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तृतीय-परिच्छेद ]
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(१६) श्री वृद्धदेवसूरि (२०) प्रद्योतनसूरि (२१) मानदेवसूरि (शान्तिस्तव कर्ता)
(२२) मानतुगसूरि ( भक्तामर कर्ता)
(२३) वोरसूरि, इस समय के दान देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण हुए जिन्होंने ६८० में वलभी नगरी में सर्वसिद्धान्त लिखवाए, इसी समय में श्री कालकाचार्य, जिन्होंने भाद्रपद शुक्ल ५ से चतुर्थी पर्युषणा पर्व किया, यह घटना वोर निर्वाण से ९६३ में बनी। इसके पहले दो कालकाचार्य और हुए, प्रथम श्यामाचार्य जो ३७६ में, द्वितीय गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य वीर से ४५३ में, फिर इसी समय के भीतर श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (विशेषावश्यक भाष्य कर्ता) हुए, जिनके शिष्य शोलाङ्काचार्य ने प्राचारांग
और सूत्रकृतांग की वृत्ति बनाई और इसी समय के लगभग प्रसिद्ध श्रुतधर हरिभद्रसूरि हुए।
(२४) श्री जयदेवसूरि, (२५) देवानन्दसूरि, (२६) विक्रमसूरि, (२७) नरसिंहसूरि, (२८) समुद्रसूरि, (२६) मानदेवसूरि, (३०) विबुधप्रभसूरि, (३१) जयानन्दसूरि, (३२) रविप्रभ, (३३) यशोभद् (३४) विमलचन्द्रसूरि ।
(३५) श्री देवसूरि, इनके सुविहित मार्गाचरण से सुविधि गच्छ ऐसी प्रसिद्धि हुई।
(३६) श्री नेनिच द्रसूरि (३७) श्री उद्योतनसूरि - इनसे चौरासी गच्छों की उत्पत्ति हुई ।
(३८) वर्धमानसूरि । (३६) जिनेश्वरसूरि बुद्धिसाग सूरि "जिनेश्वरसूरिमुद्दिश्यातिखरा एते इति राज्ञा प्रोक्त तत एव "खरतर-विरुद" लब्धं, तथा चैत्यवासिनां हि पराजयप्रापरणात् "कुवला" इति नामधेय प्राप्ता एवं च सुविहितपक्षधरका जिनेश्वरसूरयो विक्रमतः १००० वर्षेः "खरतर" विरुदधारका जाताः।"
पट्टावली के उपर्युक्त फिकरे में राजा दुर्लभ द्वारा जिनेश्वरसूरि को "अतिखर" और इनके सामने चर्चा करने वालों को "कोमल" कहलाया है।
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