इस भाषा का ही प्रत्याघात हैं और उसके लेखक ने "मूढ़जेठाॠष, निन्हव" इत्यादि शब्दों के प्रयोगों से लेखक ने उत्तर दिया है । जेठमलजी के "समकितसार गत" अज्ञान को देखकर बीसवीं शती के पंजाब बिहारी स्थानकवासी साधुत्रों के मन में आया कि संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं का जानना जैनसाधुओं के लिए जरूरी है, इसके परिणामस्वरूप कतिपय बुद्धिशाली स्थानकवासी साधुनों ने संस्कृत भाषा सीखी और हस्तलिखित सटीकसूत्र पढ़े । संस्कृत सीखने के बाद सटीक सूत्रों के पढ़ने से वे समझने लगे कि सूत्रों में अनेक स्थानों पर मूर्तिपूजा का विधान है और दिनभर मुंह पर मुंहपत्ति बांधना शास्त्रोक्त नहीं है, इन दो बातों को पूरे तौर पर समझने के बाद उनकी श्रद्धा वर्तमान स्थानकवासी सम्प्रदाय में से निकल जाने की हुई, प्रथम श्री बूटेरायजी, श्री मूलचन्दजी, श्री वृद्धिचन्दजी नामक तीन श्रमण मुंहपत्ति छोड़कर सम्प्रदाय से निकल गये, शत्रुञ्जय आदि तीर्थों की यात्रायें कर श्री बूटेरायजी ने अहमदाबाद आकर पं० मरिणविजयजी के शिष्य बने, नाम बुद्धिविजयजी रक्खा। शेष दो साधु बुद्धिविजयजी के शिष्य बने और क्रमश: मुक्तिविजयजी, वृद्धिविजयजी के नाम से प्रसिद्ध हुए । इसके अनन्तर लगभग दो दशकों के बाद श्री श्रात्मारामजी श्री बीसनचन्दजी आदि लगभग २० साधु स्थानकवासी सम्प्रदाय छोड़कर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में प्राये और बुद्धिविजयजी आदि के शिष्य बने, इस प्रकार सम्प्रदाय में से पठित साधुत्रों के निकल जाने से स्थानकवासी सम्प्रदाय में संस्कृत व्याकरण यादि भाषा विज्ञान के ऊपर से श्रद्धा उठ गई और व्याकरण को तो वे 'व्याधिकरण" मानने लगे । बीसवीं शती का प्रभाव : ...यों वो अन्तिम दो शतियों से जैन श्रमरणों में संस्कृत का पठन-पाठन बहुत कम हो गया था, परन्तु बीसवीं शती के उत्तरार्ध में संस्कृत भाषा की 2010_05 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७६ ] [ पट्टावली-पराग फिर कदर होने लगी । बनारस, मेसाणा आदि स्थानों में संस्कृत पाठशालाएं स्थापित हुई और उनमें गृहस्थ विद्यार्थी पढ़कर विद्वान् हुए कतिपय उनमें से साधु भी हुए, तब कई साधु स्वतंत्र रूप से पण्डितों के पास पढ़कर व्युत्पन्न हुए, इस नये संस्कृत प्रचार से प्रमूर्तिपूजक सम्प्रदाय को एक नई चिंता उत्पन्न हुई, वह यह कि सम्प्रदाय में से पहले अनेक पठित साधु चले गये तो अब न जायेंगे, इसका क्या भरोसा ? इस चिंता के वश होकर सम्प्रदाय के अमुक साधुओं ने अपने मान्य सिद्धान्तों पर नई संस्कृत टीकाएँ बनवाना शुरू किया। अहमदाबाद शाहपुर के स्थानक में रहते हुए स्थानकवासी साधु श्री घीसीलालजी लगभग ७-८ साल से यही काम करवा रहे हैं, संस्कृतज्ञ ब्राह्मण विद्वानों द्वारा आगमों पर अपने मतानुसार संस्कृत टीकाएँ तैयार करवाते हैं, साथ-साथ उनका गुजराती तथा हिन्दी भाषा में भाषान्तर करवा कर छपवाने का कार्य भी करवा रहे हैं। इस प्रकार की नई टीकाओं के साथ कतिपय सूत्र छप भी चुके हैं । टीकाकार के रूप में उन पर अमुक प्रसिद्ध साधुओं के नाम अंकित किये जाते हैं। उपर्युक्त व्यवस्था चालू हुई तभी से श्री फूलचन्दजी ने सबसे आगे कदम उठाया, उन्होंने सोचा नई टीकानों के बनने पर भी संस्कृत के जान• कार साधु को प्राचीन मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य टीकाओं को पढ़ने से कोन रोक सकेगा, इस वास्ते सबसे प्रथम कर्त्तव्य यही है कि आगमों में से तमाम मूर्तिपूजा के पाठ तथा उनके समर्थक शब्दों तक को हटा दिया जाय ताकि भविष्य में सूत्रों का वास्तविक अर्थ समझकर अपने सम्प्रदाय में से मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में साधुजों का जाना रुक जाय । अगर प्राचीन टीकाओं वाले आगमों में मूर्तिपूजा के अधिकार देखकर कोई यह शंका करेंगे कि मूर्तिपूजक सम्प्रदाय-मान्य भागमों में तो प्रतिमापूजा के अधिकार विद्यमान है और अपने आगमों में नहीं इसका क्या कारण है, तो उन्हें कह दिया जायगा कि मूर्तिपूजा के पाठ चैत्यवासी यतियों ने आगमों में घुसेड़ दिये थे उनको हटाकर आगमों को संशोधित किया गया है । __स्थानकवासी सम्प्रदाय के साधुओं में व्याकरण को "व्याधिकरण" कहने की जो पुरानी परम्परा थी वह सचमुच ठीक ही थी, क्योंकि उनमें से ___ 2010_05 Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४७७ व्याकरण पढ़े हुए कई साधु सम्प्रदाय छोड़कर चले गये थे, श्री फूलचन्दजी तथा उनके शिष्य-प्रशिष्य भी साधारणतया व्याकरण पढ़े हुए हैं, तो उनके लिए भी "व्याकरण व्याधिकरण" होना ही था, यदि ये सम्प्रदाय में से निकल जाते तो इतना ही च्याधिकरण" होता, अन्यथा इन्होंने सूत्रों के पाठ निकालकर सूत्रों को जो खण्डित किया है और इस प्रक्रिया द्वारा सूत्रों की प्राचीनता में जो विकृति उत्पन्न की है, इसके परिणामस्वरूप भविष्य में कोई भी जैनेतर संशोधक विद्वान् इन सूत्रों को छूएगा तक नहीं, क्योंकि आगमों को मौलिकता ही उनका खरा जौहर है । वह फूलचन्दजी ने उनके सम्प्रदाय मान्य ३२ आगमों में से खत्म कर दिया है । अब उन पर मंस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती भाषा की टीकाएँ लिखवाते रहें और छपवाते रहें, जैन आगमों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता, जैनर्मियों की प्राचीन सभ्यता और प्रागम-कालीन जैनों के आचार-विचार जानने के लिए ये "स्थानकवासी आगम" किसी काम के नहीं रहे । शोध, खोज, करने वालों के लिए ये पागम बीसवीं सदी के बने हुए किसी भी ग्रन्थ संदर्भ से अधिक महत्त्व के नहीं रहे। भिक्षुत्रितय 'सुत्तागमे' के दोनों पुस्तकों में लिखता है - "पाठ शुद्धि का पूरा-पूरा ध्यान रक्खा है, इसके सम्पादन में शुद्धि प्रतियों का उपयोग किया गया है।" सम्पादकों की पाठ-शुद्धि का अर्थ है इनको मान्यता में बाधक होने वाले पाठों को "हटाना" । अन्यथा कई स्थानों पर सम्पादकीय अशुद्धियां ही नहीं बल्कि सम्पादकों द्वारा अपनी होशियारी से की गई अनेक अशुद्धियां सूत्रों में दृष्टिगोचर होती हैं, इस स्थिति में सम्पादन में शुद्ध प्रतियों का उपयोग करने की बात केवल दम्भपूर्ण है, क्योंकि स्थानकवासियों के पास जो भी सूत्रों के पुस्तक होंगे वे अशुद्धियों के भण्डार ही होंगे, क्योंकि इनके पुस्तकालयों तथा स्थानकों में मिलने वाले पुस्तक बहुधा इनके अनपढ़ साधुनों के हाथ के लिखे हुए ही मिलते हैं। सोलहवीं शती में लौका का मत निकला और अठारहवीं शती के प्रारंभ में स्थानकवासी ऋषियों ने टिब्बे के साथ सूत्र लिखने शुरू किये थे, लिखने वाले साधु नकल करने 2010_05 Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ ] [ पट्टावलो-पराग वाले लहियो से तो बढ़कर होशियार थे नहीं, फिर सम्पादकों को शुद्ध प्रतियां कहां से हाथ लगीं, यह सूचित किया होता तो इनके कथन पर विश्वास हो सकता था, परन्तु यह बात तो है ही नहीं, फिर कौन मान सकता है कि इनके सम्पादन कार्य के लिए ६००-७०० वर्ष पहले के प्रागमों के शुद्ध आदर्श उपलब्ध हुए होंगे। ‘सुत्तागो" के द्वितीय अंश में दो हुई पट्टावली से ही यह तो निश्चित होता है कि सम्पादकों को शुद्ध-पुस्तक नहीं मिला था। अन्यथा नन्दो को वाचक-वंशावली के ऊपर से ली हुई गाथाओं में में इतनी गड़बड़ी नहीं होती। पट्टावली में सप्तम पट्टधर आर्य भद्रबाहु के सम्बन्ध में लेखक निम्न प्रकार का उल्लेख करते हैं - "तयारणंतर अज्ज भद्दबाहु चउरणाण चउदहपुवधारगो दसाफप्पववहारकारगाो सुयसमुद्दपारगो ॥७॥" __उपर्युक्त प्रतीक में दो भूलें हैं, एक तो सम्पादक के सम्पादन की और दूसरी सम्पादक के शास्त्रीय ज्ञान के प्रभाव की, सम्पादन की भूल के सम्बन्ध में चर्चा करना महत्त्वहीन है, परन्तु दूसरो भूल के सम्बन्ध में ऊहापोह करना आवश्यक है, क्योंकि पट्टावली-निर्माता ने इस उल्लेख में भद्रबाहु स्वामी को “चर्तु ज्ञानधारक' लिखा है, वह शास्त्रोत्तीर्ण है - क्योंकि भद्रबाहु "ज्ञानद्वयधारक" थे । लेखक ने इनको चर्तुज्ञानधारक कहने में किसी प्रमाण का उपन्यास किया होता, तो उस पर विचार करते। अन्यथा भद्रबाहु को चर्तुज्ञानधारक कहना प्रमाणहोन है ।। पट्टावली-लेखक ने अपनी पट्टावली में ११ वें नम्बर के स्थविर को "सन्तायरियो" लिखा है जिसका संस्कृत "शान्त्याचार्य" होता है जो कि गलत है, इन स्थविरजी का नाम "स्वात्याचार्य' (प्राचार्य स्वाति ) है प्राचार्य शान्ति नहीं । शाण्डिल्य के बाद १४ वें स्थविर का नाम 'जिनधर्म' और १६ वें स्थविर का नाम “नन्दिल" लिखा है, जो दोनों प्रक्रम प्राप्त हैं, क्योंकि इन में से "आर्यधर्म'' का नाम नन्दी को मूल गाथाओं में नहीं है और "नन्दिल" का नम्बर मूल नन्दी में १७ वां है। नम्बर २० और २१ में स्थविरों के नाम भी पट्टावलो लेखक ने गलत लिखे हैं, आर्य महागिरि 2010_05 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४७९ की वाचक-परम्परा में सिंहगिरि का नाम नहीं है, किन्तु इस परम्परा में वाचक "ब्रह्मद्वीपकसिंह" का नाम अवश्य आता है, २१ वें स्थविर को "सिरिमन्तो" नाम से उल्लिखित किया है, जो गलत है, वास्तव में इनका नाम "हिमवन्त" है। पट्टावलीकार ने २३ वां नम्बर गोविन्द को दिया है, जो वास्तव में नन्दी की मूल गाथाओं में नहीं है, किन्तु यह नाम "प्रक्षिप्त गाथा में" प्राता है। पट्टावलीकार ने २५ वें स्थविर का नाम "लोहाचार्य" लिखा है, जो यथार्थ नहीं है, इनका खरा नाम “लौहित्याचार्य" है। पट्टावलीलेखक ने २६ वें स्थविर का नाय "दुप्पस'' लिखा है, जो अशुद्ध है । देवद्धिगणि के पट्टगुरु का नाम ',दुप्पस" नहीं किन्तु "दूष्यगणि' है, यह लेखक को समझ लेना चाहिए था। पट्टावलीकार ने देवद्धिगरिण के बाद वीरभद्र २८ शिवभद्र २६ आदि ३३ नाम कल्पित लिखे हैं, अतः इन पर ऊहापोह करना निरर्थक है, इनके आगे पट्टावली लेखक ने "ज्ञानाचार्य' "भारणजो" आदि लौंकागच्छ को परम्परा के ऋषियों के नाम दिए हैं, इन नामों में भी पंजाबी आधुनों की पट्टावली के कई नामों के विरुद्ध पढ़ने वाले नाम हैं जिनकी चर्चा पहले ही पट्टावली-विवरण में की गई है। 2010_05 Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कडवा- मत गन्छ की पहावली १. शाह कडवा: नाडुलाई गांव में नागरज्ञातीय बीसानागर श्री कानजी की भार्या कनकादे की कोख से सं० १४६५ में शाह कडुवा का जन्म हुआ था। कडवा जब आठ वर्ष का हुआ, तब से हरिहर के पद बनाने लगा था। कुछ समय के बाद कडुमा को अंचलगच्छ का एक श्रावक मिला। श्रावक ने कडुमा को कहा - तुम हरिहर के पद बनाते हो वैसे जैनमार्ग के बनायो तो तुम्हारी कदर होगी "जैन" यह शब्द सुनकर कडवा को बड़ा आनन्द हुआ, वह बोला मुझको जैनमार्ग सुनानो तो मैं जैनधर्म के भी पद बनाऊं। पांचलिक श्रावक कडुवा को अपने गच्छ के उपाश्रय में ठहरे हुए साधुजी के पास ले गया, साधुजी ने उसे वार्ता के रूप में धर्म का उपदेश किया । कडुप्रा ने इस प्रकार उनके पास जाते-जाते जैनधर्म का खासा परिचय पा लिया, उसने सर्वप्रथम एक कविता बनाई जिसका प्रथम पद्य इस प्रकार था । माइ बाप नी कीजई भगति' विनय करन्ता रुढी युगति । जीव क्या साची पालीजइ, सील धरी कुल उजुमालीइ ॥१॥ इस प्रकार साधु-समागम से और उनको औपदेशिक बातें सुनने से कडुआ के मन में संसार की असारता का आभास हुआ, उसकी इच्छा संसार त्याग करने की हुई, अपना भाव कडुमा ने माता-पिता के सामने प्रकट किया जिसे सुनकर उसके माता-पिता को बड़ा दुःख हुमा और दीक्षा लेने की आज्ञा देने से इन्कार कर दिया । मेहता कानजो का स्वभाव ____ 2010_05 Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४८१ जानने वाला साधु उनकी श्राज्ञा के बिना कडुआ को दोक्षा देने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ । दीक्षा लेने की धुन में कडुना अनेक साधुनों का परिचय करता हुआ अहमदाबाद पहुँचा, वहां रूपपुरा में प्रागमिक पं० हरिकीर्ति शुद्ध प्ररूपक संवेग पाक्षिक साधु थे, वे अपनी शक्ति के अनुसार क्रिया कलाप करते थे । गुणी साधुम्रों को वन्दन करते थे, परन्तु प्राप किसी से वन्दन नहीं करवाते कहते मैं वन्दन-योग्य नहीं हैं, तुझ से शास्त्रोक्त साधु का आचार नहीं पलता । हरिकीर्ति रूपपुरे की एक शून्य शाला में रहते थे, कडुवा ने उनका व्यवहार देखा और उसको पसन्द आया, उसने हरिकीर्तिजी के सामने अपना परिचय देते हुए कहा - मेरी इच्छा संसार छोड़कर साधु होने की है, मुझे दीक्षा दीजिये। हरिकीर्ति ने सोचा मैं अगर इसको योग्य मार्ग न दिखाऊँगा तो यह किसी कपटी कुगुरु के जाल में फंस जायगा, उन्हों ने कडुवा से कहा प्रथम दशवैकालिक के चार अध्ययन पढ़ने से ही दीक्षा पाली जा सकती है, इस वास्ते पहले तुम दशवेकालिक के ४ अध्ययन पढो, उसने स्वीकार किया और हरिकीर्ति के पास दशवैकालिक के चार अध्ययन अर्थ के साथ पढ़े । अध्ययन पढ़ने के वाद कडुआ ने उन्हें पूछा - पूज्य ! सिद्धान्त मार्ग तो इस प्रकार है, तब आजकल साधु इस मार्ग के अनुसार क्यों नहीं चलते ? हरिकीर्ति ने कहा अभी तुम पढ़ो और सुनों, बाद में सिद्धान्त की चर्चा में उतरना, महता कडुवा ने पन्यास के पास सारस्वत व्याकरण, काव्यशास्त्र, छंदशास्त्र, चिन्तामरिण प्रमुख वाद शास्त्र पढ़ा और आचारांगादि सूत्रों के अर्थ सुनकर प्रवीण हुम्रा, बाद में पन्यास हरिकीर्ति ने कडुमा को कहा - हे वत्स ! आचारांगादि सूत्रों में जो साधु का आचार लिखा है, वह आज के साधुनों में देखा नहीं जाता, आज के सर्व यति पूजा-प्रतिष्ठा कल्पितदान आदि कार्यों में लगे हुए है, जिनमन्दिरों के रक्षक बने हुए हैं, क्योंकि वर्तमानकाल में दसवां अच्छेरा चल रहा है, यह कहकर उसने "ठाणांग" सूत्र की आश्चर्य - प्रतिपादक गाथाएँ, 'संघपट्टक" की गाथाएँ और " षष्टिशतकप्रकरण" की गाथाएँ सुनाकर वर्तमानकालीन साधुओं की आचारहीनता का प्रतिपादन किया और उसकी श्रद्धा कुण्ठित करने के लिए हरिकीर्ति ने पिछले समय में जैनश्रमणों में होने वाली घड़ाबन्दियों का विवरण सुनाया, उन्होंने कहा - 2010_05 - - - Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [ पट्टावली-पराग "११५६ में पौर्णमिक, १२०४ में खरतर, १२१३ में अंचल, १२३६ में सार्द्धपौर्ण मिक, १२५० में त्रिस्तुतिक १२८५ में तपा अपने-अपने प्राग्रह से उत्पन्न हुए, १५०८ में लुका ने अपने आग्रह से मत चलाया, अब तुम ही कहो तो इन नये गच्छ-प्रवर्तकों में से किस को युगप्रधान कहना और किसको नहीं, इस समय शास्त्रोक्त चतुष्पर्वी का आम्नाय भी दिखता नहीं, जहां युगप्रधान होगा, वहां उक्त सभी बातें एक रूप में ही होगी, इसलिए तुम श्री युगप्रधान का ध्यान करते हुए श्रावक के वेश में "संवरी" बनकर रहो, जिससे तुम्हारे आत्मा का कल्याण होगा।" शाह कडुवा ने जैन सिद्धान्तों की बातें सुनी थीं, उसको हरिकीति की बात ठीक जंची, वह साधुता की भावना वाला प्रासुक जल पीता, अचित्त पाहार करता, अपने लिए नहीं करा हुमा भोजन विशुद्ध पाहार श्रावक के घर से लेता था। ब्रह्मचर्य का पालन करता, १२ व्रत धारण करता हुआ किसी पर ममता न रखता हुआ पृथ्वी पर विचरने लगा। कडुमाशाह ने सर्व-प्रथम पाटण में लीम्बा मेहता को प्रतिबोध किया, -सं० १५२४ में शाह मेहता लीम्बा ने शाह कडुआ को विरागी जानकर अपने घर भोजनार्थ बुलाया, भोजन में परोसने के लिए अनेक चीजें हाजिर की। कडुआ ने उनका काल पूछा, जो काल के उपरान्त की चीजें थीं उन्हें नहीं लिया। लीम्बा ने - दही शक्कर माप लेंगे? कडुमा ने पूछा - दही कब का है। लीम्बा ने कहा - हमारे घर पर ३६ भैसियां दूध देती हैं इसलिए यह कैसे जाना जा सकता है - कि यह दही कब का है । कडा ने कहा - हमको १६ पहर के उपरान्त का दही नहीं कल्पता, मेहता लींबा ने कहा - भाप सब में जीव कहते हैं, दूध में से भी पोरा निकालते हैं तो एक वाघ हमको दृष्टान्त दिखाओ तो मैं स्वयं जैनधर्म स्वीकार कर लं, इस पर कडवाशाह ने दांत रंगने का पोथा मंगवाकर दही के उपरि भाग में लकीर खींचकर दही का वर्तन धूप में रखवाया और दही में से ताप लगने के कारण पोथा की लकीर पर ऊपर पाए हुए दही से सफेद जीवों को दिखाया, इससे मेहता लीम्बा जैनधर्म का श्रद्धालु बन गया। 2010_05 Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४८३ सं १५२५ में वीरमगांव में ३०० घर अपने मत में लिए, सं० १५२६ में सलक्खपुर में चातुर्मास्य कर अनेक मनुष्यों को प्रतिबोध किया और १५० घर अपने मत में लिये, सं० १५२८ में श्री अहमदाबाद में चतुर्मास्य किया, ७०० घर अपने मत में प्रतिबोध किये । सं० १५२६ में खम्भात में चतुर्मास किया ५०० घर को प्रतिबोध किया । सं० १५३० में मांडल में चतुर्मास किया और ५०० घरों को प्रतिबोध दिया। सं० १५३१ में सूरत में चतुर्मास, सं० १५३२ में भरुच में चतुर्मास किया, १५३३ में चांपानेर चतुर्मासक किया, घर ३०० को प्रतिबोध किया तथा थराद में ६०० घर अपने मत में किये । सं० १५३६ में राधनपुर चतुर्मास, १५३७ में मोखाड़ा में चतुर्मास किया तथा सोईगांव आदि में अपना मत फैलाया । सं० १५३८ में सर्वत्र विहार किया । सं० १५३६ में नांडलाई में ऋषि भारणा के साथ वाद किया और शास्त्रानुसार प्रतिमा को प्रमाणित किया और लुंकों के १५० घर अपने मत में लिये । सं० १५४० में पाटन में चतुर्मासक किया और ६०० घर कडुआ के समवाय में हुए, शाह खीमा, शाह तेजा, कर्मसिंह, शाह नाकर द्वादश व्रतधारक, शाह श्रीकृत १०१ नियमों के पालक संवरी गृहस्थ के वेश में रहकर दींक्षा का भाव रक्खे, संवर का खप करे । १ नीची नजर रखकर बने । २ रात्रि में भूमि का प्रमार्जन किये विना न चले । ३ खास कारण बिना रास्ते चलते हुए बातचीत न करें, कोई प्रश्न करे तो यह कहे कि ज्यादा बातें स्थान पर करना । ४ औषध को छोड़कर सच्चित्त आहार न खादें । ५ दिवस की पिछली दो घड़ी दिन रहते, चउविहाहार का पच्चक्खान करे, ६ भोजन करते समय अन्नकरण न बिखेरे, न झूठा छोड़े, प्रमाणातिरिक्त भोजन न करे, न बिना इच्छा के खाएँ । ७ भोजन करते न बोले । ८ द्विदल अन्न कच्चे गोरस के साथ न खाएं । ९ छुटे हाथ कोई पदार्थ न फेंके । १० पाट पाटला प्रमुख किसी भी वस्तु को न घसीट कर ले जाय । 2010_05 Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ ॥ [ पट्टावलो-पराग ११ स्थण्डिल सम्बन्धी शुद्ध भूमि की यतना करे। १२ प्रस्रवण कीडी प्रमुख जीव-जन्तु न हो वहां छोड़े। १२ मात्रा की कुंडी को छोड़कर अन्य बर्तन में मल त्याग न करें। १४ जल प्रमुख त्याज्य पदार्थ विना प्रमार्जन किये न परठे । १५ दूसरे को पीडाकारी वचन तथा हास्यादिक वचन न बोले । १६ शरीर को विना प्रमार्जन किये खाज न खणे । १७ पांच स्थावर जीवों का प्रारम्भ न करें। १८ निवारण से स्वयं पानी न ले, अगर लाए तो सब उपयोग करें। १६ बिना छाने पानी में कपड़े न धोएँ।। २० अपने हाथ से अग्नि का प्रारंभ न करें। २१ पंखे से हवा न लें। २२ वनस्पति अपने लिए न काटे । २३ त्रस जीव की पीड़ा के परिहार में नियम धारण करना : २४ त्रस जीव को मारने का त्याग करना । २५ सर्वथा असत्य का त्याग करना। २६ चोरी-यारी और प्रदत्तवस्तु लेने का त्याग । २७ मनुष्य तथा चतुष्पद जाति की स्त्री का स्पर्श तथा संघट न करना यदि, हो तो घृत का उस दिन त्याग करना । २८ अपने पास धन न रक्खे । २६ पिछली ४ घड़ी रात्रि में शयन का त्याग करें। ३० खुले मुंह न बोले, बोलते समय हाथ अथवा कपड़ा रखकर बोले । ३१ रात्रि के प्रथम पहर में न सोवें। ३२ रोगादि कारण के सिवाय दिन में न सोवें । ३३ प्रतिदिन तिविहार एकाशन करें । ३४ यथाशक्ति ग्रन्थि-सहित प्रत्याख्यान करे । ३५ त्रिकाल देव-वन्दन करे तथा अपने-अपने समय में आवश्यक तया प्रतिलेखनादि करे।। ३६ प्रतिदिन सात अथवा पांच चैत्य वन्दन करें। ३७ पढ़ने गुणने का अभ्यास करे, प्रतिदिन गाथा एक याद करे और कम ___ 2010_05 . Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद । [ ४६५ से कम ५०० गाथा गिने। ३८ पासत्यादि पांच कुदर्शनियों का संग न करे । ३६ सामायिक दिनप्रति बहुत करे । ४० प्रतिदिन एक विकृति वापरे, अधिक नहीं । ४१ दिन में पाव सेर से अधिक घृत न खाएँ। ४२ पन्द्रह दिन में दो उपवास करे । ४३ लोगस्स १० तथा १५ का कार्योत्सर्ग करे । ४४ एक स्थान में एक वर्ष उपरान्त न रहे । ४५ अपने लिये घर तथा द्वार न कराये । ४६ वस्त्र न धोए, ५ के उपरान्त अपने पास वस्त्र न रक्खे। कपड़ों की गठड़ी अन्यत्र न रखे। ४७ विस्तर, तकिया, गादो न वापरे । ४८ पलंग, खाट आदि पर सोवे नहीं, तथा बैठे नहीं। ४६ चौराहे पर न बैठे। ५० कलशिया एक, बाटको एक, इसके अतिरिक्त बर्तन न रखे । ५१ ज्वर प्रादि रोग में तीन दिन तक लंघन करे। ५२ स्त्री से एकान्त में बात न करे । ५३ ब्रह्मचर्य की नव वाड़ी पालने में यत्न करे । ५४ मास में एक बार वस्त्र धोवे । ५५ एकान्तर संघह न करे । ५६ चार कषाय न करे। ५७ कषाय उत्पन्न होने पर विगई का त्याग करे। ५८ किसी को अभ्याख्यान न दे । ५६ किसी को पीछे दोष न दे, चुगली न खाये। ६० सुगन्ध तेल शौक के लिए न वापरें । ६१ द्रव्य १२ के अतिरिक्त एक दिन में न ले। ६२ सुपारी, पान, इलायची प्रमुख का उपयोग न करे । ६३ उत्कट वस्त्र न पहिने । ६४ रेशमी वस्त्र का त्याग करे । ____ 2010_05 Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ ] ६५ खेल, तेल इकट्ठा कर स्नान न करे । ६६ अपने हाथ से न पकावे, न सचित्त वस्तु दूसरे से पकवावें । ६७ हरी वनस्पति का आहार स्वाद की दृष्टि से न करे । ६८ वर्षाकाल में खोपरा, खारक प्रमुख न वापरें । ६६ स्त्री सुनते राग न श्रालापें । ७० आभूषण न पहिने | ७१ दो पुरुष एक पथारो पर न सोवे । ७२ स्त्री सोती हो वहां विना अन्तर के पुरुष न सोवें । ७३ लोकायतिक के यहां का अन्न जल न लेवें । ७४ जिम पर देव द्रव्य का देना हो और वह दे न सकता हो उसके वहां न जीमे । ७५ भुखायति के यहां भोजन न करे । ७६ अकेली स्त्री को न पढ़ाएं। ७७ मन्दिरजी की हद में न सोवें । [ पट्टावली-पराग ७८ अपने सगे के लिए कोई चीज न मांगे । ७६ दूसरे का द्रव्य अपने पास हो तो उसके स्वजन को याज्ञा विना धर्मस्थानक में न खर्चे । ८० निरन्तर एक घर में दो दिन न जीमे । ८१ जिसके यहां श्राद्ध-संवत्सरी हो उसके यहां तोन दिन नहीं जीमे । ८२ उत्कट आहार का उपयोग न करे । ८३ सिघोड़े लीले, सुखे, न खाए । ८४ उगला पहनने की छूट । ८५ दूसरों के बच्चों को प्यार न करे । ८६ स्वजन के प्रतिरिक्त लोग जीमते हो वहां न जोमे । ८७ कन्दोई के पक्कान्न की यतना । ८८ रात में तैयार किये हुए अन्न को न जीमे । ८६ गृहस्थ के घर बैठकर गप्पे न लड़ायें । ६० जूते न पहने । ६१ रथ, गाड़ो, यान पर न बैठे । 2010_05 Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४८७ ६२ घोड़ा प्रमुख वाहन पर न चढ़े। १३ महीने में एक वार नख उतराए । ६४ .कूलर, पकवान आदि बनवाकर अपने पास न रखे। .. ६५ मार्ग में खड़े रहकर अथवा चलते हुए स्त्री से वार्तालाप न करे । ६६ मार्ग में चल न सके तो यान में बैठे। ६७ पंचवर्ण वस्त्र न पहिने । १८ अकेली स्त्रियों के समूह में भोजन के लिए अथवा अन्य किसो कार्य के लिए न जाये। ६६ राग उत्पन्न करने वाले गीत न गाए, न सुने । १०० ब्राह्मण का संग न करे । १०१ दूसरे के घर में जाते खंखार करना । इसके अतिरिक्त दूसरी भी अनेक बातें जो संवरी की अपभ्राजना कराने वाली हों उनको न करे, तथा शाह कडुवा के लिखे हुए १०४ नियम शील पालने सम्बन्धी हैं, उनको धारण करना स्त्रियों के लिए शील पालन के ११३ नियम हैं ये सभी नियम यहां नहीं लिखे। . उस वर्ष श्री कडुवाशाह पाटन में अमरवाड़ा दरवाजा के बाहर जाते दो दिन एक योगीशाह को देखकर बहुत खुश हुआ और शाह को आग्रह करके कुछ प्राम्नाय दिए । यन्त्र, तन्त्र तथा रूपा सिद्धि भी दी, ऐसा वृद्धवाद है, परन्तु शाहश्री ने एक भी विद्या न चलाई, उन्होंने यावज्जीव के लिए एक घृत विकृति छूटी रखी। प्रतिदिन के लिए १० द्रव्य छूटे रखे, यावज्जोव एकाशन करने का नियम था, फिर भी महिने में १० प्रायम्बिल करते और श्री युगप्रधान का ध्यान धरते हुए दीक्षा की भावना रखते थे। ___ सं० १५४१ में शाहश्री बडौदे में शाह कुवरपाल के घर चातुर्मास रहे, वहां भट देपाल के साथ वाद हुआ, जैन बोल ऊपर रहा, वहां पर "जय जंग गुरु देवाधिदेव” यह स्तवन बनाया। सं० १५४२ में गन्धार में शाह देवकर्ण के घर पर चातुर्मास किया, वहां चैत्यवासियों के साथ चर्चा हुई, वहां पर शाह ने “सखिसार नयर गन्धार गांव" ऐसा वीर स्तवन बनाया। ___ 2010_05 Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ [ पट्टावली पराग सं० १५४३ में चूड़ा राणपुर में शाह संघराज के घर चातुर्मास ठहरे, वहां शाहश्री के पास शाह राणा, शाह कर्मण, शाहं शवसी, शाह पुन्ना; शाह धींगा, पांच श्रावक संवरो हुए, चूड़ा राणपुर में २०० घर शाहश्रो कडुमा की श्रद्धा में पाए । सं० १५४४ में जूनागढ़ में ठक्कर राजपाल के घर चतुर्मासक किया, वहां लुंका के १५० घर अपनी श्रद्धा के बनाए । सं० १५४५ में सौराष्ट्र में विचर कर अमरेली में टक्कर काशी के घर चातुर्मास किया। सं० १५४६ में अहमदाबाद के पास अहमदपुरे में चतुर्मास किया, वहां परिख चोकसी ने पाबू, राणकपुर, चित्तौड़ का संघ निकाला, उसके साथ श्री कडुवा प्रमुख ६ संघरी चले, जहां-जहां संघ गया, या ठहरा उन सब गांवों के चैत्यों को चैत्य-परिपाटी का स्तवन बनाया । श्री कडुवाशाह ने सिरोही में चत्यवासी के साथ वाद कर चैत्यवास का खण्डन किया। वहां से नाइलाई तक को यात्रा करके वापस अहमदाबाद आए और शाह कडुवा रूपपुर में ठहरे। सं० १५४७ में खम्भात में चतुर्मासक किया, वहां लगु(घु)शालिक तपा के साथ चर्चा हुई, जो श्री वन्तकृत हुण्डी से जान लेना, शाहश्री ने वहां से अन्यत्र विहार किया और "शाह रामा जो पहले उपाध्याय रामविमल था, वह स्तम्भतीर्य में प्रतिक्रमण में चार स्तुतियां कराता था, दूसरे भी शाह रामा के साथ प्रतिक्रमण करने वाले चार थुई करते थे, अब भी खम्भात में इसी प्रकार का मार्ग चलता है । अर्थात् कितनेक संवरी चार थई करते हैं, सिद्धान्तोक्त गणधरोक्त ३ थुई है, परन्तु पावश्यक मैं, अावश्यक चूणि में, प्रावश्यक वृत्ति में, ललितविस्तरा प्रादि ग्रन्यों में चतुथ स्तुति लिखो है। सं० १५४८ में पाटन में चतुर्मामक किया, वहां परी० थावर तथा दोसी समर्थ के बड़ेरों को प्रतिबोध दिया, पाटन में वु० धनराज परी० की का के दादे का बिम्ब प्रवेश किया, उस समय शाह कडुवा मन्दिर में दर्शनार्थ 2010_05 Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ४८६ प्राये उसी समय शाह देपा जो धर्मानुरागो और दीक्षा का प्रभिलाषी वहां श्राया था, शाहश्री को मन्दिर में पगडी उतारकर प्रतिमा के दर्शन करते हुए देखा, उसके सम्बन्ध में पूछने की इच्छा हुई, शाह चैत्यवन्दन कर मन्दिर से बाहर निकले, तब शाह देपा ने अपनी बनाई हुई १२ व्रत की चतुष्पदी कडुबाशाह के सामने रक्खी शाह उसे पढ़कर बहुत खुश हुए, बाद में देपाशाह ने मन्दिरजी में पगड़ी उतारने का कारण पूछा, तब श्री शाह ने शास्त्र के मावार से कहा - भगवान् के सामने शिरोवेष्टन शिर पर रखकर जाना एक प्रकार की आशातना है, इस विषय को विस्तृत चर्चा और शास्त्र के पाठ शाहश्री तेजपाल कृत "दशपदी" में देख लेना चाहिए, शाहू देपा ने शाहश्री के पास संवपन स्वीकार किया और उनके साथ विचरने लगा, परी० पूनाशाह के पास बहुत पढ़े और होशियार हुए थे । सं० १५४९ में शाह कडुवा नाडलाई में बहोरा टोला के घर चातुमसिक ठहरे, बहोरा टोला भी वैराग्यवान् और सद्गृहस्थ था । शाहश्री के पास छट्ट-छट्ट पारणा करने की प्रतिज्ञा की थी। शाहश्री के पास वहां तीन संवरी हुए, शाह थोरपाल, शाह धीरु, शाह लोम्पा एवं १४ संवरी शाहश्री के पास रहते थे । सं० १५५० में सादड़ी गए और दोसी संघराज के घर चातुर्मासक ठहरे, वहां पर खरतरों के साथ महावीर के कल्याणकों के सम्बन्ध में चर्चा हुई और कल्पसूत्र, यात्रापंचाशक, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति आदि शास्त्रों के प्रमाण से महावीर के पांच कल्याणक सिद्ध किये और गर्भापहार कल्याणक जिनवल्लभ ने स्थापित किया है, तथा स्त्री को पूजा करने का निषेध खरतरों ने किया है जिसका ज्ञातासूत्र के आधार से शाहश्री ने खण्डन किया । सादड़ी में दो संवरी हुए - शाह सिद्धर, शाह कृपा । सं० १५५१ में शाहश्री ने सिरोही में चातुर्मासक किया, वहां एक श्रावक संवरी हुमा, जिसका नाम शाह शवगरण था, वहां पर तपागच्छ वालों के साथ सामायिक ग्रहण करने में ईरिया पथिकी प्रतिक्रमरण पहले या पोछे इस विषय की चर्चा हुई। 2010_05 Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० ] [ पट्टावली-पराग सं० १५५२ में थराद में चतुर्मासक हुमा, उस समय पं० हरिकीर्ति भी वहीं थे। शाह कडुवा की व्याख्या सुनकर बहुत खुश हुए, थराद में बहुतेरे प्रादमियों को प्रतिबोध किया, वहां पर चार श्रावक शाहश्री के पास संवरी हुए। उनके नाम शाह लूणा, शाह मांगजी, शाह जसवन्त और शाह डाहा । थराद में शाहश्री के धर्म की श्रद्धा सारे नगर को हो गई । थराद निवासी श्रावक शाह राया (राजा) शाहश्री के पास बहुत पढ़ा कुछ दिन तक उनके पास रहा, थराद, निवासी शाह दूदा पंन्यास के पास बहुत पढ़ा। सं० १५५३ में, १५५४ में और १५५५ में जालोर प्रमुख नगरों में विचरे और अनेक तीर्थों की यात्रा की, वहां यति द्वारा प्रतिष्ठा की जाने सम्बन्धी तथा साधु के कृत्यों के विषय में चर्चा हुई, तथा पर्व के दिनों को छोड़कर शेष दिनों में पौषध करने के सम्बन्ध में पांचलिक तथा खरतरों के साथ चर्चा हुई और स्थानांग ज्ञातादि के आधार से पौषध करना प्रमाणित किया। सं० १५५६ में आगरा की तरफ गये, नागोर, मेड़ता, मागरा यावत् सर्वस्थानों में यात्राएँ की । सं० १५५८ में पाटन गए, वहाँ परीख पूना ने शाहश्री के पास वृद्धशाखीय ओसवाल ज्ञातीय माता-पिता रहित एक ग्यारह वर्ष के बच्चे को लाया, जिसका नाम श्रीवंत था। शाहश्री को कहा - इस कुमार को प्राप पढ़ाइये, शाहश्री ने कुमार का हाथ देखा और शिर हिलाते हुए कहाइसका प्रायुष्य तो कम है, परन्तु पढ़ने वाला इसकी बराबरी नहीं कर सकेगा। परीख पूना ने उसको अपने घर रक्खा और कुछ दिनों तक शाहश्री के पास पढ़ाया। ___सं० १५५६ में शाहश्री नवानगर गए, वहां चौमासा करके अनेक मनुष्यों को धर्म का मार्गः समझाया। सं० १५६० में राजनगर में चतुर्मासक किया, वहां पर पटेल संघा, पटेल हांसा संवरी बने। सं० १५६१ में सूरत में चातुर्मासक रहे, वहां शाह बेला, शाह जीवा, संवरी हुए। 2010_05 Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद [ ४६१ सं० १५६२ में वीरमगांव में डोसी तेजपाल के घर चतुर्मासक रहे, वहां शरीर में वेदना हुई परन्तु कुछ दिनों के बाद नीरोग हो गए। सं० १५६३ में महेसाने में डो० वासन के घर चतुर्मासक रहे । सं० १५६४ में कडुवाशाह पाटन गए, उस समय इनके पास जो संवरी थे उनके नाम नीचे लिखे अनुसार ये - १. शाह खीमा, २. शाह तेजा, ३. शाह कर्मसिंह, ४. शाह नाकर, ५. शाह राणा, ६. शाह कर्मण, ७. शाह शवसी, ८. शाह पुन्ना, ६. शाह धींगा, १०. शाह देपा, ११. शाह लीम्बा, १२ शाह सिधर, १३. शाह कबा, १४. शाह शबगरण, १५. शाह लुणा, १६. शाह मांगजी, १७. शाह जसवंत, १८. शाह डाहा, १९. शाह वेला, २०. शाह जीत्रा, २१. पटेल हांसा, २२. पटेल संघा, इनके अतिरिक्त शाह वीरा, १. शाह थीरपाल, २. शाह धीरु पे तीन नाडलाई में थे और शाह रामा कर्णवेधी १ खम्भात में थे। सं० १५६३ में थराद में पन्यास हरिकीर्ति दिवंगत हुए। उन दिनों शह रामा श्रावक वहां व्याख्यान वांचते थे, शाम को शाह दूदा भी व्याख्यान वांचते थे । एक दिन पाक्षिक दिन के सम्बन्ध में बात चली, रामा की बात पर शाह दूदा ने कहा - पन्यास तो यह कहते थे, तब रामा ने कहा - नहीं पन्यास यह नहीं कहते थे, इस मतभेद का निराकरण शाहश्री कडुवा को पूछकर करने का निश्चय हुआ, उस समय कडुवाशाह पाटन में थे, उनको पूछने के पहले ही कडुवाशाह के शरीर में फिर पीड़ा उत्पन्न हुई, उ होंने अपने आयुष्य को समाप्ति निकट समझकर शाह खीमा को बुलाकर अन्तिम शिक्षा देते हुए कहा - संवरी का मार्ग अच्छी तरह पालना। काडुबाशाह ने उन्हें निम्नलिखित अपनी मान्यताओं का पुनरुच्चारण करके उन्हें फिर सावचेत किया, उन्होंने कहा - १ जिन चैत्यों में पगड़ी उतार कर देव बन्दन करना । . २ प्रतिष्ठा करना भावक का कर्तव्य हैं, यति का नहीं। ___ 2010_05 Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ ] [पट्टावलो-पराग ३ पाक्षिक सिद्धान्त में पूर्णिमा को नामा है, परन्तु आचरणा से चतुर्दशी को करते हैं। ४ पर्युषणा युगप्रधान कालकाचार्य की आचरणा से चतुर्थी को करते हैं । ५ श्रावक श्राविका के लिए मुंहपत्ति चरवला रखना शास्त्रानुसार है । ६ सामायिक वार-वार करना चाहिए, ऐसा आवश्यक में लेख है । ७ पर्व विना भी पौषध करना चाहिए, ऐसा ज्ञातासूत्र में प्रमाण है । ८ द्विदल छोड़ना चाहिए, ऐसा कल्पभाष्यादि में प्रमाण है। ६ मालारोपण उपधान का निषेध । १० स्थापनाचार्य रखना सिद्धान्तोक्त है । ११ स्तुति तीन करना, आवश्यक में लेख है । १२ वासी विदल खाना निषेध है, योगशास्त्रानुसार । १३ पौषध त्रिविधाहार चतुर्विवाहार करने का प्रावश्यक चूणि में विधान है। १४ सिद्धान्तानुसार पंचांगी मान्य है। १५ प्रथम सामायिक पीछे इरियावही करने का आवश्यक चूरिण में लेख है । १६ वीर के पांच कल्याणक मानना कल्पादिक में प्रमाण है। १७ दूसरा वन्दन बैठे देना समवायांग वृत्ति में लेख है। १८ साधु के कृत्यों का विचार दशवकालिक प्राचारांग आदि में है। १६ श्रावण दो होने पर पर्युषणा दूसरे श्रावण में और कार्तिक दो होने पर चातुर्मासक समाप्ति दूसरे कार्तिक में करना, ऐसा चूणि आदि में है। २० स्त्री को पौषध करने का प्रमाण उपासकदशा में और पूजा करने का ज्ञातासूत्र में है। २१ वर्तमानकाल में संघपटक आदि के आधार से दसवां आश्चर्य चल रहा है । प्रतिक्रमण विधि प्रमुख अनेक बातों का खुलासा कर अपने पद पर शाह खीमा को स्थापित किया । शाह खीमा आदि संवरियों ने शाहश्री को मोषध के लिए कहा, इस पर शाहश्री ने कहा - मेरे लिए औषध "श्री अरि ___ 2010_05 For Private & Personal Use only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६३ - हन्त" का नाम है, यह कहकर उन्होंने सीमन्धर स्वामी को साक्षी से त्रिविधाहार का अनशन कर दिया, दूसरे १७ संवरियों ने भी अनशन शाह श्री कडुवा के पास किये, जिनके नाम ये हैं - शाह तेजा, शाह कर्मसी, शाह नाकर, शाह राणा, शाह कर्मण, शाह डाहा और शाह पूना, अन्य दस संवरियों ने शत्रुञ्जय तीर्थ पर जाकर अनशन किये, उनके नाम - शाह शवसो, शाह धींगा, शाह देपा, शाह लीम्बा, शाह सीधर, शाह शवगण, शाह लूणा, शाह मांगजी, शाह जसवन्त और पटेल हांसा शाह श्री कडवा अरिहन्त, सिद्ध का जाप करते २१ वें दिन दिवंगत हुए, तथा अन्य संवरी अनशन करने वालों में से कोई महीने में, कोई ३५ दिन में स्वर्ग प्राप्त हुए। शाह श्री कडवा के लिए मांडवो बनाकर चन्दन प्रमुख पदार्थो से देह का अग्निसंस्कार किया गया। शाह श्रो खीमा के मुख से श्लोक सुनकर अग्निसंस्कार के समय पाने वाले सब अपने-अपने स्थान पहुंचे। शाह श्री कडुवा १६ वर्ष गृहस्थ रूप में रहे, १० वर्ष सामान्य संवरी के रूप में रहे, ४० वर्ष तक अपने समवाय के पट्टधर के रूप में रहकर ६६ वर्ष की उम्र में परलोकवासी हुए। शाह श्री कडुवा के बनाये हुए गीत, स्तवन, साधु-वन्दना प्रमुख ग्रन्थों का श्लोक प्रमाण ६ हजार के लगभग पाटन में है । थराद से शाह रामा, शाह दूदा, प्रमुख कडुवाशाह को पाक्षिकतिथि के विषय में पूछने पा रहे थे, तब रास्ते में सुना कि शाहश्री दिवंगत हो गए हैं, तब यह बात विवादास्पद हो रही, शाह रामा पाठवीं पाक्षिक जानकर कहने लगे, शाह दूदा और खीमा की एक बात मिली, इसलिए वर्तमान में थराद में दो उपाश्रय हैं, उनमें शाह रामा कहते हैं - शाह कडमा यही कहते थे कि जैसा मैं कहता है, यह सब पंचम पारे का प्रभाव है। कभी-कभी अष्टमी और पाक्षिक का दिन जुदा-जुदा आता है, शेष सभी बातें शा० कडुमा के समवाय में समान हैं। 2010_05 Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ ] [ पट्टावलो-पराग २. शा० खीमा चरित्र : पाटन राजकावाडा में पोरवाल ज्ञातीय शा० कर्मचन्द की भार्या कर्मादे की कोख से शा० खीमा का जन्म हुआ और १६वें वर्ष में वह शा० कडुप्रा के पास संवरी बने थे। २४ वर्ष सामान्य संवरी रहे, परी० पूना के घर शाह श्रीवंत बहुत पढ़े। परी० पूना ने प्रतिदिन एक कोडी ब्राह्मण को देकर उसके पास न्यायशास्त्र पढ़ा। थोड़े ही समय में विद्वान् बना। शा० कडुआ के स्वर्गवास के बाद शाह खीमा के शरीर में बवासीर की बीमारी हुई, जिससे वे विहार भी नहीं कर सकते थे और संवरी के अभाव में श्रावक शिथिल होने लगे थे। इसी समय दान संवत् १५६८ में थराद में पौषधशाला स्थापित हुई। कोई पौषधशाला में जाते, कोई संवरियों के स्थान पर, परन्तु सर्वत्र सामाचारी कडुमा की चलती। वर्तमान में भी इसी प्रकार चलता है। शाह रामा के पट्टधर शाह राघव और दूसरे उपाश्रय में जाने वाले शाह दूदा के उत्तराधिकारी शाह ब्रह्मा हुए। शाह खोमा १६ वर्ष तक गृहस्थ रूप में रहे, २४ वर्ष तक सामान्य संवरी के रूप में रहे भोर सात वर्ष शा० कडुपा के पट्टधर रह कर ४७ वर्ष की उम्र में शाह वीरा को अपने पद पर स्थापन कर सं० १५७१ में पाटन में देवंगत हुए। ३. शाह वीरा चरित्र : नाडलाई गांव में श्रीश्रीमाली ज्ञातीय वृद्धशाला में दोसी कुमारपाल को भार्या कोडमदे की कोख से शाह वीरा का जन्म हुआ था। शाह वीरा श्री शा० कडुमा के पास संवरी बने थे। शाह श्री खीमा ने श्रीवन्त शाह को पढ़ा-लिखा और समझदार जानकर भण्डार को पोथियां उन्हे सोंपो थी, वे पोथियां इस समय लीम्बा महेता के घर पर हैं। जब शाह खीमा ने काल किया उस समय शाह वीरा सिरोही में थे। 2010_05 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६५ एक समय प० पूना पाटन में व्याख्यान दे रहे थे तब एक श्रावक बहुत दिनों से व्याख्यान में पाया। उसको पूना ने उपालम्भ दिया और व्याख्यान आगे चलाया । जिस श्रावक को पूना ने उपालम्भ दिया था उसने सोचा कि पूना को पोथो का भण्डार न सम्भलाया इसलिए वह हृदय में जलता है। पोथियां लीम्बा कसुम्बीया के यहां से अपने घर मंगाई। बात बढ़ गई, श्रीवन्त को कहा- चलो दूसरे समवाय के पास जाकर इसका न्याय कराएं । शाह श्रीवत ने कहा - शाह श्री कडुआ के तथा शाह श्री खीमा के सिद्धान्तोक्त वचन सुनकर होनाचारो को नमें वे हीन । इतना पढ़े लिखे आदमी को हीनाचारी को दृष्टि से भी देखना न चाहिए, इत्यादि बहुत चर्चा हुई। शाह श्रीवन्त ने हीनाचारियों का खण्डन किया तब परोख पूना ने हीनाचारी का समर्थन किया, इस प्रसंग में शाह श्रीवन्त ने "गुरु तत्त्वनिर्णय हुण्डो' रूप ग्रन्थ बनाया जो इस समय हेबतपुर में उपाश्रय के भण्डार में ४४ पत्र का ग्रन्थ रहा हुप्रा है, उस ग्रन्थ के अनुसार साधु का मार्ग देखना, परन्तु हीनाचारी को नमन नहीं करना । बाद में परी० पूना ने शाह श्रीवन्त को कहा - मैंने तुमको पढ़ाया, तैयार किया और मेरा ही वचन न माने यह ठीक नहीं हैं, मेरो बात का परसमवाय में आकर समर्थन करना चाहिए। श्रीवन्त ने कहा - पाप कहो वैसा करने को तैयार हूँ, परन्तु ऐसा करने से अपना ही धर्म ठहरेगा नहीं, वास्तव में वीतराग के मार्ग में रहकर १०० वर्ष तक सूली पर रहना अच्छा, परन्तु धर्मबुद्धि से अगीतार्थ का संग करना अच्छा नहीं, इस पर परीख पूना ने कहा - अपन दोनों खम्भात शाह रामा कर्णवेधी को पत्र लिखे और वे जो निर्णय दें, उसे मान्य करे, शाह श्रीवन्त ने शाह पूना का उक्त प्रस्ताव स्वीकार किया और रामा को खम्भात पत्र लिखा। शाह रामा ने शास्त्राधार से उत्तर दिया, परन्तु परी० पूना ने उस बात पर श्रद्धा नहीं की, इस सम्बन्ध में आए हुए शाह रामा के १० पत्र इस समय "हैबतपुर भण्डार में पड़े हुए है ।" शाह रामा बड़े विद्वान् थे, परन्तु परी० पूना ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया और उल्टे गुस्से में आकर शाह श्रीवात के पास अपनी जो-जो वस्तु थी वह भी अपने कब्जे में ले ली, बहुत मनुष्यों को पक्ष में करके ७०० घर लेकर पौषधशाला में चला गया, परन्तु भण्डार नहीं ले ___ 2010_05 Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ ] [ पट्टावली-पराग सका, वहां जाने के बाद परी० पूना मूत्र कृच्छ रोग से एक वर्ष के बाद मरण को प्राप्त हुए। वहां से श्रीवन्त निकलकर अहमदाबाद गए, उस समय वहां दोसी देघर की डेहली में सर्व श्रावक इकट्ठे हुए थे। शाह खीमा के देवगत होने तथा परीख० पूना के पौषधशाला जाने सम्बन्धी विचार कर रहे थे। शाह श्रोवन्त ने क्या किया होगा? इस विषय को भी विचारणा हो रही थी, इतने में शाह श्रीवन्त वहां पहुँचे । फटे वस्त्र प्रादि देखकर श्रीवन्त को पहचाना तक नहीं और पूछा कि कहा से पाए ? उत्तर दिया - "पाटन" से आता हूँ, यह सुनकर पूछा गया - परी० पूना का पौषाल गमन सुना जाता है, क्या सच हैं ? उसने कहा - हां! आगे पूछा गया - शाह श्रीवन्त की कुछ खबर जानते हो, उसने कहा - हां जानता हूँ, सभा ने पूछा कहो वे कैसे हैं; उसने कहा - जिसको आप पूछते हैं, वह आपके पास है, यह सुनकर सब खुश हुए और प्रानन्द से मिले तथा श्रीवन्त को दूसरे कपड़े पहनाए । सर्व धार्मिक कहने लगे - अगर तुम हो तो सब कुछ है । शाह श्रीवन्त वहां रहा और वहां रहते हुए सुख शान्ति के निमित्त श्री ऋषभदेव का विवाहला ढाल ४४ में जोड़ा, जो सब गच्छों में प्रसिद्ध है। सं० १५७२ में पार्श्वचन्द्र नागौरी तपा में से निकला और अपना नया मत प्रचलित करके मलीन वेश में विचरता हुअा लोगों को अपने मत में खींचने लगा, जहां धर्मार्थी उपदेशक का योग नहीं वहां लोगों को अपने मत में जोड़ता था। वीरमगांव प्रमुख अनेक स्थान पार्श्वचन्द्र ने ले लिये थे, आंचलिक तथा खरतर भी क्रिया उद्धार करके जहां संवरी श्रावक का योग नहीं था, वहां उनको अपने समाज में मिलाते थे, इस समय भी कितने ही गांवों में संवरियों के विना भी शाह श्री कडुवा की सामाचारी रख रहे हैं। शाह श्रीवन्त जो देवर की देहली में रहे हुए हैं, वहीं इनकी ख्याति सुनकर अनेक ब्राह्मण शाह श्रीवन्त के पास प्राए और इनके साथ प्रमाणवाद छन्दशास्त्र आदि के सम्बन्ध में वार्तालाप हुा । ब्राह्मणों ने कहा - 2010_05 Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ४६७ तुम अपनी रचनाएँ हमको दिखायो । शाह श्रीवन्त ने अपने काव्य उनको दिखाए, देखकर ब्राह्मण बोले, वरिपक में ऐसी शक्ति नहीं होती, यह तो तब सच्च माने जो इस डेहली में रहे हुए पलंग का वर्णन करके हेमको सुनायो । तब शाह श्रीवन्त ने उस पलंग का धार्मिक दृष्टि से वर्णन किया, जिसे सुनकर ब्राह्मण बहुत ही खुश हुए, उन्होंने कहा - हम ब्राह्मण हैं, फिर भी हमसे इतना जल्दो काव्य बनना कठिन हैं। ____ शाह श्रीवन्त सर्वत्र विचरते, परन्तु शाह घोरा; शाह सरपति, जो बादशाह के वजीरशाह श्री कडुवा के समवायो थे उन्होंने शाह श्रीवन्त को बादशाह से मिलाया, वहां लहुग्रा व्यास के साथ दो दिन चर्चा हुई, एक दिन लहुप्रा व्यास ने बादशाद से कहा - श्रीवन्त आदे के एक टुकड़े में अनन्त जीव बताता है, इस पर से बादशाह ने श्रीवन्त को अपने पास बुलाया, नौकर बुलाने गए । श्रीवन्त ने नौकर से कहा मैं अभी आता हूँ, पर यह तो कहो कि क्या काम है ? सेवक ने कहा - मैं नहीं जानता, पर लहुआ व्यास अदरख का टुकड़ा लेकर पाया है और वह बुलाता हैं । शाह श्रीवन्त बादशाह की तरफ चला और उसकी दृष्टि मर्यादा में एक गाय को देखकर श्रीवन्त उसकी पूंछ देखने लगा। बादशाह के पास पहुंचने पर श्रीवन्त को बादशाह ने पूछा, श्रीवन्त गाप की पूछ में क्या देखा ? श्रीवन्त ने कहा - लहुप्रा व्यास गाय के पूछ में ३३ करोड़ देवता बताया है, उनको देखता था । बादशाह ने पूछा – क्यों लहुप्रा क्या बात है ? लहुप्रा ने कहा - जो हां हमारे शास्त्र में ऐसा लिखा है और श्रीवन्त ऐसा कहता है - प्रादे के टुकड़े में अनन्त जोव होते हैं, इस पर श्रीवन्त ने कहा - जी हां, हमारे शास्त्र में ऐसा लिखा है । जो लहुप्रा व्यास गाय की पूंछ में देव दिखाये तो मैं जीव दिखाउँ । व्यास ने कहा - देव दीखते नहीं हैं । शास्त्र ही प्रमाण है, तब शाह श्रीवन्त ने मादा खंड़ बोया, उसके खंड - खंड में सजीवता प्रमाणित की। शाह श्रीवन्त चांपानेर के सुलतान के पास भी रहते थे, उस समय सं० १५७६ में खम्भात के पास कंसारी गांव में कडुवामति के मन्दिर में जो पर समवाय का आदमी भो दर्शनार्थ पाए वह गगड़ी उतार कर जिनवन्दन ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ 1 [पट्टावली-पराग - करें अन्यथा नहीं, खंभात में शा० धनुवा और मनुवा राज्यमान्य पुरुष हैं, उनमें से मनुप्रा देववन्दन करने आए हैं, यदि वे अपने मन्दिर में पगड़ी नहीं उतारेंगे तो नियम टूट जायगा, यह सोचकर श्रावक मिलकर मन्दिर पाए और मनुमा को कहा - "हम पर समवायी हैं, क्यों पगड़ी उतारेंगे ." मनुप्रा का विरोध होते हुए भी पगड़ी उतारी गई, इस पर विरोधियों ने मनुमा के भाई को कहा - कंसारी के कडुअामतियों ने तुम्हारे भाई की पगड़ी उतार दी, यह सुनकर मनुप्रा का भाई उत्तेजित होकर वहां पाया, अपना भाई सन्मुख मिला और पूछा भाई ? क्या मामला था ? जब कि तुम्हारी पगड़ी उतार दी गई। भाई ने कहा - नहीं मैं स्वयं उतार रहा था उस समय उन्होंने हाथ लगाया, मनुप्रा के भाई का क्रोध शान्त हो गया। बाद में यथार्थ जानकर मनुप्रा ने कंसारी का महाजन इकट्ठा किया और बंधा लगाया कि कंसारी के कडुग्रामतिको कोई कुछ भी चीज न दें, यह बात सुनकर चांपानेर शाह गोरा के पास कंसारी के कडुआमति के श्रावक गए, साधर्मी जानकर उनसे गोरा मिले और आने का कारण पूछा । जाने वालों ने कहा - हम खम्भात के पास के कंसारी गांव से आये हैं, शाह गोरा ने पूछा – कंसारी में दोसी छांछा, दोसीपासा, सहिसा, आदि समस्त सकुशल हैं ? उत्तर में जाने वालों ने कहा - वे सब आपके सामने खड़े हैं, तब दूसरी वार मिले, देवपूजा की और भोजन के बाद पूछा – इतनी दूर से कैसे पाना हुअा ? इस पर सब बात कही, जिसे सुनकर शाह गोरा सुलतान के पास जाके स्तम्भतीर्थ में महाजन पर बादशाह का फर्मान भिजवाया सर्व महाराज मिलकर चांपानेर पहुँचे और शाह गोरा को मिले और कंसारी के महाजन के साथ समाधान कर सकुशल घर आये । शाह गोरा ने सुलतान की प्राज्ञा लेकर, शत्रुञ्जय का संघ निकाला । शाह श्रीवन्त भी शत्रुञ्जय गये, शत्रुञ्जय की यात्रा कर वापस तलहटी पाए, तब उनके पेट में दर्द होने लगा और शाह श्रीवन्त अरिहंत, सिद्ध जपते हुए ३३ वर्ष की उम्र में दिवंगत हुए। ___ बाद में शाह श्रीवीरा गुजरात गए, जहां संवरी का योग नहीं था, वहां कुछ दिन तक श्रावक ने भी व्याख्यान वांचा । सं० १५८१ में शाह रामा थराद में दिवंगत हुए तब उसके पट्टधर शाह राघव बैठे। ____ 2010_05 Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] T४९ - __ "सं० १५८५ में ऋषिमति की उत्पत्ति हुई, श्री प्रानन्दविमलसूरि क्रियोद्धार कर सर्वत्र फिरने लगे, धर्मार्थी के योग के विना कडुअामति के सर्वक्षेत्रों को अपनी तरफ खींच लिया, जहां कहीं पढ़े लिखे श्रावक थे वहां लोग ठिकाने रहे।" सं० १५८६ में शाह श्रीराग ने स्तम्भतीर्थ के पास कसारी में दोसो पासा, सहेसा के श्री शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा की। सं० १५८८ में संघवी श्रीदत्त ने आबु, गौडी, चित्तौड़, कुम्भलमेर प्रमुख तीर्थो का संघ निकाला। शाह वीरा सं० १५६० अहमदाबाद में चतुर्मासक रहे, वहां शाह जीवराज को संवरी किया, दोसी मंगल को प्रतिबोध देकर पूनमिया से कडुवामति किया। सं० १५९१ में पाटण में चौमासा किया, शाह रामा ने भी स्तम्भतीर्थ प्रमुख से मनुष्यों को ठिकाने रक्खा । ___सं० १५९२ में शाह रामा कर्णवेधी ने "श्री वोर विवाहला" और "लुम्पक वृद्ध हुँडी" जिसके पाने ३२६ और अधिकार ५७४ हैं बनाई, इस समय राजनगर के भण्डार में वह प्रति रक्खी हुई है।" शा० वीरा सं० १५६३ में राधनपुर, थराद प्रमुख सर्वत्र विचरे और "सं० १५९४ में शाह रामा कर्णवेधी दिवंगत हुए।" सं० १५६४ में सिरोही में चातुर्मास किया। सं० १५९५ में सादड़ी की तरफ विहार किया और नाडुलाई आये। वृद्धावस्था के कारण अब विहार भी नहीं कर सकते थे। सं० १६०१ में नाडुलाई में शरीर में बाधा हुई । यह वर्ष कठिन था अन्न से और रोग से । दूसरे संवरी शा० जीवराज प्रमुख सब पास में थे। शाह श्री वीरा के औषधार्थ किसी चीज की जरूरत थी, वह श्रावक के घर होते हुए भी मांगने पर नहीं मिली। प्रौषध करना जल्दी था प्रतः शाह वीरा के पास की चार छापरी में से दो छापरी श्रावक के हाय में दी और कहा - शाह भारणा के घर अमुक वस्तु है वह ___ 2010_05 Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० ] [ पट्टावली-पराग लाभो, भारषा ने वारणा लेकर चीज तुरन्त दे दी । वह वस्तु शाहश्रीं के पास प्रायी, शाही ने औषध प्रयोग किया। बाद में शाह श्री वीरा ने शाह श्री जीवराज को कहा - देख लिया न, संसार में सब स्वार्थी हैं, इसलिए प्राज से तुम संख्या मात्र ममता-रहित होकर द्रव्य रक्खो, श्रामन्त्रण से अथवा विना श्रमिन्त्ररण से भोजन करने जाम्रो, हाथ में मुद्रिका पहनो, दो-चार वस्त्र ज्यादा रक्खो, समय विषम है, अपन तो द्वादशव्रतधारी श्रावक हैं, जितना भी संक्षेप करे उतना अच्छा, इनके अतिरिक्त दूसरी भी अनेक प्रकार की शिक्षा दी और शाह श्री वीरा १६०१ में सात दिन का अनशन पालकर दिवंगत हुए । साह वीस १४ वर्ष गृहस्थावस्था में रहे, २५ वर्ष सामान्य संवरी के रूप में रहे, ३० वर्ष पट्टधर रहकर ६६ वर्ष की उम्र में शाह जीवराज को अपने पद पर स्थापन कर स्वर्गवासी हुए । ४. शा० वीरा के पट्टधर शाह जीवराज : जीवराज का जन्म ब्रहमदाबाद में परीख जगपाल की भार्या बाई सौभी की कोख से सं० १५७८ में हुआ था, संवत् १५६० में शा० वीरा के पास संबरी बने, १२ वर्ष गृहस्थ रूप में, ११ वर्ष सामान्य संवरीरूप में संवरी रहने के पश्चात् श्राप पट्टधर बने थे । जीवराज बड़े यशस्वी थे । प्रापने खम्भात, ग्रहमदाबाद, पाटन, राधनपुर, मोरवाड़ा, थराद प्रमुख अनेक स्थलों में मन्दिर तथा उपाश्रय करवाये, स्थान-स्थान पर श्रावकों को स्थिर रक्खा । I सं० १६०३ में थराद में शाह राघव दिवंगत हुए और उनके पट्टधर संवत् १६०४ में शाह जायसा ( सी ? ) बैठे । शाह नरपति को संवरी बनाया, शाह साजन को संवरी किया । सं० १६०३ में ब्रह्मामत की उत्पत्ति हुई सो लिखते हैं : शा० जीवराज राधनपुर में ठहरे हुए थे, उस समय राजनगर में पाश्चन्द्र ने विजयदेव को पद दिया जिससे ऋषि ब्रह्मा मन में नाराज 2010_05 Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ १०१ हुए, दरमियान पार्ववन्द्र हेबतपुर में उपाश्रय बनाने वाले थे। उनका अभिप्राय कडुग्रामतियों को अपनी तरफ खींचने का था, परन्तु महेता प्रानन्द ने सोचा कि हेबतपुर में उपाश्रय हो गया तो हमारे साधर्मी शिथिल बन जायेंगे, इस कारण से ब्रह्मा ऋषि से मेहता प्रानन्द ने कहा- आप चिन्तामरिण तक पढ़े हुए पण्डित होते हुए भी प्रापको पद नहीं, यह क्या बात है ?, ब्रह्मा ऋषि ने कहा- आप भी तो उनके मुकाबिले के हैं, आप अपना नया गच्छ ही चला दो, आपको भी पूर्णिमा को पाक्षिक करने की श्रद्धा तो है ही ? ब्रह्मा ऋषि ने कहा - तुम्हारे कहना सत्य है, शास्त्र के प्राधार से मैं पूर्णिमा को पाक्षिक स्थापित कर सकता हूँ, परन्तु मेरे पास श्रावक नहीं हैं, इस पर मेहता प्रानन्द ने कहा - मैं आपका श्रावक, यह कहकर मानन्द ने कहा - इसके लिए जो भी खर्च खाते की जरूरत हुई तो मैं करूंगा। ऋषि ब्रहा ने नया गच्छ कायम किया, म० प्रानन्द के प्रेम से उन्होंने नागिल सुमति की चतुष्पदी जोड़कर प्रानन्द को दो। पूर्णिमा को पाक्षिक कायम किया। पावचन्द्र जो उपाश्रय करवाने वाले थे, वह रुक गया, वहां के गृहस्थ ब्रह्मा ऋषि के गच्छ में मिल गए थे इधर राधनपुर में शाह श्री जीवराज ने सुना कि मेहता प्रानन्द ब्रह्मामति हो गया, इससे शाह जीवराज ने मेहता प्र.नन्द को पत्र लिखकर पूछा कि - हमने ऐसी बातें सुनी हैं सो क्या बात है ? इस पर मेहता प्रानन्द ने ऋषि ब्रह्मा के पास प्राकर "मिच्छामि दुक्कडं' देकर बोला - मैंने प्रयोजन-विशेष से तुमको साथ दिया था सो तुम्हारा कार्य सिद्ध हो गया है, अब मैं अपने उपाश्रय जाऊंगा। बाद में प्रानन्द ने शाह श्री जीवराज को पत्र द्वारा अपनी सर्व हकीकत लिखी जिसे पढ़कर शह जीवराज बहुत खुश हुए। शाह श्री जीवराज बड़े प्रभावक ये। उन्होंने सं० १६०६ का चतुर्मासक पाटन में किया और वहीं से प्राबु प्रमुख की यात्रा की। सं० १६१६ में शाह श्री जोवराज ने थराद में चतुर्मास किया बहुत उत्सव हुए, मासखमण प्रमुख तप हुए और शाह डुगर को संवरी बनाया। सं० १६१७ में शा० जीवराज राधनपुर चतुर्मासक रहे थे, दरयियान 2010_05 Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ ] [ पट्टावलो-पराग खंभात में धर्मसागर के साथ सो० पौमसो ठा. मेरु ने मास छह तक चर्चा की, प्रतिदिन सो० पौमसो, सो० वस्तुपाल, सो० रीढ़ा, सो• लाला प्रमुख समवाय ठा० मेरू के साथ जाकर यति की प्रतिष्ठा-सम्बन्धी चर्चा करते थे, परन्तु शास्त्राधार से यति की प्रतिष्ठा प्रमाणित नहीं हुई, किन्तु श्रावक की प्रतिष्ठा सिद्ध हुई। सं० १६१८ में शाह श्री जोवराज ने पाटन में चतुर्मास किया, वहां मन्दिर प्रमुख बहुत धर्मकार्य हुए। सं० १.६१६ में राजनगर में चतुर्मासक किया। सं० १६२० में खम्भात में चतुर्मासक किया, वहां बहोरा जिनदास के मन्दिर की प्रतिष्ठा की और दोसी थावर द्वारा घृतपटी में मन्दिर करवाया और वहां से अनेक मनुष्यों के साथ आबु प्रमुख को यात्राएं की। सं० १६२१ में थराद पाकर शाहश्री ने एक श्रावक को यावज्जोव तीन द्रव्य के उपरान्त का प्रत्याख्यान कराया। ___सं० १६२२ में मोरवाड़ा प्रमुख स्थानों में विचरे । सं० १६२३ में पाटन में चतुर्मासक किया और वहां शा० तेजपाल को और थराद में शा० नरपति तथा चोपसीशाह को संवरी किया। तथा संघवी संग्राम ने पाबु प्रमुख का संघ निकाला। सं० १६२५ में खम्भात में शाह रत्नपाल को संवरी किया । सं० १६२६ में राजनगर में शाह श्रीवन्त तथा शा० वजूड को संवरी किया और शाह काशो प्रमुख को शाहपुरा में प्रतिबोध किया। सं० १६२८ में शाह नरपति और शाह चोकसी के भाई जिनदास को संवरी किया। सं० १६३० में शाह श्री जीवराज राधनपुर में चतुर्मासक रहे और शाह साजन राजनगर में, वहां प्राजमखांन ने विरोध किया, उसने मनुष्य मरवाकर लटकाया, उसे देखकर शाह साजन विरक्त भाव से सोचते हैं देखो जीवधर्म के विना इस प्रकार की पीड़ा पाते हैं, परन्तु अपनी इच्छा से कोई कष्ट नहीं करता और मनुष्य जन्म निरर्थक गंवाते हैं, यह सोचकर शाह 2010_05 Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ- परिच्छेद ] [ ५०३ सज्जन ते चतुर्दशी का उत्तर वाररणा किया और पाक्षिक के दिन पौषध कर काल के देव वन्दन के बाद श्री चन्द्रप्रभ जिन की साख से जावज्जीवाए तिविहाहार का प्रत्याख्यान किया । दूसरे दिन पारणे के समय पारणा न करने से लोगों ने जाना आज भी उपवास होगा, बाद में शाह साजन ने स्वयं बात कही " मैंने तो अनशन किया है ।" दोसी मंगल, दोसी सोना, शाह धना प्रमुख संघ ने विनती को, कि शाहजी यह कार्य बड़ा दुष्कर है, वास्ते आठ, अथवा १५, अथवा तो मासखमरण करो पर अनशन न करो, इस पर शाह साजन ने कहा- मैंने यावज्जीव का प्रत्याख्यान कर लिया है, तब संघ ने राधनपुर शाह जीवराज को पत्र लिखकर जल्दी बुलाया, शाह जीवराज १७ वें उपवास के दिन प्राए, उत्सव बहुत हुए; ६१ दिस अनशन पालकर शाह साजन दिवंगत हुए, तब संघ ने मांडवी प्रमुख उत्सव करके अग्निसंस्कार किया और संघ ने असारउग्रा की धर्मसी पटेल की वाडो में स्तूप बनवाया, आज भी वह मौजूद है । तथा मेहता जयचन्द को जो मेहता के सन्तानीय थे उनको काबिलखान ने जेल में रक्खा था, उन्हें अहमदाबाद से दो० मंगल, प० रतना, दो० सोना, शाह धना ने पाटन जाकर तुरन्त मुक्त करवाया । परी० कीका को शाह नरपति ने पढ़ाया, शा० नरपति बड़े पण्डित थे, अनेक विद्याएँ पढ़े थे । - सं० १६३१ में शाह नरपति दिवंगत हुए । सं० १६३५ में शाह चोपसी दिवंगत हुए । सं० १६३६ में शाह तेजपाल ने थराद में राजमल को संवरी किया । सं० १६३८ में शाह गोवाल, शाह देवजी प्रमुख को प्रतिबोध किया । सं० १६४२ में पाटन से परी० कीका ने शाबु की यात्रा निकाली, साथ में शाह जीवराज प्रमुख संवरी थे, थराद से संघवी सीहा ने श्राबु का संघ निकाला, दोनों संघ इकट्ठे मिले, थराद से शाह जैसा प्रादि अनेक संवरी शाह जीवराज को मिले, श्राबु ऊपरशाह मांडन ने अनशन किया, उत्सव हुए, जिसकी हकीकत शाह मांडन के रास से जानना । शाह मांडन ५६ वें जिन दिवंगत हुए । 2010_05 Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ ] [ पट्टावली-पराग सं० १६४३ में दोसी ममजी ने प्रतिष्ठा की, शाह जीवराज ने प्रतिमा प्रतिष्ठा की, बाद में खरतर शाह सोमजी शवा ने संघ निकाला, उन्होंने बहुत प्राग्रह करके शाहश्री को संघ के साथ लिया, शाहश्री अपने संघ के साथ खंभात के सोनी परखा प्रमुख राजनगर के भी अनेक मनुष्यों के साथ सब संवरियों को लेकर सिद्धाचल की यात्रा के लिए गए, वहां अनेक उत्सव हुए, पूजा, स्नानादि हुए, साह रतनपाल ने वहां पर अवन्ति सुकुमाल का नया रास बनाया और गाकर सुनाया, यात्रा करके सकुशल राजनगर आए। सं० १६४४ में शाहश्री के शरीर में रोग उत्पन्न हुआ, समस्त संघ मिला और शाहश्री ने अपना प्रायुष्य निकट जानकर शाह तेजपाल को अपने पद पर स्थापन किया, संवरियों को अनेक प्रकार से शिक्षा दी, तोन दिन तक अनशन पालकर अरिहन्त सिद्ध जपते हुए जीवराजशाह दिवंगत हुए। शाह जीवराज १२ वर्ष गृहस्थ रूप में, ११ वर्ष सामान्य संवरो के रूप में और ४३ वर्ष पट्टधर के रूप में रहकर ६६ वर्ष का आयुष्य पूर्णकर स्वर्गवासी हुए। सामियों ने बड़े ठाट के साथ देहसंस्कार किया, सारे नगर में दो दिन तक अमारि रही । ५. जीवराज के पट्टधर शाह तेजपाल का चरित्र : पाटन के निवासी श्रीश्रीमालो दोसो रायचन्द की भार्या कनकादे की कोख से शा० तेजपाल का जन्म हुआ। शा० तेजपाल जीवराज के वचन से संवरी हुए थे। १३ वर्ष गृहस्थ रूप में, २१ वर्ष सामान्य संबरी के रूप में और दो वर्ष पट्टोधर रहे। शाह तेजपाल बड़े विद्वान् थे। आपने ' महावीरं नमस्कृत्य" तथा "कल्याणकारणो धर्मः' इत्यादि 'सावचूरिक स्तोत्र' बनाए थे। शाह राजमल तथा चोथा को पढ़ाया और चोथा को थराद का आदेश दिया। दूसरे संवरियों को भी विद्या पढ़ा कर तैयार किया। आपको उदर-व्याधि की पीड़ा रहा करती थी। ___ 2010_05 For Private &Personal Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेव ] [ ५०५ सं० १६४५ में शाह श्रीवंत ने भी अपने स्तोत्र बनाए और शाह श्रीवंत सं० १६४६ में दिवंगत हुए। ___ शाह श्री तेजपाल ने पाटन में चातुर्मासक किया, वहां शरीर में विशेष प्रकार की बाधा उत्पन्न हुई। शाह रत्नपाल को पद पर स्थापन करके ३६ वर्ष का प्रायुष्य पूर्ण कर स्वर्गवासी हुए। ६. तेजपाल के पट्टधर शाह श्री रत्नपाल का चरित्र : शाह रत्नपाल खम्भात के समीपवर्ती कंसारी गांव के रहने वाले श्रीश्रीमाली वृद्धशाखीय दोसीवस्ता की भार्या रीढ़ी की कोख से जन्मे थे। शाह श्री जीवराज के वचन से आप संवरी बने थे, सूक्ष्म विचार में भाप बहुत प्रवीण थे। आपने बहुत ही स्वतन-स्तुतियां रची हैं, चौबीस तीर्थङ्कर की, १३ काठिया की भास आदि प्रसिद्ध हैं। सं० १६४७ में खम्भात में चातुर्मास्य कर वहां बाई सहजलदे ने शाही की वाणी सुनकर तिविहार अनशन किया, उस समय हरमज से शाह सोनी सोमसी पाए और उन्होंने बहुत उत्सव किया, अनशन की बड़ी शोभा हुई। शा० श्री रत्नपाल के उपदेश से बाई को प्रतिदिन निर्यामरणा होती, ५६ दिन अनशन पालकर वह दिवंगत हुई। श्रावकों ने मंडपी पूर्वक देह-संस्कार किया। सं० १६४७ में शाह जैसा थराद में दिवंगत हुए। उसके पट्ट पर शाह खेतश्री बैठे। सं० १६४८ में राजनगर में चतुर्मासक किया। सं० १६४८ में शाह जिनदास की धर्मसागर के साथ चर्चा हुई। वहां धर्मसागर ने जिनदास को कहा - तुम अपने को धर्मार्थी कहते हो, इससे प्रमाणित होता हैं कि तुम अब तक धर्मी नहीं बने और जिन्दगी पर्यन्त धर्म प्राप्त नहीं होगा। शाह जिनदास ने कहा- हम श्री युगप्रधान 2010_05 Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पट्टावलो-पराग के ध्यान में रहते हैं, क्योंकि मतान्तरों, गच्छान्तरों को देखकर उन पर हमारी आस्था नहीं आती। इसका धर्मसागरजी ने प्रत्युत्तर नहीं दिया । सं० १६४६ का च र्मास शाह श्री रत्नपाल ने खम्भात में किया, वहां संघवी अमीपाल, सो० महीपाल, सो० पनीया, सो० लकमसी ने शाहश्री के वचन सुनकर सिद्धाचल का संघ निकाला, शाहश्री प्रमुख अनेक संवरियों के साथ खम्भात तथा दूसरे गांवों का संघ यात्रा कर सकुशल लौटा । सं० १६५० में राजनगर में चतुर्मास किया, वहां सोन बाई ने अनशन किया और ६१वें दिन सोनबाई दिवंगत हुई । सं० १६५३ का चतुर्मासक शाहश्री ने पाटन में किया । वहां के निवासो मेहता लालजी ने शंखेश्वर का संघ निकाला। सं० १६५४ में शाह श्री रत्नपाल ने खम्भात में शाह माहवजी को संवरी किया । सं० १६५५ में शाह जिनदास ने शाह तेजपाल को संवरी किया। सं० १६५६ में शाह श्री रत्नपाल ने राजनगर में चतुर्मास किया । वहां के निवासी भणशाली जीवराज और भरणशाली देवा ने सारे सौराष्ट्र का संघ निकाला, गिरनार शत्रुजय, देव का पाटन, दीव प्रमुख सर्वत्र संघ के साथ शाहश्री प्रादि सर्व संवरियों ने यात्रा की और सकुशल वापस लौटे । सं० १६५८ में शाह राजमल दिवंगत हुए। सं० १६५६ में वस्तुपाल के बिम्ब का प्रवेश शाहश्री रत्नपाल ने करवाया। सं० १६६० में शाहश्री रत्नपाल ने राजनगर में धतुर्मास किया। वहां के भरणशाली जीवराज तथा भणशाली देवा ने प्राबु, गोडवाड़, राणपुर मादि का संघ निकाला, खंभात के साधर्मी तथा पाटन, राधनपुर, थराद के 2010_05 Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ५०७ - - संघों के साथ शाह श्री रत्नपाल आदि संवरी शाह जिनदास, शाह पुजा, शा० खेतसिंह, शा० चौथा, शा. महावजी, शा० तेजपाल, शा० ऋषभदास, शा० पुञ्जिया, शा० गोवाल, शा. हीरजी आदि बहुतेरे संवरी साथ में थे। सर्वत्र देवपूजा विधिपूर्वक की गई । श्री संघ सिरोही पाया, वहां चैत्यवासी के साथ चर्चा शाह श्री रत्नपाल तथा संघ के प्रदेश से शाह जिनदास ने की। वहां से संघ थराद आया, वहां समस्त संघ वात्सल्य १७ हुए, ६० मन शक्कर की जलेबी प्रतिदिन उठती थी, वहां संघ ३० दिन रहा और वहां से संघ राधनपुर तथा पाटन गया, सर्वत्र संघ वात्सल्य हुए। इस प्रकार सकुशल यात्रा करके संघपति तथा शाहश्री प्रमुख सर्व घर पाए। सं० १६६१ में खम्भात मे चतुर्मासक किया और वहां पर शरीर में बाधा उत्पन्न हुई, शाहश्री ने जिनदास को अपने पद पर स्थापन किया और स्वयं अनशन पूर्वक स्वर्गवासी हुए। साधर्मियों ने चन्दन प्रमुख से देहसंस्कार किया। शाहश्री रत्नपाल १० वर्ष गृहस्थ रूप में, २१ वर्ष सामान्य संवरी के रूप में और पांच वर्ष पट्टधर के रूप में रहकर ४६ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर परलोकवासी हुए। ७. रत्नपाल के पट्ट पर शाह श्री जिनदास : शाहश्री जिनदास का जन्म थराद में श्रीश्रीमाली बोहरा जयसिंह की भार्या यमुनादे की कोख से हुआ था, जिनदास शाह नरपति के वचन से संवरी बना था। ___सं० १६६२ में शाहश्री जिनदास राजनगर में चतुर्मासक किया, वहां के निवासी भणशाली देवा सुलतान का मर्जीदान था, उसने प्रतिष्ठा के मुहूर्त पर फाल्गुण वदि १ को पाने की कुकुम पत्रिका लिखकर संघ को आमंत्रण दिया था, अनेक गांवों का संघ वहां एकत्रित हुमा, श्री ऋषभदेव की प्रतिमा एक ८५ अंगुल की प्रतिमा दो ५७-५७ अंगुल ____ 2010_05 Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ ] [ पट्टावली-पराग की बड़ी, प्रतिमा एक ३७ अंगुल की बड़ी सब मिलकर १५० प्रतिमाएँ जिनदास ने तथा उनके आदेश से अन्य संवरी श्रावक ने प्रतिष्ठित की, इस समय उनमें से अधिकांश प्रतिमाएँ राजनगर में घांसी की पोल में भगशाली देवा द्वारा निर्मापित जिनचेत्य में तथा उसके भूमि-घर में विराजमान हैं। सं० १६६३ में शाहश्री ने पाटन में चातुर्मास किया और वहां पर परीख लटकरण ने बिम्ब प्रवेश कराया, मेहता लालजी ने भी बिम्ब प्रबेश कराया, बहुत उत्सव हुए, शाह मावजी ने "नर्मदासुन्दरो रास" बनाया। सं० १६६४ शाहश्री ने राधनपुर में चतुर्मास किया और उसी वर्ष राजनगर से भणशाली पंचायण ने शखेश्वर का संघ निकाला, उसी वर्ष में खंभात में शाह माहवजो चतुर्मास रहे हुए थे, वहां सोनी वस्तुपाल की भार्या वैजलदे ने प्रतिष्ठा कराने का निचय किया । शाहश्री के आदेश से प्रतिष्ठा की गई, वहां दोसी शाह कल्याण शाह माहवजी के वचन से संवरी हुआ। सं० १६६५ में शाहश्री खम्भात में चतुर्मास रहे, वहां बाई वैजलदे ने १२ व्रत ग्रहण किये, शाह माहवजी राजनगर में चतुर्मासक थे, वहां भणसाली देवा ने शान्तिनाथ का बिम्ब-प्रवेश कराने के लिए शाहश्री को वहां बुलाया, शुभ दिन में बिम्बप्रवेश करवाया। सं० १६६६ में शाहश्री राजनगर में थे, शाह जीवा को संवरी किया, शाह माहवजी खम्भात में चतुर्मास थे, वहां २३ वर्ष का आयुष्य पूर्ण कर शाह माहवजी दिवंगत हुए । शाह कल्याण खम्भात में थे, वहां धर्मनाथ के बिम्ब का प्रवेश कराने के लिए शाहश्री को बुलाया और मार्गशीर्ष सुदि ६ को बिम्ब-प्रवेश कराया गया। वहां के संघ ने शाह कल्याण को पढ़ाने के लिए, शाहश्री को सौंपा, इस समय पाटन निवासी परी० लटकन ने शत्रुञ्जय का संघ निकालने का निश्चय किया और खम्भात से शाहश्री को बुलाने के लिए आमन्त्रण किया। शाहश्री पाटन पाए, वहां से संघ का प्रयाण हुमा, वहां से राजनगर पाए, थराद का संघ भी अहमदाबाद आया, भरणशाली ____ 2010_05 Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ५०६ -- देवा प्रमुख सब शामिल हुए। शाह श्री जिनदास, शाह तेजपाल, शाह खेतसिंह, शाह चौथा, शाह ऋषभदास, शाह कल्याण, शाह जीवा, शाह पूजिया, शाह रुडा प्रमुख बहुतेरे संवरी शत्रुञ्जय की यात्रा करके सकुशल राजनगर पाए, भणशाली देवा ने सार्मिक वात्सल्य किया, उसके ऊपर सात संघ वात्सल्य थराद के संघ ने किए, इस प्रकार सकुशल संघ पाटन पहुँचा। शाहश्री ने वहां चतुर्मास किया। शाह तेजपाल और कल्याण ने राधनपुर चतुर्मासक किया। शाहश्री पाटन से राधनपुर गए, वहां से थराद गए, सो० तेजपाल, शाह कल्याण, शाह जीवा साथ में थे, वहां ४५ दिन रहे, वहां पर शाह तेजपाल ने "नागनत्तुग्रा" की सज्झाई बनाई, वहां से वाव, सोहीगाँव, मोरवाड़ा, महिमदाबाद आदि स्थानों में विचरते हुए राजनगर आए। सं० १६६७ में शाहश्री ने चतुर्मास खम्भात में किया और शाह तेजपाल ने राजनगर में, शाह तेजपाल ने "दशपदी" और "पागडिसा पंचदशी" बनाई। शाह श्रीवन्त १६६८ में राजनगर में और तेजपाल खम्भात में रहे। सं० १६६६ में खम्भात में चतुर्मास रहे, वहाँ शाहश्री के शरीर में बीमारी उत्पन्न हुई और शाह तेजपाल उस समय राजनगर थे। ___ सं० १६७० में शाहश्री ने राजनगर में चतुर्मास किया और शाहश्री के आदेश से शाह तेजपाल तथा कल्याण थराद रहे। शाहश्री ने शाह विजयचन्द्र को संवरी बनाया। इसी वर्ष में शाहश्री का शरीर रक्त-पित्त की पीडा से व्याप्त हुआ। शाहश्री ने संघ को इकट्ठा किया और धूमधाम के साथ भणशाली देवा के चैत्य में पाकर देववन्दन किया, फिर उपाश्रय पाकर शाह श्री तेजपाल को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठित किया और शाहश्री अनशन-पूर्वक दिवंगत हुए। शाह श्री जिनदास १७ वर्ष गृहस्थ रूप में, ३३ वर्ष सामान्य संवरी के रूप में और ६ वर्ष पट्टधर के रूप में रहकर अपने पट्टधर शाह श्री तेजपाल को स्थापन कर ५६ वर्ष का प्रायुष्य पूरा कर स्वर्गवासी हुए। ___ 2010_05 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० ] [ पट्टावली-पराग ८, शाह श्री जिनदास के पट्टधर शाह तेजपाल : शाह तेजपाल का जन्म खम्भात में सो० वस्तुपाल की भार्या कीकी की कोख से हुआ था। शाह श्री तेजपाल शाह श्री जिनदास के वचन से संवरी हुआ था, अच्छा विद्वान् था। भट्ट पुष्कर मिश्र के पास चिन्तामरिण शास्त्र पढ़ा था, पढ़ाई का मेहनताना प्रतिदिन का एक रुपया दिया जाता था। शाह श्री तेजपाल थराद में ठहरे, उस वक्त अनेक व्रत पच्चक्खाण हए। मोदी हंसराज की माता जीवी ने अनशन किया, २२ दिन तक अनशन पालकर बाई ने आयुष्य समाप्त किया, बाई का दहन-संस्कार कर संघ समस्त उपाश्रय आया, शाहश्री के मुख से श्ल क सुनकर सब अपने स्थान गए। उसके बाद शाहश्री राजनगर पाए और भणशालो देवा ने स्वागत किया, उपाश्रय में जाकर श्लोक सुनाया। शाहश्री १६७१ में पाटन में परीख लटकन के आग्रह से चतुर्मासक रहे। वहां श्री तेजपाल ने "संस्कृत-दीपोत्सवकल्प" बनाया। चतुर्विशति जिनस्तोत्र, छन्द, स्तुति वगैरह रचे । शा० कल्याण खंभात में चतुर्मासक थे, राजनगर निवासी भणशाली देवा ने छरीपालते शत्रुजय जाने की इच्छा की। चतुर्मास के बाद शाहश्री को वहां बुलाया और कार्तिक वदि ५ को शुभ मुहूर्त में यात्रार्थ प्रयाण किया, साथ में बहुतेरे परसमवायी थे। अनेक साधर्मी पाटन निवासी परी० लटकन, खंभात के संघवी अमीपाल, सो० हरजी प्रमुख संघ और परगच्छीय यात्रिक मार्ग में छरीपालते चलते थे, अनेक गांवों के संघ सम्सिलित होकर सिद्धाचल के दर्शनार्थ चले। मार्ग में एकाशन १, भूमिशयन २, उभयटक प्रतिक्रमण ३, त्रिकाल देवपूजन ४, सचित्तत्यजन ५, ब्रह्मवत-पालन ६, पादचलन ७, सम्यक्त्वधरण ८ इत्यादि अनेक नियमों का पालन करते हुए पाठम और पाक्षिक के दिन एक स्थान में रहते २२ दिन में श्री शत्रुञ्जय पहुँचे । शाहश्रो आदि संवरी और भरणशाली देवादि समस्त संघ ने श्री ऋषभदेव के दर्शन कर मनुष्य जन्म सफल किया । शाह रामजी तथा शाह हाँसु को शाहश्री ने सवरी बनाया, आठ 2010_05 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ५११ दिन तक वहां रहकर १७ भेदादि पूजा करके समस्त संघ के साथ भणशाली देवा धौलका होते हुए सकुशल अपने घर पहुंचे। सं० १६७२ में खम्भात में चतुर्मासक किया। शाह कल्याण ने राजनगर में चतुर्मासक किया, वहां के संघ ने ब्याख्यान के समय पर उनके लिए पट्टक प्रासन स्थापन किया। भणशाली देवा ने शान्तिनाथ का परिकर प्रतिष्ठित करने के लिए चौमासा के बाद शाहश्री को वहां बुलवाया और शुभ दिन में परिकर को प्रतिष्ठा कराके स्थापित किया। भगशाली देवा को शाह सलीम ने हस्ती अर्पण किया और भरणशाली देवा के पुत्र भरणशाली रूपजी को अजमेर में सुलतान ने हस्ती अर्पण किया। सं० १६७३ में राजनगर में शाहश्री का चतुर्मासक था। वहाँ श्री भरणशाली देवा ने १२ व्रत १५ मनुष्यों के साथ ग्रहण किये, उनके नाम परी० वीरदास, मं० संतोषो, मं० शवजी, शा० हरजी, परी. देवजी, शा० पनीया, गणपति प्रमुख थे । उनको सुवर्ण वेढ की प्रभावना दी गई, दूसरों को मुद्रिका की प्रभावना दी। . शा० कल्याण ने सं० १६७३ में खम्भात में चतुर्मास किया । वहाँ बाई हेभायी ने प्रतिष्ठा करवाने की इच्छा व्यक्त की, जिस पर से शाहश्री को वहां बुलाया गया । शाहश्री ने फाल्गुन सुदि ११ का प्रतिष्ठा-मुहूर्त दिया । शाह श्री तेजपाल ने विमलनाथ की प्रतिष्ठा की, बाई हेमायी ने संघ को वस्त्र की प्रभावना दी। सं० १६७४ में शाहश्री ने फिर राजनगर में चतुर्मास किया और शा० कल्याण को पाटन भेजा। सं० १६७५ में चैत्र सुदि में भणशाली देवा ने प्राबु, ईडर, तारंगा का संघ निकाला, सर्वत्र कुकुम-पत्रिकाएँ भेजी । खम्भात से प्रमीपाल सो०, हरजी संधवी, सोमपाल सं०, भीमजी सो०, नाकर शाह, सोमचन्द प्रमुख पाए । सोजित्रा से बौहरा वांचा प्रमुख पाए, 2010_05 Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ ] [ पट्टावली-पराग अहमदाबाद से भणशाली मूलिया, शा० देवजो, शा० लटकन, शा० वस्तुपाल, प० वीरदास, शा० हीरजी प्रमुख संघ में पाए । भगशाली देवा बड़े ठाट से चले, साथ में हाथी, घोड़े, पालको प्रमुख सामग्री के साथ अपने स्वजन कुटुम्ब के साथ भरणशाली देवा, भार्या देवलदे, पुत्र रूपजी, भ० खीमजी, पौत्र भ० लालजी, भ० देवा की बहिन रुपाई, बेटो राजबाई, सोनाई, भ० भाई कोका, भतीजे भ० विजयराज तथा भणशाली जीवराज के पुत्र भ० सूरजी, भार्या सुजाणदे, तत्पुत्र भ. समरसिंह, भ० अमरसिंह आदि परिवार के साथ सघ ने प्रयाग किया। प्रथम श्री शंखेश्वर की यात्रा कर वहां से पाटन आए, वहां संघ वात्सल्य दो हुए, वहाँ से संघ सिद्धपुर यात्रा करते पाबु पहुँचे, अचलगढ़ होकर देलवाड़ा गए, पूजादि उत्सव हुए, वहाँ से फिर अचलगढ़ होकर नीचे उतरे और पारासरण की यात्रार्थ गए, वहाँ से ईडर यात्रा कर तारंगा गए। तारंगा से वडनगर पहुँचे, वहाँ भ० देवा ने संघ वात्सल्य किया, वडनगर के नागर ज्ञातीय बोहरा जीवा ने संघ वात्सल्य किया। भ० कोका ने वस्त्रार्पण किया और भ० समरसिंह ने मुद्रिका को प्रभावना की, इस प्रकार यात्रा करके पटनो, राधनपुरी, संघ को विदा किया और भणशाली शाह देवा सकुशल राजनगर पहुंचे और शाहश्री आदि सांवरियों ने भणशाली देवा के आग्रह से सं० १६७५ का चतुर्मास वहीं किया। शाह कल्याण को चातुर्मास्य के लिए खम्भात भेजा। इस वर्ष में बाई वाली ने अनशन किया और शाह खेतसी, शाह चौथा, शाह ऋषभदास प्रमुख संवरियों की निर्यामरणा से चित्त स्थिर रखकर ५७ वें दिन वह दिवंगत हुई। इस चतुर्मास्य में शाह श्री तेजपाल ने "सप्तप्रश्नी" आदि अनेक प्रकरणों की रचना को और राजनगर निवासी भणशालो शाह पचायत ने छरो पैदल संघ निकाला। चैत्रादि स० १६७५ के कार्तिक वदि १३ के दिन संघ का प्रयाण हुमा, साथ में हाथी, घोड़े, रथ, पालकी प्रमुख साज समान आदि था । पाटन, राधनपुर, खम्भात, आदि स्थानों के भी सार्मिक समाज संघ में सम्मिलित हुए, बड़े उत्सव के साथ यात्रा प्रभावना हुई और संघ वहां से सकुशल वापस राजनगर आया, अहमदाबाद में भ० देवा ने ___ 2010_05 Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ-परिच्छेद ] [ ५१३. नोकारसी की और सर्व गच्छों में जामी एक, मोदक एक की लाहण की, अपने गच्छ में सर्व साधर्मियों को गद्याणा एक के केवेलिये दिए, भ० देवा ने धर्म की बड़ी उन्नति को, बाद में भ० कीका दिवंगत हुआ। सं० १६७७ में शाह तेजपाल और शाह कल्याण ने एक साथ चतुर्मास किया, वहाँ एक दिन दोनों साथ में स्थण्डिल गए, वहाँ लुम्पक के दो वेशधर मिले, उन्होंने आते ही शाहश्री को कहा – “धर्मसागर ने कहा - वह यथार्थ मिला" इसके उत्तर में शाहश्री ने कहा हमारे सम्बन्ध में तो ५-७ पाने होंगे, परन्तु तुम्हारी भक्ति तो उन्होंने बहुत की, उन्होंने कहा - कहिये क्या बात है ? तब शाहश्री ने कहा बात कहने से स्पर्धा बढ़ती है, इसलिए स्पष्ट न कहना अच्छा है, उन्होंने कहा - कहिये तो सही बात क्या है ? शाहश्री बोले - लो सुनो "प्रवचन परीक्षा" में तुम्हारे जिनदत्तसूरि तथा तरुणप्रभाचार्य को निन्हव ठहराया है, उनकी बहुत सी भूलें निकाली है, तब खरतरों ने कहा - अब रखिये, हम जानते थे कि तुम इन बातों से अपरिचित होंगे, इस पर लुंका ने कहा - अच्छा किया, इनकी पोल खोल दी। वहाँ से मार्गशीर्ष सुदि में भ० पंचायत ने श्री शंखेश्वर का संघ निकाला। सं० १६७८ में तथा १६७६ में शाहश्री पाटन ठहरे और वहां पर अनेक स्तवन सज्झाय, शतप्रश्नी आदि बनाये। शाह श्री कल्याण को इन्हीं दो वर्षों में खम्भात में चतुर्मासार्थ भेजा, वहां लुम्पक के साथ चर्चा हुई और लुका को निरुत्तर होना पड़ा। सं० १६७६ थराद में तपों के घर १७ है और कडुआमति के ७०० घर हैं वहां कडुवा मन्दिर में तपा देव-वंदन करने आये, तब घर से अबोटिये पहनकर जाएँ, पूजा करने के बाद, गीतगान सुनने का मन हो तो पगड़ी उतार कर रंग मंडप में बैठकर सुने, यदि पगड़ी बन्धी रखने को इच्छा हो तो वे मंडप के बाहर बैठे यह हमेशा की व्यवस्था है । दमियान गान्धा हरजीवन का भतीजा गाँधीलालजो पगड़ी न उतार कर रंग मंडप में बैठा. ___ 2010_05 Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ ] [ पट्टावलो-पराग कडुप्रामतियों ने उसको हमेशा की रीति से बैठने को कहा - पर लालजी ने नहीं माना और बात खींचतान में पड़ गई। गांधी हरजीवन ने राधनपुर के तपागच्छ को लिखा, "यहाँ कडुअामतो बहुत हैं, अगर आप हमारी मदद नहीं करेंगे तो हम भी तपा मिटकर कडुवामती बन जायेंगे।" सं० १६७६ के भाद्रवा सुदि २ के दिन पत्र पहुंचा और सभा में पढ़ा गया, पंन्यास ने कहा - धर्म के खातिर चक्रवर्ती का सैन्य मार डालने पर भी पाप नहीं लगता, तपा का साथ कढुवामती का और कडुवामती का साथ तपा का उपाश्रय गिराने आये, उपाश्रय में कुछ पौषधिक बैठे थे, चित्त को स्थिर कर बैठे रहे, तपा के साथ ने कडुवामती उपाश्रय का छप्पर गिरा दिया, अन्दर बैठे हुए स्थिर रहे और कहने लगे - हमसे आपको कोई भय नहीं है, हमारे शाहश्री का यह उपदेश नहीं है कि हम किसो को मारें, बाद में मेहता रत्ना के पुत्र म० बीरजी के पौत्र म० संघवी ने दूसरे मनुष्यों को बुलाकर तपा के साथ को रोका, वह छप्पर गिराकर चला गया, बाद में वहाँ के कडुवामतियों ने थराद अपने सामियों को लिखा कि आज यहाँ इस प्रकार की घटना घटी है, पत्र पढ़कर सबको दुःख हुअा, कितने कडुवामती तपा का उपाश्रय गिराने के लिए तैयार हुए, पर शाहश्रो खेतसी ने रोका, दोसी रत्ना, सेठ नाथा आदि ने उन्हें समझाकर रोका, बाद में थराद का संघ अजमेर सुल्तान शाह सलीम के पास जाने को रवाना हुअा। राधनपुर का तपा सेठ बाला भी बादशाह के पास जाने को रवाना हुप्रा, इतने में राजनगर से भ० देवापुत्र खीमजी तथा तपा का शान्तिदास भी बादशाह के पास जाने को रवाना हुआ, सब अजमेर पहुंचे, थराद का संघ भण. खीमजी को मिलने गया। खीमजी ने कहा – यदि द्रव्य का काम हो तो मुझे कहना, शाहश्री कडुवा के समवाय की बात ऊँची रहे वैसे करना । संघ के बादशाह के पास जाने के पहले, संघवी चन्दु तपा ने मेहनत कर संघ को अपने घर लेजाकर जिमाया और तपा के साथ से उपाश्रय ठीक करवाने की कबूलात करवायी और रुपया १० केसर खाते देने का निश्चय हुआ, इस प्रकार समाधान कर सब अपने स्थान गए। कडुवामती सकुशल थराद पाए, घर आने के बाद राधनपुरी तपा समाज ने कडुवा का उपाश्रय ___ 2010_05 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - :' चतुर्थ-परिच्छेद ] [१५ ठीक नहीं करवाने का निश्चय किया, इतना ही नहीं राधनपुरी तपा साथ ने कडुवामतियों के साथ असहकार करते थे, इस प्रकार बहुत दिनों तक झगड़ा चलता रहा, तपा बहुत थे तो भी कडुवामतियों के सामने उनका कुछ भी नहीं चला, अहमदाबाद बन्दा करवाने आए, परन्तु भ० रूपजी, समरसिंह की शर्म से किसो ले बन्दा नहीं किया, बाद में थरादरी में मोरवाडा, सोहीगाँव, वाव प्रमुख सर्व गाँवों में कड्डुवामती और तपात्रों के आपस में झगड़े चले, पर कडुवामती पराजित नहीं हुए। सं० १६८० के बाद थराद का संघ दो० रत्ना, सेठ नाथा प्रमुख और राधनपुरोय महेता वीरजी प० मूला प्रमुख सर्व प्रहमदाबाद आजमखांन को मिलकर मोदी हंसराज, मोदी वधुग्रा, राधनपुरी तपा को बुलाने गए, उन्होंने सब बात सुन ली थी, इसलिए वे पहले से ही निकल गए थे और उनको वीरमगाँव में मिले, वहां मोदी हंसराज ने बहुत आदर किया। वे सब साथ मिलकर राजनगर पाए, दरमियान हाकिम प्राजमखांन की मृत्यु हो चुकी थी, अब आगे क्या करना, यह संघ के सामने प्रश्न खड़ा हुआ और सब ने मिलकर यह निश्चय किया कि अब बादशाह के पास जाना, यह बात तपा शान्तिदास के कानों पहुँची, उसने सोचा कि थराद के प्रागेवान बादशाह के पास जायेंगे तो मुझे भी बुलायेंगे। इसलिये मुझे पहले ही से अपनी व्यवस्था कर लेनी चाहिए। यह सोचकर वह राधनपुरीय तपाओं के पास जाकर बोला -- कडुवामती बादशाह के पास जायेंगे तो मुझे भी बुलायेंगे, इसलिए तुम्हारी बात रखनी हो तो मैं कहूं वैसा करो। आगे उसने कहा - मेरा कहना यह है कि तुम सब सागरगच्छ के साथ रहना कबूल करके लिखत करो और उस पर सही करो। अधिकांश राधनपुरियों ने शान्तिदास की बात मान लो और शान्तिदास ने सही ले ली और रूपजी के पास आकर बोला - मैं कुछ आपसे चीज मांगता हूँ । भणशाली ने कहा - कहिये वह क्या है ? शान्तिदास ने कहा-थराद और राधनपुरी संघ के आपस में मेल करा दो और १० रुपये केसर के मुझ से ले लो। बाद में शान्तिदास भणशाली को अपने साथ लेकर ईदलपुर गया और थराद के संघ को वहां बुलाकर उनकी सब बातें शान्तिदास सेठ ने कबूल करवाई, सेठ को वस्त्र देकर 2010_05 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ ] [पट्टावलो-पराग और बाकी सबको श्रीफल देकर आपस में समाधान किया, बाद में थराद के संघ ने राधनपुर में सार्मिक वात्सल्य किया। राजनगर में साधर्मिक वात्सल्य किया, अहमदाबादी संघ ने राधनपुर को तथा थराद के संघ को भोज दिए, भ० रूपजी, भ० समरसिंह ने सार्मिकों को वस्त्र प्रभावना दी, इस प्रकार अनेक उत्सव हुए और सकुशल अपने स्थान पहुंचे। शान्तिदास के मनुष्य ने आकर कडुवामती का उपाश्रय ठीक करवाया। राधनपुर के तपात्रों में सागर के पक्ष में सही करने के कारण आपस में क्लेश हुप्रा । शाह श्री तेजपाल सं० १६८० में खम्भात में चतुर्मासक ठहरे और शाह श्री कल्याण को पाटन भेजा, शाहश्री ने खम्भात में "नयी स्नान विधि" तैयार की, श्री शान्तिनाथ की प्रतिष्ठा की। सं० १६८१ में शाहश्री ने संघ के प्राग्रह से फिर खम्भात में चातुर्मास किया। शाह कल्याण ने राजनगर में चातुर्मास किया, वहां पर शाहश्री के आदेश से लटकन के पुत्र शाह देवकरण की तरफ से बिम्ब प्रवेश किया पौर शाह रूपजी की तरफ से मार्गशीर्ष में उत्सव-पूर्वक बिम्ब प्रवेश किया। सं० १६८२ में शाहश्री ने राजनगर में चतुर्मास किया और शाह कल्याण को पाटन, तथा शाह विजयचन्द्र को खम्भात भेजा। राजनगर के चतुर्मास में भरणशाली पंचायन प्रमुख ८५ मनुष्यों ने अट्ठाई की, वहां पर शाहश्री ने सीमन्धर स्वामी का "शोभातरंग" बनाया. बड़ा सुन्दर ४३ ढालों में पूरा हुआ है, श्री अजितनाथ की स्तुति, अवचूरी के साथ बनाई। . सं० १६८३ में राजनगर में भण० देवा की बहिन रूपाई ने प्रतिष्ठा के लिए बीनती की, शाही ने सं० १६८३ के ज्येष्ठ सुदि ३ के दिन मुहूर्त दिया। सर्वत्र कुंकुम पत्रिकाएँ भेजी गई । रत्नमय, पित्तलमय, पाषाणमयप्रतिमा ७५ की प्रतिष्ठा हुई। सं० १६८३ में शाहश्री ने पाटन में चतुर्मास किया, शाह कल्याण को खम्भात चतुर्मास के लिए भेजा। ___सं० १६८४ में शाहश्री ने खम्भात में चतुर्मास किया और शाह कल्याण ने राजनगर में और शाह विजयचन्द्र ने राधनपुर में भण. देवा के ____ 2010_05 Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतर्थ- परिच्छेद 1 [ ५१७ पुत्र भ० रूपजी ने अपने साधर्मी भाइयों और बहिनों के चखला, नौकाय वाली, पौषध आदि का वेश और बाइयों को साड़ी नौकार वाली, एवं हाथी दांत के डांडी काले चखले प्रभावना में दिए, इस वर्ष में शाहश्री ने संस्कृत में "वीरतरंग " और "अजिततरंग" बनाये - जिनका श्लोक प्रमाण अनुमानतः दस हजार है और शाह कल्याण ने "धन्य विलास” की रचना की जिसकी ढालें ४३ हैं तथा "युगप्रधान पट्टावली" की टीका संस्कृत में बनायी तथा " युगप्रधान वन्दना" प्रमुख श्रनेक ग्रन्थों की रचना की, इस प्रकार कडुवागच्छ मत की पट्टावली अष्टम पट्टधर विराजमान शाह श्री तेजपाल के प्रसाद से शाह कल्याण ने सं० १६८५ के पौष सुदि पूरिंगमा पुष्य नक्षत्र के योग में बनाई । ( कडुआ मत की लघुपट्टावली के आधार से अन्तिम दो नाम ) शाह कल्याण विद्यमान, १६८५ । ε. १०. शाह भल्लू । ११. शाह भाग । 2010_05 समाप्त Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि - पत्रक प्रशुद्ध पृष्ठांक पंक्त्यङ्क शुद्ध गुर्वावल्य स्थविर बार्द्धवय सघ एयायरियस्स विण्रणेय निगंथा भंतेवासी स्यविर काकद सभूतविजय १२ १३ १५ ४ २२ २१ गुर्वावल्यः स्थविर वार्द्धवय संघ एगायरियस्स विष्णेयं निग्गथा अंतेवासी स्थविर काकंद संभूविजय १७ १७ १२ १५ प्रज्जतावसाया स्यविर सभूतविजयजी कोडंबाणा स्यविर अज्जतावसानो स्थदिर संभूतविजयजो कोडबाणी स्थविर २०१ २०१७ २० २० २० २२ २० २४ २२ २ २२ २१ रोहगुप्त राहगुप्त चउत्ययं गोडा . बउस्थय गोंगा ___ 2010_05 Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] पृष्ठांक पंक्त्यक २३ १७ २५ ४ अशुद्ध भद्दीया बभदासिय तियं शुद्ध भद्रीया बंभदासिय बितियं त० तं. एत्य एत्थरण एत्यणं एत्थ एत्थ रणं एत्थणं २५ २५ २६ ११ १३ २६ २४ अंतिम २८ २४ २८ अंतिम २६४ २६ २१ कासवगुत्ते आर्य आर्यसिंह हत्थि तत्तोय रासवगुत्ते आय प्रायसिंह हत्थि तत्तो य दुर्जपन्त काश्यप गानाय स्यविर प्रौर बगाल पूजापाट दुर्जयंत ३० १० ३० ११ ३० १६ ३४ १५ ३७ १४ ३९८ ज्ञत काश्यप गोत्रीय स्थविर और बगाल पूजापट ज्ञात प्रार्य यह अयथार्थ गाथाओं वीस वासारिण यशोभद्र ४२ ४४ अर्य कह प्रयथाथ शाखामों वीसवसारिण यशाभद्र उनमें सभूतविजयजी २५ ८ ४६ ४७ २० १८ अंतिम २ ४८ ५२ उनसे १७ संभूतविजयजी 2010_05 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक पंक्त्य ५३६ ५४ ३ ५३ or "" sror ५५ Kc ६५७ ६५ २३ अशुद्ध स्कन्दि सघ स्थविर श्रमणसघ सघ सगोत्त वि० स० दा हजार शिलाण्ट निर्वाण स० बाता प्राश्चय परम्पस "जमालि खडे बचा प्रयोग बनहा शयाक्रियोपयुक्त श्रमणो संध जाव करते हैं पकवान सिद्धान्त लक्ष्मोधर रामयादि तट पर ये स्थित गोष्ठामाल सम्यववादो 1 9 822 ६ ६८ २४ स्कंदिल संघस्थविर श्रमण संघ संघ सगोतं वि० सं० दो हजार शिलापट्ट निवारण सं० बातों आश्चर्य परम्परा “जमालि" खडा वचन प्रयोग बनता शयन क्रियोपयुक्त श्रमणीसंघ जीव करता है पवान्न सिद्धान्त लक्ष्मोघर समयादि तट पर थे स्थित गोष्ठामाहिल सम्यग् वादी ६६६ ६६ २७ ७० १६ ७० २२ ७१ ११ ७१ १६ ७४६ ७५ ७५ ७६ __८१ २१ २२ २१ १६ ___ 2010_05 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध [ 7 ] पृष्ठांक पंक्त्यङ्क ८४ २३ षटलक उपलब्ध पटलक उपलब्ध शिवभूते" ८८ १६ १४६ १४ १० १०१६ शिवभूति" दीक्षा ग्रन्थों दोक्षा ग्रन्थों प्रयोग हा नहीं दिव्यवावदान प्राची घटनाओं आर्यमा कषाप्राभृत १२१ २२ १२२६ १२२६ १२३ १५ १२४ २१ १३३ १८ १३३ २० १३५ १३७ प्रयोग हो नहीं दिव्यावदान प्राचीन घटनाओं आर्यमंक्षु कषायप्राभूत पुराण सैद्धान्तिक पंचास बाद ३० वर्ष ऊहापोह स विग्न प्रद्योतनसूरि कृन्नमेनागपुरे ऽधिकर्वीर मानतुंग को कवि होकर निर्वृति बनाया मणिरत्नसूरि चैत्यवन्दनादि जानकर १४० १४० पुरुण सिद्धान्तिक पचास बद ६० वर्ष ऊहपोह संविज्ञ प्रद्योवनमूरि कृन्नमेनागिपुरे ऽधिकै वीर मानतुग कवि दोकर निवृत्ति बनाना मणिरत्नप्रभसूरि चैत्यवन्दादि जाकर १५ १४० १४२ १४४ १४४ १४५ १४८ १४६ १६ १२ ८ 2010_05 Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध [ ५ ] पृष्ठांक पंक्त्यक १४६ १३ १४६ २१ १५१ १५२ १० १५४ १५७ १५७ १५६ प्रशुद्ध पड था अचार्य विज्ञप्तिलेखन विमलसरि खं त मालिक फजल के तीजे बादशाह का प्रजन हुप्रा था था। काई नहीं आचर्य श्री दल बदल सातबन्दर देश में सुत्तत्यदायगा सधा वर्ष मानते सूमति साधुसूरि XEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE !! 2M... * पड़ा था प्राचार्य विज्ञप्ति लेख विमलसूरि खंभात मलिक फजल के भतीजे बादशाह को अंजन हुआ था। कोई नहीं आचार्य श्री बल वादल सूरतबन्दर देशों में सुत्तत्थदायगा सच्चा वर्षों १६० २० १६१ १६ १६२ १२ १६३ १६७ १७१ १७१ १७५८ १८१ १८२ १८२ १८३ १३ १८५ १६ १८५ २६ १८७ १८८ १८८६ १८८ मानने सुमति साधुसूरि स० सं. मेरा हससोम गच्छाधिप १५३६ तुर्मुख मेरो हंससोम गच्छाधिप or worm uru चतुर्मुख लुंगा लुका सहकोषधि सहस्रोषधि 2010_05 Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशुद्ध वहीं प्रश्नादक तैय्यार वटियां निश्चित [ ६ ] पृष्ठांक पंक्त्यक १८८ १३ १८८ १४ १८८ १५ १८६ २ १८६ १५ १६१ २१ १६१ २१ वह नकी वृन्तान्त १६१ वहां प्रश्नादिक तैयार वहियां निश्चित यह नकी वृत्तान्त और संघवी संघविन संघवी उत्तराधिकारी अपने कुछ १९३ १६४ . १६४ अंतिम १६५ १९५९ १६६ १६ सघवी संघविव संघवी उतराधिकारी प्रपये कुछ पहुंचते पट्ट पर मेहे एयो सहुसने यतियों की पहुंचने निरुतर १६७ २५ २०० ७ २०० १६ २०२ १० २०२ २३ २०३ १६ २०३ १६ २०६६ २०६६ २१६ ३ २१९ २१६४ २२० पट्टपर मेहेल्यो सहुसेन यतियों को निरुत्तर पार्टियां विजयमान सं० १६७३ विजयसेन त्रीसमइ पाटि भवियण मनरंजइ विजय जिनेन्द्र पार्टियों विजयभान स० विजयसेन भीसमइ पाटिन-विग्रण जिनरंजइ विजय जितेन्द्र ام or m mr » 2010_05 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमशः * or n प्रशुद्ध कामः इसी पट्टावली के उत्यापिता तया प० दयालवि० गुणसमुन्द्रसूरि पाश्वचन्द्र आचार्यपद स० मानतुग सूरि सघ सभा रवखे अन्यथा सधुनों ने समुदयों के चतुर्मास्य दुर्गाचर्य कालान्तर से गर्गचार्य धर्म भवना परलो. चत्य की पृष्ठांक पंक्त्या २२० । २२० २० २२० २० २२१ २२४ २२७ २२८ २२६ २२६ २३१७ २४५ २४५ २० २४७ २४७ ११ २४७ १७ २४७ २४६ २४६ २२ २४६ २२ २४६ २७ २४६ २५१ १३ २५१ १४ २५१ १६ पट्टाबली में उत्थापिता तथा पं० दयालवि० गुणसमुद्रसूरि पार्श्वचन्द्र आचार्यपद सं. मानतुंग सूरि संघ सभा रक्खे प्रन्यदा साधुमों ने समुदायों के चातुर्मास्य दुगाचार्य कालान्तर में गर्गाचार्य धर्म भावना परलोक चैत्य की पाम्रदेव सरि सम्पापक जिन नवा कथयत स० १३.५ " " २५८८ २५८ १३ २५६ १३ पाम्रदेव सूरि सम्पादक जिनं नत्वा कथयतः सं. १३०५ 2010_05 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध वधमा सूरि द्रम्भ मध्य भरतीय ज्ञत सम्बधी चादिए निग्व विविधि चन्द्रसूरि श्रीर तलहटो माम छात्र कहनी बनाया पहल होगा ? न होगा ६ स्थन उलने निषद्ध जिनप्रति सूरि उठने पट्ट नेमिचन्द्र सजानो उसको लिखना चत्यवासी सवत्र 2010_05 [ 5 ] पृष्ठांक पंक्त्यङ्क २५६ १५ २६१ १२ २६१ १३ २६१ १८ २६३ ७ २६३ २६४ २६५ २६६ २६८ २६६ २६ε २७१ २७२ २७५ २७५ २७६ २७६ २७६ २७६ २७७ २७८ २७८ २७८ २७८ २७८ २७६ २५० IS ज्ञात सम्बन्धी २२ चाहिए २ निरव विविधि १६ चन्द्रसूरि जिनपति को और तलहट्टी नाम ८ १६ ४ ८ १४ १० १७ २५ ३ १५ १५ १७ १८ १६ १६ शुद्ध वर्धमान सूरि द्रम्म मध्य भारतीय '' मात्र कहानी बनवाया पहले होगा ?, न होगा ७, स्थान उसने निषिद्ध जिनपति सूि उठाने पट्टे नेमिचन्द संजा उसके द्वारा लिखे जाने में चैत्यवासी सर्वत्र Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशुद्ध बुद्धिसगर पालडदा आने की गुरु के तक जुदउं अने को गुरु का जक बावाए तयार अभयदव जुदडं पुत्रों में कठोग करना श्रीधस्शंकराः स्थापना की, भावना स्थान श्रीमति त्रिचरे [२ ] पृष्टाफ पंक्त्यङ्क शुद्ध २८०५ बुद्धिसागर २८३ -टिप्पणी १ पाल उदा २८३ -टिप्पणी २ २८३ , ५ २८५ ३ २८७ १४ २८७ -टिप्पणी ३ २८८ १८ बनवाए २८६ २ . तैयार २८६ २० अभयदेव २६१ टिप्पणी १६ २६२ १४ पुत्रों से २६२ १५ कठोर २६३८ कराना २६३ १५ श्रीधरशंकराः स्थापना की भावना २६३ १६ स्थान २६४ श्रीमती २९६ विचरे २६६ ४ पद २६६१२ स्थापन ३००१० वाचनाचार्य ३०२ टिप्पणी १२ मिल्लई ३०२ टि० १६ समवाय ३०२ टि० १६ अविहि ३०३ टि० १५ राजत्वकाल ३०५ ५ तीर्थयात्रा स्वीकार व्रत स्यापन वाचनाचर्य भिल्लई समवास अघहि राजस्वकाल तीथ यात्रा स्त्रीकार ___ 2010_05 Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १. ] पृष्ठांक पंक्त्य ३०६ टि० १० ३०६ टि० १६ ३०७ टि. ७ ३११ ४ ३११ ११ शुरु पप्रभाचार्य तमाशबीन कारितं दसणस्स सं० १२५२ पत्तन भंग महावीर साधुनों की सुन्दर सैकड़ों पदस्थापना अर्हद्दत्त विवेक श्री चन्द्रमाला सं० १२८० पद्मावती जिनहितोपाध्याय ____ चारित्रसुन्दरी उज्जयन्त ३१२ ३१३ ३१३ ३१३ मशुद्ध पद्यप्रभाचार्य तमाशाबीन कारित दसरणस्स सं० १२५ पतन भग महवीर साधुमोंक सुदर सैकडी पदस्थापना महद्दत विवेक प्री चन्द्रयाला सं०१-८० पद्मावता जिनाहितोपाध्याय चरित्रसुन्दरी उज्चयन्त सं७ कलक्ष की तिष्ठा परिमण जिनेश्व सूरि देव भण्डगार कल्यार ऋद्धि वोजापुर चत्य बाडड ७ ३ १२ १२ ३१३ ३१३ १४ ३ ३१४ ४ ३१५ १० ३१७ २१६ ३१६ ३१६ ३२२ कलश की प्रतिष्ठा परिमारण जिनेश्वर सूरि देव भण्डागार कल्याण ऋद्धि १६ २५ २३ बीजापुर चैत्य बाहड ३२४ २२ ___ 2010_05 Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक पंक्त्यङ्क ३२५ ३ ३२५ ३२५ २५ ३२५ ३२६ २० ३२६ १७ ३२६ २१ ३२६ स्तूपमूर्ति चैत्य से वडगांव से पावापुरी स्थापना ज्ञानलक्ष्मी विधिसमुदाय उच्चापुरी उनके साधुनों को अशुद्ध स्तूतमूर्ति चैत्र में वडगांव में पावपुरी स्थापना ज्ञनलक्ष्मी विधिममुदाय उच्चापुरोय उनको साधुओं की सघ जिनासा राजेन्द्राार्य हेमभषण भो लाटहद जसलमेरु बहरामपुर बनाकर प० अमृतचन्द्र टहर ३३० ३३१ १४ ३३१ टि०१ संघ जिनाज्ञा ३३३ अंतिम ३३५८ ३ ३३६ ३४० ३४० ७ २४ ३४१ अंतिम १२ ३४१ ३४२ ३४३ ३४३ राजेन्द्राचार्य हेमभूषण भी लाटहद जेसलमेरु बहिरामपुर बताकर पं० अमृतचन्द्र ठहर संघ मुंगथला लौटकर रूप्य टंक छोटे से पढकर संघ सघ ७ मुंगुथला लोटकर रूप्य टक छोटे में पढंकर सघ ३४३ ३४३ ३४४ ३४४ १५ २१ १३ २० ___ 2010_05 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध ३५० ३५१ ३५२ [ १२ ] प्रशुख पृष्ठांक पंक्त्या स० १३६० सं० १३६० दिवगत ३४६ दिवंगत पटरइ पाटर ३४६ श्री विस्तार ३४७ निस्तार सघ बहिष्कृत संघ बहिष्कृत संघ संघ सभव संभव चामत्कारिक ३५३ चमत्कारिक वामावती रात्रिक ३५४ वामावर्ता रात्रिक संकडों ३५४ सैकड़ों दिया गया ३५५ किया गया निरूण ३५५ निरूपण यथाकोश ३५७ कथाकोश दूसगेये दूसगेय बैठने ३५८ नत्वा ३५९ नत्वा, जिनप्रभ प्रचार्य आचार्य आचर्य ३६५ प्राचार्य नेमिचद्र ३६७ नेमिचन्द्र बुद्धिसाग सूरि ३६७ २० बुद्धिसागर सूरि नामधेय ३६७ २२ नामधेयं विरुद्ध ३६८ ३ विरुद प्रत अन्त पाश्वनाथ प्रतिष्ठा ३७१ अंतिम पार्श्वनाथ की प्रतिष्ठा सकाशाद्वृहीतं ३७५ १७ सकाशाद्गृहीतं पृष्ठांक ३८१ पंक्ति ७ में "श्रावकों के" इन शब्दों के आगे . "कुलों की नाम सूचियों के भूङ्गले लिखकर" पढें । प्रास्तित्व ३८२ २२ अस्तित्व बैठाने जिनभद्र ३६३ ३६३ ___ 2010_05 For Private & Personal Use only Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध चाउवण्णे सघो कुशल तया लघुषरसंगजी तेजसिंहजी पंच्च्यसिए बाधकर अनुयायियों मे निकालकर सीघस्थ छ । संदिदत्र श्रायनाग उपभ्रंश नाम छोड़कर उटपरांग सं० १५३३ दशवेकालिक को यानेंगे घाडी गोडे संघ के कल्पित कया रवाने तकल यांत्रिक साम वस्त्रापात्र शा० निकालने सूत्रों को 2010_05 [१] पृष्ठकि पंचत्यङ्क ३८६ २१ ३८७ ३ ३८७ १२ ३६७ २२ ३६७ २५ ४०६ ६ ४०७ ४०८ ४१० ४११ ४१२ ४१२ ४१२ ४१२ ४१४ ४१४ ४ १५ ११ १२ १७ २१ २६ २७ ७ १६ ५ ४१५ १० ४१५ १६ ४१५ १६ ४१६ ६ ४१६ १४ ४१६ १४ ४१६ २२ ४१७ २२ ४१८ ४१६ ४२० ४२० ४२२ ३ अंतिम २ ३ शुद्ध चावण्णो संघो कुशील तथा लघुवर संगजी तेजसिंहजी पंच्यासिए बांधकर अनुयायियों में निकालकर सीघस्थ छे । सं डिल्ल आर्यनाग अपभ्रंश नामों को छोड़कर उटपटांग सं० ० १५५३ दशवेकालिक की मानेंगे गाडी घोडे संघ का कल्पित कथा खाने नकल यात्रिक सामने वस्त्रपात्र ऋ० निकलने सूत्र को Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुरु [ १४ ! पृष्ठांक पंक्त्यङ्क ४२३ २ छोपा धर्मदास दीक्षा ४२३ अमीपाल ४२६ १६ बीच हुए शास्त्रार्थ ४२७ १ १८७८ ४२७६ १८७८ ४२८ पाटा बांधकर ४२८ हकमो १२६ छीना दोक्षा प्रभोपाल बीच शास्त्रार्थ १७८७ सं० १७८७ पाय बांधकर हमको वहां मर्यादा में माये वक्तचन्द साधते सवरद्वार से विजयदेव ने नहीं न दे स्त्रा करले माथे दिवमें इष्टि ने पट्टघर सुतागमों की प्रस्तावनो जग्रपाल गरिण शकरसेन उन्मूनाचार्य सकने स्वास्तिसूरि गोविन्दवाचक कोष्टक के ४३० ४३१ ४३२ ४३२ ४३२ ४३२ ४३२ नहीं दे س سه سه » ع سه سه م वहां न पाकर मर्यादा ३ में न आये १० वखतचन्द सांधते १३ संवरद्वार में १६ विजयदेव के २१ २२ स्त्री कर लें माहे दिवसे दृष्टि से १८ पट्टधर १ सुत्तागमे की प्रस्तावना १४ जयपाल गणि शंकरसेन उन्मनाचार्य २ सकते स्वातिसूरि १५ गोविन्दवाचक कोष्टक में ४३७ ३३६ m ३३६ ३३६ ३३६ ४४२ 2.-".uru ४४२ ___ 2010_05 Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध वज्रशाख विद्याघर मानला भार्ग सस्बन्ध नामों से मी एकमत्य तब्र कटार सूत्रों में वहार सूत्र जनवाणी सुतागमे मुनिवय सस्था बैटकर चैत्य इन नाम चैतस् प्रायश्चित शिष्यि हुआ या जाने का दक्षिणात्य नयां स्थानक मूर्तियां प्रप्रमाणिक 2010_05 [१५] पृष्ठांक पंक्त्य ४४३ १२ ४४३ १६ ૪૪૬ ५ ૪૪ ४४५ ४४५ ४४५ ૪૪૨ ४५० ४५१ ४५१ ४५१ ४५३ ४५.३ ४५३ ४५६ ४५६ ४५७ १२ १६ १७ १८ ८ ४६१ ४६४ ૪૪ ४६५ ५ ३ १४ २६ १८ २० २३ २० २१ १० ४५७ १५ ४५८ १ ४५८ १६ ४६० १३ ४६० ४६१ २० २ २३ £ ११ २० शुद्ध वज्रशाखा विद्याधर मानना मा सम्बन्ध नामों से भी ऐकमत्य तब कत्तर सूत्र में से व्यवहार सूत्र जिनवाणी सुत्तागमे मुनिवर्यं संस्था बैठकर चैत्यं इस नाम चैतस प्रायश्चित्त शिष्य हुआ था जाने की दाक्षिणात्य नया स्थानक मूर्तियों अप्रामाणिक Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक पंक्त्यक ४६५ २१ हटाया रचकर विषयों को ४६६ १० सूझाया प्रशुद्ध हटाए स्वकर विषयों का सुझाया वे कारण सखा मानगे संक्षिप्त प्रकार्णक फैसले उनकी ४६६ ४७० ४७० ४७० के कारण सरवा मानेंगे संक्षेप प्रकीर्णक फासले उसकी ४७१ ४७३ ४ ४७३ १२ ३ ४७४ ४७५ ४७५ हत्थारणापुर लेखक ने बूटेरायजी ने घीसीलालजी शुद्धि प्रतियों विश्वास पढने तुझ से पन्यास हत्थरगापुर लेखक को बूटेरायजी घासीलालजी शुद्ध प्रतियों विश्वास पडने मुझ से पन्यास ४७६ ४७७ १७ ४७८ २ ४७६ १८ ४८१६ ४८१ १६ ४८१ २१ ४८३३ ४८५७ ४८८ १३ ४८८ २१ ४८८ २३ ४६१ १३ चतुर्मास्य कार्योत्सर्ग चत्यवासो सवरी चतुथ पन्यास चातुर्मास्य कायोत्सर्ग चैत्यवासी संवरो चतुर्थ पंन्यास ___ 2010_05 Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध , चतुथ उहोने नामा पढा ४६७ १८ ५०१ xxx [ १७ ] पृष्ठांक पंक्त्यङ्क ४६१ १६-१७ चतुर्थ पंन्यास ४६१ २० उन्होंने माना ४६४६ पढाया बताता ४६७ ८ वजीर शाह ४६७ अंतिम पगडी ४६६ ४ शाह श्रीरामा तुम्हारा ५०१ १२ होगी सो सज्जन ने ५०३ संघ अंतिम .. दिन दिवंगत ५०५ स्तवन ५०५ खेतसी चतुर्मास ५०७ जिनदास ने राजनगर ५०८ ११ शंखेश्वर निश्चय ५०६ पट्टपर ५११ १३ वीरदास ५१२८ संघ ५१२ सब ५१२ २३ पंचायन ५१२ २४ सं. १६७५ ५१२ २६ सामान ५१३ ५ चतुर्मास बोले ५०३ बताया वजीरशाह गगडी शाह श्रीराग तुम्हारे हुई तो सज्जन ते सघ जिन दिवंगत स्वतन खेतश्री च मास जिनदास राजनगर शखेश्वर निचय पट्टधर वोरदस सब संघ पंचायत स. १६७५ समान चतुर्भास बले ५०६ ० ५१३ 2010_05 Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध पंचायत रंग मंडप मंडा के बहु चखला चखले 2010_05 [ १ ] पृष्ठांक पंक्त्यङ्क ५१३ १६ ५१३ २५ ५१३ ५१४ ५१७ ५१७ २६ ३ १ शुद्ध पंचायत रंग मंडप मंडप के बहुत चरवला चरवले Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2010_05