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________________ ३६८ ] [ पट्टावली-पराग इन शब्दों से यही अर्थ निकलता है कि जिनेश्वरसूरि ने वसतिवास का निर्भयतापूर्वक प्रतिपादन किया, तब चैत्यवासियों ने इनके मुकाबिले में चैत्यवास का प्रतिपादन कोमलतापूर्वक किया, इस शब्दप्रयोगों से विरुद्ध प्रदान मान लेना यौक्तिक नहीं माना आ सकता है। (४०) जिनचन्द्रसूरि (४१) अभयदेवसूरि एक समय में प्राचार्य-पद प्राप्त करने के बाद प्राचार्यश्री अभयदेवसूरिजी ने नव रसों का पोषण किया, जिसे सुनकर सभा आनन्दित हुई, परन्तु गुरु ने उन्हें उपालम्भ दिया, तब अभयदेवसूरिजी ने आत्मशुद्धयर्थ प्रायश्चित्त मांगा और गुरु ने १२ वर्ष तक आचामाम्ल व्रत करने का प्रादेश दिया? अभयदेवसरिजी ने गुरु का वचन स्वीकृत करके छः ही विकृतियों का त्याग किया, परिणाम स्वरूप उनके शरीर में गलत्कुष्ठ रोग की उत्पत्ति हो गई, बाद में स्तम्भनक पार्श्वनाथ की स्तवना करके प्रतिमा निकलवाई, जिसके स्नात्रजल से शरीर नीरोग हुना, बाद में सृरिजी ने नवांगसूत्रों की वृत्तियां बनाई और प्रत में कपड़वंज में अनशन कर चतुर्थ देवलोक प्राप्त किया। (४२) जिनवल्लभरि - ___ जिनवल्लभसूरि जो पहले कूर्चपुरीय गच्छ के जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे, इन्होंने "पिण्डविशुद्धिप्रकरण", "गणधर२ सार्द्धशतक", "षडशीति" प्रमुख अनेक शास्त्र बनाये थे। जिनवल्लभ सं० ११६७ में देवभद्राचार्य द्वारा प्राचार्य बने और छः मास तक प्राचार्य-पद भोगा। इनके समय में "मधुकर खरतर" शाखा निकली तथा इन्हीं के समय में शासन देवता के बचन से प्राचार्य के नाम की आदि में "जिन" शब्द रखने की प्रवृत्ति चली। १. समयसुन्दरजी की पट्टावली में ६ मास का प्रायश्चित्त लिखा है। २. "गणधर सार्द्धशतक" जिनवल्लभसूरि की कृति नहीं, यह जिनदत्तसूरि की कृति है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002615
Book TitlePattavali Parag Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay Gani
PublisherK V Shastra Sangrah Samiti Jalor
Publication Year1966
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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